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पेरूमल मुरुगन और वन पार्ट वुमन: प्रणय कृष्ण

मुरुगन ने किसी प्रथा पर कोई मूल्य निर्णय नहीं दिया है, अच्छा या बुरा नहीं कहा है, उन्होंने सिर्फ एक कोमल कहानी कही है जो एक समाज में जन्मी है. उस समाज की कुछ प्रथाएं और मान्यताएं हैं जो उस समाज में जी रहे लोगों के जीवन से लिपटी हैं, उन्हें कोई कथाकार, इतिहास-लेखक या नृतत्वशास्त्री कृत्रिम ढंग से काट कर अलग नहीं कर सकता. ऐसा करना खुद को झूठा साबित करना है, कला और समाज दोनों से गद्दारी है. मुरुगन ने ऐसा करने से इनकार किया है, लेखक की मृत्यु की कीमत चुका कर भी. लेकिन पाठकों और जागरूक नागरिकों का प्यार उन्हें वापस लौटा लाएगा. ज़रूर ही लौटा लाएगा. #लेखक _80236804_modhorupaganfinalcurved

तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन पुनरुज्जीवित होंगे

By प्रणय कृष्ण

तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन ने १४ जनवरी को फेसबुक पर लिखा, लेखक पेरूमल मुरुगन मर गया. वह भगवान नहीं है, लिहाजा वह खुद को पुनरुज्जीवित नहीं कर सकता. वह पुनर्जन्म में भी विश्वास नहीं करता. आगे से, पेरूमल मुरुगन सिर्फ एक अध्यापक के बतौर ज़िंदा रहेगा, जो वह हरदम रहा है.” अब तक मुरुगन के खिलाफ धर्म और जाति के स्वयंभू ठेकेदारों से लेकर उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हक़ में आवाज़ उठाने वाले लोगों ने लाखों शब्द व्यय किए होंगे, लेकिन लेखक की पीड़ित अंतरात्मा की यह तीन पंक्तियां सब पर भारी हैं. लेखक मर गया, लेकिन २०१५ के हिन्दुस्तान के राज और समाज की हिंसक दयनीयता जी रही है. मुरुगन का वक्तव्य ऐसे वक्त पर टिप्पणी है जिसमें जनता की वंचनाओं और हाहाकार को एक सामूहिक पागलपन की ओर मोड़ देने की पुरजोर कोशिशें हो रही हैं. अतीत की रमणीय कपोल-कल्पनाओं और भविष्य के मादक सपनों की गरज के बीच आज के भारत की कराह सुनाई देनी बंद होती जा रही है. वे सारे परदे जिनपर चित्र और चलचित्र दिखाई देते हैं और वे सारे यंत्र-तंत्र जिनसे आवाजें सुनी जाती है, झपट लिए गए हैं. मानव विकास सूचकांक में दुनिया के १३५वें पायदान पर खड़े भारत की वर्तमान वास्तविकता, वास्तविक अतीत तथा यथार्थपरक भविष्य के चित्र और स्वर अदृश्य और गूंगे बनाए जा रहे हैं.

आस्था में चार साल की देरी से आए उबाल के तहत मुरुगन के जिस उपन्यास को पिछले दिसंबर महीने से   निशाना बनाया गया है, वह २०१० में प्रकाशित हुआ था जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद ‘वन पार्ट वुमन’ के नाम से २०१३ में पेंग्विन से छप कर आया. रोचक यह है कि इस उपन्यास में न तो ईशनिंदा है और न ही किसी धर्म या उसकी प्रथाओं का विरोध. उपन्यासकार ने उनपर व्यंग्य भी नहीं किया है, न कोई भंडाफोड़ किया है. उपन्यास का संवेदनात्मक उद्देश्य ही अलग है. मुरुगन की इतिहास-दृष्टि और सामाजिक चेतना मिथकों और आस्थाओं में लिपटे जीवन की वास्तविक धड़कनों और मर्म को इस उपन्यास में प्रत्यक्ष कर देती है, उनके दुश्मनों की निगाह में यही उनका अपराध है. उन्हें मुरुगन की कथा-सृष्टि भी सच की तरह डराती है. सच से ऐसा डर ही उन्हें सामाजिक सच्चाइयों के हर अनुसंधान या साहित्यिक पुनर्रचना को आस्था की तोपों से मार गिराने का अभ्यस्त बनाता है. सत्य से सत्ता का युद्ध बड़ा पुराना है, लेकिन हम जिस २०१५ के भारत में रह रहे हैं, वहां सच के आखेटक पहले से अधिक मूर्ख, किन्तु प्रशिक्षित हैं.

घटनाएं

२७ दिसंबर, २०१४ के ‘द हिन्दू’ अखबार के अनुसार तिरुचेंगोडे नगर की आर.एस.एस. इकाई के अध्यक्ष महालिंगम ने २६ दिसंबर के दिन ५० से अधिक लोगों का जुलूस निकाला और मुरुगन के इस उपन्यास की प्रतियां जलाई. भाजपा, आर.एस.एस. तथा कुछ अन्य हिंदूवादी संगठनों ने लेखक की गिरफ्तारी की मांग भी की (हालांकि अब जबकि लेखक के समर्थन में भी आवाजें तेज़ हो रही हैं, ये संगठन समूचे घटनाक्रम में अपनी भूमिका नकार रहे हैं). इसी रिपोर्ट के मुताबिक़ बीस दिन पहले से मुरुगन को धमकियां मिल रही थीं. बाद में उपन्यास के विरोधस्वरूप शहर बंद भी कराया गया. १२ जनवरी को नमक्कल के जिला प्रशासन ने लेखक को उनके विरोधियों के साथ शान्ति वार्ता के लिए बुलाया. यहाँ प्रशासन ने मुरुगन को ‘बिनाशर्त माफी’ माँगने, अगले संस्करण में उपन्यास में वर्णित स्थानों का नाम बदलने और उसके ‘आपत्तिजनक अंशों’ को हटाने, वर्तमान संस्करण की अनबिकी प्रतियों को बाज़ार से वापस लेने और भविष्य में ऐसी कोई हरकत न करने का वचन देने संबंधी हलफनामे पर दबाव देकर दस्तखत कराया. इस प्रकार सरकारी देख-रेख में संविधान की धारा १९(१)(ए) की धज्जियां उड़ाई गयीं. ध्यान रहे मुरुगन जिस अंचल के लेखक हैं, उसी अंचल के एक सपूत थे ‘पेरियार’. जातिप्रथा-विरोधी, अंधश्रद्धा-विरोधी, सेक्युलर और नास्तिक ‘पेरियार’ की कर्मभूमि पर एक लेखक के साथ यह सब कुछ होना भारी विडम्बना है. द्रविड़ आन्दोलन के साथ पेरियार की विरासत जुडी हुई है, लेकिन उसी आन्दोलन से निकली एक पार्टी तमिलनाडू की सत्ताधारी पार्टी है और दूसरी मुख्य विपक्षी पार्टी. सत्ताधारी पार्टी की भूमिका नमक्कल प्रशासन की  हरकतों से ज़ाहिर है और विपक्षी पार्टी की भूमिका इस प्रकरण पर उसकी चुप्पी से. ( मामला तूल पकड़ने पर इस पार्टी ने लेखक के पक्ष में एक-दो बयान जारी करके छुट्टी पा ली है) अनेक लेखकों ने ठीक ही लक्ष्य किया है यह प्रकरण द्रविड़ पार्टियों की पस्ती के दौर में हिंदुत्व की ताकतों द्वारा तमिलनाडू में पाँव पसारने की कवायद का सूचक है. एक जागरूक नागरिक के रूप में मुरुगन अपने इलाके में शिक्षा की दुकानदारी के खिलाफ लिखते रहे हैं और पर्यावरण की धज्जियां उड़ानेवालों के खिलाफ भी. यह सारे निहित स्वार्थ भी उनके खिलाफ परदे के पीछे सक्रिय हैं.

४८ वर्षीय मुरुगन नमक्कल में शासकीय कला विद्यालय में तमिल पढ़ाते हैं. उन्होंने अबतक ३५ पुस्तकें लिखीं है जिनमें ७ उपन्यास और तमिलनाडू के कोंगू (पश्चिम) क्षेत्र की बोलियों का शब्दकोष भी शामिल है.

उपन्यास का कथानक

यह उपन्यास कोंगू अंचल के जन-जीवन का अत्यंत संवेदनशील चित्र प्रस्तुत करता है. इस अंचल के जंगल, पहाड़, वनस्पति, पशु-पक्षी, मेले, नृत्य, संगीत, खेल-तमाशे, हाट-बाज़ार, खान-पान, पहनावा, देवस्थान और उनसे जुडी आस्थाएं, लोकविश्वास और किसान जीवन को कथा में जीवंत इसीलिए किया जा पाया है कि उपन्यासकार उस अंचल का मार्मिक जानकार ही नहीं, गंभीर अध्येता भी है.

उपन्यास के इसी आंचलिक परिवेश में निस्संतान किसान दंपत्ति पोन्ना(पत्नी) और काली(पति) की कोमल कथा प्रवाहित है. दोनों एक दूसरे को बेहद प्यार करते हैं. लेकिन उनके paraparpapअकुंठ प्यार पर निस्संतान होने का ग्रहण लग जाता है. रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों के ताने पोन्ना को ज़्यादा सुनने पड़ते है. तीज-त्यौहार और मांगलिक अवसरों पर कर्मकांडों के वक्त ‘बाँझ स्त्री’ के प्रति अपमानजनक व्यवहार के चलते वह धीरे-धीरे अपने घर की चहारदीवारी में सिमटती चली जाती है. काली को भी समय समय पर किसी न किसे प्रकरण में लज्जित होना पड़ता है. उसका भी सामाजिक जीवन सीमित होता जाता है. उसकी नपुंसकता की चर्चाएँ भी होती हैं. निस्संतान दंपत्ति की संपत्ति पर रिश्ते-नातेदारों ही नहीं, पड़ोसियों की भी निगाह है. काली को उसकी मां और दादी दूसरा विवाह करने की सलाह देती हैं. इस प्रस्ताव पर पोन्ना के मां- बाप को भी कोई ऐतराज़ नहीं है, वे इतने में ही संतुष्ट हैं कि दूसरी स्त्री के साथ उनकी बेटी भी उसी घर में रहे, निकाली न जाए. पोन्ना और काली भी कभी कभी एक दूसरे का मन टोहने या चिढाने के लिए आपस में दूसरे विवाह की बात करते हैं. पोन्ना सदैव ही भारी मन से ही सही, यह कहती है कि काली की खुशी के लिए वह इसके लिए भी तैयार है. वास्तव में दोनो ही एक दूसरे से इतना प्यार करते हैं कि मन बांटने के लिए इस प्रस्ताव पर चाहे जो चर्चा करते हों, उसकी वास्तविक संभावना को कभी मन में स्वीकार नहीं करते. काली की मां और दादी उनके परिवार पर देवी -देवताओं का श्राप मानती हैं. निर्वंश होने के श्राप से मुक्ति के लिए काली और पोन्ना वर्षानुवर्ष न जाने कितने देवी-देवताओं, मंदिरों-मठों का चक्कर लगाकर, न जाने कितनी पूजा-पाठ, व्रत-अनुष्ठान करके थक चुके हैं. काली की मां और दादी के पास परिवार पर श्राप के अलग अलग किस्से हैं. वे हर किस्से के अनुरूप श्रापमुक्ति के उपाय करते हैं. पाठक इन किस्सों में उस अंचल के तमाम सामाजिक संबंधों की भी झांकी पाता है. ये किस्से अलग-अलग जातियों के बीच, अलग अलग तबकों के बीच, आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के बीच, स्त्री और पुरुष के बीच, औपनिवेशिक समय में अंग्रेजों और देशियों के बीच, मनुष्य और देवता के बीच संबंधों की झलक दिखलाते है. ये किस्से उस अंचल के ऐतिहासिक-सामाजिक जीवन की मिथकीय अभिव्यक्तियाँ हैं. ऐसे किस्सों और लोकविश्वासों को पिरोने और अंचल के जीवंत नृवंशीय चलचित्र प्रस्तुत करने का हुनर मुरुगन अपने अनेक उपन्यासों में पहले भी दिखला चुके हैं. अपने अंचल के प्रति गंभीर ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह करते हुए उन्होंने अतीत के लेखकों द्वारा उस अंचल पर लिखी गई चीज़ों की खोज की और उन्हें दो खण्डों में प्रकाशित किया. उन्होंने टी.ए. मुथूसामी कोनार द्वारा इस अंचल पर लिखे इतिहास-ग्रन्थ जिसे लुप्त मान लिया गया था, उसे खोजकर पुनर्प्रकाशित कराया. ( देखें ए.आर. वेंकट चेलापति का लेख, ‘द हिंदु’, १२ जनवरी)

       एक भरा-पूरा, सुन्दर और संतुष्ट वैवाहिक जीवन सामाजिक मान्यताओं के चलते किस तरह अवसादग्रस्त होता है, लेकिन अवसाद के आगे पराजय नहीं मानता, इसे मुरुगन ने बहुत कोमल और संवेदनशील रंग-रेखाओं में अंकित किया है. काली और पोन्ना का निश्छल और उन्मुक्त प्यार समाज की मान्यताओं के टकराकर कैसे कैसे अंतर्द्वंद्वों से गुज़रता है, उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म कंपन को उपन्यासकार की लेखनी पकड़ लेती है. वे तत्व जो इन पात्रों के मन की सुन्दर गहराइयों में लेखक की उंगली पकड़ कर उतरने की जगह उन सुन्दर उँगलियों को ही तोड़ देने को पुरुषार्थ समझे बैठे हैं, उनका कलेजा सचमुच काठ का बना है. उपन्यास का अंत ट्रैजिक है. काली के दूसरे विवाह के प्रस्ताव और श्रापमुक्ति के सभी उपाय विफल होने पर पोन्ना और काली दोनों की मांएं एक अलग योजना बनाती हैं. अर्द्धनारीश्वर के स्थानीय मंदिर में हर साल तमिल वैकासी महीने ( मई-जून) में १४ दिन का मेला लगता है. चौथे दिन पहाड़ों से देवता उतरते हैं और उनकी रथ की सवारी अगले दस दिन निकलती रहती है, अंतिम दिन वे वापस चले जाते हैं. अंतिम दिन मेले में भारी भीड़ होती है और माना जाता है कि इस दिन मेले में उपस्थित सभी पुरुष देवता होते हैं. निस्संतान स्त्रियों के लिए यह दिन भाग्यशाली होता है, जहां वे किसी देवता से समागम कर संतान-प्राप्ति कर सकती हैं. ऐसी संतानें देवता का प्रसाद या देव-संतानें मानी जाती हैं. काली की मां इस दिन पोन्ना को मेले में भेजे जाने के लिए काली को सहमत नहीं कर पाती. एक साल बीत जाता है. अगले साल मेला शुरू होने के समय काली का साला मुथु (जो उसका बाल-सखा भी है) बहन-बहनोई को इसके लिए राजी करने उनके घर आता है. मंदिर पोन्ना के घर से नज़दीक है. हर साल मेले के समय काली पोन्ना को लेकर अपने ससुराल जाया करता था और वहीं से वे मेला घूमने जाते थे. ऐसे में मुथु के आग्रह पर काली पोन्ना को तत्काल उसके साथ भेजने को राजी हो जाता है और खुद मेले के १४वे दिन आने का वादा करता है. लेकिन पोन्ना को देव-समागम के लिए भेजे जाने से वह इनकार कर देता है. मुथु बहन से झूठ बोलता है कि बहनोई काली ने इस बात की अनुमति दे दी है. पोन्ना को इसकी तस्दीक खुद काली से करने का वक्त नहीं मिलता, फिर भाई की बात पर अविश्वास का कोई कारण नहीं था क्योंकि काली और मुथु साले-बहनोई ही नहीं बाल-सखा भी थे. एक नाटकीय घटनाक्रम में चौदहवें दिन काली के ससुराल पहुँचाने के बाद मुथु सदा की तरह काली को लेकर खाने-पीने, मौज-मस्ती करने घर से खूब दूर ले जाता है, ताकि अगली सुबह तक दोनों लौट न पाएं. उधर पोन्ना के मां-बाप उसे लेकर बैलगाड़ी में मेले की ओर चल देते है. काली और मुथु दूरस्थ स्थान पर खाने-पीने के बाद सो जाते हैं. लेकिन काली की नींद आधी रात के बाद खुल जाती है. वह वापस ससुराल की ओर चल पड़ता है. भोर में वहां पहुँच कर जब उसे ताला जडा मिलता है, तो उस पर वज्रपात सा होता है. उसकी भावनाएं पछाड़ खाकर गिरती हैं. उसे लगता है कि पोन्ना ने उसके साथ धोखा किया है. यहीं उपन्यास ख़त्म होता है.

ट्रेजेडी का भाव सघन इसलिए होता है कि दरअसल किसी ने किसी को धोखा नहीं दिया. मुथु, काली की माँ, उसके सास-ससुर- सभी काली और पोन्ना का दुःख दूर करना चाहते हैं. मुथु ने इसी खातिर बहन से झूठ बोला. पोन्ना मेले में जाने को खुद तत्पर नहीं है. वह काली को खुश देखना चाहती है, उसके किए बड़ा से बड़ा त्याग करने को तैयार है, ऐसे में उसकी रजामंदी जानकार वह मेले में जाने को तैयार होती है. यह निश्छल भावनाओं की ऐसी दुनिया है जहां हरेक व्यक्ति जो कर रहा है वह दूसरे की खुशी के लिए कर रहा है, लेकिन परिणाम वह निकलता है जो किसी ने न चाहा था. मेले की भीड़ में ‘देवता’ से उसकी भेंट सुगम हो सके, इसके लिए पोन्ना को अकेला छोड़ जब उसकी माँ गायब हो जाती है, तब के बाद का वर्णन उपन्यासकार की सामर्थ्य का सबसे ताकतवर साक्ष्य है. पोन्ना की मार्फ़त पाठक तमाम स्थानीय सांस्कृतिक कला-रूपों, नाटकों और रिवाजों की दृश्यावली से गुज़रता है, लेकिन सबसे बड़ा नाटक तो पोन्ना के मानसपटल पर अभिनीत हो रहा है. भारी भीड़ में अकेले होने के भय से शुरू करके अपरिचितों के बीच अनाम होने की खुशी तक उसके मन में अनेक भाव आते और जाते हैं. परिचय की दुनिया की हर नज़र उसे छेदती थी, क्योंकि वह निस्संतान थी. मेले में भीड़ का हिस्सा होकर वह ऐसी हर नज़र से आज़ाद थी, जहां न वह किसी को जानती थी और न कोई उसे. लेकिन अवचेतन के सह-सम्बन्ध और संस्कार उसकी निगहबानी बदस्तूर कर रहे थे. जब भी कोई ‘देवता’ उसकी ओर रुख करता, उसके और अपरिचित देवता के बीच काली का चेहरा परिचिति या स्मृति की छाया सा झिलमिला उठाता, क्योंकि पति से भी ज़्यादा काली वह व्यक्ति है जिससे वह सबसे ज़्यादा प्यार करती है. एक छोटे से स्वप्न-दृश्य में बचपन के प्यार का एक चेहरा भी कौंधता है. यह कोई नैतिक द्वंद्व नहीं है. काली के विपरीत पोन्ना के मन में इस प्रथा पर आस्था का कोई संकट नहीं है. काली की खुशी के लिए और अपने जानते में उसकी ‘अनुमति’ से ही वह ‘देवता’ की खोज में आई है, लेकिन क्या एक क्षण को भी काली को भूले बगैर ‘देवता’ से मिलन संभव हो पाएगा? इस द्वंद्व को उपन्यासकार ने चेतन और अचेतन के बीच, परिचित और अनजाने के बीच, सम्बन्ध-भावना और स्वातंत्र्य-कामना के बीच, मानवीय भाव-यंत्र और देवत्व के तसव्वुर के बीच – एक साथ अनेक स्तरों पर अभूतपूर्व संवेदनशीलता से अंकित किया है. अंततः पोन्ना इस द्वंद्व से पार जाती है, इसका संकेत करके उपन्यासकार आगे बढ़ जाता है. समागम का दृश्य उपस्थित करने और पाठक को गुदगुदाने की उसकी कोई इच्छा ही नहीं है.    

कहानी का अंत नहीं हुआ, लौटेगा कहनेवाला

  उपन्यास के अंतिम दृश्य में काली को तड़पता देख पाठक की उत्कंठा बढ़नी स्वाभाविक है, लेकिन उपन्यास ख़त्म हो जाता है. पाठक के ज़ेहन में ढेरों सवाल हैं? क्या पोन्ना और काली का सम्बन्ध-विच्छेद हो जाएगा? क्या काली यह जान कर कि पोन्ना को उसकी ‘अनुमति’ की झूठी जानकारी थी, उसे अपना लेगा? क्या पोन्ना यह जानकार कि उससे झूठ बोला गया था, अपराधबोध या आत्महंता भाव से ग्रस्त हो जाएगी? ऐसे में अपने माँ-बाप और भाई के प्रति उसका क्या रुख होगा? यदि वह अपने माँ-बाप और भाई को क्षोभ में त्याग दे और काली उसे फिर से न अपनाए, तो वह कहाँ जाएगी? यदि उसे देव-संतान होती है, तो उस संतान का भविष्य क्या है? श्री चेलापति ने अपने लेख में लिखा है कि ढेरों पाठकों ने लेखक को पोन्ना और काली की आगे की कहानी बताने के लिए अनेक पत्र लिखे. जवाब में लेखक ने उपन्यास को आगे के दो खण्डों में जारी रखने का वादा किया है, दोनों खण्डों के शीर्षक भी बताए हैं. मुरुगन को यह वादा निभाना ही पडेगा. लेखक की मृत्यु की घोषणा के बावजूद उसे खुद को पुनरुज्जीवित करना होगा. पाठक ज़रूर उन ताकतों से लड़ेंगे और जीतेंगे जो कि लेखक के पुनरुज्जीवन में बाधा हैं.

मुरुगन के लेखक को मार देनेवाली ताकतों को इस उपन्यास की मूल संवेदना से कुछ लेना लादना नहीं है. उनके लिए निस्संतान स्त्रियों द्वारा एक स्थानविशेष के मंदिर के मेले में आपसी सहमति से विवाह-बाह्य, धर्मानुमोदित और सामाजिक स्वीकृति प्राप्त यौन-सम्बन्ध बनाने की प्रथा का उपन्यास में कथात्मक विनियोग ‘आपत्तिजनक’ है. इसे वे धर्मविरुद्ध, स्त्रियों की मर्यादा के विरुद्ध और उस इलाके के लिए अपमानजनक मानते हैं. क्या उपन्यासकार ने इस प्रथा की वकालत की है या उसका अनुमोदन किया है? ज़ाहिर है ‘नहीं’. कहानी की तर्क-योजना और संवेदनात्मक  उद्देश्य में उक्त प्रथा की हिमायत या आलोचना का कोई काम ही नहीं है. लेकिन ज़रा प्राचीन ग्रंथों पर नज़र डालें और देखें कि ‘नियोग’ की प्रथा को कितने धर्मशास्त्रों की सम्मति प्राप्त थी. भारतरत्न पंडित पांडुरंग वामन काणे ने गौतम, वसिष्ठ, बौधायन, याज्ञवल्क्य, नारद, कौटिल्य आदि धर्मसूत्रकारों की सम्मतियों उद्धृत की है तथा महाभारत के आदिपर्व, अनुशासनपर्व और शांतिपर्व में नियोग के उदाहरणों और संकेतों की चर्चा की है. (धर्मशास्त्र का इतिहास-प्रथम भाग) मुरुगन की पुस्तक जलानेवाले तत्व इन धर्मसूत्रों और महाभारत के बारे में क्या ख्याल रखते हैं? शास्त्र और लोक की बात छोड़ भी दें, तो क्या मानवशास्त्र का अध्ययन यह नहीं बताता कि ऐसी प्रथाएं लगभग सभी प्राक-आधुनिक समाजों में रही आई हैं? यह भी कि आधुनिक समय में भी तमाम प्राक-आधुनिक प्रथाएं रूप बदलकर क्या अपनी निरंतरता नहीं बनाए रखतीं? मुरुगन ने किसी प्रथा पर कोई मूल्य निर्णय नहीं दिया है, अच्छा या बुरा नहीं कहा है, उन्होंने सिर्फ एक कोमल कहानी कही है जो एक समाज में जन्मी है. उस समाज की कुछ प्रथाएं और मान्यताएं हैं जो उस समाज में जी रहे लोगों के जीवन से लिपटी हैं, उन्हें कोई कथाकार, इतिहास-लेखक या नृतत्वशास्त्री कृत्रिम ढंग से काट कर अलग नहीं कर सकता. ऐसा करना खुद को झूठा साबित करना है, कला और समाज दोनों से गद्दारी है. मुरुगन ने ऐसा करने से इनकार किया है, लेखक की मृत्यु की कीमत चुका कर भी. लेकिन पाठकों और जागरूक नागरिकों का प्यार उन्हें वापस लौटा लाएगा. ज़रूर ही लौटा लाएगा.

प्रणय कृष्ण

प्रणय कृष्ण

इलाहाबाद युनिवर्सिटी और जेएनयू से अध्‍ययन. प्रखर हिंदी आलोचक. जन संस्‍कृति मंच के महासचिव. देवीशंकर अवस्‍थी सम्‍मान  से सम्मानित .

विडंबनात्मक परिवेश की रूपक-कथा है ‘आस्था’: प्रणय कृष्ण

अगर आधुनिकता की यह विडंबना आधारभूत है, तो कोई न कोई तबका हर समाज में ऐसा होगा जो इस विडम्बना को सबसे पहले और सबसे ज़्यादा गहराई से अभिव्यक्त करेगा। हिंदुस्तान में यह तबका कौन-सा है? ‘आस्था’ फिल्म का जवाब है कि यह तबका है महानगरों में रहनेवाली मध्यवर्गीय युवा औरतें। फिल्म की नायिका उन्हीं का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसा नहीं कि दूसरे सभी तबके इस विडंबना से अछूते हैं, लेकिन इतिहास का निरंकुश चुनाव इसी तबके का है। मध्यवर्ग के महानगरीय आदमी की पितृसत्तात्मक सुरक्षा इस विडंबना से बचने की एक ढाल है। उसके तरकश में आदर्शवाद के तीर इस विडंबना से निपटने के लिए अभी बाकी हैं। लेकिन एक स्त्री जरूर तैयार होती गई है जिसकी परिभाषा परिवार, परंपरा और आदर्शवाद के दायरे में संभव नहीं है। # लेखक 04257290

फिल्म ‘आस्था’ से गुज़रते हुए

1. कहानी– मानसी एक सुन्दर-सी बेटी की मां और एक नेकदिल प्रोफेसर पति का प्रेम पाने वाली पत्नी है। घर की ज़़रूरतें पति की आय से पूरी हो जाती हैं, लेकिन ख्वाहिशें नहीं। बेटी को जूते की ज़रूरत है। मानसी जूते खरीदने जाती है, लेकिन जो जूता पसंद आता है वह उसके बजट से बाहर है। दुकान में उपस्थित एक महिला रीता जूते बंधवा देती है और बाकी के पैसे चुकता कर देती है। फिर वह उसे अपनी गाड़ी में बिठा कर होटल लाती है और एक पुरुष के हवाले कर देती है, इस हिदायत के साथ कि नई है। इस पुरुष से मानसी को मिलता है ढेर सारा रुपया और (प्रतिरोध के बाद) संतुष्टि। घर लौटती हुई मानसी में आत्मग्लानि है। घर लौटने पर बेटी जूते पाकर खुश है, पति से वह सब कुछ बताना चाहती है, लेकिन कह नहीं पाती और बात बदल देती है। फिर तो ना-नुकुर करते हुए भी बिज़नेस का यह सिलसिला शुरू हो जाता है। सहेली के घर देखी गई ब्लू फिल्म के नाम पर वह पति को भी नए तरीकों से सुखी करती है। अंततः एक छात्रा के सामने पोल खुलने पर उसी छात्रा के माध्यम से और कहानी के रूप में पति को सारी बात बताती है। पति एक ऐसे आदर्श पति की भूमिका निभाता है जो पत्नी के हालात को समझने की कोशिश करे और इस तरह वह बाज़ार से मुक्त होकर घर की होकर रह जाती है।

 2. कहानी का पाठ (या शायद अतिपाठ): इस कहानी को हम आधुनिकता के विडंबनात्मक परिवेश की रूपक-कथा के रूप में देखने की कोशिश करें। पहले कुछ कविताओं के टुकड़े-

(अ) मिट्टीपन मिटाए नहीं मिटता/ आकाशपन हटाए नहीं हटता/आकाश और मिट्टी के इस संघर्ष के बीच/ मेरे ज़ख्मों का कजऱ् चुकाए नहीं चुकता

-मराठी कवि कुसुमाग्रज की कविता का एक अंश

(आ) कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता

कभी ज़मीं तो कभी आस्मां नहीं मिलता।

-हिंदवी कवि ‘शहरयार’

ऊपर के दोनों उद्धरण आधुनिकता की आधारभूत विडंबना पेश करते हैं- यहां ज़मीन या मिट्टी का अर्थ है सुरक्षा (भौतिक और मनोवैज्ञानिक), जुड़े होने की इच्छा (बिलांगिंगनेस), निरंतरता (कन्टीन्यूटी) और अस्मिता (आइडेंटिटी)। आसमान का अर्थ है- अभिलाषाओं का संसार, ख्वाहिशों की उड़ान, फैल जाने की इच्छा। प्राक्-आधुनिक इंसान को परिवार, समुदाय, परंपरा और धर्म के रूप में ज़मीन मिली हुई थी। उसकी जड़े पुख्ता थीं, उसकी संवेदना स्थानीकृत थी, आकाशधर्मा नहीं, सभ्यता के विकास ने उसकी उत्पादन क्षमता को कल्पनातीत ढंग से बढ़ा दिया और उसकी इच्छाओं को उड़ने के लिए आसमान दिया।

‘हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले‘ -गालिब

आधुनिक मनुष्यता में जड़ों और इच्छाओं, ज़मीन और आसमान का विभेद पैदा हुआ। भौतिक विकास ने इच्छाओं को कल्पना से बाहर निकालकर वास्तविकता में पूरा करने का आश्वासन दिया। आधुनिक मनुष्य के चार आर्य सत्य है- (1) इच्छाएं हैं। (2) इच्छाओं का कारण है। (3) इच्छाओं की पूर्ति है। (4) इच्छाओं की पूर्ति का मार्ग है।

लेकिन दिक्कत ये है कि इच्छाओं की पूर्ति का मार्ग बाज़ार से होकर जाता है। बाज़ार यानि भौतिक प्रगति के वितरण का तरीका। इस वितरण पर जिन शक्तियों का नियंत्रण है, वे वितरण को असमान बनाती है, लेकिन इच्छाओं की भौतिक पूर्ति संभव है, इस संभावना का सार्वभौम असर होता है। आधुनिक विकासक्रम में समाज को संगठित करने की पुरानी सभी संस्थाओं में जो कुछ नहीं था, वह सब बाज़ार में उपलब्ध है, लेकिन बाज़ार खुद, सबको सब कुछ नहीं दे सकता।

कविता में ज़मीन और आसमान एक साथ न मिल जाने की आधुनिक विडंबना कविता में एक बोध के रूप में व्यक्त हुई है, जबकि फिल्म ‘आस्था’ इस जटिल यथार्थ को फिल्म माध्यम के सारे ही संसाधनों की सहायता से उसके सारे वस्तुगत आयामों में घटनाओं का आधार देकर विकसित करती है। हालांकि आधुनिकता का यह द्वंद्व अनेकशः रूमानी कविताओं, मनोविश्लेषण और अस्तित्ववाद के माध्यम से व्यक्त होता रहा है। भारत में यह द्वंद्व अब अधिक वयस्क हुआ है, ’80 और ’90 के दशक में। पूंजीवाद की आयु दुनिया के स्तर पर बढ़ी है और इसी अनुपात में आधुनिक चेतना का विभाजन गहराता गया है।

हमने ज़मीन और आसमान के ये प्रतीक लिए ही नहीं होते यदि ‘आस्था’ फिल्म में नायिका ने एक संवाद में अपनी व्यथा इन्हीं प्रतीकों में व्यक्त न की होती। शायद इसलिए भी कि ये प्रतीक सार्वभौम हैं।

3. इस विडंबना का वाहक कौन है?

अगर आधुनिकता की यह विडंबना आधारभूत है, तो कोई न कोई तबका हर समाज में ऐसा होगा जो इस विडम्बना को सबसे पहले और सबसे ज़्यादा गहराई से अभिव्यक्त करेगा। हिंदुस्तान में यह तबका कौन-सा है? ‘आस्था’ फिल्म का जवाब है कि यह तबका है महानगरों में रहनेवाली मध्यवर्गीय युवा औरतें। फिल्म की नायिका उन्हीं का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसा नहीं कि दूसरे सभी तबके इस विडंबना से अछूते हैं, लेकिन इतिहास का निरंकुश चुनाव इसी तबके का है। मध्यवर्ग के महानगरीय आदमी की पितृसत्तात्मक सुरक्षा इस विडंबना से बचने की एक ढाल है। उसके तरकश में आदर्शवाद के तीर इस विडंबना से निपटने के लिए अभी बाकी हैं। लेकिन एक स्त्री जरूर तैयार होती गई है जिसकी परिभाषा परिवार, परंपरा और आदर्शवाद के दायरे में संभव नहीं है। ‘रोज़ा’ फिल्म का गीत याद आता है-

दिल है छोटा सा, छोटी सी आशा

मस्ती भरे मन की, भोली सी आशा

चांद तारों को छूने की आशा

आसमानों में उड़ने की आशा-

इस उड़ने की आशा को भला कौन-सा मध्यवर्गीय आदर्शवाद समेट पाएगा? कौन-सा परिवार और कौन-सी परंपरा इस चांद सितारों को छूने की इच्छा को पचा पाएंगे? एक तरफ सीता-सावित्री का कैंप है, दूसरी ओर मिस इंडिया, मिस यूनिवर्स का। बीच में एक लंबा दायरा है इतिहास, समाज और पीढि़यों का जिसमें एक बड़ा काफिला युवा स्त्रियों का चला जा रहा है- सीता के कैंप से मिस यूनिवर्स के कैंप की तरफ, एक तीसरे कैंप की तलाश में तमाम आंवागार्द लोग, महिलाओं के जनसंगठन, समाजवादी राजनीति करने वाले, सभ्यता समीक्षक, कलाकार और विचारवंत चले जा रहे हैं, लेकिन हैरत है कि सीता-सावित्री वाले कैंप और मिस वर्ल्ड वाले कैंप में फिर भी एक संवाद है, तीसरे कैंप के अन्वेषी तो कहीं संवाद में ही नहीं।

बाज़ार ने बोतल में बंद एक जिन्न को आज़़ाद कर दिया है- वह जिन्न जो मनुष्य की दमित आज़ादी है,  उसका अपूर्ण संसार है। यह जिन्न उस पर ज़्यादा चढ़ेगा जिसकी चेतना में वह सर्वाधिक कैद था।

इस फिल्म का एक दृश्य है जो दर्शकों की समूची सांस्कारिकता को तेज़ आघात देकर विजड़ित कर देता है। एक तरफ पति अपने मित्र के साथ किसी गांव में पंचायत की कार्यवाही देख रहा है जहां औरत विक्रय की वस्तु है, लेकिन पेट में बच्चा होने के नाते पंचायत उसकी भी राय जानना चाहती है कि वह किसके पास जाना चाहेगी। दूसरी ओर पत्नी को फुसलाकर एक दलाल महिला एक धनी व्यक्ति के बिस्तर में पहुंचा देती है। एक ओर पंचायती न्याय में तन्मय पति, दूसरी ओर परपुरुष की वासना का प्रतिरोध करती, छटपटाती पत्नी, दोनों ही दृश्य तेज़ी से एक दूसरे के समानांतर दिखाए जाते हैं। नेपथ्य में तेज़ संगीत बज रहा है। मानो कि उसी के शोर से पति को पत्नी का आर्तनाद नहीं सुनाई पड़ रहा। ज़रा सोचिए दर्शक की हालत।यह दृश्य उसके सांस्कारिक मन की पीड़ा को गहराता चला जाता है।

वे जो ‘आस्था’ फिल्म का ‘जलती जवानी’ टाइप पोस्टर देखकर फिल्म देखने चले आते हैं, इस दृश्य संयोजन से वे भी स्तब्ध थे। लेकिन वास्तविक आघात तो तब लगता है जब चरमोत्तेजन की ओर अग्रसर वह घरेलू पत्नी प्रतिरोध करना बंद करके, आनंद लेने लगती है। एक आनंद जो उसके वैवाहिक जीवन में उसे कभी नहीं मिला था, एक परपुरुष ने उसे दे दिया था। हिंदी फिल्मों में इतना तनावयुक्त शायद ही कोई दूसरा दृश्यांकन हुआ होगा। पूरे हॉल में स्तब्धता छा जाती है। यहां यह कह देना आवश्यक है कि चरमोत्तेजन (Orgasm) को एक नितांत जैविक तथ्य के रूप में लेना घातक है। यहां चरमोत्तेजन एक रूपक है उस मुक्ति का जो उसे एक नीरस पारिवारिकता से मिलती है। यहां गौरतलब है कि यह परिवार कोई संयुक्त परिवार नहीं, जिसका बोझा औरतें ढोती हैं। पति भी कोई सामंत नहीं, बल्कि आधुनिक सोच बरतने वाला पढ़ा-लिखा समझदार व्यक्ति है। फिर वह क्या है जो नायिका को एक अलगाव में ले जाता है? उसके पति की पुस्तकें, उसकी विद्वता और लोकप्रियता, उसका हंसमुख और मिलनसार स्वभाव सभी कुछ पत्नी से यह अपेक्षा करता है कि पत्नी अपने व्यक्तित्व को उसी में लय कर दे। जब पत्नी कहती है कि ‘इनकी मर्जी के बगैर इस घर में सूई भी इधर से उधर नहीं हो सकती’, तो वह अपने इसी भयानक अलगाव को व्यक्त कर रही होती है। असल में यह औरत अपने जि़ंदा हस्ती के लिए स्वायत्त लिविंग स्पेस खोज रही है। पति का सारा आदर्शवाद जो इस स्त्री के स्वाधीन व्यक्तित्व की अवहलेना पर टिका है; वह आदर्शवाद स्त्री की संवेदना, उसके भावनात्मक संसार, स्वप्न और अभिलाषाओं के प्रति अंधा है। पुरुष होने के नाते परिवार के बाहर भी उसकी एक दुनिया है, लेकिन स्त्री के लिए छत, दीवार, घरेलू काम, भोजन, बच्ची और पति मिलकर उसके अस्तित्व के अधूरेपन का गायन करते हैं, उसे सेलेबे्रट करते हैं; यहीं आकर यह फिल्म आदर्शवाद पर टिके मध्यवर्गीय एकल परिवार (न्यूक्लियर फैमिली) के खोखले स्त्री-पुरुष संबंधों का भाष्य बन जाती है। इन संबंधों में बहुत-सा आदर्शवाद, आवेग (पैशन) और अनुभव की साहसिकता (एडवेंचर) के ज़बर्दस्त अभाव पर पर्दा नहीं डाल पाता। यही कारण है कि यह परिवार बाज़ार के सामने इतना असहाय है।

4. तुम्हीं से जनमूं तो शायद मुझे पनाह मिले-

इस फिल्म के आखीर में एक खूबसूरत गीत फिल्माया गया है जिसकी टेक है- ‘तुम्हीं से जनमूं तो शायद मुझे पनाह मिले।’ इस फिल्म की नायिका ने बाज़ार में ज़रूरतों से आगे ख्वाहिशों के एक संसार को अपना इंतज़ार करते पाया, लेकिन इन ख्वाहिशों की पूर्ति को वैधता नहीं प्राप्त है। बाजार उसके व्यक्तित्व की न पाई गई अभिव्यक्ति को स्वायत्त करता है, लेकिन जड़ों से उसे उखाड़कर, उसकी संबंध भावना की विशिष्टता छीनकर, उसके निरंतरताबोध को विघटित करके। उसकी नई पाई गई आज़ादी वैधता के लिए भटकती है। अजीब दयनीय है यह आज़ादी जिसने उसके व्यक्तित्व को विभाजित कर दिया है। एक तनी हुई रस्सी पर विभाजित व्यक्तित्व के दोनों हिस्से एक दूसरे से मिलने के लिए दिन-रात चलते हैं। भटकती हुई आत्मा अपनी मुक्ति का स्तोत्र पढ़ती है- ‘‘तुम्हीं से जनमूं तो शायद मुझे पनाह मिले…’’ क्या यह प्रेतमुक्ति संभव हो पाएगी?

