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राजकमल चौधरी, और ज्याँ जेने की आतंरिक समीपता: सुरेंद्र चौधरी

सुरेंद्र चौधरी और राजकमल चौधरी गया कॉलेज, गया के दिनों से दोस्त थे. राजकमल की मृत्यु के तत्क्षण बाद मुक्ति-प्रसंग की समीक्षा लिखने के अतिरिक्त बहुत दिनों तक सुरेंद्र चौधरी ने उनपर लगभग नहीं लिखा. अपनी दुविधा को अपनी एक अप्रकाशित पुस्तक में वे कुछ ऐसे स्पष्ट करते हैं, ” मैंने राजकमल की कहानियों पर अब तक कुछ नहीं लिखा. मेरे मन में उस दोस्त लेखक के लिए एक संशय सदा बना रहा . क्या मैं इस आदमी के द्वारा उसके लेखन को जान सकता हूँ? क्या वह किसी भी अर्थ में पूर्ण होगा? उसके लेखन और समय से काफी दूर आकर मैं अपनी जिज्ञासा दुहरा भर सकता हूँ! मेरा ख्याल है कि वह अपने कथा-साहित्य के लिए याद किया जाय या न किया जाय  मगर मुक्ति-प्रसंग के लिए याद किया जाएगा.”

जहाँ तक मेरी जानकारी है, सुरेंद्र चौधरी ने राजकमल चौधरी की कृति-केन्द्रित एक ही लेख/समीक्षा लिखी है- मुक्ति-प्रसंग: एक और देह गाथा. इसके अतिरिक्त सुरेंद्र चौधरी के आलोचकीय-वृत्त में राजकमल चौधरी अक्सरहां नजर आते हैं. मुक्ति-प्रसंग की समीक्षा के अतिरिक्त अन्य प्रसंगों से दो उद्धरण यहाँ द्रष्टव्य हैं. #उदय शंकर

भावना से परिचालित होने वाले व्यक्ति का वेग तो समझा जा सकता है मगर उसकी को समझना बड़ा कठिन काम है, क्योंकि यह गति दिशा-निरपेक्ष होती है. समकालीन कवियों के एक अच्छे बड़े समूह की दिशाहीनता इसी वेग का परिणाम है. इस भावनात्मक वेग के काव्यात्मक उपकरणों को पहचानना बहुत मुश्किल काम नहीं है. आत्मोद्रेक की काव्य-शैली इसी भावनात्मक वेग से बनती है. उसकी नाटकीयता में आत्मसाक्षात्कार के घनीभूत क्षण बिरले ही होते हैं. राजकमल की आत्मोद्रेकपूर्ण काव्य-शैली के नकलची शायद ही उन घनीभूत क्षणों को पा सकेंगे जिसमें राजकमल का कवि अपने अनुभवों के सम्मुख अकेला था. फिर आत्मोद्रेक की यह काव्य-शैली वेग में जिस स्वाभाविक ढंग से अपने को तोड़ लेती है, आत्मक्षय करती है उसे दूसरे कहाँ से पाएँगे. वे बंदिशों को तोड़कर भी यह स्वाभाविक आत्म-विभाजन पैदा नहीं कर सकेंगे. राजकमल के लिए आत्मोद्रेक काव्य की शैली नहीं है, अनुभव का बंध (Mode of experience) है.

‘मुक्ति-प्रसंग’ में दो स्तरों पर काव्य-भाषा के अलग-अलग रूप मिलते हैं. उसका तंत्र अलग है. उनका व्यावहारिक रूप एक दूसरे से भिन्न है. यह द्विरूपता राजकमल की कविता में विशेष मानसिक तनाव के भीतर की अनिवार्यता अनिवार्यता है जो कि कविता में नहीं थी. ‘मुक्ति-प्रसंग’ में जहाँ एक ओर उपचार्हीं सीधी साहित्यिक संस्कार वाली बोलचाल की भाषा है, दूसरी ओर वही तंत्र के सिद्धपीठ की भाषा भी है, उसी क्षेत्र के रूपक हैं, काव्य-प्रकरण (allusions) हैं. मैं इस विशेष मनःस्थिति के भीतर के उपचारों की चर्चा एक विशेष कारण से कर रहा हूँ. इसी भीतरी-सन्दर्भ की कृच्छता चाहे जितनी संदेहजनक लगे, मगर आज की मानसिक परिस्थिति में यह असम्भाव्य नहीं है. आत्मीयता राजकमल की काव्य भाषा में, सीधी-सादी तेवर वाली भाषा भी है, मुहावरे समकालीन जीवन के पूरे विस्तार से चुने गए हैं.

 

mukti-prasang

मुक्ति-प्रसंग: एक और देह गाथा

By सुरेंद्र चौधरी

ज्याँ जेने पर सार्त्र ने अपनी पुस्तक के मार्फ़त लोगों को चौंकाया था, यों पुस्तक चौंकाने के लिए नहीं लिखी गयी थी जितनी एक विशिष्ट उद्देश्य से, अस्तित्वादी मनोविश्लेषण को उदाहृत-व्यवस्थित करने के लिए लिखी गयी थी. मुक्ति-प्रसंग में अज्ञेय का एक पत्रांश उद्धृत किया गया है और इसका कोई सम्बन्ध इस पुस्तक से नहीं है-कवि से उसके सम्बन्ध की बाबत मैं यहाँ नहीं कह रहा- इसलिए उसे हम चौंकाने, परिभाषित करने या बहलाने वाला वक्तव्य नहीं मान सकते. क्या अज्ञेय जी का यह कथन कि ‘मृत्यु का स्वीकार, मैं मानता हूँ, आत्मा की या यह न पसंद हो तो कहूँ कि चेतना की एक गहरी आवश्यकता है; और उस स्वीकार में एक तरह की स्वस्थता भी मिलती है,’ ‘मुक्ति-प्रसंग’ की रचना का वैचारिक आधार बन सका है? क्या राजकमल चौधरी की प्रस्तुत रचना के सन्दर्भ में उसकी कोई अनिवार्यता है? क्या हम ‘मुक्ति-प्रसंग’ की वस्तु से उसका कोई आत्मिक सम्बन्ध जोड़ सकते हैं?

‘मुक्ति-प्रसंग’ नाम से जैसा कि कुछ दिनों पूर्व तक प्रपद्यवादी मानते रहे हैं, इसकी सार्थकता प्रमाणित हो पाती है कि किन्तु नामों का भ्रम अक्सर व्यवहार में हुआ करता है. तत्काल हम नाम-माहात्म्य पर न जाएँ. चूँकि मृत्यु पूरी कविता की मनःस्थिति को परिभाषित करती है और उसके मानसिक सन्दर्भ में व्याप्त है, इसलिए मृत्यु की वास्तविकता पर बहस नहीं की जा सकती. किन्तु मृत्यु की प्रत्यक्षता से इनकार नहीं कर सकते. यह कहना भी झटके से संभव नहीं है कि ‘मुक्ति-प्रसंग’ में न तो मृत्यु को स्वीकार करने की क्षमता स्पष्ट हो पाती है और न उसे स्वीकार के साथ अलग कर देने की. हाँ, तत्काल ऐसा जरुर लगता है कि मृत्यु के केन्द्रीय मूड में एक ‘ओनानिस्टिक’ ऐन्द्रजालिक श्रृंखला है जो हमें अतिक्रांत करती है- कभी इस आत्मविगलन से हम खीजते हैं, कभी उसकी गहराईयों में झाँकने को विवश होते हैं. कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि मृत्यु को स्वीकारने की अपेक्षा जीवन को नकारने में कवि अधिक सक्षम है. क्या राजकमल का देवता ‘मुक्ति’ नहीं है, नकारत्मक स्वतंत्रता, ‘पॉइंटलेस फ्रीडम’ है?  क्या राजकमल मृत्यु के वास्तविक सन्दर्भ में भी अपने पाताल लोक की संवेदना से मुक्त नहीं हो सका?

मृत्यु को स्वीकार कर उसे अलग कर देने की बात अज्ञेय जी ने जिस ‘हाइडेगेरियन’ स्तर से कही थी, लगता है राजकमल उसे ‘मिस’ कर गया. आत्मविषाक्त और आत्मविगलित अल्पनाएँ पूरी कविता के रूप पर इस तरह हावी हो गईं हैं कि मालूम पड़ता है जैसे उनके बीच अच्छी पंक्तियाँ, अच्छे टुकड़े अथवा कोई सशक्त मानस-प्रवाह दब कर रह गया. बहुत हद तक डॉ. माचवे के इस मंतव्य से सहमत हुआ जा सकता है कि कविता का निष्कर्ष न तो अज्ञेय जी की धारणाओं से संभव हो पाया और न कवि के अपने नकारात्मक वेग से ही. कुछ अनिश्चयात्मक स्थिति बनी रह जाती है. यह अनिश्चय मुक्ति और वरण दोनों के लिए नकारात्मक सिद्ध हो सकता है. फलतः राजकमल मुक्ति के रूप में अपने लिए जो मांग रखता है वह निरर्थक है, एक लम्बे और भावनात्मक काव्य-कर्म की यह निरर्थकता क्या बहुतों के लिए दुःखद नहीं होती?

अपने लिए व्यक्तिगत विश्वासों की एक दुनिया गढ़ लेना और उसमें रहते हुए वास्तविकता को पूरे आत्मवेग के साथ नकारते चलना जितना आसान है, मृत्यु के सन्दर्भ में उसका दबाव झेलना उतना ही मुश्किल. इतना ही नहीं, ज्यां जेने की तरह ही राजकमल भी जब विश्वासों की एक दुनिया गढ़ने के साथ अपने लिए कुछ ‘रिचुअल्स’ भी गढ़ने लगता है, तब समीक्षक के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह इन क्रियाओं की आत्मिकता को केवल खारिज करने की उतावली न करे. जैन-धर्म-मन्त्रों के साथ गिन्सबर्ग तो आए हैं किंतु जेने नहीं आया, मगर क्या आंतरिक रूप से राजकमल जेने के समीप नहीं है? इसे कुछ लोग दूर की कौड़ी समझ सकते हैं.

राजकमल अपने लिए जिस दुनिया की मांग करता है उसकी कोई व्यवस्थित तस्वीर या नैतिक अनिवार्यता भी उसके दिमाग में है या वह केवल नकारना जानता है? पुस्तक की अंतिम कुछ पंक्तियों का स्वर ‘ऐम्वीवैलेन्ट’ है. वैसे विद्रोह इतना नकारत्मक नहीं होता, और फिर मुक्ति-प्रसंग विद्रोह की कविता कहाँ है? वह तो अनुभव के एक नितांत आतंरिक स्तर पर मृत्यु को स्वीकार कर जाने का दर्शन है! स्पष्ट है कि अज्ञेय का मंतव्य राजकमल की चेतना में प्रवेश करने से रह गया है, शायद उसकी दुनिया में यह मंतव्य है ही नहीं! जब वह कहता है कि ‘ मैं इस शव के गर्भ में हूँ और यह शव मेरे कन्धों पर है’, तब ऐसा लगता है कि अज्ञेय जी के शब्द उसकी चेतना पर ‘फलैट’ पड़ रहे हैं!

नकार के इस अबाध वेग के बावजूद इस प्रसंग में एक आर्द्र करने वाली आन्तरिकता है. यह आन्तरिकता कैसे परिभाषित होती है? क्या राजकमल के विश्वासों में? उसके पास विशवास नहीं है! वरण में? वरण की आत्मक्षमता भी उसमें वैसी उत्कट नहीं है! फिर? इस आन्तरिकता को न तो उसके नकार के दर्शन से परिभाषित किया जा सकता है और न ही उसकी स्वीकारात्मक शाब्दिक भूमिकाओं से ही. यह अनिवार्यता बनती है वस्तुतः जीने की उसकी लालसा से, इसी से वह परिभाषित भी होती है. जिजीविषा और मुमुक्षा तो राजकम के लिए केवल पारिभाषिक शब्द हैं!

मृत्यु की भयावहता का गहराता हुआ रंग पूरी कविता पर तो नहीं, मगर उसके कुछ अंशों पर तो इतना है कि केवल उन अंशों से जीवन के प्रति उसकी निर्लसता का वक्तव्य खंडित हो जाता है. ‘एनेस्थेशिया’ के प्रभाव की तरह यह रंग नीला है, मृत्यु का रंग, कूलक्षय करती हुयी नदी का रंग, असीम आकाश का रंग, अपूर्ण, अपनी कामनाओं से विवश स्त्री का रंग! आत्म-स्वीकृतियों में जरुर इमानदारी और सच्चाई है जो कवि को उनके प्रति मुक्त करती हुई मालूम पड़ती है. मसलन,

नदी के किनारे वापस चले आना, तुम्हारी नियति है,

हर बार प्रत्यागमन

वह आदि वर्ण वह नीलापन

तुम कभी नहीं पाओगे अपराजित कभी.

या…

 

सबके लिये सबके हित में

अस्पताल चला गया राजकमल चौधरी

लिखने-पढ़ने, गाँजा-अफ़ीम-सिगरेट पीने

मरने का अपना एकमात्र कमरा अंदर से बन्द करके

दोपहर दिन के पसीने, पेशाब, वीर्यपात

मटमैले अँधेरे में लेटे हुये

धुँआ, क्रोध, दुर्गंधियाँ पीते रहने के सिवा

जिसने कोई बड़ा काम नहीं किया

अपनी देह

अथवा अपनी चेतना में

इस उम्र तक.

यह आत्म-विवृति कभी आंतरिक अनुभव के स्तर पर गहरे अवसादक प्रभाव उत्पन्न करती है. जैसे इन पंक्तियों में:

जटिल हुए, किन्तु

कोई भी प्रतिमा बनाने योग्य नहीं हुए

उसके अनुभव!

अपने आन्तरिक और निकटतम देश में घूमता हुआ यह व्यक्ति कभी-कभी गहरी आत्मलीनता में गहरे मानवीय अर्थों के प्रति अवाचक सचेत हो गया-सा मालूम पड़ने लगता है. यों उसे अपनी व्यर्थता का पूरा-पूरा बोध है और उस व्यवस्था का भी, जिसने उसे इतना व्यर्थ बना दिया है! इस गहरे आत्मबोध से कवि से स्वर में निजता के साथ वास्तविक गहराई आ जाती है.

नहीं करूँगा औरों के अपराध

मेरे वकील और मेरे न्यायाधीश यहाँ नहीं

उस सफ़ेद ठण्ड कमरे में प्रतीक्षारत हैं मेरे लिए

यहाँ नहीं बोलूँगा

सफाई के वकील, अभी मैं चुप हूँ.

और अभी मैं चिंताग्रस्त हूँ.

इस चिंताग्रस्त मानस के कई मानसिक आयाम हो सकते हैं, वस्तुतः हैं. राजकमल खुद भी एक खुली पुस्तक है, इतिहास-पुरुष चाहे वह न भी हो. इस अर्थ में मुक्ति-प्रसंग का कवि पारदर्शी है, इसे उसकी कविताओं से भी जाना जा सकता है. गहरी होती मृत्यु-छायाओं के बीच भी राजकमल पारदर्शी है, रहस्य के रंग भरना उसे नहीं आता.

राजकमल की आन्तरिक्ता को इन थोड़े-से उदाहरणों से मैंने परिभाषित नहीं किया, वस्तुतः वह परिभाषा की चीज भी नहीं है. मगर हिंदी कविता के समकालीन स्वरुप से वह इस अर्थ में भिन्न है कि उसका त्रास, अकेलापन, मृत्यु से साक्षात्कार और इन सब मनःस्थितियों में जूझता हुआ कवि-मानस ‘फ़ेक’ नहीं है. इसी वास्तविकता ने मुक्ति-प्रसंग को दर्शन की रिक्तता की सीमाओं के बावजूद पठनीय बना दिया है.

***

सर्व-प्रथम, आलोचना, १९६७ के किसी अंक में प्रकाशित. फिर, उदयशंकर द्वारा संपादित सुरेंद्र चौधरी के प्रकाशित लेखों के संकलन के तीसरे भाग, ‘साधारण की प्रतिज्ञा: अँधेरे से साक्षात्कार’ में पुनर्प्रकाशित.

 

एक साम्यवादी के साहित्यिक पर्चे: उस्मान ख़ान

कथा-साहित्य के एक विधा के रूप में ‘व्यंग्य’ को व्याख्यायित करने का पहला गंभीर प्रयास हिंदी में सुरेंद्र चौधरी द्वारा संपन्न हुआ है. वे व्यंग्य को ‘आत्मतंत्र-स्वतंत्र’ विधा के रूप में चिन्हित करते हैं. चौधरी जी मानना है कि व्यंग्य के लिए माकूल संयोजन सर्वप्रथम मध्यवर्गीय जीवन और दूसरी, संक्रमणशील परिस्थितियाँ  द्वारा संपन्न होता है. वे कहते हैं, “मध्यवर्ग की जीवनदृष्टि में जो समझौता परस्ती है वह व्यंग्य के लिए गुंजाइश पैदा कर देती है. व्यापक रूप से मध्यवर्ग का जीवन ही व्यंग्य का विषय रहा है.” संक्रमणशील परिस्थितियाँ यही है कि पुराना युग ख़त्म हो रहा है, नया युग आ रहा है। पारंपरिक और रूढ़िवादी मान्यताएँ टूट रही हैं और आधुनिक जीवन शैली आ रही है। धार्मिक जीवन मूल्यों का  ह्रास और सेक्युलर जीवन-मूल्यों की संभावना का उभार आदि संक्रमणशील परिस्थितियों के कुछ उदाहरण हैं। लेकिन, पुराने और नए में टकराहट, सामंजस्य और नहीं तो एक अजीब तरह की खिचड़ी, सामने नज़र  आती है। सुरेंद्र चौधरी इसी ‘खिचड़ी’ का एक उदाहरण प्रेमचंद की कहानी ‘आँसुओं की होली’ से देते हैं- ” बेचारे  सिलबिल सचमुच सिलबिल थे। दफ्रतर जा रहे हैं, मगर पायजामे का इजारबंद नीचे लटक रहा है, सिर पर पफेल्ट कैप है मगर लंबी-सी चुटिया पीछे झाँक रही हैं…।” 

व्यंग्य पर विचार करते हुए जो चीज़ परेशान कर रही है, वह है समकालीन कहानियों से व्यंग्य की भंगिमा का ही गायब हो जाना। सुरेंद्र चौधरी ने  था – “मात्र चमत्कारिक और आश्चर्य प्रदान करने के झटके व्यंग्य की कोटि में आज नहीं आ सकते। दूसरी चीज़ यह है कि आज हमने बहुत हद तक अंतर्विरोधों से समझौता कर लिया है और मानने लगे हैं कि मानव-जीवन में अंतर्विरोध कोई पाप नहीं है। यदि कोई इस अंतर्विरोध को अपने व्यक्तित्व का संप्रसार; (व्हिट्मैन  – आई एम वास्ट, आई कंटेन मल्टिट्यूड्स) मान लेता है तो फिर उस पर व्यंग्य करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है।”

फ़िलहाल परसाई, व्यंग्य और लेखकों के राजनीतिक कार्यभार से संबंधित उस्मान खान का यह लेख पढ़ें! #तिरछीspelling 

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‘आवारा भीड़ के ख़तरे’ और संकट की निरंतरता

By उस्मान खान 

अधिकांश आधुनिक सामाजिक क्रांतियों में साहित्यिक नेतृत्वकारी भूमिका में रहे हैं। आज भी ऐसे साहित्यिक हैं, जो समाज की दिशा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। मशीनों और तकनीक के उत्तरोत्तर विकास, मुनाफ़े की अंधी दौड़ और अतिउत्पादन ने साहित्य और साहित्यिक का समाजीकरण किया। आज हर कोई कवि है, लेखक है। साहित्य का ऐसा उत्पात भारत में कभी नहीं हुआ था। इन बदलावों ने साहित्य के समाज का विस्तार तो किया ही, साथ ही उसकी प्राचीनकाल से बनी रही पवित्रता को भी नष्ट कर दिया। सामंतकालिन भारत में साहित्य मनोरंजन का साधन था, शिक्षा का माध्यम था, साथ ही साथ पवित्र भी। उपनिवेशी-पूंजीवाद के मजबूत होने के साथ भारत में साहित्यिक की स्थिति में बदलाव हुआ। वे राजनीति में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगे। इस प्रक्रिया में नए ढंग का साहित्य निर्मित होने लगा। उपन्यास जैसी पूंजीवादी युग में जन्मी विधा ने हिन्दी-साहित्यिकों को भी अपने प्रभाव में ले लिया।

हिन्दी-साहित्य के इतिहास में सामंतकाल में भी साहित्यिकों और राजनीति के अंतर्संबंध देखे जा सकते हैं, लेकिन पूंजीवादी युग के प्रारम्भ के साथ ही नई राजनीति का भी जन्म होता है, यह लोकतन्त्र की राजनीति थी, इसीने दक्षिणपंथ और वामपंथ जैसी आधुनिक राजनैतिक धाराओं का विकास किया। हिन्दी के साहित्यिक भी इन दो खेमों में बंटते चले गए।

यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति कला के तीनों स्तरों – शास्त्रीय, लोकप्रिय और लोक – पर अपना असर डालती है। साहित्य के भी तीनों स्तरों पर राजनीति ने अपना प्रभाव डाला है। पूंजीवादी युग का साहित्य राजनीति को समझे बिना नहीं समझा जा सकता। राजनीति पूंजीवादी युग के साहित्य का प्रमुख संदर्भ है। प्रेमचंद इस संदर्भ को समझते थे, साथ ही साहित्य का मूल्य उनके लिए राजनीति की दिशा तय करने में था। साहित्य पर ऐसा विश्वास कम लोगों का होता है।

हरीशंकर परसाई प्रेमचंद और वामपंथ की परंपरा के साहित्यिक हैं। वे राजनीति को साहित्य के लिए अपवित्र क्षेत्र नहीं मानते। और उनके साहित्य पर प्रमुख आक्षेप भी यही है कि वे राजनीति के संदर्भ का अत्यधिक प्रयोग करते हैं, इसी कारण वे तात्कालिक लेखन करते हैं, उनका लेखन कालजयी नहीं है। बल्कि वे साहित्यिक ही नहीं हैं। वास्तव में, कुछ समीक्षक साहित्य के अनंत क्षेत्र-विस्तार से डरते हैं। वे यह नहीं मान पाते कि साहित्य निरंतर अपना क्षेत्र-विस्तार करता जाता है। यही साहित्य का स्वभाव है। क्या कबीर को कवि मानने में समीक्षक लंबे समय तक बाधा नहीं बनते रहे?

पूंजीवादी युग ने साहित्य के क्षेत्र-विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इंटरनेट-मोबाईल, रोबोट और अत्यधिक भारी मशीनें, बुलेट-ट्रेन और पॉर्न… साहित्य अपना क्षेत्र-विस्तार करता जा रहा है। इसे स्वीकार ना करना ख़ुद को धोखा देना है।

व्यंग्य एक विधा की तरह पूंजीवादी युग में ही विकसित हुआ। कविता, निबंध, लेख, कथा, उपन्यास आदि विधाओं से अंतर्संबंध स्थापित कर व्यंग्य विधा विकसित होती रही है। हिन्दी-साहित्य में व्यंग्य विधा के प्रमुख निर्माताओं में हरीशंकर परसाई का नाम लिया जाता है, यह निश्चित ही उन समीक्षकों के कारण नहीं, जो परसाई को लेखक ही नहीं मानते। परसाई ने उन समीक्षकों की उपेक्षा कर बुरा नहीं किया।

व्यंग्य-विधा के विकास में राजनीति की भूमिका और भी स्पष्ट हो जाती है। व्यंग्य का प्रधान विषय अफसरशाही, भ्रष्टाचार और बाह्याडंबर रहे हैं। आश्चर्य है कि स्वस्थ हास्य-व्यंग्यकारों ने वामपंथी धारा को ही मज़बूत किया। दक्षिणपंथी राजनीति के पैरोकार हास्य-व्यंग्य से परहेज़ करते हैं। परसाई ने ‘वनमानुष नहीं हँसता’ में इस ओर संकेत किया है। इस संग्रह में अक्तूबर १९८८ से नवंबर १९९४ तक की रचनाएँ शामिल हैं। १० अगस्त १९९५ को उनकी मृत्यु हो गई। इस संग्रह में शामिल रचनाएँ उनकी प्रौढ़तम रचनाएँ हैं।

इस संग्रह के लेखों के लिखे जाने का समय भारत में आर्थिक नीतियों, सामाजिक-सम्बन्धों और राजनीति के क्षेत्र में तेज़ बदलावों का समय था। इसे संक्रमण-काल कहा जा सकता है। इसने वर्तमान भारत के निर्माण को निश्चित किया। भारतीय समाज और साहित्य में तब से अब तक निरंतर बने रहने वाले संकट को परसाई ने अपनी इन रचनाओं में विश्लेषित करने की कोशिश की है। सभ्यता का संकट सदी या साल देखकर शुरू नहीं होता। वर्तमान साहित्य के संकट की जड़ें इसी संक्रमण-काल में हैं।

संग्रह का पहला लेख ‘आवारा भीड़ के ख़तरे’ है, इसे संग्रह का सबसे उत्तेजक लेख कहा जा सकता है। यह लेख यूँ शुरू होता है – “एक अंतरंग गोष्ठी-सी हो रही थी युवा असंतोष पर। इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया – पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर मॉडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा। काँच टूट गया। आसपास के लोगों ने पूछा कि तुमने ऐसा क्यूँ किया? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया – हरामजादी बहुत खूबसूरत है।

हम ४-५ लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह मानसिकता क्यों बनी? बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं – पश्चिम के सम्पन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी।

“क्या यही मानसिकता आज हत्या और बलात्कार के विडियो बनाने तक नहीं ले आई है? परसाई इसके लिए युवाओं को दोष नहीं देते, उनके अनुसार बड़े-बूढ़ों की कथनी-करनी में अंतर देखकर युवा भ्रमित होते हैं, निराश होते हैं, और इस तरह के कदम उठाते हैं। पूंजीवादी सभ्यता के विस्तार और प्रभाव को युवाओं के संदर्भ में समझने का प्रयास करते हुए वे पिता, गुरु, समाज के नेता और फासीवाद के अंतर्संबंधों को भी स्पष्ट करते जाते हैं। वे इसे युवाओं में आस्था का संकट भी कहते हैं क्यूंकी “सब बड़े उनके सामने नंगे हैं।“

यह लेख एक अपील की तरह है। समाज और राजनीति के विद्रुप को उजागर करते हुए परसाई युवाओं से विचारधारा, संकल्पशीलता, सकारात्मक उत्साह, संगठित संघर्ष की आशा करते हैं। साथ ही वे यह तथ्य भी दर्शा देते हैं – “पर मैं देख रहा हूँ, एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दक़ियानूसी हो गई है।“ युवाओं की हताश-नकारवादी स्थिति का प्रमुख कारण बेरोज़गारी है। ये बेरोज़गार युवा धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगते हैं। फासीवादी राज्य के निर्माण की प्रबल शक्ति ये बेरोज़गार हैं।

अब आप सोचिए कि बढ़ता हुआ शहर है, शहर में बाज़ार है, बाज़ार में भीड़ है, भीड़ में साहित्यिक भी है, वह एक व्यक्ति को खुले में पेशाब करने से रोकता है, वह व्यक्ति साहित्यिक की पिटाई कर देता है। उस व्यक्ति ने साहित्यिक की पिटाई क्यूँ की? वह चाहता तो अपने इस काम पर शर्मिंदा हो सकता था, चाहता तो आगे ऐसा न करने की बात कह सकता था, चाहता तो कह सकता था, ‘अपना काम देखो भाईसाब!’। मैं कहता हूँ, अगर कवि में लड़ने की क्षमता नहीं थी, तो कवि विरोध करने क्यूँ गया? हमारा कवि सिर्फ बातों से क्यूँ लड़ना चाहता है, हाथों से क्यूँ नहीं? यह २०१७ की घटना है। परसाई की बताई घटना और हमारी बताई घटना के बीच हिंसा-उन्माद की हज़ारों नहीं लाखों घटनाएँ भारत में घट चुकी हैं। क्या संक्रमण-काल इतना लंबा होता है?

हिन्दी का साहित्यिक भारत-विभाजन के समय भड़की सांप्रदायिक-हिंसा और फ़साद में लगभग उदासीन बना रहा था, लेकिन ८० के दशक में शुरू हुए जाति-धर्म आधारित मानव-संहारों से वह उदासीन नहीं रह सका। उसने सभ्यता के संकट को, मानव-गरीमा को नए सिरे से पहचानना शुरू किया। इसका प्रारम्भ आवारा भीड़ के ख़तरे पहचानने से हुआ। यह भीड़ किसी तानाशाही शक्ति से सम्मोहित होती है। अंध-विश्वास इस भीड़ की विचारधारा है। यह भीड़ लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक मूल्यों के विध्वंस से जन्म लेती है। तानाशाह एक ऐसा व्यक्ति दिखाई देता है, जो जादूगर है, वह छड़ी घुमाएगा और सारी समस्याएँ हल हो जाएँगी। वह ईश्वर है, ईश्वर का वारिस है, भीड़ में पैदा किए गए काल्पनिक भय का भंजक, अतीत के आभासी अपमानों का बदला लेने वाला – सर्वाधिक हिंसक।

दक्षिणपंथ और वामपंथ के अपने-अपने मूल्य हैं। जहाँ दक्षिणपंथ तानाशाही और अंध-विश्वास को अपना जीवन-मूल्य मानता है, वहीं वामपंथ लोकतन्त्र और विज्ञान को। जिस समय परसाई ये लेख लिख रहे थे, वामपंथ कमज़ोर होता जा रहा था और दक्षिणपंथ मज़बूत। दुनिया-भर में समाजवाद के अंत की बात की जा रही थी। वैज्ञानिक सोच पर प्रश्न-चिन्ह लगाए जा रहे थे। इतिहास का अंत, विचारधारा का अंत, कला का अंत आदि धारनाएँ प्रचलित हो चली थी। लेनिनवाद, सामाजिक-जनतंत्र, कल्याणकारी राज्य आदि के संकट की चर्चाएँ होने लगी थीं। इस स्थिति को अमेरिका और यूरोप के बौद्धिकों ने उत्तर-आधुनिकता कहा, इसे फ़्रेडरिक जेमसन ने ‘प्रौढ़ पूंजीवाद का सांस्कृतिक तर्क’ कहा। अमेरिका और यूरोप में इसकी शुरुआत ५०वें और ६०वें दशक से मानी जाती है, पर इस स्थिति के प्रभावी होने का समय ८० और ९० का दशक है। भारत में ९० के दशक में इस स्थिति के साथ ही उत्तर-उपनिवेश, अस्मितावाद-समुदायवाद, निम्न-वर्गीय इतिहास आदि धारनाएँ भी प्रचलित होने लगी थी। हिन्दी का साहित्यिक इन संकटों और धारणाओं के मध्य लिख रहा था।

भारत में इन संकटों का समाधान दक्षिणपंथी जीवन-मूल्यों के हावी होने के साथ हुआ। भारत पूंजीवादी विकास की नई मंज़िल पर पहुँच गया। परसाई इंटरनेट-मोबाइल का ज़माना नहीं देख सके, लेकिन टेलीविज़न, मीडिया आदि के बढ़ते प्रभाव को वे देख पा रहे थे। उन्होने लिखा, ‘टेलीविज़न का निजी यथार्थ होता है’। आज हम ‘ब्लू-व्हेल’ जैसे खेलों से परिचित हैं। आभासी दुनिया और वास्तविक दुनिया में अंतर समाप्त होता जा रहा है। कृत्रिम बुद्धि, क्लोन और रोबोट समाज को एक नई मंज़िल पर ले जाने के लिए खड़े हैं। परसाई तकनीकी विकास के विरोधी नहीं हैं। उन्हें टेलीविज़न से शिकायत है, क्यूंकी कोलाहल बढ़ता है। हमें मीडिया से शिकायत है, क्यूंकी वह झूठ और अफ़वाह का कारोबार करती है। दक्षिणपंथ के पौधे के लिए झूठ और अफ़वाह खाद और पानी की तरह है।

सोवियत समाजवाद के बिखरने के साथ ही संकटों का यह नया दौर शुरू होता है। साहित्य और साहित्यिकों के लिए इन स्थितियों ने नए संकट पैदा किए। आज साहित्य का मूल्य और साहित्यिक की प्रतिबद्धता प्रकाशन-व्यापार पर आश्रित है, न कि जनता की पसंद-नापसंद पर। कला के अन्य क्षेत्रों में भी यही स्थिति देखी जा सकती है। परसाई जैसे लेखक जो जनता के भरोसे लिखते थे, लगातार कम होते चले गए। जैसे परसाई के साथ हिन्दी का व्यंग्य-लेखन शुरू हुआ, वैसे ही परसाई के साथ ख़तम भी हो गया। हिन्दी में व्यंग्यकार कम ही हुए। हास्य-व्यंग्य को प्रायः निचले दर्जे की रचना माना जाता है। आमतौर पर गंभीर आलोचक ऐसी रचनाओं की उपेक्षा करते हैं। वास्तव में हास्य-व्यंग्य साहित्य की सर्वाधिक कठिन विधा है। यही कारण है कि हिन्दी में ही नहीं, दुनिया भर में हास्य-व्यंग्य की रचना कम ही हुई है। शास्त्रीय साहित्य गंभीरता की माँग करता है, वह उदात्त को साहित्य मानता है। लोकप्रिय साहित्य इस क्षेत्र में आगे है। विकृति या भोंडापन वहाँ हो सकता है, लेकिन हँसने की क्षमता को बचाए रखने की कोशिश वहीं दिखाई देती है।

शिक्षा और आनंद का संतुलन साहित्य का चरित्र है। वास्तव में, परसाई की इन रचनाओं का समाज और आज का समाज भी शिक्षात्मक मनोरंजन के अभाव से ग्रसित है। अनिश्चित भविष्य और मानसिक-विकृतियाँ गूँथी हुई हैं। हास्य-व्यंग्य का अभाव समाज की बीमारी का लक्षण है। हिन्दी का साहित्यिक समाज भी बीमार है। वह भी लोकतन्त्र और विज्ञान का शत्रु है।

कुछ दिनों पहले त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति गिराए जाने के साथ ही भारत में भी लेनिनवाद का संकट और तीखे रूप में सामने आ गया। वास्तव में ८० और ९० के दशक के साहित्य का मुख्य संकट भी लेनिनवाद ही था। दुख की बात यह है कि लेनिनवाद के समर्थक भी नई स्थितियों में लेनिनवाद को देखने से भय खाते हैं। वे संकट को बनाए रखना चाहते हैं। हरीशंकर परसाई इस समस्या का हल ‘अध्यात्म’, ‘धर्म’, ‘मानवता’, ‘आत्मा’ आदि की वामपंथी पुनःव्याख्या करने में समझते हैं। लेनिनवाद का संकट उनके सामने स्पष्ट नहीं था। यद्यपि भारत के वामपंथी-आंदोलन में यह संकट ६० के दशक में ही स्पष्ट हो गया था।

सोवियत रूस में धार्मिक-पुनरुत्थान ने उनके मन में संशय पैदा कर दिया था, भारत में हिंसात्मक-धर्मवाद की स्थापना होते वे देख रहे थे। ऐसी स्थिति में उनका मुख्य ध्यान धर्म में उपस्थित मानवता की ओर जाना अचरज की बात नहीं थी। यूँ भी उग्र-वामपंथ के समर्थक वे कभी नहीं रहे थे। लेकिन इस संग्रह में उनकी उग्रता भी देखने योग्य है। उनका संशय और उग्रता से ग्रसित मस्तिष्क व्यंग्य के माध्यम से अपनी ही स्थिति पर रोता है। त्रासदी व्यंग्यात्मक होती है और व्यंग्य भी कभी त्रासदी बन जाता है। ‘आवारा भीड़ के ख़तरे’ भारत में लोकतन्त्र और समाजवाद की त्रासदी है, पर व्यंग्य का भेस धारण किए हुए।

इस संग्रह को आज पढ़ते हुए लगता है कि लेनिनवाद के संकट का समाधान किए बिना आज के वामपंथी-साहित्यिक की मुक्ति भी संभव नहीं। लेनिनवाद का संकट ऊपर बताए संकटों से स्वतंत्र नहीं है। उपभोक्तावाद, उत्तर-आधुनिकतावाद, अस्मितावाद, समुदायवाद, फासीवाद, लोकतन्त्र और समाजवाद इन सभी से लेनिनवाद जुड़ा हुआ है।

साहित्य के इस लेनिनवादी संकट का समाधान दक्षिण-अमेरिका के कुछ साहित्यिकों ने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। आज हिन्दी के साहित्यिकों के बीच भी इन नए समाधानों पर चर्चा है। दक्षिण-अमेरिकी साहित्यिकों का अनुवाद हो रहा है। उन्हें पसंद किया जा रहा है। एक नई दुनिया और नए मनुष्य के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध दक्षिण-अमेरिका के साहित्यिक हिन्दी-साहित्यिकों के लिए भी आदर्श बन रहे हैं। गरीब और पिछड़े देशों के इन साहित्यकारों ने हिन्दी-साहित्यिकों के सामने नए सिद्धान्त और जीवन जीने का ढंग प्रस्तुत किया है। परसाई की मृत्यु होने तक हिन्दी के साहित्यिक के लिए विकल्प का यह पक्ष इतना स्पष्ट नहीं था। परसाई के संशय और साधारण समाधान सुझाने से भी पता चलता है कि सोवियत समाजवाद कितने लंबे समय तक भारत की वामपंथी धारा पर हावी रहा था। पूंजीवाद-विरोधी सामाजिक-शक्तियों की पहचान, संगठन के नए तरीके, मीडिया का अपने पक्ष में इस्तेमाल, राजनीति के निर्णयों में जन-भागीदारी की उपेक्षा ने भारत में वामपंथी धारा को पुनः मज़बूत होने से रोका हुआ है। दक्षिण-अमेरिकी साहित्यिकों ने स्थानीयता के महत्त्व को, साम्राज्यवाद-विरोध को कभी कमज़ोर नहीं होने दिया। हिन्दी का साहित्यिक इस मामले में कमज़ोर निकला। हिन्दी-साहित्यिक की यूरोप-केन्द्रित मानसिकता आज भी उसे नए को अपनाने से रोके हुए है। भारत के वामपंथियों को रूस और चीन की क्रांति और प्रतिक्रांति से सबक लेना चाहिए, साथ ही दक्षिण-अमेरिका या अफ्रीका या अन्य किसी भी जगह के आंदोलनों और क्रांतियों को अपने विशेष संदर्भ में जाँच-परख कर ही व्याख्या करनी चाहिए, और आवश्यकता होने पर अपनाने से भी नहीं हिचकना चाहिए, वर्ना लेनिनवाद का संकट बना रहेगा। लेनिन स्वयं क्रांति करने का कोई फॉर्मूला नहीं बताते। उनके लेखन में रूस की विशेष स्थिति सर्वत्र दिखाई देती है। मार्क्सवाद के सामान्य क्रांतिकारी सिद्धांतों को वे रूस में सामाजिक परिवर्तन के लिए उपयोगी बनाते हैं। भारत के वामपंथी प्रायः इस संघर्ष में नहीं पड़ना चाहते। मार्क्स, लेनिन, माओ, चे, शावेज़ – वे अपनी हार का ठीकरा दूसरे के सर फोड़ना चाहते हैं। वामपंथी नेतृत्व विश्लेषण करने और योजना बनाने में असमर्थ है। उन्हें फॉर्मूला चाहिए। और इसी कारण वामपंथी संगठन क्षीण से क्षीणतर होते जा रहे हैं। परसाई ने जिस संकट को पाठकों के सामने रखा था, हिन्दी-साहित्यिकों के लिए वह संकट आज भी बना हुआ है।

ऐसे में यह लगता है कि सभ्यता का यह संकट अभी दशकों बने रहना है। आवारा भीड़ के ख़तरों के मध्य जीने और मरने के लिए तैयार रहना है। यह संकट कब ख़त्म होगा नहीं कहा जा सकता। परसाई ने भी शुभ-कामना की है, भविष्यवाणी नहीं। वे वास्तविकता को सामने रखना अपना कर्तव्य समझते हैं, लेकिन संकट का कोई बना-बनाया समाधान नहीं है, इसे भी वे जानते हैं। परसाई के इन लेखों के बाद से आज तक विश्व में कई बड़े आर्थिक और राजनैतिक बदलाव हो चुके हैं। इन लेखों में वे जिस भविष्य की आशंका से चिन्तित दिखाई देते हैं, वह भविष्य आज वर्तमान है। निश्चित ही, हर संकट समाप्त होता है। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का विनाश ही इस संकट का अंत करेगा। हिन्दी-साहित्य की भूमिका भी नई दुनिया में नए मनुष्य द्वारा फिर से लिखी जाएगी।

 

usman khan

 

उस्मान ख़ान समकालीन हिंदी साहित्य के अलहदा युवा कवि-कथाकार हैंचर्चाओं और पुरस्कारों की भीड़ से अलहदा… छपाऊ मानसिकता से भी अलहदा... जे.एन.यूके हिंदी विभाग से मालवा के लोकसाहित्य पर पीएचडीइनसे usmanjnu@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.

