कम्युनिज़्म: प्रेमचंद
(जिन प्रतिक्रियावादी ताकतों के खिलाफ एक लम्बे संघर्ष के बाद निराला और प्रेमचंद जैसे पायनियर साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य को एक प्रगतिशील पहचान दी थी, उसी पहचान को दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी जमातों की तरफ से फिर से चुनौती दी जा रही है. अंतर सिर्फ यह है कि उनका अंदाज-ए-बयां बदल गया है. उस समय वे इन साहित्यकारों को खारिज कर देते थे और अभी उनकी मौलिक/प्रगतिशील पहचान को धूमिल करके स्वीकारना चाहते हैं. लेकिन दक्षिणपंथी राजनीति का सचेत साहित्यिक प्रतिनिधि इस बात से वाकिफ है कि वे लाख सिर पटक लें लेकिन अपने दक्षिणपंथी साहित्यिक एजेंडे के लिए कभी भी प्रेमचंद का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं. इसीलिए दक्षिणपंथ का विद्वत जमात हमेशा प्रेमचंद को लेकर उदासीन रहता है. लेकिन हिंदी के साहित्यिक हलकों में मूर्खताओं से लबालब वाचालों की आमद इधर कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है जो बिना कुछ समझे-बुझे लगातार लफ्फाजों की तरह सनसनीखेज फतबा बांटता फिरता है कि प्रेमचंद का प्रगतिशील लेखक संघ से कोई सम्बन्ध नहीं था, यह कम्युनिस्टों की साजिश है, प्रेमचंद तो कम्युनिस्ट विरोधी थे इत्यादि-इत्यादि। भारतीय उपमहाद्वीप में प्रेमचंद शायद अकेले ऐसे साहित्यकार हुए हैं जिनका विचारधारात्मक विकास एक इमानदार क्रमिक गति का द्योतक रहा है. और, इसी गति को यहाँ का शासक वर्ग और राज्य-पोषित बुद्धिजीवी तबका इनकार करने की कोशिश करता है. यह अकारण नहीं है कि भारतीय उपमहाद्वीप के लेखक के बतौर टैगोर को प्रतिष्ठित करना शासक वर्ग और राज्यपोषित बुद्धिजीवियों को अपने वर्ग की अनदेखी करना नहीं था. राजनीति में भगत सिंह और साहित्य में प्रेमचंद, यह सर्वहारा की राजनीति के आइकॉन हैं लेकिन इसे स्वीकार करने के बदले भारतीय राज्य और इसके टहलुये बुद्धिजीवियों ने पूरे उपमहाद्वीप पर थोपा- गाँधी जी और टैगोर.
प्रेमचंद हिंदी के स्तंभों में सबसे अद्यतन साहित्यकार थे. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर इतनी बारीक और आलोचनात्मक नज़र बहुत कम साहित्यकारों को नसीब हुआ है. दुनिया भर के कम्युनिस्ट-आन्दोलन पर प्रेमचंद की जैसी नज़र थी दूसरों में ढूँढना मुश्किल है. जनता के संघर्षों का ऐसा हिमायती साहित्यकार बहुत मुश्किल से मिलता है. विश्व राजनीति को प्रेमचंद कैसे देखते थे यह शोधार्थियों के लिए अच्छा विषय हो सकता। प्रेमचंद के यहाँ इसके दो पक्ष बहुत ही स्पष्ट हैं. दुनिया भर में चल रहे जनता के संघर्षों का समर्थन और फासिस्ट ताकतों का पूरजोर विरोध. और, वे इसी क्रम में जनता के संघर्षोपरांत बने सोवियत संघ को देखते थे. प्रेमचंद ने अकेले सोवियत संघ पर जितने लेख लिखे हिंदी साहित्य के स्तम्भ साहित्यकारों में से किसी दुसरे ने नहीं लिखा. उनके लगभग १५ लेख-टिप्पणियाँ सोवियत संघ और कम्युनिज्म से सम्बंधित हैं. और, ऐसा नहीं है कि प्रेमचंद इन सारे लेखों में कुछ सुनी-सुनायी बातें करते हैं बल्कि दक्षिणपंथी मीडिया में जो सोवियत संघ /कम्युनिज्म -विरोधी बातें मास-स्केल पर प्रचारित की जाती थीं, प्रेमचंद उसका आलोचनात्मक प्रतिरोध तैयार कर रहे थे. आज प्रेमचंद जयंती पर प्रेमचंद की इन बातों को याद करना इसलिए भी जरुरी है कि आज दुबारा शासक वर्ग की विचारधारा से संचालित मीडिया में दक्षिणपंथी/सांप्रदायिक बुद्धिजीवियों ने फिर से वही पुराना राग अलापना शुरू कर दिया है. प्रेमचंद तक को इस्तेमाल करते समय उनकी उंगलियाँ नहीं कांपती हैं. किसी ने सही ही कहा है कि दक्षिणपंथ सिर्फ सांप्रदायिक और जनविरोधी ही नहीं बल्कि सबसे निर्लज्ज विचारधारा भी है.)