इस गीत के दृश्यांकन में आदमी-औरत के पारंपरिक रिश्तों का इतिहास बजता है। गीत के दौरान ओमपुरी की भंगिमा हिंदी फिल्मों के न जाने कितने आदर्शवादी नायकों को एक साथ उपस्थित कर देती है। अपनी ही ज्वाला में धधकती भटकन को रेखा उतनी ही खूबसूरती के साथ चेहरे में उतार देती है। सब्र और ज़ब्त का प्रतीक बना नायक नायिका के समूचे आवेग को अपने हिमालय जैसे मजबूत कंधे पर सांत्वना की ठंडी थपकी देता है। अजीब विडंबना है कि आवेग और साहसिकता की ज्वाला बर्फ जैसे ठंडे और धैर्ययुक्त आदर्शवाद से मांग करती है- ‘तुम्हीं से जनमूं तो शायद मुझे पनाह मिले’- इस गीत का पुरुष पहाड़-सा धीरज है और औरत है बहाव से युक्त सरिता। पहाड़ से नदी निकलती है, इस युग-युग की स्वाभाविकता को फिर से पाने की कोशिश है, लेकिन प्रतीक बदल गए हैं- पहले जो पहाड़ था, वह आज भी बर्फ है। किंतु पहले जो नदी थी, आज वह ज्वाला है। इस गीत के फिल्मांकन से लगता है कि ज़मीन फिर पंरपरा में खोजी जा रही है, लेकिन ‘शायद’ नहीं। ‘तुम्हीं से जनमूं तो शायद मुझे पनाह मिले’- इस पंक्ति का भेद खोलने वाला शब्द है ‘शायद’, जो कि पूरे दृश्यांकन में नायक और नायिका की पूरी संकल्पना के बीच दरार की तरह सक्रिय है। आधुनिकता ने ज़मीन और आसमान, ज़रूरत और अभिलाषा, परिवार और बाज़ार, आदर्शवाद और आवेग, तर्कसम्मत और अतक्र्य के बीच जो विभाजन पैदा किया है, वह किसी उच्चतर क्रांतिकारी रूपांतरण में हल होगा, अथवा वापसी संभव है? कुछ लोग परिवार को पवित्र गाय मानते हैं। उनसे इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि एकल परिवार खुद बाज़ार के दबाव से पैदा हुई है। संयुक्त परिवार बाज़ार के दबाव में ही टूटा था। इसलिए एकल परिवार को बाज़ार के ऊपर कोई नैतिक व्यवस्था मानना गलत है।

अपने ही जीवन की कथा, पति की कहानी में सुनने के बाद एक दृश्य में जब बिस्तर में नायिका उससे पूछती है कि यदि यह कहानी सचमुच सही हो, और कहानी की नायिका वास्तविकता में वह स्वयं हो, तो क्या उसी विशालहृदयता के साथ वह उसे समझने की कोशिश करेगा? ओमपुरी का जवाब है- ‘कुछ भी हो सकता है।’ जी हां! कुछ भी हो सकता है। जिन्न को पकड़कर वापस बोतल में भेजने की कोशिश भी हो सकती है। विकसित पूंजीवादी देशों के नेता परंपरा और परिवार को बचाने की चीख पुकार मचा ही रहे हैं। लेकिन, दूसरी ओर आदर्शवाद की खोल उतारकर इंसान और जिन्न अर्थात् इंसान और उसका ही सद्यःमुक्त रूप जो जिन्न की तरह उसकी चेतना में कैद था, उन दोनों का मिला-जुला रूप भी पैदा हो सकता है। रास्ता खुला है। रास्ता फिल्म में नहीं, जि़ंदगी और इतिहास की गतियों में है। शुक्र है कि ‘इतिहास’ का अभी तक ‘अंत’ नहीं हुआ है।

प्रणय कृष्‍ण। इलाहाबाद युनिवर्सिटी और जेएनयू से अध्‍ययन। प्रखर हिंदी आलोचक। जन संस्‍कृति मंच के महासचिव।  देवीशंकर अवस्‍थी सम्‍मान  से सम्मानित ।

प्रणय कृष्ण की सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘प्रसंगवश: साहित्य और समाज की चंद बहसें’ से साभार
(लोकयुद्ध , 16 मार्च -17 अप्रैल, 1997)

नबारून दा: ज्वालामुखी के दहाने खलबला रही चाय का आमंत्रण

प्रणय कृष्ण द्वारा शायद यह पहला प्रयास है हिंदी में, जहाँ नबारून भट्टाचार्य की चर्चा उनके समूचे रचनात्मक व्यक्तित्व के प्रसंग में की गयी है. हिंदी में क्रांतिकारी राजनितिक सक्रियता के स्तर पर जो पीढ़ी सक्रिय थी, उनके यहाँ नबारुण की रचनात्मक छबि ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ तक ही सीमित है. यह एक स्तर पर सच भी है कि नबारुण दा की शुरूआती पहचान इसी काव्य-पुस्तिका के सन्दर्भ में स्थापित हुयी थी. लेकिन इस पहचान को स्थिर करने का काम नबारुण के गद्य-लेखन ने किया है. नबारुण दा का यही गद्यकार व्यक्तित्व बंगाली युवकों-युवतियों के बीच लोकप्रियता के चरम पर स्थित है. नबारुण की चर्चा उनके उपन्यास ‘हार्बर्ट’ (१९९३) और ‘काँगाल मालसाट’ (२००३) के बिना अधूरा ही नहीं बल्कि एकांश भी नहीं है. साथ ही साथ पुरंदर भाट नामक कवि नायक (जो की काँगाल मालसाट का एक चरित्र है) की काव्य-पंक्तियों के बिना नबारुण की जीवंतता और तिक्तता को समझना और भी मुश्किल काम है. @तिरछीspelling 

मेरे द्वारा निर्मित शब्दों का घर/ टूट जायेगा रूदन से/ मेरे मरने के बाद/ वैसे अचंभित होने जैसा कुछ भी नहीं है इसमें/ पुछ जाऊंगा घर के आईने से/ दीवारों पर नहीं होंगे मेरे चित्र/ वैसे दीवार अच्छा नहीं लगा कभी मुझे/ अब आकाश ही मेरा दीवार होगा/ जिस पर चिमनियों के धुँए से/ पंछी मेरा नाम लिखेंगे/ आकाश ही मेरे लिखने का टेबिल होगा अब/ ठंडा पेपरवेट होगा चाँद/ काले मखमली कुशन में तारे टिमटिमायेंगे/ मुझे याद कर के/ दुखी होने की जरूरत नहीं है तुम्हें/ इन बातों को लिखते हुए मेरे हाँथ नहीं काँप रहे/ पर जब पहली बार थामा था तुम्हारे हाथों को/ कुछ आवेग और कुछ झिझक में/ मेरे हाँथ जरूर काँपे थे/ मेरी सुन्दर पत्नी मेरी प्रेयषी/ मेरी यादें तुम्हें घेरे रहेंगी/ जरूरी नहीं है जकड़ी रहो तुम भी उनमें/ गढ़ना अपना जीवन खुद/ मेरी यादें होंगी तुम्हारा साथी/ तुम करो यदि प्रेम किसी से/ दे देना इन सारी यादों को उसे/ कॉमरेड बना लेना उसे अपना/ हाँ मैं जरूर सबकुछ तुम पर छोड़े जा रहा हूँ/ मेरा विश्वास है कि गलतियाँ नहीं करोगी तुम/ तुम मेरे बेटे को/ अक्षरज्ञान के समय/मनुष्य धूप और तारों से प्रेम करना सिखाना/ वह मुश्किल से मुश्किल गणित सुलझा पायेगा तब/ क्रांति का एलजेब्रा भी/ वह मुझसे बेहतर समझेगा/ चलना सिखायेगा मुझे जुलूसों में/ पथरीले जमीन पर और घास पर/ हाँ! मेरी कमियों के बारे में भी बताना उसे/ पर ध्यान रहे वह मुझसे नफरत न करे/ कोई बड़ी बात नहीं है मेरा मरना/जानता था/ बहुत दिनों तक जिंदा रहने वाला नहीं हूँ मैं/ पर समस्त तरह के मृत्यु का अतिक्रमण कर/ हर तरह के अन्धकार को अस्वीकार कर/ मेरा विश्वास कभी नहीं डिगा/ क्रांति हमेशा दीर्घायु हुई है/क्रांति हमेशा चिरजीवी हुई है

(नबारून दा की ‘अंतिम इच्छा’ (শেষ ইচ্ছে) शीर्षक कविता, बांग्ला से अनुवाद- राजीव राही)

Photo Courtesy Q

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By प्रणय कृष्ण

क्या ऐसी ‘अंतिम इच्छा’ आपने किसी की सुनी है? कैसा रहा होगा वह जीवन जिसकी ‘अंतिम इच्छा’ ऐसी हो? ३१ जुलाई, २०१४ को जब हम सब अपने अपने शहरों में प्रेमचंद जयन्ती मना रहे थे, नबारून दा दुनिया को चुपचाप लगभग साढ़े चार बजे अलविदा कह गए. पिछली २३ फरवरी को पटपड़गंज, दिल्ली के मैक्स हास्पिटल में अंतिम बार भेंट हुई थी. लोकसभा चुनाव, वाम एकता और कुछ हंसी-दिल्लगी की बातों के बीच बमुश्किल उनके स्वास्थ्य पर बात टिक पा रही थी. कह रहे थे कि रेडियोथेरेपी के बाद यदि ट्यूमर छोटा हो जाता है, तो ऑपरेशन संभावित है. यह भी कि शायद कुछ कहानियों और एक उपन्यास को वे पूरा कर पाएँगे.

धूमिल के गाँव खेवली( बनारस) में सन २००8 में जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में उनसे आग्रह किया गया कि वे ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ ( मंगलेश डबराल कृत हिन्दी अनुवाद) ज़रूर पढ़ें. दो पंक्तियाँहिन्दी में पढ़ने के बाद उन्होंने बांगला में शेष कविता पढ़नी शुरू की. लगा मानों मेघ गड़गड़ा रहे हैं. उस काव्यपाठ कीयाद अभी भी सिहरन पैदा करती है.

एक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी के रूप में नबारून दा के चरित्र की दृढ़ता उनके एक्टिविज्म और रचनाकर्म में ही नहीं, देश-दुनिया में दमन-शोषण और मानवद्रोह की तमाम वारदातों के खिलाफ व्यक्तिगत स्तर पर भी निर्भीकता के साथ उठ खड़े होने में दिखाई देती है. उन्होंने सच कहने के लिए किसी के अनुमोदन का इंतज़ार कभी नहीं किया. पश्चिम बंगाल विधानसभा के पिछले चुनावों से पहले का वाकया याद आता है. सिंगूर-नंदीग्राम के बाद इन चुनावों में वाममोर्चा की हार तय दीख रही थी. दशकों से वाम प्रतिष्ठान का संरक्षण पाए बौद्धिक भी ‘माय, माटी, मानुष’ की ममतामयी पुकार लगा रहे थे. तमाम भूतपूर्व और ‘अ’भूतपूर्व क्रांतिकारी बौद्धिक और खुद को माओवादी बतानेवाले भी ममतामय हुए जा रहे थे. नबारून अकेले ही यह कहने को उठ खड़े हुए कि वाममोर्चा का विकल्प ममता नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी वाम विकल्प ही हो सकता है. यदि वह बंगाल में अभी उपलब्ध नहीं है तो क्या मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को उसे बनाने के काम में नहीं लगना चाहिए? उपलब्ध बूर्जुआ विकल्पों में से किसी एक के पीछे खड़ा हो जाना एक बुद्धिजीवी द्वारा अपने दायित्व का विसर्जन है. यह वही व्यक्ति कह सकता था जिसने ‘नक्सलबाड़ी विद्रोह’ को खड़ा करने और उसके सन्देश को जनता में पहुँचाने में बुद्धिजीवियों की भूमिका को देखा था और खुद इस भूमिका में खड़ा हुआ था.

 नबारून न केवल वाममोर्चा के लिए, बल्कि ममता-राज के लिए भी भारी असुविधा खड़ा करने वाले बुद्धिजीवी थे. अकारण नहीं कि उनके २००३ में लिखे उपन्यास ‘कोंगाल मालसाट’ ( भिखारियों का रणघोष) पर जब २०१३ में सुमन मुखोपाध्याय ने फिल्म बनाई, तो ममता बनर्जी सरकार उसे सहन न कर पाई. उसे सेंसर की तमाम आपत्तियां झेलनी पडीं. मूल उपन्यास में चोकटोर (काला जादू करने वाले) और फ्यातरू (उड़ने वाले मानव) ऐसे काल्पनिक पात्र हैं जिन्होंने सत्ता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है. इन विद्रोहियों को दंडबयोष ( चिर-पुरातन, सतत बतियाता रहनेवाला कव्वा) और बेगम जानसन के भूत ने प्रशिक्षित किया है. ये पात्र पारंपरिक योद्धाओं की तरह नहीं हैं, बल्कि आजीविका के लिए ये छल-कपट, झूठ-फरेब भी करते हैं, शराब भी पीते हैं. ये दबे-कुचले लोगों के जीवन के निर्मम यथार्थ को प्रतिबिंबित करते हैं. नबारून दिखाना चाहते हैं कि जनता ही विद्रोह की ताकत है, चाहे वह जितनी भी खराब भौतिक और भावपरक स्थितियों में हो. चंद शुद्ध और आदर्श क्रांतिकारी उसकी जगह नहीं ले सकते. इन विद्रोहियों के पास कोई अत्याधुनिक हथियार नहीं , बल्कि कुदाल, छुरा, सब्जी काटनेवाला चाकू, टूटे फर्नीचर के टुकड़े जैसे हथियार ही इनके पास हैं. इन्हें अतिप्राकृतिक सहायता के तौर पर छोटी-छोटी उड़नतश्तरी जैसी वस्तुएं भी हासिल हैं जो शत्रु की गर्दन धड़ से अलग कर देने की क्षमता रखती हैं. २०१३ में बनी फिल्म में मूल उपन्यास के बरअक्स स्क्रीन-प्ले में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए. बंगाल के सत्ता -परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए चोकटोर और फ्यातरू जैसे चरित्र जो कभी विद्रोह के प्रतिनिधि थे, उन्हें सत्ता, सम्मान और वित्तीय सुरक्षा के लिए सत्ता-प्रतिष्ठान का अंग बनते दिखाया गया है. इसीलिए दंडबयोष कहता है, ” लड़ाई जारी रहेगी, यह तो (सत्ता-परिवर्तन) सामयिक है.” इसलिए भले ही ममता सरकार और फिल्म बोर्ड ने आपत्ति गाली-गलौज की भाषा, आन्दोलन की हंसी उड़ाने, ममता बनर्जी का शपथ-ग्रहण दिखाने और उस पर आपत्तिजनक टिप्पणियाँ करने पर की, लेकिन वास्तविक आपत्ति तो इस बदली हुई अंतर्वस्तु पर ही थी.

नबारून बिजॉन भट्टाचार्य और महाश्वेता देवी के पुत्र ही नहीं, बल्कि वाम संस्कृतिकर्मियों की एक महान परम्परा के वारिस थे, जिसका अहसास उन्हें हर पल था.जन संस्कृति मंच के १३वें राष्ट्रीय सम्मेलन (२०१०, दुर्ग-भिलाई) को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “….मुझको ही पूछता हो, तुम तो तुम्हारा… जब तुम बच्चा थे, तब से बहुत लोग को देखा, तुम बिजॉन भट्टाचार्य का बेटा हो, उसके साथ था, तुम उत्पल दत्त को देखा, ऋत्विक घटक की फिल्म में तुम रिफ्लेक्टर..दिया है, तुम मानिक बाबू को देखा, तुम अरुण मित्र, विष्णु डे को, सुभाष मुखोपाध्याय को देखा, मखदूम मोहियुद्दीन को देखा, बलराज साहनी को देखा, Now how do you plan to re-view life? तुम क्या करोगे अब?….Should I go and join the market forces and create something for the market? Might be that will fetch me some money. Actually I require money, but I cannot afford to earn it by indecent means…क्योंकि आप लोग ये समझें कि .. मेरा एक नावेल है ‘ऑटो’ .. एक  auto-driver को लेकर. तो उसपर तो मैंने एक young aspiring filmmaker को बोल दिया कि तुम इसको बनाओ. उसका dreamहै filmबनाना.. और उसके बाद बंगाल का जो सबसे बड़ा heroहै, उसका जो industrial  production house है वो मुझको बोला -हमको’auto’दे दो , तुम को बहुत अच्छा ‘ये’ मिलेगा-‘price’. But I told him that, ‘Bhai! this is not for sale. It is my word  as given to him and he is a young man. If I don’t help the young man, he will reject me and all the youth will reject me in future.’ That is one thing I am afraid of. I don’t want two face. That will be ‘पाप’. Our Indian concept- ‘पाप’-Certain things should be renounced to gain something.और एक बात है …कि एक French intellectualथे Guy Debord. बहुत पगला था. मेरा याद में…Suicideकिया. उसका एक bookहै-‘The Society of the Spectacle’…..This damn bloody capitalist society is always trying to create spectacles. …. This society of spectacles must be challenged and that is the risk. That is what, not only our forefathers have done, it is also done by the international literati…. a great man like Aragon, like Eluard, like Neruda, like … everyone, so we belong to a very great heritage which we cannot renounce.”

नबारून दा के पास सिर्फ क्रान्ति की उल्लासमयी कल्पना ही न थी, उन्होंने क्रान्ति के दमन को, बुरी तरह से कुचले जाने के बाद, विभ्रम और विकृति की और ढकेले जाने के बाद भी, फिर फिर ‘हठ इनकार का सर’ तानते देखा. विश्व-क्रांतिकारी प्रयासों का उन्होंने भीषण शोध किया था. उपरोक्त भाषण में ही उन्होंने कहा था, ” And this is the heritage we must keep alive and this is the struggle in which we cannot lose… May be, we will die. You see, defeat is nothing, defeat is nothing.All the wars cannot be won. Che-Guevara didn’t win, but he has won it forever. That is the main thing.We must keep everything in perspective. We must fight globalization, we must fight local reaction, we must fight the show of military state power in the adivaasi area and we must protest everything illegal, evil and pathetic  that is happening in my country. “

 नबारून बंगाल के नक्सल आन्दोलन के आवयविक बुद्धिजीवी थे, जिसकी मूल प्रतिज्ञा और आशय को बदलती विश्व-परिस्थिति में सतत पुनर्नवा करते जाने की उनकी क्षमता अपार थी. ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ जैसी कविताएँ और ‘आमार कोनो भय नेई,तो?’ सरीखी तमाम कहानियां वास्तविक घटनाओं से प्रेरित हैं जिन्हें उन्होंने देखा भी था और भोगा भी था. महाश्वेता देवी ने अपने कालजयी उपन्यास ‘१०८४ वें की मां’ की निर्माण प्रकिया के बारे में अमर मित्र और सब्यसाची देब से बातचीत के दौरान कहा था कि, “….बारासात और बड़ानगर के दो जनसंहारों के बारे में हमें जानकारी थी. इन जगहों पर नक्सल युवकों का कत्लेआम हुआ था. लेकिन इससे पहले विजयगढ़ के पास श्री कॉलोनी में एक ह्त्या हुई. मेरे छात्र सुजीत गुप्ता की ह्त्या हुई थी, जिसके पिता एक डॉक्टर के कम्पाउण्डर थे. घटना के एक हिस्से की मैं साक्षी थी. बाकी बातें मुझे मेरे बेटे नबारून और दूसरे लोगों से पता चलीं. नबारून कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव रखते थे. उन्होंने अनेक तरीकों से नक्सलपंथियों की मदद करने की कोशिश की.” (Mahasweta Devi: In Conversation with Amar Mitra And Sabyasachi Deb(Indian Literature, Vol. 40, No. 3 (179), (May – June1997)

नबारून दा के लिए नक्सलबाड़ी कभी भी विगत रोमान नहीं रहा. उन्होंने उस आन्दोलन के ऐतिहासिक आशय को आत्मसात किया, नयी से नयी परिस्थिति के बीच उसकी विकासमानता को, भारत के वामपंथी आन्दोलन की परम्परा और दुनिया भर में चले क्रांतिकारी प्रयासों की विरासत के परिप्रेक्ष्य में उसको परखा और अपने कलाकार के लिए भी जीवित सच्चाई के रूप में सतत उसका नवोन्मेष किया.

उन्हें निरंतर उद्वेलित कलाकार का हृदय मिला था, जिसके चलते वे तमाम विधाओं में लगातार आवाजाही करते थे. फिल्म, थियेटर, कथा और कविता में बहुधा विधाओं के तटबंध तोड़ती हुई उनकी रचना-धारा प्रवाहित होती थी.  नबारून दा का कथाकार अमानवीय व्यवस्था पर मारक हमले संगठित करता है. उनकी कहानियों और उपन्यासों में कथा का ढांचा टूट-फूट जाता है, आख्यान विश्रंखलित होकर दूसरे आख्यानों में मिल जाते  है, पात्रों की आतंरिक  दुनिया भी भीषण रूप से विभाजित है, मानो वे एक साथ कई दुनियाओं में रहते और उनसे निर्वासित होते रहते हों, उनके कार्य-व्यापार और संवाद भी ऊपरी तौर पर असंगत और अतर्क्य (किन्तु अयथार्थ नहीं) लगते हैं, तब जो चीज़ उनके कथा-संसार को संरचना और उद्देश्य की एकता प्रदान करती है, वह है कथाकार की प्रचंड व्यस्था-विरोधी युयुत्सु चेतना जिसका निर्माण ‘७० और ‘८० के दशक के नक्सल आन्दोलन की आंच में हुआ है. उनका कथाकार जादू और फैंटेसी के हथियारों से लैस है. अपने समाज के कारोबार को नज़दीक से देखना ‘खतरनाक’ है क्योंकि इस तरह देखने से इस समाज(पूंजी की दुनिया) की निरंकुशता, अतार्किकता और असंगति साफ़ नज़र आती है. इस दुनिया को चलानेवाले मुट्ठी भर तत्व अपने मनमानेपन, व्यभिचार और अपराध को जब तर्क और यथार्थ के परदे से ढँक लेते हैं तब क्या तार्किक है, क्या अतार्किक, क्या यथार्थ है और क्या अयथार्थ, यह जानना सामान्य समझ से परे प्रतीत होता है. पूंजी की दुनिया ने तर्क और यथार्थ का जो कवच पहन रखा है, उसे भेदने के लिए ही महान कलाकारों ने जादू और फैंटेसी के हथियारों का सहारा लिया है.

नबारून दा हमारे समय में जीवित और कर्मरत ऐसे ही महान कलाकार थे. उनके पात्रों की हंसी-दिल्लगी उस रुग्णता और विकृति में लिथड़ी हुई है जिसमें रहने को इस दुनिया के अश्लील नियंताओं ने उन्हें विवश कर रखा है. उनके पात्रों की विकारग्रस्त दिल्लगी भी ज़िंदगी की तर्कहीनता और क्रूरता को उघाड़ कर रख देने की कला है. ‘हार्बर्ट’ (१९९३) और ‘काँगाल मालसाट’ (२००३) जैसे उनके उपन्यास उनकी इसी कलानिष्ठा के नमूने हैं.’हार्बर्ट’ के नायक ‘हार्बर्ट सरकार’ कायह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि वह गोरा है. उत्तरी कोलकाता में पला बढ़ा हार्बर्ट यतीम है. वह असुरक्षित, अकेला, खुद से घृणा करनेवाला, अधपगला, मृतात्माओं से संवाद करने का स्वघोषित माध्यम और खराब कवि है. जीवन में उसका एकमात्र प्रेम एकसाथ दुखांत और हास्यास्पद है. वह एक ऐसा पात्र प्रतीत होता है जिसकी नियति है असफलता और गुमनामी, लेकिन वह अपने झक्कीपने और बाजीगरी से पाठक को लगातार चौंकाता है. मानो कह रहा हो कि कोई भी जीवन कितना भी टूटा, बिखरा, अभिशप्त और हास्यास्पद क्यों न हो, वह बेमतलब नहीं है, उसमें मौलिक होने की अपार संभावना है. उपन्यास हार्बर्ट की आत्महत्या से शुरू होकर फ्लैशबैक में उसकी ज़िंदगी में उतरता है, न केवल अपने नायक के जीवन में बल्कि कोलकाता शहर के कई दशकों के अद्भुत जीवन तथा संस्कृति, राजनीति और मानव-स्वभाव की गहराइयों में उतरता चला जाता है, देश-काल के अनेक संस्तरों में आवाजाही निरंतर चलती रहती है. हार्बर्ट ने मृतात्माओं से संवाद के स्वघोषित हुनर से जो किस्मत बनाई थी, उसे तर्कबुद्धिवादियों द्वारा  फर्जी घोषित किए जाने और कानूनी कार्रवाई की धमकी दिए जाने के बाद, सदमें में वह आत्मघात कर लेता है. लेकिन जैसे ही इलेक्ट्रिक शवदाह के चैंबर में उसके शरीर को रखा जाता है, एक भीषण धमाका होता है और पूरी इमारत दरक जाती है , अनेक लोग जो आस-पास हैं, वे घायल होते हैं. अखबारों की सुर्ख़ियों में हार्बर्ट के मरणोपरांत उसकी ‘आतंकवादी’ गतिविधि की सुर्खियाँ हैं, जिसका रहस्य जानने के लिए उच्च स्तरीय जांच बैठाई जाती है. उसकी चमत्कारिक शक्तियों की विस्फोटक छाप उसकी मृत्यु के क्षण में और भी गहरा जाती है. इस जादुई यथार्थवाद के प्रतीकार्थ को न जाने कितने कोणों से कोई व्याख्यायित कर सकता है. नबारून दा की कला का मरणोपरांत जादू भी अमिट है और निस्संदेह उनकी कला शासक जमातों को उनके मरणोपरांत सदैव आतंकित करती रहेगी, चाहे वे जितनी जांच बैठा लें.

अभी तो उनकी पार्थिव अनुपस्थिति भी ज्वालामुखी के दहाने पर रखी चाय की केतली में खलबला रही चाय पर हम सब को आमंत्रित कर रही है-

कलम को काग़ज़ पर फेरते हुए/ आप दृष्टि को/ बड़ा नहीं कर सकते/ क्योंकि कोई नहीं कर सकता।/ दृश्य के नीचे जो बारूद और कोयला है/ वहाँ एक चिनगारी/ जला सकेंगे आप?/ दृष्टि तभी बड़ी होगी/लहलहाते/फूल फूलेंगे धधकती मिट्टी पर/फटी-जली चीथड़े-चीथड़े ज़मीन पर/ फूल फूलेंगे।/ ज्वालामुखी के मुहाने पर/ रखी हुई है एक केतली/ वहीं निमन्त्रण है आज मेरा/चाय के लिए।/हे लेखक, प्रबल पराक्रमी कलमची/ आप वहाँ जायेंगे?

( जन संस्कृति मंच की ओर से प्रणय कृष्ण द्वारा जारी )

Decades of Ideological Cold War and Hindi Literature: Surendra Chaudhary

On The Occasion of  Surendra Chaudhary’s Birthday Eve

By Pranay Krishna 

The reproduction of an article here titled ‘Decades of Ideological Cold War and Hindi Literature’ by Surendra Chowdhary, one of the most brilliant progressive critics of Hindi literature of the cold-war period,  shall serve its purpose not only  as a tribute to him but also inspire us to think afresh on the whole issue with the advantage of hindsight. Surendra Chowdhary’s article presents a sketch or a broad outline of how the ideological cold war was played out on the turf of Hindi literature. He correctly underscores the legacy of Indian ‘renaissance’ of 1870s and the impact of October revolution which was inherited by the progressive movement, much before the cold- war set in. It would not have been out of place had he also underlined how the progressive movement reclaimed the legacy of anti- feudal, anti-imperialist thrust of India’ first war of Independence (1857), so eloquently brought about in the critical writings of Rambilas Sharma, whom he holds in very high esteem.
Chowdhary is probably the only critic of his time whose writings in practical criticism are uniformly informed by a ‘third world’ perspective. The dynamics of decolonization are never lost to his critical mind. This location of a critic itself ensures that his perception and treatment of the impact of ideological cold war in Hindi literature is more nuanced. In his own words, “The national root of this cold war was extremely divergent.” He never reduces the creative literary endeavors to world-historical political polarizations. He is also vigilant against single theoretical determinant in literary practices. However, when he mistakes the ‘inner struggle of new poetry’ for a confusion borne out of progressive poets cooperation with the ‘modernists’ for reasons of their being afflicted with personal crises, he somehow tries to reconcile his position with that of R.B Sharma who wanted a very neat division between the modernists and the progressives ignoring the conditions (political, ideological, social, aesthetic and moral) which had initially brought them together in 1940s. ‘Loneliness of a universal order’, ‘estrangement of man’, ‘suffering becoming a personal and permanent condition of man’ etc. as literary slogans was not so marked in the initial rendezvous of progressives and the modernists. As the ideological cold-war intensified, the arena of ‘new poetry’ became a battleground and got increasingly polarised with G.M. Muktibodh and Ageya representing almost opposite poles of literary theory and aesthetics. Given the later progress of Hindi poetry, it is hard to agree with the proposition that out of so called ‘confusion’ alluded to above, the ‘New Poets’ gained an ideological supremacy. In fact, ‘New Poetry’ was never a monolith, a settled terrain. It always remained a battleground and now one can say with reasonable assertion (and caution as well) that the pole represented by G.M. Muktibodh in the battle ultimately paved the way for the later generations of poets.
Chowdhary has nonetheless correctly remarked that the short stories of 1960s reflected a strange combination, a sort of symbiosis of opposing forces, whereby realism combined with personal vision of the world, sometimes bordering on nihilism. He is absolutely correct in identifying late 60s and early 70s as decades when ‘the hitherto suspended class struggle assumes a new proportion unknown in the contemporary India’ which resurrected the ‘progressive movement’. The Naxalbari uprising and the ‘anti-emergency’ movements were the hallmark of this era. Despite his political affiliation with the ‘official left’ of his time, he has the courage to recognise that ‘generally retracting a life of suffering and struggle these left-wing writers and poets showed a genuine concern for the Indian masses.’
Post cold war literary scene in Hindi has been interesting. Sudden realisation of a world without two poles, rise of communal fascist forces in India, unfolding of atrocious neoliberal LPG regime, abstraction of social classes in identitarian terms and a wave of postmodernist discourses, all had their impact on the literary scene of Hindi, yet none could decisively dislodge the general progressive trend which is getting increasingly amalgamated into a broad ‘culture of resistance’. Frustrated ‘aesthetes’ of older generations are showing a tendency of reverting back to the leftovers of the reactionary cultural rhetoric of the cold war era. One of them has gone so far as to express gratitude towards the CIA for bringing ‘other’ (non-left) literature to light.
Chowdhary has concluded this article with these words, “From the New-left to the revisionist-left there is a wide range of critical approaches. This has to be settled soon in order to prevent further confusion and dissension. This is all the more important in the wake of a right-reactionary offensive on all fronts. In the present context it is an ardent task of a Marxist critic to consolidate its rank to combat all sorts of deviations on the left or on the right and to bring together all the democratic, secular and socialist forces in their fight against fascism.” These words are even more relevant today than they were in late 1970s when this article was penned.  
Surendra Choudhary

Surendra Choudhary

Decades of Ideological cold war and hindi literature

BY Surendra chaudhary

The impact of the October Revolution was felt first during the ‘20s when India’s political freedom movement entered a new mass-phase, titled a little towards left and found favour with the new generation of freedom fighters.

A composite struggle was on throughout the third world nations, specially in the colonial and semi colonial nations of Afro-Asia. Not only theoretical problems of historical dimensions touched our horizon, but also the forces of social-political changes swept our consciousness. Lenin very correctly defined the perspective when he said: “the Imperialist war that is being waged for world domination; the division of the spoils for the plunder of small and the weak nations; this horrible, criminal was has ruined all countries, exhausted all peoples and confronted mankind with the alternative- either sacrifice all civilization and perish or throw off the capitalist yoke in the revolutionary way, do away with the rule of the bourgeoisie and win socialism and durable peace.”

The event of October 1917 had triggered a two-fold reaction- one deep inside the capitalist west and the other in the oppressed East. Indeed the development of the later day events created a dialectical situation of many antagonistic sources. Yet, at the same time, this development simplified the socio-political contradiction in a basis manner. It brought before every growing nation the idea of incompatibility of capitalism with freedom. The imperialist and bourgeois ideologues since have taken resource to cold-war ideologies. Ever since then they are trying desperately to combat the growing influence of socialism and Marxism in the Third World.

Literature in general reflected this development of the world events. In Hindi literature a new turn in temper appeared which historically linked itself with the fighting tradition of the bourgeois-national renaissance of 1870s, but at the same time defined a new task ahead, the task of a basic transformation of Indian society.

Premchand opened his novel Karmbhumi(The battle ground) with a composite Indian reality- a  radical oriented mass-movement, sweeping the country against Imperialism on the one hand and the indigenous feudal forces on the other. A historical analysis of the ‘30s will show a fundamentally new perspective in which the reality appeared to give new meaning to human action. Of course a critical study of social meanings cannot entirely replace an understanding of socio-political process in its dialectical complexity.

In 1936 a progressive writer’s Association was formed under the leadership of Shri Premchand, one of the biggest contemporary personalities in the literary world. A movement of national dimension thus started and soon submerged opposing ideas for the time being. Even those who were not Marxists adhered to the idea of a basic social transformation and political independence.