मुक्तिबोध के बहाने ‘परंपरा के आहत नैरन्तर्य’ पर एक बहस: प्रो.राजकुमार

मुक्तिबोध के बहाने प्रो. राजकुमार एक बहस की धारावाहिकता में गहरे विश्वास के साथ उतरे हैं. इस सीरिज का पहला लेख आप पढ़ चुके हैं.

मुख्य शीर्षक में ‘परंपरा का आहत नैरन्तर्य’ पद हिंदी के विद्वान आलोचक सुरेन्द्र चौधरी के यहां से लिया गया है. अभी तक सुरेन्द्र चौधरी हिंदी के अंतिम आलोचक रहे हैं जिन्होंने परम्परा की निरंतरता में उत्पन्न हुए व्यवधान को व्यापक फलक पर विवेचित करने के प्रयास किए हैं. और, यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं कि टूट की दोनों शिराओं के मध्य मुक्तिबोध को स्थित करने के प्रयास किए हैं. सुरेन्द्र चौधरी के बाद प्रो. राजकुमार के यहां वही चिंता फिर से सामने आती है. राजकुमार जी हिंदी के एकाध समकालीन आलोचकों में हैं जिनके यहां विमर्श की एक नितांत सुदृढ़ और स्पष्ट भाषा है. प्रो. राजकुमार साहित्य के ककहरा सिखाने वाले संदर्भों को छोड़ते चलते हैं और उथले उद्धरणों, भूमिकाओं से लदी-फदी फूहड़ आलोचना के बरअक्स सभ्यता, परंपरा, संस्कृति के व्यापक वितान की आलोचना-धरा पर नज़र आते हैं. स्याही इसी विश्वास से पन्ने पर झरती है कि लम्बी बहस की तैयारी है. यह विश्वास बहुत दिन बाद समकालीन हिंदी आलोचना में किसी के पास दिखा है. यह विश्वास रामविलास शर्मा के बाद सिर्फ सुरेन्द्र चौधरी के पास ही अभी तक सुरक्षित था. सुरेन्द्र चौधरी के दो उद्धरणों के साथ, प्रो. राजकुमार की इस बहस से खुद को साझा कीजिये, और उम्मीद है कि यह बहस यहां नहीं, तो कहीं भी लम्बी चलनी चाहिए. #तिरछीस्पेलिंग

…रचना और वातावरण की संगति ही केवल आहत होती हुई नहीं मालूम पड़ती, रचनात्मक परिस्थिति का नैरन्तर्य भी टूटता हुआ मालूम पड़ता है. …इस आहत नैरन्तर्य को, ‘discontinues को पहचाना मुक्तिबोध ने. अपनी रचनात्मक संवेदना में इसे मूर्त करते हुए उन्होंने ‘विपात्र’ और ‘क्लाड इथर्ली’ जैसी रचनायें लिखीं. #सुरेन्द्र चौधरी, 1971

पश्चिमी साहित्य में रूपक का उपयोग ऐतिहासिक समय का नाश करने और उसे ‘समय के रूपक’ से बदलने के लिए किया गया है. इसके विपरीत मुक्तिबोध ने रूपक की दूर-दृष्टि का, अन्यापदेश की दृष्टि का उपयोग  ऐतिहासिक  समय की जटिलता को मूर्त करने के लिए किया. # सुरेन्द्र चौधरी, 1980

Muktibodh By Haripal Tyagi

Muktibodh By Haripal Tyagi

जिसके आगे राह नहीं

By प्रो.राजकुमार 

जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि की बात मुझे समकालीन कविता ही नहीं, समकालीन साहित्य और समकालीन सामाजिक विमर्शों पर नये सिरे से सोचने और विचारने के लिए प्रेरित करती हैं। मुझे जहाँ तक ध्यान आता है, मुक्तिबोध ने जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि की बात की है। सभी जानते हैं कि मुक्तिबोध का संघर्ष, जिसको वे प्रायः आत्मसंघर्ष ही कहना पसन्द करते थे, दो तरफा था। जिसको हम यथार्थवादी-प्रगतिशील-मार्क्सवादी धारा कहते हैं, उससे मुक्तिबोध असंतुष्ट थे। उन्होंने अपने लेखन में बार-बार इसका उल्लेख किया है लेकिन साथ ही साथ, मुक्तिबोध का संघर्ष उस दूसरी परम्परा से भी था जिसके वाहक के रूप में हम लोग हिन्दी में, और किसी का नाम न भी लें, तो अज्ञेय का नाम लेते हैं। संक्षेप में, मुक्तिबोध आधुनिकतावादी साहित्यिक धारा या चिन्तन-परम्परा से भी संतुष्ट नहीं थे। सोचने वाली बात ये है, कि अगर मुक्तिबोध यथार्थवादी धारा और आधुनिकतावादी धारा दोनों से असंतुष्ट थे तो आखिर वो कर क्या रहे थे। मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि मुक्तिबोध ने अपने वैचारिक लेखन में भले ही स्पष्ट रूप से यह बात न लिखी हो, लेकिन अपने रचनात्मक लेखन में, मेरा संकेत उनकी कहानियों और कविताओं की ओर है, वे एक तीसरी धारा निकालने की कोशिश करते हैं। इसे सुविधा की दृष्टि से मैं भारतीय परम्परा या सभ्यता की धारा कहना पसंद करूंगा।

यह दिलचस्प है कि भारतीयता की बात, भारतीय परम्परा की बात उस जमाने में वे लोग करते थे जिनको हम आधुनिकतावादी-प्रयोगवादी या नयी कवितावादी आलोचक/रचनाकार कहते हैं। ऐसे रचनाकारों में अज्ञेय का नाम तो आता ही है, बाद में निर्मल वर्मा का नाम भी जुड़ जाता है। आप याद करें, उस दौर में भारत की बात करना, भारतीय सभ्यता की बात करना, भारतीय परम्परा की बात करना एक अपराध जैसा था। बहुत आसानी से ऐसी बातें करने वाले को अतीतजीवी या साम्प्रदायिक घोषित कर दिया जाता था। उस दौर में मुक्तिबोध ने अपनी रचनाओं में भारतीय परम्परा को नये सिरे से पुर्ननवता देने की कोशिश की। इसीलिए मुझे लगता है कि मुक्तिबोध की चिन्ता यह थी कि साहित्य और कला की भारतीय परम्परा को आगे बढ़ाया जाय और उसमें हमारे औपनिवेशिक इतिहास की वजह से जो व्यवधान आया है, जो व्यतिक्रम आया है, जो टूटन पैदा हुई है, उसकी यथासंभव भरपाई की जाय। उस दौर में ऐसी कोशिश सम्भवतः सिर्फ मुक्तिबोध कर रहे थे। ये अजीब विडम्बना है कि भारतीयता की बात अज्ञेय ने बहुत की है, उसके बाद निर्मल वर्मा ने भी की है, लेकिन रचनात्मक स्तर पर न तो इनकी कहानियों में और न ही उपन्यासों में, भारतीय साहित्य-परम्परा से जुड़ने का गम्भीर प्रयास दिखाई पड़ता है। वैचारिक स्तर पर जरूर ये उसकी चर्चा करते हैं। वैसे ये भी अपने आप में छोटी बात नहीं है। लेकिन रचनात्मक स्तर पर अगर देखें तो सम्भवतःमुक्तिबोध उस दौर में अकेले हैं जो इन दोनों छोरों से जूझते हुए साहित्य और कला की भारतीय परम्परा से अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं, और उसी के अनुरूप अपनी रचनात्मकता का विकास करते हैं। अस्सी के दशक में लैटिन अमेरिकन लेखकों के प्रभाव-विस्तार के साथ, और फिर ग्रैबियल गार्सिया मार्केज के उपन्यास को नोबल प्राइज मिलने के बाद इस प्रकार की रचनात्मकता की विस्तार से चर्चा होने लगी और नाम दिया गया कि ये जादुई यथार्थवाद है। मैं मुक्तिबोध के लेखन के संदर्भ में उस जादुई यथार्थवाद को लागू करने का कोई प्रस्ताव नहीं कर रहा हँू। लेकिन ये जरूर कहना चाहता हँू कि मुक्तिबोध ने, पूरे तौर से न सही, फिर भी साहित्य और कला की एक भारतीय दृष्टि विकसित करने का उस दौर में प्रयास किया था, जब दुनिया में जादुई यथार्थवाद जैसी कोई चीज नहीं थी।

आज के संदर्भ में जब हम जड़ रुचियों के दायरे और आज के साहित्य की बात करते हैं तो मुझे हैरत होती है कि बात सिर्फ जड़ अभिरुचियों तक क्यों सीमित रह जाती है। कविताओं का जो समकालीन स्वरूप है, उसके बारे में विचार करने के लिए हम क्यों तैयार नहीं होते। क्या आप ये मान कर चल रहे हैं कि रूचियाँ विकसित हो जायेंगी तो कविता का आयतन अपने आप विस्तृत हो जाएगा। कविता या साहित्य क्या आज की रुचियों का बाई प्रोडक्ट है? रुचियाँ ही सबकुछ हैं और कविता तो उसको भरने वाला झोला है! अगर साहित्य और कलाओं कि यही समझ है, तो मुझे लगता है कि यह गम्भीर चिन्ता का विषय है। साहित्य और कला के रूप ऐसे नहीं चलते हैं और न विकसित होते हैं। दुनिया में कहीं भी आप देख लीजिए साहित्य और कलाओं का रूप झोले की तरह नहीं है। साहित्य और कलाओं के रूप अलग-अलग सभ्यताएँ लम्बे समय में अर्जित, विकसित और समृद्ध करती हैं। एक तरह से साहित्य और कला के रूप शार्टहैण्ड या संस्कृतियों के मेमोरी बैंक के रूप में काम करते हैं। और इसीलिए न तो उनको इतनी आसानी से छोड़ा जा सकता है और न किसी दूसरी सभ्यता के साहित्य और कला-रूप को टेक्नोलाॅजी की तरह आयात किया जा सकता है। साहित्य और कलाओं का आदान-प्रदान टेक्नोलाॅजी और अर्थव्यवस्थाओं के आदान-प्रदान जैसा नहीं है। क्या हम इसके बारे में विचार करने के लिए तैयार हैं?

हमारे यहाँ साहित्य और कला के रूपों का जिस प्रकार से विकास हुआ, उस पर भी नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। क्योंकि साहित्य और कलाएँ और इनके विकसित होने वाले रूप सिर्फ रूप नहीं होते हैं, वो कहीं न कहीं बहुत गहरे स्तर पर अपनी सभ्यता की बहुत बुनियादी स्मृतियों को भी संजोते और सरंक्षित करते हैं। इसी वजह से जब हम इन रूपों में रचना करते हैं तो बृहत्तर समाज के साथ तादात्म्य और सम्बन्ध आसानी से स्थापित हो जाता है। क्या हम यह मानना चाहेंगे कि आज के दौर में साहित्य की बहुत सारी विधाएँ और विशेष रूप से कविता, एक गहरे संकट के दौर से गुजर रही हैं। क्या ये सच नही है कि हिन्दी जगत से एक ईंट उठाते ही चार-पाँच उदीयमान कवि बिलबिलाते हुए निकल आतेे हैं! कवियों की भरमार है और आप ये न सोचें कि मैं उनके महत्व को नहीं समझ रहा। मैं इन कवियों के महत्व को स्वीकार करने वालों में सबसे आगे हूँ लेकिन मेरा प्रश्न ये है कि जिस रूप में आज कविता लिखी जा रही है, उसका इतिहास-भूगोल क्या है? वो कितने लोगों तक पहुँचती है? अगर मैं आपको चिढ़ाने के अंदाज में कहूँ  कि हिन्दी कविता के पाठक कम और कवि ज्यादा हैं, हो सकता है, आप आपत्ति करें। लेकिन शायद इसमें सच्चाई है। हिन्दी कविता की किताबें कितनी बिकती हैं? इस पर भी विचार करना चाहिये। हिन्दी के कितने प्रकाशक हिन्दी कविता की पुस्तकें छापने के लिए तैयार हैं और अगर नहीं तैयार हैं, तो क्या कारण हैं। वैसे तो ये बात सारे अनुशासनों पर लागू होती है, लेकिन हमारा सम्बन्ध मुख्य रूप से साहित्य से है, कविता से है; इसलिए हम इसी की चर्चा करेंगे। खासतौर से 19वींशताब्दी  के  बाद,  बीसवीं  शताब्दी  और इक्कीसवीं  शताब्दी  में  हिन्दी  कविता  का  जिसरूप में विकास हुआ, क्या उस पर हम नये सिरे से विचार करना चाहते हैं? या आजभी हम इतने आत्ममुग्ध हैं कि जैसे सब कुछ ठीक-ठाक है, कोई समस्या नहीं है, औरजो  समस्या  की  बात  करता  है,  करता रहे,  उसकी  बात  पर  ध्यान  नहीं  देना  चाहिए।आप याद कीजिए कि रामचन्द्र शुक्ल ने ठाकुर जगमोहन सिंह के उपन्यास के सम्बन्धमें लिखा था कि ये अंग्रेजी ढंग का नाॅवेल नहीं है। मुझे ये चीज बड़ी महत्वपूर्ण लगतीहै  और  इस  पर  मैं लम्बी बहस के  लिए तैयार  हूँ कवियों  से  या  किसी  से  भी।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों के उपरान्त, भारतेन्दु के बाद, हिन्दी में जितनी भी साहित्यिक विधाएँ हैं, उनका विकास अंग्रेजी ढंग पर ही हुआ है। ये बात सिर्फ उपन्यास पर लागू होती हो, ऐसा नहीं है। कविता से लेकर कहानी, निबन्ध सभी पर ये बात लागू होती है। ये अकारण नहीं है। उसका एक अपना संदर्भ है। आप जानते हैं कि आधुनिक हिन्दी साहित्य के रचयिता, श्रोता और पाठक ज्यादातर ऐसे लोग रहे हैं, जिनका अंग्रेजों द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों से सम्बन्ध रहा है। या तो वे विश्वविद्यालय में रहे हैं या उन्होंने विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की है। अंग्रेजों द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों में जिस ढंग के साहित्य को माॅडल के रूप में पेश किया गया और जिसके वजन पर हमारे यहाँ बाद में साहित्य लिखा गया, वो थोड़े बहुत हेर-फेर, बदलाव, के बावजूद अंग्रेजी ढंग का साहित्य है। रंगरोगन भले ही भारतीय लगे। क्या इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में अंग्रेजी ढंग के इस साहित्य पर हमें नये सिरे से विचार नहीं करना चाहिये? जनता के नाम पर या मजदूर-किसान के नाम पर कविता लिखी जा रही है। आप जानते हैं कि वह कहाँ पहुंच रही है और कौन उसको समझ रहा है, उसका दायरा कितना है! मैं इसलिए यह कह रहा हूँ  कि अगर उससे पहले के साहित्यिक परिदृश्य पर आप विचार करें, कविता के इतिहास पर विचार करें तो बड़ा अलग परिदृश्य दिखाई देगा। कविता का अपने यहाँ संगीत से बहुत गहरा सम्बन्ध रहा है। संगीत से ही नहीं, उसका सम्बन्ध नृत्य और नाट्य से भी रहा है। कविता केवल पढ़ने की चीज अपने यहाँ नहीं थी। किन्तु अगर ‘आधुनिक’ हिन्दी कविता पर ध्यान दें तो नई कविता तक आते-आते आप छन्द भी छोड़ देते हैं। अगर ये अंग्रेजी ढंग की कविता नहीं है, तो क्या है? फ्री वर्स अगर पश्चिम में लिखा गया है तो आप भी फ्री वर्स में लिख रहे हैं।

कविता का पूरा का पूरा जो फार्म है, वो अपनी काव्य परम्परा से कुछ भी नहीं लेता है, जो लेता है, वो बहुत ही नगण्य है, वो सिर्फ एक तरह की औपचारिकता है।. दूसरा तरीका ये हो सकता था कि आप भारतीय परम्परा में पहले से चले आ रहे साहित्य और कला रूपों को विकसित करते और बदले हुए सन्दर्भ में जरूरत के हिसाब से पश्चिमी साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा से भी कुछ बातों को अपना लेते। हिन्दी की जातीय परम्परा को विकसित करने का संभवतः यह ज्यादा बेहतर और अपनी परम्परा से जुड़ा हुआ तरीका होता। अगर आप सही मायने में समकालीन कविता की समस्या पर विचार कर रहे हैं तो आपको इस पहलू पर भी ध्यान देना चाहिये। उसकी तमाम उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हैं। मैं उन्हें जानता हूँ और नाम गिना सकता हूँ। कुछ अपवाद हैं, जिन्होंने इस ढाँचे को तोड़कर अलग ढंग से लिखने की कोशिश की है, लेकिन वो अपवाद ही हैं। मुख्य रूप से आज भी कविता का जो स्वरूप हमारे यहाँ चल रहा है, वो वही है जिसका निर्माण नई कविता के दौर में हुआ था। भंगिमाएँ अलग हो सकती है, कोई अपने को प्रगतिवादी कह सकता है, उसमें प्रगतिशीलता की छौंक लगा सकता है, कोई स्वयं को प्रयोगवादी कह सकता है। लेकिन नयी कविता के समय से चले आ रहे शिल्प-विधान से हटकर प्रयोग करने का साहस मुझे कहीं दिखाई नहीं पड़ता। एक बने बनाये फार्म में कविता लिख ली जाय, कविता बना ली जाय, यही अपने आप में लक्ष्य है। और जब तक यह ढंग चलता रहेगा, तब तक मुझे नहीं लगता कि उस दायरे का विस्तार होगा जिसे जड़ अभिरुचियों का दायरा कहा जा रहा है। चाहे जितना क्रान्तिकारी कन्टेन्ट आप उसमें भर दें, जब तक उसके फार्म में बदलाव नहीं लाते, तब तक उसका दायरा नहीं बढ़ने वाला। आप कहते रहिए अमुक के लिए है ये रचना, लेकिन आप जानते हैं कि वो उसको पढ़-समझ नहीं सकता।

