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प्रेमचंद की भारतीयता और हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति: चंदन श्रीवास्तव

हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति और प्रेमचंद, लेखक- डा. राजकुमार, निबंधों ( कुल तेरह) का संकलन है और सारे लेख प्रेमचंद-विशेषी नहीं लेकिन पुस्तक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा (कुल चार लंबे लेख) प्रेमचंद के मूल्यांकन की समस्या से जूझते हैं. चूंकि पुस्तक में भारतीय आधुनिकता को जमीन बनाकर ‘हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति’ को समझने-बताने की कामयाब कोशिश की गई है सो पुस्तक की वैचारिकी का दायरा बड़ा हो जाता है. प्रेमचंद, हिन्द-स्वराज, सिविलाइजिंग मिशन, अंग्रेजी की जगह, हिन्दी की शक्ति, हिन्दी का जातीय संगीत, हिन्दी साहित्य का इतिहास और साहित्य, इतिहास तथा स्वाधीनता जैसे विषयों को एक सूत्र में पिरोने की भरपूर गुंजाइश बन जाती है पुस्तक में. और, ठीक इसी गुंजाइश को देखते हुए उम्मीद की जा सकती है समीक्ष्य पुस्तक की संभावनाओं का विस्तार लेखक किसी अन्य पुस्तक में बड़े फलक पर करेंगे. #लेखक

 

हिन्दी की संस्कृति और आधुनिकता का पुनर्पाठ बरास्ते प्रेमचंद

By चंदन श्रीवास्तव

प्रेमचंद पुराने हैं, इतने पुराने तो निश्चित ही कि हम उनकी रचनाओं की शत-वार्षिकी मना सकें. लेकिन, पुराना होना मात्र ‘साधुता’ की कसौटी नहीं, परीक्षा जरुरी है. पुराणमित्येव न साधु सर्वम्..’–  हिन्दी भाषा के भीतर चलने वाली साहित्य की ‘आधुनिकता’ की बहसें आपको अपने खास अंदाज में याद दिलाती हैं कि मालविकाग्निमित्रम् का सूत्रधार ऐसा आगाह कर गया है. सो, प्रेमचंद पुराने हैं तो उनकी कृतियों के परीक्षा के प्रयास भी कम पुराने नहीं.

प्रेमचंद के अध्येता जानते हैं कि शिवदान सिंह चौहान ने मार्च 1937 (प्रेमचंद की मृत्यु-1936) के अपने लेख में उनके रचना-कर्म की ‘प्रगतिशीलता’ की चर्चा की  थी. तब से लेकर अब तक प्रेमचंद को बुद्धि-विवेक की कसौटी पर ‘कलम का सिपाही’ के रुप में पढ़ा गया है और ‘कलम का मजदूर’ के रुप में भी. मूल्यांकन के लिए रचनाकार को नहीं उसकी रचनाओं के परिवेश को देखा जाना चाहिए और सबसे ज्यादा देखा जाना चाहिए रचनाकार के युग को आविष्ट करने वाली चेतना को—इस तर्क से हिन्दी साहित्य की समालोचना की आंख ने ‘प्रेमचंद और उनका युग’ तक पर नजर डाली है. ऐसे प्रयासों से प्रेमचंद के रचना-कर्म में ‘साधु-असाधु’ खोजने की सिद्ध कसौटियां बन गई हैं और अब यानि 21 वीं सदी के दूसरे दशक में यह अपेक्षित ही है कि 20 सदी के आरंभ से अपने लेखन की शुरुआत करने वाले प्रेमचंद की कृतियों की समालोचना की सिद्ध कसौटियों पर सवाल उठाये जायें. सो, सवाल खूब उठाये जा रहे हैं.

मिसाल के लिए  हिन्दी साहित्य की अंदरुनी बहसों को अपने पन्ने पर खास जगह देने वाले अखबार ‘जनसत्ता’ के पन्ने पर 2013 में जुलाई से सितंबर महीने के बीच प्रेमचंद को लेकर चले वाद-विवाद को देखा जा सकता है. खुर्शीद अनवर ने 11 अगस्त 2013 के अपने ‘प्रेमचंद को साम्यवादी बनाने की कवायद’ शीर्षक लेख में कहा कि “ प्रेमचंद को साम्यवादी घोषित करना उसी तरह से है जैसे जवाहर लाल नेहरु को गांधी से अलग कर उनपर लाल बिल्ला लगा दिया जाय.”  प्रेमचंद को साम्यवादी ठहराने की कोशिशों की परीक्षा करते हुए खुर्शीद अनवर ने अपने लेख में ध्यान दिलाया कि बेशक यह पंक्ति प्रेमचंद की है कि ‘ धन्य है वह सभ्यता जो मालदारी और व्यक्तिगत संपत्ति का अंत कर रही है और जल्दी ही या देर से दुनिया उसका पदानुसरण करेगी.. ‘ लेकिन प्रेमचंद को साम्यवादी ठहराने के लिए इतना कहना काफी नहीं’. लेख में अनवर का सवाल था कि 1936 में हुए प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन में जहां एक ओर हसरत मोहानी जैसे व्यक्ति ने कम्युनिस्ट विचारों के प्रचार-प्रसार की बात की, वहीं प्रेमचंद ने अपने भाषण में एक बार भी ऐसा कोई वक्तव्य नहीं दिया. क्या कोई उसकी वजह बता सकता है ? अनवर का निष्कर्ष था कि “प्रेमचंद को महान कथाकार  रहने देने में हम सबका भला है. साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल हमेशा ही रहेगा, इसके लिए प्रेमचंद का साम्यवादी होना जरुरी नहीं है.”

अनवर के इस लेख पर प्रेमचंद के साहित्य के मशहूर अध्येता कमल किशोर गोयनका ने लिखा कि लेख के शीर्षक (‘प्रेमचंद को साम्यवादी बनाने की कवायद’) में ‘कवायद’ की जगह ‘साजिश’ शब्द का इस्तेमाल ज्यादा अच्छा होता क्योंकि “ प्रेमचंद के ‘हंस’, जनवरी, 1936 में प्रकाशित एक लेख का शीर्षक है- ‘लंदन में भारतीय साहित्यकारों की एक नई संस्था’, जिसमें लिखा है कि मुल्कराज आनंद, केएस भट्ट, जेसी घोष, एस सिन्हा, एमडी तासीर और एसएस जहीर ने लंदन में ‘दि इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन’ की बुनियाद डाली, लेकिन डॉक्टर रामविलास शर्मा (मार्क्सवादी आलोचक) ने लिखा है कि नींव प्रेमचंद ने डाली, और इस प्रकार इस झूठ को इतना विस्तार दिया गया कि प्रेमचंद ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के संस्थापक बना दिए गए.”  मार्क्सवाद से प्रेमचंद के अलगाव को दिखाने के लिए गोयनका ने तर्क दिया कि “प्रेमचंद ने ‘हंस’ के उसी अंक में लंदन से आया घोषणा-पत्र भी प्रकाशित किया है. इसमें एक भी शब्द, एक भी उद्देश्य का संबंध मार्क्सवाद से दूर तक नहीं है. इस घोषणा-पत्र में चार प्रमुख उद्देश्य हैं- सांस्कृतिक और सामाजिक उत्थान, भारतीय स्वाधीनता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और इंडो-रोमन लिपि की स्वीकृति. प्रेमचंद ने अंतिम को अस्वीकार करते हुए लिखा कि शेष तीन तो उन्हें आदर्श ही रहे हैं, पर इनमें कहीं भी मार्क्सवाद नहीं है और स्पष्ट है कि प्रेमचंद ने समर्थन इसलिए किया कि वे तीस-पैंतीस वर्षों से इन्हीं उद्देश्यों को लेकर चल रहे थे और वे स्वराज और भारतीय आत्मा की रक्षा के ही उपकरण थे.”

खुद कमल किशोर गोयनका ने क्या ‘आप इस प्रेमचंद को जानते हैं’(जनसत्ता, 28 जुलाई, 2013) शीर्षक अपने लेख में प्रेमचंद की नैतिकता और आधुनिकता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उनकी कहानी ‘बालक’ की ओर ध्यान दिलाते हुए लिखा था कि इसका “ अशिक्षित नायक विवाह के छह महीने बाद उत्पन्न बच्चे को इस तर्क से स्वीकार करता है कि मैंने एक खेत खरीदा था, उसपर किसी ने फसल बोई ही थी तो क्या वह फसल मेरी नहीं होगी .”  प्रेमचंद की कहानियों के नैतिक-भाव की श्रेष्ठता और आधुनिकता-बोध की इस प्रशंसा पर दलित-चिन्तक धर्मवीर ने अपने लेख ‘हम प्रेमचंद को जानते हैं’( 4 अगस्त, 2013) में सवाल उठाया. धर्मवीर ने लिखा कि “ गोयनका और उनके प्रेमचंद ने यह बात एक बार भी नहीं सोची कि बालक कहानी में पैदा संतान किस राष्ट्र की रक्षा के लिए अपने प्राण न्यौछावर करेगी. क्या राष्ट्रवादी होने में यह जानना जरुरी नहीं कि बच्चा अपने वास्तविक पिता को जाने ? जैविक पिता से भिन्न वैवाहिक पिता की फर्जीगीरी राष्ट्रवाद नहीं है. ऐसे समाज में शूरवीर पैदा नहीं हुआ करते ”

अस्मितापरक आंदोलन की वैचारिकी के भीतर प्रेमचंद की छवि किन रंग-रेखाओं से उकेरी जा रही है उसका एक बेहतर उदाहरण रत्नकुमार सांभरिया का आलेख ‘दलित, प्रेमचंद, तुलसीदास और शहीद भगतसिंह’ हो सकता है. लेख में प्रेमचंद के शब्द-संसार की चुनिन्दा पंक्तियों के आधार पर साबित किया गया है कि वे “ग्राम्य जीवन और लोक परंपराओं से नितांत अनभिज्ञ थे. वे घोर ईश्वरवादी, भाग्यवादी और वर्णवादी थे तथा छुआछूत और जातपांत में उनका अटूट विश्वास था… प्रेमचंद- साहित्य में श्लीलता का प्रायः अभाव है और उनकी भाषा में लियाकत नहीं होने के कारण पाठक के मन को कचोटती है. विशेषतः दलितों के बारे में वे जिस भाषा-शैली का प्रयोग करते हैं, वह हृदय ही चीर डालती है.बावजूद इसके मार्क्सवादी सोच का यह मानना है कि प्रेमचंद ने उस समय दलितों के बारे में लिखा, जब लोग उनकी छाया से भी दूर भागते थे.. क्या यह तर्क इस दायरे में नहीं आता कि कोई किसी अछूत को थप्पड़ मार दे और यह तर्क दे कर उसकी प्रशंसा की जाये देखो, ‘उसने ‘अछूत’ को छुआ तो सही, दूसरे लोग तो उसकी छाया से भी दूर भागते हैं.’

सांभरिया का निष्कर्ष है कि “ प्रेमचंद-साहित्य में न दलित नेतृत्व है, न दलित चरित्र. उनकी रचनाओं के कथानक धर्मशास्त्रों के सूक्तों से ऊपर नहीं उठ पाये हैं. शास्त्र, जो अपने अंतस में पूर्वाग्रह समाये होने के कारण शूद्रों के लिये ‘‘शस्त्रों’’ से भी ज्यादा मारक साबित हुये हैं, प्रेमचंद की कलम ‘‘शास्त्र बनाम शस्त्र’’ के गिर्द घूमती है.”

वाद-विवाद के उपर्युक्त प्रसंगों को नजर में रखें तो संक्षप में कहा जा सकता है कि प्रेमचंद के साहित्य को परखने की सिद्ध कसौटियां प्रश्नांकित की जा रही हैं, अगर साहित्य की समालोचना की किन्हीं कसौटियों के तहत यह बताया गया था कि प्रेमचंद के साहित्य में आधुनिक भाव-बोध के अनुकूल राष्ट्र और व्यक्ति दोनों ही के मुक्ति के प्रसंग हैं तो अब गंगा एकदम ही उल्टी बहती दिख रही है. प्रेमचंद को ‘कलम का सिपाही’ और ‘कलम का मजदूर’ से लेकर ‘सामंत का मुंशी’ बनाने तक की यह कहानी पहली नजर में विचारोत्तेजक जान पड़ सकती है लेकिन वाद-विवाद में समाये आवेग को एक तरफ करके देखें तो स्पष्ट होगा कि प्रेमचंद के साहित्य को लेकर बना पक्ष और प्रतिपक्ष एक ही विचार-सरणी(आधुनिकता की परियोजना) का साझीदार है और इसकी पद्धित( प्रेमचंद के साहित्य से उद्धरणों का सुविधाजनक चयन) भी एक ही है. पक्ष और प्रतिपक्ष के पास व्यक्ति, समुदाय और राष्ट्र की मुक्ति को लेकर एक तयशुदा निष्कर्ष है और प्रेमचंद के साहित्य का पाठ इस तयशुदा निष्कर्ष के अनुकूल पड़ते उद्धरणों के चयन के आधार पर किया गया है. समीक्ष्य पुस्तक ‘हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति और भारतीय आधुनिकता’  अपने-अपने मुक्ति-प्रसंग के अनुकूल प्रेमचंद की मूर्ति गढ़ने और तोड़ने की कोशिशों का संज्ञान लेने, इस कोशिश की मूल प्रस्थापनाओं को प्रश्नांकित करने और अपनी तरफ से प्रेमचंद के ज्यादा तथ्यसंगत और इतिहास-बद्ध अध्ययन का प्रस्ताव करने के कारण महत्वपूर्ण है.

समीक्ष्य पुस्तक में प्रेमचंद से आपकी भेंट साहित्यकार, पत्रकार या स्वाधीनता-सेनानी के रुप में नहीं बल्कि एक ‘चिन्तक’ के रुप में होती है. इसकी वजह भी लेखक की नजर में बहुत स्पष्ट है और इसे पुस्तक के प्राक्कथन में यों बताया गया है कि आधुनिकता के साथ पूंजीवाद, उपनिवेशवाद, राष्ट्रवाद, विज्ञान, तर्कबुद्धि और लोकतंत्र का विकास जुड़ा हुआ है और आधुनिकता की कोई बहस मार्क्स को दरकिनार कर आगे नहीं बढ़ायी जा सकती तथा भारतीय आधुनिकता की कोई भी परिकल्पना गांधी के बगैर अधूरी है. चूंकि हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति को इन विभूतियों के चिन्तन का लाभ मिलता रहा है सो हिन्दी की साहित्यिक मेधा ने आधुनिकता के पश्चिमी महाआख्यान को आंख मूंदकर नहीं अपनाया, उसने आधुनिकता की कुछ बातें मानी तो कुछ से इनकार किया और प्रेमचंद के लेखन में इस बात के पर्याप्त साक्ष्य मिलते हैं सो “प्रेमचंद सरीखे चिन्तक को आधुनिकता के प्रोजेक्ट के समर्थन में निशेष कर देने के बजाय उन बिन्दुओं पर पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है जहां ये आधुनिकता की सख्त आलोचना करते हैं. वस्तुतः हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति(या संस्कृतियां) को समझना प्रकारांतर से इस प्रक्रिया की समग्रता, विशिष्टता और अपनी सभ्यता की आंतरिक गतिकी को भी समझना है.”

पुस्तक के प्राक्क्थन के इस अंश से स्पष्ट हो जाता है कि उसमें चर्चा भारतीय आधुनिकता की ही प्रधान है और प्रेमचंद की चर्चा ‘हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति’ के पुनर्पाठ के मकसद की गई है. इस पुनर्पाठ के क्रम में ही पुस्तक में प्रेमचंद का एक चिन्तक के रुप में विशिष्ट योगदान रेखांकित किया गया है और हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति की वर्चस्वशील धाराओं को प्रश्नांकित किया गया है. सवाल उठता है कि साहित्यिक संस्कृति से क्या समझें और इसके पुनर्पाठ की प्रविधि क्या हो. समीक्ष्य पुस्तक में फ्रेडरिक जेम्सन के हवाले से लिखा मिलता है कि “साहित्यिक संस्कृतियां ऐसे कोड के रुप में सामने आती हैं जिनके बारे में हम प्रायः भूल चुके होते हैं. वे एक ऐसी बीमारी के लक्षण की तरह हैं जिसे हम बीमारी के रुप में पहचानते ही नहीं., वे समग्रता के एक टुकड़े की तरह हैं जिसे देख सकने वाला अंग हम पहले ही खो चुके हैं. ये साहित्यिक रचनाएँ, सामाजिक यथार्थ को निर्मित करने वाली दूसरी वस्तुओं की तरह पुकार रही हैं कि हम उनकी टीका व्याख्या करें, उनका अर्थ करें, उनकी पहचान करें साहित्यिक आलोचना का यह दायित्व है कि वह अंतर्बाह्य अस्तित्व और इतिहास की तुलना जारी रखे. ”

लिहाजा समीक्ष्य पुस्तक के लेखक ने अपने लिए कठिन दायित्व चुना है क्योंकि साहित्यिक संस्कृति अगर समग्रता का वह टुकड़ा हो जिसे देख सकने वाला अंग पहले ही खो चुका है या फिर वह ऐसी बीमारी का लक्षण हो जिसकी बीमारी के रुप में पहचान ही ना हो तो फिर सवाल उठेगा कि सामाजिक यथार्थ का निर्माण करने वाली इस जरुरी चीज को जानने के लिए साहित्यिक आलोचना कौन-से औजार अपनाये ? लेखक ने ध्यान दिलाया है कि “औपनिवेशिक वर्चस्व के दौरान उपनिवेशित सभ्यता ऐसी विस्मृति का शिकार होती है कि अपनी सभ्यता के कोडो की उपनिवेशवाद द्वारा की गई व्याख्या को ही थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ स्वीकार कर लेती है.” इस स्वीकार के लक्षण समीक्ष्य पुस्तक के लेखक को प्रेमचंद के मूल्यांकन को लेकर बनी कसौटियों और उन कसौटियों को प्रश्नांकित करने वाले हाल के अस्मितापरक प्रयासों में दिखते हैं.

पुस्तक के लेखक के मुताबिक अकारण नहीं है कि प्रेमचंद का अध्ययन प्रायः आधुनिकता द्वारा स्वीकृत और राजनीतिक दृष्टि से सही मुद्दों के आधार पर किया गया है. इसी कड़ी में प्रेमचंद को काल-क्रमानुसार देखने और किसी एक कालखंड की रचनाओं को समझ के करीब पड़ने के कारण विशेष तरजीह दी गई. जैसे प्रेमचंद के अंतिम दौर की रचनाओं को मार्क्सवादी विद्वानों ने ज्यादा महत्व दिया क्योंकि उनके अनुसार प्रेमचंद इस दौर में लगभग मार्क्सवादी हो गये थे. इस तरह के अध्ययन की “विडंबना यह है कि वह यह मानकर चलता है कि सच क्या यह उसे पहले से मालूम है. इस सच के समर्थन में एक गवाह के रुप में पेश करने के लिए वह प्रेमचंद को ठोक पीटकर अपने सच के अनुरुप ढालने की कोशिश करता है. यानी प्रेमचंद स्वयं में महत्वपूर्ण नहीं हैं. महत्वपूर्ण है वह सच जो उसे पहले से मालूम है. यह प्रेमचंद का रिडक्शन है. पहले से ज्ञात सच में प्रेमचंद के रचनात्मक अवदान को हजम कर लेने की कोशिश है.”

सवाल उठता है, प्रेमचंद के मार्क्सवादी अध्येताओं को कौन सा सच पहले से पता है जिसमें प्रेमचंद को रिड्यूस किया जा रहा है ? यहां बात आती है प्रेमचंद की भारत-विषयक परिकल्पना की. समीक्ष्य पुस्तक के मुताबिक प्रेमचंद एक ऐसे भारत की कल्पना करते हैं जो पश्चिम से तात्विक और बुनियादी रुप से भिन्न है. वामपंथी ऐसी भिन्नता की कल्पना नहीं कर सकते थे क्योंकि “वामपंथ के सार्वभौमिक महाआख्यान में भिन्नता के लिए खास जगह नहीं थी. भिन्नता का मतलब उनके लिए विशिष्टता नहीं, कमी थी,  जो उन्हें भारत के इतिहास में दिखायी पड़ती थी. पश्चिम के तर्ज पर भारत के इतिहास में पुनर्जागरण, ज्ञानोदय, राष्ट्रवाद, औद्योगिक क्रांति, व्यक्तिवाद वगैरह की आपेक्षिक अनुपस्थिति देख उनके ‘करुणाकलित हृदय’ में आह सी उठती थी और फिर वे इस शोध में जुट जाते थे कि क्या कारण(अर्थात् कमी थी) थे जिनकी वजह से हमारे यहां…..। कुल मिलाकर भारत के अतीत-इतिहास में गर्व करने लायक उन्हें कुछ खास नजर नहीं आता था. मार्क्स की तरह उन्हें भी लगता था कि शैतान को भी उसका जायज हक मिलना ही चाहिए. सदियों से चली आ रही अर्थव्यवस्था को नष्ट कर उपनिवेशवाद ने भारतीय इतिहास को पटरी पर ला दिया. भारत को इतिहास के राजपथ पर घसीट लाने का सेहरा उपनिवेशवाद के माथे बांध देने के बाद उपनिवेशवाद का एक प्रगतिशील पक्ष तो निकल आया लेकिन इसी के साथ भारत की इतिहास की विशिष्टता का महत्व समझने वाली दृष्टि भी गायब हो गयी. लब्बोलुआब यह कि उपनिवेशवाद आया तो भारत की जड़ता टूटी और पूंजीवाद का विकास शुरु हुआ. पूंजीवाद आ गया तो देर-सबेर समाजवाद आना ही है. यह सोचने की जहमत नहीं उठायी गई कि सभ्यताओं के विकासक्रम और जीवन-मूल्य एक जैसे नहीं होते.”

अस्मितावादी आंदोलन की वैचारिकी के भीतर प्रेमचंद के मूल्यांकन के प्रयासों को लेकर भी समीक्ष्य पुस्तक यही कमी देखती है. पुस्तक अस्मितावादी वैचारिकी की इस विडंबना की ओर ध्यान दिलाती है कि जमींदारी व्यवस्था खत्म कर किसानों में जमीन बांटने और बिना किसी भेदभाव के सभी को समान नागरिकता देने का काम उपनिवेशवाद ने नहीं राष्ट्रवाद ने किया. लेकिन दलित चिन्तकों को औपनिवेशिक शासन के सिवा बाकी सभी वर्णवादी लगते हैं– “ एकतरफा प्रेम में बौराये इन बेचारों को यह भी नहीं पता कि औपनिवेशिक शासक इनके बारे में क्या सोचते हैं. उल्लेखनीय है कि औपनिवेशिक शासक सफेद नस्ल को सर्वश्रेष्ठ मानते थे. सभी भारतीय उनकी दृष्टि में हीन प्रजाति के थे. इन हीनों में सवर्ण बेहतर थे क्योंकि वे पतित आर्य थे, दलित तो पतित आर्य भी नहीं थे. वे निकृष्टतम प्रजाति के थे. हिन्दी में इन दिनों प्रगतिशीलता का एक नया ढब निकला है. इस ढब के मुताबिक उपनिवेशवाद भारत के लिए और विशेष रुप से दलितों के लिए वरदान था. दलितों का उद्धार करने के लिए ही अंग्रेजों ने भारत को उपनिवेश बनाया था. बुरा हो राष्ट्रवादियों का जिन्होंने उन्हें ज्यादा दिन टिकने नहीं दिया. वे देर से आये और जल्दी चले गये !..”

प्रेमचंद के मूल्यांकन की कसौटियों में पेवस्त औपनिवेशिक ज्ञानकांड के रग-रेशे दिखाते हुए उसके बरक्स पुस्तक में भरपूर साक्ष्यों के साथ प्रेमचंद की पश्चिम के प्रति अवधारणा का रेखांकन किया गया है. इसी क्रम में पश्चिमी राष्ट्रवाद के बारे में प्रेमचंद की सोच और भारतीय राष्ट्रवाद से उसकी भिन्नता के बारे में विचार किया गया है फिर भारतीय राष्ट्रवाद की इकाइयों— शहर, नागरिक-समाज, गांव(पारंपरिक सामुदायिकता) और गांव में भी दलित और स्त्री के बारे में प्रेमचंद के विचारों की चर्चा है. इस चर्चा से बड़े हद तक पुस्तक की मूल स्थापना सिद्ध हो जाती है कि “प्रेमचंद सरीखे चिन्तक को आधुनिकता के प्रोजेक्ट में समर्थन में निःशेष कर देने के बजाय उन बिन्दुओं पर पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है जहां ये आधुनिकता की सख्त आलोचना करते हैं. वस्तुतः हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति(या संस्कृतियां) को समझना प्रकारांतर से इस प्रक्रिया की समग्रता, विशिष्टता और अपनी सभ्यता की आंतरिक गतिकी को भी समझना है.”

इतिहास को विवेचना का विषय बनाने वाली कुछ पुस्तकें करुणा के भाव से लिखी होती हैं, कुछ सात्विक क्रोध से. न्याय की भावना दोनों ही पुस्तकों की प्रेरक होती है लेकिन इस भाव का निर्वाह दोनों में अलग-अलग होता है. करुणा के भाव से लिखी पुस्तकों में प्रिय के खो जाने का मलाल नहीं होता, बल्कि स्वीकृति होती है. ऐसी पुस्तकों में जोर अपने खोये या अधूरे पाये हुए को भरपूर ब्यौरे के साथ बताने पर होता है. कोई चीज खो गयी या अधूरी हासिल है तो इसकी वजहें क्या रहीं— ऐसी खोज करुणा भाव से लिखी किताबों में प्रधान नहीं होती. इतिहासकार सुधीरचंद्र की पुस्तक ‘गांधी-एक असम्भव सम्भावना’ करुणा के भाव से लिखी पुस्तक का एक अच्छा उदाहरण हो सकती है. सात्विक क्रोध से लिखी पुस्तकों में किसी चीज के खोने या अधूरा हासिल होने का मलाल बहुत मुखर होता है और उसके कारणों की खोज बड़ी प्रखर. जोर अपने खोये या हासिल को महीन ब्यौरे में बताने पर कम हो जाता है और कारणों की खोज पर ज्यादा. किसी प्रिय चीज के खो जाने या उसके अधूरे रुप में हासिल होने की जाहिर वजह के साथ सात्विक क्रोध से लिखी पुस्तकें बहुत ज्यादा जिरह करती हैं. सो, खोज ली गई वजहों के साथ लेखक की हमदर्दी नहीं बन पाती और इसका एक घाटा होता है— जिन बातों को किसी चीज के खो जाने या अधूरा हासिल होने की वजह के रुप देखा जा रहा है उनके दोष बड़े प्रखर होकर उभरते हैं, अगर कोई गुण है तो वह दब जाता है. समीक्ष्य पुस्तक भी सात्विक क्रोध से लिखी गई है और उसमें दोष-विवेचन जितना प्रखर है, गुणों की चर्चा या कह लें एक लें उनके साथ मुठभेड़ की कोशिश कम है.

मिसाल के लिए, समीक्ष्य पुस्तक के लेखक के इस विचार से इनकार नहीं किया जा सकता कि मार्क्स ने भारत के पुराने समाज को इतिहास-धारा से वंचित माना है और अंग्रेजी शासन को वह शक्ति जिसने अपनी तमाम बर्बरता के बावजूद भारत को इतिहास(या कह लें आधुनिकता) के प्रगति-पथ पर लगा दिया और भारतीय स्वाधीनता संग्राम या फिर आधुनिक भारत के इतिहास-लेखन का उपक्रम एक हदतक इस विचार का साझीदार होने के कारण औपनिवेशिक ज्ञान-कांड(लेखक के शब्दों में पश्चिम की आधुनिकता) से मुक्त नहीं है. लेकिन विचार के इस बिन्दु तक पहुंचने के बाद यह सोचा जा सकता है कि क्या किन्हीं कमियों के बावजूद प्रेमचंद के लेखन को समझने में मार्क्सवादी मीमांसा किसी हद तक सहायक हो सकती है ?

यह अलग से कोई प्रश्न नहीं बल्कि पुस्तक के प्रधान कथ्य के तार्किक विस्तार से जुड़ा सवाल है. उदाहरण के लिए, समीक्ष्य पुस्तक में प्रेमचंद को गांधी से प्रभावित माना गया है और गांधी के चिन्तन में 19 वीं सदी के चिन्तक भूदेव मुखोपाध्याय के विचार की अनुगूंज सुनी गई है. पुस्तक ध्यान दिलाती है कि ‘गांधी जैसी दृढ़ता के साथ आधुनिकता की ज्ञानमीमांसात्मक परम्परा को चुनौती देने वाला कोई नहीं दिखता’ लेकिन बंगाल में अरविन्दो और विवेकानंद के पहले से पश्चिम अर्थात आधुनिकता की मूलभूत आलोचना शुरु हो गई थी. साक्ष्य के रुप में समीक्ष्य पुस्तक में भूदेव मुखोपाध्याय के ग्रन्थ सामाजिक प्रबन्ध का एक लंबा हिस्सा उद्धृत किया गया है जिसमें आता है कि “सभ्यताओं के उद्देश्य और उनकी प्राथमिकताएं एक जैसी नहीं होतीं, इसलिए उनकी तुलना नहीं की जा सकती. तुलना सभी की स्वीकार्य सार्वभौम निकष पर ही संभव है और यह निकष मनुष्य की प्रेम करने की क्षमता का क्रमिक विस्तार हो सकता है. पहले व्यक्ति और फिर व्यक्ति से आगे बढ़ते हुए इस दायरे में परिवार, समुदाय, राष्ट्र और अन्ततः समूचा ब्रह्मांड आना चाहिए. लेकिन पश्चिमी संस्कृति में यह राष्ट्र पर आकर रुक जाती है. हिन्दू धर्म के सार्वभौम प्रेम की तुलना में यह मनुष्यता के लिए हीनतर लक्ष्य है.”

चूंकि पुस्तक में प्रेमचंद के राष्ट्र विषयक चिन्तन को गांधी और उनसे भी पहले भूदेव मुखोपाध्याय द्वारा की गई सभ्यता समीक्षा से जोड़कर देखा गया है सो यहां ठहरकर सोचा जा सकता है कि क्या मार्क्सवादी समीक्षा की कोई युक्ति प्रेमचंद के लेखन में आये राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति की धारणा की समझ को ज्यादा पैना बनाने में सहायक हो सकती है ? तनिक थमकर सोचें तो लगेगा कि इस प्रश्न का उत्तर ‘हां’ में भी हो सकता है. जैसे मार्क्सवादी तर्ज की समीक्षा यह बता सकती है कि ‘खेतिहर समुदाय त्यागी-संन्यासी जान पड़ने वाले नेताओं की तरफ विशेष आकर्षित होता है. इसका खास रिश्ता सिर्फ हिन्दू धर्म से ही नहीं है. गांधी में जो त्याग-भाव है, वह उनके निजी दर्शन की देन है और इस दर्शन में निश्चित ही हिन्दू धर्म का भी योग है तथा कुछ ऐसा ही हो ची मिन्ह, मुजफ्फर अहमद या पी सुन्दरैया में दिखायी देता है लेकिन त्याग-भाव से किसी नेता के भीतर जो साख पैदा होती है सिर्फ वही भर किसान को लामबंद करने के लिए काफी नहीं होती. यह अनिवार्य तो है लेकिन पर्याप्त नहीं और इसके पर्याप्त होने के लिए जमीनी हालात(मैटेरियल कंडीशन) अनुकूल होने चाहिए. एक खास सहायक कारण जिसकी वजह से किसान उठ खड़े हुए और उनके संघर्ष ने उपनिवेश-विरोधी संघर्ष का रुप लिया, ग्रेट डिप्रेशन कहलाने वाली महामंदी है. महामंदी का एक महत्वपूर्ण घटक खेतिहर संकट भी है. किसानों की लामबंदी को संभव बनाने के लिए कांग्रेस ने अवाम के आगे भारत के भविष्य के बारे में एक ब्लूप्रिन्ट रखा. यह काम कांग्रेस के कराची अधिवेशन(1931) में हुआ. इसमें सार्वभौम मताधिकार, हर भारतीय नागरिक को एक सुनिश्चित जीवन-स्तर फराहम करने, अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा, जाति-धर्म और लिंग की अपेक्षाओं से परे कानून के समक्ष बराबरी का दर्जा देने और धर्म से राजसत्ता के अलगाव की बात कही गई.’ ( यह अंश पेरी एंडरसन की पुस्तक द इंडियन आयडियालॉजी की ईपीडब्ल्यू में प्रकाशित प्रभात पटनायक कृत समीक्षा में आता है).

प्रेमचंद कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता नहीं थे लेकिन कांग्रेस के साथ उनकी सहानुभूति हमेशा रही. वे गांधी-भाव से सदा सन्नद्ध रहे लेकिन आलोचना तो उन्होंने अपने इस महात्मा की भी की है. और, जैसा कि इतिहासकार सुधीरचंद्र ने प्रेमचंद विषयक अपने एक पुराने लेख( प्रेमचंद: ए हिस्ट्रोरियोग्राफिक व्यू, ईपीडब्ल्यू, 11 अप्रैल 1981) में कहा है, वे उन बाध्यताओं को देख सकते थे जिसके भीतर कांग्रेस को उसके नेताओं के वर्गीय हितों की वजहों से काम करना पड़ता था तो भी उन्होंने “कांग्रेस की अपनी आलोचना को ऐसा साज-संवार दिया कि वह कांग्रेस के कार्यक्रमों की संगति में जान पड़े.” अगर इतिहासकार सुधीरचंद्र की बात ठीक है तो फिर प्रभात पटनायक का उपर्युक्त उद्धरण प्रेमाश्रम(1922) में आये किसान-सभा के जिक्र से लेकर कर्मभूमि(1932) के सत्याग्रह तक की व्याख्या में सहायक साबित हो सकता है.

यही बात समीक्ष्य पुस्तक में अस्मितावादी आदोलन की वैचारिकी के दायरे में हुए प्रेमचंद के मूल्यांकन को लेकर उठाये गये प्रश्नों के बारे में भी सोची जा सकती है. अंग्रेजी-राज भारतीयों के लिए स्मृति-नाश और जीवन-नाश दोनों का कारण साबित हुआ और इस दोहरे नाश की शिकार भारत-भूमि का हर समाज हुआ और दलित कहीं और ज्यादा शिकार हुए—समीक्ष्य पुस्तक के लेखक के इस मंतव्य से इनकार नहीं किया जा सकता. अंग्रेजी राज में पौने दो सौ बरसों में जितने अकाल पड़े और भारत-भूमि के आम जन काल-कवलित हुए वैसा मुगलों या उसके पहले के भारत में ना हुआ था. कुछ पुस्तकों (जैसे माइक डेविस की पुस्तक ‘ लेट विक्टोरियन होलोकॉस्ट्सः एल निनो फेमाइन्स ऐंड मेकिंग ऑफ दि थर्ड वर्ल्ड) में दर्ज तथ्य बताते हैं कि 1770 से 1890 के बीच के एक सौ बीस साल के वक्फे में भारत में इकत्तीस बड़े अकाल पड़े थे और उसके पहले के पूरे दो हजार सालों में सत्रह. इन बड़े अकालों का संबंध जितना जलवायु-गत परिस्थितियों से है उससे बहुत-बहुत ज्यादा अंग्रेजी साम्राज्यवाद से. अकेले 1769-1770 में ही, कंपनी की लूट और मौसम के प्रकोप ने मिलकर , बंगाल की एक तिहाई आबादी को भुखमरी और मौत के मुँह में धकेल दिया था. यह सिलसिला दूसरे महायुद्ध के दौरान “प्रगतिशील” अंग्रेजी राज द्वारा पैदा किए गए, ‘बंगाल के अकाल’ तक जारी रहा. खुद अंग्रेजी राज की रिपोर्टों में लिखा मिलता है कि इन अकाल में काल-कवलित होने वालों में 80 प्रतिशत आबादी वंचित वर्ग के लोगों की थी. जाहिर है, आज की राजनीतिक शब्दावली में ‘दलित’ कहलाने वाली जातियों के लिए अपनी नस्ली श्रेष्ठता के पैमाने पर उन्हें ‘हीन से भी हीनतर’ करार देने वाला औपनिवेशिक ज्ञान-कांड मृत्यु के सामूहिक आयोजन से कमतर ना था. लिहाजा, अगर कोई कहे कि ‘अंग्रेज देर से आये और जल्दी चले गये’ तो उसके इस अफसोस पर रोष या अचरज जायज है.

लेकिन बात यहीं तक रुक नहीं जाती. अगर ‘अंग्रेजों के देर से आने और जल्दी जाने’ का अफसोस कंपनी-राज की लूट की पहचान के बाद भी मौजूद और मुखर है, उसे स्वीकृति हासिल है तो फिर इसके कारणों की खोज जरुरी है— खासकर यह खोजना कि इस अफसोस का स्रोत नैतिकता की किस वैचारिकी में है और क्या वह वैचारिकी ‘भारतीय आधुनिकता’ की प्रचलित समझ को किन्ही कोण से ज्यादा समग्र बनाने में मददगार हो सकती है ? यहां उदाहरण के तौर पर लाहौर(जात पांत तोड़क मंडल) वाले मशहूर भाषण पर महात्मा गांधी और आंबेडकर के बीच चली बहस की चर्चा की जा सकती है.

महात्मा गांधी ने जाति की संस्था के विरुद्ध आंबेडकर के भाषण की मूल बातों के प्रतिवाद में जो कुछ लिखा उसका सार संक्षेप कुछ यों हो सकता है कि ‘ 1.हिन्दू धर्म विकसनशील है, उसका कोई एक और स्थायी ग्रंथ नहीं. 2.जो तर्क की कसौटी पर खरी ना उतरे और जिसे आध्यात्मिक प्रयोग में ना लाया जा सके उसे ईश्वर की वाणी नहीं माना जा सकता. 3. धर्मग्रंथ का अनिवार्य व्याख्याता कोई विद्वान नहीं हो सकता. धर्म विद्वानों से नहीं साधु-संतों और उनके जीवन एवं कथन पर चलता है. 4.हिन्दू धर्म का सार है कि सत्य ही ईश्वर और अहिंसा मानव-परिवारों का कानून है. 5.धर्म को उसके सबसे बुरे उदाहरणों से नहीं बल्कि सबसे अच्छे उदाहरणों से परखा जाना चाहिए.’ इन बातों के पल्लवन के बाद महात्मा का आंबेडकर से सवाल था कि “क्या चैतन्य, ज्ञानदेव, तुकाराम, तिरुवल्लूर, रामकृष्ण परमहंस, राजा राममोहन राय, महर्षि देवेन्द्रनाथ टैगोर, विवेकानंद और अन्य विद्वानों द्वारा सिखाया धर्म पूरी तरह से गलत है, जैसा कि डा. आंबेडकर ने अपने भाषण में दिखाया है ?

