Archive for the month “November, 2014”

हैदर और बर्फ के अंगारे: तत्याना षुर्लेई 

कलाकार की रचना-प्रक्रिया से वास्ता रखना सिर्फ एक बौद्धिक शगल नहीं होता है बल्कि इसका सीधा संबंध पाठ-प्रक्रिया से भी होता है. पाठ-प्रक्रिया को ज्यादा दूर तक खींचने की जरुरत नहीं है बल्कि इसे अभी समीपी-अध्ययन (Close Reading) तक ही सीमित रखा जाय तो बेहतर है. विशाल भारद्वाज ‘हैदर’ क्यों बनाना चाहता था? क्या इस सवाल को ढूंढें बिना ‘हैदर’ की ‘क्लोज रीडिंग’ की जा सकती है !! इसे बहुत सरल शब्दों में कहा जाए तो वह यह कि विशाल भारद्वाज शेक्सपीयर के तीन नाटकों पर फिल्म बनाना चाहता था. ‘मैकबेथ’ और ‘ऑथेलो’ पर क्रमशः ‘मकबूल’ और ‘ओमकारा’ बना चूका था. इसी प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए उसने ‘हैमलेट’ को ‘हैदर’ के रूप में परदे पर रूपांतरित किया है. ‘हैदर’ की परिवेश विषयक ‘असंगतियों’ पर अथाह चर्चाएँ हो चुकी हैं और ऐसी तमाम चर्चाएँ कहीं न कहीं ‘फिल्म’ को कला के एक विधा के रूप में, एक प्रसिद्द नाटक के दृश्य में रूपांतरण के सन्दर्भ में और एक निदेशक की रचना-प्रक्रिया के सन्दर्भ में देखने में अक्षम रही हैं. तत्याना ने इन्हीं अछूते मुद्दों को बारीकी से देखने की कोशिश की है.

हैदर (२०१४)- पोस्टर

हैदर (२०१४)- पोस्टर

 By तत्याना षुर्लेई 

50 अलग अडॉप्टेशन के बाद नया और इतना अच्छा हैमलेट सिर्फ एक जीनियस बना सकता था।

हैमलेट का अभिनय करना न सिर्फ हर अभिनेता का ख्वाब होता है, बल्कि यह वह नाटक भी है जिसकी अलग-अलग व्याख्याएं हर दौर में संभव होती रहेंगी और शायद इसलिए इसका संयोजन आसान नहीं है। ‘हैदर’ विशाल भारद्वाज की ऐसी तीसरी फिल्म है जो शेक्सपीयर के नाटकों पर आधारित है और यह भी लगता है कि यह अब तक की उनकी सबसे अच्छी फिल्म है।

‘हैदर’ की कहानी कश्मीर में चल रही है, इससे अच्छी और प्रासंगिक बात कुछ और हो नहीं सकती थी। शेक्सपीयर के नाटक में कहा जाता है कि देश की स्थिति ठीक नहीं है और वह देश अक्सर जेल जैसा दिखाया जाता है। भारत में कश्मीर के अलावा वह कौन-सा प्रदेश हो सकता था जहां की स्थिति नाटक की तरह ही गड़बड़ है और जिसके नागरिक कैदी की तरह जीवन बिताते हैं? बहुत से आलोचक इस फिल्म की राजनीतिक स्थिति के बारे में लिखते हैं, लेकिन सबसे पहले यह स्पष्ट करना जरूरी है कि विशाल भारद्वाज चाहते क्या थे? वह चाहते थे कि फिल्म के दर्शक न सिर्फ ‘हैदर’ के दुःख को समझें बल्कि यह भी देखें कि वह अपने पिता की तरह ही विक्टिम बन गया है। फिल्म के निर्देशक को इतनी जटिल परिस्थितियों की तलाश इसलिए भी थी ताकि वे वास्तव में शेक्सपीयर के नाटक से मिलती-जुलती लगें। दि ट्रेजेडी ऑफ हैमलेट, प्रिंस आफ डेनमार्क में डेनमार्क न सिर्फ नायकों का देश है बल्कि पूरी दुनिया का एक निचोड़ भी पेश करता है जहां बुराई का राज है और बुरे लोग हमेशा जीतते हुए पाए जाते हैं। विशाल भारद्वाज की फिल्म में यह वक्तव्य-विवरण (statement) भी बहुत अच्छी तरह दिखाया गया है। आजकल कोई नहीं बोलेगा कि अगर धरती पर कहीं स्वर्ग है तो वह यहीं है यहीं है यहीं है, क्योंकि आज का कश्मीर एक नर्क है जहां के लोग भयरहित नहीं हैं और वहां किसी को नहीं मालूम है कि कौन दोस्त है और कौन दुश्मन। नर्क जैसे भयावह और भयानक समय-समाज में मनोरंजन (बॉलीवुड/सिनेमा) एक ख्याली पुलाव है, जहां सलमान खान के नकलची/प्रशंसक भी हत्यारे निकलते हैं और सिनेमा-घर का इस्तेमाल लोगों को मौत की सजा देने के लिए होता है। संघर्ष के दोनों पक्ष समान रूप से जालिम हैं और यह दयाहीनता हैदर और उसके पिता के अंदर भी घुसपैठ बढ़ा रही है। नायक का पिता, डॉक्टर हिलाल इंतकाम चाहता है और हैदर भी सचमुच में मानने लगता है कि इंसाफ पाने का यही एकमात्र विकल्प है, लेकिन अंत में वह समझ जाता है कि यही वह इंतकाम है जिसके चलते उसमें, कश्मीर में और पूरी दुनिया में दयाहीनता और निर्ममता या कहें कि बुराई हमेशा के लिए विद्यमान रहेगी। क्या कश्मीर के अलावा इतना प्रासंगिक कोई दूसरा उदाहरण संभव था? यह स्थान इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि फिल्म के परिवेश में व्याप्त ठंडापन और सख्ती भी शेक्सपीयर के डेनमार्क से मिलती-जुलती है जो इस बात के लिए भी उकसाती है कि विशाल भारद्वाज का रूपांतरण दि ट्रेजेडी ऑफ हैमलेट, प्रिंस ऑफ डेनमार्क से एक मायने में अलग भी है और बहुत समान भी। फिल्म में ज्यादा रंग नहीं दिखाए जाते हैं और जो हैं भी, वे धीरे-धीरे गायब हो जाते हैं। अंत में बस एक तेज रंग, लाल, ही बाकी रह जाता है जिसे फिल्म में बर्फ से भरपूर एकवर्णी दृश्य में अलग से चटखता हुआ दिखाया जाता है।

अत्यधिक ठंडे माहौल के कारण संघर्ष और खतरे का एहसास और भी जोरदार बन जाता है। विशाल भारद्वाज की इस फिल्म में कहीं भी वातानुकूल या गर्म माहौल नजर नहीं आता है। जब लोग अपने घरों में हैं तब भी उनके मुंह से भाप निकलती है। बस प्रेम-दृश्यों में यह ठंड थोड़ी-सी कम हो जाती है, और यह सिर्फ हैदर और अर्शिया के प्रेम-प्रसंगों में ही नहीं दीखता है बल्कि गजाला और खुर्रम के प्रेम-प्रसंगों में भी दर्शनीय है। इस फिल्म में नाटक से जो सबसे बड़ा अंतर दीखता है, वह यह है कि फिल्म में हैदर का चाचा उसके पिता और अपने भाई को राज्य के लिए नहीं बल्कि उसकी बीवी को पाने के लिए फंसाता है और बाद में मरवा देता है। यह बड़ा अंतर भी कुछ आलोचकों को पसंद नहीं है, लेकिन शेक्सपीयर के नाटक के आधुनिक रूपांतरण में राज्य को हड़पना दिखाना थोड़ा मुश्किल है और यह अजीब भी लग सकता है, क्योंकि वह आज के समय में बड़ी कंपनियों में चलने वाली हैमलेट की कहानी बन चुकी है… (Hamlet, Michael Almereyda, 2000) गजाला अपने पति से ज्यादा खुर्रम को प्यार करने लगती है और शायद इसलिए कि डॉक्टर हिलाल अपने काम में ज्यादा व्यस्त रहता है और खुर्रम के लिए सिर्फ गजाला सबसे महत्वपूर्ण है। यद्यपि यहां फिल्म नाटक से अलग है। एक औरत के लिए किसी को मार देना या युद्ध तक करना कोई नई बात नहीं है, न सिर्फ यूरोपीय साहित्य में बल्कि भारतीय साहित्य में भी इसे आसानी से चिन्हित किया जा सकता है। फिर भी, जो नई और दिलचस्प बात विशाल भारद्वाज की फिल्म में है, वह यह है कि मेच्योर औरत को दिखाने के इस नए तरीके के लिए बॉलीवुड के दर्शकों को ‘हैदर’ तक बहुत इंतजार करना पड़ा है। हैदर की मां अपनी ढलती उम्र के बावजूद एक सुंदर और आकर्षक औरत होने के एहसास को महसूस कर सकती है, उसे अपने प्रति एक आदमी को पागल बनाने के लिए होमर वाले ‘दी इलियड’ की हेलेन ऑफ ट्रॉय या रामायण की सीता की तरह जवान होने की आवश्यकता नहीं है, और ऐसी नायिकाएं भारतीय सिनेमा से अक्सर गायब ही दिखती हैं। फिल्म की शुरुआत में गजाला को दूसरी मुसलमान औरतों की तरह ही दिखाया जाता है, लेकिन खुर्रम के घर जाने के बाद उसके कपड़े बदल जाते हैं, बाल वह हमेशा खुले रखती है और वह सचमुच में एक लुभावनी (सिडक्टिव) औरत में तब्दील हो जाती है। गजाला को सिर्फ खुर्रम से ही प्यार नहीं है, बल्कि सबसे पहले उसे अपने बेटे से प्यार है, इसलिए उसकी आत्महत्या अर्शिया की खुदकुशी से अलग है। पिफल्म की ये दो औरतें ‘गलत प्यार’ में पड़ जाने या पिफर परिस्थितिगत विपर्यय के कारण खुद को मार लेती हैं। अर्शिया अपने पिता के खूनी से प्यार करती है, गजाला अपने पति के हत्यारे से, और यह उनके लिए असहनीय है। गजाला की मौत में क्रोध्, हलचल और नाटकीयता भी है क्योंकि वह न सिर्फ खुद को मारना चाहती है, बल्कि अपने बेटे को बचाना भी चाहती है। अर्शिया की मृत्यु अपेक्षाकृत उत्तेजनाविहीन और शांत है। अपने पिता की मौत के बाद वह नाटक की नायिका की तरह पागल हो जाती है, लेकिन दूसरों को फूल देने के बदले वह अपने पिता के लाल स्कार्फ को रेशा-रेशा बर्बाद करती हुई दिखती है। यह स्कार्फ उसने खुद ही बनाकर अपने पिता को भेंट किया था और हैदर को पकड़ते समय अर्शिया का पिता इसी स्कार्फ से हैदर की गर्दन को अपने काबू में लेता है। आज उसी स्कार्फ के रेशे-रेशे हो गए, रेशम उसके जख्मों को प्रतिबिंबित करता हुआ जान पड़ता है। इस दृश्य को विशाल भारद्वाज ने एक काव्यात्मक ऊंचाई दी है।

दि ट्रेजेडी ऑफ हैमलेट, प्रिंस ऑफ डेनमार्क को देखने वाले हमेशा दो दृश्यों का इंतजार करते हैं : पहला नायक द्वारा उच्चरित, टू बी ऑर नॉट टू बी वाला आत्मालाप और दूसरा नायक द्वारा खोपड़ी से बातचीत। फिल्म में टू बी ऑर नॉट टू बी, टू गो ऑर नॉट टू गो हो गया है जो इसे व्यंग्यात्मक और थोड़ा-सा निराशाजनक भी बनाता है, हालांकि यह शेक्सपीयर से मिलता-जुलता भी है क्योंकि उसके नाटक में बहुत सारे हास्यप्रद तत्व मिलते हैं, लेकिन खोपड़ी वाला दृश्य एक मास्टरपीस है। नाटक में कब्रिस्तान में काम करने वाले हैमलेट की प्रेमिका के लिए कब्र बना रहे हैं और फिल्म में तीन बूढ़े अपने लिए कब्र बना रहे हैं। कब्रिस्तान में गाने वाले बूढ़े प्राचीन ग्रीस के नाटकों के कोरस की तरह पूरी कहानी का समाहार पेश करते हैं। उनकी तीन कब्रें ऊपर से एक खोपड़ी जैसी दिखाई जाती हैं। वह खोपड़ी, कब्रिस्तान और थके हुए लोग, जो सोना चाहते हैं और जिनके लिए उम्मीद सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा है, पूरे कश्मीर का रूपांतरण भी बन जाते हैं, गजाला और हुसैन मीर के शब्दों से ज्यादा मजबूत। हैदर की मां और उससे पहले हुसैन मीर कहता है कि इंतकाम से आजादी नहीं मिलती है, लेकिन वह शायद इसलिए नहीं मिलती है क्योंकि लोग सचमुच ही ज्यादा थक गए हैं।

फिल्म की संरचना को अगर बारीकी से देखें तो इसकी बुनावट में निर्देशकीय रचनात्मकता का एक सचेत प्रयास स्पष्ट ही दिखता है। इसमें बहुत से दृश्य बार-बार जोडि़यों में दिखाए जाते हैं। फिल्म की शुरुआत में डाॅक्टर के घर को बारूद से उड़ाकर धूल में मिला दिया जाता है और अंत में कब्रिस्तान में ऐसे ही एक दूसरे घर को इसी तरह से नष्ट किया जाता है। अपने घर के खंडहर में हैदर जब पहली बार अर्शिया के साथ होता है, तब लड़की का भाई आता है, जब दूसरी बार वहीं वह अपनी मां से मिलता है, तब अर्शिया का पिता आता है। मरे हुए लोगों की लाशों के ढेर से एक लड़का उठ जाता है, कब्रिस्तान में जीवित लोग कब्र में लेट जाते हैं। डॉक्टर के घर में इबादत करने वाले एक आदमी को मार दिया जाता है, बाद में खुर्रम को उसका इबादत करना ही उसे मरने से बचा लेता है। गजाला अपने शाल के नीचे छिपाए रिवाल्वर से अपने बेटे को इमोशनली ब्लैकमेल करती है और बाद में शाल के नीचे छिपाए हुए ग्रेनेडों से खुदकुशी करती है। दूसरी दिलचस्प बात फिल्म में गाने का इस्तेमाल है जो बहुत ही अच्छा बन पड़ा है। सब से जीनियस दृश्य कब्रिस्तान में होने वाला कार्य-व्यापार है जिसकी चर्चा ऊपर की गई है। हैदर द्वारा गजाला और खुर्रम को, संकेत में ही सही, संबोधित नाटकीय और कहानीनुमा गाना भी बहुत ही खास है और उसका नृत्य और चेहरे पर रंगों की लकीरें न सिर्फ जनजातीय लोगों में प्रचलित युद्ध वाले नाच जैसा है, बल्कि एक तरह से तांडव-दृश्य को रचता हुआ मालूम पड़ता है।

शुरू में मैंने लिखा कि हैमलेट का अभिनय करना हर अभिनेता का ख्वाब है और इस फिल्म में शाहिद कपूर ने न सिर्फ इस ख्वाब को निभाया है बल्कि उसने और तब्बू ने पूरी फिल्म को ही लगभग चुरा लिया है।

साभार- पाखी, नवम्बर, २०१४ 

Tatiana Szurlej

Tatiana Szurlej

तत्याना षुर्लेई एक Indologist और फिल्म-आलोचक हैं। हंस, पहल, अकार आदि हिन्दी पत्रिकाओं के लिए लिखती रही हैं। फिलहाल पोलैंड के शहर क्राकोव स्थित Jagiellonian University में The Courtesan Figure in Indian Popular Cinema:Tradition, Stereotype, Manipulation. नामक विषय पर पीएचडी के लिए शोधरत हैं। 

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