मैं एक और बात कहना चाहता हूँ और उसे आधुनिकताप्रसूत दूसरे अनुशासनों पर भी आप लागू कर सकते हैं। 19वीं शताब्दी में भारतेन्दु के साथ हिन्दी साहित्य में एक बड़ा परिवर्तन होता है। वो परिवर्तन ये है कि साहित्य का एक सामाजिक उद्देश्य होना चाहिए। वही साहित्य श्रेष्ठ है जो उस समय के निर्धारित सामाजिक उद्देश्य के अनुरूप है उसका पूरक है, उसकी मदद करता है। छायावाद अपवाद है, किन्तु फिलहाल उस विस्तार में जाना जरूरी नहीं। आधुनिकता के आगमन के साथ साहित्य को किसी न किसी उद्देश्य के अधीन रखकर देखने की प्रवृत्ति चल पड़ी। साहित्य ‘इस’ उद्देश्य के अनुरूप है, तो ठीक है, लेकिन उससे विरुद्ध, या उससे अलग है तो फिर वह जड़ अभिरुचियों के अन्तर्गत आ जाएगा। जैसे एक समय तक प्रेम पर कविता लिखना उचित नहीं माना जाता था। जैसे एक जमाने में शतरंज खेलना सामन्ती व्यवस्था की पतनशीलता का पर्याय मान लिया गया था। क्या आज भी ऐसा सोच सकते हैं कि शतरंज खेलने में या सितार बजाने में यदि किसी को सुख मिलता है, भले ही दुनिया के तमाम छल-छद्म में शामिल न हो तो फिर वह पतनशील है, क्योंकि ‘समाज’ से विमुख है। क्या असामाजिक कहकर उसकी आलोचना होनी चाहिए! लेकिन आप जाानते हैं कि ये हुआ है। साहित्य को जब आप किसी विचार या विचारधारा के अधीन कर देते हैं, तब उसी के अनुरूप यह निर्धारित करने लगते हैं कि कौन सी रुचि जड़ है और कौन सी रुचि खुली हुई है, उन्मुक्त है। इसीलिए इस पर भी विचार करना चाहिए कि जड़ रुचियों से आशय क्या है? क्या आप साहित्य को किसी विचारधारा के प्रस्तोता के रूप में देखते हैं, जो विचारधारात्मक ज्ञान को एक तरह के कला माध्यम में डालकर पेश करता है? या आप उसकी कोई स्वतंत्र भूमिका भी देखते हैं, जहाँ वो अपने समय के ज्ञान को विचार के स्तर पर भी समृद्ध करता है, उसको चुनौती देता है या उसमें कुछ जोड़ता है। जड़ अभिरुचियों के सन्दर्भ में भी ये एक विचारणीय विषय है कि ये अभिरुचियाँ बनती कैसे हैं; कैसे तय होता है कि कौन सी अभिरुचियाँ जड़ हैं, कौन सी अभिरुचियाँ जड़ नहीं हैं। ध्यान रहे ंकि साहित्य, कला और ज्ञान की दुनिया ऐसी है, जहाँ सच और गलत का निर्धारण बहुमत से नहीं होता। अल्पमत यहाँ सही हो सकता है और बहुमत गलत।

मध्यकाल में साहित्य की भाषा बदल जाने के बावजूद अपनी पूर्व परम्परा से सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता। जबकि ‘आधुनिक युग’ में हिन्दी की कथित जातीय परम्परा का विकास जिस रूप में हुआ, उसका सम्बन्ध ठिकाने से न तो शास्त्रीय परम्परा से कायम हुआ, न लोक परम्परा से। समूची मध्यकालीन कविता का संगीत से अभिन्न सम्बन्ध होता था और उसकी व्याप्ति का एक बड़ा कारण ये था कि उसका गायन/पाठ होता था। आधुनिक हिन्दी कविता की विडम्बना ये है कि उसका कोई जातीय संगीत विकसित नहीं हो सका, जबकि उसी की सहोदर उर्दू का ग़जल और कव्वाली के रूप में जातीय संगीत बन गया। इसी वजह से उर्दू कविता की लोकप्रियता सिर्फ उर्दू पढ़ने और लिखने वालों तक सीमित नहीं रही। यह अकारण नहीं है कि उर्दू के अच्छे से अच्छे कवि मुशायरों में शिरकत करते हैं और बड़ी संख्या में लोग उनको सुनने के लिए पहुँचते हैं। पूर्वी अंग की गायकी की बुनियाद पर क्या हिन्दी का जातीय संगीत विकसित किया जा सकता था? लोकप्रिय संस्कृति से जुड़े रूपों की पूरी तरह से उपेक्षा करके भी क्या किसी भाषा की कविता वृहत्तर समुदाय तक पहुंच सकती है?हिन्दी  में  तो  आलम  ये  रहा  है कि जिस  किसी की  कविता लोकप्रिय  हुई,  उसे  दोयमदर्जे  का  कवि  ठहरा  दिया  गया। दिनकर  और  बच्चन  जैसे कवियों  को हिन्दी में इसीलिए श्रेष्ठ कवियों की श्रेणी में नहीं रखा जाता। अंग्रेजी ढंग के साहित्य का भारतमें  जो  हाल है, सो है  ही, पश्चिम में  भी  इसके पाठक  और  श्रोता  बहुत  कम  बचे हैं। बाॅब  डिलन को गत वर्ष नोबेल  पुरस्कार  देकर कविता  के  लगातार  संकुचित  हो रहे दायरे को बढ़ाने की कोशिश की गयी। वे मूलतः ऐसे गीतकार और गायक है, जिनको सुनने और पसंद करने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। क्या हिन्दी जगत को भी लगातार कम होते जा रहे पाठक-श्रोता समुदाय के मद्देनजर साहित्यिक विधाओं के चले आ रहे स्वरूप के बारे में नये सिरे से नहीं सोचना चाहिए?

राजकुमार जी

प्रो॰राजकुमार

शोर-शराबे से दूर अध्ययन-अध्यापन में मग्न रहने  वाले युवा-तुर्क हिन्दी आलोचक। भक्ति साहित्य, हिन्दी नवजागरण, आधुनिकता, आधुनिक साहित्य, प्रेमचंद, हिन्दी कहानी इत्यादि पर लगातार लेखन। किताबों में जैसी रुचि इनकी  है,  वह अन्यत्र दुर्लभ ही हो गई है। फिलहाल, बी॰एच॰यू॰ के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक।इनसे dr.kumar.raj@gmail.com पर संपर्क संभव। 

भीष्म साहनी की कहानी-(अ)कला: संजीव कुमार

हिंदी कहानी के आन्दोलन ने जहाँ एक और पुरानी जड़ता को तोड़कर नयी ज़मीन तैयार की, वहीँ उसमें कभी मूर्खतापूर्ण और कभी षड्यंत्रपूर्ण चयनवाद भी उभरा. हिंदी के कई महत्वपूर्ण कहानी लेखक इस चयनवाद के शिकार हुए. ऐसे आन्दोलनों के शिकार भीष्म साहनी  भी हुए. यह चयनवादी आलोचना उनकी भी थी जो अपने को प्रगतिशील और जनवादी सिद्ध करने के लिए कुछ भी कर रहे थे.  इस चयनवाद के शिकार भीष्म साहनी जी अकेले नहीं हुए. कई दूसरे महत्वपूर्ण हिंदी कथा लेखक और कवि या तो पीढ़ियों के अंतराल के नाम पर आधुनिक न रहे या फिर उनके सामाजिक संघर्ष को क्रांतिकारी  तत्त्वों में शामिल न किया गया. यह अवश्य ही दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति थी जिसके विरुद्ध आज भी संघर्ष करने की आवश्यकता बनी हुयी है. खासकर तब; जबकि क्रांतिकारिता की व्याख्या सामाजिक परिवर्तन के दूसरे छोर पर जा रही है…. फिट्गेराल्ड ने कभी कहा था, ‘मैं अपने समकालीनों के साथ नहीं होना चाहता, क्योंकि मेरी नियति भविष्य के कूड़ेदान में नहीं होगी.’ भीष्म साहनी अपने समय के साथ हो सकते हैं, अपने समकालीन लेखकों के साथ नहीं…. ऐसा नहीं है कि भीष्म साहनी जी अपनी कहानियों के कलात्मक रूपगठन के प्रति असचेष्ट हों. वे इस दिशा में यशपाल की उस शैली का थोड़ा अभ्यास किया मालूम पड़ते हैं जो प्रतिमुखता का एक नाटकीय चरम बिंदु पूरे घटनाक्रम के भीतर से खड़ा कर लेती है और हमें अभिभूत करती है… आधुनिकतावादी लेखकों ने कथानक को प्रायः व्यर्थ बना दिया है. हिंदी में प्रेमचंद-यशपाल से लेकर भीष्म साहनी और अमरकांत-रेणु ने उनकी पुनः प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष किया है. भीष्म जी की तमाम कहानियों की रूप-रचना में एक कथानक होता है, एक भरी-पूरी कहानी होती है, जिसमें अकेला चरित्र अपनी भीतरी परिस्थितियों में कम होता है. एक पूरा व्यापाररत समुदाय उनके साथ दिखता है. ..कहानीपन की रक्षा का संघर्ष कहानी की रचनात्मक पहचान के लिए आवश्यक हो गया है. आज की अधिकांश कहानियों में हलचल तो बहुत होती है, पर अंतर्वस्तु में एक रिक्तता-सी लगती है.  # सुरेन्द्र चौधरी (‘हिंदी कहानी : रचना  और परिस्थिति ‘ में संकलित  ‘भीष्म  साहनी : नए  राष्ट्रीय बोध के अन्वेषक ‘ लेख से )  

फोटो- त्रिभुवन तिवारी, आउटलुक से साभार

फोटो- त्रिभुवन तिवारी, आउटलुक से साभार

   

By संजीव कुमार

यह थोड़ा अजीब तो है, पर क्या करें, कि कहानीकार भीष्म साहनी के बारे में सोचते हुए बरबस ‘मोहन जोशी हाजि़र हों’ और ‘तमस’ वाले अभिनेता भीष्म साहनी याद आ जाते हैं। दोनों जगह उनका किरदार ऐसा था जिसमें आविष्ट नाटकीयता वाले क्षणों की पर्याप्त गुंजाइश थी, पर भीष्म जी के अभिनय ने उन क्षणों को असाधारण तरीक़े से उभारने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी। उसे किसी चिह्नित की जाने योग्य नाटकीयता के हवालेे नहीं किया। बस, जीवन के सहज प्रवाह का थोड़ा असहज हो जाना ही चिह्नित हो पाया। लगा, हम सामान्य दिनचर्या में आए हुए कुछ व्यतिक्रमों से रू-ब-रू हैं, उन व्यतिक्रमों के प्रति अतिरिक्त रूप से संवेदनशील बनानेवाली अभिनय-कला से नहीं। मानो हम बिना किसी नाटकीयता के प्रत्यक्ष जीवन की सादगी का साक्षात्कार कर रहे हों, उस जीवन की कलात्मक पुनर्रचना का नहीं।

कहानीकार भीष्म साहनी भी ऐसे ही हैं। उनकी कहानियां कथा-स्थितियों और पाठक के बीच किसी कहानीकार की मध्यस्थता का अहसास नहीं होने देतीं। बेहद सीधे-सादे तरीक़े से वे कहानी कहते चले जाते हैं। कहीं कोई चमकता हुआ वाक्य नहीं, कोई ऐसी साहित्यिक हिकमत नहीं जिसे देखकर आप ‘वाह’ कह उठें, कहीं किसी प्रसंग को थम-ठहर कर अलग से उभारने का जतन नहीं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल होते तो शायद कहते कि इन्हें जीवन के मार्मिक स्थलों की पहचान नहीं है, इसलिए उन जगहों पर ठहर कर धैर्य से रमते नहीं हैं। पर मार्मिक स्थलों की पहचान का यह सूत्र तुलसीदास पर, या पुरानी/प्रचलित कथा को उपजीव्य बनानेवाले किसी भी रचनाकार पर तो लागू हो सकता है, भीष्म जी पर लागू नहीं हो सकता। तुलसी के पास कथा पहले से थी, विमर्श और वक्रता ही अपनी थी। उन्हेें एक पूर्वप्रचलित कथा में धैर्यपूर्ण ट्रीटमेंट की मांग करनेवाले मार्मिक स्थलों की पहचान करनी थी। भीष्म जी के पास कथा – यानी घटनाओं का कंकाल – और विमर्श, दोनों अपना है। उन्हें किसी पहले की कथा में ख़ास अपनी वक्रता पैदा नहीं करनी है। उनका कौशल उपजीव्य कथा की घटना-शृंखला में मार्मिक स्थलों की पहचान कर उसका सधे हाथों से ट्रीटमेंट करने में नहीं, स्वयं ऐसे स्थलों की कल्पना-उद्भावना करने में निहित है – ऐसी कथा-स्थितियों की उद्भावना जहां पात्र और परिस्थितियों के घात-प्रतिघात से जीवन का कोई मार्मिक पक्ष, कोई दबा हुआ आशय, कोई पहचाना किंतु अनपहचाना-सा सत्य बेसाख़्ता उभर आये।… और इस काम में भीष्म साहनी माहिर हैं। शायद इसी महारत केे चलते उनमें सीधेे-सादे ढंग से कहानी कह जानेे का दुर्लभ-सा आत्मविष्वास है।

भीष्म जी की इस विशेषता को नामवर सिंह ने अचूक ढंग सेे पहचाना था। ‘कहानी नयी कहानी’ में कहानी की संरचना को लेकर जगह-जगह अनेक सूत्र देते हुए जिस सूत्र के उदाहरण के रूप में उन्होंने भीष्म साहनी का उल्लेख किया है, उसे याद कीजिए। सजीव बिंब, सांकेतिकता, ‘आधारभूत विचार का द्रवीभूत होकर संपूर्ण कहानी के शरीर में भर उठना’, वातावरण-निर्माण, टेक्स्चर – इन सबकी चर्चा करते हुए भीष्म साहनी की कहानियां उदाहरण नहीं बनी हैं। वे उदाहरण बनी हैं इस सूत्र का: ‘‘कहानी जीवन के टुकड़े में निहित ‘अंतर्विरोध’, ‘द्वंद्व’, ‘संक्रांति’ अथवा ‘क्राइसिस’ को पकड़ने की कोशिश करती है और ठीक ढंग से पकड़ में आ जाने पर यह खंडगत अंतर्विरोध ही वृहद् अंतर्विरोध के किसी-न-किसी पहलू का आभास दे जाता है।… यह एक विरोधाभास है कि कहानी जैसा एकान्वित शिल्प अंतर्विरोध पर निर्भर होता है। नये कहानीकारों में भीष्म साहनी में एक ही साथ इन दोनों विशेषताओं का सर्वोत्तम सामंजस्य मिलता है। इस दृष्टि से भीष्म साहनी सबसे सफल कहानीकार हैं।’’ इसके बाद वे ‘चीफ़ की दावत’ का सधा हुआ विश्लेषण करते हैं और बताते हैं कि किस तरह कहानी की मां केवल एक चरित्र नहीं रह जाती, संपूर्ण प्राचीन का प्रतीक बन जाती है। और किस प्रकार ‘एक समर्थ कहानीकार जीवन की छोटी-से-छोटी घटना में अर्थ के स्तर-स्तर उद्घाटित करता हुआ उसकी व्याप्ति को मानवीय सत्य की सीमा तक पहुंचा देता है।’

यह अकारण नहीं है कि जीवन के टुकड़े में निहित अंतर्विरोध, द्वंद्व, क्राइसिस आदि को पकड़ने के उदाहरण के रूप में ही भीष्म जी याद आये, सजीव बिंब या वातावरण-निर्माण या ‘संगीत का-सा प्रभाव उत्पन्न करने’ का सामथ्र्य आदि के उदाहरण के रूप में नहीं। प्रतीक की बात ज़रूर की गई है (‘संपूर्ण प्राचीन का प्रतीक’), पर यह सायास नियोजित प्रतीक के अर्थ में नहीं है, जैसा राजेंद्र यादव या मोहन राकेश के यहां मिलता है। मोहन राकेश की ‘एक और जि़ंदगी’ में कोर्टरूम के भीतर पंखे से कटकर नीचे गिरे पक्षी का प्रतीक एक सजग सहित्यिक युक्ति है जो तलाक लेते पति-पत्नी के बच्चे की लहूलुहान आत्मा का प्रतीकार्थ व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त हुई है। ‘चीफ़ की दावत’ की मां को ऐसी साहित्यिक युक्ति केे अर्थ में प्रतीक नहीं कहा गया है। इसीलिए मां प्रतीक ‘है’ नहीं, प्रतीक ‘बन जाती है’। प्रतीक ‘बन जाना’, दरअसल, पठन के स्तर पर उपलब्ध की गई व्यंजना या ध्वनि है, जो इसीलिए संभव हुई है कि कहानीकार ने एक अंतर्विरोध से जुड़ी विडंबना को सफ़ाई से पकड़नेवाली कथा-स्थिति निर्मित की है। कोई आष्चर्य नहीं कि मां के प्रतीक बन जाने की बात कहते हुए नामवर सिंह को काव्यशास्त्र में वर्णित व्यंजना की याद आई: ‘‘काव्यशास्त्र के आचार्यों ने मुख्यार्थ के भीतर से जो अर्थ की व्यंजना कराई है, वह भी इसी का रूप है। जीवन का सत्य इसी तरह खंड के भीतर से, किंतु उसे खंडित करता हुआ पूर्ण की ओर संकेेत करता है; खंड की सीमा को तोड़कर पूर्ण में मिलता है, मुख्यार्थ को बाधित करके रसमय अर्थ को व्यंजित करता है…।’’

मुख्यार्थ से आगे जाकर व्यंजित होनेवाला अर्थ (मुख्यार्थ कोे बाधित करके नहीं, मुख्यार्थ-बाध लक्षणा का लक्षण है; इस बात पर नामवर जी के नंबर कट सकते हैं), खंड की सीमा को तोड़कर पूर्ण में मिलता जीवन-सत्य – भीष्म जी की कहानियों की यह विशेषता उन्हें सीधा-सादा नहीं रहने देती, अंदाज़े-बयां में वे जितनी भी सीधी-सादी लगें। इसीलिए कहा है, दिल को देखो, चेहरा न देखो…। वस्तुतः अंदाज़े-बयां की सादगी और कहानी विधा की अपनी आकारिक सीमाओं के साथ भीष्म जी जितनी बड़ी वास्तविकताओं की ओर संकेत कर पाते हैं, वही उनके महत्व का आधार है। उनकी यादगार कहानियां – ‘चीफ़ की दावत’, ‘वाड्.चू’, ‘ओ हरामज़ादेे’, ‘अमृतसर आ गया है’, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ आदि – इसीलिए यादगार हैं। ‘वाड्.चू’ का उदाहरण लें। किसी भावुक कर देनेवाले संस्मरण की तरह प्रतीत होती यह कहानी आपको अचूक ढंग से यह अहसास कराती है कि व्यक्तिगत स्तर पर अपने दौर से विदाई ले लेना किसी के लिए संभव नहीं। आपका दौर आपका पीछा नहीं छोड़ता। वाड्.चू पुरानी पोथियों में ही घुसा रहता है, महाप्राण बुद्ध के प्रति एक भावुक लगाव में सिमटा। उसे न नेहरू से मतलब है, न चाउ एन लाई से। उसके अंदर मातृभूमि को लेकर कोई नाॅस्टैल्जिक भाव नहीं है, भले ही कहानी के प्रथम पुरुष वाचक को यह लगता रहा हो कि एक बार अपनी ज़मीन पर लौटने के बाद दुबारा भारत आना उसके लिए भावनात्मक कारणों से संभव नहीं होगा। वाड्.चू के साथ ऐसा कुछ नहीं होता। वह चीन जाता है और दुबारा अतीत की उन्हीं पोथियों में शरण पाने के लिए भारत लौट आता है। लेकिन दोनों जगह वह राज्यतंत्र की निगाह में संदिग्ध है। कोई यह मानने को तैयार नहीं कि वह किसी राज्यतंत्र के लिए हानिरहित एक अतीतजीवी प्राणी है। उसका दौर उसका पीछा करता रहता है और जब पीछा करना छोड़ता है, तब तक वाड्.चू का सर्वस्व लुट चुका होता है। अपने आसपास जितना अतीत उसने इकट्ठा कर रखा था, पांडुलिपियों और नोट्स की शक्ल में, जो उसकी दृष्टि में अत्यंत मूल्यवान था, छिन्न-भिन्न हो जाता है। वाड्.चू का जीवन सारहीन, बेमानी-सा हो जाता है और कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो जाती है। मानो एक ख़ास तरह के पर्यावरण में ही जी पानेवाले प्राणी से उसका पर्यावरण छीन लिया गया हो।