आंबेडकर के भाषण के प्रतिवाद के रुप में दर्ज महात्मा गांधी के ये उपर्युक्त वाक्य महत्वपूर्ण है क्योंकि यही वह ब्लूप्रिन्ट है जिसके दायरे में हिन्दू धर्म-परंपराओं के किसी पक्ष(जैसे कि निर्गुण भक्ति और उससे जुड़ी वैष्णवी परंपरा) को आधुनिक भाव-बोध के अनुकूल बताकर कहा जाता है कि अंग्रेज ना आते तो भी अपनी इतिहास-धारा के अनुकूल भारतीय मनीषा व्यक्ति के सत्य और मुक्ति के इहलौकिक विचार तक पहुंच ही जाती. दरअसल आंबेडकर इस सोच का प्रतिवाद करते हुए उसमें कुछ जोड़ते हैं. गांधी के प्रतिवाद के जवाब में आंबेडकर लिखते हैं महात्मा ने प्रश्न उठाया है कि “चैतन्य, ज्ञानदेव, तुकाराम, तुरुवल्ललुर, रामकृष्ण परमहंस द्वारा ज्ञापित धर्म गुणरहित नहीं हो सकता जैसा कि मैंने बताया है और ये कि किसी भी धर्म को सबसे खराब नमूने से नहीं बल्कि सबसे अच्छे परिणाम से परखना होगा. मैं इस वक्तव्य के प्रत्येक शब्द से सहमत हूं लेकिन मैं इस वक्तव्य से बिल्कुल नहीं समझ पाया कि महात्मा इससे क्या सिद्ध करना चाहते हैं. यह सत्य है कि धर्म को सबसे खराब नमूने से नहीं बल्कि सबसे अच्छे से परखना चाहिए. लेकिन क्या मामला यहीं समाप्त हो जाता है? मै कहता हूं नहीं. प्रश्न अब भी उठता है कि सबसे खराब इतने अधिक क्यों हैं और सबसे अच्छे इतने थोड़े से क्यों.”

आगे महात्मा गांधी के प्रतिवाद के बुनियादी दोष पर अंगुली रखते हुए आंबेडकर लिखते (और इस लिखे से उत्तर मिल जाता हैं कि धर्म के सबसे अच्छे उदाहरण इतने कम क्यों) हैं, “महात्मा ने तर्क दिया है कि संतों के उदाहरण को अपनायें तो हिन्दू धर्म सहनीय हो जाएगा, महात्मा का ये तर्क भी अन्य कारण से गलत सिद्ध होता है. चैतन्य जैसे सुविख्यात संत का नाम लेकर मोटे और सबसे सरल तरीके से महात्मा सुझाव देना चाहते हैं कि ढांचे में मूलभूत परिवर्तन किए बिना हिन्दू समाज सहनीय और खुशहाल हो सकता है. …जो इस बात पर निर्भर हैं कि वह बड़ी जाति के हिन्दू को एक अच्छा इंसान बनायेंगे तथा व्यक्तिगत चरित्र सुधारेंगे, वे मेरे विचार से अपनी शक्ति बरबाद कर रहे हैं और एक भ्रम पाले हुए हैं. क्या व्यक्तिगत चरित्र शस्त्र बनाने वाले को एक अच्छा आदमी बना सकता है, अर्थात जो आदमी गोला बेचता है, वह ऐसा गोला बनाये जो न फटे और गैस जहर ना फैलाएं ? …सच बात तो यह है कि हिन्दू अपनी जाति के बाहर वाले व्यक्ति को पराया मानता है.. कहने का मतलब है कि बेहतर या बदतर हिन्दू मिल सकता है लेकिन एक अच्छा हिन्दू नहीं मिल सकता. ऐसा इसलिए नहीं कि उसके व्यक्तिगत चरित्र में कोई कमी है. असल में, अपने साथियों के साथ उसके संबंध का आधार ही गलत है.”

अगर एक पंक्ति में कहें तो आंबेडकर के उपर्युक्त कथन में यह ध्वनि सुनी जा सकती है कि व्यक्तिगत आचरण की सच्चाई और अहिंसा की कुछ उज्ज्वल परंपराओं के कारण भारत-भूमि में प्राक्क्-आधुनिक(प्रोटो-मॉडर्न) संवेदना तो थी लेकिन इस संवेदना को सबके लिए साकार करने वाला ढांचा नहीं था, यह ढांचा तो अंग्रेजों या कह लें पश्चिमी आधुनिकता की यांत्रिकी के एक रुप यानी ‘विधि आधारित सेक्युलर शासन व्यवस्था’ ही ले आयी. सुदीप्तो कविराज जब कहते हैं कि ‘पॉलिटिक्स’ शब्द का ठीक-ठीक समानार्थी शब्द भारतीय भाषाओं में नहीं है तो दरअसल उनके कहे में आंबेडकर द्वारा उठाये गये प्रश्न की ही एक अलग स्तर पर ध्वनि सुनायी देती है. राजनीति, खासकर लोकतांत्रिक राजनीति(चाहे वह जितनी अधूरी हो) प्राक्क-आधुनिक संवेदना वाले पुराने भारत के लिए एकदम ही नया अनुभव थी. सो, समीक्ष्य पुस्तक में आगे यह सोचने के लिए सवाल बनता है कि क्या ‘अंग्रेज देर से आये, जल्दी चले गये’ में जो अफसोस निहित है, वह कहीं परंपरित भारतीय आधुनिकता की प्रकट कमी (विधि आधारित राज-व्यवस्था) का संकेतक तो नहीं, कहीं इस अफसोस में इस बात की स्वीकृति तो नहीं कि आधुनिकता के पश्चिम प्रोजेक्ट में भारत ने अपनी तरफ से कुछ जोड़ा और घटाया तो पश्चिमी प्रोजेक्ट भी भारतीय आधुनिकता की संवेदना को सबके लिए साकार करने में मददगार हुआ. ऐसा सोचने का एक प्रस्थान बिन्दु आनंद कुमारस्वामी की पुस्तक ‘ऐसेज इन नेशनल आयडिलिज्म’ में आया ‘माता भारत’ लेख हो सकता है. नयी-पुरानी आधुनिकता के आंगन में राष्ट्रवाद की भावमूर्ति तैयार होने की कहानी इस लेख में जिस महीनी और मार्मिकता से कही गई है- वह विरल है.

समीक्ष्य पुस्तक निबंधों( कुल तेरह) का संकलन है और सारे लेख प्रेमचंद-विशेषी नहीं लेकिन पुस्तक का एक महत्वपूर्ण हिस्सा(कुल चार लंबे लेख) प्रेमचंद के मूल्यांकन की समस्या से जूझते हैं. चूंकि पुस्तक में भारतीय आधुनिकता को जमीन बनाकर ‘हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति’ को समझने-बताने की कामयाब कोशिश की गई है सो पुस्तक की वैचारिकी का दायरा बड़ा हो जाता है. प्रेमचंद, हिन्द-स्वराज, सिविलाइजिंग मिशन, अंग्रेजी की जगह, हिन्दी की शक्ति, हिन्दी का जातीय संगीत, हिन्दी साहित्य का इतिहास और साहित्य, इतिहास तथा स्वाधीनता जैसे विषयों को एक सूत्र में पिरोने की भरपूर गुंजाइश बन जाती है पुस्तक में. और, ठीक इसी गुंजाइश को देखते हुए उम्मीद की जा सकती है समीक्ष्य पुस्तक की संभावनाओं का विस्तार लेखक किसी अन्य पुस्तक में बड़े फलक पर करेंगे.

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पुस्तक का नाम—हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति और प्रेमचंद

लेखक- डा. राजकुमार

पृष्ठ संख्या- 171, मूल्य सजिल्द—400

प्रकाशन—राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली.

चंदन श्रीवास्तव

चंदन श्रीवास्तव

मूलतया छपरा (बिहार) के निवासी, पिछले पंद्रह सालों से दिल्ली में। आईआईएमसी और जेएनयू में पढ़ाई। “उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिन्दी लोकवृत्त का निर्माण” शीर्षक से पीएचडी, दिल्ली के कॉलेजों में छिटपुट अध्यापन, फिर टीवी चैनल की नौकरी और अब विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) की एक परियोजना इंक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज से जुड़े हैं। इनसे  chandan@csds.in पर संपर्क संभव है। 

 

 

साभार: प्रतिमान

मुक्तिबोध की रचनात्मकता : प्रो.राजकुमार

मुक्तिबोध के बहाने प्रो. राजकुमार एक बहस की धारावाहिकता में गहरे विश्वास के साथ उतरे हैं. इस सीरिज का पहला , दूसरा लेख   और  तीसरा लेख  आप पढ़ चुके हैं,  चौथा  यहाँ  प्रस्तुत  है. #तिरछीस्पेल्लिंग 

यह बात सही है कि मुक्तिबोध नारीवादी रचनाकार या आलोचक नहीं हैं। यह भी सही है कि मुक्तिबोध कोई दलितवादी चिन्तक या रचनाकार नहीं हैं। इतना ही नहीं, मैं जो बात जोर देकर कहना चाहता हूँ वह यह है कि मुक्तिबोध यथार्थवादी रचनाकार भी नहीं हैं। लेकिन इससे मुक्तिबोध छोटे नहीं हो जाते, इससे मुक्तिबोध की तौहीन नहीं होती। इसके बावजूद मुक्तिबोध एक बड़े चिन्तक, विचारक और रचनाकार हैं। #लेखक

Muktibodh By Haripal Tyagi

Muktibodh By Haripal Tyagi

मुक्तिबोध की रचनात्मकता

 

By प्रो.राजकुमार

मुक्तिबोध ने जो बातें आलोचक या चिन्तक के रूप में लिखी हैं, वे बातें तो महत्त्वूपर्ण हैं ही, लेकिन जो बातें उनकी रचनाओं में आयी हैं, वे कई बार उनसे भी महत्त्वपूर्ण हैं, जो उन्होंने एक आलोचक के रूप में सचेत ढंग से लिखी हैं। मुक्तिबोध के आलोचनात्मक रूप को समझने के लिए सिर्फ उनके वैचारिक लेखन को न देखें, उनके रचनात्मक लेखन में जो विचार के स्फुरण हैं, वे भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और कई बार वैचारिक लेखन से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। मुक्तिबोध ने स्वयं ‘संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना’ की बात की है। विचार और संवेदना तथा रचना और विचार को मुक्तिबोध अलग करके देखने के हिमायती नहीं हैं।

मुक्तिबोध ने प्रायः विधाओं की पारम्परिक सीमाओं को तोड़ा है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ‘एक साहित्यिक की डायरी’ है। इसे क्या कहेंगे, डायरी, संस्मरण, नोटबुक, वैचारिक-चिन्तनपूर्ण लेखों को संजोने का उपक्रम; आखिर इसे क्या कहा जाए! इसी तरह मुक्तिबोध की जो कहानियाँ हैं, उनको भी हिन्दी में कहानी लिखने की पहले से चली आ रही परम्परा के परिदृश्य में देखने पर कई बार समस्या उत्पन्न होती है। यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि इन्हें कहानी माना जाए, निबंध माना जाए या फिर संस्मरण माना जाए। कहने का तात्पर्य यह है कि मुक्तिबोध ने जिस विधा में भी लिखा उस विधा को समस्याग्रस्त बनाया। उन्होंने उसकी पहले से चली आ रही संरचना को किसी न किसी रूप में बदला। इसलिए सिर्फ आलोचनात्मक लेखन में नहीं, बल्कि रचनात्मक लेखन में भी, मुक्तिबोध ने जो कुछ लिखा है, उस पर विचार करने की जरूरत है।

मुक्तिबोध के समूचे लेखन में प्रेमचंद के प्रति आदर का भाव है, लेकिन प्रेमचंद के बारे में मुक्तिबोध ने लगभग न के बराबर लिखा है। निराला के प्रति भी आदर का भाव है लेकिन मुक्तिबोध ने उनकेे बारे में भी कुछ नहीं लिखा। मुक्तिबोध ने सबसे ज्यादा जिस रचनाकार के बारे में लिखा है, वे जयशंकर प्रसाद हैं। सोचने वाली बात है कि मुक्तिबोध जयशंकर प्रसाद के बारे में इतना क्यों लिखते हैं? ‘कामायनी’ का जिस तरीके से उन्होंने मूल्यांकन किया है, उससे आप क्या वास्तव में समझ सकते हैं कि मुक्तिबोध ने प्रसाद से क्या लिया! मुझे लगता है कि ‘कामायनी एक पुनर्विचार’ पुस्तक में मुक्तिबोध ने प्रसाद के बारे में चाहे जो भी निर्णय दिए हों, लेकिन मुक्तिबोध जो चीजें प्रसाद से लेते हैं, वह भारतीय सभ्यता का गहरा, सूक्ष्म सांस्कृतिक बोध है। समूची हिन्दी काव्य परम्परा में, बहुत गहरे अर्थों में, एक सच्चे भारतीय कवि के रूप में मुक्तिबोध अपने आपको प्रस्तुत करते हैं। छायावादी कवियों में निराला की कविता की क्रांतिकारिता अपनी जगह है। निराला ने ‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ जैसी लम्बी कविताएँ लिखी हैं। लेकिन इसके बावजूद भारतीय सभ्यता का बहुत गहरा और सूक्ष्म सांस्कृतिक बोध जिस तरह प्रसाद के यहाँ है, वैसा और किसी के यहाँ नहीं है। मुझे लगता है कि यह शायद बड़ा कारण है, जिसकी वजह से मुक्तिबोध लगातार प्रसाद की कविताओं से उलझते हैं। भले ही, उन्होंने इस बात को सीधे-सीधे न लिखा हो। मुक्तिबोध का ‘कामायनी’ के बारे में जो मूल्यांकन है, वह बड़ा ही नकारात्मक लगता है, लेकिन उन्होंने प्रसाद से जो कुछ लिया है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है।

मुक्तिबोध ने प्रसाद की ‘कामायनी’ को ‘फैंटेसी’ के रूप में देखा। प्रसाद ने भी एक अन्योक्ति के रूप में उसकी भूमिका लिखी है। प्रसाद ने भी ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे लगे कि ‘कामायनी’ एक यथार्थवादी रचना है। मुक्तिबोध का प्रसाद के साथ जो तादात्म्य है, उसके केन्द्र में उस शिल्प-विधान की भी भूमिका है जो मुक्तिबोध प्रसाद की ‘कामायनी’ से ग्रहण करते हैं और फिर जिसे अपने स्तर पर विकसित करते हैं। उन्होंने जैसे प्रसाद की ‘कामायनी’ को एक ‘फैंटेसी’ कहा है, वैसे ही, वह अपनी समूची रचनाओं को ‘फैंटेसी’ कहते हैं। उन्होंने यह माना है कि उनकी रचनाएँ ‘फैंटेसी’ के विधान में लिखी गयी हैं। इसलिए समस्या यह है कि जो रचना ‘फैंटेसी’ के विधान में लिखी गयी हो, जिसमें अन्तर्वाह्य, ‘स्वप्न’ और ‘यथार्थ’ का साफ-साफ अन्तर न किया गया हो, उसकी व्याख्या यथार्थवादी सैद्धान्तिकी के सहारे कैसे की जा सकती है।

उनकी कविता ‘अंधेरे में’ में यह प्रसंग आता है कि यह तो स्वप्न कथा है। ये सारी बातें स्वप्न में चल रही थी। यह जानबूझ कर मुक्तिबोध ने किया है। और यह उन्होंने इसलिए किया है क्योंकि ‘स्वप्न और यथार्थ’ के पहले से, यथार्थवादी दौर से, चले आ रहे विभाजन को वे तोड़ना चाहते थे; या उसको धुंधला करना चाहते थे। इसी तरह से क्या अन्दर है और क्या बाहर है, क्या आत्मगत है और क्या वस्तुगत है, इसका भी पारम्परिक विभाजन जो यथार्थवाद के रास्ते चला आ रहा था, मुक्तिबोध ने तोड़ दिया। उदाहरण के माध्यम से यह बात समझ सकते हैं। उनकी ‘भूल गलती’ कविता को लीजिए। वह ‘भूल गलती’ किसकी है? पहले यह भ्रम होता है कि किसी से कोई चूक-भूल हो गयी है, उसकी सजा मिलने वाली है। लेकिन फिर पता चलता है कि यह तो सत्ता का प्रतीक है। अन्दर क्या है, बाहर क्या है, इसका साफ-साफ विभाजन पहले से चला आ रहा था, मुक्तिबोध ने उसे तोड़ दिया। और आखिरी चीज इस प्रसंग में यह कि व्यक्ति की निश्चित-निर्धारित संभावनाओं को भी मुक्तिबोध ने समस्याग्रस्त बनाया। इस दृष्टि से आप विचार करें कि माक्र्सवाद की विधेययवादी/प्रत्यक्षवादी (Positivist) समझ उस दौर तक चली आयी थी जिसमें ज्यादातर चीजों के बारे में निश्चित रूप से कहने का दावा किया जाता था। मुक्तिबोध ने इस समझ को चुनौतीग्रस्त बनाया और व्यक्ति की संभावनाओं को कहीं न कहीं खुला छोड़ दिया। जैसे, ‘अंधेरे में’ कविता में ‘एक व्यक्ति अन्दर है और दूसरा उसकी साँकल खटखटा रहा है। कहने के लिए यह दो व्यक्ति हैं, लेकिन हम जानते हैं कि यह एक ही व्यक्ति की दो संभावनाएँ हैं। एक ही व्यक्ति दो रूपों में विकसित हो सकता है या कई रूपों में विकसित हो सकता है। अब वह समाज और देश-दुनिया कैसी है और वह कैसा प्रयास करता है, अपने को किधर जोड़ता है, इससे उसकी कौन-सी संभावनाएँ फलीभूत होंगी, यह निश्चित होगा।

व्यक्ति की पहचान नयी कविता के दौरान एक बड़ा मुद्दा था। व्यक्ति कैसे बनता है? व्यक्ति की अस्मिता को कैसे परिभाषित किया जाए? मुक्तिबोध ने इस बात को रेखांकित करने का प्रयास किया कि व्यक्ति की संभावनाएँ तो अनन्त हैं। वह कई रूपों में विकसित हो सकता है। व्यक्ति का कौन-सा रूप विकसित होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि समाज उसे कैसा असवर देता है और वह व्यक्ति कैसा प्रयास करता है। ये बातें यथार्थवाद की सैद्धान्तिकी के बाहर की बातें हैं। इसलिए यथार्थवाद के सहारे मुक्तिबोध या मुक्तिबोध की रचनाओं की व्याख्या नहीं कर सकते। यह अलग बात है कि कुछ लोगों को लगता है कि यथार्थवाद एक ऐसी ‘मास्टर की’ है, जिसके जरिये अतीत से लेकर वर्तमान तक और भविष्य में जो कुछ होगा, उसकी भी व्याख्या की जा सकती है। ऐसे लोगों को आप छोड़ दें, साहित्य और कला के विकास के बारे में जिनको थोड़ा बहुत मालूम है, वे जानते हैं कि यथार्थवाद के बाद पश्चिम में आधुनिकतावाद या जिसे अंग्रेजी में ‘मार्डनिज़्म’ कहते हैं, वह आता है। और मुक्तिबोध स्वयं उसके साथ जुड़े हुए हैं, मुक्तिबोध की एक किताब है, ‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष’। मार्क्सवाद के साथ उनका चाहे जैसा भी संबंध रहा है, लेकिन मुक्तिबोध ने कभी यह नहीं कहा कि वे नयी कविता से बाहर के कवि हैं। नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल या और दूसरे मार्क्सवादी कवि हैं, जिन्होंने अपने को नयी कविता से बाहर रखा। नयी कविता से बाहर रहने वाले कवि के रूप में मुक्तिबोध ने स्वयं को कभी पेश नहीं किया, बल्कि उसी के अन्दर एक प्रगतिशील संभावना खोजने की कोशिश मुक्तिबोध ने की। नयी कविता या नयी कहानी वही है जिसको अंग्रेजी में मार्डनिज़्म कहा जाता है। उसी का भारतीय संस्करण हमारे यहाँ नयी कविता या नयी कहानी के दौरान आया। उसी के अन्दर मुक्तिबोध भी सक्रिय हैं। उसी के अन्दर नयी कविता के दौरान बहसें हुईं। नयी कविता की वैचारिकी से बहस करते हुए, उससे उलझते हुए, मुक्तिबोध मार्क्सवादी आलोचना की, प्रचलित समझ से अपना एक संबंध स्थापित करते हैं। नयी कविता के दौरान कविता या साहित्य को लेकर जो एक नये प्रकार का चिन्तन आ रहा था, उससे भी वे उलझते हैं।

यथार्थवाद के आधार पर मुक्तिबोध की रचनाओं की व्याख्या नहीं कर सकते या नहीं करनी चाहिए। यथार्थवाद के चौखटे में मुक्तिबोध कहीं से भी फिट नहीं होते। उनका रचना-विधान यथार्थवाद से बाहर का है, जिसको आप मोटे तौर पर आधुनिकतावाद के साथ जोड़कर देख सकते हैं। इस पर हमें जरूर विचार करना चाहिए कि मुक्तिबोध भारतीय साहित्य और कला की क्या किसी वैकल्पिक परम्परा की ओर संकेत करते हैं या उसकी संभावनाओं को तलाशने की कोशिश करते हैं। हिन्दी की जिस जातीय परम्परा की बात आधुनिक युग में की जाती है, जिसके पुरस्कर्ता के रूप में हिन्दी में रामविलास शर्मा का नाम लिया जाता है, वह जातीय परम्परा मोटे तौर पर यथार्थवाद की सैद्धान्तिकी पर आधारित है। यथार्थवाद की सैद्धान्तिकी से प्रेरित प्रभावित जो रचनाएँ उस दौर में लिखी गयीं, वह बहुत महत्त्वपूर्ण हैं और उनके महत्त्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। उस यथार्थवाद की सैद्धान्तिकी से प्रेरित-प्रभावित रचनाओं के कारण भारत की साहित्यिक और सांस्कृतिक परम्परा का जो पहले से चला आ रहा सिलसिला था, उससे हमारा संबंध कहीं न कहीं टूटता और खण्डित भी होता है। यह अकारण नहीं है। चाहे लोक-परम्परा हो या चाहे लोकाख्यान हो या लोक जीवन से जुड़े हुए अन्य विविध रूप हों, यथार्थवाद से प्रेरित हिन्दी की जातीय साहित्य की परम्परा में उनकी लगभग उपेक्षा की गयी। इप्टा ने जिस प्रकार के नाटक खेले और कुछ लोकगीतों का प्रयोग किया, वहाँ भी पहले से प्रचलित और लोकप्रिय रूपों का इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति अधिक थी, लेकिन उनकी संवेदना और सैद्धान्तिकी से तदाकार होने का कोई प्रयास या उलझने का प्रयास वहाँ भी नहीं दिखता। इसलिए यथार्थवाद से प्रेरित रचनाओं की महत्ता को स्वीकार करने के बावजूद यह मानना पड़ेगा कि यथार्थवादी आग्रह के कारण कहीं न कहीं पूर्व प्रचलित परम्परा से विच्छेद भी दिखायी पड़ता है।

मुक्तिबोध को उस प्रसंग में रखकर देखना चाहिए, जहाँ रखकर विचार करने से उनका महत्त्व उद्घाटित होता है। आप जानते हैं कि मुक्तिबोध की कविताओं में और कहानियों में भी, जो आख्यान है, वह लगभग लोककथाओं जैसा है। लोककथाओं के स्ट्रक्चर में उनकी कविताएँ रची गयी हैं। उनकी कहानियों में भी यही चीज दिखायी पड़ेगी। यह दिलचस्प है कि मुक्तिबोध हिन्दी के पहले (अज्ञेय के साथ) पूरी तौर पर शहरी कवि हैं, जिनका गाँव से संबंध नहीं रहा है। इसके बावजूद उनके रचना-विधान में लोककथाओं से लेकर लोकजीवन की ‘बावड़ी’ तक अनेकों चीजें हैं। इनसे संबंधित बहुतेरे बिम्ब और प्रतीक हैं। यहाँ तक कि मुक्तिबोध के रंगबोध पर भी भारतीय लोकजीवन की गहरी छाप है।

मुक्तिबोध रूपक और प्रतीक के लिए जाने जाते हैं। लेकिन उससे ज्यादा खास चीज, जो मुझे बराबर आकृष्ट करती रही है कि कई बार भक्तिकालीन कवियों की पूरी की पूरी शब्दावली मुक्तिबोध के यहाँ मिल जाती है। इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना और अनेक शब्द मुक्तिबोध के यहाँ मिल जाते हैं, जिससे रामविलास जी को यह भ्रम होता है कि यह तो रहस्यवादी हो गए हैं। दरअसल, समूची भक्तिकालीन परम्परा के दौरान शब्दों की एक नयी समृद्धि आयी; उसको एक नए स्तर पर अर्जित करने और उसका नवोन्मेष करने का उद्यम मुक्तिबोध की कविता में दिखायी पड़ता है। मुक्तिबोध बहुत गहरे और सूक्ष्म अर्थों में भारतीय संस्कृति और सभ्यता के कवि हैं। भारतीय साहित्यिक परम्परा का जितना गहरा संस्कार मुक्तिबोध के यहाँ दिखायी पड़ता है, उनसे पहले प्रसाद के यहाँ है, और उसके बाद तो फिर किसी के यहाँ नहीं है।

यथार्थवाद से इतर जो गैर यथार्थवादी परम्परा है, वह कैसे भारतीय सभ्यता की पहले की विरासत – लोक परम्परा और शास्त्रीय परम्परा – से जुड़ने में हमारी मदद करती है और एक वृहत्तर भारतीय समाज के साथ भी हमारा संवाद स्थापित करने में सहायता करती है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का नाटक है ‘अंधेर नगरी’। कहा जाता है कि यह एक लोककथा है और पारसी रंगमंच पर इस तरह का नाटक खेला भी जाता था। भारतेन्दु ने उसे अपने ढंग से समृद्ध किया। ‘अंधेर नगरी’ का पूरा रचना-विधान भारतीय लोक परम्परा के आख्यान के अनुरूप है या उसके नजदीक है। उसकी व्याख्या यथार्थवाद की तार्किक सैद्धान्तिकी के आधार पर नहीं कर सकते। शायद यह बड़ा कारण है कि यह छोटा सा नाटक इतना लोकप्रिय हुआ। उसकी लोकप्रियता सिर्फ विश्वविद्यालयों और हिन्दी विभाग की चौहद्दी तक सीमित नहीं रहती। यह नाटक इतना विस्तार पाता है कि आपातकाल के दौरान उसे प्रतिबंधित करना पड़ा। यह जो शक्ति है, वह गैर यथार्थवादी शिल्प-विधान की खासियत है, जो ‘अंधेर नगरी’ में दिखायी पड़ती है। यह शक्ति, यह खासियत फिर मुक्तिबोध में दिखायी पड़ती है, हबीब तनवीर में दिखायी पड़ती है और विजयदान देथा की कहानियों में दिखायी देती है। यही मुक्तिबोध के चिन्तन का प्राण है।

मुक्तिबोध ने गैर यथार्थवादी रचनात्मकता को, पहले से चली आ रही परम्परा को, पहचाना, उसके द्वार खोले, उसके महत्त्व को सामने लाने का काम किया। प्रेमचंद ने 1936 में प्रगतिशील साहित्य मंच के अध्यक्षता पद से दिये गये भाषण ‘साहित्य का उद्देश्य’ में पहले के समूचे साहित्य का सुलाने वाला साहित्य के रूप में जिक्र किया था। मैं यथार्थवाद की इसी विडम्बना की ओर संकेत करना चाहता था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आधुनिक युग से पहले की समूची विरासत को, उसकी उपलब्धियों को, चाहे वह शास्त्रीय परम्परा की हों या लोक परम्परा की, अस्वीकार कर दिया गया। इसी पृष्ठभूमि में मुक्तिबोध ने एक बड़ा काम किया। वह अध्याय फिर से खोला गया, उसके महत्त्व को नये सिरे से समझने और उससे सीखने के एहसास को हमारे अन्दर उत्पन्न किया गया। आश्चर्य होता है कि मुक्तिबोध यह काम तब कर रहे थे, जब दुनिया में जादुई यथार्थवाद नाम की कोई चीज कहीं थी ही नहीं।

जादुई यथार्थवाद को साहित्य में लाने वाले लातिन अमरीकी उपन्यासकार गैब्रियल गार्सिया मार्खेज़ का नाम विशेषरूप से लिया जाता है। जादुई यथार्थवाद की शैली में नए तरह का जो आख्यान है, वह कहीं न कहीं लातिन अमरीकी लोक जीवन को फिर से एक नये स्तर पर उपन्यास के शिल्प में लाने का उपक्रम है। यह संभव ही नहीं हो पाता, अगर बीच में आधुनिकतावाद न आता। अगर आधुनिकतावाद ने यथार्थवाद की सैद्धान्तिकी को चुनौती न दी होती तो कोई भी लेखक, चाहे वह लातिन अमरीकी हो या कोई और, वह मैजिकल रियलिज्म के ढंग की रचना नहीं कर सकता था। विद्वान जानते हैं कि मैजिकल रियलिज्म का विकास कैसे हुआ। उसमें आधुनिकतावाद का बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान है।  इसीलिए मुक्तिबोध के योगदान के इस पक्ष को देखकर आश्चर्य होता है। जादुई यथार्थवाद कहीं आया ही नहीं था, और इसके बावजूद मुक्तिबोध इस तरह की कविताएँ लिखने का साहस कर रहे थे। इसी अर्थ में कई बार विचार के स्तर पर हम ज्यादा औपनिवेशिक होते हैं जबकि संवेदना और संस्कार के स्तर पर देशी होते हैं। संवेदना या संस्कार हमेशा प्रतिक्रियावादी ही नहीं होते, गलत ही नहीं होते, कई बार ज्यादा सच्चे और अच्छे होते हैं। मुक्तिबोध के यहाँ भी हम इस बात को लागू करके देख सकते हैं कि उनकी रचनात्मकता में इस तरह के बहुत सारे पक्ष हैं। कई बार अपने वैचारिक चिन्तन में वे इस पर ध्यान नहीं देते हैं या फिर उस पर ढंग से विचार नहीं करते।

नयी कविता में इस बात को लेकर बड़ी बहस हुई कि जीवनानुभूति और सौन्दर्यानुभूति में क्या संबंध है। नयी कविता के दौरान यथार्थ वाला नुस्खा नहीं आता है। अज्ञेय ने, जिन्हें टी॰एस॰ इलियट से प्रेरणा मिली थी, कहा कि जीवनानुभूति और सौन्दर्यानुभूति दोनों ही अलग या समानान्तर चलने वाली चीजें हैं। इनके बीच कोई सीधा संबंध नहीं है। यह एक समझ थी, जिसके हिन्दी में प्रवक्ता अज्ञेय थे। दूसरी समझ मार्क्सवादियों की थी कि जीवनानुभूति और सौन्दर्यानुभूति में कोई फर्क नहीं है। अगर आपके पास जीवन का अनुभव है तो वही पर्याप्त है और उससे अपने आप रचना बन जाएगी। रचना आपकी जीवनानुभूति का ‘बाइप्रोडक्ट’ है। इस संबंध में मुक्तिबोध ने न तो यह कहा कि ये दोनों बिल्कुल अलग हैं और न तो यह कि जीवन की अनुभूति और सौन्दर्य की अनुभूति दोनों एक हैं। उन्होंने कहा कि सैन्दर्यानुभूति जीवनानुभूति से गुणात्मक रूप से भिन्न है। इसका मतलब है कि रचना जीवन का ‘बाइप्रोडक्ट’ नहीं है। रचना एक कौशल और अनुशासन भी है। अगर वह कौशल और अनुशासन आपको नहीं आता, तो जीवन में आपने चाहे जितना संघर्ष किया हो, उसके बाद भी कोई अच्छी रचना या कविता लिख पाएंगे, ऐसा कोई दावा आप नहीं कर सकते। तीन क्षणों की चर्चा में मुक्तिबोध ने इसी बात को बहुत विस्तार से दिखाया है कि रचना का जब बीज पड़ता है और जब रचना अन्तिम रूप से बनती है तो उसमें बहुत बदलाव आ जाता है। मुक्तिबोध ने इस बात को अपने आखिरी दिनों के आस-पास महसूस किया था कि हर विधा का अपना एक स्वभाव या चरित्र होता है। कविता, कहानी या अन्य दूसरी विधाओं में भी उस विधागत स्वभाव या चरित्र को आप एक सीमा तक तो बदल सकते हैं, लेकिन एक सीमा के बाद आप उसे नहीं बदल सकते। बल्कि इसका उल्टा होता है कि वह विधा भी आपको बदलती है। अगर आपको कहानी लिखनी है तो कहानी लिखने के बारे में जैसे ही सोचेंगे, वैसे ही आप अपने अनुभव को कहानी की विधा में रूपान्तरित करने की कोशिश करने लगेंगे। किसी विधा में अनुभव को रूपान्तरित करने की जो कोशिश है, उसमें वह विधा भी आपको और आपके अनुभव को बदल देती है। वह विधा आपकी भाषा को भी बदल देती है। बहुत सारी चीजें आपके जीवननानुभव में जुड़ जाती हैं और बहुत सी चीजें घट जाती हैं। मुक्तिबोध ने ये सारी बातें उस समय लिखी है जब हेडेन ह्वाइट जैसा कोई समाजशास्त्रीय चिन्तक नहीं हुआ था। हेडेन ह्वाइट की एक बड़ी प्रसिद्ध पुस्तक है ‘कन्टेन्ट आॅफ फाॅर्म’। इसका हिन्दी अनुवाद किया जाए तो होगा ‘रूप की अन्तर्वस्तु’। चाहे संगीत का रूप हो या साहित्य की किसी विधा का रूप हो, उसका अपना एक स्वाभाव होता है। एक रूप एक खास तरह की चीजों को ग्रहण करेगा, दूसरी चीजों को वह ग्रहण नहीं करेगा, और अगर आप एक सीमा के बाद जबदस्ती करने की कोशिश करेंगे, तो वह रूप उसे धारण नहीं करेगा। आप लाख कहते रहें  कि आपने कविता लिख दी है, और चौबीस कैरेट यथार्थ उसमें डाल दिया है, लेकिन अगर वह विषय उस रूप के अन्दर ‘फिट’ नहीं हो पाया तो फिर उसे कविता नहीं कहा जाएगा। उपन्यास लिखना है तो आप उपन्यास को चाहे जितना भी बदलें, अन्ततः आपको उपन्यास ही लिखना है। कविता लिखनी है तो आप कविता को चाहे जितना भी बदलें, अन्ततः कविता ही लिखनी है। यह विवेक कहीं न कहीं होना चाहिए कि रूप विषय को किस हद तक धारण कर सकता है। सुई से तलवार का काम नहीं लिया जा सकता और तलवार से सुई का काम नहीं ले सकते, यह बात मुक्तिबोध के तीन क्षणों के विवेचन से निकलकर हमारे सामने आती है, और हमें बहुत कुछ सीखने के लिए विवश करती है। यह बात अलग है कि स्वयं मुक्तिबोध का समूचा रचनात्मक लेखन इस कसौटी पर हमेशा खरा नहीं उतरता। मुक्तिबोध के यहाँ सर्वत्र श्रेष्ठ कविता नहीं है। बहुत सारे अंश हैं, जहाँ बिखराव भी दिखायी पड़ेगा, जहाँ लगता है कि रूप ने इसको धारण नहीं किया है। खास तौर से ‘अंधेरे में’ का जो पूरा विन्यास है, जहाँ नाटक की संरचना में कविता रचने का प्रयास उन्होंने किया है, वहाँ आप इस बात को महसूस कर सकते हैं। जिस रूप की तलाश मुक्तिबोध को थी, जो कई दफा उन्हें कुछ अंशों में मिलता था, और कभी नहीं मिलता, शायद वह तलाश ‘अंधेरे में’ जाकर पूरी होती है। इस तरह की और भी कुछ रचनाओं का उल्लेख किया जा सकता है, लेकिन नाटक की संरचना के अंदर अपनी प्रगीतात्मक संवेदना को कैसे पिरोया जाए, यह रचनात्मक विधान मुक्तिबोध ने अपने आखिरी दौर में खोज लिया। वहाँ रूप ने संवेदना को धारण किया है। इस दौर में इस तरह की दो रचनाएँ मिलती हैं। दूसरे पक्ष से धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’ है, जो नाटक की संरचना में एक खास तरह की प्रगीतात्मकता को धारण करने की तकनीक विकसित करता है। दूसरी तरफ मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में’ है जहाँ वे लोकनाट्य की संरचना में प्रगीतात्मक क्रांतिकारी संवेदना को धारण करने का एक तरीका विकसित करते हुए दिखायी पड़ते हैं। लेकिन इस विस्तार में जाने के लिए तो एक नया लेख लिखना होगा।

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प्रो॰राजकुमार शोर-शराबे से दूर अध्ययन-अध्यापन में मग्न रहने  वाले युवा-तुर्क हिन्दी आलोचक हैं। भक्ति साहित्य, हिन्दी नवजागरण, आधुनिकता, आधुनिक साहित्य, प्रेमचंद, हिन्दी कहानी इत्यादि पर लगातार लेखन। किताबों में जैसी रुचि इनकी  है,  वह अन्यत्र दुर्लभ ही हो गई है। फिलहाल, बी॰एच॰यू॰ के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक।इनसे dr.kumar.raj@gmail.com पर संपर्क संभव।

मुक्तिबोध के बहाने रचना और आलोचना के अंतर्संबंधों की पड़ताल: प्रो.राजकुमार

मुक्तिबोध के बहाने प्रो. राजकुमार एक बहस की धारावाहिकता में गहरे विश्वास के साथ उतरे हैं. इस सीरिज का पहला  और दूसरा लेख  आप पढ़ चुके हैं, तीसरा यहाँ प्रस्तुत है.