A new content is discerned in literature which not only bears out a radically revolutionary character but also a basically new rationale for such a change. Even in pre-PWA period Premchand had set a tone which was anti-imperialist and anti feudal. His articles and novels on Mahajani Sabhyata had come to be a manifesto of the new movement. The tone set in by Premchand further developed in the newly created situation and assured a widely growing form of revolutionary idea.

Even Jurgen Ruhle, an anti marxist critic wrote, “Premchand’s last and most mature work, the novel Godan(1936) is a stiring, tragic tale of the expropriation of the Indian peasantry through the machinations of capitalist.”(Literature and Revolution). Ruhle calls it ‘a moralizing manner of Indian Realism’. Notwithstanding the moral overtones  in Premchand’s earlier works, we can very definitely say that  he attacked all forms of complex religious and socio-political institutions which frustrated India’s emancipation. The national base of socialist forces both ideological and political-was growing very fast when Premchand dies in 1936. The younger generation of Hindi writers felt very clearly that overall situation was not corresponding to dialectic of historical necessity. There was discontent in the air.

The peasantry and the middle class had entered the political arena as a cohesive force which enlarged both the content and form of our struggle. It was during the mid ‘30s that the level of political participation changed. There was a clear move towards the left. It was here that a bigger involvement was necessitated, political freedom was submerged in social and economic issues. The impact was felt on all ideological as well as emotional disciplines. It was in these years that Hindi literature displayed growing social consciousness in all fields of creative writing.

The years following the second world war were catastrophic in more than one way. The war years further aggravated the situation by creating conditions antagonistic to the wishes of the Indian people. A war economy had falsely developed, bringing a section of the urban middle class to affluence at the cost of the masses laboring day in and day out for their living. Even the lower middle class suffered a major setback during the years of imperialist war. There grew a general aversion towards imperialism India. It was here that the middle classes assumed a new reality. It displayed the contradictions within the Indian society and within the individual in the context of a dialectical unity. Yashpal, Ashk, Nagarjun, B.P.Gupta, Amrit Lal Nagar, Amrit Roy and a host of old and new writers tried to portray this new reality of our society. A host  of a new characters and situations were brought on the literary scene from different walks of life. But the middle class dominated the scene. This stageback of the middle class marked a new social typology in Hindi literature in the 40’s and 50’s. These writers tried to portray individual characters against a fast changing social reality – the socio-political ethos. Subjective individualism was also preferred by a new modernists who sought solace in individual consciousness. They claimed the individual consciousness was the ground of all congnition and utilization of the forces of spirit. They ignored the hurricane of freedom which was continuing to shake the colonial system and its national allies. They were the championship of free world. This free world outlook was an ideological mask for a cold war against socialism.

It was no wonder that S.H. vatsyayana, a former revolutionary and then humanist radical, echoed some of the international slogans on the home front. He attacked the God who had failed but not on explicit political ground. He proclaimed individual liberty as the goal of history. From Shekhar ek jivani(1941) onwards he had shown a predilection for individuation and internality. In 1951 he opted for cultural freedom which according   to him was not only freedom of thought and word, the freedom of belief or inquiry, the freedom of expression, silence and affirmation or denial, but also a freedom for ‘plurality of political system’. In his second novel Nadi ke dwipa(Icelands in the sea) he attempted an allegory which resembled Walter Benjamin’s concept in a remarkable way. If Benjamin analyzed philosophically the paradox of history in order to annihilate it, Vatsyayana did the same. By apotheosizing individual historicity he killed history socially.

The new realist continued to write( with a middle class bias) in the epic strain assimilating the developing features of our life. Yashpal’s Deshdrohi( The Renegade), Ashk’s Girti Diwaren and Garm Rakh  continued the tradition of the old masters with shifts towards urban themes. Here the new realists tried to salvage fiction from dissolution with nothingness and gave it a historical content.

The ‘New Poets’ emerging out of the cataclysm of war and Deeping national crisis, turned to modernism. They made  an anathema of history, relegating it to a pointless position to ultimately annihilate it. This is a paradox of modernism very remarkably pointed out by one of the most outstanding critics of our time, Dr R.B. Sharma. He analyzed modernism the meaning underlying its expressive concerns. He threw a good deal of light on issues involving an overall aesthetic relation of art to reality. His critique of bourgeois cultural and its deepening crisis exposed this ideological cold war.

Bharati’s Andha Yug makes a mythopoetic allegory the facies hipocratia of our blind age. It was here that a deep personal crisis overtook Hindi writers. Did it grow out of the Indian conditions or was it a mere ideological catch? Reason and dream- a growing contradiction within experience – overtook them. Even Marxists suffered this personal crisis. Ageya’s Tarsaptak (’41) was heralded as a major source of all poetic creations in Hindi. G.M. Muktibodh, a rising poet of this generation and an ardent Marxist was caught up in this personal crisis. And it was certainly not less so for Shri Kant Verma. At first this new crisis seemed to threaten only individual writers and poets but gradually it assumed a much wider ideological dimension. It is here that we meet a challenge originating through the machinations of a cold war ideological force.

  The national root of this cold war was extremely divergent. Sometimes it took the form of a personal fight against decisive formal problems and its inherent dialectic. It created a condition for a false polarization of forces. Most of the poets of this generation could not gloss over the irrational moment of this inner turmoil. Surprisingly enough, Muktibodh re-emerged from the depths. But it was too late. Instead of opposing this basic position the progressive poets had cooperated with the New Poets which had given rise to a confusion. Out of this confusion the New Poets’ gained an ideological supremacy.

 The progressive forces continued to fight their way out. They fought hard against a formal and ideological reduction of reality to a nightmare. Dr R.B. Sharma had already exposed this global cold war in an article published in Alochana, a critical quarterly taken over by the ‘New Poets’ for a short period. He had shown very clearly that this ideological conflict had, indeed, deprived literature of a sense of perspective. It had rather confused the basic position of a writer’s creative ability to master reality. It was a hard fight to win. The ‘New Poets’ and their ideologues brought certain inside controversies of the previous periods and tried to extend it to new aesthetic domains. Issues were combined in order to impress upon the general readers and intellectuals the futility of communist order and its anti-humanist character. This national tirade against Marxism brought certain literary issues and overtones involving aesthetics. The Indian partisans of this tirade proclaimed a system of pure categories as opposed to Marxian dialectic.

 Loneliness of a universal order and the estrangement of man from his world came to be literary slogans with the new poets. Suffering became a personal and permanent condition of man. They went so far as to proclaim a total loss of balance. In the name of balancing necessity with contingency they totally discarded pre-arranged libretto and replaced it with a free choice. Their model of a weak human abstraction not only negated the actual course of events, i.e. the historical reality, but also its essential contradictions. They lost everything except a deepening personal crisis.

 A cross-section of ideological configuration of all shades appeared on the literary scene. Existential slogans appeared combined with a left tinge. The suffusion proved to be abortive in the long run but it took the writer’s imagination as a revolutionary weapon. The new and contemporary short stories which appeared during ’60s reflected this strange combination, a sort of symbiosis of opposing forces. In the name of realism combined with personal vision of the world, these new writers of the ’60s created many confusing situations and a new source of schism.

The aesthetic acrobatics of this self-troubled generation of the ’60s took a rather more serious turn during the closing years. It took a personal crisis as the source of all creative functions and thus centered round a depressing reality. Defenseless and naïve they became outsiders. Caught in this helpless and miserable existence, they consumed themselves in their search for a personal way out instead of creatively changing the situation. They lamented the situation tragically.

 But the ’60s proved much more tragic than they could have thought. It brought wars of aggression, famine and deepening economic crisis from the outset. It was anticipated perhaps a few years earlier by Renu’s Maila Anchal. In this novel he has shown a cardinal concern for the rural masses undergoing a massive and painful transformation. He had introduced a manner of realism in literature which was new for his generation of writers by introducing the social conflicts central to his time. He enjoyed considerable moral and intellectual standing among the writers of ’50s but gradually his influence waned.

But for a few individual instances, the younger generation of the late ’60s and early ’70s was in an ideological mess. It had lost all hopes of a resurrection. A nihilist’s concern was perhaps the order of the day. But here a new political phenomenon appears in Indian society which changes the basic temper of time. The hitherto suspended class struggle assumes a new proportion unknown in the contemporary India. This growing class struggle and political turmoil suddenly brought new ideological forces into play. The pessimism injected into personal consciousness thus dispelled itself and sought a new way out.

 A left- wing literature of mutually opposing shades appeared. Some of the left wing poets and writers lurked behind a Dostoevskian shade of nihilism; some behind an activist shade of the New-Left and only a few had stayed before a genuine position of the Indian left. Generally retracting a life of suffering and struggle these left-wing writers and poets showed a genuine concern for the Indian masses. The political existence of the common man assumed a new proportion. Of course in certain cases this concern is overplayed and in certain others the tone is manipulated and tempered with a definitive dramatic purpose. But the overall situation remains in the interest of the really progressive forces which stand for a basic transformation of Indian society.

The great victim of this ideological cold war has been out literary criticism. Instead of democraticizing the feudal and bourgeois traditions of the past, it has taken up position with the bourgeois aesthetics and subjective philosophy of culture. We must, with necessity, go deeper into these underlying ideological problems of meaningful creation. Here the contemporary Marxists differ quite considerably and display a remarkable fancy for heterogeneous strategic and tactical positions often relegating the basic principles of Marxism- Leninism.  From the New-left to the revisionist-left there is a wide range of critical approaches. This has to be settled soon in order to prevent further confusion and dissension. This is all the more important in the wake of a right-reactionary offensive on all fronts. In the present context it is an ardent task of a Marxist critic to consolidate its rank to combat all sorts of deviations on the left or on the right and to bring together all the democratic, secular and socialist forces in their fight against fascism.

Published Books Of Surendra Chaudhary:

  •  Hindi Kahani : Prakriya Aur Path (Hindi), Radhakrishna Prakashan
  •  Phanishwar Nath Renu, Sahitya Academy
  • Itihas : Sanyaog Aur Sarthakata, Antika Prakashan
  • Hindi Kahani : Rachana Aur Paristhiti, Antika Prakashan
  • Sadharan Ki Pratigya : Andhere Se Sakshatkar, Antika Prakashan

Courtesy For Article–  October Revolution: Impact on Indian Literature, edited by Qamar Raʼīs

जातीय गठन का प्रश्न और रामविलास शर्मा: प्रणयकृष्ण

(2012-2013 रामविलास शर्मा का जन्म-शताब्दी वर्ष है। रामविलास शर्मा के ऊपर अपना व्याख्यान देते हुये वीर भारत तलवार ने कहा है कि रामविलास शर्मा की मृत्यु ने हिन्दी मीडिया को झकझोर कर के रख दिया था। वे बोलते हैं-“रामविलास जी की मृत्यु के बाद जो हिन्दी अखबार प्रकाशित हुए, उन सबों ने मुख्य पृष्ठ पर उनकी मृत्यु के समाचार को प्रमुखता से जगह दी।…बड़ी-बड़ी सुर्खियां लगाईं। ऐसा कि 11 सितंबर को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर जो हमला हुआ था, उसकी भी सुर्खियां ऐसी न थी। हिन्दी के किसी अन्य साहित्यकार को यह यह सम्मान प्राप्त नहीं है। ।…मुझे  नहीं लगता कि पूरे हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु की मृत्यु के बाद किसी और की मृत्यु के समाचार को इतनी प्रमुखता मिली होगी जितनी रामविलास जी की। ” इससे हम रामविलास शर्मा की लोकप्रियता और उनके जाने से हुए क्षति दोनों का अंदाजा लगा सकते हैं।  तेज-तर्रार युवा आलोचक प्रणय कृष्ण इस इस जन्म-शताब्दी वर्ष के बहाने लगातार रामविलास शर्मा पर लिख-बोल रहे हैं। उनके दो लेख हम पहले भी प्रकाशित कर चुके हैं(पूर्व प्रकाशित दोनों लेख इस प्रकार हैं-अपने अपने रामविलास- प्रणय कृष्ण और उपनिवेशवाद / साम्राज्यवाद कभी प्रगतिशील नहीं होता (रामविलास शर्मा की याद )। प्रस्तुत है उनका यह तीसरा लेख।)

निराला और रामविलास शर्मा

निराला और रामविलास शर्मा

By  प्रणयकृष्ण 

‘भाषा और समाज’ नामक पुस्तक में ‘जातीय निर्माण के उपकरण’ शीर्षक अध्याय में रामविलास जी ने लिखा, ” आधुनिक जातियों के निर्माण के लिए सामान्य भाषा, सामान्य प्रदेश, सामान्य आर्थिक जीवन और सामान्य संस्कृति आवश्यक तत्व माने गए हैं”, यही स्टालिन की प्रस्थापना है. रामविलास जी इसकी व्याख्या करते हुए महत्वपूर्ण बात यह कहते हैं कि जिन तत्वों से जन का निर्माण होता है, उन्हीं से सामंतयुगीन लघु जाति का और पूंजीवादी महाजाति का निर्माण होता है. पार्थ चटर्जी ने १९७५ में प्रकाशित ‘बंगाल: एक जातीयता का उदय और विकास’ (सोशल साइंटिस्ट, खंड चार, अंक १), शीर्षक अपने एक लेख की पाद टिप्पणी में लिखा है कि उपरोक्त विशेषताएं जिन्हें स्टालिन ने दुर्भाग्य से आधुनिक राष्ट्र अथवा जाति (रामविलास जी  के शब्दों में ‘महाजाति’ की विशेषताएं बताया है, वे सही अर्थों में ‘जातीयताओं’ (लघुजातियों) पर ही लागू होतीं हैं. इसके चलते खुद स्टालिन के विवेचन में तमाम तरह की अवधारणात्मक दिक्कतें पैदा हुई हैं. रामविलास जी काफी पहले यानी ‘भाषा और समाज’ नामक पुस्तक में १९६१ में प्रकारांतर से यही  कह रहे हैं, अंतर यह है कि वे  यह मानते हैं कि  सामान्य भाषा, प्रदेश, आर्थिक जीवन और संस्कृति जातीय निर्माण की हर अवस्था में पाए जाने वाले उपकरण हैं लेकिन हर अवस्था में इनके गुण और परिमाण में अंतर होता है.  स्टालिन के यहाँ तो जातीय निर्माण की अनेक काल-क्रमिक अवस्थाएं हैं ही नहीं. जन, लघुजाति और महाजाति, ये तीनों ही संज्ञाएँ मेरी समझ में आधुनिक राष्ट्र-राज्य से अलग हैं. राष्ट्र राज्यों का गठन पश्चिमी योरप में पूंजी के युग की परिघटना है. उदीयमान पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में  राष्ट्रीय आन्दोलन के ज़रिए संपन्न की गई पूंजीवादी क्रांतियों ने सामंतवाद को समाप्त कर राष्ट्र राज्यों की स्थापना की. यह राष्ट्रीय आन्दोलन पूंजीपति वर्ग द्वारा क्षेत्रीय स्तर पर सुपरिभाषित घरेलू बाज़ार और राजसत्ता पर कब्ज़े की मांग से पैदा हुआ था.  मुश्किल यह हुई  है कि स्टालिन ने इस आधुनिक पूंजीवादी राष्ट्र की विशेषताएं वे बताई जो उसके अस्तित्व में आने से पहले ही दुनिया भर की तमाम जातीयताओं में विद्यमान थीं. आधुनिक राष्ट्र और जातीयताओं के बीच जो अंतर स्टालिन से पहले के मार्क्सवादी चिंतन में (एंगेल्स, मार्क्स, लेनिन के यहाँ) कमोबेश स्पष्ट था, भले ही अंग्रेज़ी शब्द  ‘नेशन’ कई बार जातीयता (नेशनैलटी) के अर्थ में प्रयुक्त होता हो, स्टालिन के विवेचन में गड्ड- मड्ड हो जाता है. जातीयताओं और राष्ट्र में अंतर यह नहीं है कि जातीयताएं सिर्फ  प्राक-पूंजीवादी, प्राक-आधुनिक सामाजिक गठन का रूप हैं और राष्ट्र आधुनिक.
राष्ट्र-राज्य  निश्चय ही आधुनिक और पूंजीवादी परिघटना है, लेकिन जातीयताएं आधुनिक और पूंजीवादी दौर में भी परिवर्तित रूप में बनी रहती हैं. कुछ जातियां अपने पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में आधुनिक राष्ट्र राज्यों में तब्दील हो जाती हैं . दूसरी ओर, बहुजातीय राष्ट्र राज्य, चाहे वे बुर्जुआ क्रान्ति के ज़रिए योरपीय देशों (पूर्वी ही नहीं, पश्चिमी भी) में अस्तित्व में आए हों  अथवा तीसरी दुनिया के भारत जैसे देश जहां साम्राज्यवाद-विरोधी लड़ाई के ज़रिए वे अस्तित्व में आए हों, सभी जगह उनके भीतर राष्ट्रीय स्तर के पूंजीपति वर्ग के उदय हो जाने के बाद भी जातीयताएं आधुनिक रूप ग्रहण करके बनी रही हैं. बावजूद इसके कि उनमें से हरेक का स्वतन्त्र, संप्रभु राज्य नहीं होता. पिछले कई दशकों का दुनिया का इतिहास यह दिखाता है कि जब ऐसे बहुजातीय राष्ट्र-राज्य विघटित होते हैं, तो उनमें निहित अलग अलग जातीयताएं जिनमें किसी भी हद तक आधुनिक पूंजीवादी विकास हो चुका होता है, वे अलग अलग स्वतन्त्र संप्रभु राष्ट्र-राज्यों के रूप में तब्दील हो जाती हैं. बुर्जुआ राष्ट्र-राज्यों के ही साथ ऐसा होता हो सिर्फ ऐसा नहीं,  बल्कि सोवियत संघ जैसे समाजवादी गणराज्य के विघटन के बाद भी ऐसा ही हुआ है.
रामविलास जी के  हिन्दी जाति के निर्माण संबंधी चिंतन का सैद्धांतिक महत्त्व भारत के बहुजातीय संप्रभु राष्ट्र राज्य बनने तक जातीय विकास की प्रक्रियाओं को समझने से ताल्लुक  रखता है. लेकिन उसके बाद के दौर की जो जटिलताएं हैं, उन्हें समझने और हल करने के लिए रामविलास जी के काम को आगे बढाने की ज़रुरत है, सिर्फ उनकी स्थापनाओं के मूल्यांकन या पुनर्मूल्यांकन से बात बनेगी नहीं. जब कोई काम आगे बढ़ता है तो पीछे हुए कामों में खुद -ब-खुद कई तरह की तरमीम होती चलती है.
जब वे कहते हैं कि  महाजाति का  निर्माण एक सुदीर्घ  प्रक्रिया है, तो ज़ाहिर है कि वे सामंती युग में ही लघुजातियों से महाजातियों की तरफ लम्बे संक्रमण की बात कर रहे हैं जो सामंती युग समाप्त होने के पहले ही शुरू होता है और बाद भी जारी रहता है. रामविलास शर्मा के सामने यहीं वह समस्या खड़ी होती है जो स्टालिन के विवेचन ने पैदा की है और वह है; ‘नेशनैलिटी’ और ‘नेशन’ में भेद को धूमिल करने की समस्या. चूँकि स्टालिन के लिए जाति और राष्ट्र प्रायः एक हैं, अतः वे जातीय गठन को पूंजीवाद और आधुनिकता से अनिवार्यतः जोड़ देते हैं. जबकि  सामान्य भाषा, आर्थिक जीवन, प्रदेश और संस्कृति की विशेषता जो भारत के अनेक समुदायों में पंद्रहवीं शताब्दी में ही दिखाई देती हैं, उन्हें जाति न मानने का कोई कारण नहीं दिखता, लेकिन समस्या यह उत्पन्न होती है कि इसे पूंजी के युग की घटना या आधुनिक परिघटना कैसे माना जाए. रामविलास जी हिन्दी जाति के निर्माण को सौदागरी पूंजी के विकास से उचित ही जोड़ते हैं, लेकिन उनका आग्रह यह हो जाता है कि सौदागरी पूंजी को पूंजीवाद की ही एक अवस्था माना जाए. इससे हिन्दी या अन्य भारतीय जातियों के उदय की यह शर्त पूरी हो जाती है जो स्टालिन के विवेचन में विद्यमान है .
रामविलास जी महाजाति शब्द  को ‘नेशन’ के अर्थ में प्रयुक्त करते हैं, उन्हीं विशेषताओं को ध्यान में रखकर जिन्हें स्टालिन ने गिनाया है, लेकिन अपने भारतीय अनुभव से जानते हैं कि इसके गठन का आरम्भ भारत के सामंत काल में शुरू हो गया था.  इस अंतर्विरोध को हल करने के क्रम में वे  हिन्दी और अन्य भारतीय महाजातियों  के निर्माण को आधुनिक काल कहते हैं. दरअसल ‘आरंभिक आधुनिकता’ को आजकल उत्तर सामंत काल और व्यापारिक पूंजी से जोड़ कर देखने का खासा अकादमिक रिवाज़ है. इस मामले में यदि रामविलास जी हिन्दी जाति के निर्माण काल को आधुनिक बताते हैं, तो एक तरह से वे बाद के ‘आरंभिक आधुनिकता’ के शास्त्रकारों को पूर्वाषित करते हैं. आधुनिकता और पूंजीवाद को सहवर्ती मानने की धारणा चलती रही है. लेकिन आधुनिकता ठीक-ठीक एक मूल्य और उन मूल्यों को उत्पन्न करने वाली भौतिक परिस्थितियों के रूप में कई जगह औद्योगिक  पूंजीवाद से पहले ही  अस्तित्व में आ गई हो, तो यह कोई अनहोनी बात नहीं है. आज के ‘आरंभिक आधुनिकता’ के व्याख्याता मोटे तौर पर सन १५०० से लेकर सन १८०० तक के काल को आरंभिक आधुनिकता का काल बताते हुए लगभग उन सारे ही तर्कों का सहारा लेते हैं जिन्हें रामविलास शर्मा उनसे दशकों पहले प्रस्तुत करते हैं. ये अध्येता भारत के सम्बन्ध में मुग़ल काल को आरंभिक आधुनिकता का काल  बताते हैं जो रामविलास जी के विवेचन का स्वाभाविक निष्कर्ष है. यह रामविलास जी की  जातीय गठन को समझने के लिहाज से एक महत्वपूर्ण मौलिक सैद्धांतिक स्थापना है जिसे विश्व अकादमी ने अन्यान्य स्रोतों से पाया और बहुत बाद में अपने विमर्शों में शामिल किया.
जहां तक जातीय गठन के पूंजीवाद के साथ सम्बन्ध का सवाल है, रामविलास शर्मा इस ‘आरंभिक आधुनिक काल’ को एक साथ सामंती और पूंजीवादी, दोनों मानते प्रतीत होते हैं. सामंती खोल में व्यापारिक और सूदखोर पूंजी का विकास मार्क्स के विवेचन में औद्योगिक पूंजीवाद की पूर्वपीठिका है या उसके लिए आवश्यक परिस्थितियों में से एक है. लेकिन मार्क्स इस व्यापारिक पूंजी के दौर को पूंजीवाद की अवस्था नहीं मानते, क्योंकि यह सामंती दौर में अंतर्भूत है. रामविलास शर्मा व्यापारिक पूंजी के दौर को पूंजीवाद की ही अवस्था मानते है और उनकी योजना के अनुसार इस दौर में सामंतवाद और पूंजीवाद एक तरह से ओवरलैप करते हैं. फिर भी नाम ही देना हो, तो रामविलास जी इस दौर को पूंजीवादी दौर कहना तय करते हैं. मार्क्स यदि इसे सामंतवाद  का दौर  (औद्योगिक पूंजीवाद से पहले सौदागरी पूंजी के संचय का दौर) ही मानते हैं, तो इसलिए कि वे उत्पादन-पद्धति को किसी ऐतिहासिक चरण की पहचान का केन्द्रीय तत्व मानते हैं, जबकि रामविलास जी इस प्रसंग में विनिमय पर अधिक जोर देते हैं. मैं उनकी इस स्थापना के सैद्धांतिक मूल्य पर कोई टिप्पणी कर सकने में सक्षम नहीं हूँ.
अगर महाजातियों के निर्माण की रामविलास जी की धारणा को हम गंभीरता से पढ़ें तो उनके लिए महाजाति के निर्माण का एक चरण सामंती काल में व्यापारिक पूंजी के माध्यम से आकार ग्रहण करता है, जबकि दूसरा चरण औद्योगिक पूंजी के दौर में पूंजीपति वर्ग की मुख्य भूमिका के साथ आकार ग्रहण करता है. इस दौर में आकर वह राष्ट्र या नेशन का रूप अख्तियार करती है. मेरे पढने के मुताबिक़, उनकी महाजाति की धारणा में ‘नेशनैलिटी’ और ‘नेशन’ एक continuum की तरह आते हैं जबकि स्टालिन के यहाँ ये पद लगभग समानार्थी लगते हैं.  रामविलास जी स्टालिन से  अलग इस बात में भी हैं कि  वे जातीय विकास को सिर्फ औद्योगिक पूंजीवाद की परिघटना नहीं मानते, बल्कि उसकी दीर्घ प्रक्रिया को रेखांकित करते हैं जो उनकी धारणा के अनुसार सामंती और व्यापारिक पूंजीवाद के ओवरलैप के दौर से लेकर औद्योगिक और महाजनी पूंजी के दौर तक चलती रहती है और  समाजवादी दौर तक भी. वे स्टालिन से इस मामले में भी अलग हैं कि वे मानते हैं कि जातीय गठन की प्रक्रिया में, सभी परिस्थितियों में आर्थिक जीवन की नियामक भूमिका रहे, यह ज़रूरी नहीं.
बंगाली जातीयता के निर्माण के सन्दर्भ में पार्थ चटर्जी लक्ष्य करते हैं कि आठवीं सदी से पूर्वी सागरों पर अरब व्यापारियों का कब्ज़ा हो गया और बंगाल का भारत के  समुद्री व्यापार में हिस्सा गिरता गया. राजसत्ता और समाज पर जो दबदबा व्यापारियों और बैंकरों का पांचवीं-छठी शताब्दी में था, वह अब न रह गया. लेकिन  कई शताब्दियों तक व्यापारियों की भूमिका काफी घट जाने के बावजूद, सामंतों की  विघटनकारी खींचतान आदि के होते हुए भी स्वतन्त्र राजवंशों के अधीन बंगाली राष्ट्रीयता का निर्माण जारी रहा. बंगाली सांस्कृतिक समुदाय का राजनीतिक एकीकरण पाल और सेन वंशों से लेकर स्वतंत्र सुल्तानों  के अधीन जारी रहा. ज़ाहिर है कि बंगाली राष्ट्रीयता के गठन की इन परिस्थितियों में आर्थिक जीवन नियामक नहीं रहा.  यह उदाहरण रामविलास जी की उस धारणा की भी तस्दीक करता  है जो उनके जातीयता संबंधी चिंतन को स्टालिन से सर्वाधिक अलग करता है, वह यह कि जाति/महाजाति के गठन में सामंती राजसत्ता भी सहायता करती है. यह अलग बात है कि पार्थ चटर्जी जहां महज ‘जातीयता’  या ‘नैशनैलिटी’ के सन्दर्भ में विचार करते हैं, वहीं रामविलास शर्मा महाजाति के गठन में Nationality- Nation Continuum का सन्दर्भ लेते हैं. इसीलिए पार्थ चटर्जी के विवेचन में बांग्ला जाति या लघुजाति के गठन में सौदागरी पूंजी के अभाव में भी सामंती राजवंश प्रमुख भूमिका निभाते हैं, जबकि रामविलास जी के विवेचन में सामंती राजसत्ता महाजातीय निर्माण में सहायता करती है, ख़ासकर एक सुकेंद्रित और निरंकुश राजसत्ता व्यापार के प्रसार से महाजाति के गठन और फलतः जातीय भाषा के गठन और प्रसार में सहायता करती है. रामविलास जी के सामने तुर्क, पठान और खासकर मुग़ल राजसत्ता का उदाहरण है. ‘भाषा और समाज’ लिखे जाने तक और उसके काफी बाद तक स्टालिन के प्रभाव में बहुतेरे भारतीय मार्क्सवादी चिन्तक यह मानते रहे कि औपनिवेशिक युग से पहले भारत में राष्ट्रीयताओं के अस्तित्व की बात करना ठीक नहीं है. हालांकि ऐसा नहीं है कि सभी मार्क्सवादी चिंतकों की धारणा यही रही हो. उदाहरण के लिए ई. एम. एस नम्बूदिरीपाद ने १९५२ में ही ‘केरल’ जाति का निर्माण काल चौदहवीं सदी से बताया था.
हम देखते हैं कि गुप्त साम्राज्य के पराभव के बाद अनेक ऐसे राजवंशों की स्थापना होती है जिनका राजनीतिक और सैनिक सत्ता संबंधी दृष्टिकोण शायद ही कभी उनकी  सीमित क्षेत्रीय सरहदों से परे जा पाता हो. आठवीं शती से भारतीय कला की स्थानीय या क्षेत्रीय शाखाएँ विकसित होने लगती हैं. बारहवीं सदी से नागरी, बांग्ला, गुजराती आदि  एक दूसरे से अलग पहचानी जा सकने वाली  लिपियों के आरंभिक रूप मिलने लगते हैं. पद्रहवीं शती तक उत्तर और पश्चिम भारत की सभी आधुनिक भाषाओं की लिपियों का पूर्ण विकास हो जाता है. चौदहवीं  सदी तक सारी ही आधुनिक भारतीय भाषाएँ पूरी तरह बन चुकी हैं और सभी में रचनात्मक  साहित्य का निर्माण शुरू हो जाता है. इस समय तक अलग अलग क्षेत्रों के साहित्य और कलाओं की  विशिष्ट सौन्दर्यशास्त्रीय परम्पराएं मिलने लगती हैं. चौदहवीं सदी से ही भारत में सांस्कृतिक अभिव्यक्तियाँ प्रमुखतः क्षेत्रीय भाषाओं और साहित्यों के इर्द-गिर्द होती हैं न कि संस्कृत या फारसी के इर्द-गिर्द, कुछ अपवादों को छोड़कर.  मोटे तौर पर आठवीं से लेकर चौदहवीं शती के बीच भारत में सामंती युग के दौरान लघुजातियों का निर्माण होता है और चौदहवीं तथा पंद्रहवीं शताब्दी से महाजातियों  के निर्माण की और संक्रमण का दौर  शुरू  हो जाता है.
यदि रामविलास जी की भारत में जाति गठन संबंधी धारणाओं की योजना में थोड़ी तबदीली की जुर्रत की जाए तो, यह योजना इस प्रकार बन सकती है-
१. आठवीं से चौदहवीं सदी तक मूलतः सामंती युग में लघु जातियों का निर्माण.
२. चौदहवीं-पद्रहवीं सदी से अठारहवीं सदी तक महाजातियों के बनने का लंबा संक्रमण काल जिसमें मुख्यतः सौदागरी पूंजी, कारीगरों की भूमिका और सहायक रूप में सुगठित केन्द्रीय सामंती सत्ता की भूमिका भी रहती है. इसे  आरंभिक आधुनिकता का काल कहा जा सकता है. इसमें जातीयता की विशेषताएं भी रहती हैं और आधुनिक राष्ट्र के बीज भी होते हैं. हिन्दी जाति के सन्दर्भ में इसे रामविलास जी के ही शब्दों में जनजागरण का काल कह सकते हैं. यहाँ हम इस बहस में नहीं उलझते की इसे भी पूंजीवाद का या सामंती और पूंजीवादी दौर के ओवरलैप का काल कहें या न कहें.
३. उन्नीसवीं सदी से आरम्भ होने वाला महाजाति के निर्माण का अगला चरण जिसमें मुख्य भूमिका भारत के सन्दर्भ में अखिल भारतीय पूंजीपति वर्ग की है, जो सामंती अवशेषों और विदेशी पूंजी पर निर्भरता के बावजूद औपनिवेशिक शासन के विरोध और मोल-तोल की जटिल प्रक्रिया से गुज़रते हुए  अनेक जातियों को एक आधुनिक बुर्जुआ राष्ट्र राज्य में एकीकृत करता है. यहाँ यह भी ध्यान देने की ज़रुरत है कि जहां एक भौगोलिक संस्कृति इकाई के बतौर भारतवर्ष की कल्पना समाज के ऊपरी वर्गों में उस दौर से मिलती है जब संस्कृत संपर्क भाषा थी, या आगे चलकर खुसरो आदि ने ‘हिन्दुस्तान’ की महिमा के गीत गाए, वहीं यह उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही संभव हुआ कि भारतेंदु और द्विवेदी युग के तमाम लेखकों ने बड़े पैमाने पर भारत या हिन्दुस्तान के लिए कौम, वतन, राष्ट्र, जाति, नेशन आदि शब्दों का इस्तेमाल किया. यह महाजाति के आधुनिक पूंजीवादी राष्ट्र-राज्य का स्वरूप अख्तियार करने की संभावना का का सूचक  है. अजीमुल्ला खान ने १८५७ में जो राष्ट्र-गीत लिखा था, उसमें भी यही बात है-
हम हैं मालिक इसके हिन्दोस्तां हमारा
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी न्यारा’

इकबाल जब लिखते हैं कि- ‘हिन्दी हैं हम वतन हैं हिन्दोस्तां हमारा’ तो इन पंक्तियों में महाजातियों के आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनने की ऐतिहासिक आकांक्षा व्यक्त होती है जो कालिदास या खुसरो के भारत वर्णन से बिलकुल अलग चीज़ है.लेकिन इस औपनिवेशिक दौर में  पूंजीपति वर्ग के नेतृत्व में चले राष्ट्रीय आन्दोलन की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि वह संप्रदाय के आधार पर बंट गया और विभिन्न जातियों का जो एकीकरण जनता के स्तर पर स्वाधीनता के लिए जन-आन्दोलनों के ज़रिए हो रहा था, उन जातियों में भी सम्प्रदाय के आधार पर बंटवारा हो गया और अंततः एक नहीं, बल्कि दो बहुजातीय राष्ट्र-राज्य बन गए. यह कमोबेश वयस्क किन्तु बाद को विकलांग  आधुनिकता का काल कहा जा सकता है. रामविलास जी के शब्दों में जिसे नवजागरण कहा जाता है , वह उपरोक्त कमजोरियों के चलते जातीय जीवन की विशेषता बना नहीं रह सका. असल में यह जो तीसरा दौर है, जातीय गठन के लिहाज से सबसे जटिल दौर है.


इस दौर की जटिलता पर आने से पहले हम रामविलास शर्मा के दो व्यावहारिक  प्रस्तावों पर चंद बातें कहना चाहते हैं. पहली बात यह है कि उनकी ये बातें प्रस्ताव मात्र हैं, सैद्धांतिक प्रस्थापनाएँ नहीं हैं. एक बात यह है कि उन्होंने लिखा है कि यदि हिन्दी-उर्दू दो भाषाएँ नहीं हैं, तो क्या ही  अच्छा होता कि दोनों की एक ही लिपि यानी देवनागरी ही होती. आज जितने बड़े पैमाने पर उर्दू साहित्य की कृतियाँ देवनागरी में लिप्यन्तरित की जा रही हैं, उतने बड़े पैमाने पर किसी अन्य भाषा से अनुवाद नहीं हो रहे हैं. कारण साफ़ है. लिप्यान्तरण सहज है, भाषांतरण मुश्किल. अपने समय में रामविलास शर्मा को प्रगतिशील आन्दोलन में इस बात के लिए चाहे जितना लड़ना पड़ा  हो कि हिन्दी-उर्दू दो नहीं एक ही भाषा हैं, लेकिन बाद को  शम्सुर्रहमान  फारुकी से लेकर क्रिस्टोफर किंग तक सब यह मानते हैं कि औपनिवेशिक हस्तक्षेप से पहले ये दो भाषाएँ नहीं थीं, कि यह एक ही भाषा है और औपनिवेशिक दौर से पहले उर्दू  नाम की कोई भाषा नहीं थी. ‘ज़बान-ए-उर्दू-ए-मोअल्ला’ के कुपाठ से उर्दू संभवतः एक अलग भाषा मान ली गई. वैसे भी भाषा की पहचान क्रियापदों से होती है, जिनके क्रियापद एक हैं, वे एक ही भाषा हैं. लेकिन उनकी दो और बातों पर गौर करना चाहिए- एक यह कि हिन्दी, हिन्दवी या रेखता नाम से जो भाषा थी, उसकी लिपियाँ दो थीं. दरअसल दो लिपियाँ होते हुए भी जातीय विकास में कोई कठिनाई नहीं आई. मुल्ला दाउद, खुसरो या जायसी की प्राचीन पांडुलिपियाँ चाहे अरबी-फारसी लिपि में मिलें या देवनागरी में, उनकी भाषा जातीय भाषा ही है, लिहाजा लिपि से कोई फर्क नहीं पड़ता. रामविलास जी खुद भी यही कहते हैं. इसलिए लिपि बदलना कोई अनिवार्य चीज़ नहीं है, जातीय एकता के लिए. रामविलास जी खुद लिखते हैं, “लिपि भी संस्कृति का अंग है.” ऐसे में उनके प्रस्ताव को अरबी-फारसी लिपि को छोड़ देने के अर्थ में नहीं ग्रहण करना चाहिए, बल्कि बेहतर तो ये हो कि नागरी जाननेवालों, ख़ास कर बौद्धिकों  को प्रयास कर के अरबी-फारसी लिपि को सीख लेना चाहिए. यह जातीय एकता के लिए शुभ ही होगा. इसके अलावा यदि औपनिवेशिक हस्तक्षेप से ही सही हिन्दी- उर्दू दो भाषाएँ बन गई हैं, उनकी अलग साहित्यिक परम्पराएं दो सौ सालों में निर्मित हो गईं हैं, तो बगैर एक को दूसरे के मातहत बनाए साहित्य-संस्कृति के स्तर पर दोनों को नज़दीक लाने के  शैक्षणिक, प्रशासनिक और वैदुषिक प्रयास बढाने की दिशा में हमें काम करना चाहिए. आखीर सोवियत संघ में तो ऐसी लिपियों को भी पुनर्जीवित किया गया, जो मृतप्राय थी.


रामविलास जी का एक सुझाव यह भी था कि हिन्दीभाषी सभी प्रदेशों का एक प्रदेश बनना चाहिए. यह भी सुझाव या प्रस्ताव ही है, कोई सैद्धांतिक प्रस्थापना नहीं. वास्तव में आज के दौर में जातीय निर्माण के लिए आर्थिक जीवन ही निर्णायक तत्व बना हुआ है. उपनिवेश रहे देश आज़ाद तो हुए लेकिन विश्व-पूंजीवाद के साथ उनके शासक तबकों का निर्भरता का सम्बन्ध बढ़ता ही चला गया है. उपनिवेशवादी और साम्राज्यवाद के पुराने रूप में  एक विकसित राष्ट्र  दूसरे को प्रत्यक्षतः और राजनीतिक तौर पर गुलाम बना लेता था. तब अनेक उत्पीडित जातियां ऐसी साम्राज्यवादी शक्तियों  के खिलाफ संघर्ष में एकताबद्ध होती थीं. आज नव-साम्राज्यवाद के दौर में राष्ट्रीय स्तर का पूंजीपति वर्ग खुद दलाल के रूप में उनका हित-पोषण करता है. ऐसे में किसी बाहरी शक्ति द्वारा एक ही भौगोलिक-सांस्कृतिक क्षेत्र की तमाम जातियों का एक समान प्रत्यक्ष  शोषण नहीं होता, बल्कि इसके रूप बहुत अलग हो गए हैं. राष्ट्रीय स्तर के पूंजीपति वर्ग अपने-अपने देशों में साम्राज्यवादी देशों की प्राथमिकता के अनुकूल पूंजीवादी विकास करते हैं जो बहुजातीय राष्ट्र में कभी एक जाति की कीमत पर दूसरी जाति का विकास करने के रूप में प्रकट होता है, कभी आतंरिक उपनिवेशन के रूप में. कभी एक ही भाषिक प्रदेश के भीतर असमतल विकास के कारण विकासहीनता के शिकार लोगों का अलगाव अपना अलग प्रदेश माँगने के आन्दोलनों में प्रकट होता है, भले ही जातीय दृष्टि  से वे एक हों. यह सब कुछ विश्व पूंजी द्वारा सतत निर्मित केन्द्रों और परिधियों के बीच संघर्ष के राष्ट्र राज्य के दायरे में प्रतिफलित रूप हैं. ये केंद्र और परिधियाँ विकसित और अविकसित या विकासशील देशों के बीच, किसी भी राष्ट्र  के भीतर एक जाति  और दूसरी जाति  के बीच, किसी भी जाति  के एक क्षेत्र और दूसरे क्षेत्र के बीच, गाँव और शहर के बीच- यानी अनेक स्तरों पर दिखाई देती हैं.
ऐसे में जातीय समस्या और विकट हुई है. अलग राज्य के कई आन्दोलनों में वास्तविक वंचना के कारण ही आम लोग वहां के छोटे  पूंजीपति, स्थानीय व्यापारी  और मध्य वर्ग के पीछे गोलबंद होते हैं जैसे कि उत्तराखंड और झारखंड आन्दोलनों में हुआ. (झारखंड आन्दोलन न सिर्फ सबसे पुराना है, बल्कि उसका जातीय पक्ष भी मज़बूत था. यह आन्दोलन मूलतः आदिवासियों का था जिनकी अस्मिता जातीय गठन के सभी तत्वों को ध्यान में रखते हुए हिन्दी, बाँग्ला और उड़िया जातियों से निश्चय ही अलग है. आज का झारखंड प्रदेश सिर्फ बिहार से अलग हुए क्षेत्र से निर्मित है, जबकि झारखंडी जन के निवास-क्षेत्र का अच्छा-खासा हिस्सा अभी भी बंगाल, उड़ीसा आदि  प्रदेशों  में पड़ता है.) ऐसे आन्दोलनों को लेकर मार्क्सवादियों का दृष्टिकोण सकारात्मक होना चाहिए.  लेकिन जहां ऐसा नहीं है और शासक जमात के कुछ हिस्से सिर्फ किसी उप-राष्ट्रीयता को आधार बनाकर सत्ता में अधिक हिस्से के लिए अलग प्रांत की मांग करते हैं, वहां अक्सर ही उन्हें जन समर्थन  नहीं मिलता जैसे कि हरित प्रदेश या पूर्वांचल या भोजपुरी प्रदेश की मांग. इन फर्जी आन्दोलनों के प्रति दृष्टिकोण अलग होना चाहिए.  इस दौर  में जिस हद तक वर्ग संघर्ष तेज़ होगा, जिस हद तक साम्राज्यवाद-प्रेरित विकास के माडल के खिलाफ जन-गोलबंदी होगी, उसी हद तक जातीय समस्या  का भी निदान होता चलेगा. एक जाति का एक राज्य एक आदर्श है, यूटोपिया है, स्वप्न है जो रामविलास जी ने देखा था. लेकिन किसी भी स्वप्न को वास्तविकता में तब्दील करने के लिए वास्तविकता से ही शुरू करना होगा.
आज यह बात स्पष्ट है कि समाजवादी क्रान्ति के प्रथम प्रयोग में आरम्भ में सोवियत संघ में जातीय समस्या को जिस उदात्त, जनवादी स्तर पर हल करने की कोशिश की गई, जहां सभी जातियों को आत्मनिर्णय का अधिकार संविधान-प्रदत्त था, वहां भी आर्थिक विकास की असमानता और किसी हद तक स्टालिन के बाद रूसी जाति के राजनीतिक वर्चस्व के कारण जातीय असंतोष अच्छे-खासे स्तर तक पहुंचा हुआ था और सोवियत विघटन के अनेक कारकों  में से एक कारक  वह भी अवश्य बना. आज पड़ोसी देश नेपाल में जातीय आधार पर प्रान्तों के गठन  के वहां के माओवादियों के प्रस्ताव पर राजनीतिक सहमति न बन पाने के चलते संविधान-निर्माण का काम बाधित पड़ा  हुआ है. मुश्किल यह भी है कि इस सवाल पर नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) भी माओवादियों से सहमत नहीं है. भारत में भी अलग राज्य के लिए या उप-जाति के आधार पर किसी प्रांत के भीतर  स्वायत्तशासी क्षेत्र बनाने के आन्दोलनों पर सभी कम्युनिस्ट दल एकमत नहीं होते. इन कुछ उदाहरणों से यह समझा जा सकता है कि अभी भी जातीय गठन का मुद्दा  खुद कम्युनिस्ट आन्दोलन में सैद्धान्तिक और व्यावहारिक स्तर पर समृद्ध किए जाने की मांग करता है.

 Pranay Krishna, Photo By Vijay Kumarप्रणय कृष्‍ण। इलाहाबाद युनिवर्सिटी और जेएनयू से अध्‍ययन। प्रखर हिंदी आलोचक। जन संस्‍कृति मंच के महासचिव।  देवीशंकर अवस्‍थी सम्‍मान  से सम्मानित ।

साभार- कथा-17 

प्रगतिशील आंदोलन के ७५ साल: प्रणय कृष्ण

By प्रणय कृष्ण

स्व.सुरेंद्र चौधरी ने लिखा था,” स्वतंत्रता  और  मुक्ति की इच्छा की जो  लड़ाई सदी भर से चली आ रही थी, उसका एक सुफल भारतीय मानस को यह प्राप्त हुआ था कि उसने अपनी अजेय शक्ति को पहचानने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ाया  था. किसान-मज़दूर और मध्यवर्ग  का विशाल मोर्चा  तैयार हो रहा था……… प्रगतिशील लेखक संघ का विशाल राष्ट्रीय मोर्चा उसी का एक नाभिक था.  ऐसा विशाल मोर्चा सन 1946 के बाद फिर कभी न बना.”(“स्वाधीनता संग्राम और हिंदी साहित्य”(1994) शीर्षक लेख, इतिहासः संयोग और सार्थकता, पृ 128-132)

courtesy: sahmatThose who attendedthe formation conference of the Progressive Writers’ Association in Lucknow.

courtesy: sahmatThose who attendedthe formation conference of the Progressive Writers’ Association in Lucknow.

आज प्रगतिशील लेखक संघ के 75वे साल में उस परिघटना को याद करना आज की परिस्थिति में वैसे विशाल मोर्चे को तैयार करने के कार्यभार के प्रति फिर से समर्पित होना है. यह तब के मुकाबले आज  और भी मुश्किल कार्यभार है. लेकिन इतिहास जब भी कोई चुनौती फेंकता है, मानवेच्छा स्वभावत: उसे स्वीकार करती है. प्रगतिशील लेखक संघ जिस खमीर से पैदा हुआ था , उसका दायरा देश-काल में उस नाम के संगठन से बहुत बडा था. सज्जाद ज़हीर के1936 में बनाए गए संगठन का मह्त्व यह था कि वह पहला महान प्रयास था जिसने इस पूरे दायरे की रचनात्मक-क्रांतिकारी सम्भावना को चरितार्थ करने का सपना दिखाया और उसे हकीकत में बदलने की पुरज़ोर कोशिश की. आज अगर एकाधिक संगठन (प्रलेस,जलेस,जसम और दूसरे भी कई संगठन ) इस दिशा में सक्रिय हैं तो यह उस स्वप्न की विराटता का ही सबूत है, उसके अपूर्ण कार्यभार  का भी और उसके आत्मसंघर्ष का भी. यों ही नहीं है कि जब साहित्य में आधुनिकतावाद और व्यक्ति-स्वातंत्र्य के दबदबे के दौर में त्रिलोचन, केदार,नागार्जुन जैसे बड़े कवि उपेक्षित और अलक्षित किए गए, तो सत्तर के दशक में नक्सलबाड़ी और निरंकुशता विरोधी आन्दोलनों के उभार ने इन्हें फिर केंद्र में ला बिठाया. उनका केंद्र में आना नए जनांदोलनों की चेतनागत ज़रुरत थी. ‘इप्टा’ के स्वर्णिम युग के बाद जन नाट्य मंच, बादल सरकार के तीसरे थियेटर और बिहार के किसान संघर्षों के इलाकों में युवानीति जैसे समूहों ने जगह खाली न रहने दी. जब फिल्मों में बलराज साहनी , ए.के. हंगल, ख्वाजा अहमद अब्बास की पीढी के बाद कमर्शियल सिनेमा की तूती बोल रही थी, तब १९८० के दशक में अचानक ही निहलानी, बेनेगल से लेकर सईद मिर्ज़ा तक न्यू वेव सिनेमा के उन्नायकों की कतार सामने आ गयी. यदि आज चित्रकला की दुनिया के चरम व्यावसायिकता के दौर में हमारे कुछ साथी चित्त प्रसाद, सोमनाथ होड़ और जैन-उल-आबेदीन की विरासत की नए सिरे से आवाज़ दे रहे हैं , तो यह अकारण नहीं है.

पाकिस्तान में तो न केवल कम्युनिस्ट पार्टियां प्रतिबंधित हुईं , बल्कि तरक्कीपसंद तहरीक का हर तरीके से दमन किया गया. बावजूद इसके फैज़ और जालिब जैसे शायर जनता की अंतरात्मा की आवाज़ बन गए. अदब ने वहां वो किया , जो राजनीति नहीं कर सकी. इस्लाम की रामनामी ओढ़ तानाशाह जब जनता को गुमराह कर रहे थे, तो जनता को सजग करने वाले ये कवि ही थे-

ख़तरा है जरदारों को
गिरती हुई दीवारों को
सदियों के बीमारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं

सारी जमीं को घेरे हुए हैं आख़िर चंद घराने क्यों

नाम नबी का लेने वाले उल्फ़त से बेगाने क्यों

ख़तरा है खूंखारों को
रंग बिरंगी कारों को
अमरीका के प्यारों को
ख़तरे में इस्लाम नहीं
(हबीब जालिब )

कहने का मतलब यह कि प्रगतिशील आन्दोलन महज इतिहास नहीं , बल्कि एक जीती-जागती परम्परा है जिसकी ज़रुरत आज के हमारे समाज को और भी ज़्यादा है.

सच कहा जाए तो प्रगतिशील लेखक संघ संगठन से ज़्यादा आन्दोलन था. उसने सामाजिक यथार्थ, इतिहास-दृष्टि और मेहनतकश समुदाय के नेतृत्व में मानव  मुक्ति की विचारधारा को  पूरे उपहादीप के साँस्कृतिक परिवेश का अपरिहार्य और जीवंत अंग बना दिया. देश बंटे, पार्टिया बंटी, लेकिन  यह साँस्कृतिक समझ और उसकी क्रियागत परिणति नाम-रूप बदल-बदल कर अपने वजूद का प्रमाण देती रही. जनता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर  लडने वाले कलाकार और लेखक, जनांदोलनो से अपने व्यक्तित्व और कृतित्व को समृद्ध करनेवाले बौद्दिक और यहाँ तक कि जेल जाने से लेकर लडते हुए शहीद हो जानेवाले संस्कृतिकर्मियो की लम्बी कतार  देश की आज़ादी और तक्सीम के बाद भी यदि जारी रही,तो यह इसी आंदोलन की उपलब्धि है, नाम गिनाने की ज़रूरत नहीं.  सबसे बड़ी बात कि इस आन्दोलन के साथ चलनेवालों नें उच्चतम इंसानी मूल्यों की प्रतिष्ठा की, साधारणता में महानता को लक्षित किया, समकालीन और कालजयी की दूरी पाट दी, सभ्यता के जंगलों की परिक्रमा की, अपने रचनाकार व्यक्तित्व में नए के जन्म की प्रसव पीड़ा भोगी-

” आगे-आगे माँ
पीछे मैं;
उसकी दृढ़ पीठ ज़रा सी झुक
चुन लेती डंठल पल भर रुक
वह जीर्ण-नील-वस्त्रा
है अस्थि-दृढ़ा
गतिमती व्यक्तिमत्ता
कर रहा अध्ययन मैं उसकी मज़बूती का
उसके जीवन से लगे हुए
वर्षा-गर्मी-सर्दी और क्षुधा-तृषा के वर्षों से
मैं पूछ रहा –
टोकरी-विवर में पक्षी-स्वर
कलरव क्यों है
माँ कहती –
‘सूखी टहनी की अग्नि क्षमता
ही गाती है पक्षी स्वर में
वह बंद आग है खुलने को।’
(एक अंतर्कथा-२, मुक्तिबोध)

इस पत्रिका के पिछले दो अंको में हमारे दो सम्मानित अग्रजो ने विस्तार से बताया है कि कैसे इस आंदोलन की व्याप्ति साहित्य, सिनेमा, थियेटर,चित्रकला और यहाँ तक कि आज़ाद उपमहाद्वीप के इतिहास-लेखन, मानविकी, दर्शन और सामाजिक विग्यानो तक रही. उन्हें दोहराने की ज़रुरत नहीं.

आज़ादी के बाद जनवादी क्रान्ति के लक्ष्यों की पेचीदगी से वास्तविक सामना हुआ. प्रगतिशील आन्दोलन ने अपनी सामंतवाद और साम्राज्यवाद-विरोधी भूमिका के निर्वाह में अनेक अंतर्विरोधों का सामना किया, तीसरी दुनिया के देशों ,खासतौर पर एफ्रो-एशियाई देशों के लेखकों के अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे से जुड़ा, प्रतिक्रया की ताकतों से शीत-युद्ध के दौर में जूझा, उप-महाद्वीप की जनवादी सांस्कृतिक परम्परा का नव-संधान किया,भारतीयता के साम्राज्यवादी-औपनिवेशिक भाष्य पर करारा पलट-वार किया (याद करें रामविलास शर्मा का कृतिव).

किन्तु शीत-युद्ध के बाद की स्थितियां काफी बदली हुई हैं. दुनिया का शक्ति-संतुलन बदला हुआ है. नई साम्राज्यवादी विश्व-व्यवस्था ने विकल्पहीनता के मिथक को गढा, लेकिन उसे तत्काल ही लैटिन अमरीकी मुल्कों से चुनौती मिली. विश्व-पूंजी के मुनाफे दी दर घटते जाने से वह और खूंखार होकर अल्पविकसित और विकास-शील देशों की गरीब जनता पर टूट पडी है. इन देशों के हुक्मरानों ने कारपोरेट हितों में जनता की एकता को तोड़ने के हज़ार हथकंडे अपना लिए हैं. पस्तहिम्मत लोगों की नयी सोच है-‘ इफ यू कांट बीट देम, ज्वायन देम’. लेकिन फिर भी हम भारत में ही देख सकते हैं कि सैकड़ों छोटे-बड़े आन्दोलन फूट पड़े हैं. आदिवासी और किसान बगैर किसी संगठित बैनर के भी व्यवस्था से, कारपोरेट लुटेरों से टकरा जा रहे हैं. लड़ने के तरीके सही हों या गलत,जिनकी जान पर बन आई है, वे सही विकल्प और नेतृत्व का इंतज़ार कहाँ तक करें? क्या ज़रूरी नहीं हो गया है कि प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन उस बौद्धिक, सांस्कृतिक आबोहवा का निर्माण करे जिससे इन तमाम आन्दोलनों का दम न घुटे और वे सही विकल्प की दिशा में अग्रसर हो सकें?

हम नहीं कहते कि इस आन्दोलन में अंतर्विरोध नहीं रहे या नहीं हैं, यह भी नहीं कहते कि वह कभी गतिरुद्ध नहीं हुआ. आन्दोलन ने गलतियां भी कीं और उनसे सीखा भी और कई बार सीख के भुला भी दिया. मुगालते भी पाले और झटके भी खाए. संकीर्णता और उदारतावाद के आत्मघाती दौर भी आए. लेकिन कोइ ज़रुरत तो है इतिहास और समाज की जिसके चलते यह आन्दोलन खुद को टिकाए रख सका है. आज के दौर में तमाम सवाल प्रगतिशील आन्दोलन के समक्ष मुंह बाए खड़े हैं. सांस्कृतिक प्रतिरोध् के कौन से रूप हो सकते हैं? संस्कृति या कला के राजनीतिकरण की दिशा क्या हो सकती है? किस तरह की संस्थाएं हम बना सकते हैं? क्या प्रतिरोधी सांस्कृतिक कर्म का जनांदोलनों से रिश्ता वैसा है जैसा कि कभी रहा था या जैसी आज की परिस्थिति की मांग है?  क्या साहित्य, कला, संगीत, सिनेमा, नाटक या फिर बौद्धिक विमर्शों के क्षेत्र में काम कर रहे लोग व्यवस्था-विरोधी आंदोलनों की चेतना को बड़े पैमाने पर अभिव्यक्त कर पा रहे हैं? देश के गरीबों का एक बहुत बड़ा तबका अपनी-अपनी जाति के बड़े लोगों के पीछे अपने सांस्कृतिक-वैचारिक पिछड़ेपन के कारण घिसट रहा है। जाहिर है यह स्थिति गरीबों  को सचेतन वर्ग के रूप में राजनीतिक रूप से गोलबंद होने से रोकती है। क्या हमारा संस्कृतिकर्म उन वैचारिक और सांस्कृतिक जंजीरों से उन्हें मुक्त करने में कोई भूमिका निभा रहा है जिनमें जकड़े हुए वे अपने ही शोषकों को मजबूत करने को अभिशप्त हैं?जिनके पास संघर्षों के अनुभव हैं उनके पास अभिव्यक्ति के साधन नहीं और जिनके पास अभिव्यक्ति के साधन और कौशल है उनके पास उन अनुभवों का आत्मीय परिचय नहीं। क्या औपनिवेशिक समय से ही मौजूद इस खाईं को हमारा साहित्य पाट पाया है?क्या लेखकों के विचारधारात्मक रूपान्तरण, अंतर्वस्तु और रूप के द्वंद्वात्मक संबंध् तथा संप्रेषण की
समस्या को हमने सुलझा लिया है? यह समस्या कहीं और पेचीदा तो नहीं हो चली है ?

क्या साहित्य और संस्कृति के समाजशास्त्र,उसकी राजनीति और सामाजिकता, संस्कृति विमर्श के समकालीन संदर्भ, साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक हमले के दौर में जनभाषाओं की चुनौतियों, साहित्य में वर्ग की अवधरणा को आज के सन्दर्भ में हम परिपक्व सैद्धांतिक स्तर पर सूत्रबद्ध कर पाए हैं? क्या स्त्री , दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक समूहों की अस्मिता के साहित्य के वर्गसार को हम वैचारिक स्तर पर विश्लेषित कर उन्हें गरीब तबकों के संघर्षों की वर्गसचेतन अभिव्यक्ति की दिशा में प्रेरित कर सके हैं? क्या हमने फौरी कार्यभारों के अलावा नागरिक समाज की तमाम संस्थाओं में हस्तक्षेप की किसी दूरगामी योजना के लिए कोइ होमवर्क किया है? इन सवालों पर गंभीरता से सोचें तो कार्यभार हमारे सामने खुद ब खुद स्पष्ट होता चला जाएगा.

यह आन्दोलन इतने उतार -चढ़ाव देख चुका है कि न तो कोई भ्रम इतना बड़ा हो सकता है कि हमें अपनी कमजोरियों से गाफिल कर दे और ना ही कोइ नाउम्मीदी ऐसी हो सकती है जो हमें चुनौतियों से ही विमुख कर दे. बकौल फैज़,

‘यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई’

Pranay Krishna, Photo By Vijay Kumarप्रणय कृष्‍ण। इलाहाबाद युनिवर्सिटी और जेएनयू से अध्‍ययन। प्रखर हिंदी आलोचक। जन संस्‍कृति मंच के महासचिव।  देवीशंकर अवस्‍थी सम्‍मान  से सम्मानित ।

(यह लेख प्रगतिशील आंदोलन के ७५ साल होने पर ‘पब्लिक एजेंडा’ पत्रिका द्वारा चलाई गई लेखमाला के अंतर्गत प्रकाशित हुआ था. लेखमाला में पहला लेख श्री विश्वनाथ त्रिपाठी का, दूसरा श्री मुरली मनोहर प्रसाद सिंह तथा तीसरा श्री प्रणय कृष्ण का लेख था. यह तीसरा लेख यहाँ दिया जा रहा है)

उपनिवेशवाद / साम्राज्यवाद कभी प्रगतिशील नहीं होता (रामविलास शर्मा की याद )- प्रणय कृष्ण

(यह लेख उद्भावना पत्रिका के हाल ही में प्रकाशित रामविलास शर्मा महाविशेषांकसे लिया गया है. प्रकाशित लेख की प्रूफ संबंधी अशुद्धियाँ यहाँ यथासंभव ठीक कर इसे प्रस्तुत किया जा रहा है .)  

BY प्रणय कृष्ण

रामविलास शर्मा के बौद्धिक संघर्ष को महज साहित्य तक सीमित मानकर उसे नहीं समझा जा सकता. उनके काम को भाषा विज्ञान, दर्शन, इतिहास, राजनीतिविज्ञान, अर्थशास्त्र आदि समाजविज्ञानों में बाँट कर देखना-समझना और उससे निष्कर्ष निकालना और भी गलत है. कभी-कभी कुछ अकादमिक विद्वान उनके लिखे-पढ़े को समाजविज्ञान की किसी शाखा की पद्धतियों से बाँध कर उसकी प्रशंसा या निंदा करते हैं. दर-असल उनके लिखे-पढ़े का सम्बन्ध समकालीन समाज-विज्ञानों के अनुभववादी रुझान से कतई नहीं है. उसका सम्बन्ध मार्क्सवाद से ग्रहण की गई उस अध्ययन पद्धति से है जो दृश्यमान को भेदकर वास्तविकता तक पहुँचनेवाली समग्रतावादी पद्धति है. उसमें ‘स्पेश्लाइज़ेशन’ वाला रुझान नहीं है. साम्राज्यवाद-विरोधी मुक्ति-संघर्ष के बौद्धिक-योद्धा के रूप में ही उन्होंने साहित्य से लेकर तमाम क्षेत्रों में अनथक दौड़ लगाई. वे अगर कुछ थे तो भारत के अग्रणी साम्राज्यवाद-विरोधी चिन्तक थे जैसे कि कई अन्य पराधीन रहे देशों के ऐसे ही चिन्तक. फ्रान्ज़ फैनन को आप सांस्कृतिक अध्ययन, जेंडरस्टडीज़, उत्तर-औपनिवेशिक अध्ययन, मनोरोगशास्त्र, सोशल एक्सक्लूज़न, अश्वेत अध्ययन आदि तमाम शाखाओं में पढ़ सकते हैं जिनमें से ज़्यादातर अनुशासन गैर-पारंपरिक हैं, लेकिन अंततः आप उनके साहित्य को उपनिवेशवाद-विरोधी चिंतन की विश्व-धरोहर में ही स्थान देंगे. फैनन से हम कई अर्थों में उनकी तुलना नहीं कर सकते, लेकिन रामविलास शर्मा का लेखन भी उपनिवेशवाद-विरोधी चिंतन की विश्व-धरोहर है. वे तीसरी दुनिया के मुक्ति-संग्रामों के पिछले दौर के तमाम बड़े चिंतकों की तरह ही मार्क्सवाद को पराधीन देशों की मुक्ति का दर्शन मानते थे.

Ram-Vilas-Sharma

बौद्धिक योद्धा की उनकी भंगिमा अकादमिक निस्संगता (और अहम् को भी) चोट पहुंचाने वाली है. डेविड मैकलेनन ने लिखा है, “मार्क्स की मृत्यु के बाद की शताब्दी में समाज-विज्ञानों का जो ज़बरदस्त विकास हुआ है, उसमें इकहरेपन के दो आयाम हैं- लम्बवत (वर्टिकल) अर्थ में वह संकीर्ण ‘विशेषज्ञताओं’ के घेरे में उत्पादित ऐसे विद्वानों का (बौद्धिक) उत्पाद है जो कम से कम के बारे में अधिक से अधिक जानते हैं और क्षैतिज (हारिजान्टल) अर्थ में उसका सम्बन्ध समाज के सतही घटना-प्रपंच से है जो प्रेक्षण और परिमाण के मापन के लिए आसानी से सुलभ हैं.”

ज़ाहिर है कि रामविलास शर्मा का चिंतन इस इकहरेपन के खिलाफ है. वे वस्तुओं की गतिशील अंतर्संबद्धताओं का पता लगाने, उनकी तह तक पहुँचने की कोशिश में इतिहास, दर्शन, समाज, राजनीति, कला-साहित्य और अर्थव्यवस्था का अध्ययन करते हैं, अकादमिक सैर पर निकलने के किसी शौक के चलते नहीं. हर अनुशासन में जाने के पीछे प्रेरणा कहीं भी महज अकादमिक नहीं है. एक ही प्रेरणा है ‘साम्राज्यवाद और सामंतवाद का विरोध’, भारत की आज़ादी के बाद भी औपनिवेशिक अन्यथाकरण को ध्वस्त करते हुए पूरे उप-महाद्वीपीय इतिहास, संस्कृति और जन-जीवन की वास्तविकताओं को वापस पाना, स्वायत्त करना ही उनकी प्रेरणा है, बहुत कुछ एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के उन उपनिवेशवाद-विरोधी चिन्तकों की तरह जिन्होंने वि-उपनिवेशीकरण के दौर में अपने-अपने देशों-महाद्वीपों के बारे में सारे साम्राज्यवादी चिंतन और तर्क-पद्धति को पलटा. गिरिजा कुमार माथुर की काव्य-पंक्तिया हैं –

मेरी छाती पर रखा हुआ साम्राज्यवाद का रक्त-कलश

मेरी धरती पर फैला हैमन्वंतर बनकर मृत्यु-दिवस

इन्हें ही संदर्भित कर अपने बारे में बोलते हुए ११ जनवरी, 1994 को साहित्य अकादमी में रामविलास जी ने कहा, “गिरिजाकुमार ने एक बात कही थी- ‘साम्राज्यवाद का रक्त-कलश’- यह किसी न किसी रूप में मेरे मन में बराबर रहती है.”

इसीलिए उन्होंने साहित्य की प्रगतिशीलता का पैमाना भी ‘सामंतवाद और साम्राज्यवाद के विरोध’ को बनाया. इसी पैमाने पर उन्होंने हिन्दी के आधुनिक साहित्य को कसा और पुराने साहित्य को भी. इसी आधार पर उन्होंने परम्परा का मूल्यांकन किया. जब साम्राज्यवाद के अधीन भारत नहीं था, तब के साहित्य और सांस्कृतिक जागरण को उन्होंने ‘सामंतवाद के विरोध’ के आधार पर जनजागरण कहा और सामंतवाद के साथ साम्राज्यवाद के विरोध पर आधारित जागरण को ‘नवजागरण’ कहा. भाषा- विज्ञान की तरह रुख करने का कारण भी साम्राज्यवाद का विरोध था. रामविलास शर्मा ने खुद ही कहा है, “भाषा -विज्ञान में काम करने की एक प्रेरणा ये थी की पाश्चात्य विद्वान कहते थे की भारत का कोई भी भाषा परिवार भारत का नहीं है… साम्राज्यवाद कहता है की तुम्हारा कोई भाषाई रिक्थ नहीं है. मैं कहता हूँ कि हमारा भाषाई रिक्थ है, हमारे भाषा-परिवारों के आपसी सम्बन्ध समझे बिना तुम यूरोप की भाषाओं का विकास नहीं समझ सकते.”(11 जनवरी, 1994 को साहित्य अकादमी में दिया गया व्याख्यान) दर्शन शास्त्र के अध्ययन में प्रवृत्त होने का कारण भी यही है. रामविलास जी के शब्दों में,” कुछ लोगों ने दर्शनशास्त्र पर लिखना शुरू किया. सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता ने जो भारतीय दर्शन का इतिहास लिखा है, उसके आरम्भ में उन्होंने बताया है, कैसे यूरोप के लोग कहते हैं कि भारत का कोई दर्शन नहीं है. भारत में देवकथाएं हैं, मिथक हैं, काव्य हैं और धर्म तो हैं ही. लेकिन विवेक-सम्पन्न दर्शन भारत में नहीं है. आपके पास कोई भाषाई रिक्थ नहीं है, कोई दार्शनिक रिक्थ नहीं है.” (उपरोक्त भाषण से) भारतीय अर्थशास्त्र, इतिहास और सामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में उन्होंने जो काम किया वह तो उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के औचित्य-स्थापन को ध्वस्त करने के लिए सबसे ज़रूरी था. मानव-मुक्ति, तीसरी दुनिया और भारत की मुक्ति के लिए वे जिस एकमात्र विचारधारा को ज़रूरी मानते थे, वह थी मार्क्सवाद. वे यह देख रहे थे कि साम्राज्यवाद के समर्थक,भारत की गुलामी को औचित्यपूर्ण ठहरानेवाले बहुत से विचारकों को मार्क्स की भारत संबंधी आरंभिक धारणाओं, खुद पूंजीवाद को एक ख़ास ऐतिहासिक मोड़ पर प्रगतिशील मानने की उनकी धारणाओं से बल मिल रहा है. ऐसे में उनके लिए सबसे ज़रूरी था कि मार्क्स-एंगेल्स के विचारों का विकास दिखलाकर यह बताएं कि कैसे भारत के बारे में, उसके अर्थतंत्र, समाज-व्यवस्था के बारे में, भारत में औपनिवेशिक हस्तक्षेप के मूल्यांकन के सन्दर्भ में उनके विचार कैसे और क्यों बदले, ताकि कोई उनके विचारों के समृद्ध, और विकसनशील रिक्थ में से कुछ को चुनकर साम्राज्यवाद की प्रगतिशीलता स्थापित न कर सके. हम इस लेख में मुख्यतः रामविलास जी के इसी पक्ष पर अपना ध्यान केन्द्रित रखेंगे, लेकिन मार्क्सवाद से उनकी संलग्नता का एक दूसरा पहलू भी है जो कम महत्वपूर्ण नहीं है. वह पहलू यह है की मार्क्सवाद के स्रोतों में मुख्यतः क्लासिकीय जर्मन दर्शन, फ्रांसीसी समाजवाद और ब्रिटिश राजनीतिक अर्थशास्त्र की चर्चा होती है,लेकिन समग्र मानव-मुक्ति के दर्शन के रूप में उसके सतत विकास के लिए यह आवश्यक है की पूरब की बौद्धिक विरासत का अनुसंधान कर उसे सतत विकासशील मार्क्सवादी विचार-सरणी के वैध स्रोत के रूप में कैसे स्थापित किया जाए. रामविलास जी ने ‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’ शीर्षक पुस्तक में क्लासिकीय मार्क्सवाद के स्रोतों में पूरब की बौद्धिक विरासत के योगदान को रेखांकित करने की पुरजोर कोशिश की है. मैं नहीं कह सकता की उस पुस्तक से मार्क्स और एंगेल्स के विचारों पर ‘यूरो -केन्द्रिक’ होने के आरोपों का किस हद तक परिहार होता है, लेकिन यह सच है की खुद मार्क्स और एंगेल्स ने जिस विचारधारा को जन्म दिया था, वह समूचे मानव समाज की मुक्ति की विचारधारा थी. उन्होंने अनेकशः अपने लेखन में पूरब में क्रान्ति की सम्भावनाओं को तलाशा था, गो की उन्हें विकसित देशों में समाजवादी क्रान्ति पहले होने की उम्मीद आखिर तक थी, जिसे इतिहास ने सही साबित नहीं किया. उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से पीड़ित देशों के मार्क्सवादी बहुधा अपने देशों के इतिहास, समाज, दर्शन, साहित्य की समस्याओं पर विचार करते हुए मार्क्सवादी ज्ञान परम्परा को समृद्ध करते रहे हैं. इससे न तो मार्क्सवाद राष्ट्रवाद के मातहत हो जाता है और न ही उसका अंतर्राष्ट्रीयतावाद कहीं से आहत होता है. कुछ गैर मार्क्सवादियों और कुछ भूतपूर्व मार्क्सवादियों ने मार्क्सवाद का भारतीयकरण करने के लिए रामविलास जी की दाद दी है. अब रामविलास जी तो वापस आएँगे नहीं उन्हें यह बताने की मार्क्सवाद कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसका ‘भारतीयकरण’, ‘पाकिस्तानीकरण’ या ‘जापानीकरण’ हो सकता हो. वह सार्वभौम मानवता की संपत्ति है. रामविलास जी उसे पिछड़े हुए देशों की मुक्ति के लिए विशेष प्रासंगिक पाते हैं जिनमें भारत भी एक है. उन्हीं के शब्दों में, “गोरे उपनिवेशों के अलावा पराधीन और नीम पराधीन देशों की जनता अपनी आज़ादी के लिए बराबर लड़ती रही. विश्व बाज़ार की बहुसंख्यक जनता पिछड़े हुए देशों की है. जो दर्शन, जो विज्ञान इस जनता को अपनी आज़ादी के लिए लड़ना सिखाता है, अपने पिछड़ेपन से निकलकर नए जीवन का निर्माण करना सिखाता है, उसका नाम मार्क्सवाद है.” (पृष्ठ 2, मार्क्स और पिछड़े हुए समाज) लेकिन पिछड़े हुए देशों के लोगों को, उनके मुक्ति-योद्धाओं और चिंतकों को यह विज्ञान, यह दर्शन उनकी ज़रूरतों के हिसाब से बना-बनाया नहीं मिला था. उन्हें इसे अपने परिस्थितियों में विकसित और समृद्ध करना था और है. मार्क्सवाद विचारों की कोई बंद व्यवस्था नहीं है, वह मार्क्स और एंगेल्स के जीवनकाल में ही पूर्ण नहीं हो गई. आगे के लोगों ने उसका विकास जारी रखा. नाम ही लेना हो तो लेनिन, रोजा लक्ज़मबर्ग, ग्राम्शी, माओ आदि उल्लेखनीय हैं. मार्क्सवाद, मशहूर मार्क्सवादी चिन्तक रणधीर सिंह के शब्द उधार लेकर कहें तो ‘अपूर्ण परियोजना’ (अनफिनिश्ड प्रोजेक्ट) है. मार्क्स-एंगेल्स ने किसी ‘क्लोज्ड सिस्टम’ का निर्माण नहीं किया था. मार्क्सवाद पर शासक वर्ग के लगातार होने वाले हमलों से उसकी रक्षा भे उसके विकास द्वारा ही संभव है.