क्या वाड्.चू की त्रासदी को एक व्यक्ति की बदकि़स्मती के रूप में पढ़ा जा सकता है? निस्संदेह, पढ़ा तो जा ही सकता है, पर यह भी निष्चित है कि एक चरित्र और उसके साथ परिस्थितियों के इस घात-प्रतिघात की योजना भीष्म जी ने इतने संकरे पठन के लिए नहीं की है। अनैतिहासिक और समय-निरपेक्ष होकर जिया नहीं जा सकता, यह कठोर सचाई वाड्.चू की त्रासदी में व्यंजित होती है और यह व्यंजना व्यक्तियों से आगे वर्गों, समुदायों और राष्ट्रों पर भी लागू होती है। ‘खंड की सीमा को तोड़कर पूर्ण में मिलता जीवन-सत्य’ यही है जिसको साधने में यह सीधी-सादी कहानी कामयाब है। और इसे साधने के लिए भीष्म जी किसी ऐसी हिकमत का प्रयोग नहीं करते जिसे मैं थोड़े मज़ाकिया लहज़े में ‘सफऱ्ेस टेंशन’ कहना पसंद करता हूं। वे कोई ऐसा वाक्य नहीं लिखते जो आपको अर्थ की किसी विशेष दिशा की ओर ढुलकाने का ज़रिया बन जाए। बावजूद इसके अभिधा से आगे व्यंग्यार्थ की ओर आपकी यात्रा अनिवार्य हो जाती है, क्योंकि कहानी अपने वाक्यों से नहीं, वाक़यों से वह ध्वनि पैदा करने में समर्थ है।

इस रूप में गहरी अर्थ-व्यंजनाओं से भरी कथा-स्थितियों की कल्पना करना ही कहानीकार के तौर पर भीष्म साहनी का स्व-भाव है। शैली-शिल्प में नयापन या अतिरिक्त आकर्षण पैदा करना उनका स्व-भाव नहीं है, इसीलिए जहां वे इसकी कोशिश करते भी हैं, वहां उन्हें कोई सफलता नहीं मिलती। ‘वाड्.चू’ में ही देखें तो पहले वाक्य के साथ भीष्म जी ने एक चैंकाऊ कि़स्म की शुरुआत करने की कोशिश की है: ‘तभी वाड्.चू आता दिखाई पड़ा।’ लेकिन यह ‘तभी’ बिल्कुल जमता नहीं, क्योंकि वह अपना औचित्य सिद्ध नहीं कर पाता। शैली का चैंकाऊपन कतई प्रति-उत्पादक हो जाता है। इसी तरह ‘चीलें’ कहानी में वे चील का जो प्रतीक खड़ा करने की कोशिश करते हैं, वह ख़ासा निष्प्रभावी है। दरअसल, कहानियां उनके भीतर इस तरह के वातावरणधर्मी प्रयोगों के रूप में जन्म नहीं लेती हैं। नयी कहानी में स्त्री-पुरुष-संबंधों वाले कथ्य और प्रतीकात्मक-सांकेतिक शैली-शिल्प-विधान को जो महत्व मिला था, उसने शायद धक्का देकर भीष्म जी को ऐसी कहानी लिखने के लिए प्रेरित किया। वे अपनी प्रकृति से मूड/मनःस्थिति को आधार बनानेवाले कहानीकार हैं नहीं, जैसे कि वे ‘चीलें’ में दिखना चाहते हैं।

पर इसका यह भी मतलब नहीं कि मनोविज्ञान पर उनकी पकड़ मूड/मनःस्थिति को आधार बनानेवालों के मुक़ाबले कहीं भी कमतर है। यह कहते हुए मुझे ‘चीफ़ की दावत’ समेत भीष्म जी की कितनी ही कहानियां याद आ रही हैं, पर जि़क्र सिर्फ़ ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का करूंगा जिसका पाठ अभी मेरी मेज़ पर नहीं है और जिसे पढ़े हुए भी लगभग तीस साल गुज़र चुके हैं। उसका मुख्य पात्र अंग्रेज़ीयत से बहुत प्रभावित है। उसे अंग्रेज़ों की सभी चीज़ें बड़ी अच्छी लगती हैं। एक बार वह कहानी के ‘मैं’ से कहता है कि देखो, अहम् ब्रह्मास्मि का जो अंग्रेज़ी अनुवाद है, वह कितना सुंदर है, ‘आई ऐम द डिवाइन फ़्लेम’। और ऐसा कहते हुए उसके चेहरे पर एक अजीब तरह का दिव्य भाव उभर आता है। फिर कहानी में एक प्रसंग आता है जिसमें एक सिनेमा हाॅल के यूरिनर से अंग्रेज़ उसे धक्के मारकर हटा देते हैं, क्योंकि वह – एक काला देसी आदमी – उन्हें इंतज़ार करवा रहा है। इस घटना के बाद जब कहानी का प्रथम पुरुष वाचक उसके घर पहुंचता है तो कमरे में न पाकर उसे ढूंढ़ता हुआ छत पर जाता है। वहां देखता है कि वह आंखें मूंदे हुए ध्यानस्थ बैठा है और बुदबुदा रहा है, ‘आई ऐम द डिवाइन फ़्लेम… आई ऐम द डिवाइन फ़्लेम’। वाचक को लगता है कि वह मंत्र बुदबुदाता हुआ सतह से दो इंच ऊपर उठ गया है।

यह कथा-सार मैं तीस साल पहले, अपनी किशोेरावस्था मेें पढ़े हुए पाठ केे आधार पर बता रहा हूं। मुमकिन है, इसमें मेरा कुछ अपना भी जुड़ गया हो। पर कहानी की मुख्य विडंबना निभ्र्रांत है। और कहने की ज़रूरत नहीं कि वह हीनता-ग्रंथि की गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़ पर टिकी है। मनोवैज्ञानिक पकड़ के इसी अर्थ में ‘अमृतसर आ गया है’ या ‘ओ हरामज़ादे’ भी मुख्यतः मनोविज्ञान की कहानियां हैं, भले ही कहानीकार घटनाओं की जगह मनःस्थितियों के रचाव में दिलचस्पी लेता न दिखाई दे।

कुल मिलाकर, भीष्म साहनी की अनेक कहानियां कहानी विधा की शक्ति का उदाहरण हैं। जिन लोगों को यह लगता था कि इस छोटे आकार की विधा में बड़ी बात को समेटने का माद्दा ही नहीं है, उन्हें खरा उत्तर देनेवाली कहानियों में भीष्म जी की कई कहानियां शामिल हैं। सबसे बड़ी बात कि यह माद्दा कथा-कथन की सादगी और भरपूर पठनीयता को बनाये रखते हुए हासिल किया गया है। कहानीकार बनने के इच्छुक किसी नये लेखक को अगर यह आत्मविश्वास अर्जित करना हो कि वह भी कहानियां लिख सकता/सकती है तो उसे भीष्म जी की कहानियां अवश्य पढ़नी चाहिए।

संजीव कुमार

संजीव कुमार

संजीव कुमार। युवा आलोचक और कहानीकार। ‘जैनेन्द्र और अज्ञेयः सृजन का सैद्धांतिक नेपथ्य’ पुस्तक के लिए देवीशंकर अवस्थी सम्मान। दिल्ली विश्विद्यालय के देशबंधु कॉलेज में  प्राध्यापक। इनसे sanjusanjeev67@gmail.com पर संपर्क सम्भव है।

सहमत (सफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट) द्वारा प्रकाशित भीष्म साहनी पर केंद्रित पुस्तिका से साभार

आत्मकथ्य- मेरे आलोचक का जन्म: सुरेन्द्र चौधरी

राजेन्द्र यादव जी ने इतिहास को बिका हुआ गवाह कहा है। क्या भावी इतिहास को भी हम खरीदा गया गवाह ही छोड़ देंगे? क्या, हम इतिहास को, प्रभुवर्ग को,प्रभुसत्ता को फिर से समर्पित करने जा रहे हैं? घटनाक्रम ने निराशा पैदा की है,पर इस सीमा तक नहीं। दूसरी परम्परा की खोज का खतरा यह है कि खोज के पहले हम उसे प्रभुवर्ग को समर्पित कर देंगे। क्या हिंदी साहित्य की परम्परा प्रभुवर्ग को समर्पित रही है? अगर नहीं, तो उस परम्परा में ही स्वीकृति और स्वतंत्रता की धाराओं की पहचान की जा सकती है? हाँ, शास्त्र और लोक का भेद संस्कृति के ऐतिह्य रूप के निर्धारण के लिए महत्त्वपूर्ण है।

Surendra Choudhary 13 जून 1933- 09 मई 2001

Surendra Choudhary
13 जून 1933- 09 मई 2001

मेरे आलोचक का जन्म

BY सुरेन्द्र चौधरी

 

किसी विचार-व्यवस्था के लिए मैंने लेखन आरम्भ किया हो ऐसा दावा किए बगैर भी कहना चाहूँगा कि मेरी लड़ाई एक व्यवस्था के लिए थी। याद आता है कि सन् 1951में अपने पहले ही लेख में इस प्रश्न से मैं टकराया था। जैनेन्द्र जी की एक लेखमाला ‘आदर्श क्या : संघर्ष कि समन्वय साहित्य सन्देश में प्रकाशित हो रही थी जो उस समय की सबसे बड़ी प्रतिष्ठित आलोचनात्मक पत्रिका थी। मेरा लेख संघर्ष के पक्ष में और समन्वय के विरोध में लिखा गया था। तब मैं इन्टरमीडिएट का विद्यार्थी था। कॉलेज और नगर में इसकी नोटिस ली गई। हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. वासुदेवनन्दन जी ने जानना चाहा था कि क्या यह लेख मेरा ही लिखा है।

उत्साह में व्यवस्था की परवाह नहीं होती। अगर वह किसी का विरोध करता है तो किसी को चुनता भी है। मैंने संघर्ष चुना था। संघर्ष आज भी जारी है। यह संघर्ष अपने आप से भी चलता है। साहित्य और विशेषत: आधुनिक साहित्य की मेरी समझ वस्तुत: मानव-मुक्ति और राष्ट्रीय-मुक्ति की उस पृष्ठभूमि में बनी जिसमें एक नई संस्कृति का जन्म हुआ था। उसमें संघर्ष की अंतर्ध्वनियाँ मेरे युवा मन ने सुनी थीं और मेरी चेतना ने उसे अपना आदर्श बनाया था। अपने पहले लेख में यह प्रस्तावना आकस्मिक नहीं थी।

ये वर्ष मेरी बहु-उन्मुखता के वर्ष थे। पढ़ाई, छात्र-संगठन, फुटबॉल और राजनीति में एक साथ रुचि रखने के कारण लेखन नहीं कर पा रहा था। पढऩा जारी था। यूरो-इंडियन चिन्तन से स्वतंत्र होकर हमारे लिए कला-रूप, सामाजिक संगठन, विश्व-दृष्टि, और क्रान्तिकारी नैतिकता संबंधी प्रश्न नया दबाव पैदा कर रहे थे। यह सब बहुत सचेत रूप से हो रहा था, चाहे बहुत व्यवस्थित न भी रहा हो। प्रगतिशील लेखक संघ 1953 में नए दौर में प्रवेश कर रहा था। मैं उसके जलसों में पहुँच जाता था। अगले दो वर्ष मेरे आलोचक के निर्माण में अहम भूमिका पूरी करते हैं।

आधुनिकता और आधुनिकीकरण के पूरे दौर में अपनी पीढ़ी को समकालीन मानने का सौभाग्य हमें प्राप्त है। साहित्य के अलावा मेरी रुचि दर्शन और अर्थशास्त्र में थी। साहित्य का प्रश्न सांस्कृतिक प्रश्न बन गया था। गोष्ठियों में स्व. राहुल जी के मुँह से यह मैं कई बार सुन चुका था। वे इसे भाषा से भी जोड़ रहे थे। स्वतंत्र भारत के सन्दर्भ में यह सहज ही अनुमेय है।

एम.ए. में मैं स्व. नलिन विलोचन शर्मा जी के सम्पर्क में आ गया था। वे घोषित रूप से मार्क्सवाद-विरोधी आलोचक थे। मेरी अभिरुचि और साहित्यिक रुझान का उन्हें पता था। उन्होंने मुझे नए मार्क्सवादी आलोचकों का साहित्य पढऩे को दिया। यही नहीं यूरोप-अमेरिका के क्लासिक कथाकारों की रचनाएँ पढऩे को दीं। जैनेन्द्र उनके प्रिय लेखक थे। समकालीन कहानीकारों पर कई उत्तेजक रायें देते रहते थे। उनकी कृपा से मुझे लुकाच, हाउजर, काडवेल, वाल्टर-बेंजामिन आदि का प्राय: अनुपलब्ध साहित्य पढऩे को मिला। निश्चित रूप में तब मैं इनकी पारस्परिक असंगतियों को समझ नहीं पा रहा था। मार्क्सवादियों के बीच ढेर-सारी सांस्कृतिक समस्याओं पर विचार आरम्भ हो चुका था। स्व. नलिन जी की कृपा से मुझे वल्गर सोशियालॉजी पर सोवियत यूनियन में चल रही बहस की एक पूरी पुस्तक उपलब्ध हो गई थी।

निश्चित ही अत्यन्त सम्वेदनशील मार्गों से मेरा प्रशिक्षण हो रहा था। सन् 1955-56 में मैं नामवर जी के व्यक्तिगत सम्पर्क में आया। मेरे वर्तमान का निर्माण उनके हाथों हुआ है। वैसे कई व्यावहारिक मुद्दों पर मैं उनकी कार्य-प्रणाली से अलग भी रहा हूँ। मैंने उन दिनों गया को वैचारिक हलचलों का केन्द्र बना रखा था। अपने कॉलेज की हिंदी परिषद के अधिवेशन राष्ट्रीय स्तर पर मैंने किए। श्री अज्ञेय और डॉ. रामविलास जी को छोडक़र प्राय: सभी इस मंच पर आए। श्री यशपाल, जैनेन्द्र, महादेवी वर्मा, डॉ. भगवत शरण उपाध्याय, भैरव प्रसाद गुप्त, डॉ. प्रकाश चंद्र गुप्त, त्रिलोचन के साथ-साथ राजा राधिकारमण, नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार, डॉ. जगदीश गुप्त, नामवर सिंह, मार्कण्डेय आदि तमाम लोगों का सहयोग मुझे प्राप्त हुआ।

1955-60 के बीच हिंदी आलोचना एक नए दौर में प्रवेश कर रही थी। मैंने छिटपुट निबन्ध इस दौर में खूब लिखे। ‘लहर’, ‘कल्पना’, ‘ज्योत्स्ना’ और साठ के बाद ‘जनयुग’ और ‘आलोचना’ में ‘लहर’, ‘आधार’ आदि पत्रों के साथ लिख रहा था। ‘लहर’ से सम्पर्क में स्व. मित्र राजकमल के माध्यम से आया था। स्व. प्रकाश जैन और मनमोहिनी ने और ‘आलोचना’ में डॉ. नामवर सिंह ने मुझे काफी छापा। आज भी इनका ऋण मुझ पर है। नामवर जी के कारण मेरी आलोचना दृष्टि का विस्तार हुआ। उन्हीं दिनों मैं विदेशी पत्रिकाओं के सम्पर्क में आया। ये पत्रिकाएँ विश्व-स्तर पर जानी जाती थीं और साहित्य-संस्कृति-विचार के सभी अंगों की ताज़ातर समस्याओं को हल करने में लगी थीं।

मार्क्सवाद के साथ इनके अंतर्विरोध साफ थे। पर ये अंतर्विरोध, सारे के सारे कैटेस्ट्राफिक न थे। कुछ हद तक उनका हल निकाला जा सकता था। नववामपंथी चिन्तन भी सुसंगत हो चुका था। क्लासिकल और सोवियत मार्क्सवाद से यूरोपीय मार्क्सवादियों की कुछ दूरियाँ भी मेरे ध्यान में आने लगी थीं। रोज़र गैरोदी तब तक फ्रेंच पार्टी से निकाले न गए थे। वे तेज़ी से लिख रहे थे। ग्रामशी को खूब पढ़ा जा रहा था। उनके ‘हेगेमनी’ के सिद्धान्त की चर्चा हमारे बीच भी होने लगी थी।

हिंदी में डॉ. रामविलास शर्मा के निबन्ध-संग्रह लगातार आ रहे थे। पुस्तकें भी आई थीं। ‘भाषा और समाज’ एक गम्भीर पुस्तक थी। वे भारतीय सन्दर्भ में हमारे सबसे प्रासंगिक लेखक हो गए थे। कुछ वर्ष पहले की स्थिति उलट गई थी। वे ब्रिटिश आलोचकों की तरह जटिल से जटिल विषय पर अपनी प्रवहमान सरल गद्य-शैली में लिखते थे। उनका प्रभाव गैर-मार्क्सवादियों पर भी पड़ रहा था। शैक्षणिक दुनिया में किसी मार्क्सवादी की बात मानी जाने लगी थी। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा, पर मेरा मार्ग नामवर जी वाला ही था।

सन् 1963 में मैंने कहानी पर एक पुस्तक लिखी—’हिंदी कहानी : प्रक्रिया और पाठ’। मैं आज भी उसे एक प्रासंगिक पुस्तक मानता हूँ। कथा-संबंधी यह पुस्तक अद्यतन सैद्धान्तिक-व्यावहारिक प्रश्नों से टकराती थी। कहानी की प्रक्रिया पर, विशेष रूप से हिंदी कहानी की प्रक्रिया पर मैंने विस्तार से विचार किया था। तब भी मेरी धारणा थी कि गाथा को कथा में बदलकर कहानी का मार्ग निकाला गया है। यह हिंदीतर भाषाओं (आधुनिक) के लिए भी सच है। ‘पाठ’ को मैं उत्तरआधुनिकता की चर्चा से पहले महत्त्व दे रहा था। वाचिक परम्परा के समानान्तर मैं पाठ के महत्त्व को सिद्ध करना चाह रहा था। आज इस मुद्दे पर खासी बहस देश-विदेश के कथा-साहित्य में चल रही है। थाने की रपट लिखने वाले कुछ लोग कहानी की रपट भी लिख रहे हैं। उनकी शिकायत है कि मैं नैरेटर और नैरेशन की अपनी रट भूल नहीं रहा। वे राबर्ट शोल्ज की ‘फैब्रुलेटर्स’ और फेडरमैन द्वारा सम्पादित ‘सरफिक्शन’ उलट लें। जेराल्ड ग्रैफ का लम्बा लेख ‘द मिथ ऑफ पोस्टमाडर्निस्ट ब्रेक थ्रू’ (‘ट्राइ क्वाटर्ली’ 1973) भी उन्हें इस वापसी के महत्त्व तक ले जाएगा।

‘अस्तित्ववाद और समकालीन हिंदी साहित्य’ विषय पर अपना शोध-प्रबन्ध लिखा और ‘सामयिक’ में डॉ. नामवर सिंह की पुस्तक ‘कविता के नए प्रतिमान’ की लम्बी समीक्षा लिखी। काव्य-भाषा और कविता की संरचना की ओर मेरा ध्यान इसी क्रम में गया। कथा-प्रक्रिया की तरह काव्य-प्रक्रिया को भी मैंने अलग से समझने की चेष्टा की। वैसे कविता पर लिखने का मेरा कोई विचार न था। इस दिशा में मैंने कोई विशेष चेष्टा भी नहीं की।

कथा की ओर मेरी उन्मुखता ने मुझे फिर कहानी-उपन्यासों की दुनिया में ला खड़ा किया। मैंने एक लम्बे अरसे तक लिखना बंद भी कर दिया। हिंदी में कई नए आन्दोलनों की हवा थी। आधुनिकता और समकालीनता का प्रभाव कहीं मिला-जुला था और कहीं विरोधी था। कथा-साहित्य में समकालीनता की कई समस्याएँ थीं। एक विचित्र सहवर्तिता के भीतर समकालीनता अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रही थी। स्वाभाविक था कि इसमें मेरी दिलचस्पी होती। रेणु पर लिखकर जैसे मैं अपनी ही दृष्टि की सफाई करता रहा। भारतीय साहित्य के निर्माताओं में रेणु की जगह ढूँढ पाने की मेरी चेष्टा ने मुझसे उन पर एक मोनोग्राफ लिखवाया (1988)। इसमें मैंने आधुनिकता और समकालीनता की सरहद पर रेणु के साहित्य का मूल्यांकन किया।

भारत के राजनीतिक संक्रमण को यशपाल, भगवती चरण वर्मा, भीष्म साहनी और रेणु ने अपने-अपने नज़रिए से, गहरी संलग्नता से देखा-परखा था। नागर जी के कई उपन्यासों में शहरी जीवन की संक्रमणशीलता लक्षित हो रही थी। ‘मैला आँचल’ और ‘परती-परिकथा’ में रेणु ने ग्रामीण समाज और जीवन की हलचलों को व्यापक ढंग से चित्रित किया था। उनके राजनीतिक समीकरण बिहार के गाँवों में आज भी थोड़े अंतर के साथ मिल जाएँगे। रेणु ने अपनी राजनीतिक पहचान से ज़्यादा उस नई आर्थिक-सामाजिक प्रक्रिया को पहचाना था जिसका अंतर्विरोध वर्तमान इतिहास की धुरी बन जाता है। गाँव में एक साथ शासन का आधुनिक तंत्र पहुँचता है और सामन्तवाद की वापसी होती है। गाँवों के आधुनिकीकरण की यह बाधा लगभग स्थायी हो गई है।

यह विशेषता रेणु को अधिकांश लेखकों से अलग करती है। मैंने अपने मोनोग्राफ में इसे रेखांकित किया। भूमि समस्या का खूनी आभास उनकी रचनाओं में मिलने लगता है। बहुत-सी पूर्व स्थितियाँ यहाँ आकर खत्म हो जाती हैं, मेरा ध्यान मुख्य रूप से इन खत्म होती स्थितियों की ओर था, क्योंकि उनकी जगह ही नहीं स्थितियाँ भर पातीं। सामन्तवाद की वापसी एक विलक्षण तत्व थी। परिघटनाएँ इसे स्पष्ट कर रही थीं। अपनी पुस्तक में भरसक मैं इन परिघटनाओं के रचनात्मक संयोग पर विचार करना चाह रहा था।

समकालीन कहानियों पर एक पुस्तक लिख रहा हूँ। मेरे मन में एक ही विचार कुण्डली मारकर बैठा है—क्या समकालीन कहानियाँ समकालीनता की सभी ध्वनियाँ प्रकट कर रही हैं? क्या उनमें समकालीन परिस्थिति और प्रसंगों के अलावा कुछ नहीं है? क्या उसमें ‘अन्य’ का विचार केवल लोगों को प्रभावित-आतंकित करने के लिए है। ये नए लेखक क्या अपनी विषय-वस्तु से सचमुच दूर हैं! मुझे ऐसा कभी नहीं लगा। अपनी विषय-वस्तु पर इनकी पकड़ है, चाहे इनकी रचना दृष्टि बहुत व्यापक न भी हो। रचना के शिल्प पर इनकी पकड़ को लेकर अवश्य बहस की जा सकती है।

इतिहास और वर्तमान में एक साथ निबद्ध हमारी कथा का यथार्थ वस्तुत: आधुनिकता के लिए चुनौती है। आधुनिकता ऊपर से नीचे आएगी या वह समानान्तर आगे बढ़ेगी? आधुनिकीकरण की मिली-जुली प्रक्रिया साधक है या बाधक? वह किसके लिए साधक है और किसके लिए बाधक है? आज इस आखिरी प्रश्न का उत्तर देना बहुत कठिन नहीं है। कर्ज़ की व्यवस्था हमेशा-हमेशा उपभोक्ता समाज को जन्म देती है। कर्ज़ की पीने और फाकामस्ती करने की कला हर समाज को नहीं आती!

हमारी रचनाशीलता और रचना के लिए अनुकूल परिस्थिति पर बाज़ार का और बाज़ारू माध्यमों का प्रभाव बड़ा भयानक सिद्ध होगा। पुस्तकें पहुँच से बाहर हो रही हैं। कला-संस्कृति के नाम पर जितने फुटकल आइटम्स परोसे जा रहे हैं वे सूचना से अधिक क्या हैं? क्या सचमुच इनके फुटकल प्रसार से किसी कला-संस्कृति का विस्तार सम्भव है? क्या अभी जो चित्रों की नीलामी हो रही है, वह एक प्रकार के पूँजीनिवेश से भिन्न अहमियत रखती है? ‘जनसत्ता’ में अभी कल इस संबंध में एक रपट छपी है। उसमें कुछ चौंकाने वाली सूचनाएँ हैं। नटराज की मूर्ति का कोई खरीदार न था। पता नहीं, इनमें जो महँगे दामों पर नीलामी हुई, कितनी मूलकृतियाँ हैं। वस्तुओं का दूसरा पक्ष भी है, यह कहकर वस्तु की बजाय संरचना की विशेषता को वास्तविक सिद्ध करने की चेष्टा ने अतियथार्थवाद के सारे प्रकारान्तरों को ध्वस्त किया है, यह हम देख चुके हैं। मैं यह नहीं कहता कि यथार्थ एकात्मक है, मगर क्या रचना में वह केवल अपनी संरचना का विषय मात्र नहीं है, यह हमारे जीवन से उत्प्रेरित वास्तविक गोचर विषय भी है। चरित्र और उसकी स्थितियों में यह यथार्थ अपनी पूरी जटिलता से व्यक्त होता है। हमारी कथात्मक पद्धतियों में शब्द और प्रतीक, वस्तु और विचार, दृश्य और संकेत इस प्रकार अंतर्लयित हैं कि उन्हें अलगाने की स्थिति में यह मौलिकता नष्ट हो जाती है।

यथार्थवाद इस मौलिकता को नष्ट कर रचनात्मक मार्ग नहीं निकाल सकता। परम्परा का यह उपयोग हमें वर्तमान के साक्षात्कार में भी मदद करता है। जीवन की पद्धति पर, भोग-पद्धति पर तकनीकी प्रभाव दुहरे ढंग से प्रतिक्रिया कर रहे हैं। वे हमारे बाहरी जीवन को प्रभावित करते हुए भी हमारी दृष्टि और संस्कार को उस तरह प्रभावित नहीं कर रहे जिस तरह पश्चिमी मनुष्य को कर रहे हैं। परिवार और समाज में आज भी हमारी जड़ें शेष हैं।

यथार्थ गतिशील है। किन्तु यह गति एक समाज से होकर है। इस समाज से होकर ही गति इतिहास बनती है। काल की स्थिति और गति के इस विश्वगत भेद को भुलाकर मानवीय वास्तविकता नष्ट हो जाती है। परकीयता (एलियनेशन) क्या एक सामाजिक अवबोध नहीं है? क्या व्यक्ति एक आकस्मिक घटना भर है? प्रभु और सम्राट के अतिरिक्त क्या और कोई धुरी नहीं है? फिर ऐसे समाजों में कालक्रम में ऐसा भयानक अलगाव कैसे प्रकट हुआ? मानवीय यथार्थ के साथ ये प्रश्न सामाजिक इतिहास और संस्कृति की तमाम पूर्व कल्पनाओं से जुड़े हैं।

परकीयता का कारण वर्तमान यथार्थ में ढूँढना इसलिए भी गलत नहीं है। इसे अस्तित्ववाद की आध्यात्मिक परकीयता से भिन्न करके देखा जाना चाहिए। ये प्रश्न यथार्थवाद के जीवन प्रश्न हैं और तकनीकी समाज में इनके और भी भयानक परिणाम निकलने की सम्भावना बढ़ जाती है। इस दार्शनिक प्रश्न पर ज़्यादा बल देना इस छोटे से आत्मकथ्य में सम्भव नहीं होगा।

इतिहास, साहित्य और संस्कृति के प्रश्न हमारे वर्तमान के लिए सबसे प्रासंगिक हैं। एक स्वतंत्र राष्ट्र का इतिहास और संस्कृति से संबंध स्थापित करने में साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है? भारत के भावी इतिहास, संस्कृति में वर्ग, राज्य और जन में किसकी प्रमुख भूमिका होगी? क्या हम इस भूमिका को निर्धारित करने में साहित्य का कोई भविष्य देख रहे हैं? यह ठीक है कि साहित्य परिवर्तन का औज़ार नहीं है, पर वह एक निर्भर रहने योग्य माध्यम है। साहित्य की क्रान्तिकारी भूमिका इसी अर्थ में ग्रहण की जाती है।

राजेन्द्र यादव जी ने इतिहास को बिका हुआ गवाह कहा है। क्या भावी इतिहास को भी हम खरीदा गया गवाह ही छोड़ देंगे? क्या, हम इतिहास को, प्रभुवर्ग को, प्रभुसत्ता को फिर से समर्पित करने जा रहे हैं? घटनाक्रम ने निराशा पैदा की है, पर इस सीमा तक नहीं। दूसरी परम्परा की खोज का खतरा यह है कि खोज के पहले हम उसे प्रभुवर्ग को समर्पित कर देंगे। क्या हिंदी साहित्य की परम्परा प्रभुवर्ग को समर्पित रही है? अगर नहीं, तो उस परम्परा में ही स्वीकृति और स्वतंत्रता की धाराओं की पहचान की जा सकती है? हाँ, शास्त्र और लोक का भेद संस्कृति के ऐतिह्य रूप के निर्धारण के लिए महत्त्वपूर्ण है।

ब्राह्मणवादी विचारधारा और व्यवस्था के सांस्कृतिक स्वरूप को समझने के लिए यह भेद एक मौलिक आयाम भी प्रस्तुत करता है। जनता से इसके अंतर्विरोध कई स्तरों पर प्रकट हुए। साहित्य में उसकी खोज की जानी चाहिए। पर उसे उस तरह नहीं खोजा जा सकता जिस तरह दलित साहित्य की खोज की जा रही है। सामाजिक परिवर्तन के प्रश्न को आर्थिक होड़ में डालकर हम क्या स्वयं उसकी सम्भावनाओं पर प्रश्नचिह्न नहीं लगा रहे। गांधी की नामलेवा व्यवस्था में भी अन्त्यज अपने हाशिए पर ही हैं। सामाजिक न्याय माँगने वाली शक्तियाँ क्या सामाजिक न्याय देंगी भी!

राष्ट्रवाद का जो भी स्वरूप निर्धारित हो, राष्ट्रीयता हमारी वही रहेगी जो इतिहास द्वारा प्रदत्त है। कौमियतों से स्वतंत्र राष्ट्रवाद की उदग्र परिकल्पना ठीक उसी तरह की होगी जिस तरह वर्णों से स्वतंत्र हिन्दू समाज की परिकल्पना। दोनों में एक ही तरह के खतरे निहित होंगे। ऐसे राष्ट्र में भी वर्ण विरोध बढ़ेंगे ही। मुख्यधारा की अवधारणा और परिकल्पना (जनता के राष्ट्र की) क्या पूरी तरह आयत्त है? अगर नहीं तो उसे जनवादी राष्ट्र की धारणा कैसे प्राप्त होगी? इसका आधार भारतीय जीवन और जन में है, पर उसे विकसित करने और मुख्य धारा के रूप में प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता दिनोंदिन बढ़ रही है। हम साम्प्रदायिकता के एक भयानक दौर से गुज़र रहे हैं। इस आन्तरिक विरोध से जनवादी और क्रान्तिकारी प्रक्रिया बाधित होती है। मनुष्य की सचेत भूमिकाएँ हर दौर में महत्त्व रखती हैं, आज के दौर में उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। उसकी आवश्यकता और बढ़ ही गई है। विश्व केन्द्रीकरण की शक्तियों को नाकाम कर ही जनवादी प्रक्रिया सफल होगी। जैसा कि डॉ. रामविलास शर्मा जी ने लिखा भी है—इजारेदार पूँजी सैन्य केन्द्रीय राज्यसत्ता, केन्द्रीय प्रजातंत्र आदि से हमारी दूरी बढ़ रही है। अंतर्विरोध तीखे हो रहे हैं। (‘क्रान्तिकारी जनवाद का दर्शन और भारत’, साम्य पुस्तिका-9)।

विकासशील देशों के गैर-पूँजीवादी मार्ग पर बढऩे की आर्थिक-राजनीतिक सम्भावनाएँ कम होती जा रही हैं। कुछ तो बाहरी दबावों के कारण और कुछ सोवियत व्यवस्था के नष्ट होने से इस मार्ग की बाधाएँ बहुत बड़ी हो गई हैं। राष्ट्रीय सरकारों पर जनता का जैसा दबाव होना चाहिए, वह नहीं है। उन पर विश्व-बैंक और मुद्राकोष का दबाव ज़्यादा है। आन्तरिक अव्यवस्था से ऐसी सरकारें दिन-ब-दिन ग्रस्त होती जा रही हैं, हमें इसे भूलना नहीं चाहिए। प्रतिरोध सफल न हुआ तो हम एक अधिक जटिल और आतंककारी गुलामी की गोद में गिर सकते हैं। वर्तमान परिस्थितियों में हमें जनता के बीच के अंतर्विरोधों से भी निबटना पड़ेगा।

संस्कृतियों की स्वायत्तता को नष्ट कर एक भावी सभ्यता के सर्वग्रासी रूप की परिकल्पना कैसी लगेगी? वर्तमान पूँजीवादी सभ्यता क्या इसी ओर बढ़ रही है? इतिहास-दर्शन के अनेक प्रश्नकर्ताओं ने सदी के दूसरे दशक में ही इसकी सम्भावना व्यक्त की थी। दो विश्वयुद्धों के बाद पश्चिमी पतनशीलता क्या नव-उपनिवेशवाद से थमी है। मगर यह साझा उपनिवेशवाद कहाँ तक चलेगा? फिलहाल इन नव-उपनिवेशवादी हमलों से विकासशील देश ही त्रस्त नहीं है, कुछ उन्नत पूँजीवादी देश भी परेशान हैं। फ्रांस इसका ताज़ा उदाहरण हैं।

जनवादी क्रान्ति में क्या विकासशील राष्ट्रों की मुक्ति निहित है? यह प्रश्न तमाम पिछड़े हुए किन्तु परिवर्तनकामी राष्ट्रों की समस्या है। भारतीय वामपंथी-जनवादी इस संबंध में क्या सोच रहे हैं यह भी हमसे छिपा नहीं है। पर जनता क्या उनसे स्वतंत्र भी कुछ सोचने के लिए राजनीतिक रूप से तैयार है? ये प्रश्न हमारे लिए निर्णायक प्रश्न हैं।

इन बृहत्तर प्रश्नों के सन्दर्भ में रचना और आलोचना की स्थिति पर विचार करना एक बार फिर ज़रूरी हो गया है। भारतीय नवजागरण के भावी परिणामों पर विचार करने के पहले उसके वर्तमान स्वरूप पर विचार करना ज़रूरी है। क्या यह नवजागरण राष्ट्रीय परिदृश्य में बिखराव—धार्मिक अस्मिता और शोषित राष्ट्रीयता जैसे नारों में—ला रहा है? क्या उसका कोई भी सकारात्मक भविष्य नहीं है? नवजागरण में तो राष्ट्र को जनता की शक्ति मिलनी चाहिए और जनता को राष्ट्र की ऐक्यबद्धता। उपनिवेशवाद के पहले दौर में हमारे नवजागरण को पीछे ठेल दिया गया। क्या नव-उपनिवेशवाद का सांस्कृतिक हमला उसे पीछे ठेलने में समर्थ हो जाएगा? हमारे सामने ये चुनौतियाँ हैं। हर वामपंथी मंच पर यह खुली बहस का विषय है। स्थितियों के साथ संवाद बनाए रखना ज़रूरी है। नवजागरण के तमाम मुद्दे नए सिरे से तय करने की कोशिशें भी चल रही हैं।

लोकजागरण जनता के जनवाद के पक्ष में जाए इसकी संभावनाओं और बाधाओं पर दृष्टि केंद्रित किए बिना बहुत सारी सांस्कृतिक समस्याओं का हल नहीं निकलेगा। इसके लिए साहित्य के नवगठन और पुनर्गठन का महत्त्व क्या है?