दूसरा लेख इस मायने में विशेष रहा कि सोशल साइट्स पर  इससे संदर्भित  विषद  प्रतिक्रियाएं  देखने  को  मिलीं. लेकिन ज्यादातर प्रतिक्रयाएं  अवांतर प्रसंगों  में उलझी  रहीं. और लेख की  मूल  आत्मा से बहस को भटकाने की कोशिश की  गयी. प्रो.राजकुमार  की यह विशेषता  है कि  अवांतर प्रसंगों में उलझने  के बजाय  अपनी  निरंतरता / धारावाहिकता कायम रखते हैं.  उम्मीद  है कि  यह सीरिज लम्बी चलेगी. #तिरछीस्पेल्लिंग 

Muktibodh By Haripal Tyagi

Muktibodh By Haripal Tyagi

आलोचना और रचना

By प्रो.राजकुमार

हिन्दी में आलोचना को परजीवी कहने का चलन रहा है। इधर कुछ ‘सर्जनात्मक‘ किस्म के ‘आलोचकों’ ने आलोचना को परजीवी के कहने के बजाय प्राध्यापकीय कहना शुरू कर दिया है। आलोचना अच्छी या बुरी तो हो सकती है और होती भी है; जैसे रचना अच्छी या बुरी हो सकती है, होती है, लेकिन प्राध्यापकीय आलोचना किस बला का नाम है? ‘जिसे प्राध्यापक लिखे वह प्राध्यापकीय आलोचना’!

रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह- हिन्दी के चार बड़े आलोचक और चारों के चारों प्राध्यापक! हिन्दी आलोचना के इतिहास की इनके बिना कल्पना ही नहीं की जा सकती। हिन्दी ही नहीं, समूची दुनिया में आलोचना, समाज विज्ञान और विज्ञान के इतिहास की कल्पना विश्वविद्यालय के बिना असंभव है। लेकिन ये सारा ज्ञान-विज्ञान और साहित्य-सिद्धान्त इन सर्जनात्मक आलोचकों की दृष्टि में प्राध्यापकीय होने के कारण त्याज्य है।

हिन्दी में यह धारणा बद्धमूल रही है कि आलोचना दोयम दर्जे का काम है। अस्ल चीज है रचना। रचना मौलिक सृजन है और आलोचना उस पर आश्रित परजीवी, जिसकी हैसियत लाल बुझक्कड़ से अधिक नहीं।

आधुनिक आलोचना की जिस ढब पर शुरुआत हुई, उससे इस धारणा को बल भी मिला। परजीवी की छवि से मुक्ति पाने की छटपटाहट में आलोचक का नया रूप सामने आया जिसे अंग्रेजी में ‘स्कॉलर क्रिटिक’ कहा गया है। स्कॉलर क्रिटिक की छवि अपने यहाँ हजारी प्रसाद द्विवेदी पर बहुत सटीक बैठती है। मध्यकालीन संस्कृति और बौद्धिक परम्परा के गम्भीर अध्येता जिन्होंने आधुनिक रचनात्मकता पर बहुत कम लिखा। स्कॉलर क्रिटिक की परम्परा का विकास आगे चलकर संस्कृति के आलोचक के रूप में हुआ। सांस्कृतिक आलोचक के अध्ययन का दायरा साहित्य तक सीमित नहीं रह गया। वह समूची संस्कृति का आलोचक बन गया। साहित्य संस्कृति का पर्याय नहीं है, संस्कृति का एक हिस्सा है। सांस्कृतिक आलोचना समग्र सांस्कृतिक गतिविधि के परिप्रेक्ष्य में ही संस्कृति के इस साहित्य वाले हिस्से का अध्ययन करती है। सांस्कृतिक आलोचना की सार्थकता का विश्लेषण करते हुए टेरी इगल्टन ने तो साहित्य के विभागों का नाम ही सांस्कृतिक-अध्ययन विभाग रख देने की सलाह दी थी। सांस्कृतिक आलोचना उस दौर की उपज थी, जब सिद्धान्त-निर्माण का बोलबाला था, हर छोटा-बड़ा आलोचक थियरी बनाने में लगा था। थियरी ज्ञान मीमांसा और सत्तामीमांसा के एक अंग के रूप में साहित्य और संस्कृति का अध्ययन करती थी। थियरी की बाढ़ अब उतर चुकी है और साहित्य की सापेक्ष स्वायत्तता और स्वकीयता को नये सिरे से समझने की कोशिश चल पड़ी है, किन्तु इस समूचे घटनाक्रम से यह अभिज्ञान तो हो ही गया कि साहित्य को ज्ञानमीमांसा और सत्तामीमांसा के परिप्रेक्ष्य में ही ठीक से समझा जा सकता है। मुक्तिबोध के शब्दों में कहें तो साहित्य-समीक्षा सभ्यता-समीक्षा भी है। सभ्यता-समीक्षा के दायित्व से सम्पृक्त होकर ही साहित्य-समीक्षा सार्थक हो सकती है। यह कहना ठीक नहीं होगा कि मुक्तिबोध से पहले साहित्य-समीक्षा के इस गुरुतर दायित्व का एहसास हिन्दी में किसी को था ही नहीं। किन्तु मुक्तिबोध को इस बात का श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि उन्होनें साहित्य-समीक्षा को सही मायने में सभ्यता-समीक्षा के रूप में विकसित और स्थापित किया। यह काम उन्होंने उस समय किया जब साहित्य में आधुनिकतावाद का बोलबाला था और उसकी स्वायत्तता का बढ़ चढ़कर बखान किया जा रहा था। यह वही समय था जब पुराने ढंग की ‘मार्क्सवादी आलोचना’ साहित्य की स्वायत्तता के तर्क का ठीक-ठीक जवाब नहीं दे पा रही थी। लेकिन मुक्तिबोध के आलोचनात्मक लेखन पर बात आगे बढ़ाने से पहले रचना और आलोचना के सम्बन्ध को लेकर जो चर्चा शुरू हुई थी, उस पर दोबारा लौटें।

उल्लेखनीय है कि सॉस्यूर के भाषा-विषयक चिन्तन से प्रेरित संरचनावाद ने साहित्यिक आलोचना को एक मुकम्मल शास्त्र में तब्दील करने की कोशिश की और इस प्रक्रिया में साहित्य के मूलभूत नियमों को खोज निकालने का दावा किया। आलोचना को परजीवीपन से ऊपर उठाकर विज्ञान के समकक्ष खड़ा कर देने की मुहिम से पहले नॉर्थाप फ्राई अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘एनॉटमी ऑफ़ क्रिटिसिज्म’ में ऐसा उद्यम कर चुके थे। फ्राई के विचार रचना और आलोचना के अंतर्संबंधों को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, इसलिए उनकी संक्षेप में चर्चा अप्रासंगिक न होगी।

यह धारणा, कि रचनाकार ही रचना के साथ ‘न्याय‘ कर सकता है, मानकर चलती है कि आलोचक परजीवी है, जबकि सच्चाई यह है कि आलोचना एक स्वतंत्र विद्या है जो साहित्य का अध्ययन करती है, जैसे विज्ञान वस्तु जगत अध्ययन करता है। आलोचना के अपने नियम कायदे और सिद्धान्त हैं। फ्राई के अनुसार रचनाकर-आलोचक के लिए अपनी रचनात्मक अभिरूचि से ऊपर उठ पाना प्रायः असंभव होता है। छोटे-मोटे लोगों की तो बात ही क्या टी.एस. इलियट जैसे प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का भी आलोचनात्मक विवेक काफी कुछ उनकी रचनात्मक अभिरूचि से निर्धारित दिखता है। रचनाकार का अपने और दूसरों के बारे में लेखन दिलचस्प तो हो सकता है लेकिन उसे अन्तिम और आधिकारिक लेखन नहीं कहा जा सकता। अक्सर रचनाकार अपने लेखन के भी ख़राब आलोचक साबित हुए हैं। प्रमाण स्वरूप अनेकों उदाहरण दिये जा सकते हैं। फ्राई के मुताबिक ‘जब रचनाकार आलोचक की तरह बोलने लगता है तब वह आलोचना नहीं, दस्तावेज़ निर्मित करता है। इस दस्तावेज़ का आलोचक द्वारा परीक्षण अपेक्षित होता है। सामान्य रूप से यह माना जाता है कि रचयिता के मुक़ाबले आलोचक रचना के महत्व का बेहतर निर्णायक होता है। यह धारणा चली आ रही है कि आलोचक को रचना का अन्तिम निर्णायक मानना हास्यास्पद है, जबकि व्यवहार में यह स्पष्ट है कि वही (आलोचक) रचना का अन्तिम निर्णायक होता है। इसका कारण निश्चयात्मक (Assertive) लेखन और साहित्यिक लेखन में विभेद न कर पाने की असमर्थता है। वर्णानात्मक-निश्चयात्मक लेखन की उत्पत्ति सक्रिय इच्छा-शक्ति और सचेत मस्तिष्क से होती है और ऐसा लेखन मुख्य रूप से कुछ ‘कहने‘ से ताल्लुक़ रखता है।

जैसा कि पहले कहा गया, फ्राई के बाद संरचनावाद आया। संरचनावाद ने साहित्य के मूलभूत सिद्धान्तों, रूढ़ियों, और परम्पराओं को खोज निकालने का दावा किया। आलोचना शास्त्र बन गई, बल्कि जोनाथन कूलर के शब्दों में कहें तो काव्यशास्त्र, संरचनावादी काव्यशास्त्र। और फिर आया उत्तर संरचनावाद, उसने इस तरह के शास्त्र-सिद्धान्त निर्माण की संभावना को सिरे से खारिज कर दिया, लेखन की परम्परागत कसौटियों और श्रेणी विभाजन को तोड़ दिया, और विधाओं की मर्यादा और स्वायत्तता को मानने से इन्कार कर दिया। साहित्य की साहित्यकता का बखान जिन गुणों के आधार पर किया जाता था, वे सभी गुण, विश्लेषण करने पर पता चला, गैर साहित्यिक लेखन में भी मौजूद हैं। निष्कर्ष यह निकला कि साहित्यिक लेखन में ऐसा कोई आभ्यन्तिरक गुण नहीं जो गैर साहित्यिक लेखन में मौजूद न हो। दोनों में फर्क सिर्फ प्रकार्य (Function) और रूढ़ि से पैदा होता है। तात्विक और आधारभूत भिन्नता वस्तुतः सांस्कृतिक निर्मिती है और उसे विखण्डित करने की ज़रूरत है। फिर क्या था स्त्री-पुरूष (प्रकृति-संस्कृति) की तरह रचना और आलोचना की द्विआधारी अवधारणा को भी खण्डित करने की आवश्यकता महसूस हुई। इहाब हसन ने अपनी पुस्तक ‘पैराक्रिट्सिज्म’ में इस जरूरत को पूरा कर दिया। हसन ने दिखाया कि रचना और आलोचना में कोई तात्विक और आधारभूत अन्तर नहीं है। जो अन्तर है वह सांस्कृतिक निर्मित है और उसे तोड़ देने में ही दोनों का भला है।

‘आलोचना भी रचना है कहने में रचना की श्रेष्ठता कायम रहती है, जैसे झाँसी की रानी को मर्दानी कहने में मर्द की श्रेष्ठता कायम रहती है। उत्तर संरचनावाद में श्रेष्ठता के इस तात्विक और बुनियादी आधार को विखण्डित कर अस्मिता और विधा की स्वायत्तता को ही समस्याग्रस्त बना देता है। यहाँ भिन्नता का महत्व है लेकिन यह भिन्नता तात्विक और बुनियादी किस्म की नहीं है। इस भिन्नता के आधार पर किसी को हीन या श्रेष्ठ नहीं ठहराया जा सकता है।

अब न तो व्यक्ति की स्वायत्तता का कोई पैरोकार बचा है और न ही कला और साहित्य का। ये सभी पाठ (Text) हैं और ये पाठ परस्पर सम्बद्ध (Intertextual) हैं। परस्पर सम्बद्धता का मतलब है कि कोई भी पाठ पूर्णतः मौलिक नहीं है, दूसरे पाठ से जुड़ा हुआ उस पर निर्भर है। इसका निहितार्थ यह भी है कि सभी पाठ बराबर हैं। लब्बोलुआब यह कि रचना और आलोचना के बीच खड़ी दीवार ढह चुकी है। रचना आलोचनात्मक हो गई है और आलोचना रचनात्मक।

यह एहसास भले ही नया हो किन्तु सच्चाई यही है कि श्रेष्ठ आलोचना और रचना में ऐसा आत्यान्तिक भेद कभी था ही नहीं। मुक्तिबोध एक ऐसे लेखक हैं जिनका लेखन रचना और आलोचना के बीच की पारस्परिक सीमाबद्धता को लगातार समस्याग्रस्त बनाता है। उनकी कविताएँ, कहानियाँ और लेख विधाओं के पारम्परिक चौखटे में फिट नहीं बैठते। कविता में वे थीसिस लिखते हैं और उनके लेखों में ऐसे टुकड़े ख़ूब मिल जायेंगे जिन्हे मज़े से कविता में खपाया जा सकता हैं। उनकी कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें रेखाचित्र, लोक-नीति-कथा और निबन्ध के गुण घुले-मिले हैं। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ को क्या कहेंगे? रचना या आलोचना? मुक्तिबोध पारम्परिक किस्म के आलोचक नहीं हैं। वस्तुतः आलोचना उनके सम्पूर्ण लेखन का अभिन्न हिस्सा है, कोई आपदधर्म नहीं। कुछ लोग सोचते हैं कि अपने विरोधियों और साहित्य के दरोगा अर्थात् आलोचकों को जवाब देने के लिए उन्होंने आलोचना को आपद् धर्म के रूप में चुना। इस बात में आंशिक सच्चाई हो सकती है किन्तु उन्हें ध्यान से पढे़ं तो यह बात समझ में आ जाती है कि उनका लगभग समूचा लेखन ही बहस मुबाहिसे से बना है। यह बहस विरोधियों से ही नहीं होती, विरोधियों से भी ज्यादा स्वयं से होती है। इसलिए आलोचना उनके लेखन का आपदधर्म नहीं स्वधर्म है। उनका रचनात्मक लेखन भी एक प्रकार की आलोचना है, सभ्यता-समीक्षा है। कविता में थीसिस लिखने की उनकी प्रतिश्रुति का मतलब हैः कविता में सभ्यता-समीक्षा लिखना।

इसलिए मेरा खयाल है कि मुक्तिबोध के आलोचनात्मक लेखन की चर्चा करते समय हमें सिर्फ उनके ‘आलोचनात्मक लेखन’ पर ध्यान नहीं देना चाहिए क्योंकि उनके ‘आलोचनात्मक चिन्तन’ के कई मोती उनकी रचनाओं में डूबे हुए हैं। मैं उनके आलोचनात्मक चिन्तन के कुछ ऐसे ही पक्षों का यहाँ उल्लेख करना चाहूँगा। मैं जानता हूँ कि यह काम आसान नहीं है फिर भी कुछेक प्रसंग आपके समक्ष रखता हूँ।

अक्सर कहा जाता है कि रचना का मर्म तो रचनाकार ही जानता है। इसलिए यदि रचना का ‘असली’ अर्थ जानना है तो रचनाकार से पूछो। आलोचक तो बाहरी व्यक्ति है वह रचना के साथ न्याय नहीं कर सकता। यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि लेखक अपनी रचना (कहानी, कविता, उपन्यास, आलोचना…) का अन्तिम और अधिकारिक व्याख्याकार नहीं हो सकता। क्योंकि, रचना केवल वही नहीं कहती जो लेखक कहलाना चाहता है, बहुत कुछ ऐसा भी कहती है जो वह नहीं कहलाना चाहता। यही नहीं, रचना का अर्थ पाठक और संदर्भ बदलने के साथ बदल जाता है। वस्तुतः रचना जन्म लेने के बाद रचनाकार से स्वतंत्र हो जाती है और सामाजिक जीवन का हिस्सा बन जाती है। सामाजिक जीवन को प्रभावित करती है और सामाजिक जीवन से प्रभावित होती है। कालजयी रचनाओं की जीवन-यात्रा लम्बी होती है। मामूली रचनाएं अपने रचयिता से विलग होने के बाद शीघ्र ही कालकवलित हो जाती हैं क्योंकि उनमें बदलते हुए संदर्भ में पुनर्नवता की संभावना नहीं होती। जिसे अपनी सामर्थ्य पर भरोसा नहीं होता वह रचना को सीने से चिपकाए ‘असली’ अर्थ न समझ पाने के लिए पाठकों-आलोचकों को कोसता रहता है। आलोचना को प्राध्यापकीय कहकर गरियाने वाले ज्यादातर स्वनामधन्य रचनाकार इसी कोटि में आते हैं। मुक्तिबोध को अपनी रचनात्मक सामर्थ्य पर भरोसा था। इसीलिए वे मानते हैं कि कविता पूर्ण हो जाने के बाद कवि से स्वतंत्र जीवन जीने लगती हैः

नहीं होती, कहीं भी ख़त्म कविता नही होती

कि वह आवेग त्वरित काल यात्री है।

व मैं उसका नहीं कर्ता,

पिता-धाता

कि वह कभी दुहिता नहीं होती,

परम स्वाधीन है वह विश्वशास्त्री है।

गहन-गम्भीर छाया आगमिष्यत् की

लिए, वह जनचरित्री है।

नये अनुभव व संवेदन

नये अध्याय-प्रकरण जुड़

तुम्हारे कारणों से जगमगाती है

व मेरे कारणों से सकुच जाती है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि कविता (रचना) रचयिता से मुक्त होकर अपना भावी जीवन प्रारम्भ करती है और फिर उसमें नये अनुभव एवं संवेदन जुड़ते चले जाते हैं। जिस रचना में ऐसी सामर्थ्य होती है वही कालजयी कहलाती है; बाकी रचनाएं रचनाकार के साथ ही कालकवलित हो जाती है।

रचना जन्म के बाद रचनाकार से स्वाधीन हो जाती है, यह बात समझाने के लिए शायद ज़्यादा मशक्कत की जरूरत नही; लेकिन इसी से जुड़ा हुआ सवाल है, रचनाकार और रचना के सम्बन्ध का। यह सवाल ज़्यादा उलझा हुआ है और इसका संतोषजनक समाधान खोज निकालना आसान नहीं। उल्लेखनीय है कि मुक्तिबोध के समय में भी इस सवाल पर बहस हुई थी। अज्ञेय ने इलियट के वज़न पर भोक्तामन और सृष्टा-मन तथा जीवनाभूति और सौंदर्यानुभूति में विभेद किया था। मुक्तिबोध ने इस अवधारणा का ज़ोरदार खण्डन करते हुए भोक्ता-मन एवं स्रष्टा-मन के ऐक्य पर ज़ोर दिया था। ऐक्य का विशद विश्लेषण करते हुए उन्होंने सौन्दर्यानुभूति को जीवनानुभूति से गुणात्मक रूप से भिन्न माना। इस बात का निहितार्थ यह है कि रचना को जीवन का ‘बाइप्रोडक्ट’ नहीं कहा जा सकता। रचना और रचनाकार के बीच कोई प्रत्यक्ष, पारदर्शी और निष्क्रिय सम्बन्ध नहीं होता। रचना प्रक्रिया के मुक्तिबोध द्वारा किये गये विश्लेषण से इस बात की पुष्टि होती है। वस्तुतः रचना एक सचेत कर्म है और रचना के दौरान रचनाकार अपनी सोच के मुताबिक अनुभव को काटने-छाँटने एवं सम्पादित करने के लिए ‘स्वतंत्र’ होता है। किंतु यह स्वतंत्रता भी सापेक्षिक ही है। क्योंकि रचनाकार की स्वतंत्रता को सामाजिक स्थिति, अवचेतन, जड़ीभूत सौंदर्याभिरूचि जैसे कई कारण जाने-अनजाने प्रभावित करते हैं। फिलहाल इस तफ़सील में न जाकर सिर्फ़ भाषा चरित्र के बारे में बात करते हैं। औसत समझ के विपरीत भाषा आइने की तरह कोई पारदर्शी और निष्क्रिय माध्यम नहीं है जिसके आर-पार देखा जा सके। भाषा एक स्वायत्त संकेतप्रणाली है, जिसके अपने नियम-कायदे हैं। जीवन-जगत् का बोध भाषा में ही संभव होता है। इसका मतलब यह है कि भाषा सिर्फ़ साधन नही है, उसके बिना बाहर जीवन-जगत् का बोध संभव ही नही। जीवन-जगत् का बोध भाषा के रास्ते से गुज़रता है। और चूँकि भाषा दर्पण की तरह कोई निष्क्रिय पारदर्शी माध्यम नही है, भाषा अपना खेल दिखाती है। फ़ैज के शब्दों में कहें तो ‘बात बदल-बदल जाती है।’ कहना चाहते हैं कुछ और कह जाते हैं कुछ और।

भाषा का यह खेल जीवन-जगत् के बोध के समय ही नहीं, रचना-प्रक्रिया के दौरान भी चलता रहता है। यही नहीं जब रचना पूर्ण हो जाने पर पाठक से रूबरू होती है तब भी भाषा का यह खेल जारी रहता है। यही कारण है कि अलग-अलग देशकाल के पाठक/आलोचक एक ही रचना का अर्थ अलग-अलग ढंग से करते हैं। यदि ऊपर कही गयी बातें सही हैं तो फिर यह मानना पड़ेगा कि रचना रचनाकार के जीवन की प्रत्यक्ष और पारदर्शी अभिव्यक्ति नहीं है। मुक्तिबोध के शब्दों में सौन्दर्यानुभूति जीवनानुभूमति से गुणात्मक रूप से भिन्न चीज है; पूर्णतया पृथक न सही, किन्तु प्रतिरूप भी नहीं। सौन्दर्यानुभूति को जीवनानुभूति से गुणात्मक रूप से भिन्न बताने के बाद मुक्तिबोध को लगा कि कई दफा रचनाकार सिर्फ स्वाँग भरता है, वास्तव में वैसी अनुभूति उसके जीवन में होती नहीं। जैसे अभिनेता पात्रों का अभिनय करता है वैसे वह सिर्फ अभिनय कर रहा होता है। नयी कविता में ऐसा स्वाँग खूब दिखायी पड़ता है। मुक्तिबोध ने लिखा है कि महादेवी वर्मा की कविताओं में दुख की भरमार है लेकिन महादेवी ने स्वयं स्वीकार किया है कि उनका जीवन वैसा दुखमय नहीं था जैसा कि उनकी कविताएं पढ़ने पर प्रतीत होता है।

उल्लेखनीय है कि रोलां बार्थ भी लेखन को स्वांग ही मानते हैं, भले ही इस शब्द का इस्तेमाल न करते हों। उन्होंने ब्रेख्त के नाट्य-सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए लिखा है कि जैसे ब्रेख्त के यहाँ अभिनेता, जिस पात्र का अभिनय करता है, उससे तादात्म्य स्थापित नहीं करता, वैसे ही ब्रेख्तियन अंदाज में अपने बारे में बोलता हूँ। यहाँ बोलने (लिखने वाले) ‘मैं’ और वास्तविक ‘मैं’ में दूरी बनी रहती है; ‘उसे जीने के बजाय दिखाता हूँ।’ लेखन इमेज सिस्टम का प्रदर्शन है। अपने काल्पनिक आत्म से दूरी बनाए रखते हुए और साथ ही अन्य के परिपे्रक्ष्य से उसका निरीक्षण करते हुए उसकी विभिन्न भूमिकाओं का डिमान्स्ट्रेशन या रिहर्सल है। जरूरत के मुताबिक लगाया गया मुखौटा है। जाहिर है कि मुक्तिबोध लेखन को स्वांग मानने के हिमायती नहीं, बल्कि लेखन और जीवन में एकता के पक्षधर थे। फिर भी वे किसी स्थायी, स्वायत्त, आत्मपूर्ण और सुसमन्वित व्यक्ति-अस्मिता की अवधारणा को भी स्वीकार नहीं करते। जबकि अज्ञेय ‘नदी का द्वीप’ में इसके ठीक विपरीत, एक स्वायत्त, आत्मपूर्ण एवं स्थायी व्यक्ति-अस्मिता की अवधारणा पेश करते हैं। उत्तर आधुनिक सिद्धान्तकार व्यक्ति-अस्मिता की ऐसी अवधारणा को तो मिथ या फिक्शन मानते ही हैं, फ्रेडरिक जेम्सन जैसा वामपंथी विचारक भी उनकी इस बात के लिए तारीफ़ करता है कि उन्होंने आत्म-पूर्ण समन्वित आत्म की अवधारणा को छिन्न-भिन्न कर दिया। मुक्तिबोध के यहाँ आत्म की अस्मिता स्वयं-सम्पूर्ण और स्थिर नहीं है, बल्कि बाहरी दबाव और भीतरी (परस्पर विरोधी) आग्रहों से लगातार संशय-ग्रस्त, अनिर्णीत, विरोधाभासी और परिवर्तनशील है। परम अभियक्ति या अरूण कमल की तलाश तो निरन्तर है, लेकिन झूठे समन्वय या शिलीभूत सामंजस्य के मर्म को भी वे बख़ूबी समझते हैं। मुक्तिबोध की कविता लगातार यह दिखाती है कि व्यक्ति की अस्मिता ‘नदी के द्वीप’ की तरह स्थिर नहीं होती। जैसे विचारधारा के भीतर से एक प्रच्छन्न विचारधारा झाँकती दिखाई पड़ती है, वैसे ही एक व्यक्ति के भीतर एक और व्यक्ति की मौजूदगी का एहसास होता रहता है। इन दोनों के बीच अनवरत संवाद चलता रहता है। यह संवाद अस्मिता के किसी स्वायत्त-आत्मपूर्ण (नदी का द्वीप जैसी) अवधारणा को नकारता है। मुक्तिबोध के यहाँ अस्मिता की अवधारणा जिस रूप में आती है, कई मायनों में वह जूलिया क्रिस्तेवा की ‘threshold’ की अवधारणा से मिलती जुलती है। उल्लेखनीय है कि क्रिस्तेवा के यहाँ चेतन और अवचेतन के बीच चौहद्दी लगातार बदलती रहती है, क्योंकि इनके बीच निरन्तर संवाद चलता रहता है। अस्मिता का कोई भी रूप अन्तिम और पूर्ण नहीं होता। पूर्णता स्वप्न में तो संभव है लेकिन यथार्थ में नहीं, मुक्तिबोध यह समझते थे।

यदि अस्मिता का कोई भी रूप पूर्ण और अन्तिम नहीं है तो उसमें सकारात्मक और नकारात्मक परिवर्तन भी संभव हैं। यही कारण है कि कल तक आग उगलने वाले मृत ज्वालामुखी बन जाते हैं और रावण के घर पानी भरने लगते हैं। कोई ज़रूरी नहीं कि रचनाकार अपने इस रूप को रचना में प्रस्तुत करे ही। अनुभव, संवेदना और कल्पना का सहारा लेकर वह स्वांग भी भर सकता है। मार्सेल प्रूस्त ने लिखा है कि पुस्तक में सामने आने वाला व्यक्तित्व और सामाजिक जीवन में दिखाई पड़ने वाला व्यक्तित्व अलग-अलग होते हैं। इलियट के कथन से हम वाकिफ़ ही हैं, उसे दोहराने की ज़रूरत नहीं। अब जबकि आत्मकथा को भी लेखक के जीवन की सीधी पुनर्प्रस्तुति मानने के बजाय लेखक के जीवन का सृजित गल्प माना जा रहा है, रचना को लेखक के जीवन का पर्याय मानने का कोई तुक नहीं। यह ठीक है कि कुछ रचनाकारों के जीवन और रचना में पर्याप्त समानता दिख सकती है, किंतु सर्वत्र ऐसा हो, यह ज़रूरी नहीं। लेखन एक विशिष्ट लीला कर्म हैं, रचनाकार के सम्पूर्ण व्यक्तिगत सामाजिक जीवन का लेखा-जोखा नहीं। लेखन और रचनाकार के जीवन में संगति की अपेक्षा एक आदर्श के रूप में ठीक है, लेकिन अक्सर ऐसी संगति होती नहीं है। आलोक धन्वा या वी.एस. नयपाल अपवाद नहीं है; बात सिर्फ़ यह है कि उनके जीवन की कुछ बातें सामने आ गयीं, और हम छाती पीटने लगे। चोरी तो ज़्यादातर लोग करते हैं लेकिन चोर वही कहलाता है जो चोरी करते पकड़ा जाय और जिसे सज़ा मिले। इसलिए बेहतर यही होगा कि रचनाकार की रचना और जीवन दोनों को देखा जाय। लेकिन मुसीबत यह है कि रचनाकार का जीवन, विशेष रूप से व्यक्तिगत जीवन, पाठक की पहुँच से बाहर है। वह तो उतना ही देख सकता है जितना दिखाने के लिए लेखक तैयार हो। वैसे इस मामले में वी.एस.नयपाल की दाद देनी पड़ेगी। उन्होंने माना है कि लेखक के जीवन की पड़ताल करने की चाहत बिल्कुल वैध है। उन्होंने कहा है कि लेखक के जीवन का व्योरा अन्ततः लेखक की पुस्तक से बेहतर साहित्यिक कृति साबित हो सकता और अपने समय के सांस्कृतिक ऐतिहासिक पक्ष को ज्यादा गहराई से आलोकित कर सकता है। इसलिए यदि मुक्तिबोध दिमागी गुहांधकार में झाँकने की कोशिश करते थे और बाह्य संघर्ष के साथ-साथ आत्म संघर्ष पर इतना जोर देते थे, तो क्या ग़लत करते थे, अब तक के अनुभव ने हमें यही सिखाया है कि मानव-मस्तिष्क बहुत जटिल है और तर्क-विवेक को अक्सर चकमा दे जाता है। वह सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से निरपेक्ष नही है, लेकिन उसे सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में निःशेष (Reduce) भी नहीं किया जा सकता।

देखिये बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई। क्या लिखने चला था और क्या लिख गया! अभी तो लगता है कि सिर्फ़ भूमिका ही बनी है। जो बातें लिखना चाहता था वे तो रह ही गईं।

राजकुमार जी

प्रो॰राजकुमार

शोर-शराबे से दूर अध्ययन-अध्यापन में मग्न रहने  वाले युवा-तुर्क हिन्दी आलोचक। भक्ति साहित्य, हिन्दी नवजागरण, आधुनिकता, आधुनिक साहित्य, प्रेमचंद, हिन्दी कहानी इत्यादि पर लगातार लेखन। किताबों में जैसी रुचि इनकी  है,  वह अन्यत्र दुर्लभ ही हो गई है। फिलहाल, बी॰एच॰यू॰ के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक।इनसे dr.kumar.raj@gmail.com पर संपर्क संभव।

 

मुक्तिबोध के बहाने ‘परंपरा के आहत नैरन्तर्य’ पर एक बहस: प्रो.राजकुमार

मुक्तिबोध के बहाने प्रो. राजकुमार एक बहस की धारावाहिकता में गहरे विश्वास के साथ उतरे हैं. इस सीरिज का पहला लेख आप पढ़ चुके हैं.

मुख्य शीर्षक में ‘परंपरा का आहत नैरन्तर्य’ पद हिंदी के विद्वान आलोचक सुरेन्द्र चौधरी के यहां से लिया गया है. अभी तक सुरेन्द्र चौधरी हिंदी के अंतिम आलोचक रहे हैं जिन्होंने परम्परा की निरंतरता में उत्पन्न हुए व्यवधान को व्यापक फलक पर विवेचित करने के प्रयास किए हैं. और, यह भी कम आश्चर्य की बात नहीं कि टूट की दोनों शिराओं के मध्य मुक्तिबोध को स्थित करने के प्रयास किए हैं. सुरेन्द्र चौधरी के बाद प्रो. राजकुमार के यहां वही चिंता फिर से सामने आती है. राजकुमार जी हिंदी के एकाध समकालीन आलोचकों में हैं जिनके यहां विमर्श की एक नितांत सुदृढ़ और स्पष्ट भाषा है. प्रो. राजकुमार साहित्य के ककहरा सिखाने वाले संदर्भों को छोड़ते चलते हैं और उथले उद्धरणों, भूमिकाओं से लदी-फदी फूहड़ आलोचना के बरअक्स सभ्यता, परंपरा, संस्कृति के व्यापक वितान की आलोचना-धरा पर नज़र आते हैं. स्याही इसी विश्वास से पन्ने पर झरती है कि लम्बी बहस की तैयारी है. यह विश्वास बहुत दिन बाद समकालीन हिंदी आलोचना में किसी के पास दिखा है. यह विश्वास रामविलास शर्मा के बाद सिर्फ सुरेन्द्र चौधरी के पास ही अभी तक सुरक्षित था. सुरेन्द्र चौधरी के दो उद्धरणों के साथ, प्रो. राजकुमार की इस बहस से खुद को साझा कीजिये, और उम्मीद है कि यह बहस यहां नहीं, तो कहीं भी लम्बी चलनी चाहिए. #तिरछीस्पेलिंग

…रचना और वातावरण की संगति ही केवल आहत होती हुई नहीं मालूम पड़ती, रचनात्मक परिस्थिति का नैरन्तर्य भी टूटता हुआ मालूम पड़ता है. …इस आहत नैरन्तर्य को, ‘discontinues को पहचाना मुक्तिबोध ने. अपनी रचनात्मक संवेदना में इसे मूर्त करते हुए उन्होंने ‘विपात्र’ और ‘क्लाड इथर्ली’ जैसी रचनायें लिखीं. #सुरेन्द्र चौधरी, 1971

पश्चिमी साहित्य में रूपक का उपयोग ऐतिहासिक समय का नाश करने और उसे ‘समय के रूपक’ से बदलने के लिए किया गया है. इसके विपरीत मुक्तिबोध ने रूपक की दूर-दृष्टि का, अन्यापदेश की दृष्टि का उपयोग  ऐतिहासिक  समय की जटिलता को मूर्त करने के लिए किया. # सुरेन्द्र चौधरी, 1980

Muktibodh By Haripal Tyagi

Muktibodh By Haripal Tyagi

जिसके आगे राह नहीं

By प्रो.राजकुमार 

जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि की बात मुझे समकालीन कविता ही नहीं, समकालीन साहित्य और समकालीन सामाजिक विमर्शों पर नये सिरे से सोचने और विचारने के लिए प्रेरित करती हैं। मुझे जहाँ तक ध्यान आता है, मुक्तिबोध ने जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि की बात की है। सभी जानते हैं कि मुक्तिबोध का संघर्ष, जिसको वे प्रायः आत्मसंघर्ष ही कहना पसन्द करते थे, दो तरफा था। जिसको हम यथार्थवादी-प्रगतिशील-मार्क्सवादी धारा कहते हैं, उससे मुक्तिबोध असंतुष्ट थे। उन्होंने अपने लेखन में बार-बार इसका उल्लेख किया है लेकिन साथ ही साथ, मुक्तिबोध का संघर्ष उस दूसरी परम्परा से भी था जिसके वाहक के रूप में हम लोग हिन्दी में, और किसी का नाम न भी लें, तो अज्ञेय का नाम लेते हैं। संक्षेप में, मुक्तिबोध आधुनिकतावादी साहित्यिक धारा या चिन्तन-परम्परा से भी संतुष्ट नहीं थे। सोचने वाली बात ये है, कि अगर मुक्तिबोध यथार्थवादी धारा और आधुनिकतावादी धारा दोनों से असंतुष्ट थे तो आखिर वो कर क्या रहे थे। मैं यह बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि मुक्तिबोध ने अपने वैचारिक लेखन में भले ही स्पष्ट रूप से यह बात न लिखी हो, लेकिन अपने रचनात्मक लेखन में, मेरा संकेत उनकी कहानियों और कविताओं की ओर है, वे एक तीसरी धारा निकालने की कोशिश करते हैं। इसे सुविधा की दृष्टि से मैं भारतीय परम्परा या सभ्यता की धारा कहना पसंद करूंगा।

यह दिलचस्प है कि भारतीयता की बात, भारतीय परम्परा की बात उस जमाने में वे लोग करते थे जिनको हम आधुनिकतावादी-प्रयोगवादी या नयी कवितावादी आलोचक/रचनाकार कहते हैं। ऐसे रचनाकारों में अज्ञेय का नाम तो आता ही है, बाद में निर्मल वर्मा का नाम भी जुड़ जाता है। आप याद करें, उस दौर में भारत की बात करना, भारतीय सभ्यता की बात करना, भारतीय परम्परा की बात करना एक अपराध जैसा था। बहुत आसानी से ऐसी बातें करने वाले को अतीतजीवी या साम्प्रदायिक घोषित कर दिया जाता था। उस दौर में मुक्तिबोध ने अपनी रचनाओं में भारतीय परम्परा को नये सिरे से पुर्ननवता देने की कोशिश की। इसीलिए मुझे लगता है कि मुक्तिबोध की चिन्ता यह थी कि साहित्य और कला की भारतीय परम्परा को आगे बढ़ाया जाय और उसमें हमारे औपनिवेशिक इतिहास की वजह से जो व्यवधान आया है, जो व्यतिक्रम आया है, जो टूटन पैदा हुई है, उसकी यथासंभव भरपाई की जाय। उस दौर में ऐसी कोशिश सम्भवतः सिर्फ मुक्तिबोध कर रहे थे। ये अजीब विडम्बना है कि भारतीयता की बात अज्ञेय ने बहुत की है, उसके बाद निर्मल वर्मा ने भी की है, लेकिन रचनात्मक स्तर पर न तो इनकी कहानियों में और न ही उपन्यासों में, भारतीय साहित्य-परम्परा से जुड़ने का गम्भीर प्रयास दिखाई पड़ता है। वैचारिक स्तर पर जरूर ये उसकी चर्चा करते हैं। वैसे ये भी अपने आप में छोटी बात नहीं है। लेकिन रचनात्मक स्तर पर अगर देखें तो सम्भवतःमुक्तिबोध उस दौर में अकेले हैं जो इन दोनों छोरों से जूझते हुए साहित्य और कला की भारतीय परम्परा से अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं, और उसी के अनुरूप अपनी रचनात्मकता का विकास करते हैं। अस्सी के दशक में लैटिन अमेरिकन लेखकों के प्रभाव-विस्तार के साथ, और फिर ग्रैबियल गार्सिया मार्केज के उपन्यास को नोबल प्राइज मिलने के बाद इस प्रकार की रचनात्मकता की विस्तार से चर्चा होने लगी और नाम दिया गया कि ये जादुई यथार्थवाद है। मैं मुक्तिबोध के लेखन के संदर्भ में उस जादुई यथार्थवाद को लागू करने का कोई प्रस्ताव नहीं कर रहा हँू। लेकिन ये जरूर कहना चाहता हँू कि मुक्तिबोध ने, पूरे तौर से न सही, फिर भी साहित्य और कला की एक भारतीय दृष्टि विकसित करने का उस दौर में प्रयास किया था, जब दुनिया में जादुई यथार्थवाद जैसी कोई चीज नहीं थी।

आज के संदर्भ में जब हम जड़ रुचियों के दायरे और आज के साहित्य की बात करते हैं तो मुझे हैरत होती है कि बात सिर्फ जड़ अभिरुचियों तक क्यों सीमित रह जाती है। कविताओं का जो समकालीन स्वरूप है, उसके बारे में विचार करने के लिए हम क्यों तैयार नहीं होते। क्या आप ये मान कर चल रहे हैं कि रूचियाँ विकसित हो जायेंगी तो कविता का आयतन अपने आप विस्तृत हो जाएगा। कविता या साहित्य क्या आज की रुचियों का बाई प्रोडक्ट है? रुचियाँ ही सबकुछ हैं और कविता तो उसको भरने वाला झोला है! अगर साहित्य और कलाओं कि यही समझ है, तो मुझे लगता है कि यह गम्भीर चिन्ता का विषय है। साहित्य और कला के रूप ऐसे नहीं चलते हैं और न विकसित होते हैं। दुनिया में कहीं भी आप देख लीजिए साहित्य और कलाओं का रूप झोले की तरह नहीं है। साहित्य और कलाओं के रूप अलग-अलग सभ्यताएँ लम्बे समय में अर्जित, विकसित और समृद्ध करती हैं। एक तरह से साहित्य और कला के रूप शार्टहैण्ड या संस्कृतियों के मेमोरी बैंक के रूप में काम करते हैं। और इसीलिए न तो उनको इतनी आसानी से छोड़ा जा सकता है और न किसी दूसरी सभ्यता के साहित्य और कला-रूप को टेक्नोलाॅजी की तरह आयात किया जा सकता है। साहित्य और कलाओं का आदान-प्रदान टेक्नोलाॅजी और अर्थव्यवस्थाओं के आदान-प्रदान जैसा नहीं है। क्या हम इसके बारे में विचार करने के लिए तैयार हैं?

