हिंदी साहित्यिक की विकट जीवटता: उस्मान ख़ान
विश्व-साहित्य की अवधारणा अभी हिन्दी में चर्चित नहीं है। इंग्लिश के विश्व-भाषा बनते जाने, पुस्तकों, पत्रिकाओं के ‘सॉफ्ट’ रूप आ जाने, इंटरनेट के विकास आदि ने विश्व-स्तर पर साहित्य-उत्पादन में वृद्धि की है। विश्व-साहित्य ने समीक्षकों का ध्यान फिर से आकर्षित किया है। हिन्दी-क्षेत्र में भी साहित्य-महोत्सव, रंग-महोत्सव, संगीत-महोत्सव, सिनेमा-महोत्सव आदि का चलन हो गया है। सुस्त और निराश हिन्दी साहित्यिकों के लिए इवेंट क्रिएट किए जाते हैं। ऐसे लोग हैं, जो शहरों में इश्तेहार लिए फिरते हैं – ‘निराश साहित्यिक मिलें’। थोड़ा खर्चा करना पड़ता है, पर उत्साह पैदा हो सकता है। हिन्दी का साहित्य-उत्पादक ठेके पर काम करता है, दिहाड़ी भी कर लेता है, अनियमित और मुक्त साहित्यिकों की भी कमी नहीं। कुछ ही को आराम है। हिन्दी कवि त्रिलोचन ने यूँ ही नहीं कहा – ‘हिन्दी की कविता उनकी कविता है जिनकी साँसों को आराम नहीं था’। #लेखक
विश्व-साहित्य और हिंदीयत
By उस्मान ख़ान
विश्व-साहित्य की अवधारणा १९वीं सदी के जर्मन साहित्यिक, राजनेता और विज्ञान-अनुसंधानी जोहान वोल्फ़्गेन फोन गेटे के लेखन में पहली बार प्रकट होती है। विश्व-साहित्य तब एक संभावना की बात थी। जर्मनी के ही क्रांतिकारी, समीक्षक, मज़दूर-नेता कार्ल मार्क्स और फ्रेडेरिक एंगेल्स ने साम्यवादी घोषणापत्र में आने वाले समय में असंख्य देशज और स्थानीय साहित्य से विश्व-साहित्य के उदय की संभावना जताई थी। २०वीं सदी में प्रिंटिंग-प्रेस और अनुवाद-कला के उत्तरोत्तर विकास ने विश्व-साहित्य के निर्माण को तेज़ किया। २१वीं सदी में मुक्त-बाज़ार और इंटरनेट के विश्व-व्यापी प्रभाव में विश्व-साहित्य के निर्माण और वैश्विक-सौंदर्य-मूल्यों के निर्माण की ओर साहित्यिकों और समीक्षकों का ध्यान तेज़ी से जा रहा है।
आज विश्व के कई देशों में तुलनात्मक साहित्य और विश्व-साहित्य विश्व-विद्यालयों, अध्ययन-केन्द्रों आदि के पाठ्यक्रमों में शामिल किया जा रहा है। अभी इस प्रश्न को हल नहीं किया जा सकता है कि विश्व-साहित्य में किन किताबों को शामिल किया जाना चाहिए! साहित्य के विभिन्न माध्यमों में विस्तार को देखते हुए यह काम और भी कठिन होता जा रहा है। लेकिन भविष्य में रास्ता अधिक साफ़ होगा। स्थानीयता का रूप भी अधिक स्पष्ट होगा। हिंदीयत क्या है? यह भी अधिक स्पष्ट होगा।
विश्व-साहित्य-समीक्षा अपने प्रारम्भ में यानी साम्राज्यवाद के विस्तार के समय यूरोप-केन्द्रित थी, आज साम्राज्यवाद की स्थिति भी बदल गई है और ग़ैर-यूरोपीय देशों और भाषाओं में भी विश्व-साहित्य-समीक्षा का प्रयास हो रहा है। डॉलर की सत्ता को वेनेजुएला और चीन जैसे देशों ने चुनौती दी है। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद एक-रंगी विश्व-संस्कृति को प्रसारित करता है, एक-सा जीने, सोचने और खाने-पीने-पहनने पर ज़ोर देता है। विकासाधीन देशों में एक समय की प्रगतिशील कही जाने वाली पहलकदमी ने अपनी भूमिका खो दी है।
