कबीर का करघा और मुक्तिबोध का वामपंथी इन्टेलेक्ट: विष्णु खरे

यह बात-चीत इसी साल जनवरी की है. मौका था जयपुर समानांतर साहित्य उत्सव का. विष्णु खरे भी वहां आये हुए थे. बात-चीत में अनिल यादव, रवि प्रकाश, सुधांशु, अविनाश और उदय शंकर भी शामिल थे. # मार्तंड प्रगल्भ

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साहित्यकार विष्णु खरे. (जन्म: 9 फरवरी 1940 – अवसान: 19 सितंबर 2018) (फोटो साभार: हिंदी कविता/यूट्यूब

 

 

विष्णु खरे के साथ एक अधूरी बातचीत: मार्तंड प्रगल्भ

प्रश्न मुक्तिबोध को लेकर अभी जो उत्सव चल रहा है, और जैसा कि मनमोहन कह रहे थे कि यह उत्सव और विस्मृति दोनों का साथ-साथ चलना है, यह दोनों दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, तो इसी सिलसिले में इन सब के बीच मुक्तिबोध को लेकर आपकी अपनी जीवन-प्रक्रिया और रचना-प्रक्रिया में ही जो अनुभव रहे हैं उसे थोड़ा साझा करते हुए, उनसे जो पहली मुठभेड़ है, उसे बताएं!

वि.ख. मुक्तिबोध का जो पहला संग्रह आया था तो मैं शायद उसे पहले पढने वालों में से एक था. बाद में मैंने अपने कॉलेज, रतलाम कॉलेज में एक छात्र से उसपर एम्.फिल. भी करवाया था, हिंदी में. वह मुक्तिबोध पर पहला एम्.फिल. है, पैंसठ में. कहने का मतलब है कि मुक्तिबोध का बहुत गंभीर प्रभाव मुझ पर तभी था. मुक्तिबोध का असर कोई नयी चीज़ नहीं है. मेरे यहाँ तो अभी तक चालू है. अभी कम नहीं हुआ है. उसकी वजह शायद यह है कि मैं खुद लिखने वाला हूँ और मैं एक कमिटेड राइटर भी हूँ, मुक्तिबोध हमारे लेखक हैं. हमलोग वामपंथी लोगों के वे कवि हैं. तब से लेकर अब तक मुक्तिबोध मेरे जीवन में और मेरे लेखन में केन्द्रीय रहे हैं. लेखन माने उनका जो आईडियोलॉजिकल असर है, उनका कमिटमेंट है, वह हमारे लिए एक लाइट हाउस की तरह है. हांलांकि यह भी सच है कि मुक्तिबोध की आमद के पहले ही मैं वामपंथी था. मुक्तिबोध से मेरे वामपंथ को ताकत मिली है. मैं उनको पढ़ कर वामपंथी नहीं हुआ. मैं पहले से था. मुझ पर मैक्सिम गोर्की का असर था. मुक्तिबोध बाद में आते हैं. लेकिन आजतक मुक्तिबोध के बिना मैं कुछ भी साहित्यिक सोच नहीं पाता. यह एक तरह से ऐसी उपस्थिति है जो कभी कम नहीं होती है.

प्र. मुक्तिबोध की राजनीतिक प्रतिबद्धता निश्चित रूप से एक लम्बे ट्रेडीशन में है. वामपंथ एक वैश्विक परम्परा थी जिससे मुक्तिबोध अपने तईं नया रचने की कोशिश कर रहे थे. हिंदी या भारतीय या इस पूरे उपमहाद्विपीय संदर्भ में राजनीतिक प्रतिबद्धता के कवि के रूप में मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन में नया पक्ष क्या रख रहे थे?