आज़ादी हमारे निकटतम इतिहास की सबसे बड़ी घटना है। इसके साथ एक विशाल जनगण का भविष्य जुड़ गया था। उपनिवेशवाद से मुक्ति के इस दौर में अनेक छोटे-बड़े राष्ट्र इस भविष्य से जुड़ गए थे। परिवर्तन की एक अमूर्त भावना जनगण में थी। विकासशीलता को एक नया सन्दर्भ और अर्थ मिल गया था। पर साथ ही यह भी एक तथ्य है कि इस लोकतंत्र की शक्ति को पहचानकर भी उसके व्यावहारिक तर्क अलग-अलग पडऩे लगे थे। समाजवाद की अंतर्ध्वनियाँ सुनाई ज़रूर पड़ती थीं पर उन्हें समर्थित आधार देने वाला कोई बड़ा संगठित वर्ग न था। जनता ने अपना जनतंत्र नेतृत्व को प्राय: समर्पित कर अपनी भूमिका को विराम दिया। राष्ट्रीय पुनर्गठन का समाजवादी लक्ष्य फिर भी तय न हुआ। व्यावहारिक तर्क एकता और संघर्ष की वामपंथी असमंजस्यता का शिकार हुआ। गैर-काँग्रेसवादी कार्यनीति गैर-राजनीतिक गठबन्धन से अधिक कुछ न रही।

जनता के पुनर्गठन का सवाल तय न हो तो कला और संस्कृति के पुनर्गठन का प्रश्न स्वत: कुछ मध्यवर्गीय समूहों तक सीमित हो जाता है। ये मध्यवर्गीय समूह अपने को पिछड़े हुए समाज से अलग-थलग समझते हैं। यही नहीं ये क्रान्ति की क्रान्तिकारी व्याख्या करते हुए यह कार्यभार दूसरों को सौंप देते हैं। परिणाम स्पष्ट है, बहुत-सी ऊँची लहरें समय के साथ गुज़र जाती हैं। एकत्वहीन मध्यवर्गीय समूह हलचल को अपनी स्वतंत्रता मानकर जनवाद और क्रान्ति को किस कदर बदनाम करता है, इसकी मिसालें हमारे यहाँ के अलावा अन्य समाजों में भी मिल जाएँगी।

जनवाद के सन्दर्भ में एक विशेष स्थिति इसलिए भी देखी जा सकती है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की वर्तमान काँग्रेस ने समाजवाद को एक चीनी तत्व बनाकर छोड़ दिया है।

डॉ. रामविलास शर्मा जी ने साहित्य, परम्परा, जातीयता, इतिहास और विश्व-दृष्टि को लेकर इधर कुछ नए और बड़े सवाल उठाए हैं। अभी इनमें से अधिकांश सवाल बहस के बीच हैं। मगर इन प्रश्नों ने हमें बड़े राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य से जोड़ दिया है। भारतीय साहित्य के इतिहास-दर्शन से ये तमाम प्रश्न जुड़ते हैं। कोई भी मार्क्सवादी विचारक इन प्रश्नों से बचाव नहीं कर सकता। उनका भारतीय मानसिकता की ओर लौटना उस अर्थ में नहीं लिया जा सकता जिस अर्थ में हम ‘हारे को हरिनाम’ कहते हैं। वे सम्पूर्ण मानसिकता को एक रचनात्मक और सृजनात्मक जीवनधारा से द्वन्द्वात्मक रूप में परखने के लिए यह यात्रा करते हैं। संस्कृतियों के अध्ययन की एक नई दृष्टि विकसित करने का श्रेय शर्मा जी के लेखन को जाता है। भारतीय सन्दर्भ में वे अकेले मार्क्सवादी हैं जिन्होंने दो पीढिय़ों का प्रशिक्षण बड़े पैमाने पर किया है। उन्हें कई मुद्दों पर अस्वीकार करने के लिए भी हमें नया कुछ सोचने पर विवश होना पड़ता है।

मेरे दिमाग में भारतीय कृषितंत्र और ग्राम समुदायों के संघटन का एक ऐसा ही मसला फँसा हुआ है। ग्राम-समुदायों को लेकर इधर मार्क्सवादियों के बीच काफी बहस चली है। सन्दर्भ एशियाई उत्पादन-पद्धति का रहा है। क्या भारतीय ग्राम-समुदायों की परिकल्पना महज़ एक उपनिवेशवादी तंत्र की आवश्यकता थी? क्या पितृ-सत्तात्मक-समाज निरंकुश साम्राज्य और निरीह ग्राम-समुदाय स्वयं मार्क्स के लिए समस्या नहीं बने थे? अगर ये ग्राम-समुदाय ही निरंकुश साम्राज्यों का उत्सर्जन करते हैं और स्वयं जड़ रह जाते हैं तो इस जड़ता का रहस्य बहुत अबूझ नहीं रह जाता। इसका यह अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए कि इस प्रकार का कृषितंत्र स्वयं गतिहीन था। सामुदायिक सम्पत्ति और बड़े कुटुम्ब-परिवारों की व्यक्तिगत सम्पत्ति को लेकर अभी काफी उलझनें बनी हुई हैं। बहरहाल, कृषितंत्र और कृषि पर आधारित समुदायों के जीवन पर पुरातत्व का भी प्रयत्न अब तक निर्णायक नहीं है।

हिंदी भाषी जाति, लोक जागरण (मध्ययुग) और हिंदी नवजागरण को लेकर शर्मा जी ने बहुत कुछ लिखा है। हिन्दू पुनरुत्थानवादियों के लिए वे एकमात्र चुनौती हैं। चुनौतियाँ निरस्त प्रतिमानों की नहीं होतीं।

समकालीन साहित्य पर मैंने फुटकल बहुत लिखा है, पर लगता है फुटकल लेखन कभी बंद किया जाना चाहिए ताकि थोक लिखने का अवसर बने। अभी तक जो पहचान बनी है वह इस फुटकल लेखन की ही है। कोशिश कर रहा हूँ कि इससे उबरूँ। कुछ पारिवारिक परिस्थितियाँ,  कुछ छोटे शहर की सीमा, चाहकर भी नया लिखने की परिस्थिति कम बनती है और जब बनती है तो बाहर दौडऩा पड़ता है। विश्वविद्यालय का पुस्तकालय अभी अव्यवस्थित ही चल रहा है। इधर अनुदान की राशि में भारी कटौती ने कई समस्याएँ पैदा कर दी हैं। स्तरीय पत्रिकाएँ भी खरीदी नहीं जातीं।

जितनी तैयारी है उतने को भी संयोजित करना चाहूँ तो कुछ वर्ष लग ही जाएँगे। दिमाग में कई छोटी-बड़ी योजनाएँ हैं। अभी कहानी की समकालीनता पर एक छोटी पुस्तक लिखने में लगा हूँ। कुछ मित्र सवाल करते हैं कि क्या कहानी की समकालीनता कोई ऐसा परिदृश्य तैयार करती है कि उस पर गम्भीरता से विचार किया जा सके। मेरे लिए समृद्धि और दरिद्रता दोनों चिन्ता के कारण हो सकते हैं। मेरे लिए इतना आश्वासन पर्याप्त है कि कहानी की समकालीनता हिंदी कहानी की समकालीनता के पक्ष में है। बाहरी बोझ उस पर कम हुआ है। अपनी विषय-वस्तु पर कहानी की पकड़ मज़बूत हुई है। समय की जटिलता के नाम पर अमूर्त कहानियाँ कम लिखी जा रही हैं। हाँ, आरक्षण के सवाल पर कहानीकारों में आपसी अलगाव थोड़ा लक्षित हुआ है। यह पूरे देश की वास्तविकता है और केवल इसे कहानीकारों के बीच के विभाजन के रूप में नहीं देखा जा सकता।

चेखव को जुमलों से मारने वालों पर आज टिप्पणी करने की ज़रूरत नहीं। ज़रूरत है समकालीन कहानी को अपनी आधुनिक पहचान देने की जो हमारे लिए एक निर्णायक प्रश्न है। कला और कहानी के संबंध को उस तरह नहीं देखा जा सकता जिस तरह कला और कविता के संबंध को देखा जा सकता है। अपने विवेचन में भरसक मैं इस विवादास्पद प्रश्न से जूझा हूँ। वैसे अपनी शक्ति को बढ़ा-चढ़ाकर देखने की कोशिश मैंने अब तक नहीं ही की है।

एक छोटी योजना भारतीय मिथक-चक्र पर लिखने की है। किसी जाति या जातियों के समुदाय का विचार-विश्वास मिथकों के अध्ययन से जाना जाता है। इतिहास पूर्व का सांस्कृतिक स्रोत होने के कारण इनका विश्वव्यापी अध्ययन किया गया है और आज भी किया जा रहा है। हमारे देश में मिथकों के कई चक्र हैं जिनसे हमारे उपमहाद्वीप की जीवनविधि में आए परिवर्तनों को समझा जा सकता है। ये विश्वास परलोक संबंधी ही नहीं, इहलोक संबंधी भी हैं। वैदिक-पौराणिक मिथक-चक्रों के साथ उनके लौकिक चक्र भी हैं जो लिखित से अधिक वाचिक परम्पराओं में जीवित हैं। तुलनात्मक रूप से इनका अध्ययन अनेक समानताओं और विरोधों को उजागर करता है।

ब्राह्मणवाद एक व्यवस्था भी है और विचारधारा भी। इन दोनों रूपों में उसके ऐतिहासिक अध्ययन की योजना है। थोड़ा काम किया भी है। वर्तमान सन्दर्भ में तो यह विचारधारा एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। इतिहास के भीतर से वर्तमान तक आकर क्या भावी समाज के लिए यह संकटपूर्ण व्यवस्था साबित होने जा रही है? इन तमाम प्रश्नों से टकराना आज ज़रूरी है। ब्राह्मïणवाद क्या कोई ऐतिह्य उत्तर देने की स्थिति में है? कौन-सी व्यवस्था इसका उत्तर है? क्या भारतीय समाज इस विकल्प के लिए तैयार है? जनवादी व्यवस्था में क्या ये बद्धमूल अंतर्विरोध नष्ट होंगे? ऐसे कुछ मुद्दे क्या विकल्प की व्यवस्था के लिए तय हैं? आलोचनाकर्म की जटिलताओं से खूब परिचित हूँ। मेरे लिए आलोचना एक प्रकार का रचनात्मक विवेक है। सम्वेदना उसकी बुनियादी शर्त है। इस समीकरण के बावजूद आलोचना कठिन होती है। आलोचना का व्यावहारिक पक्ष मज़बूत हो तो सिद्धान्त की व्यवस्था अदृश्य भी छोड़ी जा सकती है। इसे हमारे कुछ मित्र विसर्जनवाद मानते हैं। सिद्धान्त के प्रति अतिरिक्त मोह का कारण क्या झूठी आत्मसजगता से कुछ अधिक है? मेरे कुछ जनवादी मित्र, जो अरसे पहले अपनी सिद्धान्त-प्रियता के लिए प्रसिद्ध थे, आज सबसे उपराम दिखाई पड़ते हैं।

किसी ने ठीक लिखा है कि आलोचक अपने अनुभव के साथ-साथ एक समृद्ध रचनात्मक अनुभव से भी बहुत कुछ सीखता है। बृहत्तर अनुभव-संसार से उसका यह सब कुछ सीखना, जो अपने एकान्त अनुभव से वह नहीं सीख सकता, उसकी दृष्टि को अधिक व्यापक भोग (भाव) के क्षेत्र में उछाल देता है। उसके कर्तव्य में इस दुहरे अनुभव की जटिलताएँ प्रकट होती हैं। ये अनुभव पूरक भी हो सकते हैं और परस्पर विरोधी भी। इन स्थितियों में उसका हल भी उसे ढूँढना पड़ता है। जीवन में, और विशेष रूप से समकालीन जीवन में, जो कुछ आंतरिक और स्फूर्तिदायक है उसकी पकड़ और पहचान सरल क्रिया नहीं होती। हम अनुभव की इन संजटिल चुनौतियों से जूझते हुए उनका कलात्मक और रचनात्मक अर्थ प्राप्त करते हैं।

हमारे अनुभव-संसार में बहुत से मूलगामी महत्त्व के परिवर्तन हुए हैं। पिछले चालीस वर्षों के इन अनुभवों का समकालीन संसार भारत के यथार्थ को समझने के लिए बहुत ही प्रासंगिक है। भारतीय सन्दर्भ में अन्य देशीय यथार्थ को समझने की चुनौतियाँ भी इसी में शामिल हैं। आधुनिकता और समकालीनता की बहुत-सी असंगतियाँ अगर हल की गई हैं तो बहुत-सी नई पैदा भी हो गई हैं। एक सचेत आलोचक के लिए इनकी रचनात्मक पहचान इसलिए भी बहुत ज़रूरी है।

आलोचनात्मक प्रेरणा का रहस्य इस काल की दुहरी बनावट में आज झाँकने से खुलता है। देश बाद में बदलता है काल में इसकी प्राथमिकताएँ पहले ही झाँकने लगती हैं। यह काल के अनुभव को बार-बार पुनर्गठित करने की प्रक्रिया में व्यक्त होती हैं। आज के समाज में यह प्रक्रिया कुछ ज़्यादा ही तेज़ हुई है। और भविष्य में यह कुछ अप्रत्याशित ढंग से प्रकट होती है, इसकी सम्भावनाएँ बढ़ गई हैं। तकनीकी क्रान्ति का यथार्थ पर यह प्रभाव अनिवार्य है। आलोचना कर्म के लिए प्रसंग प्राप्त स्थिति सुखद न हो, पर अनिवार्य है। कलात्मक अनुभव के संबर्द्धन के लिए यह और भी ज़रूरी है। कलात्मक अनुभव का यह योगपद आलोचक को सच्ची परिपक्वता देता है। यह आलोचना का ‘डायलेक्टिक’ गढऩे में उसकी मदद करता है। संकीर्ण द्वन्द्व से उसे उबारता भी है। एक प्रकार के सँकरे डायलेक्टिक की गिरफ्त में आकर यह कलात्मक अनुभव भी व्यर्थ हो सकता है। आवेश सम्वेदना का पर्याय नहीं हो सकता, वैसे जीवन के साधारण अनुक्रम में वही पहले प्रत्यक्ष होता है।

हिंदी आलोचना की कुछ व्यावहारिक समस्याएँ भी हैं। वह एक लम्बे अरसे से परिवर्तन और परम्परा के संक्रमण की पीड़ा झेल रही है। एक पारम्परिक समाज में ऐसी समस्याएँ आकस्मिक नहीं होतीं। परम्परा को जड़ता मानने की आदत से आलोचना को परहेज़ करना चाहिए। परम्परा से गति को शक्ति मिलती है। परम्परा सम्वर्धन है। परिपाटी अलग चीज़ है। वह कुछ तोड़ती नहीं, इसलिए कुछ नया जोड़ती भी नहीं। एक यांत्रिक और निर्धारित मार्ग का अनुगमन-भर करती है। परम्परा नवीनता को लयबद्ध गति की स्वच्छंदता के रूप में आत्मसात करती है। वह केवल लयहीन गति का विरोध करती है। दूसरी परम्परा की खोज करने के बदले यदि हम इस लयबद्ध गति की स्वच्छंदता की खोज करें तो परम्परा के नवीकरण के लिए वह उपयोगी होगा।

मूल्यवान को निरर्थक से अलग करने की यह एक विधि-सम्मत प्रणाली भी है।

रचनाकारों को आलोचक से हमेशा शिकायत रही है। आज यह कोई नई बात नहीं है। अगर कुछ नया है तो वह यह कि आलोचना की मंचबद्धता ने प्रतिबद्धता का एकाधिकार प्राप्त कर लिया है। समस्त क्रान्ति का स्रोत अपने को सिद्ध करने वाले मंच आज अपने अंतर्विरोधों से ही परेशान हैं। रचनाकार इसके लिए कम दोषी नहीं है। मंच लेखक का होता है, कुर्सियाँ आलोचक सँभालता है। प्रतिबद्धता इतनी विवश, इतनी सँकरी नहीं हो सकती। जो हमारे मंच से बाहर के लेखक हैं वे तो लगभग तय मानते हैं कि हमारे रुख में कोई सकारात्मक परिवर्तन होने से रहा। हमारी उदारता भी उन्हें अभिप्राय-मुक्त नहीं मालूम पड़ती।

आलोचक की अविश्वसनीयता एक खतरनाक स्थिति है। वह निर्णायक प्रश्नों को भी संदेहास्पद बना देती है। यही नहीं, रचना की पहचान के लिए भी वह एक द्विविधाजनक मानसिकता तैयार करती है। आलोचना की एक अच्छी पुस्तक पढऩे का अवसर वर्षों बाद आता है। समीक्षाएँ, रचनात्मक पहचान नहीं बना पातीं। लगता है इस मोर्चे पर भयानक सन्नाटा तिर रहा है। रामविलास जी इस सन्नाटे को तोड़ रहे हैं, क्या यही हिंदी आलोचना की एकमात्र गतिविधि है? सुनता हूँ कि हिंदी नवजागरण पर नामवर जी की एक पुस्तक आ रही है। उससे शायद जड़ता थोड़ी टूटे। सन्तोष करने के और भी बहाने ढूँढे जा सकते हैं।

अपने स्वर में उभरती हुई निराशा स्वयं मुझे चौंकाने वाली लगती है। रचना और आलोचना के लिए आज कोई स्थिति निरापद नहीं हो सकती। पर निराशा एक भिन्न स्थिति है। वह समय के आवर्त्त में हमें और अकेला करती है। इसके विपरीत रचना और संघर्ष के व्यावहारिक रिश्ते लेखक की ऊर्जा के स्रोत होते हैं। कुछ ही लेखक यदि उस रिश्ते को जीवित रखते हैं तो उत्सर्जन की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं। आलोचना इनका आधार दृढ़ कर सकती है—रचना और संघर्ष को व्यावहारिक बनाने में उसका सर्जनात्मक योगदान हो सकता है।

जीवन-मूल्यों के बीच कहीं गहरी और निर्णयात्मक टकराहट है। पूरे समकालीन भारतीय जीवन और विचारों-विश्वासों में उसकी व्याप्ति देखी जा सकती है। ऐसी स्थिति में अपने ही लिखे पर विश्वास जमाना चाहता हूँ। मैं अपने लिखे पर अमल करता रहा हूँ। इसलिए भी आत्मविश्वास बढ़ा है। वैसे अभी ऐसा कुछ मैंने नहीं लिखा जो मेरी पहचान को एक सार्वजनिक चेहरा दे सके। साठ की उम्र तक पहुँचकर भी ऐसा न हुआ, इसके लिए खुद भी जि़म्मेदार हूँ। पढऩे की मेरी जि़द ने लिखने में बाधा पैदा की है। आज भी जब कुछ पढऩे को मिल जाता है तो लिखना हफ्तों स्थगित रहता है। नोट्स लेने के अलावा कुछ भी लिख नहीं पाता। लिखना सचमुच साधना है।

भारतीय लेखन के सन्दर्भ में हिंदी लेखन पर विचार किया जाए यह एक शुभ स्थिति होगी। अब तक हमने केवल अंतरराष्ट्रीय साहित्य में ही अपनी जड़ों और शाखों की पहचान की है, अब ऐसा भी समय आ गया है कि हम अपनी जड़ों पर भी ध्यान केन्द्रित करें। हमारे साहित्य में जो जनवादी तत्व हैं और प्रगतिशील भविष्य के लिए आवश्यक तत्व हैं—उनको सहेजकर रचनात्मक चित्र का पोषण करें। समकालीन वैचारिक संघर्ष में उनसे हमें असीम मदद मिलेगी।

संबंधों को विजातीय बना देने वाले जिस समय में हम जी रहे हैं और आततायी परकीयता झेल रहे हैं उससे जनता और साहित्य-संस्कृति की मुक्ति के लिए हमें लम्बा रास्ता तय करना है—यह रास्ता संघर्ष का रास्ता है, हमारे उदग्र अभियान का अंग है।

षष्ठिपूर्ति पर पठित, ‘परिवेश’, नवंबर, 1992-अप्रैल, 1993 से साभार

 

Published Books Of Surendra Chaudhary:

  •  Hindi Kahani : Prakriya Aur Path (Hindi), Radhakrishna Prakashan
  •  Phanishwar Nath Renu, Sahitya Academy
  • Itihas : Sanyaog Aur Sarthakata, Antika Prakashan
  • Hindi Kahani : Rachana Aur Paristhiti, Antika Prakashan
  • Sadharan Ki Pratigya : Andhere Se Sakshatkar, Antika Prakashan

 

Decades of Ideological Cold War and Hindi Literature: Surendra Chaudhary

On The Occasion of  Surendra Chaudhary’s Birthday Eve

By Pranay Krishna 

The reproduction of an article here titled ‘Decades of Ideological Cold War and Hindi Literature’ by Surendra Chowdhary, one of the most brilliant progressive critics of Hindi literature of the cold-war period,  shall serve its purpose not only  as a tribute to him but also inspire us to think afresh on the whole issue with the advantage of hindsight. Surendra Chowdhary’s article presents a sketch or a broad outline of how the ideological cold war was played out on the turf of Hindi literature. He correctly underscores the legacy of Indian ‘renaissance’ of 1870s and the impact of October revolution which was inherited by the progressive movement, much before the cold- war set in. It would not have been out of place had he also underlined how the progressive movement reclaimed the legacy of anti- feudal, anti-imperialist thrust of India’ first war of Independence (1857), so eloquently brought about in the critical writings of Rambilas Sharma, whom he holds in very high esteem.
Chowdhary is probably the only critic of his time whose writings in practical criticism are uniformly informed by a ‘third world’ perspective. The dynamics of decolonization are never lost to his critical mind. This location of a critic itself ensures that his perception and treatment of the impact of ideological cold war in Hindi literature is more nuanced. In his own words, “The national root of this cold war was extremely divergent.” He never reduces the creative literary endeavors to world-historical political polarizations. He is also vigilant against single theoretical determinant in literary practices. However, when he mistakes the ‘inner struggle of new poetry’ for a confusion borne out of progressive poets cooperation with the ‘modernists’ for reasons of their being afflicted with personal crises, he somehow tries to reconcile his position with that of R.B Sharma who wanted a very neat division between the modernists and the progressives ignoring the conditions (political, ideological, social, aesthetic and moral) which had initially brought them together in 1940s. ‘Loneliness of a universal order’, ‘estrangement of man’, ‘suffering becoming a personal and permanent condition of man’ etc. as literary slogans was not so marked in the initial rendezvous of progressives and the modernists. As the ideological cold-war intensified, the arena of ‘new poetry’ became a battleground and got increasingly polarised with G.M. Muktibodh and Ageya representing almost opposite poles of literary theory and aesthetics. Given the later progress of Hindi poetry, it is hard to agree with the proposition that out of so called ‘confusion’ alluded to above, the ‘New Poets’ gained an ideological supremacy. In fact, ‘New Poetry’ was never a monolith, a settled terrain. It always remained a battleground and now one can say with reasonable assertion (and caution as well) that the pole represented by G.M. Muktibodh in the battle ultimately paved the way for the later generations of poets.
Chowdhary has nonetheless correctly remarked that the short stories of 1960s reflected a strange combination, a sort of symbiosis of opposing forces, whereby realism combined with personal vision of the world, sometimes bordering on nihilism. He is absolutely correct in identifying late 60s and early 70s as decades when ‘the hitherto suspended class struggle assumes a new proportion unknown in the contemporary India’ which resurrected the ‘progressive movement’. The Naxalbari uprising and the ‘anti-emergency’ movements were the hallmark of this era. Despite his political affiliation with the ‘official left’ of his time, he has the courage to recognise that ‘generally retracting a life of suffering and struggle these left-wing writers and poets showed a genuine concern for the Indian masses.’
Post cold war literary scene in Hindi has been interesting. Sudden realisation of a world without two poles, rise of communal fascist forces in India, unfolding of atrocious neoliberal LPG regime, abstraction of social classes in identitarian terms and a wave of postmodernist discourses, all had their impact on the literary scene of Hindi, yet none could decisively dislodge the general progressive trend which is getting increasingly amalgamated into a broad ‘culture of resistance’. Frustrated ‘aesthetes’ of older generations are showing a tendency of reverting back to the leftovers of the reactionary cultural rhetoric of the cold war era. One of them has gone so far as to express gratitude towards the CIA for bringing ‘other’ (non-left) literature to light.
Chowdhary has concluded this article with these words, “From the New-left to the revisionist-left there is a wide range of critical approaches. This has to be settled soon in order to prevent further confusion and dissension. This is all the more important in the wake of a right-reactionary offensive on all fronts. In the present context it is an ardent task of a Marxist critic to consolidate its rank to combat all sorts of deviations on the left or on the right and to bring together all the democratic, secular and socialist forces in their fight against fascism.” These words are even more relevant today than they were in late 1970s when this article was penned.  
Surendra Choudhary

Surendra Choudhary

Decades of Ideological cold war and hindi literature

BY Surendra chaudhary

The impact of the October Revolution was felt first during the ‘20s when India’s political freedom movement entered a new mass-phase, titled a little towards left and found favour with the new generation of freedom fighters.

A composite struggle was on throughout the third world nations, specially in the colonial and semi colonial nations of Afro-Asia. Not only theoretical problems of historical dimensions touched our horizon, but also the forces of social-political changes swept our consciousness. Lenin very correctly defined the perspective when he said: “the Imperialist war that is being waged for world domination; the division of the spoils for the plunder of small and the weak nations; this horrible, criminal was has ruined all countries, exhausted all peoples and confronted mankind with the alternative- either sacrifice all civilization and perish or throw off the capitalist yoke in the revolutionary way, do away with the rule of the bourgeoisie and win socialism and durable peace.”

The event of October 1917 had triggered a two-fold reaction- one deep inside the capitalist west and the other in the oppressed East. Indeed the development of the later day events created a dialectical situation of many antagonistic sources. Yet, at the same time, this development simplified the socio-political contradiction in a basis manner. It brought before every growing nation the idea of incompatibility of capitalism with freedom. The imperialist and bourgeois ideologues since have taken resource to cold-war ideologies. Ever since then they are trying desperately to combat the growing influence of socialism and Marxism in the Third World.

Literature in general reflected this development of the world events. In Hindi literature a new turn in temper appeared which historically linked itself with the fighting tradition of the bourgeois-national renaissance of 1870s, but at the same time defined a new task ahead, the task of a basic transformation of Indian society.

Premchand opened his novel Karmbhumi(The battle ground) with a composite Indian reality- a  radical oriented mass-movement, sweeping the country against Imperialism on the one hand and the indigenous feudal forces on the other. A historical analysis of the ‘30s will show a fundamentally new perspective in which the reality appeared to give new meaning to human action. Of course a critical study of social meanings cannot entirely replace an understanding of socio-political process in its dialectical complexity.

In 1936 a progressive writer’s Association was formed under the leadership of Shri Premchand, one of the biggest contemporary personalities in the literary world. A movement of national dimension thus started and soon submerged opposing ideas for the time being. Even those who were not Marxists adhered to the idea of a basic social transformation and political independence.

A new content is discerned in literature which not only bears out a radically revolutionary character but also a basically new rationale for such a change. Even in pre-PWA period Premchand had set a tone which was anti-imperialist and anti feudal. His articles and novels on Mahajani Sabhyata had come to be a manifesto of the new movement. The tone set in by Premchand further developed in the newly created situation and assured a widely growing form of revolutionary idea.

Even Jurgen Ruhle, an anti marxist critic wrote, “Premchand’s last and most mature work, the novel Godan(1936) is a stiring, tragic tale of the expropriation of the Indian peasantry through the machinations of capitalist.”(Literature and Revolution). Ruhle calls it ‘a moralizing manner of Indian Realism’. Notwithstanding the moral overtones  in Premchand’s earlier works, we can very definitely say that  he attacked all forms of complex religious and socio-political institutions which frustrated India’s emancipation. The national base of socialist forces both ideological and political-was growing very fast when Premchand dies in 1936. The younger generation of Hindi writers felt very clearly that overall situation was not corresponding to dialectic of historical necessity. There was discontent in the air.

The peasantry and the middle class had entered the political arena as a cohesive force which enlarged both the content and form of our struggle. It was during the mid ‘30s that the level of political participation changed. There was a clear move towards the left. It was here that a bigger involvement was necessitated, political freedom was submerged in social and economic issues. The impact was felt on all ideological as well as emotional disciplines. It was in these years that Hindi literature displayed growing social consciousness in all fields of creative writing.

The years following the second world war were catastrophic in more than one way. The war years further aggravated the situation by creating conditions antagonistic to the wishes of the Indian people. A war economy had falsely developed, bringing a section of the urban middle class to affluence at the cost of the masses laboring day in and day out for their living. Even the lower middle class suffered a major setback during the years of imperialist war. There grew a general aversion towards imperialism India. It was here that the middle classes assumed a new reality. It displayed the contradictions within the Indian society and within the individual in the context of a dialectical unity. Yashpal, Ashk, Nagarjun, B.P.Gupta, Amrit Lal Nagar, Amrit Roy and a host of old and new writers tried to portray this new reality of our society. A host  of a new characters and situations were brought on the literary scene from different walks of life. But the middle class dominated the scene. This stageback of the middle class marked a new social typology in Hindi literature in the 40’s and 50’s. These writers tried to portray individual characters against a fast changing social reality – the socio-political ethos. Subjective individualism was also preferred by a new modernists who sought solace in individual consciousness. They claimed the individual consciousness was the ground of all congnition and utilization of the forces of spirit. They ignored the hurricane of freedom which was continuing to shake the colonial system and its national allies. They were the championship of free world. This free world outlook was an ideological mask for a cold war against socialism.

It was no wonder that S.H. vatsyayana, a former revolutionary and then humanist radical, echoed some of the international slogans on the home front. He attacked the God who had failed but not on explicit political ground. He proclaimed individual liberty as the goal of history. From Shekhar ek jivani(1941) onwards he had shown a predilection for individuation and internality. In 1951 he opted for cultural freedom which according   to him was not only freedom of thought and word, the freedom of belief or inquiry, the freedom of expression, silence and affirmation or denial, but also a freedom for ‘plurality of political system’. In his second novel Nadi ke dwipa(Icelands in the sea) he attempted an allegory which resembled Walter Benjamin’s concept in a remarkable way. If Benjamin analyzed philosophically the paradox of history in order to annihilate it, Vatsyayana did the same. By apotheosizing individual historicity he killed history socially.

The new realist continued to write( with a middle class bias) in the epic strain assimilating the developing features of our life. Yashpal’s Deshdrohi( The Renegade), Ashk’s Girti Diwaren and Garm Rakh  continued the tradition of the old masters with shifts towards urban themes. Here the new realists tried to salvage fiction from dissolution with nothingness and gave it a historical content.

The ‘New Poets’ emerging out of the cataclysm of war and Deeping national crisis, turned to modernism. They made  an anathema of history, relegating it to a pointless position to ultimately annihilate it. This is a paradox of modernism very remarkably pointed out by one of the most outstanding critics of our time, Dr R.B. Sharma. He analyzed modernism the meaning underlying its expressive concerns. He threw a good deal of light on issues involving an overall aesthetic relation of art to reality. His critique of bourgeois cultural and its deepening crisis exposed this ideological cold war.

Bharati’s Andha Yug makes a mythopoetic allegory the facies hipocratia of our blind age. It was here that a deep personal crisis overtook Hindi writers. Did it grow out of the Indian conditions or was it a mere ideological catch? Reason and dream- a growing contradiction within experience – overtook them. Even Marxists suffered this personal crisis. Ageya’s Tarsaptak (’41) was heralded as a major source of all poetic creations in Hindi. G.M. Muktibodh, a rising poet of this generation and an ardent Marxist was caught up in this personal crisis. And it was certainly not less so for Shri Kant Verma. At first this new crisis seemed to threaten only individual writers and poets but gradually it assumed a much wider ideological dimension. It is here that we meet a challenge originating through the machinations of a cold war ideological force.

  The national root of this cold war was extremely divergent. Sometimes it took the form of a personal fight against decisive formal problems and its inherent dialectic. It created a condition for a false polarization of forces. Most of the poets of this generation could not gloss over the irrational moment of this inner turmoil. Surprisingly enough, Muktibodh re-emerged from the depths. But it was too late. Instead of opposing this basic position the progressive poets had cooperated with the New Poets which had given rise to a confusion. Out of this confusion the New Poets’ gained an ideological supremacy.

 The progressive forces continued to fight their way out. They fought hard against a formal and ideological reduction of reality to a nightmare. Dr R.B. Sharma had already exposed this global cold war in an article published in Alochana, a critical quarterly taken over by the ‘New Poets’ for a short period. He had shown very clearly that this ideological conflict had, indeed, deprived literature of a sense of perspective. It had rather confused the basic position of a writer’s creative ability to master reality. It was a hard fight to win. The ‘New Poets’ and their ideologues brought certain inside controversies of the previous periods and tried to extend it to new aesthetic domains. Issues were combined in order to impress upon the general readers and intellectuals the futility of communist order and its anti-humanist character. This national tirade against Marxism brought certain literary issues and overtones involving aesthetics. The Indian partisans of this tirade proclaimed a system of pure categories as opposed to Marxian dialectic.

 Loneliness of a universal order and the estrangement of man from his world came to be literary slogans with the new poets. Suffering became a personal and permanent condition of man. They went so far as to proclaim a total loss of balance. In the name of balancing necessity with contingency they totally discarded pre-arranged libretto and replaced it with a free choice. Their model of a weak human abstraction not only negated the actual course of events, i.e. the historical reality, but also its essential contradictions. They lost everything except a deepening personal crisis.

 A cross-section of ideological configuration of all shades appeared on the literary scene. Existential slogans appeared combined with a left tinge. The suffusion proved to be abortive in the long run but it took the writer’s imagination as a revolutionary weapon. The new and contemporary short stories which appeared during ’60s reflected this strange combination, a sort of symbiosis of opposing forces. In the name of realism combined with personal vision of the world, these new writers of the ’60s created many confusing situations and a new source of schism.

The aesthetic acrobatics of this self-troubled generation of the ’60s took a rather more serious turn during the closing years. It took a personal crisis as the source of all creative functions and thus centered round a depressing reality. Defenseless and naïve they became outsiders. Caught in this helpless and miserable existence, they consumed themselves in their search for a personal way out instead of creatively changing the situation. They lamented the situation tragically.

 But the ’60s proved much more tragic than they could have thought. It brought wars of aggression, famine and deepening economic crisis from the outset. It was anticipated perhaps a few years earlier by Renu’s Maila Anchal. In this novel he has shown a cardinal concern for the rural masses undergoing a massive and painful transformation. He had introduced a manner of realism in literature which was new for his generation of writers by introducing the social conflicts central to his time. He enjoyed considerable moral and intellectual standing among the writers of ’50s but gradually his influence waned.

But for a few individual instances, the younger generation of the late ’60s and early ’70s was in an ideological mess. It had lost all hopes of a resurrection. A nihilist’s concern was perhaps the order of the day. But here a new political phenomenon appears in Indian society which changes the basic temper of time. The hitherto suspended class struggle assumes a new proportion unknown in the contemporary India. This growing class struggle and political turmoil suddenly brought new ideological forces into play. The pessimism injected into personal consciousness thus dispelled itself and sought a new way out.

 A left- wing literature of mutually opposing shades appeared. Some of the left wing poets and writers lurked behind a Dostoevskian shade of nihilism; some behind an activist shade of the New-Left and only a few had stayed before a genuine position of the Indian left. Generally retracting a life of suffering and struggle these left-wing writers and poets showed a genuine concern for the Indian masses. The political existence of the common man assumed a new proportion. Of course in certain cases this concern is overplayed and in certain others the tone is manipulated and tempered with a definitive dramatic purpose. But the overall situation remains in the interest of the really progressive forces which stand for a basic transformation of Indian society.

The great victim of this ideological cold war has been out literary criticism. Instead of democraticizing the feudal and bourgeois traditions of the past, it has taken up position with the bourgeois aesthetics and subjective philosophy of culture. We must, with necessity, go deeper into these underlying ideological problems of meaningful creation. Here the contemporary Marxists differ quite considerably and display a remarkable fancy for heterogeneous strategic and tactical positions often relegating the basic principles of Marxism- Leninism.  From the New-left to the revisionist-left there is a wide range of critical approaches. This has to be settled soon in order to prevent further confusion and dissension. This is all the more important in the wake of a right-reactionary offensive on all fronts. In the present context it is an ardent task of a Marxist critic to consolidate its rank to combat all sorts of deviations on the left or on the right and to bring together all the democratic, secular and socialist forces in their fight against fascism.

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Courtesy For Article–  October Revolution: Impact on Indian Literature, edited by Qamar Raʼīs

रेणु: एक अंतर्कथा: सुरेन्द्र चौधरी

By सुरेन्द्र चौधरीphanishwar-nath-renu-2
रेणु की विचारधारा उनकी भावधारा से बनी थी। उन्हें विचारों से अपने भावजगत की संरचना करने की विवशता नहीं थी। यही कारण था कि वे अमूर्त से सैद्धान्तिक सवालों पर बहस नहीं करते थे। उनके विचारों का स्रोत कहीं बाहर-पुस्तकीय ज्ञान में न था…..राजनीतिक हस्तक्षेप में उनका विश्वास बढ़ रहा था। उनके मन में एक आशा पनप रही थी। और जब ऐसा कुछ हुआ, तो रेणु अचानक सक्रिय हो गए……मानसिक क्षमताओं के प्रशिक्षण की बात पर वे मुस्कुराते। वे विश्वास करते थे कि प्रशिक्षण के लिए ज़िंदगी स्वयं एक पाठशाला है। उनका विश्वास था कि राजनीतिक पृष्ठभूमि के कलात्मक उपयोग के लिए कार्यकर्त्ता की दृष्टि का विसर्जन जरूरी है। इससे राजनीतिक पृष्ठभूमि स्वयं अपनी गतियों को अधिक क्षमता से और अधिक स्पष्टता धारण करती है। लेखकीय प्रतिबद्धता इससे आहत नहीं होती।…रेणु जी प्रतिबद्धता को इतनी नाजुक चीज न समझते थे कि उसके लिए गुहार की जरूरत पड़ती रहे। वे उसे लेखक और आदमी की अविभाज्य नैतिकता मानते थे। पर साथ ही मैंने यह भी पाया था कि कतिपय राजनीतिक गतिविधियों से वे बेहद निराशा का अनुभव करते थे।…उनका विचार था कि भारत में किसी शाब्दिक ढंग की वामपंथी एकता के बदले हमें जनता के बीच की एकता के आधारों को पहचानना चाहिए….पर उन्हें अपने विश्वासों ने भी कम निराश नहीं किया। इसे मोहभंग न कहा जाय तो क्या कहा जाय? जिस उत्साह और सक्रियता के साथ वे सन ‘ 74  के आंदोलन में शरीक हुये थेऔर जिस प्रकार वे उससे प्रेरित हो रहे थे, उसे बाद की स्थितियों ने जिस हद तक झुठलाया, उससे गहरी मानसिक निराशा उत्पन्न होना स्वाभाविक था। रेणु का मोहभंग हुआ। भारतीय राजनीति में नेतापंथी तत्त्व की वास्तविकता क्रांति से बड़ी हो जाये, यह एक दुर्घटना थी। यह रेणु के जीवन का सकरुण इतिहास बन गया।

रेणु जानते थे कि एशियाई देशों में, कृषि-उत्पादन में बृद्धि और सामाजिक न्याय, दोनों को एक-दूसरे की प्रगति में योगदान करना है। पूरा ढांचा इस योग में बाधक है। इस ढांचे को बदले बगैर कोई प्रगति नहीं होगी। मगर जब तक ढांचा बादल नहीं जाता, तब तक गाँव सोया रहे इससे हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है?…. लोकतन्त्र और सम्पूर्ण क्रांति के अनिवार्य और ऐतिहासिक सम्बन्धों को लेकर उनकी समझ स्पष्ट थी। यह समझ व्यावहारिक अधिक थी, सैद्धान्तिक कम।… वे इस तंत्र की मानसिक बनावट को ज्यादा अच्छी तरह समझते थी। लोकतन्त्र के बिना सामाजिक न्याय संभव नहीं है। मगर हुम जिस लोकतन्त्र में हैं वह एक प्रकार का राज्यतंत्र है। फिर भी वह पुराने तंत्र की अपेक्षा अधिक गतिशील है। इस तंत्र के दोनों पक्षों पर उनकी सावधान दृष्टि थी। यही कारण है कि इस तंत्र की निरंकुशता के विरुद्ध जब संघर्ष प्रारम्भ हुआ तो वे उसकी अगली कतार में आ गये-नेता की तरह नहीं, कार्यकर्त्ता की तरह।

वे जनता की शक्ति में विश्वास करते थे। नेतृत्व के संबंध में वे अवश्य इतने आश्वस्त न थे। यही कारण है कि सम्पूर्ण क्रान्ति के संदर्भ में वे तमाम तथाकथित क्रांतिकारी शक्तियों की एकता को लेकर कभी आश्वस्त न हो सके थे। मगर अपनी इस भावना को उनहोंने रणनीति के ऊपर कभी नहीं थोपा। वे जानते थे कि इससे आंदोलन में बाधाएँ आयेंगी और उसकी  भावनात्मक शक्ति क्षीण होगी। श्री जयप्रकाश के क्रांतिकारी व्यक्तित्व और  कर्तव्य में उनकी आस्था लगभग ध्रुव थी।….’परती-परिकथा ‘ में विस्तार से प्रस्तुत कुबेर सिंह और जितेंद्र के संबंध में वामपंथी एकता को लेकर उनकी टकराहटों की चर्चा कई दृष्टियों से महत्व की हो जाती है। कांग्रेस के राजनीतिक प्रभुत्व को तोड़े बिना यह संभव न होता। पर क्या इस एकाधिकार को केवल अकेली पार्टी-शक्ति पराजित कर सकती है? वामपंथी शक्तियों की एकता के पीछे यही समझ कार्य करती दिखाई पड़ती है। रेणु कमयुनिस्ट न थे, पर उनका समाजवाद इस अर्थ से ज्यादा नीति-निपुण और उदार था। फ़्रांस और इटली के अनुभवों से वामपंथी एकता की समझ पुष्ट होती थी। ।
उपर्युक्त उद्धृत अंश सुरेन्द्र चौधरी की पुस्तक’ फणीश्वर नाथ रेणु ‘ के अध्याय ‘ एक अंतर्कथा’ से 

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