हमारे यहाँ साहित्य और कला के रूपों का जिस प्रकार से विकास हुआ, उस पर भी नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। क्योंकि साहित्य और कलाएँ और इनके विकसित होने वाले रूप सिर्फ रूप नहीं होते हैं, वो कहीं न कहीं बहुत गहरे स्तर पर अपनी सभ्यता की बहुत बुनियादी स्मृतियों को भी संजोते और सरंक्षित करते हैं। इसी वजह से जब हम इन रूपों में रचना करते हैं तो बृहत्तर समाज के साथ तादात्म्य और सम्बन्ध आसानी से स्थापित हो जाता है। क्या हम यह मानना चाहेंगे कि आज के दौर में साहित्य की बहुत सारी विधाएँ और विशेष रूप से कविता, एक गहरे संकट के दौर से गुजर रही हैं। क्या ये सच नही है कि हिन्दी जगत से एक ईंट उठाते ही चार-पाँच उदीयमान कवि बिलबिलाते हुए निकल आतेे हैं! कवियों की भरमार है और आप ये न सोचें कि मैं उनके महत्व को नहीं समझ रहा। मैं इन कवियों के महत्व को स्वीकार करने वालों में सबसे आगे हूँ लेकिन मेरा प्रश्न ये है कि जिस रूप में आज कविता लिखी जा रही है, उसका इतिहास-भूगोल क्या है? वो कितने लोगों तक पहुँचती है? अगर मैं आपको चिढ़ाने के अंदाज में कहूँ  कि हिन्दी कविता के पाठक कम और कवि ज्यादा हैं, हो सकता है, आप आपत्ति करें। लेकिन शायद इसमें सच्चाई है। हिन्दी कविता की किताबें कितनी बिकती हैं? इस पर भी विचार करना चाहिये। हिन्दी के कितने प्रकाशक हिन्दी कविता की पुस्तकें छापने के लिए तैयार हैं और अगर नहीं तैयार हैं, तो क्या कारण हैं। वैसे तो ये बात सारे अनुशासनों पर लागू होती है, लेकिन हमारा सम्बन्ध मुख्य रूप से साहित्य से है, कविता से है; इसलिए हम इसी की चर्चा करेंगे। खासतौर से 19वींशताब्दी  के  बाद,  बीसवीं  शताब्दी  और इक्कीसवीं  शताब्दी  में  हिन्दी  कविता  का  जिसरूप में विकास हुआ, क्या उस पर हम नये सिरे से विचार करना चाहते हैं? या आजभी हम इतने आत्ममुग्ध हैं कि जैसे सब कुछ ठीक-ठाक है, कोई समस्या नहीं है, औरजो  समस्या  की  बात  करता  है,  करता रहे,  उसकी  बात  पर  ध्यान  नहीं  देना  चाहिए।आप याद कीजिए कि रामचन्द्र शुक्ल ने ठाकुर जगमोहन सिंह के उपन्यास के सम्बन्धमें लिखा था कि ये अंग्रेजी ढंग का नाॅवेल नहीं है। मुझे ये चीज बड़ी महत्वपूर्ण लगतीहै  और  इस  पर  मैं लम्बी बहस के  लिए तैयार  हूँ कवियों  से  या  किसी  से  भी।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों के उपरान्त, भारतेन्दु के बाद, हिन्दी में जितनी भी साहित्यिक विधाएँ हैं, उनका विकास अंग्रेजी ढंग पर ही हुआ है। ये बात सिर्फ उपन्यास पर लागू होती हो, ऐसा नहीं है। कविता से लेकर कहानी, निबन्ध सभी पर ये बात लागू होती है। ये अकारण नहीं है। उसका एक अपना संदर्भ है। आप जानते हैं कि आधुनिक हिन्दी साहित्य के रचयिता, श्रोता और पाठक ज्यादातर ऐसे लोग रहे हैं, जिनका अंग्रेजों द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों से सम्बन्ध रहा है। या तो वे विश्वविद्यालय में रहे हैं या उन्होंने विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की है। अंग्रेजों द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों में जिस ढंग के साहित्य को माॅडल के रूप में पेश किया गया और जिसके वजन पर हमारे यहाँ बाद में साहित्य लिखा गया, वो थोड़े बहुत हेर-फेर, बदलाव, के बावजूद अंग्रेजी ढंग का साहित्य है। रंगरोगन भले ही भारतीय लगे। क्या इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में अंग्रेजी ढंग के इस साहित्य पर हमें नये सिरे से विचार नहीं करना चाहिये? जनता के नाम पर या मजदूर-किसान के नाम पर कविता लिखी जा रही है। आप जानते हैं कि वह कहाँ पहुंच रही है और कौन उसको समझ रहा है, उसका दायरा कितना है! मैं इसलिए यह कह रहा हूँ  कि अगर उससे पहले के साहित्यिक परिदृश्य पर आप विचार करें, कविता के इतिहास पर विचार करें तो बड़ा अलग परिदृश्य दिखाई देगा। कविता का अपने यहाँ संगीत से बहुत गहरा सम्बन्ध रहा है। संगीत से ही नहीं, उसका सम्बन्ध नृत्य और नाट्य से भी रहा है। कविता केवल पढ़ने की चीज अपने यहाँ नहीं थी। किन्तु अगर ‘आधुनिक’ हिन्दी कविता पर ध्यान दें तो नई कविता तक आते-आते आप छन्द भी छोड़ देते हैं। अगर ये अंग्रेजी ढंग की कविता नहीं है, तो क्या है? फ्री वर्स अगर पश्चिम में लिखा गया है तो आप भी फ्री वर्स में लिख रहे हैं।

कविता का पूरा का पूरा जो फार्म है, वो अपनी काव्य परम्परा से कुछ भी नहीं लेता है, जो लेता है, वो बहुत ही नगण्य है, वो सिर्फ एक तरह की औपचारिकता है।. दूसरा तरीका ये हो सकता था कि आप भारतीय परम्परा में पहले से चले आ रहे साहित्य और कला रूपों को विकसित करते और बदले हुए सन्दर्भ में जरूरत के हिसाब से पश्चिमी साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा से भी कुछ बातों को अपना लेते। हिन्दी की जातीय परम्परा को विकसित करने का संभवतः यह ज्यादा बेहतर और अपनी परम्परा से जुड़ा हुआ तरीका होता। अगर आप सही मायने में समकालीन कविता की समस्या पर विचार कर रहे हैं तो आपको इस पहलू पर भी ध्यान देना चाहिये। उसकी तमाम उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हैं। मैं उन्हें जानता हूँ और नाम गिना सकता हूँ। कुछ अपवाद हैं, जिन्होंने इस ढाँचे को तोड़कर अलग ढंग से लिखने की कोशिश की है, लेकिन वो अपवाद ही हैं। मुख्य रूप से आज भी कविता का जो स्वरूप हमारे यहाँ चल रहा है, वो वही है जिसका निर्माण नई कविता के दौर में हुआ था। भंगिमाएँ अलग हो सकती है, कोई अपने को प्रगतिवादी कह सकता है, उसमें प्रगतिशीलता की छौंक लगा सकता है, कोई स्वयं को प्रयोगवादी कह सकता है। लेकिन नयी कविता के समय से चले आ रहे शिल्प-विधान से हटकर प्रयोग करने का साहस मुझे कहीं दिखाई नहीं पड़ता। एक बने बनाये फार्म में कविता लिख ली जाय, कविता बना ली जाय, यही अपने आप में लक्ष्य है। और जब तक यह ढंग चलता रहेगा, तब तक मुझे नहीं लगता कि उस दायरे का विस्तार होगा जिसे जड़ अभिरुचियों का दायरा कहा जा रहा है। चाहे जितना क्रान्तिकारी कन्टेन्ट आप उसमें भर दें, जब तक उसके फार्म में बदलाव नहीं लाते, तब तक उसका दायरा नहीं बढ़ने वाला। आप कहते रहिए अमुक के लिए है ये रचना, लेकिन आप जानते हैं कि वो उसको पढ़-समझ नहीं सकता।

मैं एक और बात कहना चाहता हूँ और उसे आधुनिकताप्रसूत दूसरे अनुशासनों पर भी आप लागू कर सकते हैं। 19वीं शताब्दी में भारतेन्दु के साथ हिन्दी साहित्य में एक बड़ा परिवर्तन होता है। वो परिवर्तन ये है कि साहित्य का एक सामाजिक उद्देश्य होना चाहिए। वही साहित्य श्रेष्ठ है जो उस समय के निर्धारित सामाजिक उद्देश्य के अनुरूप है उसका पूरक है, उसकी मदद करता है। छायावाद अपवाद है, किन्तु फिलहाल उस विस्तार में जाना जरूरी नहीं। आधुनिकता के आगमन के साथ साहित्य को किसी न किसी उद्देश्य के अधीन रखकर देखने की प्रवृत्ति चल पड़ी। साहित्य ‘इस’ उद्देश्य के अनुरूप है, तो ठीक है, लेकिन उससे विरुद्ध, या उससे अलग है तो फिर वह जड़ अभिरुचियों के अन्तर्गत आ जाएगा। जैसे एक समय तक प्रेम पर कविता लिखना उचित नहीं माना जाता था। जैसे एक जमाने में शतरंज खेलना सामन्ती व्यवस्था की पतनशीलता का पर्याय मान लिया गया था। क्या आज भी ऐसा सोच सकते हैं कि शतरंज खेलने में या सितार बजाने में यदि किसी को सुख मिलता है, भले ही दुनिया के तमाम छल-छद्म में शामिल न हो तो फिर वह पतनशील है, क्योंकि ‘समाज’ से विमुख है। क्या असामाजिक कहकर उसकी आलोचना होनी चाहिए! लेकिन आप जाानते हैं कि ये हुआ है। साहित्य को जब आप किसी विचार या विचारधारा के अधीन कर देते हैं, तब उसी के अनुरूप यह निर्धारित करने लगते हैं कि कौन सी रुचि जड़ है और कौन सी रुचि खुली हुई है, उन्मुक्त है। इसीलिए इस पर भी विचार करना चाहिए कि जड़ रुचियों से आशय क्या है? क्या आप साहित्य को किसी विचारधारा के प्रस्तोता के रूप में देखते हैं, जो विचारधारात्मक ज्ञान को एक तरह के कला माध्यम में डालकर पेश करता है? या आप उसकी कोई स्वतंत्र भूमिका भी देखते हैं, जहाँ वो अपने समय के ज्ञान को विचार के स्तर पर भी समृद्ध करता है, उसको चुनौती देता है या उसमें कुछ जोड़ता है। जड़ अभिरुचियों के सन्दर्भ में भी ये एक विचारणीय विषय है कि ये अभिरुचियाँ बनती कैसे हैं; कैसे तय होता है कि कौन सी अभिरुचियाँ जड़ हैं, कौन सी अभिरुचियाँ जड़ नहीं हैं। ध्यान रहे ंकि साहित्य, कला और ज्ञान की दुनिया ऐसी है, जहाँ सच और गलत का निर्धारण बहुमत से नहीं होता। अल्पमत यहाँ सही हो सकता है और बहुमत गलत।

मध्यकाल में साहित्य की भाषा बदल जाने के बावजूद अपनी पूर्व परम्परा से सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता। जबकि ‘आधुनिक युग’ में हिन्दी की कथित जातीय परम्परा का विकास जिस रूप में हुआ, उसका सम्बन्ध ठिकाने से न तो शास्त्रीय परम्परा से कायम हुआ, न लोक परम्परा से। समूची मध्यकालीन कविता का संगीत से अभिन्न सम्बन्ध होता था और उसकी व्याप्ति का एक बड़ा कारण ये था कि उसका गायन/पाठ होता था। आधुनिक हिन्दी कविता की विडम्बना ये है कि उसका कोई जातीय संगीत विकसित नहीं हो सका, जबकि उसी की सहोदर उर्दू का ग़जल और कव्वाली के रूप में जातीय संगीत बन गया। इसी वजह से उर्दू कविता की लोकप्रियता सिर्फ उर्दू पढ़ने और लिखने वालों तक सीमित नहीं रही। यह अकारण नहीं है कि उर्दू के अच्छे से अच्छे कवि मुशायरों में शिरकत करते हैं और बड़ी संख्या में लोग उनको सुनने के लिए पहुँचते हैं। पूर्वी अंग की गायकी की बुनियाद पर क्या हिन्दी का जातीय संगीत विकसित किया जा सकता था? लोकप्रिय संस्कृति से जुड़े रूपों की पूरी तरह से उपेक्षा करके भी क्या किसी भाषा की कविता वृहत्तर समुदाय तक पहुंच सकती है?हिन्दी  में  तो  आलम  ये  रहा  है कि जिस  किसी की  कविता लोकप्रिय  हुई,  उसे  दोयमदर्जे  का  कवि  ठहरा  दिया  गया। दिनकर  और  बच्चन  जैसे कवियों  को हिन्दी में इसीलिए श्रेष्ठ कवियों की श्रेणी में नहीं रखा जाता। अंग्रेजी ढंग के साहित्य का भारतमें  जो  हाल है, सो है  ही, पश्चिम में  भी  इसके पाठक  और  श्रोता  बहुत  कम  बचे हैं। बाॅब  डिलन को गत वर्ष नोबेल  पुरस्कार  देकर कविता  के  लगातार  संकुचित  हो रहे दायरे को बढ़ाने की कोशिश की गयी। वे मूलतः ऐसे गीतकार और गायक है, जिनको सुनने और पसंद करने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। क्या हिन्दी जगत को भी लगातार कम होते जा रहे पाठक-श्रोता समुदाय के मद्देनजर साहित्यिक विधाओं के चले आ रहे स्वरूप के बारे में नये सिरे से नहीं सोचना चाहिए?

राजकुमार जी

प्रो॰राजकुमार

शोर-शराबे से दूर अध्ययन-अध्यापन में मग्न रहने  वाले युवा-तुर्क हिन्दी आलोचक। भक्ति साहित्य, हिन्दी नवजागरण, आधुनिकता, आधुनिक साहित्य, प्रेमचंद, हिन्दी कहानी इत्यादि पर लगातार लेखन। किताबों में जैसी रुचि इनकी  है,  वह अन्यत्र दुर्लभ ही हो गई है। फिलहाल, बी॰एच॰यू॰ के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक।इनसे dr.kumar.raj@gmail.com पर संपर्क संभव। 

मुक्तिबोध के बहाने साहित्य-संस्कृति पर एक बहस: डॉ. राजकुमार

पश्चिमी विचारों के बढ़ते वर्चस्व के बावजूद उन्नीसवीं शताब्दी में ‘अन्धेर नगरी’ जैसे नाटकों, बीसवीं सदी में हबीब तनवीर के नाटकों, विजय तेन्दुलकर के ‘घासीराम कोतवाल’, गिरीश कर्नाड के ‘नागमण्डलम’ और ‘हयवदन’ जैसे नाटकों; विजयदान देथा की कहानियों और मुक्तिबोध की कहानियों और कविताओं में भारतीय परम्परा के सहज विकास के साक्ष्य मिल जाते हैं। ये सूची और भी लम्बी हो सकती है लेकिन ऊपर गिनाए गये नामों के सहारे हिन्दी की जातीय परम्परा ही नहीं, भारतीय साहित्य की जातीय परम्परा के विकास की वैकल्पिक अवधारणा प्रस्तुत की जा सकती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी की जातीय परम्परा की वैकल्पिक अवधारणा विकसित करने में मुक्तिबोध के रचनात्मक और वैचारिक लेखन की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो सकती है। #लेखक 

Muktibodh By Haripal Tyagi

Muktibodh By Haripal Tyagi

रूप की संस्कृति और मुक्तिबोध

By डॉ. राजकुमार

1.

कोई भी कार्य ठीक से पूरा करने के लिए एक संस्कृति की आवश्यकता होती है। अंग्रेजी में इसे वर्क कल्चर कहते हैं और इसका काम चलाऊ अनुवाद कार्य-संस्कृति हो सकता है। कार्य-संस्कृति के अभाव में ठिकाने से कोई भी काम कर पाना मुश्किल हो जाता है। कार्य-संस्कृति सिर्फ कानून, कायदों के औपचारिक ज्ञान और उन्हें व्यवहार में लागू करने से नहीं बनती। जब तक किसी बाहरी दबाव या डर के बिना हम स्वतः अपने दायित्त्व का निर्वाह नहीं करने लगते, तब तक यह नहीं माना जा सकता कि सही मायने में हमने एक कार्यसंस्कृति विकसित कर ली है। असल में कार्य संस्कृति एक संस्कार की तरह हमारे व्यक्तित्व में व्याप्त हो जाती है, जिसका कई बार हमें, सचेत रूप में, अहसास भी नहीं होता। यदि समकालीन भारत में ज्यादातर लोग अपने दायित्त्व का निर्वाह नहीं करते या सिर्फ मजबूरी में या भयवश अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं तो इसका मतलब ये है कि हम कार्य-संस्कृति विकसित करने में असफल रहे हैं। एक सार्थक कार्य-संस्कृति का विकास किसी भी समाज को बेहतर ढंग से संचालित करने के लिए जरूरी है।

कार्य-संस्कृति की तरह साहित्य और कलाओं की भी संस्कृति होती है। साहित्यिक संस्कृति के अभाव में अच्छे और बेहतर साहित्य का सृजन असम्भव नहीं तो मुश्किल जरूर हो जाता है। साहित्यिक संस्कृति का सम्बन्ध सिर्फ समकालीन साहित्यिक संस्कृति से नहीं होता; समकालीन साहित्यिक संस्कृति भी वास्तव में किसी सभ्यता के समूचे साहित्यिक इतिहास को आत्मसात् करने पर बनती है। सार्थक साहित्य के रूप में पहचान उसी लेखन की बनती है जिसे अपनी सभ्यता के सांस्कृतिक इतिहास से उत्तीर्ण होकर लिखा जाता है। साहित्यिक लेखन मूलतः सांस्कृतिक कर्म है। इस सांस्कृतिक कर्म का एक राजनीतिक सन्दर्भ भी बन जाता है। लेकिन इसे राजनीतिक कर्म में निःशेष नहीं किया जा सकता है। माक्र्सवादी विचारधारा के हिमायती होने के बावजूद मुक्तिबोध के साहित्यिक लेखन का गहरा सरोकार भारतीय सांस्कृतिक परम्परा से रहा है। इसीलिए निराला के बजाय उनका तादात्म्य जयशंकर प्रसाद से बनता है। ‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ जैसी कविताएँ लिखने के बावजूद निराला की रचनाओं में सांस्कृतिक-बोध प्रसाद की रचनाओं की तरह अनुस्यूत नहीं है।

कोई भी सभ्यता अपने सुदीर्घ सांस्कृतिक जीवन के दौरान साहित्य और कला के विविध रूपों या विधाओं का विकास करती है। इन विधाओं/रूपों की अपनी बुनियादी संरचना होती है। इस बुनियादी संरचना का एक व्याकरण होता है। उस विधा में जो भी सार्थक बदलाव आते हैं, वे इस व्याकरण के अधीन संभव होते हैं। विजातीय प्रभाव भी इस व्याकरण के अधीन रूपान्तरित होकर रचना में आते रहते हैं। आरम्भिक आधुनिक दौर में संगीत, साहित्य, नृत्य, स्थापत्य, चित्रकला आदि के क्षेत्र में जो भी बदलाव आये, वे इसी तरह आए। इसीलिए विजातीय तत्त्वों को आत्मसात कर लेने के बावजूद जातीय परम्परा की निरन्तरता बनी रही।

साहित्य और कला के जातीय रूप जड़ नहीं होते। पहले से चली आ रही परम्परा से ही उनका विकास होता है। कोई रूप स्थिर होने से पहले कई स्रोतों से बहुत सारी चीजें आत्मसात करता है। जैसे कत्थक नृत्य के जिस रूप से आज हम परिचित हैं, वह रूप एक दिन में नहीं, धीरे-धीरे अस्तित्त्व में आया। एक बार जब कोई रूप पूर्णता प्राप्त कर लेता है तो उसका स्वरूप स्थिर हो जाता है। वह स्वायत्तता अर्जित कर लेता है। उसकी एक बुनियादी संरचना निर्मित हो जाती है। ये संरचना एक प्रकार के व्याकरण के अधीन कार्य करने लगती है। फिर इस व्याकरण में कोई बुनियादी बदलाव करना मुश्किल हो जाता है। इस रूप/विधा या माध्यम में काम करने वाला रचनाकार तभी सफल होता है, जब उस विधा के व्याकरण को समझकर सक्रिय होता है। इसके बावजूद, किसी विधा के अन्दर ऐसी गुंजाइश रहती है कि उसमें कुछ नया उन्मेष किया जा सके। उदाहरण के लिए गजल विधा का प्रयोग प्रायः प्रेम सम्बन्धी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता रहा है। किन्तु गजल में प्रेम की केन्द्रीयता को स्वीकार करते हुए भी सार्थक नवोन्मेष सम्भव है। फ़ैज अहमद फ़ैज की गजलें इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं कि प्रेम की केन्द्रीयता को स्वीकार करने के बावजूद उसमें क्रान्तिकारी और प्रगतिशील तेवर पैदा किये जा सकते हैं। किन्तु यदि गजल की विधा में वीर रस या समाज सुधार सम्बन्धी बातें डालने की कोशिश की जाए तो ये स्वरूप उसे धारण नहीं कर पाएगा। एक अच्छा रचनाकार वो है जो अपने माध्यम के प्रति संवेदनशील है; जो ये जानता है कि सुई से तलवार का काम नहीं लिया जा सकता और न ही तलवार से सुई का।

ये सही है कि नये युग की अनुभूतियों को साकार करने और नये विषयों को साहित्य और कला के माध्यमों में रचने हेतु नई विधाओं या रूपों का विकास होता है, किन्तु नई विधाएँ या नये रूप भी अपनी पूर्व परम्परा से ही निकलते हैं। उनका व्याकरण पूर्व प्रचलित रूपों से थोड़ा अलग तो होता है, लेकिन उनसे निरपेक्ष नहीं होता। इसीलिए उसे जातीय परम्परा के विकास के रूप में देखा जाता है। जैसे ध्रुपद गायन परम्परा का विकास ख्याल गायकी के रूप में हुआ और फिर ख्याल गायकी की परम्परा से आगे पूर्वी गायकी का विकास हुआ। पूरबी अंग की गायकी में लोक परम्परा में पहले से मौजूद होरी, चैती, दादरा, कजरी इत्यादि रूपों का उपशास्त्रीय गायन के रूप में उन्नयन होता है। इसी तरह रवीन्द्र संगीत का विकास हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत परम्परा और बांग्ला की बाउल गायन की लोक परम्परा से जुड़कर हुआ। रवीन्द्र संगीत कोे पश्चिमी संगीत परम्परा के कुछ तत्त्वों का भी समावेश है। रवीन्द्र संगीत को इसीलिए संगीत की जातीय परम्परा के सहज विकास के रूप में देखा जाता है। इसके बावजूद उसका बुनियादी स्वभाव भारतीय संगीत परम्परा से निर्मित है। इसके विपरीत जहाँ पश्चिमी संगीत की नियामक भूमिका होगी, वहाँ भारतीय संगीत परम्परा से कुछ तत्व ले लेने के बावजूद भी उसका स्वभाव जातीय/भारतीय नहीं रहेगा। भले ही उसकी भाषा और रंग-रोगन भारतीय क्यों न हो। गाँधी ने कई बातें पश्चिमी परम्परा से लीं, फिर भी उनके चिन्तन का स्वभाव भारतीय बना रहा, क्योंकि उन्होंने पश्चिमी विचारों को भारतीय चिन्तन परम्परा के व्याकरण में आत्मसात कर लिया। इसके उल्टी बात उन विचारकों की है जिन्होंने भारतीय चिन्तन परम्परा को पश्चिमी परम्परा में आत्मसात करने की कोशिश की।

उन्नीसवीं सदी में औपनिवेशिक आधुनिकता के आगमन के साथ भारतीय नवजागरण की चर्चा आरम्भ होती है। भारतीय नवजागरण के दौरान ज्ञान, साहित्य और कला की पहले से चली आ रही बुनियादी संरचना को त्यागकर पश्चिमी संरचनाओं को अपना लिया जाता है। इसे पैराडाइम शिफ्ट कहा गया। पश्चिमी पैराडाइम के निकष पर भारतीय सभ्यता की साहित्यिक, सांस्कृतिक और ज्ञान सम्बन्धी परम्पराओं को नापा जाने लगा। पश्चिमी पैराडाइम को ही थोड़ा-बहुत बदलकर भारतीय यथार्थ को बोधगम्य बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा। पश्चिमी साहित्यिक तथा कलात्मक रूपों में भारतीय यथार्थ-बोध को ढालकर अभिव्यक्त किया जाने लगा। रामविलास शर्मा ने इसे हिन्दी की जातीय परम्परा के विकास के रूप में समादृत किया है। अंग्रेजी के विद्वान आलोचक होमी भाभा ने इसे ‘मिमिक्री’ और ‘हाइब्रिडिटी’ की संज्ञा दी है। किन्तु न तो इसे हिन्दी की जातीय परम्परा का विकास कहा जा सकता है और न ही इसकी व्याख्या ‘हाइब्रिडिटी’ के रूप में की जा सकती है। आरम्भिक आधुनिक दौर में हुए बदलाव की व्याख्या अवश्य हिन्दी की जातीय परम्परा के विकास के रूप में की जा सकती है क्योंकि उस दौर में पश्चिमी एशिया और अरब से आये प्रभाव को पहले से चले आ रहे साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों के व्याकरण के अधीन आत्मसात कर लिया गया। किन्तु उन्नीसवीं सदी में ऐसा नही हुआ। पहले से चले आ रहे साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों को त्यागकर पश्चिमी साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों को अपना लिया गया और फिर इन पश्चिमी साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों में ‘भारतीय यथार्थ’ ठँूसने की कोशिश की जाने लगी। साहित्यिक सांस्कृतिक विधाओं की परिकल्पना डिब्बे के रूप में किए बिना साहित्यिक सांस्कृतिक रूपों और अन्तर्वस्तु (यथार्थ) में पूर्ण पार्थक्य स्वीकार कर पाना संभव न था। साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप वास्तव में ‘रूप’ नहीं होते। वे किसी संस्कृति को बोधगम्य बनाने वाले मंत्र की तरह होते हैं जिनके बिना उस संस्कृति का बोध ही असंभव हो जाता है। किसी सभ्यता की धड़कन उसके सुदीर्घ सांस्कृतिक इतिहास के दौरान विकसित साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों में अवतरित होती है। टेक्नाॅलजी का एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता में स्थानान्तरण आसान होता है, किन्तु साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों को एक जगह से निकालकर दूसरी जगह रोपना आसान नहीं होता।

भाषा का स्वभाव किसी डिब्बे की तरह नही, जिसमें कुछ भी डाला जा सके। भाषा दर्पण की तरह भी नहीं, जो यथार्थ को प्रतिबिम्बित करे। भाषा कोई पारदर्शी माध्यम भी नहीं, जिसके आर-पार देखा जा सके। भाषा यथार्थ को प्रतिबिम्बित नही करती, बल्कि एक संसार रचती है। यह संसार यथार्थ से मिलता-जुलता हो सकता है और पूरी तरह काल्पनिक भी। संसार रचने की सामथ्र्य भाषा में है। इसका मतलब यह है कि भाषा अपने ढंग से, अपनी शर्तों पर एक संसार रचती है। आप भाषा में जो बतलाना चाहते हैं, वह बात भाषा में वैसे ही नहीं आती, जैसे आप चाहते हैं। बात बदल-बदल जाती है। मुक्तिबोध ने कला के तीन क्षण में इस प्रसंग की विस्तार से चर्चा की है। फ़ैज ने इसी बात को अपने अन्दाज में इस तरह कहा है:

                                दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम।

                                कहने में उनके सामने बात बदल-बदल गयी।।

2.

 हिन्दी की जातीय परम्परा की सबसे ज्यादा चर्चा रामविलास शर्मा ने की। रामविलास शर्मा ने भारतेन्दु युग के साथ विकसित होने वाले समूचे आधुनिक हिन्दी साहित्य की व्याख्या हिन्दी की जातीय परम्परा के सहज विकास के रूप में की है। रामविलास शर्मा ने हिन्दी की जातीय परम्परा की जिस तरह व्याख्या की है, वह मुख्यतः अन्तर्वस्तु प्रधान है। अन्तर्वस्तु केन्द्रित समझ से सामाजिक परिवर्तन के कारणों की व्याख्या की जा सकती है। लेकिन साहित्य और कला के विभिन्न रूपों में घटित होने वाले परिवर्तन की सन्तोषजनक व्याख्या नहीं की जा सकती। क्योंकि साहित्यिक और कलात्मक रूपों की एक विशिष्ट संरचना होती है और उनमें जो भी बदलाव आते हैं, वे बदलाव प्रायः उस संरचना के अन्दर से निकलते हैं। ये मानना गलत है कि साहित्यिक या कलात्मक रूप सामाजिक परिवर्तनों को यथावत् प्रतिबिम्बित करते हैं। सामाजिक परिवर्तन का एहसास साहित्यिक-कलात्मक रचनाओं से होता जरूर है। लेकिन ये एहसास साहित्य और कला के विभिन्न माध्यम् अपनी शर्तों पर, माध्यम के स्वभाव के अनुरूप ही कराते हैं। इनका वैशिष्ट भी यही है। इसीलिए संगीत सुनने और कविता पढ़ने/सुनने से हमें जो अनुभूति होती है, वह अनुभूति समाज-विज्ञान पढ़ने से होने वाले अनुभूति से भिन्न होती है।

हिन्दी की जातीय परम्परा की कोई भी सार्थक चर्चा साहित्य या कला के ‘माध्यम’ को छोड़कर सम्भव नहीं। साहित्य और कलाओं के प्रभाव का निर्धारण भी मुख्य रूप से माध्यम विशेष में अर्जित की गयी दक्षता से होता है। ये प्रभाव सिर्फ अन्तर्वस्तु से निर्धारित/तय नहीं होता।

मुक्तिबोध सम्भवतः हिन्दी के उन विरल लेखकों में से हैं, जिनका सांस्कृतिक बोध बहुत ही गहरा है। सही मायने में सृजनात्मक सांस्कृतिक बोध स्थूल नहीं, बहुत सूक्ष्म होता है; और विचार नहीं, संस्कार की तरह रचनात्मकता के विभिन्न आयामों में रूपायित होता है।

मुक्तिबोध का रचना संसार हमें इसलिए प्रभावशाली लगता है क्योंकि उन्होंने भारतीय सभ्यता के सांस्कृतिक बोध को संवेदना के स्तर पर अनुभव किया और फिर अपनी कृतियों में इस अनुभूति को सृजित किया। विचारणीय प्रश्न ये है कि जब सर्वत्र यथार्थवाद का बोलबाला था, मुक्तिबोध ने अपनी रचनात्मकता अभिव्यक्ति के लिए ऐसे रूप की खोज की जिसका सम्बन्ध न तो यथार्थवाद से और न ही आधुनिकतावाद से बनता है। असल में मुक्तिबोध का जैसा रचनात्मक व्यक्तित्व था, उसकी अभिव्यक्ति यथार्थवादी शिल्प में सम्भव नहीं थी। उसकी अभिव्यक्ति आधुनिकतावादी शिल्प में भी संभव नहीं थी। ये बात अलग है कि मुक्तिबोध की रचनात्मक अभिव्यक्ति की संगति यथार्थवादी शिल्प के बजाय आधुनिकतावादी शिल्प से ज्यादा बनती है। फिर भी उसकी सन्तोषजनक व्याख्या आधुनिकतावादी सैद्धान्तिकी के सहारे सम्भव नहीं। मुक्तिबोध की रचनात्मकता का बहुत गहरा सम्बन्ध भारत की पूर्व औपनिवेशिक सांस्कृतिक परम्परा से है। उसी की बुनियाद पर वे आधुनिकतावादी और यथार्थवादी सैद्धान्तिकी का अतिक्रमण करते हैं। भले ही मुक्तिबोध ने बहुत सोच-समझकर ऐसा न किया हो, लेकिन उनकी कविताओं और कहानियों के विन्यास के आधार पर ऐसा अवश्य कहा जा सकता है कि उनकी रचनात्मकता न तो आधुनिकतावाद के साँचे में फिट होती है, न यथार्थवाद के साँचे में।

3.