By प्रेमचंद
हवा का रुख़: कम्युनिज्म
किसी पत्र के इंग्लैंड के एक संवाददाता ने लिखा है कि पचीस साल पहले केम्ब्रिज में साहित्य और कविता ही छात्रों के विचार-विनिमय का विषय था, राजनीति से किसी को जरा सी दिलचस्पी न थी. उसी केम्ब्रिज में आज कम्युनिज्म का सबसे ज्यादा असर है. मगर वह महाशय यह भूल गए हैं कि पचीस वर्ष पहले कम्युनिज्म की सूरत ही किसने देखी थी. विज्ञान ने मशीन गन और बेतार बनाए, तो क्या राजनीति ज्यों-की-त्यों बैठी रहती. उदार और परम्परावादी दलों में युवकों के आदर्शवाद के लिये क्या आकर्षण हो सकता है. कम्युनिज्म अर्थात साम्यवाद का विरोध वही तो करता है, जो दूसरों से ज्यादा सुख भोगना चाहता है, जो दूसरों को अपने अधीन रखना चाहता है. जो अपने को भी दूसरों के बराबर ही समझता है, जो अपने में कोई सुरखाब का पर लगा हुआ नहीं देखता, जो समदर्शी है उसे साम्यवाद से क्यों विरोध होने लगा. फिर युवक तो आदर्शवादी होते ही हैं. भारत में ही देखिये। बाप तो साम्प्रदायीकता के उपासक हैं, और बेटे उसके कट्टर विरोधी. युवक क्या नहीं देखते कि वर्तमान सामजिक और राजनैतिक संगठन ही उनकी उदार, ऊँची और पवित्र भावनाओं को कुचल कर उन्हें स्वार्थी और संकीर्ण और हृदयशून्य बना देती है. फिर वे क्यों न उस व्यवस्था के दुश्मन हो जायँ, जो उसकी मानवता को पीसे डाल रही है और उनमें प्रेम की जगह संघर्ष के भाव जगा रही है. उसी संवाददाता के शब्दों में- “ऐसा मुश्किल से कोई समझदार आदमी मिलेगा, जिसमें जरा सी भी विचार शक्ति है, जो वर्तमान परिस्थिति का साम्यवादी विश्लेषण न स्वीकार करता हो.”