रामविलास शर्मा के चिंतन की जो दूसरी बात उन्हें अकादमिक बौद्धिकता से अलग करती है, वह है उनकी अपने परिवेश से गहरी सम्बद्धता. उनके पाँव अपनी ही धरती में धंसे हुए हैं जहां से वे दुनिया को समझते हैं. अकादमिक बौद्धिकता के लिए गगनविहारी होना सुलभ है, सम्बद्ध होना दुष्कर. बैसवाड़े की धरती, अवध के लोकजीवन, भारत की किसान और मेहनतकश जनता, हिन्दी भाषा, भारतीय साहित्य, दर्शन, संगीत, कला और इतिहास से उनकी सम्बद्धता उनके विश्व-दृष्टिकोण के विकास में सहायक है, बाधक नहीं. यह सम्बद्धता शताब्दियों से चले आ रहे साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी वैदुश्य द्वारा पराधीन देशों, उनके इतिहास और उनके निवासियों के बारे में पूर्वाग्रहग्रस्त निष्कर्षों से लड़ने में उनकी सहायता करती है. यह सम्बद्धता उन्हें संकीर्ण नहीं बनाती, बल्कि तमाम पराधीन जातियों से ‘दर्द का रिश्ता’ बनाने और ‘मुक्ति का साझा’ करने में सहायक है. रामविलास जी का कहना था की उन्हें याद करने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है उन्होंने जो सवाल उठाए हैं, जो मुद्दे उठाए हैं, उनपर विचार किया जाए. आज उनकी जन्मशती के अवसर पर ये मौक़ा है की हम उनको याद करने के ज़रिए उन विराट समस्याओं से रू-ब-रू हों जिन्हें हल करने का उन्होंने अथक प्रयास किया. वे पराधीन भारत में जन्में और जवान हुए और भारत की राजनीतिक आज़ादी के 55 साल देखने के बाद विदा हुए.

रामविलास शर्मा ने भारत में अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशील भूमिका मानने से इनकार किया और यही उन्हें सामान्यतः उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की प्रगतिशील भूमिका के बौद्धिक प्रत्याख्यान के अथक अभियान की ओर ले जानेवाला प्रस्थान-बिंदु है. वास्तव में यह धारणा (यानी उपनिवेशवाद/साम्राज्यवाद की प्रगतिशील भूमिका का नकार) पराधीन देशों के मुक्ति-संघर्षों तथा मार्क्सवादी चिंतन की विकासमान परम्परा की महत्वपूर्ण सैद्धांतिक देन है. मार्क्स-एंगेल्स के लेखन में भी बाद के दिनों में इस धारणा के बीज मिलने शुरू हो गए थे. यह सच है कि कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो सहित मार्क्स क़ी अन्य आरंभिक कृतियों में सामंतवाद और दूसरी प्राचीन उत्पादन पद्धतियों के मुकाबले पूंजीवाद उत्पादन की शक्तियों और संबंधों में लगातार क्रांतिकारी परिवर्तन करते चले जाने के अर्थ में प्रगतिशील बताया गया है. उसकी प्रगतिशीलता का दूसरा पहलू यह था कि वह इतिहास की पहली उत्पादन-व्यवस्था थी जो उन भौतिक परिस्थितियों तथा वर्ग-शक्तियों (सर्वहारा वर्ग) को पैदा कर रहीं थी जो उसका खात्मा करके समाजवाद की स्थापना करेंगी. लेकिन मार्क्स ने जब यह प्रतिपादित किया तो उनके सामने उदाहरण योरप का था, खासतौर पर ब्रिटेन और फ्रांस का जहां (19वीं सदी के मध्य में जबसे उनकी कृतियां मिलना शुरू होती हैं) पूंजीवाद पुराने सामंती सम्बन्धों को मिटाकर एक क्रांतिकारी भूमिका निभा रहा था. यदि यह माना जाए की पूंजीवाद की प्रगतिशीलता का निकष समाजवादी रूपांतरण के अंतिम लक्ष्य के लिए भौतिक परिस्थितियाँ पैदा करना है, तो यह भी मार्क्स और मार्क्सवाद की बहु आयामी प्रस्थापनाओं में से महज एक है जिसका सन्दर्भ 19वीं सदी के योरप में समाजवादी क्रान्ति की मार्क्स की उम्मीद है. वास्तव में 20वीं सदी की समाजवादी -मार्क्सवादी क्रांतियाँ पिछड़े हुए देशों में हुईं. मार्क्स ने ‘पूंजी’ लिखते वक्त भी चेताया था कि वे ‘पश्चिमी योरप में पूंजीवाद के उद्भव का ऐतिहासिक रेखाचित्र प्रस्तुत कर रहे थे और इसे किसी ऐसे ऐतिहासिक-दार्शनिक सिद्धांत के रूप में न समझा जाए जिस पर चलना किसी भी ऐतिहासिक परिस्थिति में सभी जातियों/जनता की नियति हो. लेकिन उसी ‘पूंजी’ में मार्क्स ने पूंजी के गढ़ों से बाहर उसके प्रसार (उपनिवेशवाद सहित) द्वारा मचाई गई भारी तबाही का वर्णन भी किया है. बाद में तो रूस और उसके पिछड़ेपन के सन्दर्भ में उन्ही संकटों पर वे ध्यान केन्द्रित करते हैं जो आज तीसरी दुनिया में हमारी समस्याएं हैं. वे लगातार विकसित और अर्द्ध-विकसित देशों के बीच द्वंद्वात्मक सबंधों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे थे जहां पूंजीवाद ने विकसित देशों की छवि में किसी समरूप व्यवस्था को कायम करने के ज़रिए अपना प्रसार नहीं किया, बल्कि विकसित ओर अल्पविकसित क्षेत्रों के बीच ध्रुवीकृत विश्व-व्यवस्था का निर्माण किया. विकसित और अविकसित क्षेत्र द्वन्द्वात्मक अंतर्संबंधों में बंधकर एक सम्पूर्णता का निर्माण ज़रूर करते हैं, लेकिन वे इस व्यवस्था के परस्पर-समान अंग नहीं है और न ही कभी हो पाएंगे. विशेष रूप से 1870 और 1880 के दशकों में मार्क्स पूंजीवाद की सीधे-सीधे प्रगतिशील लगनेवाली तस्वीर से हट कर विचार करते हैं. उनका ध्यान इस दौर में उन अंतर्विरोधों और पेचीदगियों पर ज़्यादा केन्द्रित होता है जिनका सम्बन्ध उस परिघटना से है जिसे हम आज की शब्दावली में ‘पर-निर्भर विकास’ कहते हैं. पूंजीवादी केन्द्रों ने जिस विराट परिधि को पैदा किया, इतिहास की बड़ी तस्वीर में मार्क्स के यहाँ अब उसका महत्त्व बढ़ चला. रामविलास शर्मा ने लगातार मार्क्स और एंगेल्स के विचारों में विकास को दर्शाया कि किस तरह उन्होंने हर परिस्थिति में पूंजीवाद को प्रगतिशील नहीं ठहराया था. मार्क्स को विकासवादी नज़रिए से पढ़ने पर इतना ही समझ में आता है कि अंततः पून्जीवाद पिछली सभी उत्पादन पद्धतियों के सन्दर्भ से (यानी उनके मुकाबले) ज़रूरी, अपरिहार्य और प्रगतिशील है तथा वे तमाम प्राक-पूंजीवादी सामाजिक शक्तियां जो पूंजीवादी विकास के रास्ते में रोड़ा अटकाती हैं, वे वस्तुगत स्तर पर प्रतिक्रियावादी हैं. तीसरी दुनिया के वे मार्क्सवादी जो मार्क्स का विकासवादी पाठ (प्राणिविज्ञान में लामार्क के विकासवाद के समतुल्य) किए जाने से बराबर सावधान करते हैं, उनमें सादर रामविलास शर्मा का नाम लिया जा सकता है. यह भी ध्यान देने की बात है कि मार्क्स और एंगेल्स के विचारों में बदलाव या विकास अकस्मात् पैदा नहीं होते, बल्कि उनके बीज पहले के विचारों में मिल जाते हैं जिन्हें वे अनेक कारणों से बाद में ही विकसित करने का मौक़ा पाते हैं. मार्क्स के लिए कभी भी मानव समाज का विकास पूर्व -निश्चित चरणों में तत्वतः निर्धारित विकास नहीं था.’द जर्मन आइडियोलोजी’ में उनका कहना है, ” आगे का इतिहास पिछले इतिहास का लक्ष्य है……(यह सोचना) शुद्ध अटकलबाजी है, मिथ्या तोड़-मरोड़ है. ‘ग्रुन्द्रिस्से’ में वे कहते हैं कि’पिछले इतिहास की ‘नियति’, ‘लक्ष्य’ उसमें निहित भावी इतिहास के ‘बीज’ या ‘विचार’ जैसे पदों से जो अभिहित किया जाता है वह और कुछ नहीं बल्कि आगे के इतिहास से निकाले गए अमूर्तन मात्र हैं.’ मज़े की बात यह है कि ये वही प्रारम्भिक कृतियाँ है जिनका सर्वाधिक ‘विकासवादी’ पाठ किया जा सकता है, किया जाता रहा है. आगे जब हम देखेंगे कि पूंजीवाद को एक ख़ास ऐतिहासिक मोड़ और योरप के आधुनिक इतिहास के एक ख़ास क्षण में प्रगतिशील बताने वाले कार्ल मार्क्स की इस धारणा को कैसे सभी परिस्थितियों में सही मानने की प्रवृत्ति ने खुद मार्क्सवादी दायरे में उपनिवेशवाद के औचित्य-स्थापन की प्रवृत्ति को जन्म दिया, तब अधिक स्पष्ट होगा कि मार्क्स को पढने में सावधानियां बरतने की बात बारम्बार क्यों याद रखनी ज़रूरी है.

अकारण नहीं कि 21वीं सदी में अपने महाग्रंथ ‘क्रायसिस आफ सोशलिज्म’ में रणधीर सिंह लिखते हैं, “मार्क्स की रचनाओ की समृद्ध, बहु-आयामी रचनाशीलता की अपनी ‘खामोशियाँ’ और ‘खाली जगहें’ भी हैं -साथ ही सारे ही जीवित यथार्थ की तरह विरोधाभास भी. लेकिन इन रचनाओ में ‘खामोशियों’, ‘खाली जगहों’ पर केन्द्रित करते वक्त इनके विभिन्न और विरोधाभासी पहलुओं में से किसी एक को उसके सन्दर्भ और उनके समूचे रचनाकर्म में उसके स्थान की अवहेलना की कीमत पर अलगा कर देखना उनके मार्क्सवाद के प्रति नासमझी है, उसका अन्याथाकरण है.” (रणधीर सिंह, क्रायसिस आफ सोशलिज्म, पृष्ठ-43)

भारत खेतिहरों का देश है, दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है, उसकी मुक्ति की कठिनाइयां अनंत हैं. अपने देश के मेहनत-मजूरी करनेवालों, खेती करनेवालों को, कारीगरों को कब मुक्त इंसानों की तरह जीने और विकास करने का मौक़ा मिलेगा, कब वे मानसिक और भौतिक रूप से आज़ाद होंगे, ये आज़ादी कैसे हासिल होगी, कौन कौन से पहाड़ इस मुक्ति का रास्ता रोके खड़े हैं, यही रामविलास जी की चिंता का विषय था. सामंतवाद और साम्राज्यवाद ही ये पहाड़ हैं जिन्हें हटाए बगैर भारत देश गरीबी, पिछड़ेपन, जहालत, रोज़मर्रा के रोग- शोक से मुक्त नहीं होगा.

पूंजीवाद की प्रगतिशीलता : कब और किसके लिए ?

रामविलास शर्मा शुरू से ही इस बात को लेकर सजग हैं कि उपनिवेशवाद और ख़ास तौर पर भारत में अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशीलता का मिथक पश्चिम योरप के सन्दर्भ में पूंजीवादी क्रांतियों की प्रगतिशीलता के मार्क्स के सामाजिक प्रगति के सिद्धांत से उपार्जित दृष्टिकोण है जो मार्क्स के लेखन की समग्रता की नासमझी से पैदा हुआ है.

हमने पहले ही लक्ष्य किया कि पूंजीवाद की प्रगतिशीलता का जो आख्यान मार्क्स की आरंभिक कृतियों में खासतौर पर मिलता है, उसका ख़ास सन्दर्भ है- पूंजीवाद सामंतवाद और अन्य पुरानी उत्पादन पद्धतियों का विनाश कर उत्पादन के साधनों में क्रांतिकारी परिवर्तन लाता है और मुनाफे के लिए उसे लगातार उत्पादन के साधनों में क्रांतिकारी परवर्तन लाते जाना उसकी संरचनागत मजबूरी है. पुरानी उत्पादन पद्धति से पूंजीवाद में रूपांतरण कैसे होता है?पूंजीवादी उत्पादन पद्धति कैसे अस्तित्व में आती है? “विकास के एक ख़ास चरण में, (पुरानी उत्पादन पद्धति) अपने ही विलोप की भौतिक शक्तियों को सामने लाती है. इस क्षण से नई शक्तियां और नया जोश समाज के हृदय में उफान मारता है, लेकिन पुराना ढांचा उन्हें रोकता है.उसका विनाश किया जाना होता है, विनाश किया गया. उसका सफाया (अर्थात) वैयक्तिक और बिखरे हुए उत्पादन के साधनों का सामाजिक रूप से केंद्रीभूत साधनों में रूपांतरण, ढेर सारे लोगों की बौनी संपत्तियों का कुछ लोगों की बड़ी संपत्तियों में रूपांतरण,विशाल जनसँख्या की ज़मीनों का स्वामित्वहरण, जीविका और श्रम के साधनों से उनकी बेदखली, बड़े पैमाने पर जनसँख्या का भयावह और दर्दनाक स्वामित्वहरण पूंजी के इतिहास की भूमिका है.” (पूंजी खंड 1, अध्याय 32) यह लिखते वक्त मार्क्स के सामने उदाहरण है पश्चिमी योरप का, ख़ास कर इंग्लैण्ड और फ्रांस का, वहां सामंतवाद के साथ पूंजीवाद के टकराव का. सच तो यह है कि यदि वे पूंजीवाद कि इस भूमिका को प्रगतिशील बता रहे थे तो निरपेक्ष रूप से नहीं, बल्कि इसलिए कि योरप को सामने रखकर उन्हें पूंजीवाद पुरानी गतिरुद्ध उत्पादन पद्धतियों और समाजवाद के बीच की ज़रूरी कड़ी लगता था. पूंजीवाद अपने मूलभूत अविवेकपूर्ण और अमानवीय रूप में रोज़-ब-रोज़ अभिव्यक्त होते हुए भी एक अधिक विवेकपूर्ण और मानवीय समाज व्यवस्था अर्थात समाजवाद की ओर रूपांतरण के लिए आधार तैयार करता प्रतीत हो रहा था. इंग्लैण्ड और फ्रांस जैसे देशों में समाजीकृत उत्पादन और पूंजीवादी अधिशोषण के बीच अंतर-विरोध, सर्वहारा और पूंजीपति के बेच अंतर्विरोध पूंजीवाद के भीतर विकसित उत्पादक शक्तियों के लिए अवरोध बना हुआ था जिसका समाधान था समाजवाद. पूंजीवाद ने समाजवाद के लिए विकसित उत्पादक शक्तियों के रूप में न केवल भौतिक आधार तैयार कर दिया था, बल्कि ‘अपनी (अर्थात पूंजीवाद की) ही कब्र खोदने वालों’ यानी सर्वहारा वर्ग को भी जन्म दे दिया था. मार्क्स इस दौर में समाजवादी रूपांतरण के लिए वस्तुगत भौतिक आधार पर काफी जोर देते दिखाई देते हैं. इस दौर में वे उत्पादक शक्तियों में भारी इजाफा, उच्च स्तर के विकास को मानव मुक्ति की आधारभूत शर्त मानते हैं क्योंकि इसके बगैर यानी अभाव और गरीबी की सामान्य दशा में ‘व्यक्तिमत्ताओं का उन्मुक्त विकास’ संभव ही नहीं है जो समाजवाद के लिए ज़रूरी है. उत्पादक शक्तियों में, उत्पादन की प्रक्रिया में उच्चतम विकास पूंजीवाद की विकसित अवस्था वाले देशों में ही था. ऐसा विकास पूंजीवाद ही लाया था. वह प्रगतिशील इस मायने में था की उसने समाजवाद के रूप में मनुष्य को ‘ज़रुरत के दायरे’ से मुक्त ‘ आज़ादी के दायरे में’ दाखिल होने की ज़रूरी परिस्थितियाँ तैयार कर दी थीं. मध्य-युगीन, सामंती पद्धतियों के उत्पादन स्तर पर ऐसा सोचना भी संभव न था. कह सकते हैं कि यह सामाजिक क्रान्ति का मार्क्स का मुख्य सिद्धांत है. लेकिन उनके लेखन में आरम्भ में भी और बाद के दौर में और भी अधिक (सामाजिक क्रान्ति) की वैकल्पिक संभावनाएं और परिप्रेक्ष्य मिलते हैं. उनके यहाँ ऐतिहासिक बदलावों का कोई एकरेखीय, सीधा, चरणबद्ध, पूर्व-निर्धारित ढांचा नहीं है. ग्रुन्द्रिस्से में वे पूंजीवाद से पहले के मानवीय अतीत में उत्पादन पद्धतियों की बहुलता को स्वीकार करते हैं जो कि ख़ास स्थानीय, भौगोलिक, नृवंशीय और ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रभाव में विकसित होती दिखाई देती हैं, जिनमें से प्रत्येक का विश्लेषण उसके अपने स्वतंत्र विकास के तर्क और कोटियों में किए जाने की दरकार है. 1880 से 1882 के बीच अपने ‘क्रोनोलाजिकल नोट्स’ में वे पूंजीवाद के आगे के मानवीय भविष्य के लिए भी उसी तरह रास्तों की बहुलता को मान कर चलते हैं. रणधीर सिंह पश्चिम योरप में पूंजीवाद के विकास के अध्ययन से प्राप्त सामाजिक प्रगति के मार्क्स के सिद्धांत को मुख्य मानते हुए उनके द्वारा प्रस्तावित सामाजिक प्रगति या क्रान्ति के वैकल्पिक रास्तों को उसका सहवर्ती (या पूरक) सिद्धांत मानते हैं. इस दूसरे सिद्धांत का सम्बन्ध अपेक्षाकृत पिछड़े हुए देशों, ‘बाधित’ या देर से विकसित हुए, अशास्त्रीय पूजीवादी विकास वाले देशों से है. मार्क्स इस दूसरे सिद्धांत को पूरी तरह से विकसित नहीं कर सके थे. 1945 में ‘जर्मन आइदियालोजी’ में भी जहां वे विकसित जन (देशों की जनता) की क्रांतिकारी संभावनाओं की बात करते हैं वहीं वे अपवादस्वरूप असमतल विकास के परिणामस्वरूप किसी अल्पविकसित देश में भी समाजवादी क्रान्ति के उभार की संभावना देखते हैं. यह अपवाद ही 20वीं सदी में नियम बन गया.

1840 के दशक के आरम्भ से ही मार्क्स का ध्यान जर्मनी के विलंबित पूंजीवाद और वहां संभावित देर से होनेवाली बुर्जुआ क्रान्ति की ओर इस आशा में गया कि वहां की बुर्जुआ क्रान्ति उसके तत्काल बाद संभावित सर्वहारा क्रान्ति की पूर्वपीठिका बनेगी. कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो में उन्होंने लिखा, कम्यूनिस्टों का ध्यान प्रमुख रूप से जर्मनी की ओर है. वह देश बुर्जुआ क्रान्ति के मुहाने पर खडा है जिसका होना योरपीय सभ्यता की अधिक विकसित अवस्था में होने तथा वहां (जर्मनी में) 17वीं सदी के इंग्लैण्ड तथा 18वीं सदी के फ्रांस के मुकाबले कहीं अधिक विकसित सर्वहारा वर्ग के कारण अवश्यम्भावी है. इसलिए भी कि जर्मनी में बुर्जुआ क्रान्ति उसके तत्काल बाद होनेवाली सर्वहारा क्रान्ति की पूर्वपीठिका होगी.” मार्क्स और एंगेल्स ने जिस बुर्जुआ क्रांति की उम्मीद की थी, वह 1848 में हुई भी, दोनों ने उसमें भाग भी लिया, लेकिन डगमगाते कदमों से कुछ दूर आगे बढ़ने पर बुर्जुआ ने समझौता कर लिया और क्रान्ति बुर्जुआ अर्थों में भी असफल रही. जिस विकसित सर्वहारा वर्ग होने के चलते मार्क्स को वहां बुर्जुआ क्रान्ति के तत्काल बाद समाजवादी क्रान्ति की उम्मीद थी, उसी के डर से बुर्जुआ वर्ग ने पुरानी सामंती व्यवस्था के साथ समझौता कर लिया. मार्क्स के लिए इंग्लैण्ड (1649) और फ्रांस (1789) की बुर्जुआ क्रांतियाँ इसीलिए क्रांतियाँ थीं क्योंकि ‘उस समय बुर्जुआ की जीत नई सामाजिक व्यवस्था की जीत थी’. लेकिन जर्मनी के अनुभव से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि बुर्जुआ वर्ग अब क्रांतिकारी नहीं रह गया था, उसने सामंतवाद से समझौता किया, उसका विनाश नहीं किया क्योंकि आसन्न सर्वहारा क्रान्ति का भय उस पर भारी पडा. इस बिंदु पर मार्क्स और एंगेल्स पूंजीवाद की प्रगतिशीलता के प्रति विश्वासी नहीं रह गए. जर्मनी का पूंजीपति वर्ग खुद अपनी बुर्जुआ-जनतांत्रिक क्रान्ति पूरा करने के भरोसे के काबिल न रहा. मार्क्स एंगेल्स का यह विश्लेषण आगे रूस में बोल्शेविकों के बहुत काम का साबित हुआ जब लेनिन ने ‘लगातार जारी’ क्रान्ति की राजनीतिक लाइन सूत्रबद्ध की जिसके आलोक में उन्होंने फरवरी से अक्टूबर 1917 की क्रान्ति का रास्ता तय किया. चीनी क्रान्ति का प्रारम्भिक चरण माओ की उस नव जनवादी क्रान्ति से शुरू हुआ जिसका नयापन इस बात में ही निहित था कि वह अतीत की उन सफल जनवादी क्रांतियों से भिन्न थी जहां पूंजीपति वर्ग ने योरप में सामंती वर्चस्व का खात्मा कर दिया था. कमज़ोर, ढुलमुल और जनक्रांति की संभावनाओं से भयाक्रांत चीन का पूंजीपति वर्ग यह काम कर ही नहीं सकता था. मार्क्स का यह विश्लेषण कि सामंतवाद -विरोधी कृषि क्रान्ति एक सफल बुर्जुआ क्रान्ति का मूल है और किसी भी सुसंगत और पर्याप्त पूंजीवादी विकास की पूर्व-शर्त है, 20वीं सदी की क्रांतियों के ऐतिहासिक अनुभवों से प्रमाणित है. जहां इन क्रांतियों को मार्क्सवादियों ने नेतृत्व दिया जैसे कि चीन और रूस में,वहां के परिणाम पूंजीवादी विकास की दृष्टि से क्या हुए और जहां खुद बुर्जुआ ही नेतृत्वकारी ताकत बना रहा जैसे कि भारत में, वहां क्या हुए, इसकी तुलना भी मार्क्स के विश्लेषण को ही प्रमाणित करेगी. रूस और चीन में सामंती अवशेष ख़त्म हुए और भारत में अभी भूमि-सुधार आज़ादी के 65 साल बाद न केवल पूरे नहीं हुए, बल्कि अब तो नव- उदारवादी निजाम में भूमि सुधार के जो आधे-अधूरे प्रयास अतीत में किए गए थे, उन्हें पलटा जा रहा है.

1848 में जर्मनी का पूंजीपति वर्ग यदि सामंतवाद को मिटा कर पूंजीवादी- जनतान्त्रिक क्रान्ति भी नहीं कर सका तो इसीलिए कि वह पुराने (सामन्ती और मध्ययुगीन) समाज के खिलाफ नए (पूंजीवादी और आधुनिक) समाज की नुमाइंदगी नहीं कर रहा था, क्योंकि उसका सम्बन्ध खुद उस पुराने सामंती समाज से था और वह उसी पुराने अप्रासंगिक समाज के भीतर अपने हितों का नवीनीकरण चाह रहा था. (समाजवादी जन-क्रान्ति का भूत उसे अलग सता रहा था.) यही मार्क्स ने उसके चरित्र के बारे में कहा. इस परिघटना की ऐतिहासिक, देश-कालगत विशिष्टता को यदि हम थोड़ी देर के लिए आँख से ओझल करके विचार करें तो पूंजीपति वर्ग का यही चरित्र (जिसे मार्क्स ने उक्त प्रसंग में चिन्हित किया) विलंबित विकास वाले औपनिवेशिक तथा उपनिवेशवाद से आज़ाद हुए देशों के पूंजीपति वर्गों की लाक्षणिक विशेषता है. इन देशों के सत्ता संघर्ष में तथा जहां वे सत्ता में हैं वहां जिस किस्म का पूंजीवादी विकास वे लाए हैं, यह चरित्र अभिव्यक्त होता है. मार्क्स ने ‘पूंजी’ के जर्मन संस्करण के पहले भाग की भूमिका (1867) में लिखा था, “हम… न केवल पूंजीवादी उत्पादन के विकास बल्कि उसके अधूरेपन का भी कष्ट भोग रहे हैं. आधुनिक बुराइयों के साथ साथ विरासत में पाई गई बुराइयों का एक पूरा सिलसिला हमें सता रहा है जो कि पुरानी धुरानी उत्पादन पद्धति के निष्क्रिय रूप में जीवित बने रहने से उपजता है, जो राजनीतिक और सामाजिक पुरावशेषों की अपरिहार्य श्रृंखला को लिए-दिए चलता है. हम सिर्फ जीवित ही नहीं, बल्कि मृत का भी कष्ट भोग रहे हैं’ 1848 की जर्मन क्रान्ति को आधी सदी से भी ज़्यादा देर से हुई बताते हुए मार्क्स ने कहा कि योरपीय क्रान्ति से बहुत अलग वह एक पिछड़े देश में योरपीय क्रान्ति की द्वितीयक स्तर (सेकेंडरी आर्डर) की परिघटना थी. उन्होंने लिखा, ” आम जानकारी है कि दूसरे क्रम की बीमारियों का इलाज ज़्यादा मुश्किल होता है, साथ ही वे शरीर को प्राथमिक बीमारी की अपेक्षा ज़्यादा नुक्सान पहुंचाती हैं.” (मार्क्स, ‘पूंजीपति और प्रति-क्रान्ति’ शीर्षक लेख, 11 दिसंबर, 1848, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को, 1972 से 1994 में इन्टरनेट के लिए अनूदित) दर असल पिछड़े हुए देशों में पूंजीवाद की परिघटना विकसित योरपीय पूंजीवाद का द्वितीयक रूप ही है जिसमें सामंती अवशेष बचे रहते हैं और पूंजीपति बुर्जुआ जनतान्त्रिक क्रान्ति के अयोग्य होते हैं, सामन्तवाद के साथ गठजोड़ करते हैं. कुल मिलाकर ऐसी जगहों पर बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रान्ति भी सर्वहारा के नेतृत्व में ही संभव होती है समाजवादी रूपांतरण की ओर अग्रसर होती है. ऐसी क्रांतियों में सर्वहारा नेतृत्व में श्रमिक-किसान गठजोड़ भी आवश्यक है. 1848 में जर्मन बुर्जुआ क्रान्ति की असफलता के बाद भी एंगेल्स को 1856 में लिखा,” जर्मनी में सब कुछ सर्वहारा क्रान्ति को किसान युद्ध के किसी दूसरे संस्करण की सहायता मिलने की संभावना पर निर्भर है.” मार्क्स ने कृषि की प्रधानता वाले सभी समाजों में मज़दूर-किसान गठजोड़ बनाने पर लगातार जोर दिया. उन्होंने कभी भी यह तर्क नहीं रखा कि किसी भी ख़ास देश में समाजवाद की विजय उस देश की जनसंख्या में सर्वहारा के बहुमत में होने पर निर्भर है. वे लगातार ऐसी स्थितियों की तलाश में रहे जिनमें मजदूर दूसरे उत्पीडित तबकों के साथ मिलकर सत्ता पर कब्ज़ा कर सकें और समाजवादी रूपांतरण के लम्बे कष्टसाध्य लक्ष्य की ओर बढ़ने का आरम्भ कर सकें. पेरिस कम्यून के तुरंत बाद की विशष्ट स्थितियों में मार्क्स ने मज़दूर-किसान गठजोड़ का जो सैद्धांतिक माडल विकसित किया, वह आज भी पूंजीवादी दुनिया के अल्प-विकसित और विकासशील देशों में समाजवाद के लिए संघर्ष का एक मार्गदर्शक सिद्धांत बना हुआ है. इसे बाद में लेनिन द्वारा रूसी क्रान्ति के रणनीतिक और कार्यनीतिक व्यवहार के बतौर विकसित किया गया और रूस के समाजवादी रूपांतरण की परियोजना का अंग बना. पिछड़े हुए देशों की प्रगति का यही रास्ता मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-माओ के विचारों से निकलता है जिसमें पूंजीवाद और पूंजीपतियों की प्रगतिशीलता की धारणा निहित नहीं है. भारत में भी कम्यूनिस्ट पार्टियों ने इसी रास्ते को अपना मार्ग-निर्देशक माना (भले ही वे व्यवहार के स्तर पर, कार्यनीति के स्तर पर उनमें बहस हो) और उचित ही यह सूत्रबद्ध किया कि भारत एक ‘अर्द्ध औपनिवेशिक, अर्द्ध सामंती’ समाज है जहां कम्यूनिस्ट लोगों का काम जनवादी क्रान्ति करना, फिर समाजवादी रूपांतरण में जाना है. ऐसा कहते ही बहुत से लोगों को यह भी गलतफहमी हो जाती है कि ऐसा कहनेवाले भारत में पूंजीवाद नहीं मानते. वास्तव में ‘ अर्द्ध औपनिवेशिक,अर्द्ध सामंती’ जैसा पद विशेषण है, संज्ञा नहीं. अर्थात भारत में जो पूंजीवाद है वह औपनिवेशिक और सामन्ती विशेषताएं लिए हुए है. ‘सामंती अवशेष’ जैसे पद से ‘अनायास बचा-खुचा, थोड़ा सा रह गया’ जैसा भाव भी कभी कभी लोग ग्रहण करते देखे गए हैं. अवशेष कहने से भाव यह है कि पूंजी के युग में, जो विश्व-व्यापी है, पुरानी व्यवस्था अभी भी ख़ास कर उपनिवेश रहे देशों में पूंजीवाद के साथ साथ, उसके संरक्षण और सहयोग के साथ उसकी विशेषता के बतौर विद्यमान है. वह इसलिए विद्यमान नहीं है कि पूंजीपतियों ने उसे मिटाने का अभियान छेड़ रखा है, लेकिन अभी भी थोड़ी बहुत बची रह गयी है जो समय बीतने के साथ अंतिम रूप से पूंजीपतियों द्वारा ही ख़त्म कर दी जाएगी. इसके उलट औपनिवेशिक विरासत के बतौर वह पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था के भीतर पूंजीपतियों के सहयोग से कायम है, अनायास नहीं. इसी बात पर बल देने के लिए और ‘अवशेष’ शब्द में निहित गलतफहमी की गुंजायश को कम करने के लिए कुछ लोग ‘मज़बूत सामंती अवशेषों’ की बात करते हैं.

रामविलास शर्मा यह जानते थे कि पूंजीवाद और पूंजीपति वर्ग की प्रगतिशीलता मार्क्सवाद में ही निरस्त हो जाने के बाद भी एक ‘कामन-सेन्स’ के रूप में जीवित है, जिसके चलते ही मार्क्स द्वारा न्यू यार्क ट्रिब्यून में 1853 से 1858 के बीच लिखे गए 33 टिप्पणीनुमा ‘भारत संबंधी लेखों’ के एक ख़ास एकांगी पाठ के कारण बहुतों को यह भ्रम लम्बे समय तक (शायद आज भी) रहा है कि अंग्रेज़ी राज या ब्रिटिश पूंजीवाद ने भारत में एक प्रगतिशील भूमिका निभाई और उसके विरुद्ध 1857 का विद्रोह एक प्रतिक्रियावादी कदम था. एक सीमित अर्थ में और कुछ ख़ास प्रसंगों में मार्क्स को भले ही उपनिवेशवाद का एक ‘प्रगतिशील’ पक्ष नज़र आया हो, लेकिन उन्होंने एंगेल्स के साथ बराबर उपनिवेशवाद के खिलाफ प्रतिरोध का सकारात्मक मूल्यांकन किया, उसपर खुशी मनाई. रामविलास शर्मा ने लम्बे समय तक धैर्यपूर्वक पूंजीवाद और पूंजीपति वर्ग की प्रगतिशीलता का प्रत्याख्यान करते हुए मार्क्सवाद के पूर्वी समाजों के बारे में विकसित हुए विचारों के क्रांतिकारी आशयों की भारत के किसी भी अन्य बौद्धिक के मुकाबले विशद व्याख्या की.

अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशीलता के मिथक का एक स्रोत यह धारणा थी कि पूंजीवादी विकास की दृष्टि से इंग्लैण्ड एक बढ़ा हुआ देश था और भारत में आधुनिक जनतांत्रिक शासन व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, प्रगतिशील क़ानून और समाज सुधार, नागरिक अधिकारों की प्रक्रिया को उसने आरम्भ किया. रामविलास शर्मा ने दिखलाया कि 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक इंगलैंड में अभी भी ज़मींदार वर्ग ही शासन सत्ता के हर क्षेत्र में हावी था. औद्योगिक क्रांति हो जाने के बावजूद, नए और बढ़ाते हुए उत्पादन संबंधों के अनुकूल राजसत्ता और शासन में परिवर्तन नहीं हुआ था और सत्ताधारी नया भूस्वामी वर्ग पुरानी व्यवस्था कायम किए हुए था जिसके खिलाफ औद्योगिक पूंजी के प्रतिनिधि तथा मज़दूर वर्ग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ रहे थे. देहातों में ज़मींदार घुस देकर, शराब पिलाकर और आतंक और ह्त्या के बल पर मतदान कराते थे. (जैसा भारत में आज़ादी के 50-60 सालों बाद तक होता रहा है, अंग्रेजों के तथाकथित लोकतांत्रिक शासन के अधीन 200 साल और फिर भारत में काले अंग्रेजों के 50 साल के शासन के बाद भी).सार्वभौम बालिग़ मताधिकार अभी इंग्लैण्ड में लागू न था. अंग्रेज़ी स्रोतों से ही, ख़ास तौर पर पूंजीपतियों के नेता ब्राईट के भाषणों को उद्धृत कर रामविलास शर्मा यह दिखलाते हैं कि 1863 तक भी वहां खेत मजदूरों की स्थिति अर्धदासता की थी, सामंती धाक मौजूद थी और मजदूरों पर दमन भी भरपूर था. इंग्लैण्ड का सत्ताधारी भूस्वामी वर्ग ही भारतीय उपनिवेश के लिए भी नीतियाँ तय कर रहा था. ऐसे में वह कौन से आधुनिक जनतांत्रिक मूल्य भारत में ला रहा था जो वह अपने देश में ही लाने को तैयार न था? मूल रूप से 1957 में लिखी पुस्तक ‘सन सत्तावन की राज्यक्रान्ति और मार्क्सवाद’शीर्षक पुस्तक में रामविलास शर्मा विस्तार के साथ यह सवाल उठाते हैं. प्रसंगवश यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि खुद मार्क्स और एंगेल्स के लेखन में इंग्लैण्ड के पूंजीपति वर्ग द्वारा (फ्रांस के ठीक विपरीत) सामंती अभिजात वर्ग के साथ लम्बे समय तक चले मोल-तोल और समझौतों का उल्लेख मिलता है जिसका रामविलास शर्मा ने उपयोग भी किया है. प्रसंगवश यह भी उल्लेखनीय है कि ग्राम्शी ने अपनी ‘प्रिज़न नोटबुक्स’ में दर्ज किया है कि जिस तरह फ्रांस में सामंती ढाँचे को बलपूर्वक उखाड़ फेंका गया, वैसा योरप में पूंजीवाद ने कहीं नहीं किया, बल्कि प्रायः हर जगह सामंती अभिजातवर्ग के साथ पूंजीपतियों के समझौतों की लम्बी श्रृंखला मिलती है. इस पूरे संक्रमण के दौर में आम जनता की कोई भागीदारी नहीं है. यदि वह इस अर्थ में क्रान्ति है कि उसने अंततः सामंतवाद को समाप्त कर नई सामाजिक व्यवस्था कायम की, तो वह हद से हद एक ‘निष्क्रिय क्रान्ति’ (पैसिव रेवोल्यूशन) ही थी. ग्राम्शी यहाँ तक कहते हैं कि आधुनिक योरपीय राज्यों का जन्म सुधारों की छोटी और क्रमिक लहरों से हुआ, न कि फ्रांस की तरह क्रांतिकारी विस्फोट के ज़रिए. ये ‘क्रमिक लहरें’ सामाजिक संघर्षों के संयोजनों, प्रबुद्ध राजशाहियों आदि द्वारा ऊपर से किए गए हस्तक्षेप और जातीय युद्धों के दबाव में उठीं. इनमें से जातीय (राष्ट्रीय) युद्धों की भूमिका ही प्रमुख थी. कहना न होगा कि औपनिवेशिक भारत और ब्रिटिश सम्बन्ध का जैसा विवेचन रामविलास शर्मा ने किया है, वह ग्राम्शी की उपरोक्त प्रस्थापनाओं को सिद्ध करता है,बावजूद इसके कि रामविलास ग्राम्शी की स्थापनाओं का सहारा नहीं लेते और स्वतंत्र विवेचन के ज़रिए इन्हीं निष्कर्षों पर पहुंचते हैं.

पश्चिम योरप के ऐतिहासिक अनुभवों पर आधारित मार्क्स का सामाजिक प्रगति का सिद्धांत और पूर्वी तथा अल्पविकसित देशों के अनुभवों पर आधारित मार्क्स का सामाजिक सिद्धांत, दोनों को रणधीर सिंह जैसे विचारक क्रमशः प्रमुख सिद्धांत और सहवर्ती या पूरक सिद्धांत के रूप में देखते हैं अर्थात दोनों में पहले और बाद का रिश्ता नहीं है, दोनों साथ चलते हैं, यह ज़रूर है कि दूसरा वाला बाद के दिनों में प्रमुखता पाता है और मार्क्स अपने जीवन काल में उसका समग्र सैद्धांतिक निरूपण नहीं कर सके. लेनिन और फिर बाद में माओ इसका विकास करते हैं. दोनों में आपाततः विरोधाभास दीखता है लेकिन सन्दर्भ सहित समझने पर विरोधाभास से ज़्यादा सह्वार्तिता दिखती है. रामविलास शर्मा सह्वार्तिता की जगह इसे मार्क्स और एंगेल्स के विचारों में आए विकास(बदलाव के अर्थ में) की तरह समझते हैं, बहुत कुछ त्योदोर शैनिन (लेट मार्क्स एंड द रशियन रेवोल्यूशन: मार्क्स एंड दि पेरीफेरीज़ आफ कैपिटलिज्म, 1983) की तरह. वे दोनों में विरोध भी देखते हैं. रामविलास शर्मा के शब्दों में, ” पूंजीपति, मजदूर, किसान, पराधीन देश – इन सब के बारे में मार्क्स की धारणाएं परस्पर सम्बद्ध थीं. एक के बारे में धारणा बदली हो, बाकी के बारे में ज्यों की त्यों बनी रही हो, यह संभव नहीं था. (1) पूंजीपति वर्ग भरपूर क्रांतिकारी है, पुरानी व्यवस्था को आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक स्तर पर बदल देता है. विरोधी धारणा- वह भरपूर क्रांतिकारी नहीं है, हर स्तर पर पुरानी व्यवस्था से समझौता करता है. (2) पूंजीवाद ने सर्वहारा क्रान्ति के लिए परिस्थितियाँ तैयार कर दी है, मजदूर वर्ग समाज का बहुसंख्यक भाग है, वह अकेले समाजवादी क्रान्ति संपन्न करेगा. विरोधी धारणा – अभी तो ज़मींदार वर्ग का प्रभुत्व ख़त्म करना है, मजदूर वर्ग समाज का बहुसंख्यक भाग नहीं है, क्रान्ति की सफलता के लिए किसानों का सहयोग ज़रूरी है. (3) किसान अपनी लघु संपत्ति से बंधे हुए हैं, वे प्रतिक्रियावाद के सहायक हैं, इसलिए मजदूरों को अपनी ही ताकत पर भरोसा करना चाहिए. विरोधी धारणा-किसानों में अनेक स्तर हैं, पूंजीवाद लघु संपत्ति वाले किसानों का भी शोषण करता है, किसान-संग्राम सर्वहारा क्रान्ति का सहायक होगा. (4) पराधीन देशों की समाज-व्यवस्था पुरातनपंथी है, विदेशी पूंजीवाद इस व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर के क्रांतिकारी भूमिका निभाता है, इन देशों का की जनता का उद्धार ब्रिटिश मजदूर वर्ग के उत्कर्ष पर निर्भर है. विरोधी धारणा- पूंजीपति पराधीन देशों की लूट का एक हिस्सा मजदूरों में बांटते हैं, ब्रिटिश मज़दूर वर्ग तब तक मुक्त न होगा जब तक आयरलैंड जैसे देश मुक्त न होंगे, ऐसे देशों का मुक्ति संग्राम, केवल ब्रिटेन के नहीं, सारी दुनिया के मजदूरों की मुक्ति के लिए निर्णायक होगा……. सामाजिक विकास संबंधी मार्क्स की धारणाओं में व्यापक परिवर्तन हुआ, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता.” (मार्क्सवाद और पिछड़े हुए समाज, पृ.482-83)

रामविलास जी जिन्हें विरोधी धारणाएं कह रहे हैं, उन्हें उनके सन्दर्भ में रख कर देखने पर विरोध की जगह सहवर्तिता ज़्यादा प्रतीत होगी. फिर इन दोनों सामाजिक प्रगति के सिद्धांतों में पूर्वापर क्रम भी नहीं है. दूसरे के बीज उन कृतियों में मिल जाएंगे जिनका मूल प्रतिपाद्य पहला वाला सिद्धांत है, यह हम इस आलेख में पहले देख चुके हैं, जबकि बाद की कृतियों में भी पहले वाले सिद्धांत की कई बातें विद्यमान हैं. उदाहरण के लिए 1880 के दशक में मार्क्स और एंगेल्स जब रूस में क्रान्ति की संभावना पर विचार करते हैं तो उनके सामने यह प्रश्न था कि वहां के किसानों में जो सामूहिक स्वामित्व की ‘पेजेंट कम्यून’ जैसी व्यवस्था थी, वह रूस में पूंजीवाद द्वारा नष्ट कर दी जाएगी या कि वह व्यवस्था एक उच्चतर स्तर पर समाजवादी रूपांतरण की प्रक्रिया के लिए मार्ग प्रशस्त करेगी, उसे तेज़ कर देगी. मार्क्स के लिए यह विचार का विषय था कि क्या इतिहास ने किसी जनता के लिए कितनी भी बारीक यह संभावना छोडी है कि वह सामंतवाद से सीधे ही साम्यवादी विकास की मंजिल में प्रवेश कर जाए. मार्क्स का विचार था कि ऐसा हो सकता है यदि रूस में क्रान्ति जल्दी हो, कम से कम इतनी जल्दी कि ‘पेजेंट कम्यूनों’ को नष्ट होने से बचाया जा सके. यह बात सामाजिक विकास के उनके दूसरे वाले सिद्धांत के अनुकूल थी. वेरा ज़ेसुलिच को 1881 में लिखे प्रसिद्द पत्र के पहले प्रारूप में उन्होंने लिखा, ‘यदि क्रान्ति समय से हो जाए, यदि वह अपनी सारी ताकत एक जगह केन्द्रित करके……देहाती कम्यून के मुक्त विकास को सुनिश्चित करे, तब वह(कम्यून) खुद-ब-खुद अपेक्षाकृत जल्दी ही रूसी समाज के पुनरुज्जीवन के एक तत्व के रूप में विकसित हो जाएंगे, (यह तत्व) पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा दास बना लिए गए देशों की तुलना में (रूस के लिए) फायदे का है.”

यहाँ कहीं भी क्रान्ति की पूर्व-शर्त के बतौर पूंजीवाद की तकनीकी उपलब्धियों या पश्चिम में विजयी क्रान्ति से मिलनेवाली मदद का कोई उल्लेख नहीं है. इस पत्र के चौथे प्रारूप में (जब इसे अंततः ज़ेसुलिच को भेजा गया) इतना और जोड़ते हैं कि देहाती कम्यून के लिए नुकसानदेह प्रभाव जो उसे चारों ओर से उसे घेरे हुए हैं, उन्हें पहले समाप्त करना होगा, तभी उनके स्वतःस्फूर्त विकास की सामान्य स्थितियां सुनिश्चित हो सकेंगी. उधर एंगेल्स स्पष्ट रूप से यह कह रहे थे कि यह संभावना बेशक चरितार्थ हो सकती है, लेकिन इसकी पूर्वशर्त है विकसित योरप में क्रान्ति का होना. आखिरकार कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो के 1882 के रूसी संस्करण की भूमिका में मार्क्स भी इसी जगह आ खड़े होते हैं. भूमिका में लिखा है,” यदि रूसी क्रान्ति पश्चिम में सर्वहारा क्रान्ति की प्रेरक बनती है, ताकि दोनों एक दूसरे की मददगार बन सकें, तब वर्तमान में रूस में भूमि का सामूहिक स्वामित्व कम्युनिस्ट विकास के लिए प्रस्थान बिंदु बन सकता है” यहाँ स्पष्ट ही पिछड़े हुए रूस में मजदूर किसान गठजोड़ पर आधारित समाजवादी क्रान्ति और विकसित योरप में सर्वहारा क्रान्ति की संकल्पनाएँ ठीक ठीक पूरक रूप में मौजूद हैं, विरोधी धारणाओं के बतौर नहीं.यह अलग बात है कि रूसी क्रान्ति योरपीय क्रान्ति को प्रेरित नहीं कर सकी और रूसी क्रान्ति का जहाज़ आरम्भ से ही पूंजीवादी ताकतों की घेरेबंदी, आतंरिक गृहयुद्ध, फासीवादी आक्रमण वगैरह झेलते अकेले ही अप्रत्याशित रास्तों पर आगे बढ़ा, इन परिस्थितियों में उसके भीतर भी तमाम विकृतियां आती गईं और अंततः 70 साल की आयु पूरी कर दुर्घटनाग्रस्त हुआ. उसने 20 वीं सदी की तमाम पिछड़े देशों की क्रांतियों को और पराधीन देशों के मुक्ति संघर्षों को ज़रूर प्रेरित किया. ये अलग बात है कि मार्क्स की सामाजिक प्रगति की वह धारणा जो उनके जीते जी उनकी मुख्य धारणा के सम्मुख गौड़ बनी रही, 20 वीं सदी में वही मुख्य बन गई, लेकिन वाम आन्दोलन के अनेक विश्वस्तरीय नेता इस बात को समझने से इनकार करते रहे. कौत्सकी को रूसी क्रान्ति से ये शिकायत थी कि उसे पूंजीवाद की विकसित अवस्था में पहुँचने से पहले ही करके लेनिन ने गलत किया. ट्राटस्की क्रान्ति के नेताओं में थे लेकिन विकसित योरप में क्रान्ति न होने से निराश वे एक देश में समाजवाद निर्माण की चुनौतियों को स्वीकार करने से ही कतरा गए. इतिहास का निर्माण मनुष्य करते हैं अपने कर्म से, वह पूर्व-निर्धारित रास्तों पर ही नहीं चला करता. वह महानतम सिद्धांतों से भी छल कर सकता है.

उपनिवेशवाद/ साम्राज्यवाद की प्रगतिशीलता का मिथक

ऐतिहासिक रूप से उपनिवेशवाद मुक्त व्यापार के दिनों में योरपीय व्यापारियों ने कायम किये. उपनिवेश पूंजीवादी उत्पादन पद्धति से पहले भी सामंतवाद के भीतर पनपे व्यापारिक पूंजी के आदिम संचयन के लिए कायम हुए. इस आदिम संचयन ने उपनिवेशों में नहीं बल्कि व्यापारिक कंपनियों के गृह देशों में पूंजीवादी क्रान्ति को संभव बनाया.

मार्क्स की निगाह में योरप की औद्योगिक और पूंजीवादी क्रान्ति इसलिए प्रगतिशील थी कि उसने पुरानी सामंती व्यवस्था का खात्मा कर नई सामाजिक व्यवस्था कायम की थी. लेकिन पेंच यह था इसकी कीमत पराधीन देशों ने चुकाई? अकाल, जनसंहार, दमन, लूट, नस्लीय घृणा, साम्प्रदायिक विभाजन और अमानुषिक अत्याचारों का अंतहीन सिलसिला उपनिवेशों में चलाया गया. आर्थिक रूप से उपनिवेशों की इतनी संपदा लूटी गयी कि वे किसी भी तरह के स्वाधीन विकास के काबिल ही न बचे. खुद मार्क्स ने उपनिवेशों से पूंजी के आदिम संचय की बर्बर प्रक्रिया का रोंगटे खड़े कर देनेवाला वर्णन किया है और उसकी कठोरतम भर्त्सना की है. तब आखिर उपनिवेशवाद के प्रगतिशील होने का विमर्श आया कहाँ से? यदि खुद उपनिवेशवादियों के सभ्यता-प्रसार वाला तर्क छोड़ दिया जाए जिससे मार्क्स एंगेल्स की घृणा उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई, तब इसका स्रोत कम्यूनिस्ट घोषणापत्र में पूंजीवाद की क्रांतिकारी भूमिका का जैसा मार्क्स ने चित्रण किया, उस धारणा को उपनिवेशवाद पर भी आरोपित करने में निहित है. कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो में योरप के विजयी पूंजीपति वर्ग से अपेक्षा की गई है वह सारी दुनिया को अपनी ही छवि में सिरजेगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. विश्व भर में आत्मप्रसार का जो संरचनागत तर्क पूंजीवाद में अन्तर्निहित है वह अमल में बिलकुल दूसरे ही रूप में आया. वह एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के देशों में गरीबी, भूख, क़र्ज़, विकासहीनता का विकास, अनुद्योगीकरण लाया. पुराने उपनिवेशवाद पर आरूढ़ होकर इजारेदार पूंजी की अवस्था में जो साम्राज्यवाद आया, वह और भी भीषण था जिसने पूरी दुनिया में उत्पादक शक्तियों का अभूतपूर्व विनाश किया. रामविलास शर्मा ने अपने लेखन के छह दशक तक इस पूरी प्रक्रिया को समझाने और हिन्दीभाषी जनता के विचार और अनुभूति का हिस्सा बनाने का अनथक प्रयास किया. उन्होंने विस्तारपूर्वक दिखलाया कि भारत में उपनिवेशवाद और फिर साम्राज्यवाद ब्रिटेन और विश्व-पूंजी की किन किन अवस्थाओं के साथ विकसित हुआ और उसने भारत में क्या परिणाम उत्पन्न किए. रामविलास शर्मा ने लिखा,’ अंग्रेजों ने यहाँ सामूहिक सम्पत्तिवाले कबीलाई ग्राम समाजों का विध्वंस नहीं किया, उन्होंने यहाँ के प्रतिक्रियावादी सामंतों से मिलकर उभरते हुए पूंजीवाद का विनाश किया, इस ऐतिहासिक सत्य को छिपाने का पयत्न बराबर किया जाता है.’ (भारत में अंग्रेज़ी राज, भाग -2, भूमिका, पृ. 12) जिस आत्मविश्वास के साथ रामविलास शर्मा उपनिवेशवाद की प्रगतिशीलता के मिथक को ध्वस्त करते हैं, वह कई महान उपनिवेशवाद- विरोधी योद्धाओं और चिंतकों की बरबस ही याद दिलाता है. अल्जीरिया के मुक्ति योद्धा फ्रैंज़ फैनन ने निर्भीक टिप्पणी की कि उपनिवेशवाद ने प्राक्-आधुनिक समाजों की आत्मालोचना की परंपरा को नष्ट किया और आत्म-विकास की सारी प्रक्रियाओं को अवरुद्ध कर दिया. यदि हम ध्यान रखें कि खुद मार्क्सवाद के भीतर उपनिवेशवाद को प्रगतिशील माननेवाली किस हद तक प्रभावी रही है और बार-बार प्रकट होती रही है, तो हम रामविलास शर्मा के बौद्धिक संघर्ष को ज़्यादा समझ सकते हैं. सेकेण्ड इंटरनेशनल के नायक जिनके प्रतिनिधि बर्नस्टीन सहित कई बड़े नेता थे, साम्राज्यवाद के पुराने उपनिवेशवादी शासन के पक्षपोषक थे. उन्होंने खुली घोषणा की की औपनिवेशिक शासन प्रगतिशील था, कि वह उपनिवेशों में ‘सभ्यता के उच्च स्तर लाया’, और वहां उसने ‘उत्पादक शक्तियों का विकास किया’. उन्होंने यहां तक कहा की ‘उपनिवेशों को खत्म करने का मतलब होगा बर्बरता’. वे तो समाजवाद में भी उपनिवेशों की ज़रुरत मानते थे और इसके लिए उन्होंने ‘पूंजी का समाजवादी आदिम संचय’ जैसे सूत्रीकरण भी किए थे. यह सच है कि लेनिन के महान सैद्धांतिक कार्यों की बदौलत यह सब मूर्खताएं बंद हुईं, लेकिन खासकर योरपीय वामपंथ में लम्बे समय तक बार-बार जोर मारती रहीं. दूसरी ओर खुश्चेव के समय जब पूंजीवादी और समाजवादी खेमों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का सिद्धांत आया, तो साथ ही सोवियत कम्यूनिस्ट पार्टी की तरफ से यह उपदेश भी आया कि राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम अब ‘नए दौर’ में प्रवेश कर गए हैं. जहां पहले दौर में संघर्ष मुख्यतः राजनीतिक क्षेत्र में था, अब उसका क्षेत्र आर्थिक है और नव-स्वतंत्र देशों को क्रान्ति को आगे बढाने की मुख्य कड़ी के बतौर आर्थिक विकास पर ध्यान देना चाहिए. माओ ने इसका तीखा प्रतिवाद किया. उन्होंने कहा कि यह सारा उपदेश नव-उपनिवेशवाद का पक्षपोषण है क्योंकि यह एशिया, लैटिन अमरीका और अफ्रीका पर नव-उपनिवेशवाद (जिसका प्रतिनिधि अमरीका है) के भीषण हमलों और उनकी लूट पर, साम्राज्यवाद और शोषित राष्ट्रों के बीच तीखे अंतर्विरोध पर पर्दा डालता है और इन महाद्वीपों की जनता के क्रांतिकारी संघर्षों को कुंद करता है. माओ ने कहा कि बेशक नव-स्वतंत्र देश अपना स्वतंत्र आर्थिक विकास करें, लेकिन यह कार्य साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष, उन देशों के भीतर साम्राज्य के एजेंटों के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष से पृथक नहीं है. (चीनी समाचारपत्र ‘पीपुस डेली’ में 22 अक्टूबर, 1963को प्रकाशित माओ का लेख) ज़ाहिर है कि ख्रुश्चेव के नेतृत्व वाले संशोधनवाद के ऐसे प्रस्ताव भले ही उपनिवेशवाद का प्रत्यक्ष समर्थन न करते हों, लेकिन साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्षों को कमज़ोर कर प्रकारांतर से शोषित देशों को उसे सहन करने के लिए प्रेरित अवश्य करते हैं. लेकिन योरपीय वाम के अकादमिक हल्कों से साम्राज्यवाद का खुला समर्थन भी गाहे-बगाहे होता ही रहता है. इसका एक उदाहरण उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को मानव समाज के विकास में गुणकारी बतानेवाली बिल वारेन की 1980 में प्रकाशित पुस्तक ‘इम्पीरियालिज्म::पायनियर आफ कैपिटलिज्म’ है जो मार्क्सवादी कोटियों का इस्तेमाल करती है और न्यू लेफ्ट बुक्स से छपी है. इस से यह अंदाज़ होता है कि उपनिवेशवाद के प्रगतिशील होने का मिथक कोई बंद हो चुकी बहस नहीं है.

उपनिवेशवाद की प्रगतिशीलता की धारणा का दूसरा स्रोत दूसरा स्रोत मार्क्स के भारत विषयक आरंभिक लेख हैं, खासतौर पर 1853 वाला लेख. प्रारम्भिक लेखों में मार्क्स ने भारत को एशियाई उत्पादन पद्धति वाला देश, गतिरुद्ध ग्राम समाज और पूर्वी निरंकुशता के लक्षणों वाला देश मानते हुए भारत में अंग्रेज़ी राज को इस जड़ता को तोड़कर प्रगति क बीज बिखेरने वाले ‘इतिहास के अचेतन औजार’की संज्ञा दी. आज भारत के मार्क्सवादी बौद्धिक जानते हैं कि जब मार्क्स भारत के बारे में लिख रहे थे तो पूरब के बारे मे पष्चिमी ज्ञान अत्यंत सीमित था, कि भारत के विशृंखलित, आत्मनिर्भर गाँवों की छवि मार्क्स ने हेगेल से शब्दशः ग्रहण की थी, कि एषिया की परिवर्तनहीन, गतिरुद्ध छवि 19वीं सदी के योरप को हाब्स और मान्टेस्क्यू जैसे ज्ञानोदय के अग्रदूतों से विरासत में मिली थी, कि प्राक्-औपनिवेशिक भारत की कृषि अर्थव्यवस्था उतनी परिवर्तनहीन और स्वायत्त ग्राम-समुदायों वाली न होकर विनियम और विनियोजन के कहीं बडे़ संचारतंत्र के साथ जुड़ी हुई थी, कि कृषि तकनीक शताब्दियों से वैसी गतिरुद्ध न थी, जैसी मार्क्स ने समझा था, कि स्वायत्त ग्राम इकाइयों को केन्द्रीय स्तर पर जल-प्रबंधन से जोड़ने वाले निरंकुष राजतंत्र (हाइड्रालिक स्टेट) की धारणा गलत थी, बल्कि छोटे बाँध, उथले कुएँ, स्थानीय तालाब जो कि पारिवारिक और सामूहिक श्रम से तैयार किए जाते थे, उनकी सिंचाई में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका थी जितनी कि केन्द्रीय स्तर पर नियोजित जल-प्रबन्धन की, कि भूसंपत्ति का वैसा अभाव न था जैसा मार्क्स ने समझा था और किसानों के अलग-अलग तबकों का अस्तित्व काफी पहले से था, कि एषियाटिक मोड आफ प्रोडक्शन की धारणा भारत के संदर्भ में ‘अप्रामाणिक‘ है, आदि. महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय समाज के बारे में ये समझ रामविलास शर्मा सन् 1957 में लिखी अपनी पुस्तक ‘सन् सत्तावन की राज्यक्रांति और मार्क्स वाद‘ में ही पूर्वाषित करते हैं, जिस समय तक भारतीय सामंतवाद और मध्यकाल के बारे में मार्क्सवादी इतिहासकारों के महत्वपूर्ण अध्ययन प्रकाशित नहीं हुए थे. रामविलास शर्मा भारत में अंग्रेज़ी राज कायम होने के वक्त एशियाई उत्पादन पद्धति की बात के समर्थन में एक-एक तर्क का विधिवत प्रत्याख्यान करते गए. रामविलास शर्मा ने जोर देकर कहा कि मार्क्स ने एशियाई पद्धति को वैकल्पिक रूप से जगह जगह ‘आदिम साम्यवाद’ भी कहा था और उसका विस्तार उनके मुताबिक़ एशिया तक सीमित नहीं था, बल्कि आयरलैंड तक इसका प्रसार था. मार्क्स के 1853 में लिखे गए पत्र में एशियाई उत्पादन पद्धति की धारणा का सूत्रपात हुआ और मार्क्सवादी हल्कों में यह लम्बे समय तक परिव्याप्त रही. 1960 के दशक में जब इस धारणा का ट्राटस्कीवाद से प्रभावित अध्ययनों में फिर से उभार हुआ तो उन्होंने एक बार फिर’मार्क्स, त्रातास्की और एशियाई समाज’ नामक पुस्तक लिखकर इसका प्रत्याख्यान किया. एशियाई उत्पादन पद्धति को ध्वस्त करना भारत में अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशीलता का मुख्य तर्क था और 1857 को प्रतिक्रियावादी कहने का भी. रामविलास शर्मा ने अपने समकालीन भारतीय मार्क्सवादी लेखकों में भी जहां जहां इस तर्क का प्रभाव देखा, उनसे तीखी बहस की.

भारत के बारे में, अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशीलता के बारे में मार्क्स और एंगेल्स के बदले हुए विचारों की उन्होंने पूरी उद्धरणी ही तैयार कर दी. उन्होंने आयरलैंड पर मार्क्स के अध्ययन के हवाले से इस बात पर भी जोर दिया कि यदि समाजवादी क्रान्ति की भौतिक और आत्मिक परिस्थिति तैयार करने के अर्थ में पूंजीवाद प्रगतिशील था, तो उपनिवेशवाद इस प्रगतिशीलता में बाधा था क्योंकि उपनिवेशों से लुटे हुए माल का हिस्सा देकर विकसित देशों के मजदूरों को भ्रष्ट किया गया था. आज पूंजी के गढ़ों में क्रान्ति आज तक नहीं हो सकी तो इसका एक बड़ा कारण साम्राज्यवादी लूट में वहां के मजदूर वर्गों को हिस्सा दिया जाना रहा है. मार्क्स और एंगेल्स ने उत्तरोत्तर उपनिवेशवाद-विरोधी प्रतिरोधों का समर्थन किया, चाहे वे प्रतिरोध कितने भी पिछड़े हुए समाजों में हुए हों. 1857 की बगावत मार्क्स ने ही ने ही उसे भारत का ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ कहा था. उन्होंने उसका एशिया के उभार के हिस्से के बतौर स्वागत किया जिसकी एक झलक उन्होंने विद्रोह में देखी थी. उन्होंने तो एशिया के जागरण के बगैर किसी विश्वक्रांति को अकल्पनीय माना था और तमाम उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्षों का इसी दृष्टिकेाण से दिल खोलकर स्वागत किया था. 2007 में 1857 के संग्राम की150वी वर्षगाँठ की पूर्वबेला में खुद को प्रगतिशील कह्लेवाले कुछ बुद्धिजीवियों ने नए सिरे से अंग्रेज़ी राज की भारत के लिए महत्ता को रेखांकित किया और 1857 को प्रतिक्रियावादी बताया (देखें जून, 2006 का ‘हंस’ का सम्पादकीय या विभूतिनारायण राय अदि के लेख) पुराने और कब के निरस्त किए जा चुके तर्कों के अलावा नई बात उन्होंने जाती की उठाई. अंग्रेज़ी राज को दलितों के लिए गुणकारी बताया मानो अंग्रेज़ी राज की लूट के फलस्वरूप पड़नेवाले अकालों में मारे गए करोड़ों हिन्दुस्तानियों में दलित न रहे हों, मानो 1857 की बगावत के प्रतिशोध में जो गाँव के गाँव अंग्रेजों ने साफ़ कर डाले उनमें दलित न रहते रहे होंगे, मानो जो दस्तकारियाँ और उद्योग उन्होंने नष्ट किए उनमें दलित न रहे होंगे,जबकि बुनकरों सहित तमाम शिल्पकार जातियां दलित ही थीं. 1857 को ये लोग ब्राह्मणवादी षड्यंत्र बताते हैं. पूछा जाना चाहिए कि अवध में सुरंगों की लड़ाई किन जातियों के लोगों ने लड़ी थी, कुंवर सिंह की सेना के ढेरों नायक किन जातियों के थे, यदि पूरा आरा शहर ही बगावत के आरोप में नामजद किया गया था, तो क्या तब के आरा शहर में दलितों की कोई आबादी थी कि नहीं?. अच्छी बात यह हुई कि खुद दलित साहित्य के भीतर से लोगों ने खोज खोज कर दिखला दिया कि इस विद्रोह के दलित, पिछड़े नायक कौन लोग थे, कि आप हमारे हितैषी बन कर भारत की आज़ादी की लड़ाई में हमारे योगदान हमारी दावेदारी को खारिज न करें.

रामविलास शर्मा यह सवाल उठाते रहे कि यदि अंग्रेजों के आगमन से पहले भारत में बड़े पैमाने पर सौदागरी पूंजी संचित थी, तो औद्योगिक पूंजी के युग में भारत के प्रवेश की संभाव्यता से इनकार नहीं किया जा सकता.

एजाज़ अहमद ने इस लेख में पहले उद्धृत साम्राज्यवाद के समर्थन में बिल वारेन की 1980 में प्रकाशित पुस्तक ‘इम्पीरियालिज्म::पायनियर आफ कैपिटलिज्म’ की आलोचना के क्रम में लिखा ” हम यह भी जानते ही हैं कि 18वीं सदी के आरम्भ में, उपनिवेशवाद द्वारा भारत में निर्णायक युद्धों में जीत हासिल करने तथा भारत में राजसत्ता के संघटन से आतंरिक संकट उत्पन्न होने से पहले, भारत में ‘उत्पादक शक्तियां ‘ इतनी पिछड़ी हुई न थीं जितनी कि साम्राज्यवादी इतिहास-लेखन बताता रहा है. भारत में इतिहासतः निर्मित, सामाजिक रूप से स्थिर अनेक वर्ग थे जो प्राक-औपनिवेशिक निर्माण-उद्योगों और वाणिज्य में लगे हुए थे. भारत के पास पारंपरिक रूप से व्यापार और परिवहन की कुशल व्यवस्था थी जिसमें आतंरिक जहाजरानी और सडकों का व्यापक संजाल शामिल था जिसके चलते थोक मालों की व्यापक आवाजाही थी, पर्याप्त स्तर का नगरीकरण था, सामान मुद्रा व्यवस्थाएं थीं, लम्बी अवधि की परिपक्वता वाले भारी निवेश करने की क्षमता वाले वित्तीय घराने थे,देश के सभी महत्वपूर्ण इलाकों में फ़ैली हुई विभिन्न तरीकों के कार्य में दक्ष श्रमशक्ति थी, गैर-खेतिहर उत्पादनों-धातु-उद्योग से लेकर वस्त्र निर्माण, खनन से लेकर पानी के जहाज के निर्माण तक में असाधारण रूप से विकसित कौशल था. इन सब बातों का निश्चय ही यह अभिप्राय नहीं है कि भारत औद्योगिक पूंजीवाद की अवस्था में पहुँच जाने के मुहाने पर खडा था, लेकिन ठीक इसे तर्क से विचार करें तो ऐसा भी कोई सिद्धांत नहीं है जो यह साबित कर सके कि ब्रिटिश कब्जे के अभाव में भारत (या कम से कम उसके कुछ इलाके) (जापान) की मेईजी क्रान्ति के समतुल्य कोई क्रान्ति नहीं कर सकते थे. दोनों ही संभावनाओ के बारे में निश्चित होना मुश्किल है. (एजाज़ अहमद, ‘इम्पीरिअलिज़्म एंड प्रोग्रेस’ शीर्षक अध्याय, ‘लीनिएजेज़ आफ दी प्रेजेंट; शीर्षक पुस्तक, पृष्ठ-12, तूलिका प्रकाशन, मूल लेख का प्रकाशन 1982 में हुआ)

एजाज़ साहब की ऊपर उद्धृत पंक्तियों से जो निष्कर्ष निकलता है,, वे 1957 में रामविलास शर्मा की लिखी हुई पुस्तक ‘सन सत्तावन की राज्यक्रान्ति’ में ‘अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशील भूमिका शीर्षक पहले अध्याय के उप-अध्याय ‘ग्राम -समाज और सामंती अराजकता” में मिल जाएंगे. 1982 में एजाज़ अहमद ये बातें इतनी निश्चिंतता के साथ लिख रहे हैं की उन्हें स्रोत बताने की ज़रुरत नहीं क्योंकि भारत में सामंती युग के बारे में अब तक इतनी सामग्री खुद भारतीय इतिहासकारों ने उपलब्ध करा दी थीं की वे अकाट्य रूप से सर्वमान्य थीं. लेकिन 1957 में रामविलास शर्मा इतने निश्चिन्त नहीं हो सकते थे. उनके सामने इतने अध्ययन उपलब्ध नहीं थे. भारतीय इतिहास में सामंती दौर और मध्यकाल के बारे में आर.एस. शर्मा, इरफ़ान हबीब, सतीश चन्द्र या हरबंस मुखिया के अध्ययन उनके सामने नहीं थे. (दूसरी ओर भारत में अंग्रेज़ी राज के आने से पहले उसके पिछड़े होने, उसके पिछड़ेपन को ही अंग्रेज़ी राज कायम होने का कारण मानना और अंततः अंग्रेज़ी राज की प्रगतिशील भूमिका को स्वयंसिद्ध मानना एक तरह का कामनसेंस बना हुआ था.) रामविलास शर्मा ने उक्त उप-अध्याय में इन्हीं निष्कर्षों को ओ मैली द्वारा संपादित 1941 की पुस्तक ‘माडर्न इंडिया एंड दी वेस्ट’,क्रुक की 1897 की पुस्तक ‘द नार्थ वेस्टर्न प्रोविन्सेज़ आफ इंडिया’, एनी बेसेंट की 1926 की पुस्तक ‘इंडिया बांड ऑर फ्री’, राधाकमल मुखर्जी की ‘द इकानामिक हिस्ट्री आफ इंडिया, 1600-1800’, जे. डब्लू. के. की 1865 की पुस्तक ‘अ हिस्ट्री आफ सिपोय वार इन इंडिया’, अवध गैज़ेटीयर, न्यूज़ एंड व्यूज़ फ्राम द यु.एस.एस.आर जैसे स्रोतों से निकाले थे. रामविलास शर्मा लगातार इन निष्कर्षों के लिए नए-पुराने प्रमाणों की समीक्षा करते रहे. उदाहरण के लिए 1981 में’भारत में अंग्रेज़ी राज, भाग- 1 व 2′ के में इन्हीं निष्कर्षों को और अधिक विस्तार से उन्होंने एडम स्मिथ, एडमंड बर्क, बर्नियर, मोरलैंड, इरफ़ान हबीब, दादाभाई नौरोजी, एम.एन राय, जेंक्स, मेरठ में कम्यूनिस्ट नेताओं के बयान और रजनी पाम दत्त की पुस्तकों की आलोचनात्मक समीक्षा करते हुए निकाला है.

यह सच है रामविलास शर्मा भारत में औद्योगिक क्रान्ति की संभावना के बारे में इतने नपे-तुले ढंग से नहीं बोलते और उनका झुकाव यही है कि ऐसा होना संभावित था यदि अँगरेज़ नहीं आए होते तो. रामविलास शर्मा व्यापारिक पूंजीवाद को वास्तविक पूंजीवाद की परिधि से बाहर रखे जाने के खिलाफ हैं. (इन बातों का सैद्धांतिक मूल्य क्या है, कहा नहीं जा सकता) प्रश्न यह नहीं है कि व्यापारिक या सूदखोर पूंजी को पूंजी कहा जाए या नहीं. मार्क्स ने खुद ही इन्हें पूंजीवादी उत्पादन पद्धति से पहले मध्यकाल से प्राप्त पूंजी के दो रूप कहा है (पूंजी, भाग -1, अध्याय 31), पूंजी के ये दोनों रूप बेहद अलग-अलग सामाजिक व्यवस्ताओं में अपनी परिपक्वता प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन खुद-ब-खुद पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में तब्दील नहीं हो सकते. पूंजी के ये दो रूप पूंजीवादी उत्पादन पद्धति नहीं कहला सकते, ये सामंती उत्पादन पद्धति की विकसित अवस्था में उत्पादित विनिमय योग्य उत्पादन के प्रसार से सम्बन्ध रखते हैं. पूंजीवाद के लम्बे बचपन में ये रूप रहते हैं.छोटे गिल्ड मास्टर, छोटे कारीगर और यहाँ तक कि उजरती मज़दूर भी लम्बे समय में छोटे पूंजीपति बन जाते हैं, लेकिन औद्योगिक पूंजीवाद व्यापारिक पूंजी के धीमे और स्वाभाविक विकास का परिणाम नहीं है. कारीगर श्रेणियां सौदागरी और सूदखोर पूंजी को औद्योगिक पूंजी बनने से सामंती नियम-कानूनों के ज़रिए रोकती हैं. उदाहर्न्स्वरूप मार्क्स ने डा. आइकिन को उद्दृत करते हुए बताया है कि यहाँ तक कि 1794 तक में लीड्स के छोटे वस्त्र उत्पादकों ने एक प्रतिनिधिमंडल भेजकर इंग्लैण्ड की संसद से एक ऐसा क़ानून बनाने की दरखास्त की थी जो किसी भी व्यापारी को उद्योगपति बनने से रोके.

रामविलास शर्मा जब सौदागरी पूंजीवाद को पूंजीवाद की एक अवस्था के रूप में देखे जाने की मांग करते हैं, तो यह भ्रम होता है की वे व्यापारिक, औद्योगिक और महाजनी पून्जीवादों को एक चरणबद्ध स्वाभाविक विकास मानते हैं,लेकिन जैसा कि मार्क्स ने खुद लिखा, सौदागरी और सूदखोर पूंजी सामंती मध्यकाल में विकसित पूंजी के रूप हैं जो औद्योगिक पूंजी में आप से आप परिणत नहीं हो जाते, लेकिन (औद्योगिक पूंजीवाद) के लम्बे बचपन के दौर में अपनी जगह बनाए रहते हैं, जबतक कि सामंती संबंधों का खात्मा करके इन्हें औद्योगिक पूंजी में रूपांतरित नहीं कर लिया जाता. रामविलास शर्मा खुद भी इरफ़ान हबीब के इस विचार से सहमत हैं कि मुग़ल भारत में सौदागरी पूंजी के विकास से लगता है कि भारतीय अर्थतंत्र काफी आगे बढी हुई मंजिल तक पहुँच गया था लेकिन सौदागरी पूंजी अपने ही विकास द्वारा औद्योगिक पूंजी का रूप नहीं ले सकती. शर्मा लिखते हैं, ” मार्क्स की स्थापना सही है, उसके साथ दो बातें और भी सही हैं. सौदागरी पूंजी के अभाव में औद्योगिक पूंजी का जन्म नहीं होता;उसके जन्म के लिए सौदागरी पूंजी का पहले से विद्यमान होना ज़रूरी है. विनिमय के प्रसार से बाज़ार का निर्माण हो जाने पर ही उद्योग-धंधों को पूंजीवादी ढंग से चलाने की ज़रुरत होती है.'(भारत में अंग्रेज़ी राज और मार्क्सवाद, पृष्ठ. 338) हमने पहले भी कहा कि इन प्रस्थापनाओं के सैद्धांतिक मूल्य के बारे में आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता. महत्व लेकिन इस बात का है कि रामविलास अंग्रेज़ी राज को भारत की नियति के रूप में स्वीकार नहीं करते. यहाँ सवाल आता है इतिहास संबंधी दृष्टिकोण का. क्या इतिहास में जो घटा उसे नियति मान लिया जाय? क्या इतिहास जैसा घटा उससे भिन्न कुछ हो ही नहीं सकता था? शायद सामाजिक शोध प्राविधि में ऐसे प्रश्नों के लिए स्थान नहीं है. लेकिन जातीय चेतना से कैसे बेदखल करेंगे इन सवालों को?

कुछ विद्वान् अंग्रेज़ी राज की स्थापना के समय भारत के भीतर पूंजीवादी क्रान्ति करनेवाली शक्तियों का अभाव मानते हैं. कुछ अंग्रेज़ी राज की स्थापना और इस अभाव के बीच कार्य-कारण सम्बन्ध जोड़ते हैं. मार्क्स के खुद के विवरण में इस तरह के किसी कार्य-कारण सम्बन्ध का कोई इशारा भी नहीं है. उन्होंने तो पूंजी के बाह्य प्रसार को पूंजी के आदिम संचय की बर्बर प्रक्रिया के रूप में ही दिखाया है. इस प्रक्रिया का कोई सम्बन्ध उपनिवेश बनाए गए देशों में निर्मित किसी ऐतिहासिक ज़रुरत से नहीं था. यह ऐतिहासिक ज़रुरत पूंजी के पश्चिमी गढ़ों की थी – औद्योगिक क्रान्ति संपन्न करने लायक पूंजी इकट्ठा करने की. इस सम्बन्ध को मान्यता देने का मतलब है अंग्रेज़ी राज को भारत की नियति मानना, भारत की औपनिवेशिक लूट, जनसंहार, देशी उद्योग-धंधों, नगरों,व्यापार, कारीगरों, किसानों की तबाही, औपनिवेशिक अकालों में करोड़ों हिन्दुस्तानियों की मौत सब कुछ को भारत की नियति मानना. रामविलास शर्मा ने अगर इस धारणा से जीवन भर संघर्ष किया तो इसी लिए कि यह धारणा 1947 में सत्ता-हस्तांतरण के बाद भी अकादमिक हलकों और भारत के बौद्धिकों के बड़े वर्ग में जमी रही और भारत के नव-उपनिवेशवादी शोषण का औचित्य स्थापन करती रही. भारत के पूंजीवादी-सामंती गठजोड़ को प्रकारांतर से बल प्रदान करती रही. विश्व साम्राज्यवाद के आर्थिक तंत्र पर भारत की निर्भरता को तर्कपूर्ण सिद्ध करती रही. अंग्रेज़ी राज को भारत की नियति मानना, भारत की औपनिवेशिक लूट,जनसंहार, देशी उद्योग-धंधों, नगरों, व्यापार, कारीगरों, किसानों की तबाही, औपनिवेशिक अकालों में करोड़ों हिन्दुस्तानियों की मौत सब कुछ को भारत की नियति मानना. रामविलास शर्मा ने अगर इस धारणा से जीवन भर संघर्ष किया तो इसी लिए कि यह धारणा 1947 में सत्ता-हस्तांतरण के बाद भी अकादमिक हलकों और भारत के बौद्धिकों के बड़े वर्ग में जमी रही और भारत के नव-उपनिवेशवादी शोषण का औचित्य स्थापन करती रही. भारत के पूंजीवादी-सामंती गठजोड़ को प्रकारांतर से बल प्रदान करती रही. विश्व साम्राज्यवाद के आर्थिक तंत्र पर भारत की निर्भरता को तर्कपूर्ण सिद्ध करती रही.

आज जब भूमंडलीकृत भारत की अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में वैश्विक पूंजी घुसकर लूटपाट कर रही है, सरकारें बहुराष्ट्रीय कंपनियों और साम्राज्यवादी हितों के हिसाब से नीतियाँ तय कर रही हैं, ढाई लाख से अधिक किसान दो दशकों में आत्महत्या कर चुके हों, प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए लोग बड़े पैमाने पर विस्थापित किए जा रहे हैं, प्रतिरोध करने पर उनका भीषण दमन हो रहा है, वाम शक्तियां राष्ट्रीय स्तर पर हस्तक्षेप की स्थिति में नहीं दिखतीं, वैचारिक कुहासा घनघोर है, तब रामविलास शर्मा के संघर्ष को ज़रूर याद कर लेना चाहिए और साम्राज्यवाद को अपनी ऐतिहासिक नियति मानने से हर भारतवासी को पूरी शक्ति से इनकार कर देना चाहिए, शब्द में भी, कर्म में भी.

 (प्रणय कृष्‍ण। इलाहाबाद युनिवर्सिटी और जेएनयू से अध्‍ययन। प्रखर हिंदी आलोचक। जन संस्‍कृति मंच के महासचिव।  देवीशंकर अवस्‍थी सम्‍मान  से सम्मानित ।)Pranay Krishna, Photo By Vijay Kumar

अपने अपने रामविलास- प्रणय कृष्ण

(“जो लोग कहते हैं कि हिन्दुस्तान में महान और प्रचुर रचनाएँ नहीं हुईं, उन्हें निरुत्तर करने के लिए ‘रानी केतकी की कहानी’ जैसा पुराना उदहारण रखने के बजाय रामविलास शर्मा की सौ पुस्तकें रख देनी चाहिए. जो व्यक्ति १९४९ में व्यापारिक पूंजी की गतिविधियाँ देख कर भारतीय पूंजीवाद की देशज संभावनाओं की तरफ इशारा कर रहा है, वह इतिहास लेखन सम्बन्धी अपनी मौलिक अंतर्दृष्टियों में इरफ़ान हबीब का पूर्वर्ती है. जो व्यक्ति भारत की प्राकौपनिवेशिक आधुनिकता का संधान सत्तर और अस्सी के दशक में ही करने लगा हो, वह नब्बे के दशक में भारत का अर्ली मॉडर्न खोजने वाली इतिहासकार मण्डली का पूर्वर्ती है. जो व्यक्ति १९६१ सामाजिक आधार पर भाषा के विकास की जांच-पड़ताल करने का आग्रह करता हुआ ‘भाषा और समाज’ जैसी विराट पुस्तक लिख रहा था, वह सत्तर के दशक में स्थापित सोशल लिंग्विस्टिक्स की प्रतिष्ठा का पूर्वर्ती है… उनकी कल्पनाशीलता मुख्य तौर पर भारतीय साहित्य और मार्क्सवाद के अध्ययन के जरिये संशोधित हुई थी… वे भारतीय राष्ट्रवाद के सकारात्मक पहलुओं को उभारने वाले ऐसे विद्वान थे जिनकी समीक्षाओं में मार्क्सवाद और राष्ट्रवाद का संश्रय उभरता है. वे तीसरी दुनिया की उन सबसे चमकदार प्रतिभाओं में से एक थे जिन्होंने मार्क्सवाद को युरोकेंद्रियता से मुक्त करके न केवल भारत और हिंदी क्षेत्र के लिए अपना बनाने का कठिन उद्यम किया; पश्चिम और अंग्रेजी की कथित श्रेष्ठता और दंभ से पूरी तरह मुक्त बौद्धिकता का संधान किया; और सबसे अलग और सबसे उपर उठते हुए उन्होंने अपने अहर्निश रचनाकर्म सेदुनिया के सामने चुनौती फेंकी की विचारधारा कोई भी हो, पर पूर्व का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पश्चिम की जमीन से हट कर पूर्व की धरती पर कदम रखना होगा” @ अभय कुमार दुबे
यह वर्ष रामविलास शर्मा का जन्म-शताब्दी वर्ष है. प्रस्तुत है प्रणय कृष्ण का यह पूर्वप्रकाशित लेख, प्रणय कृष्ण का यह लेख रामविलास जी के मृत्युपर्यंत उस समय लिखा गया था, जब कुछ आलोचक रामविलास जी की प्रायोजित आलोचना में संलग्न थे. प्रायोजित पत्रिका-विशेषांक के द्वारा बहस को भटकाने की भरसक कोशिश की गयी थी. प्रस्तुत लेख के बहाने उस समय की प्रायोजित ‘बहसों’ से साक्षात्कार संभव होता है, साथ ही फैलाए गए धुंध को छांटने में भी मदद मिलती है. )

By प्रणय कृष्ण

अक्षरपर्व’ नाम की पत्रिका ने रामविलास जी की मृत्यु के एक-डेढ़ वर्ष पहले तमाम लेखकों-बुद्धिजीवियों को एक प्रश्नतालिका भेज कर उत्तर मंगाए थे। रामविलास जी ने उत्तर न देकर दो-चार पंक्तियों का एक पत्र संपादकों को भेजा जिसमें उन्होंने उस प्रश्न पर एतराज जताया जिसमें भारत की एक हजार साल की गुलामी का जिक्र था। रामविलास जी ने साफ कहा था कि मध्यकाल को वे गुलामी का काल नहीं मानते। जाहिर है उन्होंने प्रश्नतालिका को जवाब देने योग्य न मानते हुए भी उक्त प्रश्न में निहित घातक और गलत इतिहासदृष्टि से एतराज जताना जरूरी समझा। सन् 1999 में कल के लिए’ नामक पत्रिका में दिए गए इन्टरव्यू में रामविलास जी कहते हैं ‘‘मुख्य रूप से इस समय सबसे ज्यादा खतरा हिन्दू सम्प्रदायवाद से है। अमरीका भारत जैसे देश में, तीसरी दुनिया के देशों मेंसिर्फ योजनाओं और उद्योगों से आगे नहीं बढ़ सकता उसको सम्प्रदायवाद की छत्रछाया चाहिए। अमरीका भाजपा का ज़्यादा भरोसा करेगा  कांग्रेस का कम करेगा…तो भारत में फासिज्म का खतरा किस रूप में आएगायह कहना तो बड़ा मुश्किल हैलेकिन जिस रूप में भी आएगावह अमरीका के इशारे के बिना नहीं आ सकता….जो भारतीय फासिज्म है और जो यूरोप का फासिज्म हैहत्या आतंक के दांव पेंच में दोनों में कोई फर्क नहीं है. झूठ बोलने में दोनों में कोई फर्क नहीं है। जो अभियोग इन पर लगाया जा सकता है उससे पहले ही वो दूसरों पर लगा देते हैं। हमने ईसाइयों को मारा इसलिए कि तुमने ईसाइयों को बढ़ावा दिया। इस तरह के दांव-पेंच जैसा कि वहां उन्होंने निशाना यहूदियों को बनाया था कि यहूदी जर्मनी के पतन का मुख्य कारण हैंजैसे यहां के ईसाइयोंमुसलमानों या गैर-हिन्दुओं को पतन का मुख्य कारण बताते हैंयह दोनों में फर्क है।… भाजपा  चाहे जितना मुसलमान का विरोध करेईसाई का विरोध करे, उसका मुख्य शत्रु वामपक्ष हैउन्हें समाजवादियों को समाप्त करना है, यह दोनों की समान धारणा है।’’( आज के सवाल और मार्क्सवाद) जाहिर है कि उपरोक्त लम्बा उद्धरण रामविलास जी के उन्हीं साक्षात्कारों में से एक से दिया गया है जो उन्होंने साम्प्रदायिकता और भाजपा के खिलाफ उसी ‘अन्तिम दशक’ में दिए थे जिसमें प्रकाशित उनकी “प्रायः सभी पुस्तकें ऋग्वेद से शुरू होती हैं।” (नामवर सिंह) यदि यह मान भी लिया जाए कि उनकी इन पुस्तकों की स्थापनाएं ‘‘संघ परिवार के फासिस्ट इरादों को एक हथियार प्रदान कर रही हैं’’ (ना. सि.),तो भी यह मानने का कोई कारण नहीं है कि पाठकों के हाथ रामविलास जी की उक्त पुस्तकें ही लगेंगी और फासीवाद के बारे में उनके निभ्रांत साक्षात्कार किसी जादूगरी से गायब हो जाएंगे। बहरहाल यदि इस बात को भुला दिया जाए कि ऋग्वेद और आर्यों के बारे में रामविलास जी का अध्ययन इहलौकिक और भौतिकवादी दृष्टिकोण से किया गया है (और संसार में कोई प्राच्यवादी ऐसा नहीं करता)तो भी यह कैसे नजरअन्दाज किया जा सकता है कि उन्होंने आर्यों को नस्ल मानने से इनकार किया है  । न केवल अपने विद्वतापूर्ण अध्ययन में बल्कि विकृत करके पांचजन्य (फरवरी सन् 2000) में छापे गए उनके ‘विवादास्पद’साक्षात्कार में भी वे कहते हैं कि ‘‘वर्तमान कुरूक्षेत्र मेंसरस्वती नदी के तट परप्राचीन काल में भरतजन रहते थे। इनके कवियों ने ऋग्वेद के सूत्र रचे थे। दासों से भिन्न उन्होंने स्वाधीन गृहस्थों के लिए आर्य शब्द का व्यवहार किया था । पाश्चात्य विद्वानों ने इस शब्द का व्यवहार  विशेष रंग रूप और शारीरिक गठन वाले मानव समुदाय (Race- नस्ल) के लिए किया। ऐसा कोई मानव समुदाय   भारत में नहीं था। महाकाव्यों के दो नायक राम और कृष्ण अपने श्याम वर्ण के लिए प्रसिद्ध थे। इससे गोरी आर्य नस्ल की धारणा खंडित हो जाती है।’’( आज के सवाल और मार्क्सवाद) जाहिर है कि रामविलास जी की उपरोक्त धारणा कोसाम्बी से लेकर रोमिला थापर तक सभी भौतिकवादी इतिहासकारों से मेल खाती हैजिन्होंने आर्यों को नस्ल न मानकर जन अथवा भाषाई समुदाय प्रमाणित किया है। रामविलास जी का यह कैसा अन्धराष्ट्रवादी प्राच्यवाद’ है जो नस्लीय श्रेष्ठता और रक्त शुद्धता के उस मूलभूत विचार को ही पंगु बना देता है जिसके बगैर किसी भी जर्मनइटैलियन अथवा भारतीय फासिस्ट के लिए आर्यों का मूलस्थान उनके देश में होना सारहीन अन्तर्वस्तु रहित तथ्य मात्र रह जाता है। यहां यह याद दिलाना अप्रासंगिक न होगा कि हेडगेवार के गुरू बीएस. मुंजे, (जो मुसोलिनी से मिलकर भी आए थे), से लेकर एम. एस. गोलवरकर तक ( जिन्होंने हिटलर के जातीय सफाए के माडल की महिमा गाई और उसे अपना एजेंडा भी बनाया)  फासीवाद व नाजीवाद के नस्लीय श्रेष्ठता और रक्त-शुद्धता के प्रतिमानों के भारी प्रसंशक थे। उन्हें सिर्फ ऋग्वेद के प्राचीनतम होने और आर्यों का मूलस्थान भारत होने से संतोष न था। रामविलास जी के आर्य तो वैसे भी इस तरह रहते हैं कि “उनका पूरा समाज योगियों का ऐसा अखाड़ा मालूम होता है जो हर समय कविता करनेगीत गाने और आग जलाकर नाचने में मग्न रहता था। ‘‘(ना. सिं.) रामविलास जी का यह कैसा आक्रामक प्राच्यवाद है जिसके मूल प्रेरणास्त्रोत अर्थात आर्य इतने अनाक्रमक हैं कि ‘‘अश्वों के लिए प्रसिद्ध आर्यों की दुनिया में दिग्विजय के अश्व हिनहिनाते दिखें।’’( ना.सि.) ये कैसे सभ्यता प्रसारक हैं जो तलवार और घोड़ों को त्याग महज कविता करने और गीत गाने में मगन रहे और इनकी सभ्यता का प्रसार भाषा तत्वों के निर्यात की मार्फत व्यापार मार्गों से होता रहा। क्या हिटलरमुसोलिनीगोलवरकर ऐसे आर्योंऐसी सभ्यता और उसके प्रसार के ऐसे अहिंसक तरीकों को जरा भी बर्दाश्त कर पाते?क्या मैक्समूलर और दयानंद भी इस आर्य-मीमांसा से अपना तुक ताल बैठा पाते?क्या वे तमाम मूलतत्ववादी जो वेदों को अपौरूषेय मानते हैं वे रामविलास जी द्वारा वेदों को इंसानों की रचना बताए जाने से अधिक ताकतवर महसूस करेंगे?उपरोक्त प्रकरण में आर्यों को नस्ल न माननामध्यकाल को गुलामी का काल न मानना और आज की तारीख में अमरीकी साम्राज्यवाद की शह पर पनपते भाजपाई फासीवाद के बारे में  रामविलास शर्मा के दो टूक विचारों का उल्लेख मात्र इसलिए किया गया है कि मोटे तौर पर संघ परिवार और रामविलास शर्मा की इतिहासदृष्टि के बुनियादी फर्क को रेखांकित किया जा सकेजिसे रामविलास जी के सामान्य पाठक भी  ‘आलोचना के रामविलास अंक’ के बावजूद आसानी से समझते हैं। जाहिर है कि अब तक तो कुछ कहा गया, वह रामविलास जी की धारणाओं को वैध ठहराने के लिए अथवा विरासत के प्रति अंधश्रद्धा जगाने के लिए नहीं बल्कि अपनी विरासत के प्रति ज्यादा उत्तरदायित्वपूर्ण रवैया विकसित करने की मांग से प्रेरित है। इसके बावजूद भी यदि किसी को यह भय सता ही रहा हो कि रामविलास जी का कृतित्व संघ परिवार के फासिस्ट इरादों को हथियार प्रदान कर सकता है तो यह देखना चाहिए कि कहीं रामविलास के उत्तराधिकारी इतने नालायकपुंसत्वहीन और बंजर तो नहीं है कि अपनी विरासत को खुद ही दुश्मनों को सौंपने को तैयार बैठे हों। जाहिर है कि ‘बंदर के हाथ उस्तरा   देने से भी खतरनाक’ (ना. सिं.) यह नालायकियत ही होगी ।

          आलोचना का रामविलास शर्मा अंक रामविलास जी के कृतित्व का कितना भी तीखा पुनर्मूल्यांकन करताउसमें एतराज की कोई बात न होती। लेकिन इस अंक में कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष रूप से रामविलास शर्मा के उद्देश्य(Motive) को ही संदिग्ध बताया गया है। कहीं सीधे-सीधे ही उन्हें वर्णव्यवस्था का पोषकप्रच्छन्न हिंदुत्ववादीअंधराष्ट्रवादी प्राच्यवाद का प्रचारक अथवा फंडामेंटलिस्ट कहा गया हैतो कहीं यही बातें आरोपों की शक्ल में नहीं बल्कि इशारतनकही गई हैं जिसे अंग्रेजी में   Insinuation  कहते हैं। ऐसा नहीं कि रामविलास जी के जीते-जी उनकी आलोचना न होती रही होलेकिन तब उनकी आलोचना का दायरा बहुत स्पष्ट था। शायद ही कभी उनके सबसे तीखे आलोचकों ने भी उनके कृतित्व में कोई Hidden Agenda ( गुप्त एजेंडा) खोजा हो। पहले भी उनकी इतिहासदृष्टिहिंदी जाति की अवधारणापरंपरा का मूल्यांकनहिंदी नवजागरण संबंधी विचार और उनकी आलोचना पद्धति से लोग न केवल असहमत रहते आए हैं, बल्कि   खुलकर उनकी आलोचना  भी होती रही है। इतिहासकारों ने उनके इतिहास संबंधी लेखन को पहले भी गंभीरता से नहीं लिया है क्योंकि उनके अनुसार रामविलास जी उन उपकरणों का इस्तेमाल नहीं करते जो इतिहास के अनुशासन के लिए जरूरी हैं। इसी तरह उनके भाषा संबंधी अध्ययन भी विवादास्पद रहे हैं। उनके मार्क्सवाद पर आर्यसमाज और राष्ट्रवाद की छायाएं पहले भी देखी गईं थीं। लेकिन उनके अधिकांश आलोचकों ने उनसे यह मानकर ही वाद-विवाद चलाया कि वे एक मार्क्सवादी प्रस्थान बिंदु से काम कर रहे अध्येता से सही विचारों के लिए संघर्षरत हैं। कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथी विचारधारा से अपना लेखकीय कैरियर शुरू करने वाले नरेश मेहता से लेकर निर्मल वर्मा तक ऐसे बड़े हिंदी लेखकों की कोई कमी नहीं रही है जिन्होंने खुले तौर पर दक्षिणपंथ की ओर पाला बदल लिया। प्रसंगवश इन दो ज्ञानपीठ विजेताओं का ही उल्लेख काफी है। ऐसे में रामविलास शर्मा की क्या मजबूरी थी कि उन्हें अपने फंडामेंटलिज्मअंधराष्ट्रवादप्राच्यवादहिंदुत्ववर्णव्यवस्था के पोषण आदि के लिए मार्क्सवाद के आवरण की जरूरत अंत-अंत तक पड़ती रहीखासकर ऐसे समय में जब सोवियत संघ का पतन हो चुका था और भारत की केंद्रीय सत्ता हिंदुत्ववादियों के हाथ में उनके जीते जी आ चुकी थी? ‘आलोचना के रामविलास अंक’ में इतना जनतंत्र है कि हर तरह की विचारधारा रखने वाले और विचारधाराविहीन लोगों को भी खुली छूट है कि वे उस व्यक्ति के साथ जो चाहें सो करें जिसकी बरसी पर यह अंक निकाला गया। संपादकीय निरपेक्षता का ऐसा अनुपम उदाहरण भला और कहां मिलेगा?  कहते हैं कि कबीर के फूल के लिए उनके हिंदू और मुस्लिम अनुनायियों में झगड़ा हुआ था लेकिन (कुछ लेखों को छोड़ दिया जाए तो) यहां शव के अंग-भंग के लिए एक सर्वानुमति हैमानो मूल चिंता यह हो कि साबुत और अविकृत देह कोई न देख पाए। सबके अपने-अपने रामविलास हैं जिन्हें सबने अपने-अपने एजेंडा को बढ़ाने के लिए नकारात्मक रूप से आविष्कृत किया है। विस्तार-भय से हम यहां ऐसे ही कुछ चुनिंदा लेखों पर विचार करेंगे जिनमें यह प्रवृत्ति घनीभूत हैं।

          टीका-कुंकुमवादी आलोचक वागीश शुक्ल को इस बात का रंज है कि रामविलास शम्बूक वध पर नाराज  क्यों हैं और क्यों ब्रह्मज्ञान पर द्विजों के अधिकार के समर्थक होने के कारण वे कालिदास को लताड़ते हैं। वागीश शम्बूक वध का औचित्य सिद्ध करते हुए बड़े परिश्रम से यह बताते हैं कि शम्बूक सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा के कारण दण्डित किया गया और राम के पूर्वज त्रिशंकु को भी इसी कारण दंड दण्ड मिला था। यह अलग बात है कि जिस  अपराध के लिए  शबूक का वध किया गया,उसी अपराध के लिए  त्रिशंकु को वही दण्ड क्यों नहीं मिला, यह बताना वागीश जरूरी नहीं समझते। पूरी नंगई के साथ जघन्यतम ब्राह्मणवाद का समर्थन करते हुए वागीश लिखते हैं ‘‘यहां किसी ऐसी अनाधिकार चेष्टा का दण्ड दिया गया है जिसके विचार और निर्णय में शम्बूक और त्रिशंकु का भेद नहीं है।’’रामविलास पर आरोप यह है कि कलियुग में सभी वर्णों को तपश्चर्या की अनुमति देने वाली वर्ण-व्यवस्था के सामंतवाद को वे इतनी हिकारत से क्यों देखते हैं। भवभूति के उत्तररामचरित के प्रसंग में रामविलास जी ने एक उद्धरण दिया है जिसमें सीता-वनवास के बाद माता कौशल्या द्वारा 12 वर्ष तक पुत्र राम  का मुंह न देखने का उल्लेख है। बाल की खाल निकालने की शैली में वागीश शुक्ल यह साबित करते हैं कि कौशल्या महज यह कहती हैं कि जिस अयोध्या में उनकी बहू नहीं है उसमें वे नहीं लौटेगी। जबकि वागीश स्वयं कंचुकी नामक पात्र के उस कथन को उद्धृत करते हैं जिसमें वह कहता है- ‘‘हे राजर्षि जनक! जिन कौशल्या देवी ने एक जमाने से राम का मुंह देखना बंद कर रखा हैउन बेहद दुःख में डूबी को ऐसे ही गुस्से से आप और दुखी न करिएगा।’’शम्बूकवध की ही तरह सीता परित्याग के औचित्य की स्थापना में तत्पर वागीश बहुत परिश्रम करके भी यह नहीं बता पाते कि सीताविहीन अयोध्या में न जाने का कौशल्या का प्रण और राम का मुंह न देखने का प्रसंग असंबद्ध कैसे है?क्या अयोध्या के सीताविहीन हो जाने के पीछे राम के अलावा कोई अन्य जिम्मेदार था?यदि रामविलास जी कंचुकी के कथन से यह निष्कर्ष निकालते हैं कि जिस हृदयहीन व्यवस्था के तहत राम, सीता को वनवास देते हैं कौशल्या का प्रण उसी व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश हैतो यह असंगत व्याख्या कैसे है? वास्तव में वागीश शुक्ल को सीता परित्याग से लेकर शम्बूक वध तक, सबकुछ औचित्यपूर्ण प्रमाणित करना है और रामविलास की व्याख्या इसमें आड़े आती है। वागीश की विचारधारा को उन लोगों से कोई खतरा नहीं है जो वाल्मीकिभवभूति अथवा कालिदास के साहित्य को पुराणपंथी समझकर खारिज कर देते हैंन ही उनसे जिनके लिए वह पूज्य-पवित्र वस्तु है जिसे अंधे होकर ही पढ़ा जा सकता है। रामविलास शर्मा दरअसल उन क्षेत्रों में भी बेधड़क घुस जाते हैंउन अंतर्विरोधों पर से भी पर्दा हटा देते हैं जिन्हें ढांकने में टीकावादियों को सदियों तक परिश्रम करना पड़ा है। इतना ही नहींबल्कि उनका द्वन्द्ववाद इन निषिद्ध क्षेत्रों से भी जो सार्थक है उसे खींच लाता हैहालांकि कभी-कभी अतिरिक्त भी। इसी तरह रामविलास परंपरा का इहलौकीकरण और विवेकीकरण करते हैं और इसीलिए वे वागीश जैसों के लिए खतरनाक भी हैं।

उधर तुलसीराम रामविलास शर्मा के प्रच्छन्न हिन्दुत्व का लम्बा विवेचन करते हुए इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि ‘‘ब्राम्हण होने की मजबूरी से वे रामविलास निरन्तर ग्रसित हैं,इसलिए तथ्यों को तोड़ना उनकी वैदिक विरासत है।’’एक जमाने में हिन्दू धर्मशास्त्रवैदिक व अन्य संस्कृत ग्रन्थों का पठन-पाठन और उनकी व्याख्या ब्राम्हणों का विशेषाधिकार था। आज एक उलट ब्राम्हणवाद दलितवाद के नाम पर बुद्धकबीरफुलेअम्बेडकर तथा निम्न कही जाने वाली जातियों में पैदा हुए महापुरूषों की विरासत की व्याख्या विशेषाधिकार स्वरूप अपने पास सुरक्षित रखना चाहता है। डा. अम्बेडकर ने ब्राम्हणवाद के गढ़ में घुसकर पवित्र ग्रन्थों की पोल खोलना आजीवन जारी रखा था। शूद्रों की खोज’ नामक ग्रन्थ की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा ‘‘यदि यह मान लिया जाए कि शूद्रों का विषय अन्वेषणीय है तो क्या यह पूछा जा सकता है कि मुझको अन्वेषण का अधिकार है या नहीं?कुछ लोगों ने मुझे चेतावनी  दी है कि मैं हिंदुओं के इतिहास और विधान में दखल न दूं। क्यों?यदि यह कहा जाय कि मैं संस्कृत का पण्डित नहीं तो मैं मानने को तैयार हूं परन्तु संस्कृत के पण्डित न होने से मैं इस विषय पर लिख क्यों नहीं सकता? संस्कृत का बहुत थोड़ा अंश है जो अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध नहीं है।’’इस उद्धरण को देने की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि ज्ञान के क्षेत्र में विशेषाधिकार को चुनौती देने की जगह अम्बेडकर के बहुत से अनुयायी दलित-श्रमण परंपरा पर किसी भी जन्मना ब्राम्हण के अध्ययन को जन्मजात पूर्वाग्रही घोषित करने में ब्राम्हणवाद को भी मात दे रहे हैं। तुलसीराम जी यदि रामविलास शर्मा की आलोचना इस बात के लिए करते हैं कि वे आर्य वैदिक संस्कृत शास्त्रीय परंपरा से अनार्य-अवैदिक-पालि-प्राकृत-लोक परंपरा को मूलतः परस्पर विरोधी न मानकर एक ही परंपरा की खोज की मार्फत नामवर सिंह ने रामविलास जी से यह बहस दशकों पहले ही छेड़ दी थी। लेकिन इस निष्कर्ष तक वे नहीं पहुंचे थे कि रामविलास ने यह सब सचेत रूप से षड्यंत्रपूर्वक ब्राम्हणों के महिमामण्डनवर्णव्यवस्था के औचित्य स्थापन और हिंदुत्व की श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए किया था। ऐसा नहीं है कि ब्राह्मण षड्यंत्र की इस नवब्राम्हणवादी-दलितवादी सैद्धान्तिकी की मार से दूसरी परंपरा वाले बच गए हों। आखिर कबीर के बहाने धर्मवीर के निशाने पर उसी दूसरी परंपरा के अनुयायी हजारी प्रसाद द्विवेदी ही तो हैं। इसके लिए उनका जन्मना ब्राह्मण होना पर्याप्त थाउनके सारे किए धरे की व्याख्या इस एक तथ्य से हो जाती है। तुलसीराम जी यदि तथ्यात्मक आधार पर रामविलास शर्मा की इस स्थापना को खारिज करते हैं कि अंग्रेजों के शासन काल में वर्णव्यवस्था ज्यादा सुदृढ़ हुईतो बहुतेरे लोग उनकी बातों के वस्तुपरक विवेचन के लिए प्रस्तुत रहते। लेकिन जब उसी सांस में तुलसीराम जी यह निष्कर्ष निकाल बैठते हैं कि रामविलास जी की निगाह में वर्णव्यवस्था की कट्टरता के लिए ब्राह्मण दोषी नहीं थे’ तब वे पढ़ने वालों को निपट मूर्ख ही मान रहे होते हैं। यदि रामविलास शर्मा जाति प्रथा को सामंतवाद की देन कहते हैं और तुलसीराम इसमें ब्राह्मणों का दोष सामंतवाद के मत्थे कहते हैं तो तुलसीराम जी सर्वाधिक प्रसन्न तब होंगे जब वर्ण व्यवस्था ही नहीं बल्कि समूची सृष्टि को ही ब्राम्हणों की साजिश मान लिया जाए। कहना न होगा कि वर्णव्यवस्था संबंधी विवेचन में इतिहासअर्थव्यवस्था और सत्ता विमर्श के सारे संदर्भों को त्याग करके महज षडयंत्र के सिद्धांत पर आश्रित हो जाने की सलाह अम्बेडकर ने किसी को न दी थी। तुलसीराम अच्छी तरह जानते हैं कि रामविलास के विपुल लेखन में एक भी पंक्ति ऐसी खोज पाना असंभव है जिसमें वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया गया होउल्टे वर्णव्यवस्था और पुरोहित वर्ग के विरूद्ध सैकड़ों उद्धरण मिल जाएंगे। ऐसे उद्धरण तुलसीराम द्वारा रामविलास को किसी भी तरह से वर्णव्यवस्थावादी सिद्ध करने के मार्ग में भारी बाधा उत्पन्न करते हैं। रामविलास की वर्णव्यवस्था विरोधीपुरोहितवाद विरोधी स्थापनाओं को भी तुलसीराम जी उनकी कुटिलता मानते हैं। रामविलास की वर्णव्यवस्था विरोधीपुरोहितवाद विरोधी स्थापनाओं को भी तुलसीराम जी उनकी कुटिलता मानते हैं। रामविलास की उक्त स्थापनाओं के लम्बे उद्धरण देने की ईमानदारी बरतने के बाद वे कुछ इस शैली में उसकी व्याख्या करते हैं… वे चाणक्य की शैली के ब्राम्हण हैं तथा उस पर प्रगतिशील। उन्होंने इस बात पर विशेष ध्यान दिया है कि कहीं इस ठप्पे की सुर्ख स्याही पुरोहितों के कमण्डल के गंगाजल से धुल न जाएवे उनके विरूद्ध कुछ यथार्थ भी उगल देते हैंवह भी विरोधाभास के साथ।‘‘महाभारत में विश्वामित्र द्वारा चाण्डाल के घर से भूख के कारण कुत्ते का मांस चुराने की घटना का उल्लेख यदि रामविलास जी करते हैं तो वहां भी तुलसीराम जी को षडयंत्र ही नजर आता है। तुलसीराम के अनुसार रामविलास इस घटना का उल्लेख महज इसलिए करते हैं ताकि यह साबित कर सकें कि वर्णव्यवस्था का क्रूर रूप नहीं था। रामविलास शर्मा लिखते हैं- ‘‘पुरोहित वर्ग ने भारतीय संस्कृति के स्रोत ग्रन्थों पर अधिकार कियासामान्य जनता को उनके अध्ययन से वंचित रखा। वेदों को कर्मकांड का ग्रन्थ बनाकर उन्हें पैसा कमाने का साधन बनायासमाज में ऊंच-नीच के भेदभाव को स्थाई बनाने के लिए उनका उपयोग किया।’’रामविलास शर्मा यदि गौतम बुद्ध की विचारधारा को भारत और विश्व के लिए कोसल और मगध के प्राचीन जनपदों की महत्वपूर्ण देन बताते हैं तो इसमें भी तुलसीराम को ‘बौद्धिक धोखाधड़ी’ही दिखाई पड़ती हैक्योंकि रामविलास इन जनपदों और सभी बौद्ध-स्थलों का संबंध उनके अनुसार ऋग्वेद से जोड़ते हैं। तुलसीराम को यह दुःख है कि गौतम बुद्ध की विचारधारा का श्रेय वे खुद गौतम बुद्ध को न देकर वैदिक जनपदों को देते हैं। तुलसीराम जी की इस महान अर्थमीमांसा पर यदि विश्वास करें तो बुद्ध ही नहीं तमाम महामानवों को किसी जनपदकिसी इतिहास अथवा किसी समाज की पैदाइश न मानकर  उन्हें हवा से उत्पन्न स्वयंभू जीव मानना पड़ेगा। आश्चर्य की बात है कि बुद्ध और अम्बेडकर को रामविलास शर्मा जहां भी उद्धृत करते हैं वहां एकाध जगह को छोड़ कर तुलसीराम यह साबित नहीं कर पाते कि उन्होंने गलत उद्धरण दिए हैं। तुलसीराम इन उद्धरणों की अपनी व्याख्या करते हैं और रामविलास शर्मा को इस बात के लिए लताड़ते हैं कि उक्त प्रसंगों की उन्होंने तुलसीराम जैसी व्याख्या क्यों नहीं की जबकि रामविलास के यहां उद्धरण एक तर्कप्रणाली के अंगरूप में आते हैं जिनकी अलग से व्याख्या करने की जरूरत नहीं पड़ती। अम्बेडकर की लिखी शूद्र तथा प्रतिक्रान्ति’ नामक 21 पृष्ठ की पाण्डुलिपि में की गई टिप्पणियों को यदि रामविलास आर्यों के मूलस्थान भारत में होने के अपने निष्कर्ष के समर्थन में उद्धृत करते हैं तो तुलसी राम जी को कोफ़्त होती है। वे अम्बेडकर की लिखी बातों को काट नहीं सकते,इसलिए सलाह देते हैं कि चूंकि आर्यों के मूलस्थान संबंधी प्रश्न अम्बेडकर की चिंता का केन्द्रीय प्रश्न नहीं था लिहाजा इस संदर्भ  में अंबेडकर को उद्धृत करना ही रामविलास की धूर्तता है। आर्य कोई नस्ल नहीं थे बल्कि जनसमुदाय थे तथा आर्यों तथा दस्युओं का भेद नस्ल का न होकर आचार और संस्कृति का था- ऐसी बातें अम्बेडकर के लेखन से जब रामविलास जी निकालते हैं तो तुलसीराम के क्रोध की कोई सीमा नहीं रहती । ऐसे उद्धरणों को वे अम्बेडकर वाड्मय से तो निकलवा नहीं सकते लिहाजा रामविलास के साथ गाली-गलौज करना ही उनके लिए सुविधाजनक पड़ता है। आर्य कोई नस्ल नहीं थे- इस धारणा का जो उद्धरण रामविलास जी अम्बेडकर के हवाले से देते हैं कि जिसके बातें अम्बेडकर की न होकर सातवलेकर की हैं जिसके बारे में फुटनोट में अम्बेडकर ने इंगित करते हुए कहा है कि पूर्ण जानकारी के लिए सातवलेकर द्वारा की गई प्रतिभाशाली बहस को देखें। महत्वपूर्ण यह है कि अम्बेडकर यहां सातवलेकर से कोई असहमति व्यक्त नहीं करते बल्कि उक्त बहस को प्रतिभाशाली भी कहते हैं और तुलसीराम द्वारा तकनीकी मुद्दा उठाए जाने के बावजूद यह तथ्य रह जाता है कि आर्यों के नस्ल न होने की बात को अम्बेडकर विचारणीय मानकर अपने चिन्तन में स्थान देते हैं। तुलसीराम को यदि यह बात गलत लगती है तो उसे रामविलास की बौद्धिक धोखाधड़ी बताने की जगह बेहतर यह होता कि वे यह कहने का साहस जुटा पाते कि ‘यदि अम्बेडकर ने कहा है,तो भी गलत है’।आर्यों को नस्ल सिद्ध करने की हताश कोशिश में वे रिडल्स आफ हिंदुइज्म’ से एक-दो वाक्य बड़ी मेहनत से निकालकर लाते हैं जहां अम्बेडकर ने आर्यों को नस्ल कहकर संबोधित किया है। संघ परिवार के कुत्सा अभियान की चिन्ता से दुबले हो रहे तुलसीराम यहां आसानी से भूल जाते हैं कि आर्यों को नस्ल साबित करना हर तरह के फासिस्टों और संघ परिवार के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है। तुलसीराम के मनोगतवाद के सामने ऐतिहासिक तथ्यात्मकता और वस्तुपरक कथन साजिश मात्र हैं। कबीर साहित्य के प्रभूत अंतःसाक्ष्य यदि उन पर वैष्णव और वेदान्ती प्रभाव सूचित करते हैं तो यह अपराध कबीर का ही हो सकता है न कि उनके अध्येताओं का। लेकिन यहां भी तुलसीराम की जिद है कि कबीर खुद चाहे जो कहेंरामविलास को उन पर प्रत्यक्ष बौद्ध प्रभाव दिखलाना चाहिए था और ऐसा न करके उन्होंने ब्राम्हणवादी होने का परिचय दिया। यदि थोड़ी सी ऐतिहासकिता चेतना का स्पर्श तुलसीराम जी को मिला होता तो खुद वेदांत और वैष्णव अहिंसा पर बौद्ध प्रभाव दिखलाकर वे कबीर को दूसरी परंपरा में अवस्थित कर सकते थे। डा. अम्बेडकर द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करने के लिए धर्मपरिवर्तन शब्द का इस्तेमाल करने पर तुलसीराम बिगड़ खड़े होते हैं और तर्क देते हैं कि चूंकि बौद्ध धर्म भारतीय हैअतः इसे धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर कुत्सा अभियान संचालित करता है। दूसरी ओर भारतीयता के तर्क से संघ परिवार बौद्ध धर्म को हिंदुत्व के भीतर ही अन्तर्मुक्त कर लेता है। तुलसीराम को पुण्यभूमि और पितृभूमि वाली सावरकर की अवधारणाओं को याद कर लेना चाहिए था। अभी हाल ही में श्री रामराज द्वारा दलितों को सामूहिक तौर पर बौद्ध धर्म में दीक्षित करने के लिए दिल्ली में एक विराट सम्मेलन आयोजित किया गया था। शुरू में बौद्ध धर्म की भारतीयता के तर्क से संघ परिवार ने इसका कोई विरोध नहीं किया लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि उस सम्मेलन को ईसाई मिशनरी भी संबोधित करेंगेउन्होंने भारी हंगामा मचाकर इसे प्रतिबंधित करा दिया।

          निष्कर्षतः तुलसीराम जी चले तो थे रामविलास के प्रच्छन्न हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद की पोल खोलने लेकिन कुल मिलाकर उनकी द्वन्द्ववादी ऐतिहासिक पद्धति पर ही अनवरत प्रहार करते-करते अपने ही असमाधेय अंतर्विरोधों में फंसे दिखाई देते हैं।

          पूरन चंद्र जोशी मार्क्सवादी विमर्श में गांधी का बड़े पैमाने परकहना चाहिए कि लगभग विचारधारा के स्तर पर पुनर्वास चाहते हैं। रामविलास जी की सन् 2000 में प्रकाशित  पुस्तक ‘गांधीअम्बेडकरलोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं’ में रामविलास शर्मा की कोशिश है कि इन तीनों की विरासत के प्रगतिशील तत्वों को मार्क्सवादी विमर्श में अपना लिया जाए। रामविलास जी गांधी की क्रांतिकारी विरासत का दावेदार मजदूर वर्ग के दलों को बताते हैं। जोशी जी यह कहते है कि दशकों से चले आ रहे गांधी के बारे में मार्क्सवादियों के मूल्यांकन के बारे में उल्लेख किए बगैर रामविलास जी ने मार्क्सवादी विवेचन द्वारा गांधी के बारे में संशोधन किया है। बेहतर होता कि मार्क्सवादियों द्वारा गांधी के मूल्यांकन की लम्बी परंपरा में जोशी जी स्वयं उतरते और खुद रामविलास जी द्वारा अतीत में गांधी के प्रति रुख का भी विवेचन करते। ऐसा करने से ही वास्तव में उन परिस्थितयों पर प्रकाश पड़ता जिनके कारण 90 के दशक में गांधी-गांधी की गुहार वामपंथी हलकों में भी जोर-शोर से सुनाई देने लगी। वास्तव में गांधी-वध के लिए उत्तरदायी सांप्रदायिक विचारधारा और राजनीति के तेजी से बढ़ने के चलते ही सेक्युलर राजनीति के लिए गांधी की प्रासंगिकता बढ़ गई। गांधी के साथ-साथ लोहिया और अम्बेडकर पर रामविलास जी ने समसामयिक राजनीति के इन्हीं दबावों के चलते ही विचार किया है क्योंकि साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीति के विपक्ष में लोहिया और अम्बेडकर को मानने वाले दल ही हिन्दी क्षेत्र में अगुवाई कर रहे थे। राजनीति में संयुक्त मोर्चा स्थापित करने और निकट अतीत को बेहतर ढंग से समझने के लिए अवश्य ही गांधीअम्बेडकरलोहिया की विरासत मार्क्सवादियों के लिए विचारणीय है। लेकिन विचारधारा एक ही होती है और उसमें समझौते नहीं होते । रामविलास जी यदि गांधी के पूर्व मूल्यांकनों पर खामोश हैं तो कहीं न कहीं वे जानते हैं कि इनते सत्य का अंश भी था। इसलिए वे यह कहना नहीं भूलते कि लोग जिसे गांधीवाद कहते हैं वह गांधी जी के चिंतन का बहुत छोटा सा हिस्सा है और उसके बाहर बहुत कुछ है जो मूल्यवान है। पूरन चंद्र जोशी की तरह रामविलास जी को मार्क्सवादियों द्वारा गांधीवाद के पिछले मूल्यांकनों से यह शिकायत नहीं है कि वे गलत थेबल्कि शिकायत यह है कि गांधी में इससे इतर बहुत कुछ थाजो मूल्यवान है और जिस पर उनका ध्यान नहीं गया। इसी कारण जोशी जी की तरह से गांधी के मूल्यांकन में मार्क्सवादियों की कथित ‘हिमालयी भूलों’को सही कर देने का वैसा विसर्जनवादी उत्साह रामविलास में नहीं दिखता। इसीलिए जोशी जी को यह स्वीकार करना पड़ा है कि रामविलास जी के गांधी-मूल्यांकन मे भी अपूर्णता रह गई हैजिसका संशोधन वे नेल्सन मंडेलाहो ची मिन्ह आदि के उद्धरणों से करते हैं। जोशी जी की गांधी-व्यग्रता हिंदी क्षेत्र में वामपंथ की उसी कमजोरी,पिछलग्गूपन और वर्गसहयोग का परिणाम है जिसके खिलाफ रामविलास ने अन्तिम दशक में भी बहुत कुछ कहा है। वास्तव में रामविलास की गांधी-समीक्षा परंपरा के मूल्यांकन का वैसा ही प्रयास है जैसा वे जीवन भर करते रहे और प्रायः अतिरेकपूर्ण ढंग से,जिसके चलते ही उनके अनुयायियों और विरोधियों दोनों के लिए उनका अन्यथा करण सुलभ रहा।

          रामविलास शर्मा के ‘लोहिया कांड’पर प्रकाश डालने वाले गिरीश मिश्र का भी अपना एजेंडा है। यदि राजनीतिक रूप से सजग पाठ न किया जाए तो यह समझना ही मुश्किल हो जाएगा कि लोहिया के बारे में रामविलास के मूल्यांकन से उनका विरोध कहां और क्यों है। लोहिया के चिंतन का एक बड़ा भाग संघ परिवार को मजबूत करता है,लोहिया ने भूमिसुधारों के लिए संघर्ष नहीं किया, लोहिया अराजकतावादी थे तथा ब्राम्हणवाद विरोध को मुख्य लक्ष्य बनाकर लोहिया ने साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोधी लड़ाई को रोका- रामविलास जी की इन सभी बातों से गिरीश मिश्र जी सहमत हैं। सवाल यह है कि उनकी असहमति कहां है?दरअसल रामविलास से यह बहस संचालित करने के भीतर कार्यनीतिक लाइन की एक अहम बहस संचालित करने के लिए लोहिया के बहाने की क्या जरूरत आन पड़ी। गिरीश मिश्र ने इन शब्दों में अपने अभीष्ठ का खुलासा किया है- ‘‘रामविलास शर्मा भाकपा में उस धारा के साथ थे जो कांग्रेस और साम्राज्यवाद दोनों से लड़ने की बात कहती रही। इसलिए जब लोहिया गैरकांग्रेसवाद को लेकर चलते हैं और पिछड़ी जातियों के नवधनाढ्यों के ऊपर आधारित अपनी नई पार्टी बनाते हैं तथा अंग्रेजी हटाओमूर्ति तोड़ोऔर पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों में 60 प्रतिशत आरक्षण की बात करते हैं तो रामविलास जी का उनकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है,मंडल का क्षणिक तूफान उन्हें अभिभूत कर देता है जैसे सम्पूर्ण क्रांति’ ने अनेक प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के पैर उखाड़ दिए। उनका कांग्रेस विरोध जागा। चलो कांग्रेस गई अच्छा हुआमगर वे नहीं सोचते कि कौन आया उनकी जगहऔर जो आया वह कहां ले जा रहा है देश को’’।कहना न होगा कि रामविलास के कांग्रेसविरोध से चिढ़कर उसे लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद का समानार्थी सिद्ध करने के लिए गिरीश मिश्र ने रामविलास का बड़ा ही श्रमसाध्य अन्यथाकरण किया है। गिरीश मिश्र के कथन के उलट रामविलास ने बारंबार पिछड़ी जाति की नवधनाढ्य राजनीति पर चोट की है। आरक्षण और मंडल कमीशन का समर्थन न करने के लिए तथा वर्ग और जाति के अन्तर्संबंधों के बारे में सरलीकृत ढंग से सोचने के लिए उनकी आलोचना भी होती रही है। लेकिन गिरीश जी के लिए इन तथ्यों का कोई महत्व नहीं है क्योंकि उन्हें वामपंथ के कांग्रेस-मोह का औचित्य सिद्ध करना जरूरी है। आइए देखें कि वास्तव में रामविलास पिछड़ी जाति की नवधनाढ्य राजनीतिमंडल कमीशन ने जो रिपोर्ट बनाईउसमें कुछ सामग्री टाटा इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं की दी हुई थी। कमीशन ने इन शोधकर्ताओं को यह समस्या दी थी कि आरक्षण का इतना विरोध तमिलनाडु में नहीं हुआ जितना उत्तर भारत मेंइसका कारण क्या है?तो उन्होंने एक बहुत खोजपूर्ण बात कही कि पिछड़ी जातियों के लोग ज्यादातर हरिजनों का शोषण करने वाले लोग हैं। इनमें ज्यादातर हरिजनों धनी किसान हैं। ये हरिजनों से बेगार कराते हैं। पुराने तरीकों से उनसे काम लेना चाहते हैं। और वे जब काम नहीं करते तो उन्हें  मारते-पीटते हैंउन्हें जिन्दा जला देते हैं। ये जो आए दिन अछूतों की कहानियांसुनने को मिलती हैं- बलात्कार वगैरह की या जिन्दा जलाकर मार डालने की कहानियां तो ये अत्याचार करने वाले कौन हैं? ये ज्यादातर धनी किसान हैं जो उनकी मेहनत से फायदा तो उठाना चाहते हैं लेकिन उन्हें पगार नहीं देना चाहते।’’(आज के सवाल और मार्क्सवाद पृष्ठ-179) रामविलास आगे कहते हैं ‘‘बहुत से लोग जो सामाजिक न्याय की बात करते हैं,धनी किसानों के वर्ग से आते हैं और उनका स्वार्थ इस बात में हैं कि जाति बिरादरी के नाम पर गरीब किसानों और खेत मजदूरों को विभाजित रखा जाए,इनमें   एकता कायम न हो।’’(वही, पृष्ठ 181)

रहा कांग्रेस के बारे में वामपंथ के रूख का सवाल तो रामविलास न तो अंधकांग्रेस विरोधी हैं और न ही कांग्रेस-भाजपा के प्रति समान दूरी के पैरोकार। रवींद्र त्रिपाठी को दिए एक साक्षात्कार में वे कहते हैं- ‘‘देश की राजनीति में दो ताकतवर सिद्धांत हैं। एक है कांग्रेस और भाजपा को समान शत्रु समझने का और दूसरा है कांग्रेस को मुख्य शत्रु मानकर भाजपा के पास जाने का। डा. लोहिया ने हिंदू धर्म और संस्कृति पर जो कुछ लिखा हैउसका निष्कर्ष यह है कि कांग्रेस को हराने के लिए परोक्ष रूप से साम्राज्यवाद और प्रत्यक्ष रूप से संप्रदायवाद का समर्थन करता है। इसी नीति का अनुकरण करते हुए जार्ज फर्नांडीज वहीं पहुंच गए जहां उन्हें पहुंचना चाहिए था और मुलायम यादव सचेत न रहे तो वे भी उसी मुकाम पर पहुंचेंगे।’’ (वही, पृष्ठ 260-61) उपरोक्त उद्धरणों के आलोक में गिरीश मिश्र की स्थापनाएं और भी अबूझ मालूम देती हैं। रामविलास संभवतः कांग्रेस को वैसी क्लीन चिट’ नहीं देना चाहते जैसी बहुत से वामपंथियों को दरकार है,लेकिन आमतौर पर उनकी धारणा मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टियों विशेषकर सी.पी.एम. के कांगेस के प्रति रूख से नजदीक है। आइए देखें कि रामविलास इस बाबत क्या राय रखते हैं- ‘‘कांग्रेस मूलतः औद्योगिक पूंजीवाद की प्रतिनिधि है। यह देश का आर्थिक विकास चाहती है और उसके लिए बड़े पूंजीवादी देशों से आर्थिक सहायता भी लेना चाहती है। उसकी आर्थिक परनिर्भरता का पक्ष है। पहला पक्ष विदेशी पूंजी के विरोध का है और देश के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता चाहता है। दूसरा पक्ष विदेशी पूंजी से समझौता करने का पक्षधर है। यह आर्थिक परनिर्भरता का पक्ष है। कम्युनिस्ट पार्टियों को चाहिए कि कांग्रेस के पहले पक्ष को समर्थन दें और दूसरे  पक्ष का विरोध करें… जिस तरह कांग्रेस कभी-कभार सांप्रदायिक ताकतों के साथ समझौता करती है पर वह मूलतः सांप्रदायिक पार्टी नहीं है. जिस तरह कांग्रेस कभी कभार साम्राज्यवाद से और कभी-कभार सामंतवाद से समझौता करती है उसी तरह कभी-कभार सांप्रदायिकता से।’’(वही, पृष्ठ 259-60) कांग्रेस संबंधी रामविलास जी के मूल्यांकन की समीक्षा का यह अवसर नहीं हैलेकिन कम से कम वे इतना सब कुछ तो नहीं मानते जो गिरीश उनसे मनवाना चाहते हैं।

          रामविलास जी के मूल्यांकन में भले ही दृष्टिकोण की अनेकान्तता और सारसंग्रहवाद आलोचना के रामविलास अंक में दिखाई देता हो लेकिन केन्द्रीय बात भी एक है- वह है उनका इतिहास लेखन और परंपरा का मूल्यांकनजिसके आधार पर उनके उद्देश्यों को संदिग्ध बताया गया है। यह मानने में शायद बहुत आपत्ति नहीं है कि वे न तो पेशेवर इतिहासकार हैं और न ही इतिहासलेखन की अद्यतन प्रविधियों का वे इस्तेमाल ही करते हैं। देखना यह होगा कि जिन भी प्रविधियों का इस्तेमाल वे कर रहे हैं उनके पीछे की राजनीति क्या है। जैसा कि इस आलेख के आरंभ में ही उद्धृत किया गयावे इस मामले में निर्भ्रांत हैं कि साम्राज्यवाद की शह के बगैर हिन्दुत्व की राजनीति और फासीवाद उभार देश में संभव नहीं है,उनका मूल प्रस्थान बिंदु साम्राज्यवाद से बौद्धिक मोर्चे पर लड़ते हुए भारतीय इतिहास और परंपरा के उपनिवेशवादी भाष्य को ध्वस्त करना है। इतिहास दर्शन’ नाम की पुस्तक के प्रथम अध्याय में वे अपने मूल प्रस्थान बिंदु को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘‘भारतपश्चिम एशिया और योरप के भाषाई और सांस्कृतिक इतिहास को समझने में सबसे बड़ी बाधा भारत पर आर्यों के आक्रमण का अवैज्ञानिक सिद्धांत है,यह सिद्धांत उस ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की देन है जिसका विकास उन्नीसवीं सदी में योरोपियन जातियों के साम्राज्यवादी प्रसार के दौर में हुआ था…योरप की हमलावर जातियों ने उत्तरी,मध्य और दक्षिणी अमरीका की विकसित संस्कृतियों का नाश किया,मूल निवासियों का सामुदायिक संहार करके उनकी भूमि छीन ली,उस पर स्वयं बस गए,बचे हुए आदिवासियों को जंगलों और पहाड़ों में खदेड़ दिया। अपने कारनामों का यह नक्शा उन्होंने प्राचीन भारत के इतिहास पर चिपका दिया।’’

          जाहिर है कि उपरोक्त कथन में रामविलास जी की राजनीति स्पष्ट है। सवाल यह नहीं है कि रामविलास जी आर्य-वैदिक इतिहास के विषय में जो कुछ भी स्थापित करते हैंवह कितना वैज्ञानिक है,बल्कि मुख्य बात यह है कि उपरोक्त प्रस्तावना में उन्होंने अपनी राजनीति से संबद्ध किया जा सकता है?क्या जैसा कि इस लेख के आरंभ में ही कहा गया कि आर्यों की नस्लीय श्रेष्ठतारक्तशुद्धता और विश्वविजेता आक्रान्ता छवि का निषेध किसी भी तरह से संघ परिवार बर्दाश्त कर पाएगा?क्या रामविलास का बहुजातीय बहुधर्मीबहुभाषीय भारत कहीं से भी हिन्दुत्व के अभियान का सहयोगी हो सकता है?यों तो संघ परिवार भी कथित रूप से विदेशियों द्वारा अपने देश के इतिहास के विरूपण से देशवासियों को बचा ले जाने के लिए पाठ्यक्रम बदल रहा है लेकिन यहां विदेशियों में मध्यकाल के मुस्लिम इतिहासकार ही नहींबल्कि इतिहासपुरूष भी शामिल हैं। क्या संघ परिवार रामविलास द्वारा मध्यकाल को गुलामी का काल मानने से इन्कार करने से सहमत होगा?

जिस मध्यकाल में संघ वालों को मंदिर ध्वस्त और मां-बहनों के अपमान के शिवा शायद ही कुछ सकारात्मक दिखता होवहां सही या गलत जातीय विकास और राजसत्ता के हस्तक्षेप से व्यापारिक पूंजीवाद की उन्नति देखने वाले रामविलास का क्या मेल हो सकता है? हिंदुत्व के पुनरूत्थान के हथियार के बतौर सभी भाषाओं की जननी के रूप में संस्कृत का इस्तेमाल इन दिनों संघ परिवार द्वारा जोर-शोर से जारी है। क्या ऐसे में यह याद कर लेना अवधारणा को निरस्त करना भी रामविलास शर्मा ने अपना कार्यभार समझा था और अपने जीवन के अमूल्य डेढ़ दशक यों ही सर्फ नहीं कर दिए थे ?

          बुनियादपरस्ती या मूलतत्ववाद जाहिरा तौर पर धार्मिक संदर्भों में ही अर्थवान प्रत्यय हैं। रामविलास शर्मा ने न तो सृष्टि का आरंभ आर्यों से माना है और न ही भाषा का आरंभ संस्कृत से। रामविलास शर्मा के इतिहास चिंतन और परंपरा के बोध में एक ही मूल का पल्लवन दिखलाकर उसे धार्मिक अभियान की तरह प्रस्तुत करना निःसंदेह एक भयानक अन्यथाकरण हैजो सही ढंग की पालिमिक्स के आगे ताश के महल की तरह ढह जाएगा। इतना ही याद कर लेना पर्याप्त होगा कि अनेक कबीलों द्वारा अनेक स्रोतों से प्राप्त भाषातत्व गणसमाज में जाकर स्थिरता प्राप्त करते हैंआर्य और द्रविण समुदाय के भाषिक तत्व मूलतः किस समुदाय के हैं, यह तय करना मुश्किल है आदि बातें रामविलास के भाषा चिंतन के केन्द्र में है। भारतीय इतिहास में हजारों साल से जारी नृवंशीय, धार्मिक,सांस्कृतिक,तकनीकी सम्मिश्रण और संकरता का रामविलास ने कहां तिरस्कार किया हैयह बताए बगैर उन्हें मूलतत्ववादी कहकर किसी को निकल जाने नहीं दिया जा सकता। यदि एक ही आर्य-वैदिक मूल का पल्लवन ही उनका उद्देश्य होता तो मध्यकाल तो क्या,प्राचीन भारत का भी एक बड़ा हिस्सा उनके लिए अश्पृश्य हो जाता। क्या राष्ट्रीय अस्मिता या भारतीयता के संदर्भ में कहीं भी रामविलास शर्मा ने एक भाषा,एक धर्म,एक नस्ल के सिद्धांत को मान्यता दी?  यदि नहीं,तो उनके मूलतत्ववाद का मूल तत्व क्या है?

रामविलास शर्मा की निःसंदेह एक राजनीति है और उसके पूर्वाग्रह भी हैं। पराधीन भारत में पैदा हुए पहली पीढ़ी के एक  देशज मार्क्सवादी की राजनीति और उसके पूर्वाग्रहों को जिन ऐतिहासिक परिस्थितियों ने निर्मित किया था,उन पर एक निगाह डाल लेना उन तमाम सरलीकरणों और अन्यथाकरणों से रामविलास के आलोचकों को बचा ले जाता जो अकादमिक हलकों के नित नए फैशनों से उत्पन्न होती है।

रामविलास शर्मा के इतिहास लेखन के राजनीतिक उद्देश्यों और उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए उपकरणों को समझने के लिए 19वीं शताब्दी के आखीर और बीसवीं शताब्दी के पहले चार दशकों तक भारतीय इतिहास-लेखन के संदर्भों को समझना जरूरी है। भारतीय इतिहास-लेखन की मूल प्रेरणा इन दिनों भारतीय अस्मिता का रचनात्मक निर्माण था जिसके लिए इतिहास और साहित्य दोनों ही अनुशासन एक दूसरे से वर्चस्व की लड़ाई में भी उलझे रहे थे साथ ही एक दूसरे की पद्धतियों को भी अपना लिया करते थे। इस दौर के इतिहास लेखन की प्रेरणा को यदि सुदीप्तो कविराज के शब्दों में कहा जाए तो ‘‘किसी जाति की आत्मछवि या अस्मिता का बुनियादी कार्य है उस जाति द्वारा स्वयं को एक इतिहास देना’’।इन दिनों भारत के प्राचीन अतीत के आविष्कार का मुख्य उद्देश्य उस औपनिवेशिक तर्कपद्धति का मुकाबला करना था जिसके अनुसार भारत राष्ट्रीयता के बोध से रहित कुछ ही समय पूर्व अस्तित्व में आया महज एक भौगोलिक क्षेत्र था। रामविलास शर्मा ने प्राच्यवादियों की तरह प्राचीन भारत का आध्यात्मीकरण नहींबल्कि इहलौकिककरण किया है। प्राचीन वैदिक गण समाजों के अध्ययन की उनकी पद्धति एंगेल्स के माडल पर आधारित है किसी प्राच्यविद के माडल पर नहीं। यहां यह भी याद कर लेना प्रासंगिक होगा कि पूरी दुनिया में 19वीं सदी तक इतिहास-लेखन अभी भी पद्धतियोंउद्देश्यों और मानकों के लिहाज से वैविध्यपूर्ण बना हुआ था।

एक ओर विश्वविद्यालय आधारितअभिलेख-केन्द्रितपेशेवर और आधुनिक अकादमिक अनुशासन के रूप में इतिहास की संकल्पना विकसित हो रही थी जहां प्राथमिक स्त्रोतों के गहन अनुसंधान हो रही थी जहां के द्वारा निष्पक्ष और निस्संग तरीकों से ऐतिहासिक सत्य का उद्घाटन इतिहासकार का दायित्व समझा गया,वहीं दूसरी ओर इतिहास के प्रवाह को अमूर्त दार्शनिक चिंतन की तरह समझने की एक धारा जर्मनी में चल रही थी। फ्रांसीसी क्रांति से उत्पन्न एक रूमानी और राष्ट्रीयतावादी रुझान के साथ इतिहास की एक तीसरी धारा बेहद प्रचलित थी। इस धारा का एक नमूना टी.बी. मैकाले का इंग्लैण्ड का इतिहास’ थाजो उपनिवेशों में नियमित तौर पर पाठ्यपुस्तक के रूप में पढ़ाया जाता था। बेनेडिक्ट एंडरसन ने साम्राज्यवादी सरकारी राष्ट्रवाद’ की  उस विडंबना को उचित ही रेखांकित किया हैजिसके तहत उनके द्वारा योरोपीय श्रेष्ठता और प्राच्य असभ्यता के आख्यान पर आधारित इतिहासों ने उपनिवेशों के पराधीन लोगों की चेतना पर गहरा असर डाला। नतीजे में पराधीन देशों में इसी माडल पर अपने-अपने राष्ट्रीय इतिहास विकसित हुए जो मिल और मैकाले की योरोपीय श्रेष्ठता और प्राच्य असभ्यता की थीसिस के विरूद्ध राष्ट्रीय आत्मगौरव से परिचालित थे। कहना न होगा कि भारत में भी यही प्रक्रिया चल रही थी। यह ऐसा दौर था जिसमें एक ओर जदुनाथ सरकारमो. हबीबगौरीशंकर हीरानंद ओझा आदि पेशेवर इतिहासकार पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे थे, वहीं दूसरी ओर बड़े पैमाने पर भारत के गौरवशाली अतीत के पुननिर्माण से प्रेरित साहित्यिक लोग इतिहास के विषयों पर लोकप्रिय ढंग से लिखा करते थे। इंडियन एंटिक्वेरीएशियाटिक रिसर्चेजजर्नल आफ दि एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल जैसी नामी-गिरामी शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से लेकर रामायणमहाभारतहर्षचरितराजतरंगिणी तक को न केवल साहित्यिक लोगों द्वारा बल्कि ओझा जी जैसे इतिहासकारों द्वारा भी इतिहास का स्त्रोत ही नहीं बल्कि स्वयं इतिहास मान लिया जाता था। औपनिवेशिक इतिहास लेखन के विरूद्ध भारत के महानीकरण पर आधारित पेशेवर इतिहासकारों द्वारा और साथ-साथ साहित्यकारों द्वारा लोकप्रिय इतिहासलेखन 20वीं शताब्दी के चौथे दशक तक जारी रहा। यहां एक अनुशासन के रूप में इतिहास का अर्थ ही था जति की राष्ट्रीयता को फिर से प्राप्त करना। इतिहास का ऐसा ही उपयोग भारतेन्दु से लेकर प्रसाद के नाटकों तथा वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यासों तक में देखा जा सकता है।

          रामविलास शर्मा का इतिहास लेखन एक ऐसा क्षेत्र है जहां 19वीं शती में विकसित रूमानी और राष्ट्रवादी चेतना तथा अध्ययन संस्कार और बाद के दौर में विकसित ऐतिहासिक-भौतिकवादी-द्वन्द्ववादी मार्क्सवादी इतिहासदृष्टि सतत संघर्षरत है। यह संघर्ष उनके इतिहास-लेखन के उद्देश्योंमानकोंप्रविधियों सभी स्तरों पर देखा जा सकता है उनके इतिहास-लेखन की पद्धति पर उस       का प्रभाव स्पष्ट है जो उस समय प्रकाशित होने वाले इंडियन एंटिक्वेरी आदि शोध पत्रिकाओं में लिखने वाले भारतविदों और प्राच्यवादियों द्वारा अपनाई जाती थी। आमतौर पर वेदउपनिषदमहाकाव्य आदि संस्कृत स्रोतों का विश्लेषण होता था। जहां कहीं लोक और जनजातीय परंपराओं का निर्माण ही अभीष्ट था। भारतविद्या और प्राच्यविद्या में भारत का महानीकरण और प्राच्य समाजों की असभ्यता और बर्बरता की परस्पर विरोधी अवधारणाएं संघर्षरत दिखती हैं जो अक्सर इंग्लैंण्ड की कंजरवेटिव और लिबरल धाराओं की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा से भी प्रभावित होती थीं। इतिहास चिंतन की मूलपाठ के विश्लेषण की परंपरा का गहरा संबंध 19वीं शती के उस राष्ट्रवादी विमर्श से है जिसमें एक भाषाएक धर्म और एक संस्कृति की एक धारा जो जर्मनी में विकसित हुई उसमें आर्य नस्ल की श्रेष्ठता का केन्द्रीय महत्व है। इंग्लैण्ड में विकसित राष्ट्रवाद की दूसरी धारा लोकतांत्रिक मूल्योंमैग्नाकार्टासंसदीय लोकतंत्र और प्रजातांत्रिक संस्कृति को राष्ट्रीय गौरव का मुख्य आधार बनाती है। अमरीका वगैरह में योरोपीय अप्रवासियों द्वारा विकसित क्रियोल राष्ट्रवाद की एक तीसरी धारा भी थी। दुनिया भर में राष्ट्रवाद का विकास इन्हीं तीन धाराओं के आपसी संक्रमण से निर्मित बताया जाता है।

          जैसा कि ऊपर कहा गयारामविलास शर्मा की ऐतिहासिक पद्धति पर   का गहरा असर है जिसका संबंध भारतविद्या और प्राच्यविद्या से स्पष्ट है। इन्हीं पूर्वाग्रहों के चलते वे एक इतिहासकार की अपेक्षतया निष्पक्ष पेशेवराना दृष्टि नहीं अपना पाते। अपने इतिहास-चिंतन में साम्राज्यवाद से निपटने के उत्साह में वे विरासत में मिले प्राच्यवादी संस्कारों से निपटे बगैर ऐतिहासिक भौतिकवादी-द्वन्द्ववादी पद्धति जो उन्होंने टकराहटों में उनके इतिहासबोधपरंपरा का मूल्यांकन और यहां तक कि आलोचना दृष्टि का भी निर्माण हुआ है। वर्गीय विश्लेषण के  ऊपर जातीय निर्माण की प्रक्रिया को भक्तिकाल और नवजागरण  के प्रसंगों में तरजीह देनाउनके उसी साम्राज्यवाद-विरोधी पूर्वाग्रह का परिणाम है जहां पद्धति निष्कर्षों से प्रभावित होती है न कि निष्कर्ष पद्धति से।

उनका मार्क्सवादी चाहे जितना मोटा हो और चाहे जितने बड़े सामान्यीकरणों को जन्म देता होउनके इतिहासलेखन का माडल वही हैपद्धतिगत विरासत के बावजूदप्राच्यवाद उनका मूल्यबोध नहीं है। मूलभाषा या जननीभाषा की अवधारणा का खंडनसंस्कृत की जगह जन भाषाओं पर अधिक बल,बहुजातीय-बहुधर्मी-बहुभाषिक राष्ट्रका माडल ऐसे ही तत्व हैं।19वीं और 20वीं शताब्दी के गैर-पेशेवर लोकप्रिय इतिहास-लेखन और पेशेवर कहे जाने वाले राष्ट्रवादी इतिहास लेखनदोनों में प्राचीन भारत के गौरवशाली अतीत के निर्माण के साथ-साथ भारत की गुलामी और नैतिकसामाजिकआर्थिक सभी प्रकार के अधःपतन के लिए मुस्लिम मध्यकाल को जिम्मेदार ठहराया गया है। प्राच्यवादी राजनीति का माडल इतिहास बोध यही है। गौरीशंकर ओझापंसुंदर लाल से लेकर आर.सी. मजूमदार जैसे पेशेवर इतिहासकार और भारतेन्दु से लेकर चतुरसेन शास्त्री जैसे इतिहास का उपयोग करने वाले ऐतिहासिक भौतिकवाद ही है जो रामविलास शर्मा को इस इतिहास बोध के खिलाफ प्रखरता के साथ खड़ा करता है। मूलतः साहित्य के क्षेत्र के ऐसे लोग जो इतिहास के घालमेल से इतिहास और मिथक की विभाजनरेखा को धूमिल कर देते थे, ऐसे ही लोगों ने न कि अकादमिक को गढ़ा है। रामविलास शर्मा साहित्यिक क्षेत्र के पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने इस परिघटना को समझा और अपने इतिहासलेखन को स्पष्टतः साहित्य से अलगाया। मुस्लिमद्वेष और प्राच्यवादियों को भारत के गौरवशाली अतीत उपलब्ध कराने का श्रेय देने और कृतज्ञता ज्ञापन पर आधारित इतिहासबोध, जो प्रधानतः साहित्य के माध्यम से हिंदी समुदाय का कामनसेंस बना हुआ है उसे रामविलास का इतिहास-लेखन लोकप्रिय तरीके से ध्वस्त करता है। यहां यह याद कर लेना भी प्रासंगिक होगा कि हिटलर के समय आर्यों की नस्लीय श्रेष्ठता पर आधारित फासीवादी जर्मन राष्ट्रवाद से प्रभावित होने वालों में टी. एस. इलियट और एजरा पाउण्ड जैसे महान साहित्यकार भी शामिल थे। साहित्य और संस्कृति की अपनी प्रक्रिया में स्मृति, मिथक, स्वप्न आदि का महत्व होता है। इस जमीन से इतिहास की ओर दृष्टिपात करने वाले अक्सर खतरनाक इतिहास बोध तक पहुंचते हैं। एजरा पाउण्ड हों अथवा निर्मल वर्मा, इस नियति तक पहुंचते ही हैं। रामविलास शर्मा पर प्राच्यवाद के संस्कारों को रेखांकित करने वाले आलोचकों का दायित्व बनता था कि वे यह दिखलाते कि प्राच्यवाद की भयानक फासिस्ट और सांप्रदायिक साम्राज्यवादी परिणतियों के खिलाफ रामविलास शर्मा को समझौताविहीन ढंग से खड़ा करने वाला तत्व क्या है। वास्तव में यही उनकी हम ऐतिहासिक द्वन्द्ववादी भौतिकवादी आज भी कहना पसन्द करेंगे।

(पहली बार समकालीन जनमत, जनवरी-मार्च, 2002 में प्रकाशित, बाद में ‘समकालीन चुनौती के संयुक्तांक ५-७, वर्ष ३, अक्टूबर २०११- जून २०१२  में पुनर्मुद्रित)

(प्रणय कृष्‍ण। इलाहाबाद युनिवर्सिटी और जेएनयू से अध्‍ययन। प्रखर हिंदी आलोचक। जन संस्‍कृति मंच के महासचिव।  देवीशंकर अवस्‍थी सम्‍मान  से सम्मानित ।)

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