(यह लेख उद्भावना पत्रिका के हाल ही में प्रकाशित ‘रामविलास शर्मा महाविशेषांक‘ से लिया गया है. प्रकाशित लेख की प्रूफ संबंधी अशुद्धियाँ यहाँ यथासंभव ठीक कर इसे प्रस्तुत किया जा रहा है .)
BY प्रणय कृष्ण
रामविलास शर्मा के बौद्धिक संघर्ष को महज साहित्य तक सीमित मानकर उसे नहीं समझा जा सकता. उनके काम को भाषा विज्ञान, दर्शन, इतिहास, राजनीतिविज्ञान, अर्थशास्त्र आदि समाजविज्ञानों में बाँट कर देखना-समझना और उससे निष्कर्ष निकालना और भी गलत है. कभी-कभी कुछ अकादमिक विद्वान उनके लिखे-पढ़े को समाजविज्ञान की किसी शाखा की पद्धतियों से बाँध कर उसकी प्रशंसा या निंदा करते हैं. दर-असल उनके लिखे-पढ़े का सम्बन्ध समकालीन समाज-विज्ञानों के अनुभववादी रुझान से कतई नहीं है. उसका सम्बन्ध मार्क्सवाद से ग्रहण की गई उस अध्ययन पद्धति से है जो दृश्यमान को भेदकर वास्तविकता तक पहुँचनेवाली समग्रतावादी पद्धति है. उसमें ‘स्पेश्लाइज़ेशन’ वाला रुझान नहीं है. साम्राज्यवाद-विरोधी मुक्ति-संघर्ष के बौद्धिक-योद्धा के रूप में ही उन्होंने साहित्य से लेकर तमाम क्षेत्रों में अनथक दौड़ लगाई. वे अगर कुछ थे तो भारत के अग्रणी साम्राज्यवाद-विरोधी चिन्तक थे जैसे कि कई अन्य पराधीन रहे देशों के ऐसे ही चिन्तक. फ्रान्ज़ फैनन को आप सांस्कृतिक अध्ययन, जेंडरस्टडीज़, उत्तर-औपनिवेशिक अध्ययन, मनोरोगशास्त्र, सोशल एक्सक्लूज़न, अश्वेत अध्ययन आदि तमाम शाखाओं में पढ़ सकते हैं जिनमें से ज़्यादातर अनुशासन गैर-पारंपरिक हैं, लेकिन अंततः आप उनके साहित्य को उपनिवेशवाद-विरोधी चिंतन की विश्व-धरोहर में ही स्थान देंगे. फैनन से हम कई अर्थों में उनकी तुलना नहीं कर सकते, लेकिन रामविलास शर्मा का लेखन भी उपनिवेशवाद-विरोधी चिंतन की विश्व-धरोहर है. वे तीसरी दुनिया के मुक्ति-संग्रामों के पिछले दौर के तमाम बड़े चिंतकों की तरह ही मार्क्सवाद को पराधीन देशों की मुक्ति का दर्शन मानते थे.
बौद्धिक योद्धा की उनकी भंगिमा अकादमिक निस्संगता (और अहम् को भी) चोट पहुंचाने वाली है. डेविड मैकलेनन ने लिखा है, “मार्क्स की मृत्यु के बाद की शताब्दी में समाज-विज्ञानों का जो ज़बरदस्त विकास हुआ है, उसमें इकहरेपन के दो आयाम हैं- लम्बवत (वर्टिकल) अर्थ में वह संकीर्ण ‘विशेषज्ञताओं’ के घेरे में उत्पादित ऐसे विद्वानों का (बौद्धिक) उत्पाद है जो कम से कम के बारे में अधिक से अधिक जानते हैं और क्षैतिज (हारिजान्टल) अर्थ में उसका सम्बन्ध समाज के सतही घटना-प्रपंच से है जो प्रेक्षण और परिमाण के मापन के लिए आसानी से सुलभ हैं.”
ज़ाहिर है कि रामविलास शर्मा का चिंतन इस इकहरेपन के खिलाफ है. वे वस्तुओं की गतिशील अंतर्संबद्धताओं का पता लगाने, उनकी तह तक पहुँचने की कोशिश में इतिहास, दर्शन, समाज, राजनीति, कला-साहित्य और अर्थव्यवस्था का अध्ययन करते हैं, अकादमिक सैर पर निकलने के किसी शौक के चलते नहीं. हर अनुशासन में जाने के पीछे प्रेरणा कहीं भी महज अकादमिक नहीं है. एक ही प्रेरणा है ‘साम्राज्यवाद और सामंतवाद का विरोध’, भारत की आज़ादी के बाद भी औपनिवेशिक अन्यथाकरण को ध्वस्त करते हुए पूरे उप-महाद्वीपीय इतिहास, संस्कृति और जन-जीवन की वास्तविकताओं को वापस पाना, स्वायत्त करना ही उनकी प्रेरणा है, बहुत कुछ एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के उन उपनिवेशवाद-विरोधी चिन्तकों की तरह जिन्होंने वि-उपनिवेशीकरण के दौर में अपने-अपने देशों-महाद्वीपों के बारे में सारे साम्राज्यवादी चिंतन और तर्क-पद्धति को पलटा. गिरिजा कुमार माथुर की काव्य-पंक्तिया हैं –
‘मेरी छाती पर रखा हुआ साम्राज्यवाद का रक्त-कलश
मेरी धरती पर फैला है, मन्वंतर बनकर मृत्यु-दिवस‘
इन्हें ही संदर्भित कर अपने बारे में बोलते हुए ११ जनवरी, 1994 को साहित्य अकादमी में रामविलास जी ने कहा, “गिरिजाकुमार ने एक बात कही थी- ‘साम्राज्यवाद का रक्त-कलश’- यह किसी न किसी रूप में मेरे मन में बराबर रहती है.”
इसीलिए उन्होंने साहित्य की प्रगतिशीलता का पैमाना भी ‘सामंतवाद और साम्राज्यवाद के विरोध’ को बनाया. इसी पैमाने पर उन्होंने हिन्दी के आधुनिक साहित्य को कसा और पुराने साहित्य को भी. इसी आधार पर उन्होंने परम्परा का मूल्यांकन किया. जब साम्राज्यवाद के अधीन भारत नहीं था, तब के साहित्य और सांस्कृतिक जागरण को उन्होंने ‘सामंतवाद के विरोध’ के आधार पर जनजागरण कहा और सामंतवाद के साथ साम्राज्यवाद के विरोध पर आधारित जागरण को ‘नवजागरण’ कहा. भाषा- विज्ञान की तरह रुख करने का कारण भी साम्राज्यवाद का विरोध था. रामविलास शर्मा ने खुद ही कहा है, “भाषा -विज्ञान में काम करने की एक प्रेरणा ये थी की पाश्चात्य विद्वान कहते थे की भारत का कोई भी भाषा परिवार भारत का नहीं है… साम्राज्यवाद कहता है की तुम्हारा कोई भाषाई रिक्थ नहीं है. मैं कहता हूँ कि हमारा भाषाई रिक्थ है, हमारे भाषा-परिवारों के आपसी सम्बन्ध समझे बिना तुम यूरोप की भाषाओं का विकास नहीं समझ सकते.”(11 जनवरी, 1994 को साहित्य अकादमी में दिया गया व्याख्यान) दर्शन शास्त्र के अध्ययन में प्रवृत्त होने का कारण भी यही है. रामविलास जी के शब्दों में,” कुछ लोगों ने दर्शनशास्त्र पर लिखना शुरू किया. सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता ने जो भारतीय दर्शन का इतिहास लिखा है, उसके आरम्भ में उन्होंने बताया है, कैसे यूरोप के लोग कहते हैं कि भारत का कोई दर्शन नहीं है. भारत में देवकथाएं हैं, मिथक हैं, काव्य हैं और धर्म तो हैं ही. लेकिन विवेक-सम्पन्न दर्शन भारत में नहीं है. आपके पास कोई भाषाई रिक्थ नहीं है, कोई दार्शनिक रिक्थ नहीं है.” (उपरोक्त भाषण से) भारतीय अर्थशास्त्र, इतिहास और सामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में उन्होंने जो काम किया वह तो उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के औचित्य-स्थापन को ध्वस्त करने के लिए सबसे ज़रूरी था. मानव-मुक्ति, तीसरी दुनिया और भारत की मुक्ति के लिए वे जिस एकमात्र विचारधारा को ज़रूरी मानते थे, वह थी मार्क्सवाद. वे यह देख रहे थे कि साम्राज्यवाद के समर्थक,भारत की गुलामी को औचित्यपूर्ण ठहरानेवाले बहुत से विचारकों को मार्क्स की भारत संबंधी आरंभिक धारणाओं, खुद पूंजीवाद को एक ख़ास ऐतिहासिक मोड़ पर प्रगतिशील मानने की उनकी धारणाओं से बल मिल रहा है. ऐसे में उनके लिए सबसे ज़रूरी था कि मार्क्स-एंगेल्स के विचारों का विकास दिखलाकर यह बताएं कि कैसे भारत के बारे में, उसके अर्थतंत्र, समाज-व्यवस्था के बारे में, भारत में औपनिवेशिक हस्तक्षेप के मूल्यांकन के सन्दर्भ में उनके विचार कैसे और क्यों बदले, ताकि कोई उनके विचारों के समृद्ध, और विकसनशील रिक्थ में से कुछ को चुनकर साम्राज्यवाद की प्रगतिशीलता स्थापित न कर सके. हम इस लेख में मुख्यतः रामविलास जी के इसी पक्ष पर अपना ध्यान केन्द्रित रखेंगे, लेकिन मार्क्सवाद से उनकी संलग्नता का एक दूसरा पहलू भी है जो कम महत्वपूर्ण नहीं है. वह पहलू यह है की मार्क्सवाद के स्रोतों में मुख्यतः क्लासिकीय जर्मन दर्शन, फ्रांसीसी समाजवाद और ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र की चर्चा होती है,लेकिन समग्र मानव-मुक्ति के दर्शन के रूप में उसके सतत विकास के लिए यह आवश्यक है की पूरब की बौद्धिक विरासत का अनुसंधान कर उसे सतत विकासशील मार्क्सवादी विचार-सरणी के वैध स्रोत के रूप में कैसे स्थापित किया जाए. रामविलास जी ने ‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’ शीर्षक पुस्तक में क्लासिकीय मार्क्सवाद के स्रोतों में पूरब की बौद्धिक विरासत के योगदान को रेखांकित करने की पुरजोर कोशिश की है. मैं नहीं कह सकता की उस पुस्तक से मार्क्स और एंगेल्स के विचारों पर ‘यूरो -केन्द्रिक’ होने के आरोपों का किस हद तक परिहार होता है, लेकिन यह सच है की खुद मार्क्स और एंगेल्स ने जिस विचारधारा को जन्म दिया था, वह समूचे मानव समाज की मुक्ति की विचारधारा थी. उन्होंने अनेकशः अपने लेखन में पूरब में क्रान्ति की सम्भावनाओं को तलाशा था, गो की उन्हें विकसित देशों में समाजवादी क्रान्ति पहले होने की उम्मीद आखिर तक थी, जिसे इतिहास ने सही साबित नहीं किया. उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से पीड़ित देशों के मार्क्सवादी बहुधा अपने देशों के इतिहास, समाज, दर्शन, साहित्य की समस्याओं पर विचार करते हुए मार्क्सवादी ज्ञान परम्परा को समृद्ध करते रहे हैं. इससे न तो मार्क्सवाद राष्ट्रवाद के मातहत हो जाता है और न ही उसका अंतर्राष्ट्रीयतावाद कहीं से आहत होता है. कुछ गैर मार्क्सवादियों और कुछ भूतपूर्व मार्क्सवादियों ने मार्क्सवाद का भारतीयकरण करने के लिए रामविलास जी की दाद दी है. अब रामविलास जी तो वापस आएँगे नहीं उन्हें यह बताने की मार्क्सवाद कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसका ‘भारतीयकरण’, ‘पाकिस्तानीकरण’ या ‘जापानीकरण’ हो सकता हो. वह सार्वभौम मानवता की संपत्ति है. रामविलास जी उसे पिछड़े हुए देशों की मुक्ति के लिए विशेष प्रासंगिक पाते हैं जिनमें भारत भी एक है. उन्हीं के शब्दों में, “गोरे उपनिवेशों के अलावा पराधीन और नीम पराधीन देशों की जनता अपनी आज़ादी के लिए बराबर लड़ती रही. विश्व बाज़ार की बहुसंख्यक जनता पिछड़े हुए देशों की है. जो दर्शन, जो विज्ञान इस जनता को अपनी आज़ादी के लिए लड़ना सिखाता है, अपने पिछड़ेपन से निकलकर नए जीवन का निर्माण करना सिखाता है, उसका नाम मार्क्सवाद है.” (पृष्ठ 2, मार्क्स और पिछड़े हुए समाज) लेकिन पिछड़े हुए देशों के लोगों को, उनके मुक्ति-योद्धाओं और चिंतकों को यह विज्ञान, यह दर्शन उनकी ज़रूरतों के हिसाब से बना-बनाया नहीं मिला था. उन्हें इसे अपने परिस्थितियों में विकसित और समृद्ध करना था और है. मार्क्सवाद विचारों की कोई बंद व्यवस्था नहीं है, वह मार्क्स और एंगेल्स के जीवनकाल में ही पूर्ण नहीं हो गई. आगे के लोगों ने उसका विकास जारी रखा. नाम ही लेना हो तो लेनिन, रोजा लक्ज़मबर्ग, ग्राम्शी, माओ आदि उल्लेखनीय हैं. मार्क्सवाद, मशहूर मार्क्सवादी चिन्तक रणधीर सिंह के शब्द उधार लेकर कहें तो ‘अपूर्ण परियोजना’ (अनफिनिश्ड प्रोजेक्ट) है. मार्क्स-एंगेल्स ने किसी ‘क्लोज्ड सिस्टम’ का निर्माण नहीं किया था. मार्क्सवाद पर शासक वर्ग के लगातार होने वाले हमलों से उसकी रक्षा भे उसके विकास द्वारा ही संभव है.
रामविलास शर्मा के चिंतन की जो दूसरी बात उन्हें अकादमिक बौद्धिकता से अलग करती है, वह है उनकी अपने परिवेश से गहरी सम्बद्धता. उनके पाँव अपनी ही धरती में धंसे हुए हैं जहां से वे दुनिया को समझते हैं. अकादमिक बौद्धिकता के लिए गगनविहारी होना सुलभ है, सम्बद्ध होना दुष्कर. बैसवाड़े की धरती, अवध के लोकजीवन, भारत की किसान और मेहनतकश जनता, हिन्दी भाषा, भारतीय साहित्य, दर्शन, संगीत, कला और इतिहास से उनकी सम्बद्धता उनके विश्व-दृष्टिकोण के विकास में सहायक है, बाधक नहीं. यह सम्बद्धता शताब्दियों से चले आ रहे साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी वैदुश्य द्वारा पराधीन देशों, उनके इतिहास और उनके निवासियों के बारे में पूर्वाग्रहग्रस्त निष्कर्षों से लड़ने में उनकी सहायता करती है. यह सम्बद्धता उन्हें संकीर्ण नहीं बनाती, बल्कि तमाम पराधीन जातियों से ‘दर्द का रिश्ता’ बनाने और ‘मुक्ति का साझा’ करने में सहायक है. रामविलास जी का कहना था की उन्हें याद करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है उन्होंने जो सवाल उठाए हैं, जो मुद्दे उठाए हैं, उनपर विचार किया जाए. आज उनकी जन्मशती के अवसर पर ये मौक़ा है की हम उनको याद करने के ज़रिए उन विराट समस्याओं से रू-ब-रू हों जिन्हें हल करने का उन्होंने अथक प्रयास किया. वे पराधीन भारत में जन्में और जवान हुए और भारत की राजनीतिक आज़ादी के 55 साल देखने के बाद विदा हुए.
रामविलास शर्मा ने भारत में अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशील भूमिका मानने से इनकार किया और यही उन्हें सामान्यतः उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की प्रगतिशील भूमिका के बौद्धिक प्रत्याख्यान के अथक अभियान की ओर ले जानेवाला प्रस्थान-बिंदु है. वास्तव में यह धारणा (यानी उपनिवेशवाद/साम्राज्यवाद की प्रगतिशील भूमिका का नकार) पराधीन देशों के मुक्ति-संघर्षों तथा मार्क्सवादी चिंतन की विकासमान परम्परा की महत्वपूर्ण सैद्धांतिक देन है. मार्क्स-एंगेल्स के लेखन में भी बाद के दिनों में इस धारणा के बीज मिलने शुरू हो गए थे. यह सच है कि कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो सहित मार्क्स क़ी अन्य आरंभिक कृतियों में सामंतवाद और दूसरी प्राचीन उत्पादन पद्धतियों के मुकाबले पूंजीवाद उत्पादन की शक्तियों और संबंधों में लगातार क्रांतिकारी परिवर्तन करते चले जाने के अर्थ में प्रगतिशील बताया गया है. उसकी प्रगतिशीलता का दूसरा पहलू यह था कि वह इतिहास की पहली उत्पादन-व्यवस्था थी जो उन भौतिक परिस्थितियों तथा वर्ग-शक्तियों (सर्वहारा वर्ग) को पैदा कर रहीं थी जो उसका खात्मा करके समाजवाद की स्थापना करेंगी. लेकिन मार्क्स ने जब यह प्रतिपादित किया तो उनके सामने उदाहरण योरप का था, खासतौर पर ब्रिटेन और फ्रांस का जहां (19वीं सदी के मध्य में जबसे उनकी कृतियां मिलना शुरू होती हैं) पूंजीवाद पुराने सामंती सम्बन्धों को मिटाकर एक क्रांतिकारी भूमिका निभा रहा था. यदि यह माना जाए की पूंजीवाद की प्रगतिशीलता का निकष समाजवादी रूपांतरण के अंतिम लक्ष्य के लिए भौतिक परिस्थितियाँ पैदा करना है, तो यह भी मार्क्स और मार्क्सवाद की बहु आयामी प्रस्थापनाओं में से महज एक है जिसका सन्दर्भ 19वीं सदी के योरप में समाजवादी क्रान्ति की मार्क्स की उम्मीद है. वास्तव में 20वीं सदी की समाजवादी -मार्क्सवादी क्रांतियाँ पिछड़े हुए देशों में हुईं. मार्क्स ने ‘पूंजी’ लिखते वक्त भी चेताया था कि वे ‘पश्चिमी योरप में पूंजीवाद के उद्भव का ऐतिहासिक रेखाचित्र प्रस्तुत कर रहे थे और इसे किसी ऐसे ऐतिहासिक-दार्शनिक सिद्धांत के रूप में न समझा जाए जिस पर चलना किसी भी ऐतिहासिक परिस्थिति में सभी जातियों/जनता की नियति हो. लेकिन उसी ‘पूंजी’ में मार्क्स ने पूंजी के गढ़ों से बाहर उसके प्रसार (उपनिवेशवाद सहित) द्वारा मचाई गई भारी तबाही का वर्णन भी किया है. बाद में तो रूस और उसके पिछड़ेपन के सन्दर्भ में उन्ही संकटों पर वे ध्यान केन्द्रित करते हैं जो आज तीसरी दुनिया में हमारी समस्याएं हैं. वे लगातार विकसित और अर्द्ध-विकसित देशों के बीच द्वंद्वात्मक सबंधों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे थे जहां पूंजीवाद ने विकसित देशों की छवि में किसी समरूप व्यवस्था को कायम करने के ज़रिए अपना प्रसार नहीं किया, बल्कि विकसित ओर अल्पविकसित क्षेत्रों के बीच ध्रुवीकृत विश्व-व्यवस्था का निर्माण किया. विकसित और अविकसित क्षेत्र द्वन्द्वात्मक अंतर्संबंधों में बंधकर एक सम्पूर्णता का निर्माण ज़रूर करते हैं, लेकिन वे इस व्यवस्था के परस्पर-समान अंग नहीं है और न ही कभी हो पाएंगे. विशेष रूप से 1870 और 1880 के दशकों में मार्क्स पूंजीवाद की सीधे-सीधे प्रगतिशील लगनेवाली तस्वीर से हट कर विचार करते हैं. उनका ध्यान इस दौर में उन अंतर्विरोधों और पेचीदगियों पर ज़्यादा केन्द्रित होता है जिनका सम्बन्ध उस परिघटना से है जिसे हम आज की शब्दावली में ‘पर-निर्भर विकास’ कहते हैं. पूंजीवादी केन्द्रों ने जिस विराट परिधि को पैदा किया, इतिहास की बड़ी तस्वीर में मार्क्स के यहाँ अब उसका महत्त्व बढ़ चला. रामविलास शर्मा ने लगातार मार्क्स और एंगेल्स के विचारों में विकास को दर्शाया कि किस तरह उन्होंने हर परिस्थिति में पूंजीवाद को प्रगतिशील नहीं ठहराया था. मार्क्स को विकासवादी नज़रिए से पढ़ने पर इतना ही समझ में आता है कि अंततः पून्जीवाद पिछली सभी उत्पादन पद्धतियों के सन्दर्भ से (यानी उनके मुकाबले) ज़रूरी, अपरिहार्य और प्रगतिशील है तथा वे तमाम प्राक-पूंजीवादी सामाजिक शक्तियां जो पूंजीवादी विकास के रास्ते में रोड़ा अटकाती हैं, वे वस्तुगत स्तर पर प्रतिक्रियावादी हैं. तीसरी दुनिया के वे मार्क्सवादी जो मार्क्स का विकासवादी पाठ (प्राणिविज्ञान में लामार्क के विकासवाद के समतुल्य) किए जाने से बराबर सावधान करते हैं, उनमें सादर रामविलास शर्मा का नाम लिया जा सकता है. यह भी ध्यान देने की बात है कि मार्क्स और एंगेल्स के विचारों में बदलाव या विकास अकस्मात् पैदा नहीं होते, बल्कि उनके बीज पहले के विचारों में मिल जाते हैं जिन्हें वे अनेक कारणों से बाद में ही विकसित करने का मौक़ा पाते हैं. मार्क्स के लिए कभी भी मानव समाज का विकास पूर्व -निश्चित चरणों में तत्वतः निर्धारित विकास नहीं था.’द जर्मन आइडियोलोजी’ में उनका कहना है, ” आगे का इतिहास पिछले इतिहास का लक्ष्य है……(यह सोचना) शुद्ध अटकलबाजी है, मिथ्या तोड़-मरोड़ है. ‘ग्रुन्द्रिस्से’ में वे कहते हैं कि’पिछले इतिहास की ‘नियति’, ‘लक्ष्य’ उसमें निहित भावी इतिहास के ‘बीज’ या ‘विचार’ जैसे पदों से जो अभिहित किया जाता है वह और कुछ नहीं बल्कि आगे के इतिहास से निकाले गए अमूर्तन मात्र हैं.’ मज़े की बात यह है कि ये वही प्रारम्भिक कृतियाँ है जिनका सर्वाधिक ‘विकासवादी’ पाठ किया जा सकता है, किया जाता रहा है. आगे जब हम देखेंगे कि पूंजीवाद को एक ख़ास ऐतिहासिक मोड़ और योरप के आधुनिक इतिहास के एक ख़ास क्षण में प्रगतिशील बताने वाले कार्ल मार्क्स की इस धारणा को कैसे सभी परिस्थितियों में सही मानने की प्रवृत्ति ने खुद मार्क्सवादी दायरे में उपनिवेशवाद के औचित्य-स्थापन की प्रवृत्ति को जन्म दिया, तब अधिक स्पष्ट होगा कि मार्क्स को पढने में सावधानियां बरतने की बात बारम्बार क्यों याद रखनी ज़रूरी है.
अकारण नहीं कि 21वीं सदी में अपने महाग्रंथ ‘क्रायसिस आफ सोशलिज्म’ में रणधीर सिंह लिखते हैं, “मार्क्स की रचनाओ की समृद्ध, बहु-आयामी रचनाशीलता की अपनी ‘खामोशियाँ’ और ‘खाली जगहें’ भी हैं -साथ ही सारे ही जीवित यथार्थ की तरह विरोधाभास भी. लेकिन इन रचनाओ में ‘खामोशियों’, ‘खाली जगहों’ पर केन्द्रित करते वक्त इनके विभिन्न और विरोधाभासी पहलुओं में से किसी एक को उसके सन्दर्भ और उनके समूचे रचनाकर्म में उसके स्थान की अवहेलना की कीमत पर अलगा कर देखना उनके मार्क्सवाद के प्रति नासमझी है, उसका अन्याथाकरण है.” (रणधीर सिंह, क्रायसिस आफ सोशलिज्म, पृष्ठ-43)
भारत खेतिहरों का देश है, दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है, उसकी मुक्ति की कठिनाइयां अनंत हैं. अपने देश के मेहनत-मजूरी करनेवालों, खेती करनेवालों को, कारीगरों को कब मुक्त इंसानों की तरह जीने और विकास करने का मौक़ा मिलेगा, कब वे मानसिक और भौतिक रूप से आज़ाद होंगे, ये आज़ादी कैसे हासिल होगी, कौन कौन से पहाड़ इस मुक्ति का रास्ता रोके खड़े हैं, यही रामविलास जी की चिंता का विषय था. सामंतवाद और साम्राज्यवाद ही ये पहाड़ हैं जिन्हें हटाए बगैर भारत देश गरीबी, पिछड़ेपन, जहालत, रोज़मर्रा के रोग- शोक से मुक्त नहीं होगा.
पूंजीवाद की प्रगतिशीलता : कब और किसके लिए ?
रामविलास शर्मा शुरू से ही इस बात को लेकर सजग हैं कि उपनिवेशवाद और ख़ास तौर पर भारत में अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशीलता का मिथक पश्चिम योरप के सन्दर्भ में पूंजीवादी क्रांतियों की प्रगतिशीलता के मार्क्स के सामाजिक प्रगति के सिद्धांत से उपार्जित दृष्टिकोण है जो मार्क्स के लेखन की समग्रता की नासमझी से पैदा हुआ है.
हमने पहले ही लक्ष्य किया कि पूंजीवाद की प्रगतिशीलता का जो आख्यान मार्क्स की आरंभिक कृतियों में खासतौर पर मिलता है, उसका ख़ास सन्दर्भ है- पूंजीवाद सामंतवाद और अन्य पुरानी उत्पादन पद्धतियों का विनाश कर उत्पादन के साधनों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाता है और मुनाफे के लिए उसे लगातार उत्पादन के साधनों में क्रांतिकारी परवर्तन लाते जाना उसकी संरचनागत मजबूरी है. पुरानी उत्पादन पद्धति से पूंजीवाद में रूपांतरण कैसे होता है?पूंजीवादी उत्पादन पद्धति कैसे अस्तित्व में आती है? “विकास के एक ख़ास चरण में, (पुरानी उत्पादन पद्धति) अपने ही विलोप की भौतिक शक्तियों को सामने लाती है. इस क्षण से नई शक्तियां और नया जोश समाज के हृदय में उफान मारता है, लेकिन पुराना ढांचा उन्हें रोकता है.उसका विनाश किया जाना होता है, विनाश किया गया. उसका सफाया (अर्थात) वैयक्तिक और बिखरे हुए उत्पादन के साधनों का सामाजिक रूप से केंद्रीभूत साधनों में रूपांतरण, ढेर सारे लोगों की बौनी संपत्तियों का कुछ लोगों की बड़ी संपत्तियों में रूपांतरण,विशाल जनसँख्या की ज़मीनों का स्वामित्वहरण, जीविका और श्रम के साधनों से उनकी बेदखली, बड़े पैमाने पर जनसँख्या का भयावह और दर्दनाक स्वामित्वहरण पूंजी के इतिहास की भूमिका है.” (पूंजी खंड 1, अध्याय 32) यह लिखते वक्त मार्क्स के सामने उदाहरण है पश्चिमी योरप का, ख़ास कर इंग्लैण्ड और फ्रांस का, वहां सामंतवाद के साथ पूंजीवाद के टकराव का. सच तो यह है कि यदि वे पूंजीवाद कि इस भूमिका को प्रगतिशील बता रहे थे तो निरपेक्ष रूप से नहीं, बल्कि इसलिए कि योरप को सामने रखकर उन्हें पूंजीवाद पुरानी गतिरुद्ध उत्पादन पद्धतियों और समाजवाद के बीच की ज़रूरी कड़ी लगता था. पूंजीवाद अपने मूलभूत अविवेकपूर्ण और अमानवीय रूप में रोज़-ब-रोज़ अभिव्यक्त होते हुए भी एक अधिक विवेकपूर्ण और मानवीय समाज व्यवस्था अर्थात समाजवाद की ओर रूपांतरण के लिए आधार तैयार करता प्रतीत हो रहा था. इंग्लैण्ड और फ्रांस जैसे देशों में समाजीकृत उत्पादन और पूंजीवादी अधिशोषण के बीच अंतर-विरोध, सर्वहारा और पूंजीपति के बेच अंतर्विरोध पूंजीवाद के भीतर विकसित उत्पादक शक्तियों के लिए अवरोध बना हुआ था जिसका समाधान था समाजवाद. पूंजीवाद ने समाजवाद के लिए विकसित उत्पादक शक्तियों के रूप में न केवल भौतिक आधार तैयार कर दिया था, बल्कि ‘अपनी (अर्थात पूंजीवाद की) ही कब्र खोदने वालों’ यानी सर्वहारा वर्ग को भी जन्म दे दिया था. मार्क्स इस दौर में समाजवादी रूपांतरण के लिए वस्तुगत भौतिक आधार पर काफी जोर देते दिखाई देते हैं. इस दौर में वे उत्पादक शक्तियों में भारी इजाफा, उच्च स्तर के विकास को मानव मुक्ति की आधारभूत शर्त मानते हैं क्योंकि इसके बगैर यानी अभाव और गरीबी की सामान्य दशा में ‘व्यक्तिमत्ताओं का उन्मुक्त विकास’ संभव ही नहीं है जो समाजवाद के लिए ज़रूरी है. उत्पादक शक्तियों में, उत्पादन की प्रक्रिया में उच्चतम विकास पूंजीवाद की विकसित अवस्था वाले देशों में ही था. ऐसा विकास पूंजीवाद ही लाया था. वह प्रगतिशील इस मायने में था की उसने समाजवाद के रूप में मनुष्य को ‘ज़रुरत के दायरे’ से मुक्त ‘ आज़ादी के दायरे में’ दाखिल होने की ज़रूरी परिस्थितियाँ तैयार कर दी थीं. मध्य-युगीन, सामंती पद्धतियों के उत्पादन स्तर पर ऐसा सोचना भी संभव न था. कह सकते हैं कि यह सामाजिक क्रान्ति का मार्क्स का मुख्य सिद्धांत है. लेकिन उनके लेखन में आरम्भ में भी और बाद के दौर में और भी अधिक (सामाजिक क्रान्ति) की वैकल्पिक संभावनाएं और परिप्रेक्ष्य मिलते हैं. उनके यहाँ ऐतिहासिक बदलावों का कोई एकरेखीय, सीधा, चरणबद्ध, पूर्व-निर्धारित ढांचा नहीं है. ग्रुन्द्रिस्से में वे पूंजीवाद से पहले के मानवीय अतीत में उत्पादन पद्धतियों की बहुलता को स्वीकार करते हैं जो कि ख़ास स्थानीय, भौगोलिक, नृवंशीय और ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रभाव में विकसित होती दिखाई देती हैं, जिनमें से प्रत्येक का विश्लेषण उसके अपने स्वतंत्र विकास के तर्क और कोटियों में किए जाने की दरकार है. 1880 से 1882 के बीच अपने ‘क्रोनोलाजिकल नोट्स’ में वे पूंजीवाद के आगे के मानवीय भविष्य के लिए भी उसी तरह रास्तों की बहुलता को मान कर चलते हैं. रणधीर सिंह पश्चिम योरप में पूंजीवाद के विकास के अध्ययन से प्राप्त सामाजिक प्रगति के मार्क्स के सिद्धांत को मुख्य मानते हुए उनके द्वारा प्रस्तावित सामाजिक प्रगति या क्रान्ति के वैकल्पिक रास्तों को उसका सहवर्ती (या पूरक) सिद्धांत मानते हैं. इस दूसरे सिद्धांत का सम्बन्ध अपेक्षाकृत पिछड़े हुए देशों, ‘बाधित’ या देर से विकसित हुए, अशास्त्रीय पूजीवादी विकास वाले देशों से है. मार्क्स इस दूसरे सिद्धांत को पूरी तरह से विकसित नहीं कर सके थे. 1945 में ‘जर्मन आइदियालोजी’ में भी जहां वे विकसित जन (देशों की जनता) की क्रांतिकारी संभावनाओं की बात करते हैं वहीं वे अपवादस्वरूप असमतल विकास के परिणामस्वरूप किसी अल्पविकसित देश में भी समाजवादी क्रान्ति के उभार की संभावना देखते हैं. यह अपवाद ही 20वीं सदी में नियम बन गया.
1840 के दशक के आरम्भ से ही मार्क्स का ध्यान जर्मनी के विलंबित पूंजीवाद और वहां संभावित देर से होनेवाली बुर्जुआ क्रान्ति की ओर इस आशा में गया कि वहां की बुर्जुआ क्रान्ति उसके तत्काल बाद संभावित सर्वहारा क्रान्ति की पूर्वपीठिका बनेगी. कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो में उन्होंने लिखा, कम्यूनिस्टों का ध्यान प्रमुख रूप से जर्मनी की ओर है. वह देश बुर्जुआ क्रान्ति के मुहाने पर खडा है जिसका होना योरपीय सभ्यता की अधिक विकसित अवस्था में होने तथा वहां (जर्मनी में) 17वीं सदी के इंग्लैण्ड तथा 18वीं सदी के फ्रांस के मुकाबले कहीं अधिक विकसित सर्वहारा वर्ग के कारण अवश्यम्भावी है. इसलिए भी कि जर्मनी में बुर्जुआ क्रान्ति उसके तत्काल बाद होनेवाली सर्वहारा क्रान्ति की पूर्वपीठिका होगी.” मार्क्स और एंगेल्स ने जिस बुर्जुआ क्रांति की उम्मीद की थी, वह 1848 में हुई भी, दोनों ने उसमें भाग भी लिया, लेकिन डगमगाते कदमों से कुछ दूर आगे बढ़ने पर बुर्जुआ ने समझौता कर लिया और क्रान्ति बुर्जुआ अर्थों में भी असफल रही. जिस विकसित सर्वहारा वर्ग होने के चलते मार्क्स को वहां बुर्जुआ क्रान्ति के तत्काल बाद समाजवादी क्रान्ति की उम्मीद थी, उसी के डर से बुर्जुआ वर्ग ने पुरानी सामंती व्यवस्था के साथ समझौता कर लिया. मार्क्स के लिए इंग्लैण्ड (1649) और फ्रांस (1789) की बुर्जुआ क्रांतियाँ इसीलिए क्रांतियाँ थीं क्योंकि ‘उस समय बुर्जुआ की जीत नई सामाजिक व्यवस्था की जीत थी’. लेकिन जर्मनी के अनुभव से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि बुर्जुआ वर्ग अब क्रांतिकारी नहीं रह गया था, उसने सामंतवाद से समझौता किया, उसका विनाश नहीं किया क्योंकि आसन्न सर्वहारा क्रान्ति का भय उस पर भारी पडा. इस बिंदु पर मार्क्स और एंगेल्स पूंजीवाद की प्रगतिशीलता के प्रति विश्वासी नहीं रह गए. जर्मनी का पूंजीपति वर्ग खुद अपनी बुर्जुआ-जनतांत्रिक क्रान्ति पूरा करने के भरोसे के काबिल न रहा. मार्क्स एंगेल्स का यह विश्लेषण आगे रूस में बोल्शेविकों के बहुत काम का साबित हुआ जब लेनिन ने ‘लगातार जारी’ क्रान्ति की राजनीतिक लाइन सूत्रबद्ध की जिसके आलोक में उन्होंने फरवरी से अक्टूबर 1917 की क्रान्ति का रास्ता तय किया. चीनी क्रान्ति का प्रारम्भिक चरण माओ की उस नव जनवादी क्रान्ति से शुरू हुआ जिसका नयापन इस बात में ही निहित था कि वह अतीत की उन सफल जनवादी क्रांतियों से भिन्न थी जहां पूंजीपति वर्ग ने योरप में सामंती वर्चस्व का खात्मा कर दिया था. कमज़ोर, ढुलमुल और जनक्रांति की संभावनाओं से भयाक्रांत चीन का पूंजीपति वर्ग यह काम कर ही नहीं सकता था. मार्क्स का यह विश्लेषण कि सामंतवाद -विरोधी कृषि क्रान्ति एक सफल बुर्जुआ क्रान्ति का मूल है और किसी भी सुसंगत और पर्याप्त पूंजीवादी विकास की पूर्व-शर्त है, 20वीं सदी की क्रांतियों के ऐतिहासिक अनुभवों से प्रमाणित है. जहां इन क्रांतियों को मार्क्सवादियों ने नेतृत्व दिया जैसे कि चीन और रूस में,वहां के परिणाम पूंजीवादी विकास की दृष्टि से क्या हुए और जहां खुद बुर्जुआ ही नेतृत्वकारी ताकत बना रहा जैसे कि भारत में, वहां क्या हुए, इसकी तुलना भी मार्क्स के विश्लेषण को ही प्रमाणित करेगी. रूस और चीन में सामंती अवशेष ख़त्म हुए और भारत में अभी भूमि-सुधार आज़ादी के 65 साल बाद न केवल पूरे नहीं हुए, बल्कि अब तो नव- उदारवादी निजाम में भूमि सुधार के जो आधे-अधूरे प्रयास अतीत में किए गए थे, उन्हें पलटा जा रहा है.
1848 में जर्मनी का पूंजीपति वर्ग यदि सामंतवाद को मिटा कर पूंजीवादी- जनतान्त्रिक क्रान्ति भी नहीं कर सका तो इसीलिए कि वह पुराने (सामन्ती और मध्ययुगीन) समाज के खिलाफ नए (पूंजीवादी और आधुनिक) समाज की नुमाइंदगी नहीं कर रहा था, क्योंकि उसका सम्बन्ध खुद उस पुराने सामंती समाज से था और वह उसी पुराने अप्रासंगिक समाज के भीतर अपने हितों का नवीनीकरण चाह रहा था. (समाजवादी जन-क्रान्ति का भूत उसे अलग सता रहा था.) यही मार्क्स ने उसके चरित्र के बारे में कहा. इस परिघटना की ऐतिहासिक, देश-कालगत विशिष्टता को यदि हम थोड़ी देर के लिए आँख से ओझल करके विचार करें तो पूंजीपति वर्ग का यही चरित्र (जिसे मार्क्स ने उक्त प्रसंग में चिन्हित किया) विलंबित विकास वाले औपनिवेशिक तथा उपनिवेशवाद से आज़ाद हुए देशों के पूंजीपति वर्गों की लाक्षणिक विशेषता है. इन देशों के सत्ता संघर्ष में तथा जहां वे सत्ता में हैं वहां जिस किस्म का पूंजीवादी विकास वे लाए हैं, यह चरित्र अभिव्यक्त होता है. मार्क्स ने ‘पूंजी’ के जर्मन संस्करण के पहले भाग की भूमिका (1867) में लिखा था, “हम… न केवल पूंजीवादी उत्पादन के विकास बल्कि उसके अधूरेपन का भी कष्ट भोग रहे हैं. आधुनिक बुराइयों के साथ साथ विरासत में पाई गई बुराइयों का एक पूरा सिलसिला हमें सता रहा है जो कि पुरानी धुरानी उत्पादन पद्धति के निष्क्रिय रूप में जीवित बने रहने से उपजता है, जो राजनीतिक और सामाजिक पुरावशेषों की अपरिहार्य श्रृंखला को लिए-दिए चलता है. हम सिर्फ जीवित ही नहीं, बल्कि मृत का भी कष्ट भोग रहे हैं’ 1848 की जर्मन क्रान्ति को आधी सदी से भी ज़्यादा देर से हुई बताते हुए मार्क्स ने कहा कि योरपीय क्रान्ति से बहुत अलग वह एक पिछड़े देश में योरपीय क्रान्ति की द्वितीयक स्तर (सेकेंडरी आर्डर) की परिघटना थी. उन्होंने लिखा, ” आम जानकारी है कि दूसरे क्रम की बीमारियों का इलाज ज़्यादा मुश्किल होता है, साथ ही वे शरीर को प्राथमिक बीमारी की अपेक्षा ज़्यादा नुक्सान पहुंचाती हैं.” (मार्क्स, ‘पूंजीपति और प्रति-क्रान्ति’ शीर्षक लेख, 11 दिसंबर, 1848, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को, 1972 से 1994 में इन्टरनेट के लिए अनूदित) दर असल पिछड़े हुए देशों में पूंजीवाद की परिघटना विकसित योरपीय पूंजीवाद का द्वितीयक रूप ही है जिसमें सामंती अवशेष बचे रहते हैं और पूंजीपति बुर्जुआ जनतान्त्रिक क्रान्ति के अयोग्य होते हैं, सामन्तवाद के साथ गठजोड़ करते हैं. कुल मिलाकर ऐसी जगहों पर बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रान्ति भी सर्वहारा के नेतृत्व में ही संभव होती है समाजवादी रूपांतरण की ओर अग्रसर होती है. ऐसी क्रांतियों में सर्वहारा नेतृत्व में श्रमिक-किसान गठजोड़ भी आवश्यक है. 1848 में जर्मन बुर्जुआ क्रान्ति की असफलता के बाद भी एंगेल्स को 1856 में लिखा,” जर्मनी में सब कुछ सर्वहारा क्रान्ति को किसान युद्ध के किसी दूसरे संस्करण की सहायता मिलने की संभावना पर निर्भर है.” मार्क्स ने कृषि की प्रधानता वाले सभी समाजों में मज़दूर-किसान गठजोड़ बनाने पर लगातार जोर दिया. उन्होंने कभी भी यह तर्क नहीं रखा कि किसी भी ख़ास देश में समाजवाद की विजय उस देश की जनसंख्या में सर्वहारा के बहुमत में होने पर निर्भर है. वे लगातार ऐसी स्थितियों की तलाश में रहे जिनमें मजदूर दूसरे उत्पीडित तबकों के साथ मिलकर सत्ता पर कब्ज़ा कर सकें और समाजवादी रूपांतरण के लम्बे कष्टसाध्य लक्ष्य की ओर बढ़ने का आरम्भ कर सकें. पेरिस कम्यून के तुरंत बाद की विशष्ट स्थितियों में मार्क्स ने मज़दूर-किसान गठजोड़ का जो सैद्धांतिक माडल विकसित किया, वह आज भी पूंजीवादी दुनिया के अल्प-विकसित और विकासशील देशों में समाजवाद के लिए संघर्ष का एक मार्गदर्शक सिद्धांत बना हुआ है. इसे बाद में लेनिन द्वारा रूसी क्रान्ति के रणनीतिक और कार्यनीतिक व्यवहार के बतौर विकसित किया गया और रूस के समाजवादी रूपांतरण की परियोजना का अंग बना. पिछड़े हुए देशों की प्रगति का यही रास्ता मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-माओ के विचारों से निकलता है जिसमें पूंजीवाद और पूंजीपतियों की प्रगतिशीलता की धारणा निहित नहीं है. भारत में भी कम्यूनिस्ट पार्टियों ने इसी रास्ते को अपना मार्ग-निर्देशक माना (भले ही वे व्यवहार के स्तर पर, कार्यनीति के स्तर पर उनमें बहस हो) और उचित ही यह सूत्रबद्ध किया कि भारत एक ‘अर्द्ध औपनिवेशिक, अर्द्ध सामंती’ समाज है जहां कम्यूनिस्ट लोगों का काम जनवादी क्रान्ति करना, फिर समाजवादी रूपांतरण में जाना है. ऐसा कहते ही बहुत से लोगों को यह भी गलतफहमी हो जाती है कि ऐसा कहनेवाले भारत में पूंजीवाद नहीं मानते. वास्तव में ‘ अर्द्ध औपनिवेशिक,अर्द्ध सामंती’ जैसा पद विशेषण है, संज्ञा नहीं. अर्थात भारत में जो पूंजीवाद है वह औपनिवेशिक और सामन्ती विशेषताएं लिए हुए है. ‘सामंती अवशेष’ जैसे पद से ‘अनायास बचा-खुचा, थोड़ा सा रह गया’ जैसा भाव भी कभी कभी लोग ग्रहण करते देखे गए हैं. अवशेष कहने से भाव यह है कि पूंजी के युग में, जो विश्व-व्यापी है, पुरानी व्यवस्था अभी भी ख़ास कर उपनिवेश रहे देशों में पूंजीवाद के साथ साथ, उसके संरक्षण और सहयोग के साथ उसकी विशेषता के बतौर विद्यमान है. वह इसलिए विद्यमान नहीं है कि पूंजीपतियों ने उसे मिटाने का अभियान छेड़ रखा है, लेकिन अभी भी थोड़ी बहुत बची रह गयी है जो समय बीतने के साथ अंतिम रूप से पूंजीपतियों द्वारा ही ख़त्म कर दी जाएगी. इसके उलट औपनिवेशिक विरासत के बतौर वह पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के भीतर पूंजीपतियों के सहयोग से कायम है, अनायास नहीं. इसी बात पर बल देने के लिए और ‘अवशेष’ शब्द में निहित गलतफहमी की गुंजायश को कम करने के लिए कुछ लोग ‘मज़बूत सामंती अवशेषों’ की बात करते हैं.
रामविलास शर्मा यह जानते थे कि पूंजीवाद और पूंजीपति वर्ग की प्रगतिशीलता मार्क्सवाद में ही निरस्त हो जाने के बाद भी एक ‘कामन-सेन्स’ के रूप में जीवित है, जिसके चलते ही मार्क्स द्वारा न्यू यार्क ट्रिब्यून में 1853 से 1858 के बीच लिखे गए 33 टिप्पणीनुमा ‘भारत संबंधी लेखों’ के एक ख़ास एकांगी पाठ के कारण बहुतों को यह भ्रम लम्बे समय तक (शायद आज भी) रहा है कि अंग्रेज़ी राज या ब्रिटिश पूंजीवाद ने भारत में एक प्रगतिशील भूमिका निभाई और उसके विरुद्ध 1857 का विद्रोह एक प्रतिक्रियावादी कदम था. एक सीमित अर्थ में और कुछ ख़ास प्रसंगों में मार्क्स को भले ही उपनिवेशवाद का एक ‘प्रगतिशील’ पक्ष नज़र आया हो, लेकिन उन्होंने एंगेल्स के साथ बराबर उपनिवेशवाद के खिलाफ प्रतिरोध का सकारात्मक मूल्यांकन किया, उसपर खुशी मनाई. रामविलास शर्मा ने लम्बे समय तक धैर्यपूर्वक पूंजीवाद और पूंजीपति वर्ग की प्रगतिशीलता का प्रत्याख्यान करते हुए मार्क्सवाद के पूर्वी समाजों के बारे में विकसित हुए विचारों के क्रांतिकारी आशयों की भारत के किसी भी अन्य बौद्धिक के मुकाबले विशद व्याख्या की.
अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशीलता के मिथक का एक स्रोत यह धारणा थी कि पूंजीवादी विकास की दृष्टि से इंग्लैण्ड एक बढ़ा हुआ देश था और भारत में आधुनिक जनतांत्रिक शासन व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, प्रगतिशील क़ानून और समाज सुधार, नागरिक अधिकारों की प्रक्रिया को उसने आरम्भ किया. रामविलास शर्मा ने दिखलाया कि 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक इंगलैंड में अभी भी ज़मींदार वर्ग ही शासन सत्ता के हर क्षेत्र में हावी था. औद्योगिक क्रांति हो जाने के बावजूद, नए और बढ़ाते हुए उत्पादन संबंधों के अनुकूल राजसत्ता और शासन में परिवर्तन नहीं हुआ था और सत्ताधारी नया भूस्वामी वर्ग पुरानी व्यवस्था कायम किए हुए था जिसके खिलाफ औद्योगिक पूंजी के प्रतिनिधि तथा मज़दूर वर्ग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ रहे थे. देहातों में ज़मींदार घुस देकर, शराब पिलाकर और आतंक और ह्त्या के बल पर मतदान कराते थे. (जैसा भारत में आज़ादी के 50-60 सालों बाद तक होता रहा है, अंग्रेजों के तथाकथित लोकतांत्रिक शासन के अधीन 200 साल और फिर भारत में काले अंग्रेजों के 50 साल के शासन के बाद भी).सार्वभौम बालिग़ मताधिकार अभी इंग्लैण्ड में लागू न था. अंग्रेज़ी स्रोतों से ही, ख़ास तौर पर पूंजीपतियों के नेता ब्राईट के भाषणों को उद्धृत कर रामविलास शर्मा यह दिखलाते हैं कि 1863 तक भी वहां खेत मजदूरों की स्थिति अर्धदासता की थी, सामंती धाक मौजूद थी और मजदूरों पर दमन भी भरपूर था. इंग्लैण्ड का सत्ताधारी भूस्वामी वर्ग ही भारतीय उपनिवेश के लिए भी नीतियाँ तय कर रहा था. ऐसे में वह कौन से आधुनिक जनतांत्रिक मूल्य भारत में ला रहा था जो वह अपने देश में ही लाने को तैयार न था? मूल रूप से 1957 में लिखी पुस्तक ‘सन सत्तावन की राज्यक्रान्ति और मार्क्सवाद’शीर्षक पुस्तक में रामविलास शर्मा विस्तार के साथ यह सवाल उठाते हैं. प्रसंगवश यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि खुद मार्क्स और एंगेल्स के लेखन में इंग्लैण्ड के पूंजीपति वर्ग द्वारा (फ्रांस के ठीक विपरीत) सामंती अभिजात वर्ग के साथ लम्बे समय तक चले मोल-तोल और समझौतों का उल्लेख मिलता है जिसका रामविलास शर्मा ने उपयोग भी किया है. प्रसंगवश यह भी उल्लेखनीय है कि ग्राम्शी ने अपनी ‘प्रिज़न नोटबुक्स’ में दर्ज किया है कि जिस तरह फ्रांस में सामंती ढाँचे को बलपूर्वक उखाड़ फेंका गया, वैसा योरप में पूंजीवाद ने कहीं नहीं किया, बल्कि प्रायः हर जगह सामंती अभिजातवर्ग के साथ पूंजीपतियों के समझौतों की लम्बी श्रृंखला मिलती है. इस पूरे संक्रमण के दौर में आम जनता की कोई भागीदारी नहीं है. यदि वह इस अर्थ में क्रान्ति है कि उसने अंततः सामंतवाद को समाप्त कर नई सामाजिक व्यवस्था कायम की, तो वह हद से हद एक ‘निष्क्रिय क्रान्ति’ (पैसिव रेवोल्यूशन) ही थी. ग्राम्शी यहाँ तक कहते हैं कि आधुनिक योरपीय राज्यों का जन्म सुधारों की छोटी और क्रमिक लहरों से हुआ, न कि फ्रांस की तरह क्रांतिकारी विस्फोट के ज़रिए. ये ‘क्रमिक लहरें’ सामाजिक संघर्षों के संयोजनों, प्रबुद्ध राजशाहियों आदि द्वारा ऊपर से किए गए हस्तक्षेप और जातीय युद्धों के दबाव में उठीं. इनमें से जातीय (राष्ट्रीय) युद्धों की भूमिका ही प्रमुख थी. कहना न होगा कि औपनिवेशिक भारत और ब्रिटिश सम्बन्ध का जैसा विवेचन रामविलास शर्मा ने किया है, वह ग्राम्शी की उपरोक्त प्रस्थापनाओं को सिद्ध करता है,बावजूद इसके कि रामविलास ग्राम्शी की स्थापनाओं का सहारा नहीं लेते और स्वतंत्र विवेचन के ज़रिए इन्हीं निष्कर्षों पर पहुंचते हैं.
पश्चिम योरप के ऐतिहासिक अनुभवों पर आधारित मार्क्स का सामाजिक प्रगति का सिद्धांत और पूर्वी तथा अल्पविकसित देशों के अनुभवों पर आधारित मार्क्स का सामाजिक सिद्धांत, दोनों को रणधीर सिंह जैसे विचारक क्रमशः प्रमुख सिद्धांत और सहवर्ती या पूरक सिद्धांत के रूप में देखते हैं अर्थात दोनों में पहले और बाद का रिश्ता नहीं है, दोनों साथ चलते हैं, यह ज़रूर है कि दूसरा वाला बाद के दिनों में प्रमुखता पाता है और मार्क्स अपने जीवन काल में उसका समग्र सैद्धांतिक निरूपण नहीं कर सके. लेनिन और फिर बाद में माओ इसका विकास करते हैं. दोनों में आपाततः विरोधाभास दीखता है लेकिन सन्दर्भ सहित समझने पर विरोधाभास से ज़्यादा सह्वार्तिता दिखती है. रामविलास शर्मा सह्वार्तिता की जगह इसे मार्क्स और एंगेल्स के विचारों में आए विकास(बदलाव के अर्थ में) की तरह समझते हैं, बहुत कुछ त्योदोर शैनिन (लेट मार्क्स एंड द रशियन रेवोल्यूशन: मार्क्स एंड दि पेरीफेरीज़ आफ कैपिटलिज्म, 1983) की तरह. वे दोनों में विरोध भी देखते हैं. रामविलास शर्मा के शब्दों में, ” पूंजीपति, मजदूर, किसान, पराधीन देश – इन सब के बारे में मार्क्स की धारणाएं परस्पर सम्बद्ध थीं. एक के बारे में धारणा बदली हो, बाकी के बारे में ज्यों की त्यों बनी रही हो, यह संभव नहीं था. (1) पूंजीपति वर्ग भरपूर क्रांतिकारी है, पुरानी व्यवस्था को आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक स्तर पर बदल देता है. विरोधी धारणा- वह भरपूर क्रांतिकारी नहीं है, हर स्तर पर पुरानी व्यवस्था से समझौता करता है. (2) पूंजीवाद ने सर्वहारा क्रान्ति के लिए परिस्थितियाँ तैयार कर दी है, मजदूर वर्ग समाज का बहुसंख्यक भाग है, वह अकेले समाजवादी क्रान्ति संपन्न करेगा. विरोधी धारणा – अभी तो ज़मींदार वर्ग का प्रभुत्व ख़त्म करना है, मजदूर वर्ग समाज का बहुसंख्यक भाग नहीं है, क्रान्ति की सफलता के लिए किसानों का सहयोग ज़रूरी है. (3) किसान अपनी लघु संपत्ति से बंधे हुए हैं, वे प्रतिक्रियावाद के सहायक हैं, इसलिए मजदूरों को अपनी ही ताकत पर भरोसा करना चाहिए. विरोधी धारणा-किसानों में अनेक स्तर हैं, पूंजीवाद लघु संपत्ति वाले किसानों का भी शोषण करता है, किसान-संग्राम सर्वहारा क्रान्ति का सहायक होगा. (4) पराधीन देशों की समाज-व्यवस्था पुरातनपंथी है, विदेशी पूंजीवाद इस व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर के क्रांतिकारी भूमिका निभाता है, इन देशों का की जनता का उद्धार ब्रिटिश मजदूर वर्ग के उत्कर्ष पर निर्भर है. विरोधी धारणा- पूंजीपति पराधीन देशों की लूट का एक हिस्सा मजदूरों में बांटते हैं, ब्रिटिश मज़दूर वर्ग तब तक मुक्त न होगा जब तक आयरलैंड जैसे देश मुक्त न होंगे, ऐसे देशों का मुक्ति संग्राम, केवल ब्रिटेन के नहीं, सारी दुनिया के मजदूरों की मुक्ति के लिए निर्णायक होगा……. सामाजिक विकास संबंधी मार्क्स की धारणाओं में व्यापक परिवर्तन हुआ, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता.” (मार्क्सवाद और पिछड़े हुए समाज, पृ.482-83)
रामविलास जी जिन्हें विरोधी धारणाएं कह रहे हैं, उन्हें उनके सन्दर्भ में रख कर देखने पर विरोध की जगह सहवर्तिता ज़्यादा प्रतीत होगी. फिर इन दोनों सामाजिक प्रगति के सिद्धांतों में पूर्वापर क्रम भी नहीं है. दूसरे के बीज उन कृतियों में मिल जाएंगे जिनका मूल प्रतिपाद्य पहला वाला सिद्धांत है, यह हम इस आलेख में पहले देख चुके हैं, जबकि बाद की कृतियों में भी पहले वाले सिद्धांत की कई बातें विद्यमान हैं. उदाहरण के लिए 1880 के दशक में मार्क्स और एंगेल्स जब रूस में क्रान्ति की संभावना पर विचार करते हैं तो उनके सामने यह प्रश्न था कि वहां के किसानों में जो सामूहिक स्वामित्व की ‘पेजेंट कम्यून’ जैसी व्यवस्था थी, वह रूस में पूंजीवाद द्वारा नष्ट कर दी जाएगी या कि वह व्यवस्था एक उच्चतर स्तर पर समाजवादी रूपांतरण की प्रक्रिया के लिए मार्ग प्रशस्त करेगी, उसे तेज़ कर देगी. मार्क्स के लिए यह विचार का विषय था कि क्या इतिहास ने किसी जनता के लिए कितनी भी बारीक यह संभावना छोडी है कि वह सामंतवाद से सीधे ही साम्यवादी विकास की मंजिल में प्रवेश कर जाए. मार्क्स का विचार था कि ऐसा हो सकता है यदि रूस में क्रान्ति जल्दी हो, कम से कम इतनी जल्दी कि ‘पेजेंट कम्यूनों’ को नष्ट होने से बचाया जा सके. यह बात सामाजिक विकास के उनके दूसरे वाले सिद्धांत के अनुकूल थी. वेरा ज़ेसुलिच को 1881 में लिखे प्रसिद्द पत्र के पहले प्रारूप में उन्होंने लिखा, ‘यदि क्रान्ति समय से हो जाए, यदि वह अपनी सारी ताकत एक जगह केन्द्रित करके……देहाती कम्यून के मुक्त विकास को सुनिश्चित करे, तब वह(कम्यून) खुद-ब-खुद अपेक्षाकृत जल्दी ही रूसी समाज के पुनरुज्जीवन के एक तत्व के रूप में विकसित हो जाएंगे, (यह तत्व) पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा दास बना लिए गए देशों की तुलना में (रूस के लिए) फायदे का है.”
यहाँ कहीं भी क्रान्ति की पूर्व-शर्त के बतौर पूंजीवाद की तकनीकी उपलब्धियों या पश्चिम में विजयी क्रान्ति से मिलनेवाली मदद का कोई उल्लेख नहीं है. इस पत्र के चौथे प्रारूप में (जब इसे अंततः ज़ेसुलिच को भेजा गया) इतना और जोड़ते हैं कि देहाती कम्यून के लिए नुकसानदेह प्रभाव जो उसे चारों ओर से उसे घेरे हुए हैं, उन्हें पहले समाप्त करना होगा, तभी उनके स्वतःस्फूर्त विकास की सामान्य स्थितियां सुनिश्चित हो सकेंगी. उधर एंगेल्स स्पष्ट रूप से यह कह रहे थे कि यह संभावना बेशक चरितार्थ हो सकती है, लेकिन इसकी पूर्वशर्त है विकसित योरप में क्रान्ति का होना. आखिरकार कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के 1882 के रूसी संस्करण की भूमिका में मार्क्स भी इसी जगह आ खड़े होते हैं. भूमिका में लिखा है,” यदि रूसी क्रान्ति पश्चिम में सर्वहारा क्रान्ति की प्रेरक बनती है, ताकि दोनों एक दूसरे की मददगार बन सकें, तब वर्तमान में रूस में भूमि का सामूहिक स्वामित्व कम्युनिस्ट विकास के लिए प्रस्थान बिंदु बन सकता है” यहाँ स्पष्ट ही पिछड़े हुए रूस में मजदूर किसान गठजोड़ पर आधारित समाजवादी क्रान्ति और विकसित योरप में सर्वहारा क्रान्ति की संकल्पनाएँ ठीक ठीक पूरक रूप में मौजूद हैं, विरोधी धारणाओं के बतौर नहीं.यह अलग बात है कि रूसी क्रान्ति योरपीय क्रान्ति को प्रेरित नहीं कर सकी और रूसी क्रान्ति का जहाज़ आरम्भ से ही पूंजीवादी ताकतों की घेरेबंदी, आतंरिक गृहयुद्ध, फासीवादी आक्रमण वगैरह झेलते अकेले ही अप्रत्याशित रास्तों पर आगे बढ़ा, इन परिस्थितियों में उसके भीतर भी तमाम विकृतियां आती गईं और अंततः 70 साल की आयु पूरी कर दुर्घटनाग्रस्त हुआ. उसने 20 वीं सदी की तमाम पिछड़े देशों की क्रांतियों को और पराधीन देशों के मुक्ति संघर्षों को ज़रूर प्रेरित किया. ये अलग बात है कि मार्क्स की सामाजिक प्रगति की वह धारणा जो उनके जीते जी उनकी मुख्य धारणा के सम्मुख गौड़ बनी रही, 20 वीं सदी में वही मुख्य बन गई, लेकिन वाम आन्दोलन के अनेक विश्वस्तरीय नेता इस बात को समझने से इनकार करते रहे. कौत्सकी को रूसी क्रान्ति से ये शिकायत थी कि उसे पूंजीवाद की विकसित अवस्था में पहुँचने से पहले ही करके लेनिन ने गलत किया. ट्राटस्की क्रान्ति के नेताओं में थे लेकिन विकसित योरप में क्रान्ति न होने से निराश वे एक देश में समाजवाद निर्माण की चुनौतियों को स्वीकार करने से ही कतरा गए. इतिहास का निर्माण मनुष्य करते हैं अपने कर्म से, वह पूर्व-निर्धारित रास्तों पर ही नहीं चला करता. वह महानतम सिद्धांतों से भी छल कर सकता है.
उपनिवेशवाद/ साम्राज्यवाद की प्रगतिशीलता का मिथक
ऐतिहासिक रूप से उपनिवेशवाद मुक्त व्यापार के दिनों में योरपीय व्यापारियों ने कायम किये. उपनिवेश पूंजीवादी उत्पादन पद्धति से पहले भी सामंतवाद के भीतर पनपे व्यापारिक पूंजी के आदिम संचयन के लिए कायम हुए. इस आदिम संचयन ने उपनिवेशों में नहीं बल्कि व्यापारिक कंपनियों के गृह देशों में पूंजीवादी क्रान्ति को संभव बनाया.
मार्क्स की निगाह में योरप की औद्योगिक और पूंजीवादी क्रान्ति इसलिए प्रगतिशील थी कि उसने पुरानी सामंती व्यवस्था का खात्मा कर नई सामाजिक व्यवस्था कायम की थी. लेकिन पेंच यह था इसकी कीमत पराधीन देशों ने चुकाई? अकाल, जनसंहार, दमन, लूट, नस्लीय घृणा, साम्प्रदायिक विभाजन और अमानुषिक अत्याचारों का अंतहीन सिलसिला उपनिवेशों में चलाया गया. आर्थिक रूप से उपनिवेशों की इतनी संपदा लूटी गयी कि वे किसी भी तरह के स्वाधीन विकास के काबिल ही न बचे. खुद मार्क्स ने उपनिवेशों से पूंजी के आदिम संचय की बर्बर प्रक्रिया का रोंगटे खड़े कर देनेवाला वर्णन किया है और उसकी कठोरतम भर्त्सना की है. तब आखिर उपनिवेशवाद के प्रगतिशील होने का विमर्श आया कहाँ से? यदि खुद उपनिवेशवादियों के सभ्यता-प्रसार वाला तर्क छोड़ दिया जाए जिससे मार्क्स एंगेल्स की घृणा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई, तब इसका स्रोत कम्यूनिस्ट घोषणापत्र में पूंजीवाद की क्रांतिकारी भूमिका का जैसा मार्क्स ने चित्रण किया, उस धारणा को उपनिवेशवाद पर भी आरोपित करने में निहित है. कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो में योरप के विजयी पूंजीपति वर्ग से अपेक्षा की गई है वह सारी दुनिया को अपनी ही छवि में सिरजेगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. विश्व भर में आत्मप्रसार का जो संरचनागत तर्क पूंजीवाद में अन्तर्निहित है वह अमल में बिलकुल दूसरे ही रूप में आया. वह एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देशों में गरीबी, भूख, क़र्ज़, विकासहीनता का विकास, अनुद्योगीकरण लाया. पुराने उपनिवेशवाद पर आरूढ़ होकर इजारेदार पूंजी की अवस्था में जो साम्राज्यवाद आया, वह और भी भीषण था जिसने पूरी दुनिया में उत्पादक शक्तियों का अभूतपूर्व विनाश किया. रामविलास शर्मा ने अपने लेखन के छह दशक तक इस पूरी प्रक्रिया को समझाने और हिन्दीभाषी जनता के विचार और अनुभूति का हिस्सा बनाने का अनथक प्रयास किया. उन्होंने विस्तारपूर्वक दिखलाया कि भारत में उपनिवेशवाद और फिर साम्राज्यवाद ब्रिटेन और विश्व-पूंजी की किन किन अवस्थाओं के साथ विकसित हुआ और उसने भारत में क्या परिणाम उत्पन्न किए. रामविलास शर्मा ने लिखा,’ अंग्रेजों ने यहाँ सामूहिक सम्पत्तिवाले कबीलाई ग्राम समाजों का विध्वंस नहीं किया, उन्होंने यहाँ के प्रतिक्रियावादी सामंतों से मिलकर उभरते हुए पूंजीवाद का विनाश किया, इस ऐतिहासिक सत्य को छिपाने का पयत्न बराबर किया जाता है.’ (भारत में अंग्रेज़ी राज, भाग -2, भूमिका, पृ. 12) जिस आत्मविश्वास के साथ रामविलास शर्मा उपनिवेशवाद की प्रगतिशीलता के मिथक को ध्वस्त करते हैं, वह कई महान उपनिवेशवाद- विरोधी योद्धाओं और चिंतकों की बरबस ही याद दिलाता है. अल्जीरिया के मुक्ति योद्धा फ्रैंज़ फैनन ने निर्भीक टिप्पणी की कि उपनिवेशवाद ने प्राक्-आधुनिक समाजों की आत्मालोचना की परंपरा को नष्ट किया और आत्म-विकास की सारी प्रक्रियाओं को अवरुद्ध कर दिया. यदि हम ध्यान रखें कि खुद मार्क्सवाद के भीतर उपनिवेशवाद को प्रगतिशील माननेवाली किस हद तक प्रभावी रही है और बार-बार प्रकट होती रही है, तो हम रामविलास शर्मा के बौद्धिक संघर्ष को ज़्यादा समझ सकते हैं. सेकेण्ड इंटरनेशनल के नायक जिनके प्रतिनिधि बर्नस्टीन सहित कई बड़े नेता थे, साम्राज्यवाद के पुराने उपनिवेशवादी शासन के पक्षपोषक थे. उन्होंने खुली घोषणा की की औपनिवेशिक शासन प्रगतिशील था, कि वह उपनिवेशों में ‘सभ्यता के उच्च स्तर लाया’, और वहां उसने ‘उत्पादक शक्तियों का विकास किया’. उन्होंने यहां तक कहा की ‘उपनिवेशों को खत्म करने का मतलब होगा बर्बरता’. वे तो समाजवाद में भी उपनिवेशों की ज़रुरत मानते थे और इसके लिए उन्होंने ‘पूंजी का समाजवादी आदिम संचय’ जैसे सूत्रीकरण भी किए थे. यह सच है कि लेनिन के महान सैद्धांतिक कार्यों की बदौलत यह सब मूर्खताएं बंद हुईं, लेकिन खासकर योरपीय वामपंथ में लम्बे समय तक बार-बार जोर मारती रहीं. दूसरी ओर खुश्चेव के समय जब पूंजीवादी और समाजवादी खेमों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का सिद्धांत आया, तो साथ ही सोवियत कम्यूनिस्ट पार्टी की तरफ से यह उपदेश भी आया कि राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम अब ‘नए दौर’ में प्रवेश कर गए हैं. जहां पहले दौर में संघर्ष मुख्यतः राजनीतिक क्षेत्र में था, अब उसका क्षेत्र आर्थिक है और नव-स्वतंत्र देशों को क्रान्ति को आगे बढाने की मुख्य कड़ी के बतौर आर्थिक विकास पर ध्यान देना चाहिए. माओ ने इसका तीखा प्रतिवाद किया. उन्होंने कहा कि यह सारा उपदेश नव-उपनिवेशवाद का पक्षपोषण है क्योंकि यह एशिया, लैटिन अमरीका और अफ्रीका पर नव-उपनिवेशवाद (जिसका प्रतिनिधि अमरीका है) के भीषण हमलों और उनकी लूट पर, साम्राज्यवाद और शोषित राष्ट्रों के बीच तीखे अंतर्विरोध पर पर्दा डालता है और इन महाद्वीपों की जनता के क्रांतिकारी संघर्षों को कुंद करता है. माओ ने कहा कि बेशक नव-स्वतंत्र देश अपना स्वतंत्र आर्थिक विकास करें, लेकिन यह कार्य साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष, उन देशों के भीतर साम्राज्य के एजेंटों के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष से पृथक नहीं है. (चीनी समाचारपत्र ‘पीपुस डेली’ में 22 अक्टूबर, 1963को प्रकाशित माओ का लेख) ज़ाहिर है कि ख्रुश्चेव के नेतृत्व वाले संशोधनवाद के ऐसे प्रस्ताव भले ही उपनिवेशवाद का प्रत्यक्ष समर्थन न करते हों, लेकिन साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्षों को कमज़ोर कर प्रकारांतर से शोषित देशों को उसे सहन करने के लिए प्रेरित अवश्य करते हैं. लेकिन योरपीय वाम के अकादमिक हल्कों से साम्राज्यवाद का खुला समर्थन भी गाहे-बगाहे होता ही रहता है. इसका एक उदाहरण उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को मानव समाज के विकास में गुणकारी बतानेवाली बिल वारेन की 1980 में प्रकाशित पुस्तक ‘इम्पीरियालिज्म::पायनियर आफ कैपिटलिज्म’ है जो मार्क्सवादी कोटियों का इस्तेमाल करती है और न्यू लेफ्ट बुक्स से छपी है. इस से यह अंदाज़ होता है कि उपनिवेशवाद के प्रगतिशील होने का मिथक कोई बंद हो चुकी बहस नहीं है.
उपनिवेशवाद की प्रगतिशीलता की धारणा का दूसरा स्रोत दूसरा स्रोत मार्क्स के भारत विषयक आरंभिक लेख हैं, खासतौर पर 1853 वाला लेख. प्रारम्भिक लेखों में मार्क्स ने भारत को एशियाई उत्पादन पद्धति वाला देश, गतिरुद्ध ग्राम समाज और पूर्वी निरंकुशता के लक्षणों वाला देश मानते हुए भारत में अंग्रेज़ी राज को इस जड़ता को तोड़कर प्रगति क बीज बिखेरने वाले ‘इतिहास के अचेतन औजार’की संज्ञा दी. आज भारत के मार्क्सवादी बौद्धिक जानते हैं कि जब मार्क्स भारत के बारे में लिख रहे थे तो पूरब के बारे मे पष्चिमी ज्ञान अत्यंत सीमित था, कि भारत के विशृंखलित, आत्मनिर्भर गाँवों की छवि मार्क्स ने हेगेल से शब्दशः ग्रहण की थी, कि एषिया की परिवर्तनहीन, गतिरुद्ध छवि 19वीं सदी के योरप को हाब्स और मान्टेस्क्यू जैसे ज्ञानोदय के अग्रदूतों से विरासत में मिली थी, कि प्राक्-औपनिवेशिक भारत की कृषि अर्थव्यवस्था उतनी परिवर्तनहीन और स्वायत्त ग्राम-समुदायों वाली न होकर विनियम और विनियोजन के कहीं बडे़ संचारतंत्र के साथ जुड़ी हुई थी, कि कृषि तकनीक शताब्दियों से वैसी गतिरुद्ध न थी, जैसी मार्क्स ने समझा था, कि स्वायत्त ग्राम इकाइयों को केन्द्रीय स्तर पर जल-प्रबंधन से जोड़ने वाले निरंकुष राजतंत्र (हाइड्रालिक स्टेट) की धारणा गलत थी, बल्कि छोटे बाँध, उथले कुएँ, स्थानीय तालाब जो कि पारिवारिक और सामूहिक श्रम से तैयार किए जाते थे, उनकी सिंचाई में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका थी जितनी कि केन्द्रीय स्तर पर नियोजित जल-प्रबन्धन की, कि भूसंपत्ति का वैसा अभाव न था जैसा मार्क्स ने समझा था और किसानों के अलग-अलग तबकों का अस्तित्व काफी पहले से था, कि एषियाटिक मोड आफ प्रोडक्शन की धारणा भारत के संदर्भ में ‘अप्रामाणिक‘ है, आदि. महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय समाज के बारे में ये समझ रामविलास शर्मा सन् 1957 में लिखी अपनी पुस्तक ‘सन् सत्तावन की राज्यक्रांति और मार्क्स वाद‘ में ही पूर्वाषित करते हैं, जिस समय तक भारतीय सामंतवाद और मध्यकाल के बारे में मार्क्सवादी इतिहासकारों के महत्वपूर्ण अध्ययन प्रकाशित नहीं हुए थे. रामविलास शर्मा भारत में अंग्रेज़ी राज कायम होने के वक्त एशियाई उत्पादन पद्धति की बात के समर्थन में एक-एक तर्क का विधिवत प्रत्याख्यान करते गए. रामविलास शर्मा ने जोर देकर कहा कि मार्क्स ने एशियाई पद्धति को वैकल्पिक रूप से जगह जगह ‘आदिम साम्यवाद’ भी कहा था और उसका विस्तार उनके मुताबिक़ एशिया तक सीमित नहीं था, बल्कि आयरलैंड तक इसका प्रसार था. मार्क्स के 1853 में लिखे गए पत्र में एशियाई उत्पादन पद्धति की धारणा का सूत्रपात हुआ और मार्क्सवादी हल्कों में यह लम्बे समय तक परिव्याप्त रही. 1960 के दशक में जब इस धारणा का ट्राटस्कीवाद से प्रभावित अध्ययनों में फिर से उभार हुआ तो उन्होंने एक बार फिर’मार्क्स, त्रातास्की और एशियाई समाज’ नामक पुस्तक लिखकर इसका प्रत्याख्यान किया. एशियाई उत्पादन पद्धति को ध्वस्त करना भारत में अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशीलता का मुख्य तर्क था और 1857 को प्रतिक्रियावादी कहने का भी. रामविलास शर्मा ने अपने समकालीन भारतीय मार्क्सवादी लेखकों में भी जहां जहां इस तर्क का प्रभाव देखा, उनसे तीखी बहस की.
भारत के बारे में, अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशीलता के बारे में मार्क्स और एंगेल्स के बदले हुए विचारों की उन्होंने पूरी उद्धरणी ही तैयार कर दी. उन्होंने आयरलैंड पर मार्क्स के अध्ययन के हवाले से इस बात पर भी जोर दिया कि यदि समाजवादी क्रान्ति की भौतिक और आत्मिक परिस्थिति तैयार करने के अर्थ में पूंजीवाद प्रगतिशील था, तो उपनिवेशवाद इस प्रगतिशीलता में बाधा था क्योंकि उपनिवेशों से लुटे हुए माल का हिस्सा देकर विकसित देशों के मजदूरों को भ्रष्ट किया गया था. आज पूंजी के गढ़ों में क्रान्ति आज तक नहीं हो सकी तो इसका एक बड़ा कारण साम्राज्यवादी लूट में वहां के मजदूर वर्गों को हिस्सा दिया जाना रहा है. मार्क्स और एंगेल्स ने उत्तरोत्तर उपनिवेशवाद-विरोधी प्रतिरोधों का समर्थन किया, चाहे वे प्रतिरोध कितने भी पिछड़े हुए समाजों में हुए हों. 1857 की बगावत मार्क्स ने ही ने ही उसे भारत का ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ कहा था. उन्होंने उसका एशिया के उभार के हिस्से के बतौर स्वागत किया जिसकी एक झलक उन्होंने विद्रोह में देखी थी. उन्होंने तो एशिया के जागरण के बगैर किसी विश्वक्रांति को अकल्पनीय माना था और तमाम उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्षों का इसी दृष्टिकेाण से दिल खोलकर स्वागत किया था. 2007 में 1857 के संग्राम की150वी वर्षगाँठ की पूर्वबेला में खुद को प्रगतिशील कह्लेवाले कुछ बुद्धिजीवियों ने नए सिरे से अंग्रेज़ी राज की भारत के लिए महत्ता को रेखांकित किया और 1857 को प्रतिक्रियावादी बताया (देखें जून, 2006 का ‘हंस’ का सम्पादकीय या विभूतिनारायण राय अदि के लेख) पुराने और कब के निरस्त किए जा चुके तर्कों के अलावा नई बात उन्होंने जाती की उठाई. अंग्रेज़ी राज को दलितों के लिए गुणकारी बताया मानो अंग्रेज़ी राज की लूट के फलस्वरूप पड़नेवाले अकालों में मारे गए करोड़ों हिन्दुस्तानियों में दलित न रहे हों, मानो 1857 की बगावत के प्रतिशोध में जो गाँव के गाँव अंग्रेजों ने साफ़ कर डाले उनमें दलित न रहते रहे होंगे, मानो जो दस्तकारियाँ और उद्योग उन्होंने नष्ट किए उनमें दलित न रहे होंगे,जबकि बुनकरों सहित तमाम शिल्पकार जातियां दलित ही थीं. 1857 को ये लोग ब्राह्मणवादी षड्यंत्र बताते हैं. पूछा जाना चाहिए कि अवध में सुरंगों की लड़ाई किन जातियों के लोगों ने लड़ी थी, कुंवर सिंह की सेना के ढेरों नायक किन जातियों के थे, यदि पूरा आरा शहर ही बगावत के आरोप में नामजद किया गया था, तो क्या तब के आरा शहर में दलितों की कोई आबादी थी कि नहीं?. अच्छी बात यह हुई कि खुद दलित साहित्य के भीतर से लोगों ने खोज खोज कर दिखला दिया कि इस विद्रोह के दलित, पिछड़े नायक कौन लोग थे, कि आप हमारे हितैषी बन कर भारत की आज़ादी की लड़ाई में हमारे योगदान हमारी दावेदारी को खारिज न करें.
रामविलास शर्मा यह सवाल उठाते रहे कि यदि अंग्रेजों के आगमन से पहले भारत में बड़े पैमाने पर सौदागरी पूंजी संचित थी, तो औद्योगिक पूंजी के युग में भारत के प्रवेश की संभाव्यता से इनकार नहीं किया जा सकता.
एजाज़ अहमद ने इस लेख में पहले उद्धृत साम्राज्यवाद के समर्थन में बिल वारेन की 1980 में प्रकाशित पुस्तक ‘इम्पीरियालिज्म::पायनियर आफ कैपिटलिज्म’ की आलोचना के क्रम में लिखा ” हम यह भी जानते ही हैं कि 18वीं सदी के आरम्भ में, उपनिवेशवाद द्वारा भारत में निर्णायक युद्धों में जीत हासिल करने तथा भारत में राजसत्ता के संघटन से आतंरिक संकट उत्पन्न होने से पहले, भारत में ‘उत्पादक शक्तियां ‘ इतनी पिछड़ी हुई न थीं जितनी कि साम्राज्यवादी इतिहास-लेखन बताता रहा है. भारत में इतिहासतः निर्मित, सामाजिक रूप से स्थिर अनेक वर्ग थे जो प्राक-औपनिवेशिक निर्माण-उद्योगों और वाणिज्य में लगे हुए थे. भारत के पास पारंपरिक रूप से व्यापार और परिवहन की कुशल व्यवस्था थी जिसमें आतंरिक जहाजरानी और सडकों का व्यापक संजाल शामिल था जिसके चलते थोक मालों की व्यापक आवाजाही थी, पर्याप्त स्तर का नगरीकरण था, सामान मुद्रा व्यवस्थाएं थीं, लम्बी अवधि की परिपक्वता वाले भारी निवेश करने की क्षमता वाले वित्तीय घराने थे,देश के सभी महत्वपूर्ण इलाकों में फ़ैली हुई विभिन्न तरीकों के कार्य में दक्ष श्रमशक्ति थी, गैर-खेतिहर उत्पादनों-धातु-उद्योग से लेकर वस्त्र निर्माण, खनन से लेकर पानी के जहाज के निर्माण तक में असाधारण रूप से विकसित कौशल था. इन सब बातों का निश्चय ही यह अभिप्राय नहीं है कि भारत औद्योगिक पूंजीवाद की अवस्था में पहुँच जाने के मुहाने पर खडा था, लेकिन ठीक इसे तर्क से विचार करें तो ऐसा भी कोई सिद्धांत नहीं है जो यह साबित कर सके कि ब्रिटिश कब्जे के अभाव में भारत (या कम से कम उसके कुछ इलाके) (जापान) की मेईजी क्रान्ति के समतुल्य कोई क्रान्ति नहीं कर सकते थे. दोनों ही संभावनाओ के बारे में निश्चित होना मुश्किल है. (एजाज़ अहमद, ‘इम्पीरिअलिज़्म एंड प्रोग्रेस’ शीर्षक अध्याय, ‘लीनिएजेज़ आफ दी प्रेजेंट; शीर्षक पुस्तक, पृष्ठ-12, तूलिका प्रकाशन, मूल लेख का प्रकाशन 1982 में हुआ)
एजाज़ साहब की ऊपर उद्धृत पंक्तियों से जो निष्कर्ष निकलता है,, वे 1957 में रामविलास शर्मा की लिखी हुई पुस्तक ‘सन सत्तावन की राज्यक्रान्ति’ में ‘अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशील भूमिका शीर्षक पहले अध्याय के उप-अध्याय ‘ग्राम -समाज और सामंती अराजकता” में मिल जाएंगे. 1982 में एजाज़ अहमद ये बातें इतनी निश्चिंतता के साथ लिख रहे हैं की उन्हें स्रोत बताने की ज़रुरत नहीं क्योंकि भारत में सामंती युग के बारे में अब तक इतनी सामग्री खुद भारतीय इतिहासकारों ने उपलब्ध करा दी थीं की वे अकाट्य रूप से सर्वमान्य थीं. लेकिन 1957 में रामविलास शर्मा इतने निश्चिन्त नहीं हो सकते थे. उनके सामने इतने अध्ययन उपलब्ध नहीं थे. भारतीय इतिहास में सामंती दौर और मध्यकाल के बारे में आर.एस. शर्मा, इरफ़ान हबीब, सतीश चन्द्र या हरबंस मुखिया के अध्ययन उनके सामने नहीं थे. (दूसरी ओर भारत में अंग्रेज़ी राज के आने से पहले उसके पिछड़े होने, उसके पिछड़ेपन को ही अंग्रेज़ी राज कायम होने का कारण मानना और अंततः अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशील भूमिका को स्वयंसिद्ध मानना एक तरह का कामनसेंस बना हुआ था.) रामविलास शर्मा ने उक्त उप-अध्याय में इन्हीं निष्कर्षों को ओ मैली द्वारा संपादित 1941 की पुस्तक ‘माडर्न इंडिया एंड दी वेस्ट’,क्रुक की 1897 की पुस्तक ‘द नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज़ आफ इंडिया’, एनी बेसेंट की 1926 की पुस्तक ‘इंडिया बांड ऑर फ्री’, राधाकमल मुखर्जी की ‘द इकानामिक हिस्ट्री आफ इंडिया, 1600-1800’, जे. डब्लू. के. की 1865 की पुस्तक ‘अ हिस्ट्री आफ सिपोय वार इन इंडिया’, अवध गैज़ेटीयर, न्यूज़ एंड व्यूज़ फ्राम द यु.एस.एस.आर जैसे स्रोतों से निकाले थे. रामविलास शर्मा लगातार इन निष्कर्षों के लिए नए-पुराने प्रमाणों की समीक्षा करते रहे. उदाहरण के लिए 1981 में’भारत में अंग्रेज़ी राज, भाग- 1 व 2′ के में इन्हीं निष्कर्षों को और अधिक विस्तार से उन्होंने एडम स्मिथ, एडमंड बर्क, बर्नियर, मोरलैंड, इरफ़ान हबीब, दादाभाई नौरोजी, एम.एन राय, जेंक्स, मेरठ में कम्यूनिस्ट नेताओं के बयान और रजनी पाम दत्त की पुस्तकों की आलोचनात्मक समीक्षा करते हुए निकाला है.
यह सच है रामविलास शर्मा भारत में औद्योगिक क्रान्ति की संभावना के बारे में इतने नपे-तुले ढंग से नहीं बोलते और उनका झुकाव यही है कि ऐसा होना संभावित था यदि अँगरेज़ नहीं आए होते तो. रामविलास शर्मा व्यापारिक पूंजीवाद को वास्तविक पूंजीवाद की परिधि से बाहर रखे जाने के खिलाफ हैं. (इन बातों का सैद्धांतिक मूल्य क्या है, कहा नहीं जा सकता) प्रश्न यह नहीं है कि व्यापारिक या सूदखोर पूंजी को पूंजी कहा जाए या नहीं. मार्क्स ने खुद ही इन्हें पूंजीवादी उत्पादन पद्धति से पहले मध्यकाल से प्राप्त पूंजी के दो रूप कहा है (पूंजी, भाग -1, अध्याय 31), पूंजी के ये दोनों रूप बेहद अलग-अलग सामाजिक व्यवस्ताओं में अपनी परिपक्वता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन खुद-ब-खुद पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में तब्दील नहीं हो सकते. पूंजी के ये दो रूप पूंजीवादी उत्पादन पद्धति नहीं कहला सकते, ये सामंती उत्पादन पद्धति की विकसित अवस्था में उत्पादित विनिमय योग्य उत्पादन के प्रसार से सम्बन्ध रखते हैं. पूंजीवाद के लम्बे बचपन में ये रूप रहते हैं.छोटे गिल्ड मास्टर, छोटे कारीगर और यहाँ तक कि उजरती मज़दूर भी लम्बे समय में छोटे पूंजीपति बन जाते हैं, लेकिन औद्योगिक पूंजीवाद व्यापारिक पूंजी के धीमे और स्वाभाविक विकास का परिणाम नहीं है. कारीगर श्रेणियां सौदागरी और सूदखोर पूंजी को औद्योगिक पूंजी बनने से सामंती नियम-कानूनों के ज़रिए रोकती हैं. उदाहर्न्स्वरूप मार्क्स ने डा. आइकिन को उद्दृत करते हुए बताया है कि यहाँ तक कि 1794 तक में लीड्स के छोटे वस्त्र उत्पादकों ने एक प्रतिनिधिमंडल भेजकर इंग्लैण्ड की संसद से एक ऐसा क़ानून बनाने की दरखास्त की थी जो किसी भी व्यापारी को उद्योगपति बनने से रोके.
रामविलास शर्मा जब सौदागरी पूंजीवाद को पूंजीवाद की एक अवस्था के रूप में देखे जाने की मांग करते हैं, तो यह भ्रम होता है की वे व्यापारिक, औद्योगिक और महाजनी पून्जीवादों को एक चरणबद्ध स्वाभाविक विकास मानते हैं,लेकिन जैसा कि मार्क्स ने खुद लिखा, सौदागरी और सूदखोर पूंजी सामंती मध्यकाल में विकसित पूंजी के रूप हैं जो औद्योगिक पूंजी में आप से आप परिणत नहीं हो जाते, लेकिन (औद्योगिक पूंजीवाद) के लम्बे बचपन के दौर में अपनी जगह बनाए रहते हैं, जबतक कि सामंती संबंधों का खात्मा करके इन्हें औद्योगिक पूंजी में रूपांतरित नहीं कर लिया जाता. रामविलास शर्मा खुद भी इरफ़ान हबीब के इस विचार से सहमत हैं कि मुग़ल भारत में सौदागरी पूंजी के विकास से लगता है कि भारतीय अर्थतंत्र काफी आगे बढी हुई मंजिल तक पहुँच गया था लेकिन सौदागरी पूंजी अपने ही विकास द्वारा औद्योगिक पूंजी का रूप नहीं ले सकती. शर्मा लिखते हैं, ” मार्क्स की स्थापना सही है, उसके साथ दो बातें और भी सही हैं. सौदागरी पूंजी के अभाव में औद्योगिक पूंजी का जन्म नहीं होता;उसके जन्म के लिए सौदागरी पूंजी का पहले से विद्यमान होना ज़रूरी है. विनिमय के प्रसार से बाज़ार का निर्माण हो जाने पर ही उद्योग-धंधों को पूंजीवादी ढंग से चलाने की ज़रुरत होती है.'(भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद, पृष्ठ. 338) हमने पहले भी कहा कि इन प्रस्थापनाओं के सैद्धांतिक मूल्य के बारे में आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता. महत्व लेकिन इस बात का है कि रामविलास अंग्रेज़ी राज को भारत की नियति के रूप में स्वीकार नहीं करते. यहाँ सवाल आता है इतिहास संबंधी दृष्टिकोण का. क्या इतिहास में जो घटा उसे नियति मान लिया जाय? क्या इतिहास जैसा घटा उससे भिन्न कुछ हो ही नहीं सकता था? शायद सामाजिक शोध प्राविधि में ऐसे प्रश्नों के लिए स्थान नहीं है. लेकिन जातीय चेतना से कैसे बेदखल करेंगे इन सवालों को?
कुछ विद्वान् अंग्रेज़ी राज की स्थापना के समय भारत के भीतर पूंजीवादी क्रान्ति करनेवाली शक्तियों का अभाव मानते हैं. कुछ अंग्रेज़ी राज की स्थापना और इस अभाव के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध जोड़ते हैं. मार्क्स के खुद के विवरण में इस तरह के किसी कार्य-कारण सम्बन्ध का कोई इशारा भी नहीं है. उन्होंने तो पूंजी के बाह्य प्रसार को पूंजी के आदिम संचय की बर्बर प्रक्रिया के रूप में ही दिखाया है. इस प्रक्रिया का कोई सम्बन्ध उपनिवेश बनाए गए देशों में निर्मित किसी ऐतिहासिक ज़रुरत से नहीं था. यह ऐतिहासिक ज़रुरत पूंजी के पश्चिमी गढ़ों की थी – औद्योगिक क्रान्ति संपन्न करने लायक पूंजी इकट्ठा करने की. इस सम्बन्ध को मान्यता देने का मतलब है अंग्रेज़ी राज को भारत की नियति मानना, भारत की औपनिवेशिक लूट, जनसंहार, देशी उद्योग-धंधों, नगरों,व्यापार, कारीगरों, किसानों की तबाही, औपनिवेशिक अकालों में करोड़ों हिन्दुस्तानियों की मौत सब कुछ को भारत की नियति मानना. रामविलास शर्मा ने अगर इस धारणा से जीवन भर संघर्ष किया तो इसी लिए कि यह धारणा 1947 में सत्ता-हस्तांतरण के बाद भी अकादमिक हलकों और भारत के बौद्धिकों के बड़े वर्ग में जमी रही और भारत के नव-उपनिवेशवादी शोषण का औचित्य स्थापन करती रही. भारत के पूंजीवादी-सामंती गठजोड़ को प्रकारांतर से बल प्रदान करती रही. विश्व साम्राज्यवाद के आर्थिक तंत्र पर भारत की निर्भरता को तर्कपूर्ण सिद्ध करती रही. अंग्रेज़ी राज को भारत की नियति मानना, भारत की औपनिवेशिक लूट,जनसंहार, देशी उद्योग-धंधों, नगरों, व्यापार, कारीगरों, किसानों की तबाही, औपनिवेशिक अकालों में करोड़ों हिन्दुस्तानियों की मौत सब कुछ को भारत की नियति मानना. रामविलास शर्मा ने अगर इस धारणा से जीवन भर संघर्ष किया तो इसी लिए कि यह धारणा 1947 में सत्ता-हस्तांतरण के बाद भी अकादमिक हलकों और भारत के बौद्धिकों के बड़े वर्ग में जमी रही और भारत के नव-उपनिवेशवादी शोषण का औचित्य स्थापन करती रही. भारत के पूंजीवादी-सामंती गठजोड़ को प्रकारांतर से बल प्रदान करती रही. विश्व साम्राज्यवाद के आर्थिक तंत्र पर भारत की निर्भरता को तर्कपूर्ण सिद्ध करती रही.
आज जब भूमंडलीकृत भारत की अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में वैश्विक पूंजी घुसकर लूटपाट कर रही है, सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों और साम्राज्यवादी हितों के हिसाब से नीतियाँ तय कर रही हैं, ढाई लाख से अधिक किसान दो दशकों में आत्महत्या कर चुके हों, प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए लोग बड़े पैमाने पर विस्थापित किए जा रहे हैं, प्रतिरोध करने पर उनका भीषण दमन हो रहा है, वाम शक्तियां राष्ट्रीय स्तर पर हस्तक्षेप की स्थिति में नहीं दिखतीं, वैचारिक कुहासा घनघोर है, तब रामविलास शर्मा के संघर्ष को ज़रूर याद कर लेना चाहिए और साम्राज्यवाद को अपनी ऐतिहासिक नियति मानने से हर भारतवासी को पूरी शक्ति से इनकार कर देना चाहिए, शब्द में भी, कर्म में भी.
(प्रणय कृष्ण। इलाहाबाद युनिवर्सिटी और जेएनयू से अध्ययन। प्रखर हिंदी आलोचक। जन संस्कृति मंच के महासचिव। देवीशंकर अवस्थी सम्मान से सम्मानित ।)