जागरण, २९ जनवरी १९३४
स्टेलिन: रूस का भाग्य विधाता
लेनिन की मृत्यु के पश्चात उसके कितने ही साथियों ने, जिनमें ट्राटस्की, जिनोवीफ, कार्मेनीफ, बुखारिन आदि जैसे प्रतिभाशील और सुयोग्य व्यक्ति थे, रूस की बागडोर अपने हाथ में लेने की चेष्टा की, पर एक ऐसे अपरिचित व्यक्ति के कारण जिसका नाम उस समय तक सुनने में भी नहीं आया था, उन सब को एक-एक करके निकाल बाहर किया और स्वयं इसका भाग्य-विधाता बन गया. इस व्यक्ति का नाम स्टेलिन है और इसके सम्बन्ध में विभिन्न देशों के पत्रों में तरह-तरह की बातें छापा करती हैं. कुछ दिन पहले उसके एक भूतपूर्व सेक्रेटरी ने पेरिस से निकलनेवाले एक बोलेशेविक-विरोध-पत्र में उसका वर्णनात्मक परिचय प्रकाशित कराया था. यद्यपि उसे पढने से तुरंत ही प्रतीत हो जाता है कि यह लेख किस ऐसे का लिखा है, जिसके स्वार्थ को स्टेलिन के कारण धक्का पहुंचा है, तो भी उससे स्टेलिन की ऐसी कितनी ही विशेषताओं का पता लगता है, जो लेखक की दृष्टि में यद्यपि असभ्यता और अशिक्षित होने की सूचक हैं, पर भारतवासियों की दृष्टि में वे एक सच्चे तपस्वी के गुण समझी जाती हैं. लेखक ने स्टेलिन और उसके साथियों को अधिकाँश विषयों में अयोग्य बतलाया है. पर उसके प्रबंध से उसकी जो अनुपम उन्नति हो रही है, उसे देखते हुए उन बातों में कुछ सच्चाई नहीं जान पड़ती। नीचे हम उस लेख का कुछ अंश देते हैं जिससे पाठक स्वयं इस सम्बन्ध में निर्णय कर सकेंगे.
‘ स्टेलिन ऐसा व्यक्ति है, जिसने समस्त मानवीय आकांक्षाओं को हद दर्जे तक घटा दिया है. एकमात्र प्रधानता की असीम प्यास ने उसका पीछा नहीं छोड़ा है. वह एक त्यागी की भाँती क्रेमलिन के दो छोटे-छोटे कमरों में, जिनमें जार के समय महल के नौकर रहा करते थे, रहता है. यह प्रसिद्ध है कि वह शायद ही कभी किसी प्रकार का आमोद-प्रमोद करता है. कभी किसी प्रकार की फिजूल खर्ची नहीं करता, कभी सरकारी रकम से एक पैसा भी अपने लिए नहीं लेता. उसके लिए खेलों और दिल-बहलाव का अस्तित्व ही नहीं है. अपनी स्त्री के सिवाय वह संसार की किसी स्त्री की तरफ आँख नहीं उठाता.
जब कोई व्यक्ति प्रथम बार उससे मिलता है, तो प्रतीत होता है कि वह सीधा-सादा, अपने ऊपर कब्जा रखनेवाला, मितभाषी और बहुत चतुर व्यक्ति है. पर जब उसका विशेष परिचय प्राप्त होता है, तो पता लगता है कि वह बिलकुल संस्कृतिविहिन व्यक्ति है. जैसे-जैसे उससे आपकी घनिष्ठता बढती जायगी, आपका आश्चर्य बढ़ता जायगा। उसमें राजनितिक समस्याओं को समझ सकने की बुद्धि नहीं है, उसे अर्थशास्त्र और आय-व्यय का कुछ भी ज्ञान नहीं। वह हंसी-मजाक करना नहीं जानता. अपने अधीनस्थ कर्मचारियों और कुटुंबवालों के साथ वह बड़ी निरंकुशता और उजड्डता का व्यवहार करता है. वह अपने भेद को छिपा कर रखता है और बड़ा चालाक तथा प्रतिहिंसा का भाव रखनेवाला मनुष्य है. वह अपनी गुप्त योजनाओं को किसी पर प्रकट नहीं करता। दरअसल वह बिना आवश्यकता के बोलता ही नहीं और प्रायः मौन रहा करता है.’
जागरण, ३१ अक्टूबर १९३२