आज का समय लोकतन्त्र और विज्ञान की ओर बढ़ने का रास्ता छोड़ ३०-४० के दशक में पश्चिम-यूरोप के देशों द्वारा सुझाए फासीवाद की ओर बढ़ गया है। उत्पादन-पुनरुत्पादन की नीरस ज़िंदगी से अधिक वह अब और कुछ नहीं दे सकता। इसी कारण हिंसा-उन्माद-विकृति को ही ख़ुशी और अच्छाई मानने का प्रचार किया जाता है। बहू-रंगी संस्कृति से निर्मित विश्व-संस्कृति को वह स्वीकार नहीं कर पाता। रोज़गार और युद्ध के कारण बढ़ता पलायन विभिन्न संस्कृतियों के संयोजन का प्रमुख कारण है।
यह बहु-रंगी सांस्कृतिक स्थिति जीवन को रसपूर्ण बनाने में अभी असमर्थ है। यह कोलाहल किसी सरस गीत को जन्म देगा। विभिन्न संस्कृतियों का यह संयोजन पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक प्रभाव को कैसे कम या खत्म करेगा, यह इस पर निर्भर करता है कि निम्न-वर्गीय संस्कृतिकर्मी की क्या स्थिति है, क्या योजनाएँ हैं, वह कितना साहसी और सृजनशील है। विश्व की बदलती राजनैतिक-आर्थिक स्थितियों से विश्व-साहित्य के निर्माण में तेज़ी आई है। आज संस्कृतिकर्मी मुक्त-बाज़ार में फासीवाद और समाजवाद के संघर्ष की नई मंज़िल पर खड़ी है। मार्क्स और एंगेल्स ने आभिजात्य-वर्ग के साहित्यिक-उत्पादन के कॉस्मोपोलिटन या सर्वदेशीय चरित्र की बात कही है, आज निम्न-वर्गीय साहित्यिकों की भी ऐसी लंबी सूची बन चुकी है, जिनके साहित्य को कॉस्मोपोलिटन साहित्य कहा जा सकता है। सर्वदेशीय साहित्य या विश्व-साहित्य की अवधारणा ग़ैर-यूरोपीय देशों में प्रायः मार्क्सवादी विचारों के प्रचार-प्रसार के साथ ही पहुँचीं। विश्व की एकता पूंजीवादी-साम्राज्यवाद के पक्ष-विपक्ष में देखी जाने लगी। साम्यवादी घोषणापत्र को विश्व-साहित्य की पहली कृति कहा जाना अतिशयोक्ति नहीं है।
कम्युनिस्ट घोषणा पत्र का हिन्दी में अनुवाद क्रांतिकारी अयोध्या प्रसाद ने जेल में रहते हुए १९३३ में किया। उर्दू में इसके पहले घोषणापत्र के दो अध्याय मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के साप्ताहिक अल-हिलाल में १९२७ में प्रकाशित हुए थे, लेकिन उर्दू में इसका पूर्ण अनुवाद १९४६ में ही संभव हो सका। बोलियों में अब तक इसका अनुवाद उपलब्ध नहीं है। सर्वदेशीय साहित्य बाज़ार और अनुवाद-कला के विशेष विकास की माँग करता है। सामंतकाल में भी ऐसे बाज़ार थे, अनुवाद भी होते थे, तब भी विश्व-स्तर पर एक से बाज़ार नहीं थे, बग़दाद हो या बनारस, अमेरिका के अस्तित्त्व से भी विद्वान तब अपरिचित थे।