वि.ख. मुक्तिबोध ऐज़ सच प्रगतिशील आंदोलन में नहीं थे. मुक्तिबोध की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वे किसी भी इस तरह के मूवमेंट से अलग रहते हुए अपनी केन्द्रीय जगह बनाए हैं. यह बहुत आश्चर्य की बात है. यह हिंदी की ताकत की बात भी है कि मुक्तिबोध को समझने में हिंदी को किसी वामपंथी धारे की ज़रुरत नहीं पड़ी और वह मुक्तिबोध को मुक्तिबोध बनाने में कोई बैसाखी नहीं बनी. यह बहुत बड़ी बात है. मुक्तिबोध अभी भी इंडिपेंडेंट हैं. मुक्तिबोध को आप किसी भी इस तरह के स्कूल में बाँध नहीं सकते. मुक्तिबोध का जो पूरा होना है वह मृत्यु के बाद का है. एक बड़ी विचित्र बात है कि हिंदी में कोई लेखक मृत्यु के इतने दिनों बाद तक बना रहा. मुक्तिबोध मरता नहीं है. मुक्तिबोध की प्रतिष्ठा में, मुक्तिबोध के फेम में, मुक्तिबोध के एक्सेप्टेंस में कोई फ़र्क नहीं आया है बल्कि मुक्तिबोध निर्बाध बढ़ रहा है. आप देखिये न मुक्तिबोध के ज़माने का, और उनके पहले का भी, पूरा प्रगतिशील स्कूल नष्ट हो गया. इनके पहले के बड़े-बड़े कथित प्रगतिशील कवि खत्म हो गए. मुक्तिबोध का मुक्तिबोध होना और इतने बड़े कवि-समुदाय द्वारा स्वीकृत होना अजीब है. हमलोग कह सकते हैं कि हमने मुक्तिबोध को सबसे पहले समझा. मुक्तिबोध अगर हमारे बगैर भी इतना बड़ा हो गया और होता जा रहा है तो मुक्तिबोध की ताकत का वह रेशा ढूंढना चाहिए कि वह क्यों एक्सेप्टेड है. क्योंकि मुक्तिबोध की ईमानदारी टोटली ट्रांसपैरेंट है. टोटली. वहां पर कोई ओपेक्नेस है ही नहीं…ट्रांसपैरेंट है.

प्र. यह जो इंडिपेंडेंट लेफ्ट की बात आप कह रहे हैं कि जितनी भी प्रगतिशील परम्पराएं थीं मुक्तिबोध उनसे अलग रह कर, बिना स्कूल का अनुकरण किये, और बिना किसी स्कूल का पालन किये या बिना किसी मठ में गए और बिना कोई मठ बनाने की प्रक्रिया में शामिल हुए, जिस इंडिपेंडेंट लेफ्ट की धारा को प्रेरणा देते हैं, उनकी प्रतिबद्धता का यह अंश आपको प्रेरणा कैसे देता है?

वि.ख. टोटली.

प्र. अभी के समय में अगर कहें कि इस तरह के किसी इंडिपेंडेंट लेफ्ट की जगह अगर बन रही है तो उसका स्वरुप या उसकी पॉलिटिक्स को हमलोग कैसे समझ पायेंगे?

वि.ख. देखिये जिस तरह आप मुक्तिबोध की पॉलिटिक्स को समझते हैं वैसे ही आपको हमलोगों की भी पॉलिटिक्स समझनी पड़ेगी. अगर आप मुक्तिबोध को समझते हैं और हमलोग उनके आस-पास भी कहीं हैं, तभी आप हमें समझेंगे. अगर हमलोग बेईमान हैं तो आप समझ जायेंगे कि यह बेईमानी है. उसका कोई फ़ॉर्मूला नहीं हो सकता है. यह अजीब बात है कि मुक्तिबोध आपको खुद अपना जज होने के लिए प्रेरित करता है. वह फ़ॉर्मूला नहीं देता. वह कह रहा है कि तुम जज करो…मुझे भी जज करो. तो यह जो अपने प्रशंसकों को भी खुला छोड़ना, चुनाव के लिए, जजमेंट के लिए, यह बहुत बड़ी बात है. अच्छा पर यह ज़रूर कहूँगा कि जो आपने बात की न इंडिपेंडेंट लेफ्ट… तो ऐसा कोई मूवमेंट मुक्तिबोध ने नहीं चलाया, न हमलोग चला रहे हैं. हमलोग टोटली लेफ्ट हैं, ऐसा सोचते हैं. लेकिन बाकी जो अपने आप को लेफ्टिस्ट क्लेम करने वाले लोग हैं उनसे हम अलग हैं.

प्र. यहाँ हम इसी अंतर को थोड़ा और मूर्त तरीके से समझना चाह रहे हैं!

वि.ख. मुक्तिबोध एक तरीके से टोटल आर्टिस्ट था. टोटल आर्टिस्ट. वह यह नहीं देखता कि कौन सुनता है, क्या करता है. वह लिखता था और अपना पूरा लिखता था. इसी तरह आपको यह देखना पड़ेगा कि आज का कौन सा कवि है जो इंडिपेंडेंट लिख रहा है और मुक्तिबोध के वैल्यू से डिग के नहीं. हो सकता है कि हममें से कोई मुक्तिबोध से भी आगे जाय, सोच में. यह पॉसिबल है क्योंकि दुनिया बदल रही है और बदल रही है तो मुक्तिबोध को भी बदलना पड़ेगा. आज जहाँ मुक्तिबोध है, आज से बीस साल बाद मुक्तिबोध रह नहीं सकते. लेकिन कोई आदमी आएगा या कुछ लोग आयेंगे, कई आदमी आयेंगे जिनमें मुक्तिबोध दिखेगा आपको. पूजन के सेन्समें नहीं  , विचारधारा के सेन्स में, कमिटमेंट के सेन्स में, आप ऑलरेडी देखते हैं, और साफ़ है कि हमारे लोग मुक्तिबोध के हैं और कई लोग नहीं हैं. जो हमारे साथ नहीं है, मुक्तिबोध के साथ नहीं है, वे भी बुरे नहीं हैं. यह हम मानते हैं कि मुक्तिबोध के साथ रह कर आप कहीं ज्यादा सीखते हैं, कहीं ज्यादा बड़े होते हैं. हम मुक्तिबोध को छोड़ नहीं सकते अकेले क्योंकि वह हमें नहीं छोड़ता. वह हमारे पीछे पड़ा हुआ है. लगातार. क्योंकि मुक्तिबोध को समझना बाक़ी है. मुक्तिबोध को पूरा पढ़ा जाना बाक़ी है.

प्र. मुक्तिबोध की दो प्रचलित छवियों की बात करें तो एक ओर उनका शहीदी चित्र खींचा जाता है- असद ज़ैदी और कई अन्यों की स्मृति में मुक्तिबोध की शहादत की मुहर है, और दूसरी ओर उन्हें ब्रह्मराक्षस की सीमाओं में बाँधने की कोशिश की जाती है, ब्रह्मराक्षस की छवि गढ़ी जाती है. इन छवियों की आलोचना आप कैसे करते हैं?

वि.ख. देखिये इन दोनों छवियों को मैं सही नहीं मानता. कारण ये है कि मुक्तिबोध शहीद नहीं थे इस तरह से. मुक्तिबोध को शहीद मानकर केवल रफा-दफा किया जा सकता है. मुक्तिबोध की व्याख्या उनके टोटल वर्क पर होनी चाहिए. उनकी शहादत हमें भूलनी पड़ेगी. वरना हम उनके पूजक बन के रह जायेंगे. मुक्तिबोध हमारे पास एक बहुत बड़ी सम्पदा हैं. आज भगत सिंह को कौन मानता है? कोई नहीं मानता. भगत सिंह भगत सिंह बना दिए गए बस. शहीद-ए-आज़म बन गए. मुझे मुक्तिबोध को हिंदी कविता का या हिंदी साहित्य का शहीदे-आज़म नहीं बनाना है. वह जिंदा हैं. अपने वर्क में जिंदा हैं, हमारे जीवन में जिंदा हैं. क्योंकि वह हमारे जीवन के लिए यूजफुल है. आज भगत सिंह यूजफुल नहीं रहे. लेकिन मुक्तिबोध हमारे लिए क़दम-क़दम पर यूजफुल हैं. इसलिए मैं न शहीद और न ही उन्हें ब्रह्मराक्षस मानता हूँ. यह एक तरह से मुक्तिबोध को मिस्टीफाई करने की बात है, बिला वजह. मुक्तिबोध को ब्रह्मराक्षस मानना, उनको भाजपा की गोद में डाल देना है. मुक्तिबोध के साथ कुछ भी मिस्टिक नहीं किया जा सकता. वह मिस्टेरियस आदमी नहीं था. मिस्टिक नहीं था वह. वह तांत्रिक नहीं था. उसके पास सभी अलामतें थीं कि वह दुनिया देख रहा था. अब आप कहेंगे मुक्तिबोध खुद तांत्रिक हो गए थे, यह बेवकूफी है. मैं इन दोनों खेमों को मुक्तिबोध के लिए बहुत हानिकारक मानता हूँ, और मुक्तिबोध के लिए क्या, जो मुक्तिबोध को पढ़ते हैं उनके लिए. मुक्तिबोध पर हमले की कोशिश जो लोग कर रहे हैं, वह मैं समझता हूँ ब्रह्मराक्षस वाला खेमा है. अब दिक्कत क्या है कि बहुत सारे लोग हैं हिंदी कविता के वे मुक्तिबोध को बड़ा मानना नहीं चाहते अपने से. इन्हें लगता है कि अगर मुक्तिबोध ही मुक्तिबोध रहेगा तो हम कहाँ जायेंगे. मुझे लगता है कि असद ज़ैदी वगैरह लोगों में यही ग्रंथि है कि भाई हम भी कुछ हैं. कुछ हमारी बात भी बने. मुक्तिबोध क्या होता है! और कब तक रहोगे मुक्तिबोध के! मेरी बात तो यह है कि मैं मुक्तिबोध से आगे जाते हुए भी उनका गुलाम हूँ. यह सब कुछ उसी से सीखा है. उससे प्रेरित हुए हैं, तो कैसे कह दें कि भाई वह शहीद हो गया. शहीद हो गए? अरे वह जिंदा है. शहीद हुआ होगा तुम्हारे लिए. वह तो हिंदी के लिए भी शहीद नहीं हुआ. क्योंकि वह जिंदा रहना चाहता है भाई, काम करते हुए, तो उसको आप शहादत मत दीजिये. मेरा कहना यह है कि उन्हें कोई शहीद न माने और जो मानता है वह अपराधी है. मुक्तिबोध को शहीद मानना अपराध है. उसको मानो कि वह जिंदा है और हमारे बीच है. हम ज़िंदा हैं. मैं कहता हूँ कि मैं मुक्तिबोध हूँ, चलिए बहस कीजिये. हममें से जो भी फील करता है कि वह मुक्तिबोध का है- उसके अन्दर मुक्तिबोध बैठा है. यह बात है.

प्र. मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया की विशिष्टता आखिर क्या थी या किस तरीके से वह प्रैक्टिस, वह विश्वदृष्टि हम तक अबाधित चली आ रही है?

वि.ख. मुक्तिबोध एक्चुअली एक विश्वचेता कवि थे. उनको सिर्फ भारतीय कवि मानना बड़ा गलत है. ‘बाचीज़ा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे’. वह तमाशे की बात नहीं करता था. वह अकेला कवि है कबीर के बाद. कबीर ब्रह्मांडीय कवि हैं. मैंने कहा भी है कि कबीर का जो करघा है, माने जुलाहे का जो करघा है एक पूरी कायनात है. तो एक ओर कबीर का जुलाहापन और उसका करघा और फिर उसके बाद मुक्तिबोध का इन्टलेक्ट, वामपंथी इन्टलेक्ट. वामपंथी आदमी पूरी कायनात को इकठ्ठा देखेगा ही. वह अभिशप्त है. वह बिना दुनिया का जायज़ा लिए बल्कि कहिये कि बिना कॉसमॉस का जायज़ा लिए हो ही नहीं सकता.

प्र. कबीर के बाद मुक्तिबोध- अर्थात जिसे आरंभिक आधुनिक काल कहा जाता है वहाँ एक जुलाहे की, दस्तकार की, आर्टीजन कवि की विश्वदृष्टि और उनकी साधना के बाद मुक्तिबोध!

वि.ख. मैं आपसे कह रहा हूँ कि उस ज़माने की सबसे बड़ी टेक्नोलोजी करघा थी, करघे से बड़ी कोई टेक्नोलोजी थी नहीं पूरे विश्व में. कबीर उसका एक्सपर्ट है. वह समझता है सब चीज़.

प्र. लेकिन कबीर की आर्टीजनशिप की दुनिया और मुक्तिबोध की औद्योगिक सभ्यता की दुनिया में जो लीप है, ब्रह्मांडीय दृष्टि में जो यह लीप है, उसी संदर्भ में कि एक श्रमिक-कवि या कवि-कामगार जो अपने चारों ओर की दुनिया में सक्रिय है और इस वक़्त की ‘टेक्नोलोजी’ के सहारे जेनेरिक मनुष्यता की आत्मा को बनाने में लगा है- कॉसमॉस के भीतर, वैसी स्थिति में एक कवि-कामगार की राजनीति को रचनाप्रक्रिया में कैसे स्पष्ट करेंगे?

(यहाँ हमारी बात-चीत रुक जाती है. विष्णु-खरे का कोई पुराना मित्र उनसे मिलने आ चुके थे. आज जब कि खरे हमारे बीच नहीं है इसलिए इस बात-चीत को इसी रूप में आगे जारी रखना संभव नहीं है.)

मार्तण्ड प्रगल्भ

 

छात्र राजनीति और संस्कृति-कर्म में व्यस्त रहने वाले मार्तण्ड प्रगल्भ जे.एन.यू. के भारतीय भाषा केंद्र से पी.एच.डी. हैं. फ़िलहाल  रेडिकल नोट्स कलेक्टिव  के साथ कार्यरत हैं. उनसे mpragalbha1@gmail.com पर संपर्क संभव है            

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