भीमराव अम्बेडकर के घरेलू वैद्य आचार्य चतुरसेन शास्त्री
By आचार्य चतुरसेन शास्त्री
अम्बेडकर का वह गम्भीर नाद गूंज उठता है जो उस पुरुषश्रेष्ठ की व्यक्तिगत विशेषता थी। लोग कहते हैं कि वह कानून के असाधारण विद्वान थे। और धर्मशास्त्र के वह कितने गम्भीर मननकर्ता थे, इस बात का साक्षी तो मैं स्वयं हूँ। वह श्रद्धा और अंधविश्वास के झमेले से पाक-साफ रहकर झाड़-झंखाड़ में लिपटी हुई उन सांस्कृतिक बुराइयों को झटपट ताड़ लेते थे, जिनके कारण जातियों का उत्थान-पतन होता है । उनमे यह विवेचना शक्ति उनके पाण्डित्य और अध्ययन के कारण नहीं उत्पन्न हुई थी। वह उस प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुई थी, जो उनमें अभिजात्य हिंदुओं के हाथों मिलनेवाले तिरस्कार के फलस्वरूप आई थी ।
बहुत अरसा हुआ, उन दिनो वह हिन्दू कोड का बिल निर्माण कर रहे थे । हिन्दुत्व पर उनका असाधारण अधिकार था। अछूतो के हितों के लिए उनके हृदय में केवल हमदर्दी और न्याय की कल्पना ही न थी, क्योंकि वह केवल उनके कोरे हिमायती न थे, वह तो उनके साथी और अंग थे। वह चाहे जिस उच्च आसन पर रहे हों, पर यह यह कैसे भूल सकते थे कि उनका जातीय आसन कितना नीचा है और वह इसे असह्य मानते थे। इसी से वह आजन्म दलितों के अधिकार की रक्षा के लिए लड़ते रहे। यह उनकी लड़ाई असहायों तथा दलितों की सहायता और हिमायत के लिए नहीं थी, आत्मनिष्ठा के लिए थी, आत्मोद्धार के लिए थी। इसी से वह इतने सबल, दृढ़ और अचल रहे कि उन्हें न कोई प्रलोभन डिगा सका, न भय ।
जिन दिनों वह हिन्दू कोड बिल का मसौदा बना रहे थे, मेरी बहुधा उनसे मुलाकातें होती तथा इसी विषय पर वार्तालाप भी होता था। स्त्रियों को समाज में समानाधिकार मिले और वे पतियों के घरों में उनकी आश्रित बन कर न रहे, यहां तक तो मैं उनसे सहमत था, परंतु तलाक का मैं एकदम विरोधी था। औरतों की यह कानूनी अदल-बदल मुझे पसंद नहीं थी। भारतीय संयुक्त परिवार प्रथा पर बहुधा उनसे बातचीत हुई। हिदू विवाह और उत्तराधिकार सम्बन्धी कानूनों के वह अपने काल के एक ही पण्डित थे। उन जैसा कानून का ज्ञाता तो मैंने सागर वाले डा० हरिसिंह गौड़ को ही देखा या पर इनमें यह लगन न थी। मैंने ही उनका ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया था कि हिन्दू व्यवहार (ला) स्मृतियों की व्याख्या के आधार पर बना है, जबकि अब भी हिदू विवाह वैदिक रीति से होते हैं। वैदिक और स्मार्त अंतर पर भी हमारे गम्भीर विवेचन होते रहे। उत्तराधिकार और दाय भाग का अंतर, उनका प्रचलन, आर्यों की दुरंगी विवाह नीति, वर्णसंकर , अनुलोम, प्रतिलोम, महाभारत में व्यास का विद्रोह, परम्परा का नियमित रूप मे चला आता