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‘मेरे पिता (बलराज साहनी) की यादें’ से एक अंश: परीक्षत साहनी

नए इंग्लैण्ड रिटर्न मेरे माता-पिता के तौर-तरीके पूरी तरह से ब्रिटिश थे जो मेरे लिए बहुत अजीब थे। मेरी परवरिश अलग शैली और अलग आदतो के साथ हुई थी। घर के मक्खन के साथ खाए जाने वाले पराठे, रावलपिण्डी की रसोई में पालथी  मारकर बैठने की जगह बेकन और अण्डों, दलिया और एक चम्मच कॉडलिवर ऑयल ने ले ली थी इसका स्वाद तो आज तक मेरी रीढ़ में झुरझुरी पैदा कर देता है।

पुस्तक-आवरण

पिता की यादें और मेरा बचपन

By परीक्षत साहनी

कई लोग कहते हैं कि मेरे डैड अनूठे थे। बहरहाल, वह बचपन में ही मेरे जीवन से गैर-हाज़िर रहे। मेरे जन्म के समय सितारे एक सीध में नहीं रहे होंगे, क्योंकि मेरे बचपन के अधिकांश वर्ष हैरानी और भ्रम की स्थिति में ही गुज़रे। 1939 में जैसे ही मेरे जीवन की शुरुआत हुई, नियति ने मुझे डैड और मेरी माँ-दमयन्ती (दम्मो जी) से अलग कर दिया। मैं मुश्किल से छह महीने का था जब डैड और दम्मो-जी मुझे हमारे रावलपिण्डी के पूर्वजों वाले घर में छोड़कर विदेश यात्रा (ब्रिटेन, बीबीसी-हिंदी) पर जाने को मजबूर हुए। पाँच साल का होने तक मैं उन्हें देख नहीं पाया था।
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मैंने अपने जीवन के पहले पाँच वर्ष अपने दादा-दादी और अपने चाचा-चाची, भीष्म साहनी जी और शीला जी (जो मेरे लिए माता-पिता के समान थे) के साथ बिताए। वे दिन देश के लिए भयावह थे, स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष अपने चरम पर जा रहा था। लेकिन, हमारी हवेली के अहाते में मेरा लाड़-दुलार चल रहा था, मेरी सारी ज़िद और मुरादें पूरी हो रही थीं। उनके साथ रहते हुए मुझे अपने माता-पिता के प्रेम की कमी कभी महसूस नहीं हुई।
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साल 1944 की गर्मियों में मुझे मालूम हुआ कि मेरे माता-पिता इंग्लैण्ड से लौटने वाले हैं। इस ख़बर से घर के बड़े-बुजुर्ग उत्साह और उमंग से भर गए, लेकिन मुझ पर कोई असर नहीं पड़ा। उत्साहित होने की जगह मैं चकित और भ्रमित था। माता-पिता? वे कौन थे? मैंने कभी उन्हें ठीक से देखा नहीं था या देखा भी हो तो, उन्हें याद रख पाऊँ, इतना बड़ा नहीं था मैं।
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जिस जोश-ओ-खरोश से मेरे माता-पिता मेरी ओर भागकर आए, मुझ पर आलिंगन और चुंबनों की बौछार की, उससे मैं अभिभूत था। इन लोगों ने मुझे किन 'घुसपैठियों का लाड़ला बना दिया था! उनके साथ एक बच्ची थी, उन्होंने मुझे बताया गया कि वह मेरी बहन है। मैंने उसे शक की नज़र से देखा, और संकोच से जैसे ही उसके तरफ कदम बढ़ाया, उसने रोना शुरू कर दिया और मैं जहाँ का तहाँ खड़ा रह गया। भयभीत, डर और सन्देह के कारण, रुआँसा होकर मैं अपने बचाव के लिए वापस दादी के पल्लू में आकर सिमट गया।
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अगले कुछ दिनों में मेरी माँ और पिता ने अपनी माता-पिता की भूमिका निभाना शुरू कर दिया। मेरे लिए यह एक अजीब अनुभव था। इन नये अजनबी लोगों के प्रति अपने प्रेम और लगाव की अदला-बदली कर पाना मेरे लिए मुश्किल था।
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मेरे भ्रम को बढ़ाने के लिए मुझे अपनी जड़ों से उखाड़ दिया गया। उन दिनों, इस उपमहाद्वीप पर कश्मीर शायद सबसे सुरक्षित जगह थी, जहां कोई हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं होता था। जब मेरे माता-पिता ने मुझे श्रीनगर ले जाने का फ़ैसला किया, तो मैं दादा, दादी और भीष्म-जी से अलग होने के विचार से बहुत खुश नहीं था। मैं पहले कभी उनसे दूर नहीं रहा था। श्रीनगर में मैं जिस तरह से व्यवहार कर रहा था, उससे साफ़ ज़ाहिर था कि मैं अपने दादा-दादी, चाचा-चाची से दूर होकर बेचैन था। मेरे माता-पिता के तौर-तरीके अजीब थे, ऐसा उनके बरसों तक इंग्लैण्ड में रहने के कारण था। उन्होंने मेरा परिचय टॉयलेट पेपर से करवाया, यह मुझे पूरी तरह कुछ 'अजीब' और निरर्थक लग रहा था। जब तक उन्होंने मुझे इसका उपयोग नहीं समझाया दिया, मैं बाथरूम को गन्दा कर दिया करता था और वहाँ उपयोग किए गए टॉयलेट पेपर्स का ढेर लगा दिया करता था।