अगर भारतेन्दु युग से आधुनिक हिन्दी की शुरूआत मानी जाए, तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि आधुनिक युग की शुरूआत के साथ ही रूप और अन्तर्वस्तु का पार्थक्य स्वीकार कर लिया गया। रूप और अन्तर्वस्तु का पार्थक्य स्वीकार करने से आशय यह है कि रूप की परिकल्पना एक तटस्थ अवधारणा के रूप में की जाने लगी, जिसमें सुविधानुसार कोई भी अन्तर्वस्तु डाली जा सकती है। इस बात को ज्यादा सरल तरीके से कहें तो रूप की परिकल्पना एक डिब्बे के रूप में की गयी, जिसमें जरूरत के हिसाब से कुछ भी डाला जा सकता है।

आधुनिकताजन्य चेतना के प्रचार-प्रसार के सम्बन्ध में भारतेन्दु ने लिखा है, ‘‘मैंने यह सोचा है कि जातीय संगीत की छोटी-छोटी पुस्तकें बनें और वे सारे देश, गाँव गाँव, में साधारण लोगों में प्रचार की जायँ। यह सब लोग जानते हैं कि जो बात साधारण लोगों में फैलेगी उसी का प्रचार सार्वदेशिक होगा और यह भी विदित है कि जितना ग्रामगीत शीघ्र फैलते हैं और जितना काव्य को संगीत द्वारा सुनकर चित्त पर प्रभाव होता है उतना साधारण शिक्षा से नहीं होता। इससे साधारण लोगों के चित्त पर भी इन बातों का अंकुर जमाने को इस प्रकार से जो संगीत फैलाया जाय तो बहुत कुछ संस्कार बदल जाने की आशा है। … इस हेतु ऐसे गीत बहुत छोटे छोटे छंदों में और साधारण भाषा में बनैं, वरंच गवाँरी भाषाओं में और स्त्रियों की भाषा में विशेष हों। कजली, ठुमरी, खेमटा, कँहरवा, अद्धा, चैती, होली, साँझी, लंबे, लावनी, जाँते के गीत, बिरहा, चनैनी, गजल इत्यादि ग्रामगीतों में इनका प्रचार हो और सब देश की भाषाओं में इसी अनुसार हो।’’

भारतेन्दु के उपर्युक्त कथन से इस बात की पुष्टि होती है कि रूप की परिकल्पना अन्तर्वस्तु निरपेक्ष सत्ता के रूप में की जाने लगी।

इससे पहले रूप और अन्तर्वस्तु की परिकल्पना परस्पर निरपेक्ष सत्ता के रूप में नहीं की जाती थी। जैसे हिन्दुस्तानी संगीत परम्परा में ये बताया गया है कि अमुक राग अमुक समय पर गाया जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि एक समय विशेष की संवेदना एक राग विशेष में ही रूपायित हो सकती है। अर्थात् राग के स्वभाव का सम्बन्ध प्रहर विशेष के अनुरूप बनता है। समय और राग के सम्बन्ध की पहचान का विस्तार षड्ऋतुवर्णन और फिर बारहमासा गायन की लोकपरम्परा में दिखायी देता है। यदि चैबीस घण्टे के चक्र में रागों का समय निर्धारित किया गया है, तो बारहमासे को साल के बारह महीनों के चक्र में स्थापित किया गया है। ये माना गया कि हर महीने का स्वभाव अलग है। किसी माह या ऋतु के स्वभाव के अनुरूप ही उस माह या ऋतु में गाये जाने वाले गीत की धुन विकसित की गयी। उदाहरण के तौर पर फागुन माह में गाये जाने वाले गीत ‘होरी’ की धुन और सावन महीने में गाये जाने वाले गीत कजरी की धुन अलग है। इसका मतलब ये है कि धुन सिर्फ रूप नहीं है, जिसमें कैसा भी गीत गाया जा सकता है। चैती की धुन में होरी नहीं गा सकते और होरी की धुन में चैती गाने पर अटपटा लगेगा। इस तरह धुन और गीत परस्पर इस तरह मिल जाते हैं कि इनमें से किसी को मात्र ‘रूप’ नहीं कहा जा सकता। धुन भी अंतर्वस्तु है और गीत भी अन्तर्वस्तु है। यह भी कहा जा सकता है कि रूप और अन्तर्वस्तु इस तरह एकाकार हो जाते हैं कि ये कहना न तो सम्भव है और न तो उचित है कि क्या रूप है और क्या अन्तर्वस्तु। कुन्तक ने इस स्थिति को ‘निरस्त सकल अवयव’ कहा है। कुन्तक का आशय यह है कि रचना में प्रयुक्त विभिन्न अवयवों की स्वतंत्र सत्ता समाप्त हो जाती है। ठीक इसी तरह गीत और धुन का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जो प्रभाव है वह इनके एक हो जाने से उत्पन्न होने वाला प्रभाव है।

ऊपर के विवेचन से ये बात समझने में मदद मिल सकती है कि रूप की परिकल्पना समय और विषयवस्तु से निरपेक्ष नहीं होती। एक रूप में जो चाहें, वो मनमाफिक नहीं भरा जा सकता। जैसे कजरी की धुन में परिवार नियोजन का महत्त्व गाया जाने लगे तो उसका प्रभाव बहुत संतोषजनक नहीं होगा। इसका एक निहितार्थ ये भी है कि रूप अपने स्वभाव के अनुरूप अन्तर्वस्तु को ही स्वीकार करता है। रूप के स्वभाव के विपरीत जब भी कुछ डालने की चेष्टा की जाती है, उसके सार्थक और टिकाऊ परिणाम नहीं निकलते। प्रसिद्ध चिन्तक हेडेन व्हाइट ने इसीलिए ‘कंटेंट आॅफ दि फार्म’ की चर्चा की है। ‘कंटेंट आफ दि फार्म’ से आशय यह है कि सामान्य समझ के विपरीत रूप यह निर्धारित करता है कि उसमें कैसी अन्तर्वस्तु रखी जा सकती है। रूप से अन्तर्वस्तु निर्धारित होती है। अन्तर्वस्तु से रूप नहीं।

पहचान/अस्मिता को रेखांकित करने वाली चीज रूप है, न कि अन्तर्वस्तु। पहले तो यही देखा जाएगा कि आप सुर में गा सकते हैं या नहीं। किसी गायक की पहचान इस बात से होगी कि उसे रागों का ज्ञान है या नहीं और वह राग में गा सकता है या नहीं। गायक राग में क्या गाता है, गीत के विषय या बोल क्या हैं, ये बातें काफी हद तक उस राग की प्रकृति से निर्धारित होंगी। ये बात साहित्य पर भी लागू होती है।

अभी तक कही गयी बातें अगर ठीक हैं, तो फिर रूप और अन्तर्वस्तु सम्बन्धी उस समझ पर नये सिरे से विचार करना चाहिए, जिसकी शुरूआत हिन्दी में भारतेन्दु के साथ होती है। यह सही है कि समूचे आधुनिक हिन्दी साहित्य में विषयवस्तु को केन्द्रीय मानकर रूप और अन्तर्वस्तु के सम्बन्ध पर चर्चा हुई। व्यवहार में भी इस पर इसी रूप में अमल किया गया। यहाँ तक कि प्रयोगवादी-आधुनिकतावादी रचनाकारों ने भी रूप के महत्त्व और उसके सांस्कृतिक संदर्भ को नजरअंदाज करने की गलती की। अंग्रेजी ढंग का नाॅवेल या कविता लिखने वालों में केवल यथार्थवादी-प्रगतिवादी रचनाकार ही नहीं आते, प्रयोगवादी-आधुनिकतावादी रचनाकारों ने भी अंग्रेजी ढंग के रूप-विन्यास में ही अपनी ज्यादातर रचनाएँ लिखी हैं। प्रयोगवादी-आधुनिकतावादी रचनाकार रूप की चिन्ता तो खूब करते हैं, लेकिन ये बात भुला देते हैं कि जिस रूप में वो रचना कर रहे हैं, उस रूप का सम्बन्ध पश्चिमी साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा से है। पश्चिमी साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा की कोख से जन्मे रूप में अव्वल तो भारतीय अन्तर्वस्तु आ नहीं सकती और अगर वो ठीक से उस ‘रूप’ में समा जा रही है तो उसे भारतीय अन्तर्वस्तु कहना ही संदेहास्पद होगा। ये जरूर कह सकते हैं कि रूप और अन्तर्वस्तु दोनों पश्चिमी हैं ! लेकिन फिर ये सवाल उठेगा कि गैर-पश्चिमी भाषा और साहित्यिक-सांस्कृतिक संदर्भ में ऐसी रचना की क्या संगति बनेगी, जिसका रूप और अंतर्वस्तु दोनों पश्चिमी है।

जैसाकि पहले कहा गया, इस प्रश्न का एक उत्तर होमी भाभा के यहाँ मिलता है, जहाँ वे इस स्थिति को वर्णसंकरता के रूप में व्याख्यायित करते हैं। ये न तो पूरी तरह पश्चिमी, और न पूरी तरह भारतीय रूप और संवेदना है, क्योंकि पश्चिम के सम्पर्क में आने के बाद समूचा साहित्यिक-सांस्कृतिक संदर्भ ही वर्णसंकर हो गया है। वास्तविकता तो ये है कि जिसे वर्णसंकरता की स्थिति कहा गया है, वो वास्तव में वर्णसंकरता की स्थिति है नहीं। यहाँ सब कुछ पश्चिम का ही है, सिर्फ रंगरोगन और भाषा भारतीय है। वर्ण संकरता की स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब दोनों पक्षों की भूमिका बराबरी की होती है। ये अकारण नहीं है कि इस कथित वर्णसंकरता ने किसी बड़े वैचारिक एवं रचनात्मक उन्मेष को जन्म नहीं दिया। वर्णसंकरता की ये अवधारणा इससे पहले इतिहासकारों द्वारा प्रयुक्त भारतीय नवजागरण की अवधारणा की तरह ही बहुत उर्वर साबित नहीं हुई। क्योंकि पराधीनता के दौरान पश्चिम से जो भी संवाद हुआ, वो ग़ैर बराबरी के स्तर पर हुआ और इस संवाद में पश्चिम की हर क्षेत्र में नियामक और केन्द्रीय भूमिका स्वीकार करते हुए उसका भारतीय संस्करण गढ़ने की कोशिश की गयी। इसलिए इस स्थिति को वर्णसंकरता की अवधारणा के जरिये व्याख्यायित करने के बजाय ‘डिराइवेटिव डिस्कोर्स’ के रूप में व्याख्यायित करना ज्यादा सटीक होगा। डिराइवेटिव डिस्कोर्स की अवधारणा का इस्तेमाल पार्थ चटर्जी ने अपनी पुस्तक में राष्ट्रवादी चिन्तन को व्याख्यायित करने के संदर्भ में किया है। इस सोच में ये बात शामिल है कि मूल और नियामक चिन्तन तो पश्चिम का है, और राष्ट्रीय चिन्तन के रूप में जो कुछ लिखा-पढ़ा गया है, वो पश्चिमी चिन्तन से ही निकला है। इस विमर्श में भारतीय राष्ट्रीय चिन्तन की स्वायत्तता स्वीकार करने के बावजूद पश्चिमी चिन्तन की केन्द्रीयता बनी रहती है। क्या यही बात प्रयोगवादी-आधुनिकतावादी-यथार्थवादी रचनाकारों के साहित्यिक अवदान के बारे में भी कही जा सकती है! क्या उनके अवदान की व्याख्या डिराइवेटिव डिस्कोर्स के रूप में करना उचित नहीं होगा?

ये तो नही कहा जा सकता कि हिन्दी की जातीय परम्परा का उन्नीसवीं सदी के बाद विकास ही नहीं हुआ। लेकिन ये जरूर कहा जा सकता है कि हिन्दी की जातीय परम्परा के सहज विकास के रूप में समादृत किये जाने वाले बीसवीं शताब्दी के साहित्य का स्वरूप जातीय कम और पश्चिमी ज्यादा है। असल में, जैसे-जैसे जातीय परम्परा के संस्कार कमजोर कमजोर पड़ते गये, वैसे-वैसे पश्चिमी विचारों का प्रभाव बढ़ता गया। किन्तु पुराने संस्कार इतने आसानी से छूटते नहीं। पश्चिमी विचारों के बढ़ते वर्चस्व के बावजूद उन्नीसवीं शताब्दी में ‘अन्धेर नगरी’ जैसे नाटकों, बीसवीं सदी में हबीब तनवीर के नाटकों, विजय तेन्दुलकर के ‘घासीराम कोतवाल’, गिरीश कर्नाड के ‘नागमण्डलम’ और ‘हयवदन’ जैसे नाटकों; विजयदान देथा की कहानियों और मुक्तिबोध की कहानियों और कविताओं में भारतीय परम्परा के सहज विकास के साक्ष्य मिल जाते हैं। ये सूची और भी लम्बी हो सकती है लेकिन ऊपर गिनाए गये नामों के सहारे हिन्दी की जातीय परम्परा ही नहीं, भारतीय साहित्य की जातीय परम्परा के विकास की वैकल्पिक अवधारणा प्रस्तुत की जा सकती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी की जातीय परम्परा की वैकल्पिक अवधारणा विकसित करने में मुक्तिबोध के रचनात्मक और वैचारिक लेखन की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो सकती है।

राजकुमार जी

प्रो॰राजकुमार

शोर-शराबे से दूर अध्ययन-अध्यापन में मग्न रहने  वाले युवा-तुर्क हिन्दी आलोचक। भक्ति साहित्य, हिन्दी नवजागरण, आधुनिकता, आधुनिक साहित्य, प्रेमचंद, हिन्दी कहानी इत्यादि पर लगातार लेखन। किताबों में जैसी रुचि इनकी  है,  वह अन्यत्र दुर्लभ ही हो गई है। फिलहाल, बी॰एच॰यू॰ के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक।इनसे dr.kumar.raj@gmail.com पर संपर्क संभव। 

 

साभार – कथादेश 

जारी….

 

भाषा बहता नीर: प्रो. राजकुमार

औपनिवेशिक दौर में निर्मित ज्ञान के विभिन्न अनुषंगों का विगत वर्षों में गम्भीर अध्ययन तो किया गया और उसकी कमियों का भी यथोचित उल्लेख हुआ। लेकिन भाषाविज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ औपनिवेशिक दौर में रचे गए ज्ञान का दबदबा अभी भी बहुत कुछ कायम है। औपनिवेशिक दौर में निर्मित भाषायी मानचित्र मुख्यतः इस तथ्य पर आधारित है कि आर्य भारत में बाहर से आए। इसलिए भारत में मुख्य रूप से दो भाषा परिवार बने जिन्हें ‘आर्य-भाषा’ परिवार और ‘द्रविड़-भाषा’ परिवार नाम दिया गया। आर्यों की दो शाखाओं की परिकल्पना की गई जिनमें से एक यूरोप की ओर चली गई और दूसरी भारत की ओर आ गई। यह माना गया कि दो शाखाओं में विभाजित होने से पहले ये एक ही तरह की भाषा का इस्तेमाल करते रहे होंगे। इसलिए उत्तर भारत की आर्य भाषाओं और यूरोप की भाषाओं में खोजने पर कुछ न कुछ सामान्य तत्व मिल जाएंगे। यद्यपि ‘इंडो-यूरोपियन’ भाषा परिवार के प्रणेता विलियम जोन्स ने माना कि भाषा के उस आदि रूप को खोज पाना मुश्किल है, जिससे इस परिवार की भाषाओं की उत्पत्ति हुई। लेकिन उत्पत्ति के किसी आदि स्रोत की कल्पना के सहारे हम उसके मूल रूप के समीप पहुँच सकते हैं। इस हेतु हमें सम्बद्ध भाषाओं के बाहरी प्रभावों को हटाकर उस भाषा के मूल रूप की खोज धातु और व्याकरणिक संरचना के आधार पर करनी होगी। इस तरह भाषा की एक आत्मपूर्ण संरचना की कल्पना की गई और ऐतिहासिक भाषा-विज्ञान के सहारे उसके विकास के विभिन्न चरणों को रेखांकित किया गया। यह सही है कि उस दौर में भाषाओं के पारस्परिक मिश्रण के सहारे भाषाओं के विकास को व्याख्यायित करने वाले विद्वान भी थे। लेकिन तुलनात्मक भाषाशास्त्र का विकास इस तरह हुआ कि भाषायी मिश्रण को परवर्ती परिघटना समझ कर हाशिये पर धकेल दिया गया। कहा गया कि भाषाओं का ‘जेनेटिक संबंध’ प्रारम्भिक अवस्था का सूचक है और इसके जरिये भाषा के बुनियादी तत्वों को चिह्नित किया जा सकता है। भाषा की परिकल्पना उसके अमिश्रित बुनियादी तत्वों के सहारे व्याकरण की बुनियाद पर की गई। इस तर्क की निष्पत्ति यह है कि भाषा का मूलभूत आन्तरिक तत्व ही महत्वपूर्ण है और बाकी चीजें बहुत मायने नहीं रखती हैं। भाषायी वंशवृक्ष में एक ही परिवार की भाषाओं के मध्य इन्हीं मूलभूत तत्वों के आधार पर उनके सम्बंधों को समझा जा सकता है। इस हेतु दूसरे स्रोतों से आए शब्दों को पहचानना और उन्हें बाहर करना जरूरी माना गया। इस तरह भाषायी मिश्रण के औचित्य का ही निषेध कर दिया गया। स्पष्ट है कि भाषायी वंशवृक्ष के मध्य संबंध व्यवहार में आने वाली भाषा के आधार पर नहीं बल्कि उसके अमूर्तन के सहारे स्थापित किया गया। #लेखक 

The Saragossa Manuscript: Snapshots:

The Saragossa Manuscript: Snapshot

आरम्भिक आधुनिक भारत में भाषा और समाज

BY प्रो. राजकुमार

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उपनिवेशवाद ने दक्षिण एशिया को कैसे बदला, यह हम तब तक नहीं जान सकते, जब तक हमें ये न मालूम हो कि यहाँ क्या था, जिसे उसने बदला। #शेल्डन पोलक (2011: 19)

विलियम जोन्स के एक समान भाषा से लैटिन, ग्रीक और संस्कृत की उत्पत्ति के सिद्धान्त के पीछे ईसाई चिन्तन परम्परा की भूमिका हो सकती है। अम्बर्तो इको ने अपनी पुस्तक ‘सर्च फार परफेक्ट लैंग्वेज’ में इस परम्परा का उल्लेख किया है। उनके अनुसार यह कहानी बाइबल से शुरू होती है। विप्लव के बाद समूची पृथ्वी पर सिर्फ एक ही भाषा थी और सर्वत्र वही बोली जाती थी।

लेकिन इंसान ने अपने दम्भ में ईश्वर से होड़ लेने की ठानी और स्वर्ग तक पहुँचने के लिए मीनार बनानी शुरू की। मनुष्य के घमण्ड को चूर करने के लिए और इस तरह के मीनार के निर्माण की प्रक्रिया रोकने के लिए ईश्वर ने सोचा कि मुझे नीचे उतरना चाहिए और वहाँ पहुँकर उसने भाषा को इस तरह उलझा दिया कि वे एक दूसरे कि बात न समझ पाएँ……. इसीलिए इस मीनार का नाम ‘बेबेल’ पड़ा। ईश्वर ने समूची धरती की भाषा को तोड़ दिया और फिर उसे पूरी धरती की सतह पर बिखरा दिया।

विलियम जोन्स की परिकल्पना के अनुसार ग्रीक, लैटिन ग्रीक, फारसी और संस्कृत एक भाषा परिवार की भाषाएँ हैं और इस समूह की मूल भाषा संभवतः संस्कृत थी। फिर इसी के साथ यह बात भी चल निकली की चार-पाँच हजार वर्षों के अलगाव के बाद यूरोप के आर्यों का अपने बिछड़े हुए भारतीय आर्यों से मिलन हुआ है। अब यह जिम्मेदारी यूरोप के आर्यों की है कि वे अपने बिछड़े और पिछड़े हुए भारतीय आर्यों को उन्नत सभ्यता का पाठ पढ़ा कर सभ्य बनाएँ और समान उत्पत्ति के मूल स्रोतों को खोज निकालें। विडम्बना यह है कि इस समूची कहानी को उन्नीसवीं सदी की पढी़-लिखी जातियों ने हाथों-हाथ लिया। केशवचन्द्र सेन जैसे लोगों के कथन से इस तथ्य की पुष्टि होती है। अपनी हीनता ग्रंथि से मुक्ति पाने के लिए उन्हें यह सिद्धान्त बहुत आकर्षक लगा कि पश्चिमी सभ्यता के मूल स्रोत भारतीय हैं। इसी के साथ यह बात जोड़ दी गई कि भारतीय आर्य सभ्यता में कालान्तर में जो गिरावट आईं, उसका मूल कारण इस्लामी आक्रमण है। कहने का आशय यह है कि यह परिकल्पना औपनिवेशिक हितों के अनुकूल तो थी ही, तत्कालीन प्रबुद्ध भारतीयों को भी रास आ रही थी। (2006: 212-230) कहा जाता है कि हम जो चाहते हैं, वही खोज भी लेते हैं। इस प्रसंग में भी यही हुआ। उत्तर भारत की भाषाओं और यूरोप की भाषाओं में कुछ सामान्य तत्व खोज निकाले गए और उनकी बुनियाद पर ‘इंडोयूरोपीयन’ भाषा परिवार का महल खड़ा कर दिया गया। विडंबना यह है कि आज की तारीख में आर्यों के बाहर से आने और यहाँ आक्रमण कर अपना वर्चस्व स्थापित करने की सैद्धान्तिकी को निर्विवाद तथ्यों और तर्कों के आधार पर सिद्ध कर पाना मुश्किल है। यहाँ तक कि रोमिला थापर ने अपनी पुस्तक ‘द पास्ट बिफोर अस’ में इतिहास लेखन के एक विशेष दौर में निर्मित एक आख्यान के तौर पर इस समूची परिघटना का उल्लेख किया है। लेकिन इसे एक निर्विवाद तथ्य के रूप में नहीं रखा है। ‘इंडोयूरोपीयन’ भाषा परिवार की परिकल्पना को स्वीकार कर लेने पर हुआ यह कि भारत की कथित आर्य भाषाओं और यूरोप की भाषाओं के बीच तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा सामान्य तत्वों को सामने लाने का प्रयास तो खूब हुआ, लेकिन भारतीय भाषाओं के बीच समानता और निरंतरता के तत्वों को देखने और उनके निहितार्थों को समझने की कोशिश लम्बे समय तक कम ही की गई।

टॉमस आर. ट्राटमान के शब्दों में

सबसे बुरी बात यह हुई कि भाषा-परिवार की इस सैद्धान्तिकी ने भारत के इतिहास को दो प्रजातियों के इतिहास के रूप में देखने की बुनियाद रख दी। इतिहास की बुनियादी शर्त के रूप में नस्ल की इस नई यूरोपीय परिकल्पना का भारतीय इतिहास की व्याख्या पर बहुत गहरा असर पड़ा। इसे ही मैंने भारतीय सभ्यता की नस्लीय सैद्धान्तिकी कहा है। इस सैद्धान्तिकी के अनुसार भारतीय सभ्यता की निर्मिति दो प्रजातियों के संघर्ष और उनके आंशिक मिश्रण से हुई। ये प्रजातियाँ थीं; गोरे और संस्कृत बोलने वाले आक्रांता आर्य और द्रविड भाषा बोलने वाले काले बर्बर मूल निवासी। इस शुरुआती संघर्ष से जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति होती है। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप पैदा होने वाली नई सभ्यता की केन्द्रीय संस्था जाति-व्यवस्था बनती है। यह दृष्टिकोण लम्बे समय तक भारतीय सभ्यता के इतिहास के महाख्यान के रूप में कायम रहा। अब जरूर इस महाख्यान की सच्चाई पर संदेह किए जाने और उसकी जाँच पड़ताल की शुरुआत हुई है। मैंने अन्यत्र दिखाया है कि इंडोयूरोपियन यानी भारोपीय और द्रविड़ भाषाओं के बीच मुठभेड़ को दो नस्लों की मुठभेड़ के रूप में व्याख्यायित करने के लिए उपलब्ध साक्ष्यों को कितना ज्यादा तोड़-मरोड़ कर पेश करना होगा! यही नहीं, सभ्यता को गोरी प्रजाति से और बर्बरता को काले लोगों के साथ तात्विक रूप से संबंद्ध करना बिल्कुल गलत है। (2006: 225)

भारोपीय भाषा-परिवार और आर्यों के आक्रमण से संबंधित विवाद के विस्तार में जाए बिना मैं इस चर्चा को डॉ. कोएनराड के उद्धरण से समाप्त करना चाहता हूँ:

यह कहना तो जल्दबाजी होगी कि भाषा वैज्ञानिकों ने भारोपीय भाषा परिवार की भारतीय उत्पत्ति के सिद्धान्त को साबित कर दिया है। लेकिन हम इतना जरूर विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि यूरोपीय उत्पत्ति और आर्यों के भारत पर आक्रमण के बहुउद्धृत भाषायी साक्ष्य पूरी तरह अपर्याप्त हैं। यूरोपीय उत्पत्ति के सिद्धान्त एक-एक करके उन विद्वानों द्वारा गलत साबित किए जा चुके हैं जिनका भारतीय उत्पत्ति सिद्धान्त और उससे संबंधित ज्ञान से कुछ लेना-देना नहीं है।’(लिंग्विस्टिक एस्पेक्ट ऑव द इंडो-यूरोपीयन अरहिमट क्वेश्चन, डॉ. कोएनराड एल्स्ट, द कोएनराड एल्स्ट साईट)

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शेल्डन पोलक के अनुसार यूरोप में ‘ओरिजिन पैराडाइम’ की शुरुआत आधुनिकता के आगमन से पहले ही हो चुकी थी। ‘ओरिजिन पैराडाइम’ का मतलब यह है कि उत्पत्ति, वंश की शुद्धता और मिश्रण के निषेध को लेकर पश्चिम में बड़े पैमाने पर चिन्तन किया जा रहा था। इसके साथ ही ऐतिहासिक आवश्यकता के रूप में राष्ट्र के महत्व का एहसास बढ़ रहा था और इतिहास के कर्ता के रूप में आम आदमी की भूमिका पर विचार हो रहा था। अठारहवीं सदी की ‘राष्ट्र और भाषा परियोजना’  इसी प्रक्रिया की तार्किक परिणति थी। इस परियोजना के बारे में ट्राटमान ने लिखा है कि ‘राष्ट्र और भाषा परियोजना’ का, जैसा कि हमने देखा, शुद्ध विज्ञान से संबंध नहीं था, भले ही ऐसा प्रायः कहा जाता रहा हो; लेकिन ये ऐसा शुद्ध विज्ञान नहीं, जिसने धर्म की जंजीरों से स्वयं को मुक्त कर लिया हो। इसके विपरीत इस परियोजना की गहरी जडें बाइबिल में हैं- उन राष्ट्रों की वंशावली में हैं जो नोह और उनके तीन पुत्रों से अवतरित हुए। (2006: 213) ट्राटमान के इस खुलासे पर सेक्युलर और धार्मिक राष्ट्रवादियों को जरूर गौर करना चाहिए। यही नहीं, अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी में निर्मित भाषा परिवारों की परिकल्पना और तुलनात्मक भाषाशास्त्र पर अगाध श्रद्धा रखने वाले विद्वानों को ट्राटमन की इन बातों पर भी गौर फरमाना चाहिए:

अठारहवीं सदी में शुरू हुई भाषाओं की तुलना का एक वृहत्तर इथनोलाजिकल चरित्र था और इसका मकसद भाषाओं का वंशवृक्ष तैयार करना था। भाषाओं का वंशवृक्ष तैयार करना स्वयं में उद्देश्य नहीं, साधन था- राष्ट्रों के वंशवृक्ष तक पहुँचने का साधन। इसका उद्देश्य राष्ट्रों की पारस्परिक संबंधों की विलुप्त हो चुकी स्मृतियों को दोबारा हासिल करना था। इस परियोजना और इसकी खोजों को भाषा-वैज्ञानिक फ्रेम में देखा जाना था। ऐसी भाषा-वैज्ञानिक समझ जो भाषा को एक आत्मपूर्ण इकाई मानती हो, समूची तस्वीर को भले ही न पकड़ती हो, लेकिन भारत में उसे प्रायः इसी रूप में लागू कर भाषा-परिवारों की परिकल्पना की गई।’ (2006: XIX,XX)

प्रश्न यह है कि क्या किसी भाषा की उत्पत्ति को किसी एक भाषा-परिवार के साथ जोड़कर व्याख्यायित किया जा सकता है? उत्पत्ति का मिथ किसी भाषा के बनने की प्रक्रिया को किस सीमा तक व्याख्यायित कर सकता है? ये प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि बाहरी प्रभावों को हटाकर भाषा के किसी मूलभूत अमिश्रित रूप की परिकल्पना का प्रभाव आधुनिक भाषाओं की स्वतंत्र अस्मिता-निर्माण-प्रक्रिया पर भी पड़ा।

असल में औपनिवेशिक अध्येता जिस समय भारत के भाषायी मानचित्र का अध्ययन कर रहे थे, उस दौर में ज्ञान-विज्ञान के सभी अनुशासनों पर प्रत्यक्षवादी (Positivist) पद्धति का वर्चस्व था। प्रत्यक्षवादी पद्धति किसी परिघटना का अध्ययन करने के दौरान भिन्नता और समानता के आधार पर पहले उसका वर्गीकरण करती है, फिर तुलना करती है, और अन्ततः उसको एक नाम दे देती है। इस प्रक्रिया में किसी भी परिघटना के उन तत्वों का निषेध हो जाता है, जो इस पद्धति में फिट नहीं बैठते। नामकरण और वर्गीकरण की यह प्रक्रिया प्रायः विरोधी युग्मों के सहारे खड़ी की जाती है और इसमें स्व और अन्य के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींचना आवश्यक होता है। सफेद और स्याह अथवा स्व और अन्य की बुनियाद पर निर्मित इस ज्ञान-व्यवस्था में ऐसे तत्वों का प्रायः निषेध हो जाता है जो किसी एक कोटि में पूरी तरह फिट नहीं बैठते। इस तरह दरम्यानी रूपों और अन्तःसंबंधों के लिए कोई जगह नहीं छूटती। ऐसी परिघटना जिसका स्वरूप स्पेक्ट्रम या कंटिनम जैसा हो, उसका बोध तो इस पद्धति से हो ही नहीं सकता। कहने कि जरूरत नहीं होनी चाहिए कि भारत में भाषाओं और बोलियों और भाषा-परिवारों के अध्ययन में इसी पद्धति का इस्तेमाल किया गया। विडम्बना यह है कि, जैसे दूसरे अनुशासनों में वैसे ही भारत की भाषाओं के अध्ययन के प्रसंग में भी, इस पद्धति से निर्मित ज्ञान को वैज्ञानिक ज्ञान की तरह निर्विवाद और अकाट्य सत्य मान लिया गया। यही नहीं, इस ज्ञान के आलोक में भारत के यथार्थ को समझने और परिवर्तित करने का प्रयास किया गया। यथार्थ के अनुरूप सैद्धान्तिकी विकसित करने के बजाय सैद्धान्तिकी के आधार पर यथार्थ को देखने और बदलने कि इस उलटबाँसी की शुरुआत भले ही उन्नीसवीं सदी में हुई हो, लेकिन यह सिलसिला आज भी खत्म नहीं हुआ है। चाहे राष्ट्र की अस्मिता हो या विभिन्न भाषाओं की अस्मिता हो या धार्मिक-सामाजिक अस्मिताएँ ही क्यों न हो, इन सभी का निर्माण इसी पद्धति के सहारे उन्नीसवीं सदी में हुआ। क्योंकि यह लेख मूलतः भाषायी अस्मिताओं के निर्माण प्रक्रिया पर केन्द्रित है, इसलिए अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए हम विभिन्न भाषाओं की स्वतंत्र अस्मिता निर्माण प्रक्रिया से जुड़ा हुआ फिलहाल यहाँ सिर्फ दो उदाहरण देना चाहेंगे।

उड़ीसा में जब उड़िया को बांग्ला से स्वतंत्र भाषा बनाने का आंदोलन चला तो फकीर मोहन सेनापति भी इससे जुड़ गए। लेकिन मुसीबत यह हुई कि उड़िया को बांग्ला से स्वतंत्र भाषा मानने के बावजूद वे जो कुछ लिखते उसमें और बांग्ला में कोई खास फर्क न दिखाई पड़ता। उल्लेखनीय है कि फकीर मोहन सेनापति के पथप्रदर्शक गुरु जॉन बीम्स नामक महानुभाव थे। जॉन बीम्स की वजह से ही उड़ीसा के स्कूलों में शिक्षा के माध्यम के रूप में उड़िया की शुरुआत हुई। जॉन बीम्स आम आदमी (अनपढ़) के द्वारा बोली जाने वाली भाषा को ही सच्ची भाषा मानते थे और तत्सम शब्दों के प्रयोग को उचित नहीं समझते थे। बीम्स के इस तरह के विचारों से फकीर मोहन सेनापति को ऐसी उड़िया भाषा खड़ी करने में मदद मिली जो बंगला से भिन्न दिखाई पड़े। गगनेन्द्रनाथ दास ने लिखा है कि सामान्यतः यह माना जाता है कि कोई उपन्यासकार पहले अपने विषय-वस्तु का चुनाव करता है और फिर ऐसा प्लाट और चरित्र खड़ा करता है जो उसके विषय-वस्तु को बेहतर ढंग से प्रस्तुत कर सके। अन्ततः विषय-वस्तु और चरित्र उपन्यास की भाषा और शैली को निर्धारित करते हैं। लेकिन ऊपर की चर्चा से ऐसा लगता है कि ‘छः मन और आठ गुण्ठ’ के प्रसंग में इसका उल्टा हुआ। क्योंकि विशेष ऐतिहासिक परिस्थिति में निम्नवर्गीय जनों के बीच बोली जाने वाली भाषा के आधार पर चरित्र और विषय-वस्तु का निर्धारण हुआ। (2006)।

लम्बे समय तक पंजाब में ब्रजभाषा और हिन्दी-उर्दू का साहित्यिक और सांस्कृतिक भाषा के रूप में इस्तेमाल होता रहा था। विभाजन के पश्चात पंजाबी को पंजाब की भाषा बनाने की मांग की जाने लगी। भाषावार राज्य गठन की प्रक्रिया के अमल में आने के साथ पंजाब का एक और विभाजन हुआ। हिन्दी भाषी क्षेत्र को पंजाब से अलग कर  हरियाणा राज्य बनाया गया। इस तरह पंजाब की भाषा पंजाबी बनी और हरियाणा की हिन्दी हुई। लेकिन पाकिस्तान के कब्जे वाले पश्चिमी पंजाब की सांस्कृतिक और प्रशासनिक भाषा आज भी उर्दू है। इन उदाहरणों से यह बात स्पष्ट होती है कि स्थानीय बोली को एक स्वतंत्र भाषा के रूप में स्थापित करने के पीछे ‘भाषा’ की बोधगम्यता से कहीं ज्यादा सामाजिक-राजनीतिक कारणों की भूमिका होती है।

फकीर मोहन सेनापति के उदाहरण से यह बात स्पष्ट होती है कि क्षेत्रीय भाषाओं की स्वतंत्र अस्मिता-निर्माण-प्रक्रिया एक सचेत राजनीतिक आंदोलन का हिस्सा थी और इस प्रक्रिया में उस क्षेत्र के पढे़-लिखे लोगों के साथ ही औपनिवेशिक अध्येताओं की नियामक भूमिका थी। वास्तव में यह प्रक्रिया इन दोनों के सचेत और साझा उद्यम का परिणाम थी। असल में भारत की ज्यादातर भाषाओं के निर्माण की आधारभूत सैद्धान्तिकी औपनिवेशिक अध्येताओं ने तैयार की थी और इसे ही थोड़ा बहुत परिवर्तित कर क्षेत्रीय बुद्धिजीवियों ने अंजाम तक पहुँचाया। सुसी थारू (1994) ने अपने एक लेख ‘अरेंजमेन्ट ऑव एलायन्स’ में इस प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डाला है। जिस क्षेत्र में स्थानीय भाषा/बोली को एक स्वतंत्र भाषा के रूप में स्थापित करने का आंदोलन नहीं खड़ा हो पाया वहाँ विभाजन के दूसरे तरीके निकाले गए। उल्लेखनीय है कि पश्चिमी भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार हिन्दी क्षेत्र की सभी बोलियाँ स्वतंत्र भाषाएँ हैं। इस मान्यता का किशोरीदास बाजपेयी जैसे विद्वान पर भी ऐसा प्रभाव पड़ा कि कालान्तर में वे भी हिन्दी क्षेत्र की इन बोलियों को स्वतंत्र भाषाएँ मानने लगे। इसके बावजूद हिन्दी क्षेत्र में इन बोलियों को स्वतंत्र भाषा में रूपांतरित करने का कोई आंदोलन नहीं खड़ा हो पाया। पहले ब्रजभाषा को और फिर खड़ी बोली पर आधारित हिन्दी-उर्दू को हिन्दी क्षेत्र के उन अंचलों के लोगों ने भी सहज स्वीकार कर लिया जहाँ यह ‘बोली’ बोली ही नहीं जाती थी। इसलिए हिन्दी क्षेत्र में हिन्दी और उर्दू का विवाद खड़ा किया गया। जैसाकि ऊपर उल्लेख हो चुका है, क्षेत्रीय बोलियों को स्वतंत्र भाषा के रूप में स्थापित करने के मूल में भाषायी कारणों से ज्यादा राजनीतिक कारणों की भूमिका रही। क्षेत्रीय बोलियों की अस्मिता को स्वतंत्र भाषा में रूपांतरित करने के दौरान सचेत रूप से ऐसे तत्वों का निषेध किया गया, जो दूसरी बोली या भाषा में भी मौजूद थे। ऐसे तत्वों को ऊपर लाने की कोशिश की गई जिनसे उस बोली की स्वतंत्र और आत्मपूर्ण पहचान कायम की जा सके। इस प्रक्रिया में क्रियाओं और कारक चिह्नों को उनकी पहचान की बुनियाद के रूप में रखा गया। भाषा के क्षेत्रीय रूपों के अन्तःसंबंध को समझने का एक वैकल्पिक आधार शब्द-सम्पदा की समानता भी हो सकता है। हिन्दी क्षेत्र में ब्रजभाषा या हिन्दी-उर्दू को दूसरे अंचलों में इसीलिए बिना किसी दबाव के स्वीकार कर लिया गया, क्योंकि इस क्षेत्र के स्थानीय भाषा रूपों में शब्द-सम्पदा की दृष्टि से समानता बहुत अधिक दिखाई पड़ती है।

भारत में भाषाओं/बोलियों का वर्गीकरण, नामकरण और उनकी स्पष्ट सीमाएँ निर्धारित करना कभी भी आसान नहीं था। लेकिन पश्चिम से आई आधुनिकता की सैद्धान्तिकी में भाषाओं के पारस्परिक संबंध को समझने का इसके सिवा और कोई दूसरा तरीका नहीं था। सच तो यह है कि ‘स्पेक्ट्रम या कन्टिनम’ की तरह धीरे-धीरे बदलने वाले भारतीय भाषायी मानचित्र को इस सैद्धन्तिकी के जरिये समझ पाना ही मुश्किल था। आधुनिकता की सैद्धान्तिकी में किसी परिघटना को समझने से ज्यादा मनोवांछित रूप में परिवर्तित कर देने पर जोर रहा है। कम से कम गैर-पश्चिमी संस्कृति और सभ्यताओं के अध्ययन के संदर्भ में तो यह बात सोलहो आने सच लगती है। एवर्ड सइद ने ‘ओरियन्टलिज्म’ नामक अपने ग्रंथ में इस समूची प्रक्रिया का विस्तार से विश्लेषण कर रखा है। इसलिए उस तफ्सील में जाने की जरूरत फिलहाल नहीं लगती। किन्तु यहाँ यह उल्लेख करना उचित होगा कि अंग्रेज अध्येताओं के लिए मानचित्र का निर्माण और भाषायी वर्गीकरण सुशासन के लिए निहायत जरूरी थे। इसकी पुष्टि 1881 की जनगणना के दस्तावेज से भी होती है। ज्युडित्थ टी. इरविन ने अपने लेख ‘लेंग्वेजफील्ड’ में उस दौर के अध्येताओं में व्याप्त इस प्रवृत्ति का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि इन अध्येताओं की दृष्टि में ऐसे मानचित्र से उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों और उनकी भाषाओं का इस तरह प्रतिनिधित्व हो जाता है जैसे वास्तव में उनका कोई वजूद ही न हो। कम से कम उनको सीधे प्रस्तुत करने की जरूरत खत्म हो जाती है। क्योंकि नक्शे में उनकी उपस्थिति पहले ही दर्ज की जा चुकी है। ज्युडित्थ टी. इरविन ने इस तरह का भाषायी मानचित्र तैयार करने के मार्ग में आने वाली दिक्कतों के बारे में 1853 में लिखे गए सर इरिक्सन पेरी के एक लेख का जिक्र किया है। भारत में बिल्कुल सही भाषायी मानचित्र बना पाना क्यों मुश्किल है, इस बात का उल्लेख करते हुए पेरी ने लिखा है

सर्वप्रथम समस्या तो यही है कि दो पड़ोसी भाषाओं की सीमाएँ प्रायः जंगल या ऐसे अनजान निर्जन इलाकों से होकर गुजरती हैं कि उनकी स्पष्ट सीमा-रेखा खींच पाना मुश्किल हो जाता है। जुडित्थ इरविन ने इस समझ पर व्यंग्य करते हुए लिखा है, ‘यदि ये मान लिया जाए कि भाषा की सीमा-रेखाएँ निर्जन इलाकों से होकर गुजरती हैं तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि भाषाओं के वजूद के लिए उन भाषाओं को बोलने वाले लोगों की भी जरूरत नहीं! (2011: 46)

इस ढब पर भारतीय भाषाओं का नामकरण/वर्गीकरण करने और उनकी स्पष्ट सीमा-रेखाएँ निर्धारित करने की चेष्टा करने वाले औपनिवेशिक दौर के पश्चिमी अध्येता ही नहीं, भारतीय अध्येता भी इस उलझन को सुलझा नहीं पाए। इस पद्धति पर किए गए अध्ययनों से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का एहसास तो यत्र-तत्र दिखई पड़ता है, किन्तु यह एहसास किसी वैकल्पिक सैद्धान्तिकी की जरूरत के एहसास में प्रायः रूपांतरित नहीं होता।

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काल की ही तरह देश-भेद से भी भाषा  बदलती है, बहुत धीरे-धीरे। आप प्रयाग से पश्चिम चलें, पैदल यात्रा करें, चार-पाँच मील नित्य आगे बढ़ें, तो चलते-चलते आप पेशावर या काबुल तक पहुँच जाएँगें; पर यह न समझ पाएँगे कि हिन्दी कहाँ किस गाँव में छूट गई–पंजाबी कहाँ से प्रारम्भ हुई–पश्तो ने पंजाबी को कहाँ रोक दिया! ऐसा जान पड़ेगा कि प्रयाग से काबुल तक एक ही भाषा है। परन्तु यह यात्रा यदि वायुयान से करें और प्रयाग से उड़कर पेशावर या काबुल उतरें, तो भाषा-भेद से आप चक्कर में पड़ जाएँगे। प्रयाग की भाषा कहाँ और काबुल की भाषा कहाँ! इसी तरह पूर्व की यात्रा पैदल करने पर आप हिन्दी की विभिन्न ‘बोलियों’ में तथा मैथिली-उड़िया-बँगला आदि में अन्तर वैसा न लख पाएँगे। यही क्यों, दक्षिण की ओर चलें, तो ठेठ मदरास तक पहुँच जाएँगे, भाषा संबंधी कोई भी अड़चन सामने न आएगी। किन्तु वायुयान से उड़ कर मदरास पहुँचिए, जान पड़ेगा भाषा में महान् अन्तर! आप कुछ समझ ही न सकेंगे। (1998: 4पूर्वपीठिका)

किशोरीदास बाजपेयी के ऊपर दिये गये उद्धरण से ये बात स्पष्ट हो जाती है कि हमारे यहाँ भाषाएं इस तरह परस्पर जुड़ी हुई हैं कि उन्हे जबरदस्ती करके ही एक दूसरे से अलगाया जा सकता है। भाषा के स्थानीय रूप में परिवर्तन इतना धीरे-धीरे और क्रमशः होता है कि पता ही नहीं चलता कि कब और कहाँ एक रूप समाप्त हुआ और दूसरे रूप की शुरुआत हो गई। लेकिन किशोरीदास बाजपेयी जैसे प्रकांड विद्वान को भी जब पश्चिमी भाषा-विज्ञान का ज्ञान हो गया तो उनके विचार बदल गए और अगली पुस्तक ‘भारतीय भाषा-विज्ञान’ में अवधी आदि को वे हिन्दी की बोलियाँ नहीं, स्वतंत्र भाषा मानने लगे। यही नहीं, हिन्दी शब्दानुशासन के परिवर्द्धित संस्करण के परिशिष्ट-1 में भी उन्होंने ये बातें जोड़ दीं। वे लिखते हैं

अवधी आदि हिन्दी की ‘बोलियाँ’ नहीं, स्वतन्त्र भाषाएँ हैं हिन्दी-संघ की। ‘हिन्दी की बोलियाँ’ एक रूढि़ है। यह सब भारतीय भाषा-विज्ञान में स्पष्ट है।

असल में भाषा और बोली के युग्म में विचार करने की ये तार्किक परिणति थी। जबकि भारत में देश-भाषाओं का चरित्र और उनका पारस्परिक संबंध ऐसा है कि भाषा और बोली के युग्म में उसे समझा ही नहीं जा सकता। भाषा और बोली के युग्म में हमारे भाषायी मानचित्र को विभाजित करने के लिए बहुत कृत्रिम और हिंसक तरीके से उन्हें एक दूसरे से अलगाना पड़ता है। इससे जितनी समस्याएँ हल होती हैं, उससे कहीं अधिक समस्याएँ पैदा हो जाती हैं। उल्लेखनीय है कि भाषा/बोली का एक स्थानीय रूप भी अपने समूचे क्षेत्र में एक जैसा नहीं दिखाई पड़ता। यह अकारण नहीं है कि राहुल सांकृत्यायन भोजपुरी को प्रयोग-भेद के आधार पर तीन-चार खण्डों में बाँटते हैं। भोजपुरी ही नहीं, दूसरी भाषाओं/बोलियों में भी ये समस्याएं दिखाई पड़ती हैं। असल में ये बोलियाँ आधुनिक युग में तब स्वतन्त्र भाषाएँ बनती हैं जब इन्हें एक दूसरे से काट कर, समानता का निषेध कर और वैशिष्ट्य-भिन्नता पर जोर देकर उनका मानकीकरण किया जाता है। ऐसा नहीं कि किशोरीदास बाजपेयी इस समस्या से परिचित नहीं थे। पश्चिमी भाषा-विज्ञान के प्रभाव में हिन्दी क्षेत्र की बोलियों को स्वतन्त्र भाषाएँ मान लेने के बावजूद पहले की ‘अवैज्ञानिक सोच’ के पुराने निशान इस पुस्तक में बचे रह गए हैं। कुछ नमूने देखिए जैसे:

‘मानस’ पश्चिमी अवधी और पूर्वी पांचाली के साझे की चीज है। पूर्वी पांचाली और अवधी में स्पष्ट सीमा-रेखा खींचना सरल काम नहीं है। (1998: 580)।…….पश्चिमी पांचाली उधर ब्रज को प्रभावित करती है और स्वयं भी प्रभावित होती है। इधर पूर्वी पांचाली अवधी को प्रभावित करती है और स्वयं भी प्रभावित होती है। पांचाली, बैसवाड़ी तथा अवधी बोलियाँ तिङन्त-प्रधान हैं और इतनी मिलती-जुलती हैं कि इनके स्वरूप का स्पष्ट विवेचन-विभाजन बहुत सरल काम नहीं है। (1998: 540)…वस्तुतः मैथिली भाषा हिन्दी तथा बांगला के बीच की कड़ी है।

तुलसीदास के जन्मस्थान का भाषायी मानचित्र देखिए:

सच तो यह है कि गोस्वामी जी ने अपनी बोली में मानस की रचना की है। बाँदा जिला पांचाली क्षेत्र में आता है।…..यहाँ की पांचाली बोली के पड़ोस में बुंदेलखण्डी बोली है! परन्तु बुंदेलखण्डी पर ब्रजभाषा या ग्वालियरी बोली का अधिक प्रभाव है, पांचाली का कम। (1998: 580)।

उपर्युक्त उद्धरणों से ये बात समझ में आ जाती है कि किशोरीदास बाजपेयी जैसे विद्वान के लिए भी ‘रामचरितमानस’ की भाषा का स्वरूप-निर्धारण करना सुगम नहीं था। पहले वे ‘रामचरितमानस’ की भाषा को अवधी और पांचाली का मिश्रण बताते हैं और फिर पांचाली। यदि ‘रामचरितमानस’ की भाषा पांचाली है तो फिर पांचाली और अवधी में अन्तर करना कितना मुश्किल है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है! यही नहीं, तुलसीदास के लिए अवधी छोड़कर ब्रजभाषा में लिखना कितना आसान रहा होगा, इसका भी अंदाजा लग जाता है। क्योंकि तुलसीदास के जन्मस्थल के एक ओर यदि अवधी है तो दूसरी ओर पांचाली और तीसरी ओर बुंदेलखण्डी। और बुंदेलखण्डी पर ब्रजभाषा का प्रभाव जगजाहिर है। वस्तुतः तुलसीदास के लिए ब्रजभाषा परायी भाषा नहीं है, जिसमें लिखने के लिए उसे सीखने की जरूरत पड़े। बहते हुए पानी की तरह भाखा के स्पेक्ट्रम का क्रमशः बदलता हुआ रूप है ब्रजभाषा। तुलसीदास के जन्मस्थान राजापुर की तरह हिन्दी क्षेत्र में अनेक ऐसे स्थलों को चिह्नित किया जा सकता है, जहाँ भाखा के कई स्थानीय रूप एक दूसरे से परस्पर मिलते हुए और क्रमशः परिवर्तित होते हुए दिखाई पड़ेंगे।

इसी तरह बाबूराम सक्सेना ने अपनी पुस्तक ‘अवधी के विकास’ में ‘बघेली’ को अवधी की एक बोली मात्र माना है, अवधी के समकक्ष पूर्वी हिन्दी का एक और रूप नहीं। यही नहीं, अवधी की दक्षिणी सीमा में स्थित छत्तीसगढ़ी को वे पूर्वी हिन्दी का ही एक रूप मानते हैं। छत्तीसगढ़ी कुछ बातों में अवधी से भिन्न लेकिन अन्य बातों में अवधी के अधिक समीप है। छत्तीसगढ़ी के सर्वनाम भोजपुरी से मिलते-जुलते हैं। यदि इस सिलसिले को आगे बढ़ाएँ तो छत्तीसगढ़ी का संबंध उड़िया से जुड़ता हुआ दिखाई पड़ेगा और फिर उड़िया का बांग्ला और तेलगू से। बोलियों की भिन्नता रेखांकित करने के बावजूद बाबूराम सक्सेना ने हिन्दी की बोलियों के अंतःसंबंध को बखूबी समझते हुए लिखा है कि

यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि हिन्दी की विभिन्न बोलियाँ-पश्चिमी या पूर्वी, न केवल पड़ोस की बोलियों के वक्ताओं से अपितु अन्य बोलियों के वक्ताओं से भी परस्पर सम्बोध्य हैं। ब्रज का एक वक्ता अवध में अशिक्षित व्यक्तियों से भी अपनी ही बोली में अपना मन्तव्य समझा सकता है। (1972: 8)

बाबूराम सक्सेना के इस तर्क की पुष्टि शान्तनु फूकन के एक लेख ‘थ्रू थ्रोट्स व्हेअर मेनी रीवर्स मीट’से भी होती है। फूकन ने इस लेख में पछाह के रहने वाले फारसी के लेखक आनंदराम मुख्लिस का हवाला दिया है। अपने नौकर से मुल्ला दाऊद के ‘चंदायन’ को सुनकर वह पूर्वी बोली की मिठास से बहुत प्रभावित होते हैं और उन्हें ‘चंदायन’ की भाषा को समझने में कोई दिक्कत नहीं होती। इन उद्धरणों से हिन्दी की विभिन्न बोलियों और भाषाओं के आपसी संबंध और बोधगम्यता की पुष्टि होती है। इससे यह भी समझ में आता है कि किसी एक क्षेत्र का भाषायी रूप जब एक ‘कॉस्मोपॉलिटन वर्नाक्युलर’ (Cosmopolitan Vernacular) के रूप में फैलता है तो दूसरे क्षेत्र के लोग उसे बिना किसी विरोध के क्यों अपना लेते हैं। अपना ही नहीं लेते, बल्कि उसमें लिखने की दक्षता भी अर्जित कर लेते हैं।

भाषा का कोई स्थानीय रूप जैसे ही एक स्वतंत्र भाषा के रूप में अपनी पहचान बनाने लगता है वैसे ही वह अपनी आन्तरिक भिन्नताओं का एक मानक भाषा के निकष पर निषेध भी करना शुरू कर देता है। इस तरह उस भाषा का अपने पड़ोस की भाषा से पहले से चला आ रहा संबंध तोड़ दिया जाता है और दूरस्थ केन्द्र की मानक भाषा के अनुरूप उसे अपनी भाषायी पहचान गढ़ने के लिए विवश किया जाता है। जैसे, आधुनिक राष्ट्र-राज्य निर्माण प्रक्रिया के पीछे प्रायः सर्वमान्य तार्किक आधार नहीं होता और उसकी सीमा-रेखाएँ राजनीतिक-आर्थिक हैसियत से निर्धारित होती है; वैसे ही, ‘भाषायी स्पेक्ट्रम’ में से स्वतंत्र भाषाओं का निर्माण भी राजनीतिक-आर्थिक कारणों से किया जाता है। टॉमस ट्रॉटमान ने इस प्रक्रिया को यूरोप के ‘लेंग्वेज एण्ड नेशन प्रोजेक्ट’ (Language and Nation Project) के रूप में व्याख्यायित किया है। इस प्रोजेक्ट की महत्ता पश्चिमी विद्वानों की दृष्टि में सार्वभौमिक थी। जहाँ-जहाँ वे गए और जहाँ उनका वर्चस्व कायम हुआ, उन्होंने इसी प्रोजेक्ट के तहत वहाँ की भाषाओं का अध्ययन किया अठारहवीं सदी से इस तरह मिसालें मिलने लगती हैं।

‘भाखा’ के स्थानीय रूपों के नामकरण और उनकी सीमाएँ चिह्नित करने का काम भारत में उन्नीसवीं सदी में शुरू हुआ। भाखा के किसी स्थानीय रूप में भी, जैसा कि पहले कहा गया, पर्याप्त विविधता है। असल में भाषा के मानकीकरण के दौरान उसके किसी एक रूप को मानकीकृत कर दिया जाता है और बाकी रूपों को अमान्य घोषित कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में भाषा के व्याकरण का निर्माण होता है और फिर लोगों से उसी के अनुरूप भाषा के प्रयोग की अपेक्षा की जाने लगती है। भाषा के इस मान्य और व्याकरण-सम्मत स्वरूप को स्वीकार कर लेने के बाद भाषा का एक स्थिर रूप बन जाता है। भाषा के मानक रूप के स्थिर होने के बाद परस्पर जोड़ने वाला सतत् परिर्वतनशील रूप नष्ट होने लगता है। और फिर उनकी स्वतंत्र अस्मिताओं का निर्माण होता है। आज हम प्रायः भाषा के मानकीकृत रूप के आधार पर ही उनके संबंधों को देखने के आदी हो गए हैं, जबकि आरम्भिक आधुनिक भारत में भाषाओं का अन्तःसंबंध परस्पर सम्बद्धता का रहा है। इसीलिए हमारे यहाँ लम्बे समय तक, यहाँ तक कि उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में भी, हिन्दी क्षेत्र के सभी स्थानीय रूपों को भाखा कहा जाता रहा। उन्नीसवीं सदी में शिवसिंह सेंगर ने अपनी पुस्तक ‘शिवसिंह-सरोज’ में लिखा है कि ‘इस ग्रंथ में एक हजार भाषा कवि लोगों के नाम और जीवन-चरित्र सन्-संवत् कविता समेत लिखे गये हैं।’ (1970: मुखपृष्ठ)

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धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है कि

प्रथम आवश्यकता अपने देश अथवा वर्तमान संयुक्त प्रान्त को उचित नाम देने की है। भारतवर्ष में केवल यह एक हिन्दी भाषा-भाषी जन-समुदाय ही ऐसा अभागा है कि न तो जिसके देश का ही कोई नाम है और न जहाँ के देशवासियों को ही किसी एक नाम से पुकारा जा सकता है।’ (1930: 76)।

कई नामों पर विचार करने के बाद धीरेन्द्र वर्मा ने इसे हिन्दी राष्ट्र या सूबा हिन्दुस्तान के नाम से पुकारे जाने की सिफारिश की। किन्तु असल सवाल ये है कि बंगाल, पंजाब की तरह हिन्दी क्षेत्र का कोई नाम क्यों नहीं बन पाया। जब तक इस सवाल का जवाब हम नहीं खोज लेते, तब तक हिन्दी क्षेत्र के भाषायी स्वरूप को भी भलीभाँति नहीं समझ पाएँगे। एक भाषा के आधार पर बने पश्चिमी राष्ट्रों के मॉडल को हिन्दी क्षेत्र और अन्ततः समूचे भारत पर लागू करने से हिन्दी क्षेत्र के भाषायी वैशिष्ट्य और प्रकारान्तर से समूचे भारत के भाषायी वैशिष्ट्य का सम्यक् बोध नहीं हो सकता। विडंबना ये रही है कि ज्यादातर भाषावैज्ञानिकों, साहित्य और समाज के अध्येताओं ने भारत के भाषायी वैशिष्ट्य को एक भाषा पर आधारित पश्चिम ढंग के राष्ट्र के मॉडल पर समझने की कोशिश की है। लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी से पहले के भारत का भाषायी मानचित्र इस मॉडल पर फिट नहीं बैठता, उसे काट-छाँटकर जबरन इस मॉडल में फिट करने की कोशिश की जाती है। भारत और विशेष रूप से भाखा क्षेत्र (जिसे सामान्य रूप से हिन्दी-क्षेत्र कहते हैं) के भाषायी स्वरूप को भाषा और बोली के द्विआधारी विरुद्धों के जरिये नहीं व्याख्यायित किया जा सकता। सम्प्रति इस लेख में हम ‘भाखा क्षेत्र’ के भाषायी स्वरूप को समझने का प्रयास करेंगे। यद्यपि हमारा विश्वास है कि इसके निहितार्थ समूचे भारतीय भाषायी मानचित्र को समझने की दृष्टि से भी, थोड़े-बहुत बदलाव के साथ, उपयोगी हैं।

‘भाखा क्षेत्र’ में स्थानीय मुहावरों/बोलियों की आत्मपूर्ण और निरपेक्ष कोटियाँ नहीं बनीं। क्योंकि भाखा-क्षेत्र के ये क्षेत्रीय रूप शब्द-सम्पदा और व्याकरण की दृष्टि से बहुत कुछ एक जैसे हैं। जो अन्तर है वह क्रियाओं और उच्चारण में है। इसलिए भाखा-क्षेत्र के ज्यादातर कवि एक से अधिक भाषायी मुहावरे/बोली/भाषा में लिखते हैं।ऐसा करना उनके लिए मुश्किल भी नहीं है, क्योंकि ये भाषायी मुहावरे मूलतः ‘भाखा’ के ही स्थानीय विशेषीकृत रूप हैं। भाखा के इन विविध स्थानीय रूपों के बनने के दौरान भी इनके बीच भाषायी, साहित्यिक और वैचारिक स्तर पर संवाद चलता रहता है। भाखा और भाखा के विविध स्थानीय रूप संस्कृत और फारसी जैसी शास्त्रीय भाषाओं से बहुत कुछ आत्मसात कर अपना ‘विकास’ करते हैं। इसलिए यह भी विचार का विषय है कि भाखा के ये विविध रूप संस्कृत और फारसी से किस प्रकार का सम्बन्ध बनाते हैं। यही नहीं, इसके निहितार्थों को विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों, सम्प्रदायों और जातियों की संरचना और उनके अन्तर्सम्बन्ध को समझने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। असल में, भारतीय समाज की आन्तरिक गतिकी (Internal Dynamics)को समझने की कुंजी हिन्दी क्षेत्र के भाषायी अन्तःसम्बन्ध में छिपी है और यदि हम इस अन्तःसम्बन्ध को समझने में सफल हो जाएँ तो भारतीय समाज के उस ‘डायनेमिक’ को डिकोड कर सकते हैं, जिसे अभी तक प्रायः आधुनिकता द्वारा प्रदत्त कोटियों में ढालकर समझने की कोशिश की जाती रही है। असल में, अभी तक हमने क्षेत्रों, भाषाओं/बोलियों, धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों की अस्मिताओं को जिस तरह समझने की कोशिश की है, वह वस्तुतः उन्नीसवीं सदी का औपनिवेशिक आविष्कार है और उसका उपनिवेशवाद से पहले के भारतीय समाज की नैसर्गिक गतिकी से ठीक-ठीक सम्बन्ध नहीं बनता।

धीरेन्द्र वर्मा के उद्धरण के हवाले से ये बात आयी कि हिन्दी क्षेत्र का कोई नाम ही नहीं। जब हमने इस मुद्दे पर विचार करना शुरू किया तो इस ओर ध्यान गया कि हिन्दी क्षेत्र की भाषा का लम्बे समय तक कोई नाम नहीं था। और फिर मन में ये बात कौंधी कि हिन्दी क्षेत्र का अपना नाम न होने के पीछे कहीं ये कारण तो नहीं कि इस क्षेत्र की भाषा का भी काफी समय तक कोई नाम नहीं था। चैदहवीं-पन्द्रहवीं शती में उत्तर भारत में भक्ति-आन्दोलन के प्रवर्तक कबीर की बहुचर्चित पंक्ति हैं-

संस्कीरत है कूप जल, भाखा बहता नीर

कबीर के इस कथन पर विचार करने पर समझ में आता है कि जो संस्कृत नहीं है, वह भाखा (भाषा) है। और भाखा बहते नीर की तरह है। भाखा को बहता नीर कहने का अभिप्राय यह है कि उसका कोई बँधा-बँधाया, सुपरिभाषित और इक्सक्लूसिव रूप नहीं है। इसका स्वरूप लगातार बहते पानी की तरह बहता-बदलता रहता है। एक ही समय में, अलग-अलग क्षेत्रों में इस भाखा के स्वरूप में कुछ न कुछ फर्क दिखायी पड़ता है, क्योंकि इसका अभी कोई मानकीकृत, परिनिष्ठित रूप निर्धारित नहीं किया गया है। इसीलिए इस भाषा का अभी कोई व्यक्तिवाचक नाम नहीं है।

कबीर की इन पंक्तियों को तो हम लम्बे समय से पढ़ते-सुनते आये थे, लेकिन इसका मर्म उद्घाटित हुआ तब, जब उसे धीरेन्द्र वर्मा द्वारा उठायी गई बात के प्रसंग में समझा गया। कबीर ने ये भी लिखा है कि ‘बोली हमरी पूरबी’। इस प्रसंग में ध्यातव्य है कि ‘पूर्वी बोली’ और ‘भाखा में’ कोई द्वन्द्व या टकराव नहीं है। इसलिए इस सम्बन्ध को भाषा बनाम बोली के द्विआधारी विलोम में समझने की गलती नहीं करनी चाहिए। ऐसी गलती विभिन्न विद्वानों ने अभी तक दोहरायी है। कबीर की कविताओं की उपलब्ध भाषा में पंजाबी, राजस्थानी और खड़ी बोली के नमूने तो मिलते ही हैं; भोजपुरी और अवधी से प्रभावित पंक्तियाँ भी दिखायी पड़ती हैं। (1958:131)। कहा जाता है कि कबीर की रचनाएँ लगभग डेढ़ सौ सालों तक वाचिक परम्परा में चलती रहीं, फिर उन्हें लिपिबद्ध किया गया। इसलिए कबीर की उपलब्ध रचनाओं पर उस क्षेत्र-विशेष की भाखा की छाप दिखायी पड़ती है, जिस क्षेत्र-विशेष में उसे लिपिबद्ध किया गया। इसलिए ये दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि कबीर ने भाखा के विभिन्न क्षेत्रीय मुहावरों में अपनी बानियाँ गायीं। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात ये है और इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि इन अलग-अलग क्षेत्रीय मुहावरों में उपलब्ध रचनाएँ समूचे हिन्दी क्षेत्र में गायी, पढ़ी, सुनी और समझी जाती रही हैं। क्षेत्रविशेष के मुहावरे या भाषा के कारण उसकी व्याप्ति या संप्रेषणीयता बाधित नहीं होती, क्योंकि क्षेत्रीय भाषायी वैभिन्नय के बावजूद ये भाखा में लिखी गयी रचनाएँ हैं, इसीलिए समूचे भाखाक्षेत्र में ये समझी जाती हैं।

कबीर से भी पहले गोरखनाथ की रचनाओं को देखा जा सकता है। गोरखनाथ की उपलब्ध रचनाओं का समय, शिवप्रसाद सिंह के शब्दों में,

13वीं शताब्दी से पहले नहीं माना जा सकता, क्योंकि ये भाषा की दृष्टि से उतनी पुरानी नहीं मालूम होतीं। (1958: 135)।

शिवप्रसाद जी ने गोरखनाथ की काव्यभाषा में ‘भाखा-क्षेत्र’ के चार रूपों के प्रयोग का उल्लेख किया है, जो इस प्रकार हैं: पूर्वी, राजस्थानी, खड़ी बोली और ब्रजभाषा। (1958: 135-138)। कबीर की तरह ही गोरखनाथ की उपलब्ध कविताओं के चार या उससे भी अधिक रूप समूचे हिन्दी क्षेत्र में समझे जाते हैं।

सुदीप्तो कविराज ने अपने एक लेख में लिखा है कि भारत में भाषाओं की चैहद्दियाँ बहुत धुँधली हैं। एक भाषा कहाँ खत्म होती है और दूसरी भाषा कहाँ शुरू होती है, ये तय कर पाना प्रायः आसान नहीं। इसका कारण यह है कि एक भाषा कहीं खत्म नहीं होती, वह दूसरी भाषा में क्रमशः रूपान्तरित होने लगती है। एक भाषा के दूसरे भाषा में संक्रमण और रूपान्तरण का क्षेत्र कई बार काफी बड़ा दिखायी पड़ता है और इस क्षेत्र की भाषा को किसी भी भाषायी चौखटे में फिट कर पाना लगभग असंभव हो जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में यदि भाखा-क्षेत्र के विभिन्न स्थानीय भाषा रूपों को समझने का प्रयास करें तो यह स्पष्ट होता है कि इन स्थानीय रूपों को स्वतंत्र भाषा के रूप में अलगाना ही असंभव है। क्योंकि कबीर के शब्दों में भाखा बहता नीर है और समतल मैदान पर बहने वाले भाखा के नीर में ऐसी ऊँचाई या गहराई नहीं दिखायी पड़ती जिसके आधार पर इसे स्वतंत्र भाषाओं में बाँटा जा सके। वैसे तो कहावत है कि चार कोस पर भाषा बदल जाती है, लेकिन इस तरह के बदलाव की बुनियाद पर स्वतंत्र भाषाओं की कल्पना नहीं की जा सकती। क्योंकि अन्ततः ये भाखा के ही क्रमशः परिवर्तित हो रहे रूप हैं। इनमें पारस्परिक साम्य इतना अधिक और परिवर्तन इतना क्रमिक है कि सुदीप्तो कविराज का दो भाषाओं के बीच धुँधली सीमा-रेखा का मॉडल यहाँ लागू नहीं होता। संभवतः इसीलिए भाखा के रचनाकार कई स्थानीय रूपों का एक साथ और कई बार उन्हें मिलाकर प्रयोग करते हैं। ऐसा करने में न तो उन्हें कोई मुश्किल होती है और न ही पाठक/श्रोता को समझने में कोई दिक्कत आती है। सम्भवतः इसीलिए भाखा-क्षेत्र के स्थानीय भाषायी रूपों को फारसी/संस्कृत या अपभ्रंश से मिलाकर रेख्ता और सधुक्कड़ी के रूप में मिलीजुली भाषाएँ विकसित करने और उनमें साहित्य लिखने का चलन दिखायी पड़ता है। स्थानीय रूपों को मिलाकर एक मिलीजुली भाषा गढ़ लेने का ऐसा प्रयास इसीलिए स्वीकार्य और लोकप्रिय हुआ, क्योंकि इन स्थानीय रूपों में स्वतंत्र भाषा का स्वरूप ग्रहण करने लायक भिन्नता न थी। यह अकारण नहीं कि इस तरह की मिलीजुली भाषा का चलन भाखाक्षेत्र के अलावा भारत के किसी और क्षेत्र में नहीं दिखायी पड़ता। रामविलास शर्मा की जाति-महाजाति की थीसिस से इस प्रक्रिया की समुचित व्याख्या नहीं होती। यही नहीं, ये थीसिस भाखा-क्षेत्र के बाहर किसी दूसरे क्षेत्र पर लागू भी नहीं की जा सकती।

कबीर सहित ज्यादातर सन्तों की बानियों की भाषा को हिन्दी में सधुक्कड़ी भाषा कहने का चलन रहा है। सधुक्कड़ी कहने का मतलब ही है कि उन्होंने किसी क्षेत्र विशेष की भाषा का प्रयोग नहीं, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों की भाषाओं के मिलेजुले रूप का प्रयोग किया है। विद्वानों ने सधुक्कड़ी भाषा की बुनियाद खड़ी बोली से निर्मित मानी है और इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि खड़ी बोली को मुसलमान शासकों द्वारा धार्मिक और राजनीतिक कारणों से प्रोत्साहन मिला। शिवप्रसाद सिंह के शब्दों में,

14वीं-15वीं शताब्दी का सन्त-आन्दोलन भारतीय वैधी भक्ति परम्परा का विरोधी था, उस काल के सन्तों ने इस नई भाषा को स्वीकार किया, कुछ तो अपने उपदेशों के प्रचार के लिए, लेकिन ज्यादा इसलिए कि वे शिष्ट वर्ग की साहित्यिक भाषा से वाकिफ नहीं थे। (1958: 138)।

शिवप्रसाद जी ने आगे ये भी लिखा है कि

संतो की वाणियों की भाषा का अध्ययन करने पर मालूम होता है कि ये कवि क्रान्तिकारी ओजस्वी उपदेशों, रूढि़-खण्डन, पाखण्ड-विरोधी या उसी प्रकार के परम्पराप्रथित विचारों का विच्छेदन करने के लिए जिस भाषा का प्रयोग करते थे, वह नवोदित खड़ी बोली थी, किन्तु अपने साधना के सहज विचारों, रागात्मक उपदेशों, निजी अनुभूति की बात ब्रज भाषा में करते थे। रेख्ता या खड़ी बोली शैली में बाद में कुछ पद भी लिखे गए, किन्तु पदों की मूल भाषा ब्रज ही रही। (1958: 138)।

खड़ी बोली/रेख्ता और सन्त कवियों की क्रान्तिकारी और रूढि़-भंजक सधुक्कड़ी भाषा असल में मिलीजुली भाषाएँ हैं, जिनमें भाखा-क्षेत्र के विभिन्न रूपों का प्रयोग किया गया है। इमरे बंघा रेख्ता की कविता को मिलीजुली भाषा में लिखी गई कविता कहते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया है कि दक्खिन से वली के उत्तर उत्तर आने (1700 ई०) के बाद उत्तर भारत में मिलीजुली भाषा अर्थात् रेख्ता में कविता लिखने का सिलसिला कमजोर पड़ गया, क्योंकि उसी के बाद रेख्ता के फारसीकरण की शुरूआत हुई (2010)।

खड़ी बोली में साहित्य-लेखन का उल्लेख चैदहवीं सदी से मिलता है, लेकिन सोलहवीं सदी से पहले खड़ी बोली में लिखे गए साहित्य का कोई साक्ष्य नहीं मिलता। खड़ी बोली का साहित्य कई लिपियों में लिखा गया; जैसे फारसी, अरबी, देवनागरी, गुरुमुखी, कैथी इत्यादि। इससे ये बात भी स्पष्ट होती है कि भाषा और लिपि का कोई सीधा सम्बन्ध यहाँ नहीं दिखायी पड़ता, क्योंकि भाषा कई लिपियों में लिखी जा सकती है और लिखी गई। इसीलिए रेख्ता सिर्फ फारसी लिपि में नहीं लिखी गई, नागरी लिपि में भी लिखी गई। यही नहीं, रेख्ता में सिर्फ मुसलमानों और सूफियों ने साहित्य नहीं लिखा, बल्कि निर्गुण सन्तों और कृष्णभक्त कवियों ने भी लिखा। मुगलों और दूसरे मुसलमान शासकों के दरबारों में ही नहीं, सत्रहवीं सदी के राजस्थान के हिन्दू रजवाड़ों के दरबारों में भी रेख्ता लिखी गई। अलग-अलग समय व क्षेत्र में फारसी के अतिरिक्त अवधी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली, पंजाबी और अपभ्रंश की मिलावट करके रेख्ता बनायी गई।

यह सही है कि शुरुआती रेख्ता मुसलमानों के बीच विकसित हुई और इसे खड़ी बोली के बजाय ब्रजभाषा का आधार बनाकर लिखा गया। खड़ी बोली का मुसलमानों से सम्बन्ध बाद में स्थापित हुआ। सोलहवीं सदी तक आते-आते नागरी लिपि और भारतीय छन्दों में खड़ी बोली को आधार बनाकर और फारसी का मिश्रण कर रेख्ता में कविताएँ लिखने का चलन काफी बढ़ गया। इस तरह की मिलीजुली भाषा में कविता लिखने का सबसे प्रमुख साक्ष्य दादू दयाल की रचनाओं में दिखायी पड़ता है। दादू की रचनाओं में आठ भाषाओं/बोलियों के नमूने आसानी से पहचाने जा सकते हैं। किन्तु सत्रहवीं सदी के ज्यादातर सन्त कवियों ने रेख्ता में कविताएँ नहीं लिखी। यहाँ तक कि दादू दयाल के शिष्यों में भी रेख्ता में कविताएँ लिखने का चलन नहीं दिखायी पड़ता है। इसका कारण ये है कि सत्रहवीं सदी के निर्गुन सन्त कवियों ने अपनी एक मिलीजुली भाषा विकसित कर ली, जिसे हिन्दी के विद्वानों ने सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी कहा है।

अठारहवीं सदी में रेख्ता उर्दू में तब्दील हो गयी। ये भी दिलचस्प तथ्य है कि अठारहवीं सदी में, शेल्डन पोलक के शब्दों में कहें तो, ब्रजभाषा का कॉस्मोपोलिटन वर्नाक्युलर के रूप में वर्चस्व स्थापित होता है। निष्कर्ष ये कि अठारहवीं सदी से पहले तक सधुक्कड़ी और रेख्ता में व्यापक स्तर पर साहित्य रचा गया। यहाँ तक कि उन पदों पर, जिनकी मूलभाषा शिवप्रसाद जी ने ब्रज बतायी है, रेख्ता की छाप दिखायी पड़ती है। इसे ही इमरे बंघा (2010) ने हिन्दी रेख्ता कहा है।

भाखा-क्षेत्र और भाखा-क्षेत्र के विभिन्न स्थानीय रूपों के अन्तर्सम्बन्ध और फिर उनके बीच से दो कॉस्मोपोलिटन वर्नाक्युलर-ब्रजभाषा और हिन्दी/उर्दू के विकास के इतिहास को समझने के लिए ये जानना जरूरी है कि रेख्ता और सधुक्कड़ी से क्या आशय है। इमरे बंघा (2010) ने लिखा है कि ‘मैं उस किसी भी कविता को रेख्ता कहूँगा, जो ‘वृहद्’ फारसी, गुरुमुखी, कैथी लिपि में लिखी गयी हो और जो वर्नाक्युलर हिन्दवी (जिसमें ब्रजभाषा शामिल है) तथा कॉस्मोपोलिटन फारसी का सचेत रूप से मिश्रण करती हो। ये रेख्ता सधुक्कड़ी से भिन्न है। सधुक्कड़ी सन्तों द्वारा प्रयुक्त स्वतःस्फूर्त ढंग से मिश्रित साहित्यिक भाषा है। इसमें उत्तर भारतीय बोलियों और भाषाओं की मिलावट है। यद्यपि सधुक्कड़ी में संस्कृत, अरबी और फारसी के शब्द भी आ जाते हैं, फिर भी ये विभिन्न वर्नाक्युलर्स के स्वतःस्फूर्त मेल से बनी भाषा है।’ बंघा (2010) के अनुसार एक साहित्यिक भाषा के रूप में रेख्ता का निर्माण सोलहवीं या पन्द्रहवीं सदी में सूफियों द्वारा किया गया। इसे मुगल दरबार से प्रोत्साहन मिला। इसका प्रयोग निर्गुण कवियों, जनमसाखी सिक्खों, कृष्ण भक्तों, राजस्थान के सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के दरबारी कवियों और मिली-जुली संस्कृति के पुरस्कर्ता अन्य रचनाकारों द्वारा किया गया। यहाँ ये बात ध्यान में रखने की जरूरत है कि सूफी संतों ने उत्तर भारत में जिस प्रकार की हिन्दवी की हिमायत की वह कई बार खड़ी बोली या रेख्ता के बजाय ब्रजभाषा के ज्यादा नजदीक है। इमरे बंघा ने इसी लेख में विभिन्न विद्वानों द्वारा बताये गये भाषायी संकरता के कारणों का उल्लेख किया है। लेकिन हमारे इस लेख के प्रसंग में भाखा-क्षेत्र में घटित होने वाली भाषायी संकरण की प्रक्रिया की तुलना किसी और क्षेत्र में घटित भाषायी संकरण की प्रक्रिया से नहीं की जा सकती। क्योंकि भाखा-क्षेत्र के स्थानीय रूपों के बीच क्रियारूपों और उच्चारण के ढंग के अतिरिक्त साम्य इतना अधिक रहा है कि एक स्थानीय रूप को दूसरे क्षेत्रों में समझने में कोई खास दिक्कत नहीं होती थी। इसीलिए इस क्षेत्र के ज्यादातर कवि एक से अधिक स्थानीय भाषायी रूपों में कविताएँ रचते थे। यही नहीं, सधुक्कड़ी या रेख्ता के रूप में विभिन्न स्थानीय भाषायी रूपों को मिलाकर साहित्य लिखने का भी यहाँ खूब चलन रहा है। इसका निहितार्थ ये है कि भाषा के किसी स्थानीय रूप में साहित्य लिखने के साथ-साथ भाषा-क्षेत्र के विभिन्न स्थानीय रूपों को मिलाकर साहित्य लिखने की प्रवृत्ति यहाँ भक्ति-आन्दोलन के प्रारम्भ से ही अर्थात् लोकभाषाओं में साहित्य लिखने की प्रक्रिया की शुरुआत के साथ ही दिखायी पड़ती है। इसी वजह से भाखा-क्षेत्र के स्थानीय रूपों की स्वतंत्र भाषा के रूप में पहचान बनाने की कोई सचेत कोशिश यहाँ कभी नहीं की गयी। सधुक्कड़ी के रूप में विभिन्न भाषायी रूपों को मिलाने की परिणति अन्ततः ब्रजभाषा के विकास के रूप में दिखायी पड़ती है। अठारहवीं सदी के ज्यादातर निर्गुण कवियों ने ब्रजभाषा का ही इस्तेमाल किया। स्थानीय भाषा में सचेत रूप से फारसी मिलाकर लिखी जाने वाली रेख्ता की परिणति अन्ततः उर्दू के रूप में हुई। भाखा-क्षेत्र में इन दो काॅस्मोपोलिटन वर्नाक्युलर के अभ्युदय और काफी कुछ उनकी सहज स्वीकृति के कारण इस क्षेत्र के स्थानीय भाषायी रूपों को अलग भाषा के रूप में खड़ा करने का कोई सचेत प्रयास नहीं हुआ। संभवतः इसीलिए राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान राष्ट्र के लिए एक भाषा चुनने का प्रश्न आया तो इस क्षेत्र के लोगों ने बिना किसी विरोध के हिन्दी/उर्दू/हिन्दुस्तानी को राष्ट्र की भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया और अपने क्षेत्रीय भाषायी रूपों को स्वतंत्र भाषा के रूप में मान्यता दिलाने के लिए कोई उल्लेखनीय प्रयास नहीं किया। इस प्रक्रिया की व्याख्या राष्ट्रभाषा के लिए अपनी क्षेत्रीय बोली को कुर्बान कर देने की भावना के रूप में करना पूरी तरह सही नहीं है। क्योंकि यहाँ अपनी क्षेत्रीय बोली के साथ एक मिले-जुले रूप को अपनाने की प्रवृत्ति पहले से रही है।

यह सही है कि इस दौर में क्षेत्रीय भाषायी अस्मिताओं के उभार दिखाई पड़ते हैं। लेकिन ये उभार दूसरी भाषायी अस्मिता के साथ उसके पारस्परिक संबंध का निषेध नहीं करते। अपनी इक्सक्लूसिव निरपेक्ष पहचान बनाने का प्रयास शायद ही कहीं दिखाई पड़ता हो। इसका एक कारण यह है कि जिसे हम क्षेत्रीय भाषायी अस्मिता के रूप में पहचानते हैं, उसके अपने क्षेत्र में ही क्रमशः परिवर्तित होने वाले कई रूप दिखाई पड़ते हैं। उसका कोई मानक रूप नहीं है जिसका उस क्षेत्र में प्रयोग होता हो। इसीलिए भोजपुरी और अवधी के तीन-चार उपरूपों की कल्पना करनी पड़ी। विडम्बना यह है कि ये विभाजन भी किसी ठोस भाषिक व्यवहार पर आधारित नहीं है। इन कल्पित उपरूपों को भी कई टुकड़ों में बाँटा जा सकता है। गाँव की बात तो छोडिए ही, एक ही शहर के अलग-अलग मुहल्लों में एक ही बोली बोलने के रंग-ढंग में फर्क दिखाई पड़ता है। इस तरह के सारे विभाजन और उपविभाजन अन्ततः संदिग्ध हो जाते हैं और उनका कोई ठोस तार्किक आधार नहीं बन पाता। सच तो ये है कि खास तरह की ज्ञान-मीमांसात्मक हिंसा को अंजाम दिए बिना क्षेत्रीय इक्स्क्लूसिव अस्मिताओं का निर्माण ही नहीं हो सकता था। कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि आधुनिक राष्ट्र-राज्य का निर्माण इसी प्रक्रिया के तहत हुआ, और शायद ही ऐसा कोई राष्ट्र बना हो जिसकी निर्माण-प्रक्रिया पूरी तरह शान्तिपूर्वक सम्पन्न हुई हो।

ये सही है कि 14वीं-15वीं शती में रेख्ता और सधुक्कड़ी के अतिरिक्त भाषा-क्षेत्र के कुछ स्थानीय रूपों का भी साहित्य-लेखन के लिए स्वतंत्र रूप से इस्तेमाल किया गया, जैसे अवधी, मैथिली और फिर ब्रजभाषा। लेकिन अभी भी ‘भाषा-क्षेत्र’ के इन स्थानीय रूपों को सिर्फ भाखा या भाषा कहा गया। जैसे सोलहवीं सदी के अवधी के कवि तुलसीदास, अवधी में लिखने के बावजूद, अपनी भाषा को भाखा कहते हैं। सत्रहवीं सदी तक भाखा क्षेत्र की भाखा के सभी स्थानीय रूपों को भाखा ही कहा जाता था। 1676 में मिर्जा खाँ ने ‘तुहफतुलहिन्द’ में संस्कृत और प्राकृत के अतिरिक्त भाषा-क्षेत्र के सभी स्थानीय रूपों को भाखा कहा है। यद्यपि ‘ज़बाने अहले ब्रज’ का जिक्र भी उनके यहाँ आता है। फकीरुल्लाह मिर्जा खाँ के समकालीन थे और उन्होंने ब्रज मण्डल की भाषा को ‘सुदेश’ की भाषा कहा है। गोपाल नामक कवि ने अवश्य ‘रसविलास’ नामक ग्रन्थ में ब्रजभाषा शब्द का प्रयोग इससे पहले किया है। माना जाता है कि ज्ञात और उपलब्ध स्रोतों में यह ‘ब्रजभाषा’ शब्द का सबसे पुराना प्रयोग है। लेकिन ब्रजभाषा शब्द का बड़े पैमाने पर चलन अठारहवीं सदी में ही दिखायी पड़ता है। क्योंकि सत्रहवीं सदी के ही प्रसिद्ध कवि केशवदास ने कविताएँ तो ब्रजभाषा में लिखीं, लेकिन उसे ब्रजभाषा नहीं, सिर्फ भाषा कहा। इससे ये सिद्ध होता है कि गोपाल कवि के द्वारा ब्रजभाषा शब्द का प्रयोग करने के बावजूद 17वीं सदी में भी भाषा या भाखा का ही प्रयोग ब्रजभाषा  के लिए किया जाता था। केशवदास ने लिखा है:

भाषा बोलि न जानहि जिनके कुल के दास/भाषा में कविता करी, जड़मति केशवदास।।

केशवदास लिखते हैं ब्रजभाषा में, लेकिन उसे कहते हैं भाषा। केशवदास की तरह तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखा अवधी में, लेकिन कहा कि ये भाषा में लिखा गया है। तुलसीदास की पंक्तियाँ देखिए:

(प) भाखाबद्ध करौं मैं सोई, मोरे मन प्रबोध जो होई।।

(पप) स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा

            भाषा निबद्ध मति मंजुलमातिनोति।।

बनारसीदास जैन ने अपनी आत्मकथा ‘अर्द्धकथानक’ (1641) में ब्रजभाषा को ‘मध्यदेश की बोली’ कहा है। केशवदास के तरह ही चिन्तामणि त्रिपाठी ने 1675 में लिखित ‘कविकल्पतरु’ (1875) में सुर वाणी की कविता के बजाय भाषा कवित्त की बात की है। भाषा के आगे ब्रज का इस्तेमाल उन्होंने भी नहीं किया है। हरिहर निवास द्विवेदी (1955) ने लिखा है कि बंगाली वैष्णव भक्तों के प्रभाव से ब्रजभाषा शब्द का चलन 17 वीं सदी में बढ़ा। इनके अनुसार मध्यदेश की बोली के साथ-साथ ‘मध्यदेशिया भाषा’ का भी ब्रजभाषा के लिए प्रयोग होता था। किशोरी लाल (1971) ने दिखाया है कि फारसी विद्वानों के बीच ब्रजभाषा के लिए ‘ज़बाने ग्वालियर’ पद का चलन था।

रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ‘‘मुसलमान लोग भाषा शब्द का व्यवहार साहित्यिक हिन्दी भाषा के लिये करते थे जिसमें आवश्यकतानुसार संस्कृत के शब्द आते थे-चाहे वह ब्रज भाषा हो, चाहे खड़ी बोली। तात्पर्य  यह कि संस्कृतमिश्रित हिन्दी को ही उर्दू फारसीवाले ‘भाषा’ कहा करते थे। ‘भाखा’ से खास ब्रजभाषा का अभिप्राय उनका नहीं होता था, जैसा कुछ लोग भ्रमवश समझते हैं। जिस प्रकार वे अपनी अरबी फारसी मिली हिन्दी को ‘उर्दू’ कहते थे उसी प्रकार संस्कृत मिली हिन्दी को ‘भाखा’। भाषा का शास़्त्रीय दृष्टि से विचार न करनेवाले या उर्दू की ही तालीम खास तौर पर पाने वाले कई नए-पुराने हिन्दी लेखक इस ‘भाखा’ शब्द के चक्कर में पड़कर ब्रजभाषा को हिन्दी कहने में संकोच करते हैं। ‘खड़ीबोली पद्य’ का झंडा लेकर घूमनेवाले स्वर्गीय बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री चारों ओर घूम घूमकर कहा करते थे कि

अभी हिन्दी में कविता हुई कहाँ, सूर, तुलसी, बिहारी आदि ने जिसमें कविता की है वह तो ‘भाखा’ है, ‘हिन्दी’ नहीं। संभव है इस सड़े गड़े खयाल को लिए अब भी कुछ लोग पड़े हों।’’ (1988: 285)

शुक्ल जी के ऊपर दिए गए उद्धरण से यह भ्रम फैलने की गुंजाइश लगती है कि भाषा शब्द का प्रयोग मुसलमान साहित्यिक हिन्दी भाषा के लिए करते थे और अरबी-फारसी मिली हिन्दी को उर्दू कहते थे। 19वीं-20वीं सदी के लिए यह बात सही हो तो हो, लेकिन इससे पहले भाषा/भाखा का प्रयोग हिन्दी क्षेत्र के रचनाकारों ने इस क्षेत्र के विभिन्न भाषायी रूपों के लिए किया है। संस्कृत-फारसी से इतर हिन्दी क्षेत्र के स्थानीय भाषायी रूपों के लिए 17वीं सदी तक भाषा/भाखा शब्द का प्रयोग किया जाता रहा। 17वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ब्रजभाषा शब्द का चलन हुआ, इससे पहले ब्रजभाषा को भी सिर्फ भाखा कहा जाता था। असल में, हिन्दी क्षेत्र के रचनाकार जिसे भाखा कहते थे, उसे ही फारसी ग्रंथों में ‘हिन्दवी’, ‘हिन्दुई’ या ‘हिन्दी’ कहा जाता था। 19वीं सदी आते-आते यह जरूर हुआ कि हिन्दी का अर्थ  हिन्दी या उर्दू रह गया और हिन्दी क्षेत्र के बाकी भाषायी रूपों को ही भाखा कहा जाने लगा। दिलचस्प है कि ब्रजभाषा पद चलन में आ जाने के बाद भी हिन्दी प्रदेश के रचनाकारों की भाषा को भाखा ही कहा जाता था। यहाँ तक कि शिवसिंह सेंगर ने 1887 में प्रकाशित ‘शिवसिंह सरोज’ में हिन्दी क्षेत्र के कवियों को भाखा का कवि ही कहा है। (1970: भूमिका)

हिन्दीतर क्षेत्र में भी हिन्दी क्षेत्र की भाषा को भाखा/भाषा कहने के साक्ष्य मिलते हैं। ‘राधामाधवविलासचंपू’ (शक् सम्वत 1575 से 1580 के बीच, 1654 ई०) एक ऐसी रचना है जो शाहजी भोंसले के दरबार में जयरामपिंड्ये द्वारा बंगलौर में लिखी गई। इसमें बारह भाषाओं में कविताएँ लिखी गई हैं। इस ग्रंथ में भी उत्तर भारतीय भाषा के विविध रूपों में लिखी गई कविताओं को सिर्फ भाखा कहा गया है। मराठा और रेख्ता शब्द का प्रयोग तो मिलता है, लेकिन हिन्दी क्षेत्र के विभिन्न स्थानीय भाषा-रूपों का नामोल्लेख कहीं नहीं है, उन्हें सिर्फ भाखा कहा गया है। इस दौर के रचनाकार दूर-दूर तक भ्रमण करते थे और स्थानीय भाषा के विविध रूपों में या उन्हें मिलाकर रचनाएँ करते थे। काशी के कवीन्द्राचार्य सरस्वती के अभिनंदन में विभिन्न कवियों द्वारा लिखे गए ग्रंथ ‘कवीन्द्रचंद्रिका’ का उल्लेख आवश्यक है, जिसमें कुछ नाम ऐसे भी हैं, जो ‘राधामाधवविलासचम्पू’ में भी मिलते हैं। जयरामपिंड्ये का नाम भी ‘कवीन्द्रचंद्रिका’ में है। लेकिन राजमल बोरा के शब्दों में ‘यह निश्चित नहीं है कि ये चम्पू के रचयिता हैं।’(1968: 219) राजमल बोरा ने इन दोनों ग्रंथों के आधार पर जो निष्कर्ष निकाला है, वो ज्यादा महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार

कवि लोग शाहजहाँ के काल में वाराणसी से बंगलौर तक आया जाया करते थे और वे जहाँ-जहाँ जाते वहाँ के कवियों से सम्पर्क स्थापित करते और इनमें विचारों तथा भावों का आदान-प्रदान होता। ( 1968: 220 )

अन्ततः अठारहवीं सदी में न केवल ब्रजभाषा शब्द का प्रयोग बड़े पैमाने पर होने लगता है, बल्कि ये समझाने का भी प्रयास किया जाता है कि ब्रजभाषा का विकास कैसे हुआ। अठारहवीं सदी के अवध क्षेत्र के रहने वाले और काव्यशास्त्र के आचार्य भिखारीदास ने ब्रजभाषा के विकास में छः भाषाओं के योगदान की चर्चा की है:

ब्रजभाषा भाषा रुचिर, कहैं सुमति सब कोई।

मिल संस्कृत पारस्यौ, पै अति प्रगट जु होई।।

ब्रज मागधी मिलै अमर, नाग यवन भाखानि।

सहज पारसी हूँ मिलै, षट विधि कहत बखानि।।

(1957)

ब्रजभाषा के विकास में भिखारीदास ने संस्कृत, फारसी, मागधी, नाग और यवन भाषाओं का उल्लेख किया है। मिर्जा खाँ के ब्रजभाषा व्याकरण से पता चलता है कि प्राकृत को पातालबानी और नागबानी भी कहा जाता था। इसलिए नाग भाषा से आशय प्राकृत भाषा है। शुक्ल जी के अनुसार मागधी का आशय अवधी समेत पूर्वी हिन्दी की सभी बोलियों से है। इससे पहले भाखा शब्द का प्रयोग भाखा-क्षेत्र के किसी भी स्थानीय रूप के लिए किया जा सकता था और किया जाता था। भाखा का मतलब होता था- भाखा-क्षेत्र में बोली जाने वाली भाखा। कबीर ने इसी अर्थ में भाखा को बहता नीर कहा था। भाखा शब्द कबीर के यहाँ भाषा-क्षेत्र के किसी विशिष्ट स्थानीय रूप का सूचक नहीं। भाखा एक भाववाचक संज्ञा है। मिर्जा खाँ के 1676 में लिखित ब्रजभाषा व्याकरण से ये समझ में आता है कि सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध तक आते-आते भाषा शब्द का प्रयोग ब्रजभाषा और भाखा क्षेत्र के सभी स्थानीय रूपों के लिए किया जाने लगा। मिर्जा खाँ ने अपने व्याकरण में संस्कृत, प्राकृत के बाद भाखा का उल्लेख किया है। भाखा के बारे में उन्होंने लिखा है कि

इसमें प्रेमी-प्रेमिका को लेकर अलंकृत कविता लिखी जाती है। ये उस दुनिया की भाषा है, जिसमें हम रहते हैं। इसका प्रयोग संस्कृत और प्राकृत को छोड़कर बाकी सभी भाषाओं के लिए किया जाता है।  (पृ. 34 और 7)

मिर्जा खाँ के इस विवरण से स्पष्ट होता है, जैसा कि पहले कहा गया, भाखा शब्द का प्रयोग अलंकृत या शृंगार रस प्रधान ब्रजभाषा में लिखी गई कविताओं के लिए किया जाने लगा और इसमें संस्कृत और प्राकृत के अतिरिक्त सभी ‘भाषाओं’ को अन्तर्भुक्त मान लिया गया। इसका निहितार्थ ये है कि सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध तक भाखा शब्द का प्रयोग दोनों अर्थों में होता था; एक, भाखा-क्षेत्र के सभी स्थानीय रूपों के लिए और दो, ब्रजभाषा के लिए। जैसे तुलसीदास ने सोलहवीं सदी में भाखा शब्द का प्रयोग भाखा-क्षेत्र के स्थानीय रूप अवधी के लिए किया था, वैसे ही सत्रहवीं सदी में केशव ने भाखा शब्द का प्रयोग भाखा-क्षेत्र के स्थानीय रूप ब्रजभाषा के लिए किया। लेकिन अठारहवीं सदी में ब्रजभाषा में लिखी गई कविताओं को भाषा में लिखी गई कविता कहने के बजाय ब्रजभाषा में लिखी गयी कविता कहा जाने लगा। यही नहीं, जैसा कि पहले कहा गया, भाखा क्षेत्र के अन्य स्थानीय रूपों को ब्रजभाषा में अन्तर्भुक्त मान लिया गया। शेल्डन पोलक के शब्दों में, भाखा क्षेत्र में ब्रजभाषा की स्थिति काॅस्मोपोलिटन वर्नाक्युलर जैसी बन गई।(1998: 6-37)इसके बावजूद इस दौर के कुछ ऐसे कवि जो सिर्फ ब्रजभाषा में नहीं लिखते हैं, वे अपनी भाषा को नाम देने से हिचकते हैं। जैसे गिरधर कविराय ने उस दौर की भाषा को नर-भाषा कहा है। क्योंकि संस्कृत देवभाषा है, इसलिए मनुष्यों द्वारा व्यवहार में लाई जाने वाली भाषा नर-भाषा हुई। इसलिए नर-भाषा को भाषा/भाखा के पर्याय के रूप में ही लेना चाहिए।

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‘पंजाब का विभाजन करने वाली रेखा कहाँ होनी चाहिए, इस विषय पर दोनों में बहुत चर्चा होती, परन्तु उनमें भी कोई समझौता सम्भव न होता, मिर्जा पाकिस्तान की सीमा में अम्बाला और फीरोजपुर तक सम्मिलित करने के पक्ष में था। उसका तर्क था; पंजाब एक है; उसके टुकडे़ नहीं होने चाहिए।

महेन्द्र आपत्ति करता -‘‘लायलपुर, मिंटगुमरी, सरगोधा और शेखूपुरा की नहरी आबादियों में सत्तर-अस्सी प्रतिशत भूमि और आबादी सिक्खों और हिन्दुओं की है। वे पाकिस्तान में क्यों रहें। क्या वे लोग अपनी भूमि उठाकर हिन्दुस्तान ले जायें? हिन्दुस्तान की सीमा वहाँ ही क्यों न हो!’’

‘‘उन्हें पाकिस्तान में रहने से कौन मना करता है!’’

‘‘तो मुस्लिम प्रधान पंजाब को ही हिन्दुस्तान का अंग बना रहने में क्या आपत्ति है?’’ प्रकट में झगड़ा न होने पर भी दोनों की बातचीत कम होती जा रही थी।’’ यशपाल, (2010: 232-233)

भारत में पश्चिम के ‘लैंग्वेज नेशन प्रोजेक्ट’ के तहत उन्नीसवीं सदी में भाषा के क्षेत्रीय रूपों की इक्स्क्लूसिव पहचान बनाने का प्रयास पश्चिम और भारत के विद्वानों ने किया। लेकिन सदियों से चली आ रही पारस्परिक संबद्धता की वजह से भाषायी क्षेत्रीय पहचान ने स्वतंत्र राष्ट्र-निर्माण की मांग का रूप नहीं लिया। पश्चिम की वजन पर देखें तो भारत में उतने राष्ट्र बनेंगे जितनी क्षेत्रीय भाषाएँ स्वीकार्य होंगी। क्षेत्रीय भाषायी अस्मिताओं का चाहे जितना विस्तार हुआ हो लेकिन इस प्रक्रिया का कभी भी स्वतंत्र राष्ट्रीय पहचान में रूपान्तरण नहीं हुआ। स्वतंत्र राष्ट्र-निर्माण का आधार भाषा नहीं बन पायी, इसलिए धार्मिक भिन्नता के आधार पर स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का प्रयास किया गया और उसमें सफलता भी हासिल हुई। जैसाकि अमत्र्य सेन (2007) ने अपनी पुस्तक ‘अइडेन्टिटी एण्ड वायलेन्स’ में दिखाया है कि पहचान के कई आयाम होते हैं। सिर्फ धार्मिक आधार पर गढ़ी गई पहचान प्रायः एकायामी और हिंसक होती है। सिर्फ धार्मिक भिन्नता के आधार पर बने राष्ट्रों की विडम्बना यह है कि अपना स्वतंत्र वजूद कायम रखने के लिए उन्हें किसी न किसी रूप में, चाहे-अनचाहे, धार्मिक भिन्न्ता की भावना को हवा देनी पड़ती है। प्रसेनजित दुआरा (2012) ने अपने एक लेख में दिखाया है कि आरम्भिक आधुनिक दौर में विभिन्न सभ्यताओं के बीच पारस्परिक आदान-प्रदान का सिलसिला बहुत तेजी से आगे बढ़ता है। यही कारण है कि उस दौर के इतिहास को भिन्नता नहीं, बल्कि सम्बद्धता के सहारे ज्यादा बेहतर ढंग से व्याख्यायित किया जा सकता है। लेकिन राष्ट्रवाद के अभ्युदय के साथ सम्बद्धता के सूत्रों के निषेध का सिलसिला शुरू हो जाता है और इक्स्क्लूसिव भिन्नताओं पर जोर दिया जाने लगता है।

अठारहवीं सदी के दौरान भाखा-क्षेत्र में दो भाषायी रूपों, जिन्हें आज ब्रज और हिन्दी-उर्दू के रूप में जाना जाता है, का वर्चस्व स्थापित हो गया। हिन्दी-उर्दू की कहानी से तो हम वाकिफ हैं, लेकिन ब्रजभाषा के विस्तार के किस्से को हम भूल चुके हैं। विद्वानों ने इस ओर संकेत किया है कि खड़ी बोली के समानान्तर दक्खिनी और गुर्जरी का विकास सोलहवीं सदी में दिखाई पड़ता है। लेकिन उल्लेखनीय तथ्य ये भी है कि गुजरात समेत भारत के कई क्षेत्रों में अठारहवीं सदी तक ब्रजभाषा का बड़े पैमाने पर विस्तार हो चुका था। इन क्षेत्रों में ब्रजभाषा में कविता लिखने और ब्रजभाषा सिखाने की परम्परा सुदृढ़ हो गई थी। महाराष्ट्र के कवियों ने भी भाखा-क्षेत्र की बानियों में भक्ति की कविताएँ लिखी थीं। इसलिए भाखा-क्षेत्र के अतिरिक्त वृहत्तर भाखा-क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से भाखा-क्षेत्र से अलग पड़ने के बावजूद भाखा-क्षेत्र की बोली/बानियों से प्रभावित होता रहा है और उन्हें प्रभावित भी करता रहा है। कुछ प्रसंगों में तो उसकी भूमिका भाषा-क्षेत्र में घटित होने वाले भाषायी परिवर्तन में निर्णायक रही है।

ये कहना पूरी तरह सही नहीं है कि राष्ट्रवादी आग्रह के कारण समूचे भाखा-क्षेत्र में इस क्षेत्र के स्थानीय रूपों को दरकिनार कर हिन्दी का आरोप कर दिया गया। असल में 19वीं सदी तक आते-आते भाखा-क्षेत्र में इस क्षेत्र के दो कॉस्मोपोलिटन भाषा-रूपों का विकास और वर्चस्व हो चुका था, जिन्हें ब्रजभाषा और हिन्दी/उर्दू के रूप में जाना जाता है।

ये सच है कि 18 वीं सदी में ब्रजभाषा का वर्चस्व भाखा-क्षेत्र और वृहत्तर भाखा-क्षेत्र में कायम हो चुका था। लेकिन शासन-प्रशासन से जुड़ी हुई भाषा होने के कारण उर्दू का प्रयोग ब्रजभाषा की तरह सिर्फ साहित्य-लेखन के लिए नहीं, बल्कि शहरों में वैचारिक आदान-प्रदान तथा प्रशासनिक कार्यों के लिए भी किया जाने लगा था। इसलिए भाखा-क्षेत्र की एक भाषा के रूप में उर्दू/हिन्दी का दावा ब्रज के मुकाबले ज्यादा मजबूत साबित हुआ। ये जरूर है कि खड़ी बोली पर आधारित फारसीकृत उर्दू को हिन्दी बनाने की प्रक्रिया में उस समूचे ऐतिहासिक विकासक्रम को लगभग उलट दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप पहले रेख्ता और फिर 1700 के आसपास फारसी-बहुल उर्दू का विकास हुआ था। उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में भाखा-क्षेत्र के विभिन्न स्थानीय रूपों और फारसी के प्रचलित शब्दों को हटाकर एक तत्सम-प्रधान संस्कृत-बहुल हिन्दी गढ़ने की कोशिश की गयी। इस प्रक्रिया में रेख्ता एवं सधुक्कड़ी की साझी और मिलीजुली विरासत को दरकिनार कर दिया गया।

उन्नीसवीं सदी में भारतेन्दु के द्वारा कविता की भाषा के रूप में ब्रजभाषा को न छोड़ पाने के पीछे ब्रजभाषा की सुदीर्घ साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा की भी भूमिका थी। उल्लेखनीय है कि ब्रजभाषा और उर्दू का अन्तर सिर्फ लिपि और शब्द चयन के कारण नहीं है, सांस्कृतिक विरासत के भिन्न स्रोतों से अपना सम्बन्ध जोड़ने के कारण भी है।

आधुनिक युग की जरूरतों और व्यावहारिक तकाजों की दृष्टि से हिन्दी का एक मानक रूप तय करने के दौरान भाखा के विभिन्न स्थानीय रूपों को पूरी तरह दरकिनार कर हम हिन्दी-क्षेत्र के सांस्कृतिक वैविध्य और उसकी पूर्व परम्परा के साथ न्याय नहीं कर पाये। एक शुद्ध हिन्दी गढ़ने के पीछे औपनिवेशिक प्रभुओं के भाषा-परिवार विषयक चिन्तन का भी छाप सहज ही पहचानी जा सकती है। यह सही है कि समय-समय पर नाना कारणों से इस क्षेत्र में अनेक ऐसे केन्द्र बने, जिनकी पहचान भाखा के स्थानीय रूपों के आधार पर की जा सकती है। किन्तु समस्या यह भी है कि कई क्षेत्रों में भाषा के स्थानीय रूपों का साहित्य-संस्कृति की भाषा के रूप में उन्नयन ही नहीं हुआ। ऐसा क्यों हुआ? संभवतः हिन्दवी/ब्रजभाषा के कॉस्मोपॉलिटन रूप ने इस संभावना का निषेध कर दिया।

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भाखा के इन विविध रूपों में जो साहित्य लिखा गया उसका गहरा सम्बन्ध संगीत और अन्य कला रूपों से रहा है। यह साहित्य एक से अधिक लिपि में लिखा गया है फिर भी अपने प्रदर्शनकारी/वाचिक (¼Performative/recitative) चरित्र  के कारण इसकी पहुँच उन लोगों तक भी होती रही है जो उस लिपि को नहीं जानते, जिसमें इसे लिखा गया। यही नहीं, यह साहित्य अपने प्रदर्शनकारी चरित्र (Performative character) के कारण उन लोगों तक भी पहुँचता है जो आज के मुहावरे में निरक्षर हैं। इसलिए भाषा के लिखित रूप और वाचिकता के बीच गहरे सम्बन्ध पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है।

भाखा के इन विभिन्न रूपों ने अपने विकास के दौरान शास्त्रीय भाषाओं के साहित्य से ही नहीं, लोकसाहित्य से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है। यही नहीं, लोकसाहित्य का चरित्र तो प्रदर्शनकारी है ही, लिखित साहित्य का चरित्र भी प्रदर्शनकारी/वाचिक है। यह वो बिन्दु है जहाँ लोकसाहित्य और लिखित साहित्य पुनः एक दूसरे के सम्पर्क में आ जाते हैं।

विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक-धार्मिक प्रभावों के परिणाम स्वरूप निर्मित अनेक केन्द्र तो हिन्दी-क्षेत्र में दिखाई पड़ते हैं, किन्तु भाखा की ही तरह इन केन्द्रों को पूर्णतः आत्मपूर्ण और दूसरे केन्द्रों से निरपेक्ष कोटियों के रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता। जैसे अवध के केन्द्र में कृष्ण काव्य की परम्परा दिखाई पड़ती है और ब्रज-क्षेत्र में रामकाव्य परम्परा का अभाव नहीं है।एक भाषायी केन्द्र में ही विभिन्न परम्पराओं के बीच संवाद और सह-अस्तित्व दिखायी पड़ता है।ये भी सोचने की जरूरत है कि कोई सांस्कृतिक-धार्मिक परम्परा पूरी तरह नये सिरे से किसी केन्द्र का निर्माण नहीं करती, बल्कि पहले से चली आ रही परम्पराओं से वाद-विवाद-संवाद करते हुए, उस केन्द्र पर एक नयी परत चढ़ाती है। इसलिए किसी केन्द्र का अध्ययन क्षैतिज और लम्बवत दोनों दृष्टियों से किया जाना चाहिए। इसका निहितार्थ यह है कि चली आ रही परम्पराएँ नयी परम्परा को यथावत् स्वीकार नहीं करतीं, बल्कि उसे अपने ढंग से ढालती और बदलती हैं। इसका मतलब यह भी है कि शास्त्रीय परम्पराओं का इन केन्द्रों के इर्द-गिर्द जितना गहरा प्रभाव होगा, उतना गहरा प्रभाव केन्द्र से दूर जाने पर नहीं दिखाई पड़ेगा। इसलिए हिन्दी-क्षेत्र की सांस्कृतिक बनावट को सिर्फ शास्त्रीय परम्परा के केन्द्रों के आधार पर ठीक से व्याख्यायित नहीं किया जासकता। लोकजीवन के दैनंदिन व्यवहार के गंभीर अध्ययन के बिना हिन्दी-क्षेत्र की सांस्कृतिक बनावट की समग्रता को नहीं समझा जा सकता।

स्पष्ट है कि पश्चिमी अध्येताओं ने भारत के भाषायी मानचित्र का अध्ययन, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, भाषा और राष्ट्र की परियोजना के तहत किया। यह स्वाभाविक था कि वे भारतीय भाषाओं की पारस्परिक संबद्धता के बजाय भिन्नता पर जोर देते। मैं पूरी विनम्रता के साथ यह प्रस्ताव करना चाहता हूँ कि भारतीय भाषाओं के चरित्र को भिन्नता के बजाय पारस्परिक सम्बद्धता के पैराडाइम में देखने की जरूरत है। पारस्परिक सम्बद्धता के पैराडाइम में देखने पर भारतीय भाषायी मानचित्र की तस्वीर बहुत कुछ बदल जाती है। और फिर मनमाने ढंग से निर्मित की गई भिन्नता में एकता देखने की कोशिश का खोखलापन भी उजागर हो जाता है। भाषाएँ ही नहीं भारत की क्षेत्रीय संस्कृतियों के संबंध भी पारस्परिक संबद्धता के पैराडाइम में ज्यादा बेहतर ढंग से समझे जा सकते हैं। वह एक स्वतंत्र अध्ययन का विषय है और उसे अंजाम देने के लिए एक नहीं, अनेक लोगों को मिल कर काम करना होगा। लेकिन यह काम अवश्य ही किया जाना चाहिए। क्योंकि इस तरह के काम से ही वास्तविक भारत और उसकी नैसर्गिक गति का बोध संभव होगा और औपनिवेशिक आधुनिकता द्वारा निर्मित की गई भारत की छवि की सीमाओं और विडम्बनाओं का एहसास होगा। और तभी सही मायने में भारत के उत्तर-औपनिवेशिक सांस्कृतिक पुनर्पाठ की शुरुआत होगी।

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अंगे्रजी विभाग, बीएचयू के प्रो० संजय कुमार और प्रो० अर्चना कुमार  के प्रति अपना आभार प्रकट करता हूँ। इस लेख को तैयार करने में मुझे इनके विचारों का लाभ मिला। इस लेख की पांडुलिपि तैयार करने में मेरे प्रिय शोध-छात्रों अशोक सिंह यादव और सुकेश लोहार ने योगदान दिया। उन्हें साधुवाद!

प्रो॰राजकुमार

प्रो॰ राजकुमार।  शोर-शराबे से दूर अध्ययन-अध्यापन में मग्न रहने  वाले युवा-तुर्क हिन्दी आलोचक। भक्ति साहित्य, हिन्दी नवजागरण, भाषा, आधुनिकता, आधुनिक साहित्य, प्रेमचंद, हिन्दी कहानी इत्यादि पर लगातार लेखन।  किताबों में जैसी रुचि इनकी  है,  वह अन्यत्र दुर्लभ ही हो गई है। फिलहाल, घेंट विश्वविद्यालय , बेल्जियम  के हिंदी विभाग में  विजिटिंग प्रोफेसर।इनसे dr.kumar.raj@gmail.com पर संपर्क संभव।

साभार- तद्भव

हिन्दी नवजागरण की परिकल्पना पर पुनर्विचार की जरूरत : राजकुमार

हिन्दी नवजागरण की अवधारणा ज्ञान के विशेष पैराडाइम के अन्तर्गत, जिसे सुविधा के लिए औपनिवेशिक आधुनिकता का पैराडाइम कह सकते हैं, गढ़ी गयी थी। आधुनिकता की ज्ञानमीमांसा के निकष पर ही समस्याएँ चिन्हित की गयीं और उसी के अनुरूप समाधान सुझाए गए। इक्कीसवीं सदी तक आते-आते ज्ञान का यह पैराडाइम बदल गया। पैराडाइम बदलते ही समस्याओं की पहचान और उनके समाधान के स्वरूप में भी बदलाव आ गया। उन्नीसवीं सदी में जन्मी विचारधाराओं को यथावत दुहराकर न तो आज की समस्याओं की सम्यक् पहचान संभव है और न ही उनका समाधान। इसलिए हिन्दी नवजागरण की परिकल्पना और उसके द्वारा सुझाए गए विकल्पों पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। क्योंकि पुराने पैराडाइम के तहत दिये गये जो उत्तर पहले सही लगते थे, वे अब कारगर नहीं लगते। इसी परिप्रेक्ष्य में हिन्दी नवजागरण की अवधारणा और उससे जुड़ी समस्याओं को नये सिरे से समझने की शुरूआती कोशिश इस लेख में की गयी है।   # लेखक

सहमत से साभार-संपादित

सहमत से साभार-संपादित

By राजकुमार

1857 के विद्रोह में मध्यवर्ग और व्यवसायियों/उद्यमियों की भूमिका प्रायः नगण्य रही है। किन्तु विद्रोह के बाद घटित होने वाले नवजागरण और राष्ट्रीय आन्दोलन में इन्हीं दो वर्गों की केन्द्रीय भूमिका रही। नवजागरण और राष्ट्रीय आन्दोलन में नेतृत्व इन्हीं दो वर्गों के हाथ में रहा। 1857 के विद्रोह और परवर्ती नवजागरण के चरित्र में जो अन्तर दिखायी पड़ता है, उसकी व्याख्या इनके वर्ग-चरित्र में आये बदलाव के सहारे की जा सकती है। इसी कारण नवजागरण कालीन चिन्तकों के दृष्टिकोण में अंग्रेजी राज के प्रति एक खास तरह की दुविधा दिखायी पड़ती है। वे अंग्रेजी राज की तारीफ करते हैं किन्तु साथ ही कुछ मुद्दों पर उसकी आलोचना भी करते हैं। इस दुविधा को इतिहासकार सुधीर चन्द्र ने अपनी पुस्तक आप्रेसिव प्रेजेण्ट में ‘एम्बीवैलेन्स’ का नाम दिया है। ‘एम्बीवैलेन्स’ का हिन्दी में ‘आविकर्षण’ के रूप में अनुवाद किया गया है। नवजागरण कालीन चिन्तकों में राष्ट्रभक्ति-राजभक्ति, स्त्रियों की स्वाधीनता और मुसलमानों को लेकर दुविधा दिखायी पड़ती है। ऐसा आविकर्षण केवल हिन्दी नवजागरण तक सीमित नही है, दूसरी भाषाओं के नवजागरण में भी इन मुद्दों को लेकर ऐसा ही आविकर्षण मौजूद है।

इतिहासकार रंजीत गुहा ने अपनी पुस्तक ‘सम एलीमेंट्री ऐस्पेक्ट्स  ऑफ पीजेंट इनसर्जेन्सी इन कॉलोनियल इंडिया’ में लिखा है कि 57 के विद्रोहियों के दृष्टिकोण में अंग्रेजी राज के प्रति एक सचेत शत्रुता का भाव था। वे अंग्रेजी राज को उखाड़कर अपना शासन कायम करना चाहते थे और अंग्रेजी राज की किसी भी सकारात्मक भूमिका को स्वीकार नहीं करते थे। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने अपने एक निबंध ‘1857 और हिन्दी नवजागरण’ में भारतेन्दु युगीन हिन्दी नवजागरण के चिन्तकों के दृष्टिकोण और 57 के विद्रोहियों के दृष्टिकोण में दिखायी देने वाले अन्तर की विस्तार से चर्चा की है। वे रामविलास शर्मा के इस तर्क से सहमत नहीं हो पाते कि भारतेन्दु युग हिन्दी नवजागरण का दूसरा चरण है। उल्लेखनीय है कि रामविलास शर्मा 1857 के विद्रोह को हिन्दी नवजागरण का प्रथम चरण मानते हैं और भारतेन्दु युग को उसकी निरन्तरता में दूसरा चरण। लेकिन जैसाकि ऊपर कहा गया, हिन्दी नवजागरण को 1857 के विद्रोह की निरन्तरता में देखना सही नहीं है। 1857 के विद्रोह और हिन्दी नवजागरण के बीच अंग्रेजी शासन के प्रति दृष्टिकोण में आये अन्तर के साक्ष्य पर 57 और भारतेन्दु युग के बीच निरन्तरता से ज्यादा विच्छिन्नता के तत्व परिलक्षित होते हैं।

भारतेन्दु युगीन हिन्दी नवजागरण की एक बड़ी समस्या यह है कि इसमें कथित उर्दू परम्परा में लिखे गये साहित्य की चर्चा ही सिरे से गायब है। हिन्दी नवजागरण की शुरूआत ही भारतेन्दु के इस कथन से मानी गयी है कि 1873 में हिन्दी नये चाल में ढली। उर्दू को आप हिन्दी की शैली मानें या उसकी परिकल्पना को ही अस्वीकार करें, लेकिन सच्चाई है कि हिन्दी के नये चाल में ढलने से पहले उर्दू में साहित्य लिखने का सिलसिला शुरू हो चुका था। इसलिए फारसी लिपि या उर्दू में फारसी-अरबी के शब्दों को जबर्दस्ती ठुँसने की आलोचना करने के बावजूद हिन्दी जाति के नवजागरण की चर्चा से उर्दू में लिखे गये साहित्य को आप बाहर नहीं कर सकते। ऐसा करने से  उसकी साम्प्रदायिक परिणति की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं और अन्ततः वही हुआ भी। मुख्य बात यह है हिन्दी क्षेत्र की व्यापकता और भाषायी जटिलता के कारण यहाँ ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न हुईं कि तेलगू, बांग्ला या मराठी की तरह हिन्दी का कोई एक रूप सुनिश्चित करना और बाकी रूपों को बाहर कर देना सभी को स्वीकार्य निर्णय नहीं बन पाया। फारसी और फिर उर्दू की परम्परा के विकास के कारण हिन्दी के ही कई रजिस्टर बन गये। कई बार तो एक ही समय में अलग-अलग परम्परा से जुड़े लोग इन रजिस्टरों का अलग-अलग ढंग से उपयोग करते दिखायी पड़ते हैं। समस्या तब उत्पन्न होती है जब हम इनमें से किसी एक रूप के आधार पर हिन्दी का स्वरूप स्थिर करने की कोशिश करते हैं। हिन्दी, हिन्दुस्तानी और उर्दू के बीच खींचतान के समूचे इतिहास को इसी परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए। भारतेन्दु युगीन हिन्दी नवजागरण की समस्या यह है कि उसने हिन्दी का एक सही रूप तय कर बाकी रूपों को प्रकारान्तर से अवैध घोषित कर दिया और उनके बारे में किसी भी प्रकार के चिन्तन-अध्ययन का ही निषेध कर दिया। उर्दू परम्परा में लिखे गये साहित्य को हिन्दी नवजागरण के दायरे से बाहर कर देने के बावजूद भारतेन्दु को इस बात का एहसास था कि उर्दू शायरी की परम्परा से भिन्न खड़ी बोली हिन्दी में कविता लिख पाना आसान नहीं होगा। विद्वानों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि हिन्दी को उर्दू से अलगाने के बावजूद स्वयं भारतेन्दु उर्दू में रसा नाम से कविता क्यों लिखते थे। यही नहीं, इस बात पर भी नये सिरे से विचार किया जाना चाहिए कि नयी चाल की हिन्दी के समर्थक भारतेन्दु अपनी ज्यादातर कविताएँ ब्रज भाषा में क्यों लिखते हैं। खड़ी बोली में तो उन्होंने ‘अमीर खुसरों के वजन पर सिर्फ मुकरिया ही लिखी। एक खास तरह की हिन्दी की वकालत करने के बावजूद भारतेन्दु के लेखन में उर्दू और ब्रज भाषा की उपस्थिति बहुत ही महत्वपूर्ण है। यदि गम्भीरता से विचार किया जाये तो इससे हिन्दी क्षेत्र के भाषायी मानचित्र की जटिलता को समझने में मदद मिल सकती है।

असल में भारतेन्दु संक्रमण कालीन दौर के रचनाकार-चिन्तक हैं, जहाँ कई तरह के विचार और प्रभाव तो सक्रिय है लेकिन इनमें से किसी को निर्णायक बढ़त हासिल नहीं हुई है। भारतेन्दु के रचनात्मक व्यक्तित्व में कई धाराएँ-उपधाराएँ सक्रिय दिखायी पड़ती हैं। इसीलिए उर्दू और ब्रज भाषा की साहित्यिक परम्परा के प्रति कम से कम रचनात्मक स्तर पर उनके यहाँ कुछ गुंजाइश बची हुई है।

किन्तु द्विवेदी युग तक आते-आते अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार के परिणामस्वरूप भारत के तत्कालीन चिन्तक इस नतीजे पर पहँुचे कि भारत की पराधीनता का मुख्य कारण ये है कि यहाँ पश्चिमी ढंग के राष्ट्रवाद का विकास नहीं हो पाया। भारत की मुक्ति और एक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में उसके विकास के लिए उसे पश्चिमी राष्ट्रों के वजन पर पुनर्गठित करना होगा। अब इस बात का कोई विशेष महत्व नहीं रह गया कि भारतीय सभ्यता में स्वाभाविक रूप से विकसित होने वाली प्रवृत्तियों को केन्द्र में रखकर ‘आधुनिक’ भारत की परिकल्पना की जाए। इसके बजाय सारा जोर इस ओर चला गया कि भारतीय सभ्यता की उन विशेषताओं को चिन्हित किया जाए, जिन्हें खींच-खाँच कर पश्चिमी राष्ट्रवाद के साँचे में फिट किया जा सके।

द्विवेदी जी समेत उस समय के बुद्धिजीवियों को ये बात सालने लगी कि राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्रवाद की परिकल्पना कैसे संभव होगी। भारत पश्चिमी राष्ट्रों से इस मायने में भिन्न था कि यहाँ कई भाषाएँ बोली जाती थीं। किन्तु सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा के रूप में हिन्दी को खड़ा कर राष्ट्रभाषा बनने के उसके दावे को मजबूत करने के लिए ऐसी हिन्दी की परिकल्पना की गयी, जिसमें हिन्दी के विविध रूपों और तथाकथित जनपदीय भाषाओं/ बोलियों के लिए कोई जगह नहीं बची। इसका परिणाम ये हुआ कि भारतीय सभ्यता में भाषाओं के विकास और उनके पारस्परिक सम्बन्ध को या तो नजरअन्दाज कर दिया गया या उसको समझने का विवेक ही नहीं उत्पन्न हो पाया। यदि समूचे भारत के भाषायी मानचित्र की चर्चा न भी की जाय तो भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि हिन्दी प्रदेश में एक ही समय में अलग-अलग कार्यों के लिए और कभी-कभी एक ही कार्य के लिए हिन्दी के भिन्न-भिन्न ‘रजिस्टर’ का इस्तेमाल होता रहा है। हिन्दी प्रदेश का भाषायी स्वरूप हमेशा बहुभाषी रहा है। भाषायी स्वरूप को लेकर असहमतियाँ हो सकती हैं और होनी भी चाहिए, लेकिन उनके अस्तित्व को ही दरकिनार कर गढ़ी गई हिन्दी नवजागरण की कोई भी परिकल्पना, नेक इरादों के बावजूद, आत्मघाती और अन्ततः साम्प्रदायिक होने के लिए अभिशप्त है।

किसी एक भाषायी रजिस्टर पर केन्द्रित हिन्दी की परिकल्पना से जितनी समस्याएँ सुलझती हैं उससे ज्यादा समस्या पैदा हो जाती है। हिन्दी प्रदेश के भाषायी मानचित्र को जनपदीय बोलियों और राष्ट्रीय भाषा के द्वि-आधारी विरुद्धों में रखकर देखने से उत्तर भारतीय भाषाओं के अन्तर्सम्बन्ध को समझने-समझाने की अभी तक जो कोशिश होती आयी है, उस पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। असल में उत्तर भारतीय भाषाओं को किसी अन्य प्रसंग में लिखे गए ए.के. रामानुजन के वक्तव्य को किंचित परिवर्तित करते हुए कहें तो, एक ही सातत्य या स्पेक्ट्रम के क्रमशः परिवर्तित होते हुए हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए। कई बार इसका एक छोर दूसरे छोर से काफी अलग लगता है, लेकिन है वो उसी स्पेक्ट्रम का हिस्सा। इस स्पेक्ट्रम में दिखायी पड़ने वाले भाषायी परिवर्तन को चोटियों और घाटियों के रूपक के जरिये व्याख्यायित कर सकते हैं। चोटियाँ इस स्पेक्ट्रम के वो बिन्दु हैं, जहाँ उनका अन्तर आत्यन्तिक रूप में दिखाई पड़ता है और घाटियाँ वह स्थल हैं, जहाँ ये तीक्ष्णता क्रमशः ढलान पर उतरते हुए एक दूसरी भाषायी चोटी की ओर चढ़ने लगती है। ये भाषायी घाटियाँ ऐसे  पाॅकेट हैं, जहाँ एक भाषा या बोली का रजिस्टर धीरे-धीरे दूसरी भाषा के रजिस्टर में तब्दील होने लगता है। मनुष्य के शरीर में फैली हुई नसों की तरह ये भाषाएँ परस्पर जुड़ जाती हैं। इनकी सीमाएँ धँुधली, अस्पष्ट और खुली हुई हैं। इसीलिए इन भाषाओं/बोलियों के रजिस्टर दूसरी बोली या भाषा से, आधुनिक युग से पहले तक, जुड़े हुए दिखायी पड़ते हैं। राजनीतिक-आर्थिक सांस्कृतिक कारणों से इनमें से किसी एक भाषायी रजिस्टर का दायरा बढ़ जाता है और उसे ही कुछ लोग भाषा या राष्ट्र की भाषा के रूप में पुरस्कृत करने लगते हैं। इसमें भी कोई हर्ज नहीं, लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब किसी भाषायी रजिस्टर विशेष को राष्ट्र की भाषा के रूप पुरस्कृत करने की प्रक्रिया में अन्य भाषायी रजिस्टरों को जनपदीय बोली के रूप में अवमूल्यित या तिरस्कृत कर दिया जाता है। यहाँ तक कि उन्हें साहित्य और कला की भाषा के रूप में भी आगे जारी रखने के औचित्य का निषेध कर दिया जाता है। यदि हम भाषा और बोली के युग्म में हिन्दी प्रदेश की भाषायी प्रकृति पर विचार करने के बजाय उनके अन्तर्सम्बन्ध के नैरूतर्य पर विचार करें तो हम उन गलतियों को दोहराने से बच सकते हैं, जिनका सामना हिन्दी जाति की एक भाषा खड़ी करने के यांत्रिक रवैये के कारण अभी तक हम करते रहे हैं। उत्तर भारत की भाषाओं/ बोलियों में नैरन्तर्य का एक बड़ा प्रमाण ये है कि क्रिया रूपों अथवा उच्चारण में कुछ अन्तर के बावजूद इनके शब्द भण्डार में कोई विशेष अन्तर नहीं है।

ये सही है कि अठारहवीं शताब्दी में हिन्दी के उस भाषायी रजिस्टर में जिसे आज उर्दू कहते हैं, बोल-चाल के शब्दों को निकालकर फारसी और अरबी के शब्दों की खूब भर्ती की गई। नतीजा ये हुआ कि इस परम्परा में लिखे गये साहित्य का दायरा अरबी-फारसी जानने वाले कुछ अभिजनों तक ही सीमित हो गया और यहाँ की लोक भाषाओं से उसका सम्बन्ध कमजोर पड़ गया। इस प्रवृत्ति की आलोचना करना तो ठीक था, लेकिन इस परम्परा में लिखे गए साहित्य की उपलब्धियों का सिरे से निषेध कर ‘नए चाल में ढली’ हिन्दी में साहित्य लिखने और उसे इस परम्परा से अलग दिखाने के लिए जैसा साहित्य लिखा गया, उसमें इस परम्परा की साहित्यिक उपलब्धियों से कुछ भी न ग्रहण करने का भाव ज्यादा था।

यदि भारतेन्दु युग में उर्दू की परम्परा से नई हिन्दी का सम्बन्ध-विच्छेद हुआ तो द्विवेदी युग की उपलब्धि ये है कि इस दौर में ब्रजभाषा की परम्परा से भी उसे काट दिया गया। रीति विरोधी अभियान चलाकर ये सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि ब्रजभाषा में आधुनिक युग की संवेदना वहन करने की सामथ्र्य नहीं है। ब्रजभाषा में तो पतनशील सामंती मानसिकता की कामुक शंृगारिक कविताएँ ही लिखी जा सकती हैं। रीतिकालीन शृंगारिक कविताओं को ही नहीं, स्त्री लोकगीतों को भी विक्टोरियन नैतिकता के प्रभाव में अश्लील घोषित कर दिया गया जबकि इतिहास यह है कि आधुनिक योरोपीय भाषाओं में भी अपनी क्लासिक साहित्य और ज्ञान को आत्मसात कर कुछ-कुछ वैसा ही साहित्य लिखा गया था जैसा रीतिकालीन कविताओं में दिखाई पड़ता है इस बात को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया कि सूर, मीरा से लेकर न जाने कितने भक्त कवियों ने इसी भाषा में कविताएँ लिखी हैं। रीतिकालीन दौर में भी शंृगारिक कविताएँ लिखने वाले कवियों से ज्यादा ऐसे कवियों की संख्या है, जिन्होंने भक्ति-प्रधान कविताएँ लिखी हैं। यही नहीं, कथित रीतिकाल के दौर में ही 60 से भी अधिक संख्या में वीरकाव्य-लिखे गए हैं। दैनंदिन जीवन से सम्बन्धित समस्याओं पर लिखी गई कविताओं के साथ-साथ नीतिपरक कविताएँ भी इस दौर में कम नहीं लिखी गईं। स्वयं भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, नरोत्तमदास और जगन्नाथ दास ‘रत्नाकर’ जैसे आधुनिक दौर के कवियों के यहाँ भी वैसी कविताएँ नहीं मिलतीं, जिनका रीति-विरोधी अभियान के नाम पर विरोध किया गया। असल में उर्दू के दावे को खारिज करना तो आसान था, लेकिन उर्दू के दावे को खारिज करने के बाद ब्रजभाषा के दावे को खारिज करना बहुत मुश्किल था। साहित्यिक उपलब्धि की दृष्टि से तो खड़ी बोली कहीं से ब्रज भाषा के सामने खड़ी ही नहीं होती। उर्दू को दरकिनार करने के बाद साहित्य की भाषा के रूप में व्यापकता और विस्तार की दृष्टि से भी ब्रजभाषा का दायरा खड़ी बोली के मुकाबले बहुत विस्तृत था। गुजरात से लेकर बंगाल तक ब्रजभाषा में साहित्य लिखने की परम्परा दिखायी पड़ती है। खड़ी बोली के पक्ष में दूसरा तर्क ये दिया गया कि ब्रजभाषा में गद्य का पर्याप्त विकास नहीं हुआ, लेकिन यदि उर्दू परम्परा के विकास को हिन्दी से अलग कर दें, तो उस समय तक हिन्दी में ही गद्य का कौन सा विकास दिखाया जा सकता था। ये सही है कि फोर्ट विलियम काॅलेज, ईसाई मिशनरियों और अन्य लोगों के सहयोग से उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य का तेजी से विकास हुआ। जो शोध हुए हैं, उनके आधार पर ये कहना भी पूरी तरह सही नहीं है कि ब्रजभाषा में गद्य का विकास ही नहीं हुआ। सबसे पुराने व्याकरण और शब्दकोश ब्रजभाषा के ही बनाये गये और अनेक संस्कृत ग्रन्थों का ब्रजभाषा-गद्य में अनुवाद किया गया। इन सारे तथ्यों पर ध्यान देने के बाद ये बात समझ में आती हैं कि रीतिविरोधी अभियान के नाम पर वास्तव में ब्रजभाषा के साहित्यिक-वैचारिक अवदान का निषेध किया जा रहा था।

चूँकि हिन्दी नवजागरण की अवधारणा किसी न किसी रूप में आधुनिकता के प्रोजेक्ट के साये में विकसित हो रही थी और इस प्रोजेक्ट के मुताबिक पहले से चली आ रही सांस्कृतिक और वैचारिक परम्पराएँ व्यर्थ और पिछड़ी हुई मान ली गई थीं, इसलिए आधुनिकता के प्रोजेक्ट को हिन्दी में उतारने के लिए हिन्दी का ऐसा रजिस्टर ज्यादा उपयुक्त लगा, जिस पर परम्परा का कोई बोझ ही नहीं था। खड़ी बोली में आधुनिक युग से पहले साहित्यिक-वैचारिक लेखन की कोई उल्लेखनीय परम्परा नहीं थी, इसलिए उसमें पूर्व परम्परा से सम्बन्ध-विच्छेद करने की कोई जरूरत ही नहीं थी। परम्परा की चिन्ता किये बिना, जो चाहें, जैसे चाहें, लिख सकते थे। उल्लेखनीय है कि मुगलकाल में उर्दू का विकास भी कुछ इसी तरह हुआ था। प्रसिद्ध इतिहासकार मुजफ्फर आलम ने अपने एक लेख में लिखा है कि उर्दू में लेखन के पीछे दो शर्तें लगाई गई थीं, पहली यह कि इसकी लिपि फारसी होगी, दूसरी यह कि बोल-चाल की भाषा में शब्द न उपलब्ध होने पर फारसी या अरबी से शब्द लिये जायेंगे। खड़ी बोली उर्दू में बिल्कुल नये सिरे से साहित्य लिखना ब्रज-भाषा की तुलना में इसलिए आसान था, क्योंकि ब्रजभाषा में साहित्य की एक पूर्व परम्परा थी, जबकि खड़ी बोली में साहित्य लिखने की कोई उल्लेखनीय परम्परा नहीं थी। खड़ी बोली उर्दू की तरह ही खड़ी बोली हिन्दी में जिस तरह के साहित्य-लेखन की शुरूआत हुई, उसका न तो उर्दू की परम्परा से, न ब्रजभाषा की परम्परा से कोई उल्लेखनीय सम्बन्ध दिखायी पड़ता है। लोकसाहित्य की परम्परा से सम्बन्ध स्थापित करने का तो खयाल भी नहीं आता। परम्परा से विच्छेद या परम्परा से मुक्ति के इन दोनों उदाहरणों की विशद चर्चा तो यहाँ संभव नहीं है, फिर भी खड़ी बोली हिन्दी में लिखे गए आधुनिक साहित्य पर दो चार बातें करना बेहद जरूरी है।

रामविलास शर्मा ने लिखा है कि हिन्दी नवजागरण में अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी ज्ञान की कोई उल्लेखनीय भूमिका नहीं रही। थोड़ी रियायत देते हुए उन्होंने ये जरूर जोड़ दिया है कि अंग्रेजी साहित्य की मानवतावादी और प्रगतिशील परम्परा भी रही है और उससे सीखने में कोई हर्ज नहीं। लेकिन आधुनिक हिन्दी साहित्य की गम्भीरता से पड़ताल करने पर ये बात स्पष्ट हो जाती है कि उसकी मूल प्रेरणा और आदर्श अंग्रेजी साहित्य ही रहा है। ज्यादातर आधुनिक हिन्दी साहित्य पश्चिम से प्रेरणा लेते हुए और उसी के मानदण्ड पर लिखा गया है। कहने वाले चाहें तो कह सकते हैं कि ये अंग्रेजी साहित्य की नकल है। लेकिन अंग्रेजी के प्रसिद्ध उत्तर औपनिवेशिक चिंतक होमी भाभा ने नकल में भी अकल की बात करते हुए मिमिक्री और हाइब्रिडिटी (संकरता) के सिद्धान्तों के सहारे औपनिवेशिक देशों में लिखे गए साहित्य के महत्व का बहुत जोर-शोर से प्रतिपादन कहते हुए इस प्रकार के साहित्य की उपनिवेशवाद-विरोधी भूमिका को रेखांकित करने का गंभीर प्रयास किया है। होमी भाभा के इस तर्क को सामान्य रूप से आज भी दोहराया जा रहा है। लेकिन वास्तव में ये एक पैराडाइम शिफ्ट था। प्रसिद्ध इतिहासकार रणजीत गुहा के अनुसार पैराइाइम के इस युद्ध में पश्चिम की विजय हुई; अद्भुत पर अनुभूति की विजय हुई। विद्वानों ने रणजीत गुहा के इस तर्क की आलोचना करते हुए दिखाया है कि पश्चिम के विपरीत भारतीय यथार्थवादी उपन्यास विस्मय, फैन्टेसी और काव्यत्व से पूर्णतः विच्छिन्न नहीं थे। इसलिए ये कहना सही नहीं है कि इस पैराडाइम शिफ्ट के कारण पहले से चली आ रही भारतीय साहित्यिक परम्परा का पूरी तरह निषेध हो गया। ये तर्क सही है, पर असल बात ये है कि इस पैराडाइम शिफ्ट के बाद साहित्य, संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान की बुनियाद आधुनिकता की ज्ञानमीमांसा पर टिक जाती है और भारतीय ज्ञानमीमांसा की परम्परा का इस्तेमाल सिर्फ खाली जगहों को भरने के लिए, एक ऐसा संस्करण तैयार करने के लिए किया जाता है, जिसकी पैकेजिंग भारत में की गई हो। इसे कुछ इस तरह समझना चाहिए, जैसे उत्पादन भले ही भारत में हो रहा हो लेकिन उसकी टेक्नाॅलजी पश्चिम से ली गई हो। इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहना चाहिए कि लिखा भले ही भारतीय भाषाओं में जा रहा है, लेकिन उसका विन्यास और उसकी अन्तर्दृष्टि पश्चिम से ली गई है। भारतीय भाषाओं में लिखने से कोई साहित्य भारतीय नहीं हो जाता और न ही भारतीय भाषाओं में चिन्तन करने से कोई चिन्तन भारतीय हो जाता है।

उत्तर औपनिवेशिक चिन्तकों द्वारा तैयार माॅडल के विकल्प के रूप में मैं एक दूसरे किस्म के माॅडल का प्रस्ताव करने की जुर्रत कर रहा हँू। थोड़ी देर के लिए कल्पना कीजिए कि भारतीय ज्ञानमीमांसा और साहित्यिक परम्परा की नियामक भूमिका को स्वीकार करते हुए आधुनिकता की ज्ञानमीमांसा से भी हमने कुछ तत्व लिये होते तो उसकी सूरत और सीरत कुछ और होती। राजनीतिक और सामाजिक चिन्तन के क्षेत्र में गाँधी ने और काव्य के क्षेत्र में कुछ ऐसी ही कोशिश रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने की थी। किन्तु ये इकलौती कोशिशें थीं और परवर्ती चिन्तकों और रचनाकारों ने इन्हें परम्परावादी, रहस्यवादी कहकर नकार दिया। परिणाम ये हुआ कि साहित्य, संस्कृति और ज्ञान के क्षेत्र में जो भी चिन्तन हुआ उसकी नियामक प्रेरणा पश्चिमी आधुनिकता की ज्ञानमीमांसा से तय होती रही। हिन्दी में तो सामान्य रूप से आज जैसी स्थिति है, वो और भी विडम्बनापूर्ण है। यहाँ तो उस ज्ञान को, जिसका विकास पश्चिम में 30-40 के दशक में हुआ था, आज भी भारतीय चिन्तन के रूप में पूरे भक्तिभाव से दोहराया जा रहा है। जबकि पश्चिम में भी इस ज्ञान को अब कोई तवज्जो नहीं दे रहा। इसीलिए आधुनिक युग में भारतीय भाषाओं में जो साहित्य लिखा गया है, उसमें ज्यादा ऐसा नहीं है, जिसे सही मायने में भारतीय साहित्य कहा जा सके। जो है, वह पश्चिमी आधुनिकता के सर्वव्यापी प्रभाव के बावजूद है।

यह अकारण नहीं है कि यद्यपि आधुनिक हिन्दी साहित्यिक चिन्तन में भक्ति आन्दोलन के महत्व का बढ़चढ़कर बखान किया जाता है, किन्तु विरली ही कोई ऐसी रचना होगी, जिसे पढ़कर लगे कि ये रचना भक्ति संवेदना से गुजकर लिखी गई है। परम्परा का किताबी ढंग से बखान तो खूब किया गया, लेकिन परम्परा से रचनात्मक स्तर पर कुछ भी सीखने और ग्रहण करने के चिन्ह कुछ ही रचनाओं में दिखाई पड़ते हैं। मतलब बिल्कुल साफ है, परम्परा का गुणगान कीजिए और कुछ भी लिखते समय उसे भूल जाइए। कुछ विद्वान गरीबी, भूखमरी, किसान, मजदूर जैसे विषयों पर लिखी गई रचनाओं के आधार पर ये सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि इसकी प्रेरणा भक्तिकालीन साहित्य से आई है। अब उन्हें कौन समझाए कि भक्ति काव्य-संवेदना से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार के विषयों पर लिखी गई रचनाओं का प्रेरणास्रोत पश्चिमी चिन्तन और यथार्थवादी साहित्यिक परम्परा है। भक्ति आन्दोलन न भी होता तो भी इन विषयों पर इसी ढंग से लिखा जाता। दूसरे देशों में, जहाँ भक्ति साहित्य जैसी कोई परम्परा नहीं है, इन विषयों पर थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ इसी ढंग से लिखा गया है। इन विषयों पर लिखी गई रचनाओं को देखने से शायद ही कहीं ऐसी प्रतीति होती हो कि उन्हें भारतीय सांस्कृतिक एवं बौद्धिक परम्परा को आत्मसात करके लिखा गया है। परम्परा के मूल्यांकन से समृद्ध रचनाएँ हिन्दी में ज्यादा नहीं हैं। कुल मिलाकर भारतेन्दु की कुछ रचनाओं, प्रेमचन्द और रेणु के कथा-साहित्य, प्रसाद और मुक्तिबोध की कविताओं के अतिरिक्त कौन सी ऐसी रचनाएँ हैं, जिन्हें भारतीय परम्परा के बीच से निकली हुई रचनाओं के रूप में चिन्हित किया जा सके। विडम्बना ये है कि आधुनिक साहित्य में जहाँ भक्ति साहित्य का सचमुच असर दिखाई पड़ता है, उसे रहस्यवादी कह कर खारिज कर दिया जाता है। इसका सटीक उदाहरण है कि भक्ति काल का सबसे अधिक गुणगान करने वाले रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध की कविताओं को रहस्यवादी कहकर खारिज कर दिया। जबकि उनकी कविता के टेक्स्चर में संत साहित्य की संवेदना की गहरी छाप है। हबीब तनवीर और विजयदान देथा की रचनाओं के बारे में जरूर ऐसा कहा जा सकता है कि वे भारतीय साहित्यिक परम्परा से अनुस्यूत और उसे आगे बढ़ाने वाली रचनाएँ हैं, लेकिन उन पर विचार करने के लिए एक स्वतंत्र लेख की दरकार होगी।

उल्लेखनीय है कि प्रगतिशील लेखक संघ (1936) के पहले घोषणा-पत्र में भक्तिकालीन साहित्य को पलायन का साहित्य कह कर खारिज कर दिया गया था। प्रेमचन्द ने इस अधिवेशन के बहुप्रशंसित अध्यक्षीय भाषण में आधुनिक युग से पहले के समूचे साहित्य को मौजमस्ती और मनबहलाव का साहित्य करार दिया था। बाद में परम्परा के मूल्यांकन के प्रसंग में भले ही उस गलती को दुरुस्त कर लिया गया हो लेकिन रचनात्मक लेखन और वैचारिक चिन्तन के क्षेत्र में परम्परा के सकारात्मक मूल्यांकन से कुछ भी ग्रहण करने की जहमत उठाने के निशान विरले ही दिखाई पड़ते हैं।

पश्चिम में आधुनिकता के अभ्युदय के साथ साहित्य और कलाओं को आधुनिकता के प्रोजेक्ट के सहायक के रूप में देखने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी और उन्नीसवीं शताब्दी में यथार्थवाद के अभ्युदय के साथ अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई। उल्लेखनीय है कि पश्चिम में समाज विज्ञान का विकास विज्ञान की पद्धति की बुनियाद पर हुआ था और इसीलिए समाज का अध्ययन करने वाले शास्त्रों को ‘समाज विज्ञान’ के रूप में प्रतिष्ठित करने पर जोर दिया गया। एंगेल्स ने तो माक्र्स के चिन्तन का महत्व प्रतिपादित करते हुए स्पष्ट रूप से लिखा कि जैसे डार्विन ने प्रजातियों के विकास के नियम खोज निकाले वैसे ही माक्र्स ने समाज के विकास के नियम खोज लिये। यही कारण है कि लम्बे समय तक माक्र्सवाद को समाज के विकास के नियमों की पहचान कराने वाला विज्ञान कहा जाता रहा। फिलहाल इस बहस के विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है, संप्रति विचारणीय मुद्दा ये है कि साहित्य और कलाओं को आधुनिकता के प्रोजेक्ट के अधीन कर देने की परिणति क्या हुई? प्रेमचन्द द्वारा प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अध्यक्षीय भाषण ‘साहित्य का उद्देश्य’ की चर्चा हम पहले कर चुके हैं, इसी क्रम में प्रेमचन्द की उस प्रसिद्ध और बार-बार दोहराई जाने वाली उक्ति के उल्लेख के जरिये हम अपने तर्क को आगे बढ़ाना चाहेंगे। प्रेमचन्द ने कहा था, ‘साहित्य देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है।’ प्रेमचन्द के इस वक्तव्य पर थोड़ा रुककर विचार करें तो ये स्पष्ट हो जाएगा कि प्रेमचन्द यहाँ पर साहित्य के महत्व का जिस प्रकार प्रतिपादन कर रहे हैं, उससे राजनीतिक चिन्तन की केन्द्रीयता का निषेध नहीं होता। यहाँ राजनीतिक चिन्तन के सर्वोपरि महत्व को स्वीकार करते हुए उसी दायरे में और उसी कसौटी पर साहित्य के महत्व को राजनीतिक चिन्तन से भी आगे के कदम के रूप में रेखांकित किया गया है। प्रेमचन्द अक्सर कहते भी थे कि जो काम गाँधी राजनीति में कर रहे हैं, वही काम वो साहित्य के दायरे में कर रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि यहाँ साहित्य के महत्व का प्रतिपादन राजनीतिक प्रोजेक्ट के अधीन ही है, भले ही उसे राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल ही क्यों न कहा गया हो। रामचन्द्र शुक्ल ने भी अपने प्रिय कवि तुलसीदास के साहित्य के मार्फत साधनावस्था के जिस साहित्य को सर्वोत्कृष्ट घोषित किया और जो पहली नजर में ठेठ भारतीय निकष जान पड़ता है, वास्तव में आधुनिकता के विमर्श से बहुत गहरे प्रभावित निकष है। इसलिए यह अकारण नहीं है कि आधुनिक साहित्य के मूल्यांकन के प्रसंग में वे ठाकुर जगमोहन सिंह के उपन्यास ‘श्यामास्वप्न’ के बजाय लाला श्रीनिवासदास के ‘परीक्षागुरु’ को तरजीह देते हैं, क्योंकि वह अंगे्रजी ढंग का नावेल है। इससे यह बात खुलकर सामने आ जाती है कि सब कुछ के बावजूद आधुनिक हिन्दी साहित्य अन्ततः अंग्रेजी ढंग का ही साहित्य है। यह बिल्कुल संभव है कि रामचन्द्र शुक्ल ने जानबूझकर और सचेत रूप से ऐसा न किया हो। लेकिन, जैसा कि कहा जाता है, जादू वही जो सिर चढ़कर बोले; ये आधुनिकता का जादू है, जो हिन्दी के लेखकों-आलोचकों के सिर चढ़कर बोल रहा है। फिर चाहे वो रामचन्द्र शुक्ल हों, महावीर प्रसाद द्विवेदी हों या प्रेमचन्द ही क्यों न हों। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने तो साहित्य को ‘ज्ञानराशि का संचित कोश’ कह कर साहित्य को आधुनिकता के प्रोजेक्ट के अधीन करने की पहले से चली आ रही प्रक्रिया को जैसे उसकी तार्किक परिणति तक पहँुचा दिया। रामचन्द्र शुक्ल ने द्विवेदी जी के साहित्य-विवेक पर सही टिप्पणी की है: 1)‘कवि और कविता कैसा गम्भीर विषय है, कहने की आवश्यकता नहीं। पर इस विषय की बहुत मोटी-मोटी बातें बहुत मोटे तौर पर कही गयी हैं। ….2) द्विवेदी जी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है। एक-एक सीधी बात कुछ हेरफेर -कहीं-कहीं केवल शब्दों के ही- साथ पाँच-छह वाक्यों में कही हुई मिलती है।…3) इन पुस्तकों को एक मुहल्ले में फैली बातों से दूसरे मुहल्ले वालों को कुछ परिचित कराने के प्रयत्न के रूप में समझना चाहिए।’ साहित्य की बुनियादी भूमिका के इस अवमूल्यन का परिणाम ये हुआ कि वह आधुनिकता के विमर्श के इर्द-गिर्द घूमने लगा, कभी उसके पीछे-पीछे तो कभी, प्रेमचन्द के कथन के वजन पर कहें तो, उसके आगे-आगे।

मनुष्य के सामाजिक जीवन को नितान्त भौतिक समृद्धि के परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करने का परिणाम ये हुआ कि जीवन के वे आयाम, जिनकी सिर्फ भौतिक सन्दर्भों में व्याख्या एक सीमा के बाद संभव नहीं है, लेकिन जो भौतिक उपलब्धि से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं, हमारे चिन्तन की परिधि से ही बाहर चले गए। भावनाओं, संवेदनाओं और मानवीय जीवन की अस्तित्वमूलक चिन्ताएँ और मानवीय अस्तित्व की सार्थकता की वे परिकल्पनाएँ, जो भौतिक उपलब्धि से आगे जाती हैं, का भी इस राजनीतिक विमर्श में अवमूल्यन हो गया। यहाँ पर ये ध्यान दिलाने की जरूरत है कि भारतीय चिन्तन परम्परा में मानवीय जीवन के अस्तित्व की सार्थकता को कभी भी सिर्फ भौतिक उपलब्धियों के निकष पर तौलने की कोशिश नहीं की गई थी। बहुत पीछे न भी जाएँ तो भक्तिकालीन साहित्य की बुनियादी संवेदना के सहारे भी इसे समझा और समझाया जा सकता है। असल में साहित्य, संगीत और कलाएँ मनुष्य की संवेदना के उन आयामों को जागृत, उद्दीप्त और समृद्ध करती हैं, जहाँ तक आधुनिकता के ‘एक आयामी’ विमर्श से पैदा होने वाला समाज विज्ञान पहुँच ही नहीं सकता। साहित्य, संगीत और कलाएँ मानवीय अस्तित्व की सार्थकता के उन आयामों को रचती रही हैं, जिनकी चिन्ता आधुनिकता के विमर्श में कम ही दिखाई पड़ती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे मानवीय अस्तित्व की सार्थकता को सिर्फ भौतिक उपलब्धि के निकष पर परिभाषित करने की प्रक्रिया का अतिक्रमण करती हैं। ऐसा नहीं है कि साहित्य और कलाएँ भौतिक समृद्धि, गैर-बराबरी और किसी भी प्रकार के भेदभाव और शोषण को पूरी तरह से नजर अंदाज करती हैं, लेकिन यह जरूर है कि वे भौतिक समृद्धि को मानवीय अस्तित्व की सार्थकता के एकमात्र निकष के रूप में देखने के विमर्श में ढलने से इनकार करती हैं। इसके बजाय वे मानवीय अस्तित्व की सार्थकता के उन आयामों (कल्पित या वास्तविक) को रचती हैं, जिनके सामने भौतिक समृद्धि का पैमाना फीका लगने लगता है।

इतिहासकार ज्ञानेन्द्र पाण्डेय ने अपने लेख ‘गैरियत का गद्य’ में लिखा है कि मनुष्य के आत्यन्तिक दुखों को इतिहास के दायरे में दर्ज कर पाना नामुनकिन है। सुख-दुख, हर्ष-विषाद की आत्यन्तिक मनःस्थितियों के आयाम जिस तरह साहित्य, संगीत तथा कलाओं में आते हैं, वे समाज विज्ञान के विषयों में उस तरह से आ ही नहीं सकते। विडम्बना ये है कि आधुनिकता के साथ पैदा होने वाले समाज विज्ञान के इर्द-गिर्द मंडराने वाला साहित्य अपनी उस बुनियादी भूमिका को चाहे-अनचाहे अप्रासंगिक मानकर छोड़ देता है, जहाँ तक समाज विज्ञान के किसी विषय के लिए पहुँच पाना ही मुश्किल है। उर्दू के कवि मोमिन की एक पंक्ति है, ‘तुम मेरे पास होते हो, गोया जब कोई दूसरा नहीं होता।’ इसी पंक्ति के वजन पर, चाहें तो, कह सकते हैं कि साहित्य और कलाएँ वहाँ भी मनुष्य के पास होती हैं, जहाँ ज्ञान-विज्ञान के दूसरे अनुशासन पहुँच  ही नहीं पाते।

यह अकारण नहीं है कि पहले स्वच्छन्दतावादी और फिर आधुनिकतावादी साहित्य और कलाओं में आधुनिकता के इस ‘एक आयामी’ विमर्श से बाहर निकलने की एक लहूलुहान जद्दोजहद दिखाई पड़ती है। ये सही है कि आधुनिकता के इस लौहपाश से बाहर निकलने में आधुनिक साहित्य और कलाएँ सफल नहीं हुईं, लेकिन इससे उनकी कोशिश का महत्व कम नहीं हो जाता।

महावीर प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य को ज्ञानराशि का संचित कोश मानकर और कविता तथा गद्य के अन्तर को मिटाकर और चाहे-अनचाहे साहित्य को पूर्व औपनिवेशिक परम्परा से काटकर जिस प्रकार के साहित्यिक लेखन को पुरस्कृत किया, उसके आदर्श कवि मैथिली शरण गुप्त ही हो सकते थे। मैथिली शरण गुप्त की कविता को देखकर लगता है कि जैसे समूची भारतीय परम्परा में उनसे पहले कोई कवि ही नहीं हुआ और वे पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने कविता लिखने का बीड़ा उठाया है। संवेदनात्मक दृष्टि से कुछ नैतिक आग्रहों के पद्य में अनुवाद के अतिरिक्त शायद ही ऐसा कुछ हो, जिसके लिए उनकी कविता को पढ़ना जरूरी लगे। समूची भारतीय काव्य परम्परा में कविता की दुनिया कभी भी इतनी इकहरी और एकायामी नहीं रही, जितनी मैथिली शरण गुप्त की कविताओं में दिखाई पड़ती है। स्वाभाविक ही था कि छायावादी काव्य में इस एकायामी इतिवृत्तात्मकता से असंतोष फूट पड़ता। लेकिन जैसा पहले भी उल्लेख किया जा चुका है कि ज्यादातर आधुनिक साहित्य का विकास अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों द्वारा, अंग्रेजों द्वारा स्थापित शिक्षा केन्द्रों यानी विश्वविद्यालयों के परिसर में हुआ। इसीलिए छायावादी कविता में कृत्रिम कल्पनाशीलता तो खूब है, लेकिन वैसी कल्पनाशीलता बहुत कम है, जिनका जन्म एक गहरी बेचैनी से होता है और जिसके साक्ष्य कबीर, जायसी, सूर, मीरा और यहाँ तक कि तुलसीदास के साहित्य में दिखाई पड़ते हैं।

यह अकारण नहीं है कि समूचे प्रगतिवादी, यथार्थवादी और यहाँ तक कि आधुनिकतावादी साहित्य में भी गहरी सांस्कृतिक बेचैनी और उहापोह के ऐसे निशान कम ही दिखाई पड़ते, जिनसे ये प्रतीत हो कि ये समूचा साहित्य भारतीय सभ्यता की उस सुदीर्घ परम्परा में लिखा गया है, जिसमें सब कुछ बुरा ही नहीं है, बहुत कुछ अच्छा भी है।

अन्त में ये कहना अनुचित नहीं होगा कि सही मायने में भारतीय साहित्य में नवजागरण तो तब होगा जब हम आधुनिकता से पहले की साहित्यिक और ज्ञान परम्परा से तथा लोक परम्परा से, आधुनिकता के निकष को अन्तिम सच न मानते हुए, नए सिरे से संवाद स्थापित करेंगे।

प्रो॰राजकुमार

प्रो॰राजकुमार

प्रो॰ राजकुमार।  शोर-शराबे से दूर अध्ययन-अध्यापन में मग्न रहने  वाले युवा-तुर्क हिन्दी आलोचक। भक्ति साहित्य, हिन्दी नवजागरण, आधुनिकता, आधुनिक साहित्य, प्रेमचंद, हिन्दी कहानी इत्यादि पर लगातार लेखन।  किताबों में जैसी रुचि इनकी  है,  वह अन्यत्र दुर्लभ ही हो गई है। फिलहाल, बी॰एच॰यू॰ के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक।इनसे dr.kumar.raj@gmail.com पर संपर्क संभव। 

साभार- नया ज्ञानोदय 

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