विद्रोह – इन सभी शास्त्रीय बातों पर छानबीन और विवेचना होती रहती थी। वे सभी को जानते और मानते थे। वैसे संस्कृत के वह पण्डित नहीं थे, पर सभी धर्मग्रंथ मौलिक रूप में उन्होंने अग्रेजी अनुवाद के साथ पढे थे । वह सभी की बात सुनते और समझते थे, पर करते अपने मन की थे। धर्मग्रंथों को वह आप्तवाक्य नहीं मानते थे । जो कुछ वहाँ लिखा है, वही हमें आज भी करना चाहिए यह युक्ति वह निस्सार समझते थे । उन का कहना था, धर्मग्रंथ तो स्वयं ही पूर्वापर विरोधी है। वेद, ब्राह्मण, सूत्र और स्मृतियाँ परस्पर एकमत नहीं है, पर आचार्यों ने पूर्वआचार्यों की आज्ञा का उल्लंघन किया है। सो मैं आज अपने पूर्वाचार्यों का उल्लंघन करता हूँ। इसी से वह अपनी टेक पर दृढ़ थे। कड़े से कड़े विरोध का वह जवाब नही देते थे, बहस नहीं करते थे, केवल हँस कर बातों में उड़ा देते थे। यह थी, उन की आत्मनिष्ठा, जिसमें संशोधन और इधर-उधर करने की गुंजाइश कहीं थी ही नहीं।
बहुत बार मुझे खीज आई। एक बार तो मैंने कह दिया कि आप तलाक की बात उठाकर हमारे हिंदुओं के घरों मे आग लगाना चाहते हैं, हमारे घरों को उजाड़ देना चाहते हैं, इसमें आप दया माया या हानि लाभ का विचार ही नहीं करते। इसका कारण यह है कि आप आर्य तो हैं नहीं, द्रविड़ हैं, कदाचित अनार्य।
यह बात भी सुनकर वह हँस दिए- वही अपनी सहज हँसी जिसका स्पष्ट यह अर्थ होता था कि हमारे ऊपर इस बात का भी कोई असर नहीं है।
विचारों और सिद्धांतों की उनकी यह दृढ़ता और उनकी अपनी मान्यताओं के प्रति अटूट लगन किसी प्रतिस्पर्धा के कारण न थी। वह कुटिल पुरुष न थे, पकृत साधु थे- स्वच्छ मन और साफ हृदय के स्वामी। अपनी इमानदारी के ही कारण वह अपने सत्य से डिगे नहीं। मान, सम्मान, अपमान की उन्होंने परवाह की नहीं।
साधारण बातचीत और व्यवहार में वह मृदुल और कोमल थे। लोगों से अधिक मिलने जुलने या मुलाकातियों को खुश रखने की उन्हें परवाह नहीं थी। अन्य अध्ययनशील जनों की भांति वह एकांतप्रिय और मितभाषी थे पर कटु नहीं थे, रूखे नहीं थे। मुझे याद नहीं आता कि उनसे मिलने वालों में से किसी ने कभी उनके दुर्व्यवहार की शिकायत की हो या उन्हें घमण्डी पाया हो ।
कभी-कभी वह मुझे चिकित्सक की भांति भी याद कर लेते थे। ऐसा ही एक मजेदार सस्मरण में सुनाता हूँ।
श्री सोहनलाल शास्त्री ने मुझे लिखा कि डाक्टर साहब की कमर में दर्द रहता है, आपसे वह इस संबंध में कुछ परामर्श करना चाहते हैं, कृपा कर यदि असुविधा न हो तो अमुक समय पर आ जाइए ।
उन दिनो वह कानून मंत्री थे और इण्डिया गेट के समीप रहते थे। ठीक समय पर मैं जा पहुंचा। पहुंचने पर मैंने देखा कि सोहनलाल जी कुछ घबराए हुए हैं। मैंने पूछा मामला क्या है?
‘आप बैठिए, अभी बताता हूँ ।’
वह मुझे बजाय डाक्टर साहब के ड्राइंग रूम में बैठाने के अपने दफ्तर में ले गए। वहाँ बैठाकर वह कुछ देर के लिए शायद यह देखने कि डाक्टर साहब क्या कर रहे हैं भीतर चले गए।
वापसी में उन्होंने विनीत भाव से कहा–‘ कष्ट के लिए आप क्षमा कीजिए। अभी डाक्टर साहब दो मिनिट में फारिग हुए जाते हैं। मिल लीजिए, मगर कृपा करके बीमारी या चिकित्सा संबंधी कोई बात मत कीजिए।’
मैं हैरान था — इसका क्या मतलब ? मुझे तो बुलाया ही गया है रोग के सम्बन्ध में सलाह करने के लिए। परन्तु सोहनलालजी बहुत परेशान हो रहे थे। असल बात वह कहना चाहते न थे । उन्होंने इतना ही कहा— ‘मैं फिर आप को बताऊँगा, अभी तो आप उनसे मिल लीजिए | कृपा कर मेरी बात का ध्यान रखिए।’
मुझे यह बात अच्छी नहीं लगी। मैने कहा- ‘अपनी ओर से कोई प्रश्न उठाने की मेरी कोई आदत नहीं है। चलिए आप।’
भीतर जाकर देखा तो डाक्टर साहब आराम कुर्सी पर बैठे थे। चेहरे पर थकावट के चिह्न तो जरूर थे, पर मुस्कान वैसी ही थी। सामने मेज पर मकई के भुट्टों की १०-१२ गिल्लियां पड़ी हुई थी। अनायास ही मेरा ध्यान उनकी तरफ गया । साधारण शिष्टाचार के बाद मैंने हँसकर कहा- ‘आप अभी शायद मकई के भुट्टे खा रहे थे।’ डाक्टर साहब अभी जवाब न दे पाए थे कि उनकी धर्मपत्नी आकर पास ही कुर्सी पर बैठ गईं और मेरी ओर कठोर मुद्रा से देखने लगी, जिसका कारण मैं समझ नहीं पाया। डाक्टर साब ने हँसकर मेरी बात का जवाब दिया उन्होंने पत्नी की ओर संकेत कर कहा- देखो यह डाक्टर हैं, इन्हीं के कहने से यह खाए हैं।
‘लेकिन आपके तो कमर में दर्द है?’
‘हाँ, इनका कहना है कि यह इस बीमारी में फायदेमंद है।’
मैंने श्रीमती जी की ओर प्रश्नसूचक ढंग से देखा। यह विवाह डाक्टर साहब ने उन दिनो कुछ मास पूर्व ही किया था और श्रीमती जी को देखने का मेरा यह पहला ही अवसर था। मैं समझ नहीं रहा था कि उनकी मेरे प्रति इस कदर कड़ी नजर क्यों है।
उन्होंने पूछा- ‘क्या आप डाक्टर हैं?’
‘जी, मैं वैद्य हूँ। आयुर्वेदिक चिकित्सक।’
‘आयुर्वेद तो कोई विज्ञान नहीं है।’
मैं अपनी आदत से लाचार हूँ । लडाई का चैलेंज मैं सहन कर नहीं सकता हूँ । यह तो सरासर लड़ाई की चुनौती थी। उनकी कम नजर तो पहले ही थी। अब इस पर यह फतवा। स्पष्ट ही मुझे यह प्रकट हो गया कि वह यहाँ न मेरी हाजिरी चिकित्सक की हैसियत से पसंद करती है न आयुर्वेद पर ही उनकी श्रद्धा है। इसके अतिरिक्त शायद वह किसी भी चिकित्सक को अपने घर में दखल देना नही चाहती थी, क्योंकि वह एक नामांकित डाक्टर और पडिण्ता थी ।
परतु वह चाहे जो भी हों, उन्होंने मुझे करारी नजर दी थी इसलिए जब उन्होंने कहा कि आयुर्वेद कोई विज्ञान नहीं है, तो मैंने आहिस्ता से पूछा, ‘क्या आपने आयुर्वेद पढ़ा है?”
इस प्रश्न से वह गुस्से में हो गईं और इधर मैं भी तीर-तमचे से लग हो गया। कठिनाई यह थी कि जहाँ वह स्त्री थी और गृहस्वामिनी थी वहाँ मैं अतिथि था । फिर भी जब लडना ही है तो सोच विचार क्या ?
परन्तु डाक्टर साहब ने मामले की गहराई को भाप लिया। उन्होंने हँसकर युक्ति से बातचीत का प्रसंग दूसरी ओर फेर दिया। उन्होने प्रथम गुझे प्रसन्न करने को आयुर्वेद की प्रशंसा की, फिर पत्नी को भी प्रसन्न करने के लिए उसकी वर्तमान अधोगति की थोडी व्याख्या की। इसके बाद चतुराई से उन्होंने बातचीत का प्रसंग औपचारिक बना दिया और उस दिन एक अप्रिय घटना होते होते रह गई । थोड़ी ही देर में मैंने विदा मांगी और मैं श्रीमती जी को खुश करने का शिष्टाचार नहीं भूला । जब वह हँस दी, तभी मैंने उन्हें दुबारा प्रणाम किया और मैं चला आया ।
मैं समझता हूँ, डाक्टर अम्बेडकर में भारत के राष्ट्रपति होने की योग्यता थी।
यदि वह अछूतो का प्रतिनिवित्व त्याग देते और समूचे भारतीय जनपद का प्रतिनिधित्व समष्टि में करते तो उन्हें भारतीय राष्ट्रपति का पद मिलता, जिसके कि यह प्रकृत अधिकारी थे। यह बात मैंने उन्हें एक पत्र में लिखी भी थी, परन्तु वह कैसे अपने रक्त-संबंध से अकेले रह सकते थे ? कैसे उन लाखो अछूतो का साथ छोड़ सकते थे, जिनके साथ अभिजात्य कुलीनों ने शताब्दियों से अत्याचार किए हैं। इसके लिए वह गांधी जी से भी लड़ते रहे, यद्यपि वह गाँधीजी को प्यार करते थे। गांधीजी के प्रति उनकी निष्ठा का पता ही तब लगा जब गाँधीजी ने प्राणांत उपवास किया था, जिसके कारण अम्बेडकर ने अपना अजेय वाण झुका लिया था। गांधीजी भी इस महात्मा के सत्यव्रत को समझते थे, और उनका वैसा ही मान भी करते थे। अपने अन्त समय में वे बौद्धधम की शरण में गए। उनके मन की दुर्बलता मैं समझता था। कभी भी वे हिदू न बन पाए। वे जानते थे, हिन्दू समाज मे घुसने के चार द्वार थे। चारों ही उनके लिए निषिद्ध थे। विद्वान होने पर भी पंडित होने पर भी माननीय होने पर भी, क्योंकि वे जन्मजात अंत्यज थे। जीवन के आरम्भ ही से उन्होंने इस निषेध का अनुभव किया । भारतीय जनतन्त्री राज्य मे मत्री पद पाकर भी, एक विदूषी ब्राह्मण महिला से विवाह करके भी उनके मन का द्वैव मिटा नहीं। जिन्ना ने उन्हे मुसलमान होने का निमन्त्रण दिया था, परंतु इतनी निष्ठा तो उनमें थी कि इस निमन्त्रण को वे ठुकरा दे | बौद्धधम का उदय निस्सन्देह उसी प्रतिक्रिया से हुआ था जो अम्बेडकर के मन में वद्ध मूल थी। इसलिए उनका मन बौद्धधम की ओर झुक गया। इसके लिए उन्हें दोष नही दिया जा सकता। कोई भी आत्मसम्मानी व्यक्ति उस अपमान को सह नही सकता, जो अम्बेडकर जैसे प्रकाण्ड पडित और धर्मशास्त्री को केवल जन्मदोष से सहना पड़ा । आर्यसमाज आज सजीव होता तो वे उधर अवश्य झुकते पर वह प्रथम ही निस्तेज संस्था हो चुकी थी। बौद्ध संस्था में भी कुछ जीवन नहीं रहा था, न अब है । परन्तु नए युग के साथ बोद्धधम ने एक नया रूप और दृष्टिकोण स्थापित किया है, उसी से डाक्टर अम्बेडकर ने उसे अपना आत्मार्पण किया ।
संदर्भ: आचार्य चतुरसेन शास्त्री, मेरी आत्मकहानी, चतुरसेन साहित्य समिति, ज्ञानधाम, शाहदरा-दिल्ली, 1963
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