पूंजीवादी-साम्राज्यवाद के प्रसार के साथ ही ऐसे शहरों, बाज़ारों और साहित्य का आविर्भाव संभव हो सका, जिन्हें सर्वदेशीय कहा जा सके। तब भी आज स्थिति और बदल गई है। भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी और प्रेमचंद के नाम पर आधुनिक साहित्य के युगों का नाम कर देने के बाद भी ये साहित्यिक सर्वदेशीय प्रवृत्ति के उचित परिचायक नहीं हैं। अकबर इलाहाबादी, इक़बाल, प्रेमचंद आदि का लेखन हिन्दी-उर्दू में सर्वदेशीय साहित्य का आधार बनाता है। सर्वदेशीय साहित्य के उत्पादन में १९४० का दशक विशेष महत्त्व रखता है। ब्रिटिश-शासन का विरोध, व्यंग्य और उपन्यास का लिखा जाना आधुनिकता के लक्षण हैं, तब भी आधुनिक जीवन-स्थितियों के विकास के बिना आधुनिक साहित्य अपने उत्कृष्ट रूप में प्रकट नहीं हो सकता था। हिन्दी क्षेत्र में यह स्थिति १९४० के दशक में ही बन पाई। प्रगतिशील-लेखक-संघ का उदय (१९३६, लखनऊ अधिवेशन) सर्वदेशीय-साहित्य के निर्माण की वास्तविक भूमिका बना। ‘तार-सप्तक’ (१९४२) का प्रकाशन हिन्दी-कविता में आधुनिकता का वास्तविक प्रवेश है। हिन्दी-क्षेत्र में प्रेमचंद पहले हैं जो निम्न-वर्गीय सर्वदेशीय-साहित्य के निर्माण की ओर बढ़ते हैं। उन्हें प्रगतिशील-लेखक-संघ के पहले अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया जाना अचरज की बात नहीं है। उनका साहित्य उस समय के लेखकों के लिए भी प्रेरणा-स्रोत था। ‘महाजनी सभ्यता’ को, धर्म और जाति के नाम पर चल रहे अन्याय-अत्याचार को सामने रखने का साहस और किसमे था? तब भी यशपाल, भुवनेश्वर, मंटो और मुक्तिबोध जैसे साहित्यिक ही हिन्दी-उर्दू भाषा में कॉस्मोपोलिटन साहित्य के उत्कृष्ट उत्पादक कहे जा सकते हैं। इन सभी का साहित्य लगभग एक ही समय में सामने आने लगता है, तब भी रूप-संयोजन और भाव-विचार की विविधता बनी रहती है। राहुल सांकृत्यायन का साहित्य भी इसी समय तेज़ी से सामने आता है। भारत में मुंबई और कोलकाता प्रारम्भिक कॉस्मोपोलिटन हैं। हिन्दी-क्षेत्र में ऐसे शहर १९वीं सदी के अंतिम दशकों में उभरने लगे थे। इनके समुचित विकास के बाद ही हिन्दी क्षेत्र में सर्वदेशीय साहित्यिक तेज़ी से उभरते हैं। हिंदीयत का विश्व-साहित्य से पहला सही मुक़ाबला १९४० के दशक से शुरू होता है। हजारीप्रसाद द्विवेदी, रांगेय राघव, अज्ञेय, मज़ाज, फैज, फ़िराक़, शमशेर, इस्मत चुगताई, कृशनचंदर समवेत हिंदीयत की एक पहचान बनती जाती है। विश्व-साहित्य और हिंदीयत का निर्माण एक-दूसरे के पूरक हैं। विश्व-साहित्य और हिंदीयत की अवधारणा को आज के साहित्यिक के ध्यानार्थ सामने रखना ही इस पर्चे का उद्देश्य है। दुनिया भर में पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के विस्तार के क्रम में विश्व-साहित्य का निर्माण हुआ है, हिन्दी में भी अभिजात्य-वर्गीय और निम्न-वर्गीय साहित्य-धाराएँ इसी विस्तार में स्पष्ट होती चली गई हैं। मंटो ने चचा सेम को तब ही ख़त लिख डाले थे। अफ़सोस, आज हिन्दी-उर्दू के साहित्यिक उन खतों को भूल गए।
हिन्दी का साहित्यिक विकट जीव है – उसे एक साथ हिन्दी-उर्दू-इंग्लिश और हिन्दी-क्षेत्र की बोलियों को साधना पड़ता है। यही अच्छा है कि अब संस्कृत और फ़ारसी का दबाव जाता रहा है। फिर भी हिन्दी के निम्न-वर्गीय साहित्यिक को बाज़ार में भी ठीक भाव नहीं मिल पाता। इतनी साधना, और फायदा कोड़ी का भी नहीं। तब भी निम्न-वर्गीय साहित्यिक का उत्पादन किसी को भी हैरान कर सकता है। अनगढ़ ही सही, उसकी मेहनत और आशा-उत्साह से इनकार नहीं किया जा सकता। आज ऐसे निम्न-वर्गीय साहित्यिकों की संख्या हज़ारों-लाखों में हैं, जो विश्व-साहित्य का हिस्सा बनते जा रहे हैं। पारंपरिक महत्व प्राप्त साहित्य को भी फिर से जाँचा जा रहा है। विभिन्न देशों और भाषाओं के साहित्य का ‘सामान्य सौन्दर्यशास्त्र’ निर्मित करने का प्रयास किया जा रहा है। विश्व-स्तर पर साहित्यिक रूपों – यथा उपन्यास, सिनेमा आदि – के उद्भव, विकास और प्रकार्य का अध्ययन किया जा रहा है। विश्व साहित्य समीक्षा मानवीय और साहित्यिक मूल्यों को विश्व-स्तर पर जाँचकर देखने की कोशिश करती है। आज ऐसे समीक्षकों की कमी नहीं है, जो कई देशों और भाषाओं के साहित्य के गंभीर अध्ययन का अपने लेखन में उपयोग करते हैं। हिन्दी-साहित्य-समीक्षा भी इस स्थिति से लाभान्वित हो रही है। साहित्य के आंतरिक-पठन के साथ ही बाह्य-पठन का संश्लेषण इन समीक्षकों की विशेषता है।
विनोद कुमार शुक्ल ने लिखा है कि ‘मैं छत्तीसगढ़ी में वैश्विक हूँ’। ठीक बात, लेकिन यह छत्तीसगढ़ के समाज और लोगों के आंतरिक विरोध को छुपाकर नहीं, उजागर कर ही हो सकता है कि कोई छत्तीसगढ़ी में ही वैश्विक हो जाए। निम्न-वर्ग का प्रश्न हर कवि से सीधा है – साहित्यिक ने निम्न-वर्ग के लिए क्या किया? एक उत्पादक के रूप में निम्न-वर्ग की मुक्ति के लिए वह सचेत सक्रिय प्रतिबद्धता कैसे प्रदर्शित करता है? करता भी है या नहीं? मुक्तिबोध कविता में पुछते हैं – ‘बताओ तो किस-किस के लिए तुम दौड़ गए?’ स्थानीयता देशज शब्दों या प्राचीन और सामंतकालीन कथा-रूपों के प्रयोग से नहीं, बल्कि स्थानीय राजनीति में सक्रिय सहयोग से उत्पन्न होती है। इसमें साहित्यिकों के अपने समूह हो सकते हैं, सहमतियाँ-असहमतियाँ हो सकती हैं, लेकिन राजनीति को समझे बिना स्थानीयता को समझना नामुमकिन है। क्या अचरज अगर आज हबीब जालिब और विद्रोही जैसे कवि हिन्दी-क्षेत्र में प्रसिद्धि पा रहे हैं। स्थानीयता का निर्माण विशेष सामाजिक-पारस्परिकता में होता है। आभिजात्य-वर्ग और निम्न-वर्ग के संघर्ष और संवाद में स्थानीयता जन्म लेती है। ब्रिटिश-साम्राज्यवाद के अंतर्गत हमारी ज़ंजीरें साफ़ दिखाई देती थी, सुनाई देती थी, छुई जा सकती थी – आज स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। आज साहित्यिक के जीवन-मूल्य भी उपभोक्तावाद, एकरंगी संस्कृति के प्रभाव में है। हिन्दी साहित्यिक प्रायः निम्न-वर्गीय पक्षधरता से दूर है। जन-अलगाव से ग्रसित है। उसके सामने साम्राज्यवाद का बदला रूप स्पष्ट नहीं है। आभिजात्य-वर्ग और निम्न-वर्ग का संघर्ष और संवाद नए स्तर पर पहुँच गया है। निम्न-वर्ग की साधना वैश्विक होने की है, आभिजात्य-वर्ग की स्थानीय होने की।
विश्व में दो ही साहित्यिक-वर्ग रहे हैं – पूँजीपति और सर्वहारा, मालिक और नौकर, आभिजात्य और निम्न-वर्ग। हिन्दी का साहित्यिक भी इसका अपवाद नहीं। हिंदीयत छत्तीसगढ़ी या देहलवी होने से अलग चीज़ है। हिंदीयत हैदराबाद और मुंबई का भी अंश है। लाहौर और इस्लामाबाद का भी। जयपुर और पटना का भी। जबकि इनमें से हर जगह की अपनी स्थानीयता है। बनारसी भोजपुरी होकर भी बनारसी है। साहित्य की विविधता और विस्तार से भयभीत, मुक्त-बाज़ार से बढ़ी रोज़गार की अनिश्चितता से शंकित हिन्दी-समीक्षक विश्व-साहित्य और हिंदीयत के संबंध को समझने में प्रायः असमर्थ है। वह स्थानीयता के नाम पर देशज शब्द या शहरी चालू फिकरे या जगहों के नाम ही समझ पाते हैं। स्थान की अपनी वैश्विक बनावट को समझने की ओर वे झुक ही नहीं पाते हैं।
हिंदीयत भारतीयता से भी अलग है, विशेष है। हिंदीयत हिन्दी, उर्दू, इंग्लिश और बोलियों के लोगों से मिलकर तैयार होती है तथा हिन्दी-क्षेत्र में सर्वदेशीय नगरों के निर्माण से पहले इसका आस्तित्त्व नहीं था। पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के विरोध में हिंदीयत का भी निर्माण हुआ और सर्वदेशीय साहित्य का भी। विभिन्न विचारधाराओं और व्यक्तित्वों के संघर्ष में हिंदीयत की अवधारणा का निर्माण होता आ रहा है। उसके उद्भव, विकास और प्रकार्य को समझने का काम अभी अधूरा है। प्रारम्भ में हिंदीयत की अवधारणा भी बड़े शहरों से संबद्ध थी, आज वह छोटे शहरों, कस्बों और गाँव तक प्रसारित हो चुकी है। विभिन्न धर्मों, जातियों-जनजातियों, समुदायों के लोग, विभिन्न राजनैतिक और सामाजिक संगठन, आभिजात्य-वर्ग और निम्न-वर्ग मिलकर हिंदीयत का निर्माण करते हैं। विभिन्न विचारधाराओं के समीक्षकों ने हिंदीयत की अलग-अलग व्याख्या की है। कभी इसे भारतीय कहा गया, कभी देशज तो कभी स्थानीय। हिंदीयत एक बहु-संस्कृतिपूर्ण क्षेत्र-भावना है। आज का साहित्यिक और समीक्षक भी बदली हुई स्थितियों में भारतीय, देशज या स्थानीय होने का अर्थ खोज रहा है। हिंदीयत का नया रूप विश्व-साहित्य की पूर्णता में प्रकट होगा। हिंदीयत की पहचान बनने के लिए आभिजात्य-वर्ग और निम्न-वर्ग निरंतर संघर्षरत हैं। दोनों अपनी-अपनी तरह की हिंदीयत के हामी हैं।
२१वीं सदी का हिन्दी साहित्यिक विश्व-साहित्य के संपर्क में है, हिंदीयत की पहचान भी उसे है। लेकिन आज हिन्दी के दोनों संघर्षरत वर्गों के साहित्यिक अपने वर्गीय उपचेतन को प्रकट करने में, उसका निस्संकोच, साहसिकता से चित्रण करने में प्रायः असमर्थ हैं। उनके मन में शंका है, डर है। दोनों ही अपने उपचेतन में नहीं उतरना चाहते – जहाँ हिंसा-उन्माद-विकृति का कोहराम मचा है। निम्न-वर्ग की आर्थिक-स्थिति से उसके साहित्यिकों का विश्व-साहित्य के संपर्क में न आ पाना समझा जा सकता है, वह अभी भी इंटरनेट पर उपलब्ध साहित्य के संपर्क में नहीं है, उसकी जेब प्रायः खाली है, विश्व-साहित्य की उसकी समझ का अभी निर्माण होना है, पर आभिजात्य-वर्ग की समस्या कुछ और है – सुस्ती और निराशा, शंका और भय, बाह्याडंबर और वाक्जाल से लगाव आदि। इस संबंध में दलित-साहित्य ही उल्लेखनीय है, जहाँ भारतीय उप-महाद्वीप के निम्न-वर्ग के उपचेतन का सुंदर चित्रण हुआ है। हिन्दी-साहित्यिक भी इस कार्य में पीछे नहीं रहे हैं। आज भारत का दलित-साहित्य अपने निजी अनुभवों का प्रायः उपभोग कर चुका है। अब उसे निम्न-वर्ग के अन्य-अनुभवों से खुद का संबंध बनाना होगा, अन्यथा वह भी नीरस जीवन का अंश बनकर रह जाएगा। दलित-साहित्य में भी आभिजात्य-वर्गीय-प्रेरणाएँ प्रकट होती रही हैं, जो दलित-साहित्य-विरोधी है। निम्न-वर्गीय स्त्री-साहित्य की संख्या पर अभी मुझे शोध करने की आवश्यकता है।
नई सदी की स्त्री साहित्यिकों में साहस और विचारधारात्मक प्रतिबद्धता का विकास आशापूर्ण है। वास्तव में वर्ग-संघर्ष और वर्गीय चेतन और उपचेतन स्तरों के अंतर्संबंधों की पूर्णता को देख पाने में आज का हिन्दी साहित्यिक प्रायः असमर्थ है। हिंदीयत की खोज का प्रारम्भ आधुनिक धार्मिक आंदोलनकारियों की छत्र-छाया में हुआ था, उसकी हिंसक-धर्मवादी व्याख्याएँ नई नहीं हैं। फ़ासीवाद की प्रेरणा हिन्दी-साहित्यिकों में गहरी पैठ बना चुकी है। हिन्दी का अभिजात्य-वर्ग संस्कृति और सभ्यता का जानकार और रक्षक होने का दावा करता है, यह वर्ग हिंसक-धर्मवादी व्याख्याओं को निर्मित और प्रचारित करता आया है। मुक्तिबोध ‘दिमाग़ी गुहान्धकार का औरांग-ऊटांग’ कविता में इस वर्ग के उपचेतन में उतरते हैं, वे पुछते हैं – ‘किसके लिए हैं बाघ-नख ये?’। उत्तर साफ़ है – निम्न-वर्ग के लिए। आज हिन्दी के लोकप्रिय साहित्य और कला पर उपभोक्तावाद और उससे जन्मे हिंसक-धर्मवाद का प्रभाव और भी स्पष्ट है। इन व्याख्याओं और हिंसा-उन्माद की कार्यवाहियों के बीच हिंदीयत की निम्न-वर्गीय प्रेरणाएँ निरंतर कुचली जा रही हैं। निम्न-वर्ग के साहित्यिकों पर भी इन व्याख्याओं का दबाव और दमन तथा बहिष्कार का भय व्याप्त है। हिन्दी के निम्न-वर्गीय साहित्यिक की वर्ग-चेतस-सक्रियता से ही इस स्थिति में बदलाव आ सकता है। हिन्दी के निम्न-वर्गीय साहित्यिकों के लिए आज जरूरी है कि वे विश्व-साहित्य को, हिंदीयत को समझें, पूंजीवाद-साम्राज्यवाद के विरुद्ध एकजुट हों, अपने उपचेतन को समझें, निम्न-वर्गीय-एकजुटता बनाएँ, नए सौंदर्यशास्त्र का निर्माण करें और विश्व-साहित्य के निर्माण में सक्रिय सहयोग दें!
उस्मान ख़ान समकालीन हिंदी साहित्य के अलहदा युवा कवि-कथाकार हैं. चर्चाओं और पुरस्कारों की भीड़ से अलहदा… छपाऊ मानसिकता से भी अलहदा... जे.एन.यू. के हिंदी विभाग से मालवा के लोक–साहित्य पर पीएचडी. इनसे usmanjnu@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं.