पाओलो विर्नो के, भाषा संबंधी, तीन हाइपोथीसिस

अन्य मानव प्राणियों (जंतुओं) के इरादों, और भावनाओं को मानव प्राणी (जंतु) एक मूलभूत अंतर-व्यक्तिपरकता के कारण समझता है जो व्यक्तिगत विषयों के संघटन से पहले का चरण है। स्वचेतन ‘मैं’ के आने से पहले ही ‘हम’ अपनी सार्थकता सिद्ध कर देता है। एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच संबंध सबसे पहले और विशेष रूप से एक निर्वैयक्तिक संबंध है। लेव व्य्गोत्स्की, डी. डब्ल्यू. विनीकोट और गिल्बर्ट सिमोंडन जैसे विचारकों ने प्राक-वैयक्तिक अनुभव-क्षेत्र के अस्तित्व की उपस्थिति पर जोर दिया है। मिरर न्यूरॉन्स की खोज करने वाले वैज्ञानिकों में से एक, विटोरियो गैलिस ने, खास कर, इस प्रश्न को निर्णायक तरीके से पुनर्परिभाषित किया है, और मस्तिष्क के इस क्षेत्र विशेष के कामकाज के संदर्भ में ‘मैं’ पर ‘हम’ की प्राथमिकता की वकालत की है। कोई पीड़ित है या आनंद ले रहा है, आश्रय या परेशानी की तलाश में है, हम पर हमला करने या हमें चूमने वाला है, यह जानने के लिए हमें प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है, इरादों का कोई उच्छृंखल (बरोक) आरोपण दूसरे के दिमाग पर प्रक्षेपित करने की जरूरत नहीं है। अवर फ्रंटल लोब (अग्र मस्तिष्क का निचला हिस्सा) के भीतरी इलाके में स्थित न्यूरॉन्स के एक समूह की सक्रियता ही इसके लिए पर्याप्त है।

फिल्म विट्गेन्स्टाइन का एक दृश्य

‘मनुष्य-संवेद्य’ (anthropomorphic) नर-वानर समुदाय (primates) के साझे वाली आदि सामाजिकता के लिए भाषा कम से कम एक मजबूत संवाद-माध्यम नहीं है। यह मान लेना गलत होगा कि अपनी युक्तियों से लैस भाषा मनों के मेल-मिलाप को व्याख्यायित या व्यक्त करती है, जो कि पहले से ही मस्तिष्क-तंत्र द्वारा आश्वस्त है। मौखिक विचार दूसरे मानव-जंतुओं की कार्रवाइयों और जुनून के स्वतःस्फूर्त बोध के सह-भावक तत्वों को कमजोर, यहाँ तक कि अस्थायी तौर पर क्षतिग्रस्त का कारण बनता है। वाक्य-विन्यास के पंडित तंत्रिका-क्रियाविज्ञान से चालित होने के बजाय उसके सम्प्रेषण में बाधा डालते हैं या कभी-कभी उसे निलंबित कर देते हैं। चिह्नों और संकेतों पर आधृत ध्वनि-व्यवस्था से भाषा भिन्न होती है, साथ ही साथ मूक संज्ञानात्मक व्यवहारों (यथा, संवेदनों, मानसिक चित्रों) से, क्योंकि यह हर तरह के प्रतिनिधित्व को नकारने में सक्षम है। जब किसी शरणार्थी/अप्रवासी से सामना होता है तो अवधारणात्मक साक्ष्यों के हवाले से कहते हैं कि “यह एक मनुष्य है”, जबकि निर्विवाद रूप से तत्क्षण ही वह ‘नहीं है’ में रूपांतरित हो जाता है। एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच पारस्परिक पहचान की विफलता भाषा में निहित है। यह वक्तव्य कि “यह एक आदमी नहीं है” व्याकरणिक रूप से निर्दोष है, और एक बोध से लैस है, तथा किसी के द्वारा उच्चरित हो सकता है। बोलने वाला जंतु ही वह एक मात्र है जिसमें अपने पड़ोसी को पहचाने की क्षमता नहीं होती है।

भाषा ने मन की सहज सामाजिकता में जो विष भर दिया है, उसका प्रतिकार करने में वह असफल नहीं होती। मिरर न्यूरॉन्स द्वारा उत्पन्न संवेदन के आंशिक या पूर्ण रूप से नष्ट करने के अलावा इससे होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए यह एक उपचार (या तो बेहतर, या एक मात्र सक्षम) प्रदान करती है। आरंभिक ध्वंस खुद के ही पुनर्ध्वंस में तब्दील हो सकता है। लोकवृत (पब्लिक स्फिअर), जो कि हमारा पारिस्थितिकी पनाह है, ध्वंस और निर्माण का असंतुलित परिणाम है, जहाँ पूर्व उत्तर से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसीलिए यह क्षतचिह्न जैसा दिखता है। दूसरे शब्दों में, लोकवृत्त निषेध के निषेध का देन है। इस मुहावरे के द्वन्द्वात्मक लहजे से कोई पाठक यदि नाक-मुँह बनाए, तो इसके लिए मैं पहले से ही क्षमा-प्रार्थी हूँ, इस बारे में और कुछ किया भी नहीं जा सकता है। किसी तरह की गलतफहमी नहीं रहे, इसीलिए यह जोड़ना जरूरी है कि ‘निषेध का निषेध’ एक आदिम और पूर्व-भाषाई सद्भाव को पुनर्स्थापित नहीं करता है। पहचान (अस्तित्व) के नकार का खतरा हमेशा टल जाता है, या नए तरीके से निष्प्रभावी हो जाता है; हालांकि, यह अपरिवर्तनीय रूप से सामाजिक आचरणों में दर्ज होता है।

अनुवाद : उदय शंकर

पुस्तक विवरण: An Essay on Negation: Towards A Lingustic Anthropology

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