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मैंने उन शर्ट और शॉर्ट्स को पहनने से इनकार कर दिया जो वे मेरे लिए लाए थे और कुरता-पायजामा पहनने पर जोर देता रहा, जिन्हें पहनने का मैं आदी था। मैंने अपने बगीचे के एक अखरोट के पेड़ की टहनियों पीछे छिपकर घण्टों बिता दिए और दोपहर और रात के खाने की सूचना देने वाले घड़ियाल को अनसुना किया। सभी को खाने की टेबल पर बुलाने के लिए घण्टी का उपयोग करने का विचार मेरे लिए नया था। इस नए दम्पति के साथ निभाना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल लग रहा था!
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मेरे डैड लम्बे और खूबसूरत थे। उन्होंने मेरे साथ खेल खेले और मुझे जादू के करतब दिखाए। वह आश्चर्यों का पुलिंदा थे। मुझे बहलाने के लिए हमेशा नए तरीके तलाशते रहते थे। मैं उन्हें हैरत से देखते रह जाता था। मुझे याद है, वह बड़े विनम्र और दयालु थे। लेकिन मैं अडिग था। मुझे याद है वह असहज हो रहे थे और एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं उन्हें हर समय अजीब तरह से घूरते क्यों रहता हूँ। बेशक, मेरे पास कोई जवाब नहीं था; मैं लाचार था। इस सच्चाई को पचा पाना मेरे लिए आसान नहीं था कि वह मेरे पिता थे, क्योंकि, व्यावहारिक दृष्टि से वह मेरे लिए एक बाहरी व्यक्ति थे। एक खाई थी जिसने हमें विभाजित किया और इसे पाट पाना मेरे लिए मुश्किल था। एक बच्चे के तौर पर, सरलता से चल रहे अपने जीवन में अचानक इतने बड़े झटके को झेलने के लिए मैं तैयार नहीं था। डैड ने मेरे करीब आने की बहुत कोशिश की, लेकिन बेचैनी मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी।
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हमारे साथ शबनम भी थी, जिसका जन्म इंग्लैंड में हुआ था। दिखने में वह एक आकर्षक गुड़िया की तरह थी, लेकिन ब्रिटिश साँचे में ढली हुई थी। उसके भीतर विंस्टन चर्चिल की खूबियाँ थीं। जब भी मैं उसके पास जाता था, वह शेरनी की तरह दहाड़ती थी। मैं उसे छूने की कोशिश करता, तो वह रोने लगती थी। वह भी मुझे अपने जीवन में अचानक पाकर उसी तरह भौंचक थी, जैसा कि मैं था और अपने माता-पिता का ध्यान मेरी तरफ बँट जाने से भी थोड़ी असन्तुष्ट थी। वह किसी हिंसक प्राणी की भेदी निगाहों से मुझे लगातार घूरती रहती थी (जैसा मैं डैड को घूरता रहता था)। इससे मैं डर गया था (जैसे मेरी टकटकी से मेरे माता-पिता हतोत्साहित थे)। वह एक उपद्रवी बच्ची थी, और एक बार, जब मैं उसके बहुत करीब पहुँच गया, तो उसने मुझे हमारी माँ की सैंडल से इतनी ज़ोर से मारा कि मेरे सिर पर बनी गाँठ एक महीने तक कम नहीं हुई थी। मैंने उसके बाद उससे दूरी बनाए रखी।
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एक दिन मेरे माता-पिता ने फैसला किया कि अब मुझे 'सभ्य' बनाने का समय आ गया है, तो वे मुझे एक अंग्रेज़ी फिल्म दिखाने के लिए ले गए। मैं पहले कभी सिनेमा हॉल में नहीं गया था और अंग्रेज़ी का एक लफ्ज भी नहीं जानता था। वह एक डरावनी फिल्म थी। अजीब से संगीत और कुछ दृश्यों ने मुझे भीतर तक हिला दिया। विचित्र संगीत और डरावने दश्यों को मैं भुला ही नहीं पा रहा था। इन दृश्यों की स्मृति हफ्तों तक मेरे साथ रही और रात में मुझे परेशान करती रही। बतौर नए इंग्लैण्ड रिटर्न मेरे माता-पिता के तौर-तरीके पूरी तरह से ब्रिटिश थे जो मेरे लिए बहुत अजीब थे। मेरी परवरिश अलग शैली और अलग आदतो के साथ हुई थी। घर के मक्खन के साथ खाए जाने वाले पराठे, रावलपिण्डी की रसोई में पालथी  मारकर बैठने की जगह बेकन और अण्डों, दलिया और एक चम्मच कