कुबेरतंत्र में भामाशाह की तलाश: संजय सहाय
संजय सहाय जब ‘हंस’ का यह संपादकीय-लेख लिख रहे थे उसी समय विश्व का एक चर्चित फ्रेंच अर्थशास्त्री थॉमस पिक्केटी भारत के दौरे पर था. अनके जगह उसने इस भ्रम का पर्दाफ़ाश किया कि भारतीय कुलीन तंत्र आम भारतीयों की तुलना में ज्यादा टैक्स पेय करता है. उसने बताया कि जब से नवउदारवाद का झोंका भारतीय जमीन पर आया है तब से यहाँ की सरकार ने टैक्स-देनदारों के आंकड़ों को सार्वजनिक करना बंद कर दिया है. उसने यह भी जोड़ा कि अगर इनकम टैक्स रिटर्न के आंकड़ों को सामने लाया जाएगा तो इसकी गुंजाइश ज्यादा है कि जीडीपी के उछाल के अनुपात में ही गरीबी-अमीरी की खाई और चौड़ी हुयी है.
संजय सहाय अक्सर अपने संपादकीय में चकित करते हैं. काफी मेहनत करते हैं और हिंदी की ‘मुख्य-धारा’ विषयक परिधि से अपने को बाहर कर लेते हैं. कभी चित्रकला, कभी सिनेमा, कभी संगीत , कभी फासिज्म और अब अर्थतंत्र.
कुबेरतंत्र में भामाशाह की तलाश!
By संजय सहाय
बचपन में मां से एक कहानी सुनी थी- हल्दी घाटी की लड़ाई के बाद जब राणा प्रताप जंगल-जंगल भटक रहे थे और बच्चों को घास की रोटी खिला रहे थे तब मेवाड़ के एक बड़े सेठ भामाशाह ने अपनी सारी दौलत लाकर राणा के कदमों में रख दी थी. ऐसे स्वामिभक्त, राजभक्त और त्यागी सेठ के लिए सचमुच आंखों में श्रद्धा छलछला आई थी. हालांकि तबसे लेकर आज तक, कोई ऐसा संवेदनशील, अपने सामाजिक दायित्वों के प्रति सचेत और मानवीय मूल्यों के लिए समर्पित राष्ट्रभक्त सेठ- जिंदा या मुर्दा- कैसा भी, नहीं मिला. हां, उस कथा को सारे सेठ-साहूकारों ने अपने पक्ष में खूब भुनाया. बाद में पता चला कि 1542 में पैदा हुए ओसवाल जाति से संबंधित भामाशाह का साहुकारी या महाजनी से कुछ लेना-देना नहीं था. उनके पिता भारमल राणा सांगा के वक्त रणथम्भौर किले के किलेदार हुआ करते थे और बाद में राणा उदय सिंह के प्रधानमंत्री भी रहे. भामाशाह भी मेवाड़ के जाने-माने लड़ाका, सेनाध्यक्ष, राज-सलाहकार और प्रधानमंत्री रहे. भामाशाह की तरह ही उनके छोटे भाई ताराचंद भी एक कुशल योद्धा और प्रशासक थे जिन्होंने अनेक अवसरों पर राणा की सेनाओं का संचालन किया था. हल्दीघाटी की लड़ाई के उपरांत जब राणा प्रताप को अपनी सेना के पुनर्गठन के लिए धन की आवश्यकता पड़ी तो दोनों राजभक्त भाईयों ने बीस हजार स्वर्ण मुद्राओं और पच्चीस लाख रूपए से राणा की मदद की. यह पैसे उन दोनों भाईयों के उस खजाने का एक हिस्सा भर थे जो उन्होंने समय-समय पर मुगल ठिकानों पर हमला करके लूटा था. इस प्रकार से देखा जाए तो वह सारा धन मेवाड़ राज्य की संपत्ति ही था. कालांतर में भामाशाह ने मेवाड़ राज्य के खजांची और प्रधानमंत्री का पद भी संभाला, और ताराचंद गोदवाड़ के राज्यपाल नियुक्त किए गए. भामाशाह के वंशज अनेक पीढि़यों तक मेवाड़ के राणाओं के प्रधानमंत्री रहे. इसलिए भारतीय संदर्भ में भामाशाह को एक तोंदियल-सा धन्नासेठ मान बैठना उतना ही हास्यास्पद होगा जितना कि जगत सेठों, राकफेलरों, रॉथ्सचाइल्डों, अंबानियों, अडाणियों या जिंदलों को भामाशाह मान बैठना.
अरस्तु का मानना था कि यदि शासक अभिजात वर्ग जनहित को सर्वोपरि मानकर फैसले लेने लगे तो वह शिष्टतंत्र कहलाएगा और जनसाधारण को नज़रअंदाज कर सिर्फ अपने फायदे के लिए फैसले लेने लगे तो वह निरंकुश कुलीनतंत्र में बदल जाएगा. मध्यम वर्गों के हाथों में सत्ता रखने के हिमायती अरस्तु का यह भी मानना था कि एक विशाल मध्यम वर्गों का समूह छोटे से अभिजात वर्ग को निरंकुश कुलीनतंत्र में बदल जाने से रोक सकता है. बहरहाल, शुरू से ही यह स्पष्ट हो गया था कि अभिजात शासक वर्ग के भीतर भी सत्ता सिर्फ धनी लोगों के हाथों में ही सिमट जाती है जो सिर्फ अपने हितों को ध्यान में रख राज्य के नियम बनाते हैं. इस वजह से कुलीन तंत्र की बजाय उसे कुबेरतंत्र कहना अधिक उपयुक्त रहेगा.
समय-समय पर एक भयावह-सी अफवाह उड़ती रहती है कि पूरी दुनिया को दरअसल एक अति धनाढ्य गुप्त पंथ चला रहा है जिसे इल्युमिनाटी कहते हैं. इल्युमिनाटी पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका के अंतरराष्ट्रीय बैंकरों, उद्योगपतियों और व्यापारियों का एक कार्टेल है जिसमें रॉथ्सचाइल्ड, रॉकफेलर, मॉर्गन, लज़ार्ड, वारबर्ग, श्राॅडर और शीफ जैसे खानदान जुड़े हैं. अब तो इसमें रूसी और हिंदुस्तानी धनाढ्यों के साथ-साथ अनेक राष्ट्राध्यक्षों के नाम भी गिनाए जाने लगे हैं. अब चूंकि विश्वभर की पूरी दौलत का आधा हिस्सा कुल 62 लोगों के हाथों में निहित है, इस अफवाह को बल मिलता है. 1776 में बवेरिया के एक जर्मन दार्शनिक योहान ऐडम वाइसहोप्ट ने फ्री मेसन पंथ की तर्ज पर ही एक गुप्त समूह की स्थापना की जिसे उसने ऑर्डर ऑफ इल्युमिनाटी की संज्ञा दी थी. इसकी स्थापना में ऐडम को मायर रॉथ्सचाइल्ड का भरपूर सहयोग मिला था. कालांतर में इस समूह को लेकर इतने किस्से प्रचलित हुए कि उसमें से सच और झूठ का फैसला करना नामुमकिन है. इस गुप्त समाज पर अंबेर्तो एको और डैन ब्राउन ने उपन्यास लिखे. 1979 में रोमांचक उपन्यासकार राबर्ट लडलम का बेस्ट सेलर ‘दी मैटरीज़ सर्किल’ भी इल्युमिनाटी, मायर रॉथ्सचाइल्ड जैसे चरित्रों और कुबेरतंत्र के खतरों में खेलता एक रोचक पाठ है. विश्व-व्यवस्था में सचमुच इल्युमिनाटी की कोई भूमिका रही भी या नहीं, या उन्होंने अपने लाभ के लिए तख्तापलट से लेकर जाने-माने राजनेताओं की हत्याएं करवाई अथवा नहीं, पूरी दुनिया की राजनीति और अर्थव्यवस्था को अपनी चेरी बनाकर रखा या नहीं- इस पर कयास लगते रहेंगे, कहानियां बनती रहेंगी. किंतु अंतरात्मा विहीन, विवेकहीन धनकुबेरों के कारनामे जगजाहिर हैं. 18वीं सदी से उभरता यह नव कुबेरतंत्र ग्रीस, कार्थेज, रोम या जापान के प्राचीन कुबेरतंत्रों से इस मामले में भिन्न था कि वे सत्ता और सरकारों का नियंत्रण पर्दे के पीछे रह सुरक्षित दूरी से करने लगे थे. रजवाड़ों को धन-बल-छल से प्रभावित कर लेना बहुत आसान था. लोकतांत्रिक राज्यों में भी ज्यादा कुछ मुश्किल नहीं हुई. अब तो दस-बीस हजार करोड़ के चुनावी चंदे देकर सरकारों पर काबिज हो जाने से ज्यादा सुरक्षित और सस्ता सौदा और क्या हो सकता है? फिर जनता का गुस्सा झेलने के लिए चौड़े सीने वाले नेतागण तो खड़े ही हैं. हालांकि इस लीक से थोड़ा हटकर नव-कुबेर डॉनल्ड ट्रम्प ने सीधे सत्ता पाने के लिए खुद को अमेरिकी राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तुत कर डाला है.
इस क्रूर निरंकुश, स्वार्थी और रोज परिष्कृत होते कुबेरतंत्र का सबसे उपयुक्त उदाहरण रॉथ्सचाइल्ड खानदान है जिसकी शुरूआत 1744 में फ्रैंकफर्ट में जन्मे मायर एमशेल रॉथ्सचाइल्ड से हुई. जर्मन भाषा में रॉथ्सचाइल्ड को रोटशील्ड कहते हैं जिसका अर्थ होता है- लाल रंग की ढाल. एक दरबारी यहूदी होने के नाते मायर रॉथ्सचाइल्ड राजघराने के सदस्यों की संपत्ति का प्रबंधन करता था. बदले में उसे वे सारी सुविधाएं और अवसर मिलते थे जिनसे पृथक-बस्तियों में रहने वाले यहूदी पूरी तरह से वंचित थे. हालांकि मायर एमशील्ड की पैदाइश भी एक घेटो में ही हुई थी. मायर रॉथ्सचाइल्ड का जीवन दर्शन था- ‘मुझे किसी भी देश की मुद्रा पर नियंत्रण दे दो, फिर वहां का कानून कौन बनाता है- मुझे इसकी परवाह नहीं होगी.’ आज के दिन 350 बिलियन डॉलर से अधिक की संपत्ति वाले इस परिवार को अपने रसूख की वजह से शुरूआती दिनों में ही फ्रांसीसी क्रांति में बहुत आर्थिक लाभ हुआ. फिर ऑइस्ट्रियन सेना को बेची गई रसद, वर्दी, घोड़े और युद्ध के साजो-सामान से उन्होंने अकूत संपत्ति अर्जित की. ‘हेशियन’ भाड़े के सिपाहियों से भी उन्होंने खूब धन कमाया और अपने पांच बेटों को फ्रैंकफर्ट, नेपल्स, वियेना, लंदन और पेरिस भेजकर रॉथ्सचाइल्ड बैंकों की स्थापना की. अब पूरी दुनिया उनके इशारों पर नाच रही थी. अनेक लोगों का मानना है कि रॉथ्सचाइल्ड खानदान ने कई राज्याध्यक्षों की हत्याएं करवाईं. इजरायल की स्थापना के पीछे वे सबसे बड़ी ताकत थे. अपने शत्रुओं के दमन के लिए उन्होंने हर तरह के हथकंडों का इस्तेमाल किया. वाटरलू की लड़ाई में नेपोलियन पर वेलिंग्टन की विजय को रॉथ्सचाइल्ड ने अपने चतुर जासूसों की मदद से पहले जान लिया था. उन्होंने फ्रांसीसी कंपनियों के शेयर समय रहते बेच अकूत मुनाफा कमाया. कुछ का तो यहां तक मानना है कि खुद यहूदी होते हुए भी रॉथ्सचाइल्ड कुनबे के लोग ही नात्सी जर्मनी में यहूदियों के सर्वनाश का कारक बने.
इनमें से तथ्य जो भी हो, जितना भी हो, किंतु यह सच है कि इन धन-कुबेरों को कोई फर्क नहीं पड़ता कि युद्ध में कौन जीतता या हारता है, कौन जीता या मरता है. इन्हें हर स्थिति में अपने मुनाफे से ही मतलब रहता है. युद्ध भी यही पैदा करते हैं, उसका साजो-सामान और हथियार भी यही बेचते हैं, फिर घायलों के उपचार में इनकी ही बीमा-कंपनियां और अस्पताल मरहम-पट्टी बेचकर मुनाफा कमाते हैं और घडि़याली आंसू भी इनकी ही दुकानों से खरीदे जा सकते हैं.
हिटलर से बहुत पहले ही लगभग 1910 से अमेरिका के जे.डी. राकफेलर और केलॉग जैसे धनपति ईयूजेनिक विज्ञान के विकास के प्रबल समर्थक और पोषक थे. जिसका उद्देश्य एक ‘स्वामी-प्रजाति’ पैदा करना और निम्न जातियों का खात्मा करना था. रॉथ्सचाइल्ड की तरह राकफेलर ने भी हर तरह के गैरकानूनी और अमानवीय हथकंडे अपनाए. मजदूरों को कुचलने के लिए निजी सेनाओं तक का इस्तेमाल किया. अपने विरोधियों के खात्मे में हर संभव नीचताएं कीं. अपनी चमकदार छवि बनाने के लिए पब्लिक रिलेशन इंडस्ट्री की शुरुआत की. ये तमाम धनकुबेर विश्व भर के मीडिया को अपनी मुट्ठी में कर चुके हैं और अपनी छद्म छवि बनाने से लेकर झूठा इतिहास गढ़ने की सारी तरकीबें आजमाते रहे हैं. सन् 2007 में मणिरत्नम की ‘गुरु’ नाम की फिल्म आई थी जिसमें एक जाने-माने अनैतिक मुनाफाखोर को गांधी और नेहरू से बड़ा जनसेवक बताने का प्रयास किया गया था जबकि तथ्य यह है कि हमारे मुल्क में इन कुबेरों में शायद ही कोई ऐसा मिलेगा जो गर्दन तक गंदगी में न डूबा हुआ हो और जो हर तरह के गैरकानूनी कामों में न लिप्त हो. प्राकृतिक संसाधनों, बिजली और करों की चोरी से लेकर तस्करी और हत्याओं तक.
1936 में डैनियल गुएरिन ने अपनी किताब ‘फासिज्म एंड बिग बिजनेस’ में और बाद में अमेरिकी राष्ट्रपति ड्वाइट आइजनहॉवर ने अपने 1961 के विदाई भाषण में सेना, सैन्य-उद्योग और राजनीति के अपवित्र गठबंधन के खतरों से अपने मुल्क को आगाह किया था. हमारे मुल्क में चूंकि सैन्य उद्योग या उद्योग ही बहुत मामूली-सा है, हम इसकी जगह ‘धंधेबाज’ शब्द का इस्तेमाल कर सकते हैं. सचमुच यह गठबंधन एक अभेद्य लौह त्रिकोण है जिसमें भारी-भरकम चंदे हैं, मुंहमांगी ठीकेदारी है, बिके हुए नेता और अफसर हैं और निरंतर-चिरंतर जारी जंग है. दुर्भाग्य से अमेरिका सहित पूरी दुनिया ने आइजनहॉवर की चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया. देते भी कैसे? जब जनचेतना का रखवाला मीडिया भी उन लोगों के कब्जे में हो जो सिर्फ अपनी शर्तों पर युद्ध और शांति चाहते हैं ताकि वे अधिक से अधिक मुनाफा कमा सकें. नोम चोमस्की का भी मानना है कि अमेरिका मूलतः एक कुबेरतंत्र है जो लोकतांत्रिक बनावट का है.
यह स्पष्ट होता जा रहा है कि कुबेरतंत्र के दबावों में लोकतंत्र हार चुका है. जब सरकारों को धंधेबाज नियंत्रित करने लगें, जब अंतरराष्ट्रीय संबंध उनके प्रभाव से बनने-बिगड़ने लगें तो संदेह नहीं रह जाना चाहिए कि हम किस तरह की व्यवस्था में जी रहे हैं. वरना क्या कारण था कि तब जबकि भारत-पाकिस्तान के बीच कोई अधिकारिक सौहार्द्र कायम नहीं हुआ हो और जब हाल-फिलहाल तक विरोधी स्वरों को पाकिस्तान भेज देने की गालियां उगली जा रही हों- ऐसे असहज वक्त में जिंदल महोदय प्रधानमंत्री की रहस्यमयी ‘औचक’ पाकिस्तान यात्रा पर वहां उनकी अगवानी करने को पहले से खड़े थे!
संजय सहाय. चर्चित कथाकार, फिल्मकार और हंस के संपादक. चित्रकला और फिल्मों में अद्भुत रूचि. आप उनसे sanjaysahay1@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.
साभार- हंस, फ़रवरी, 2016.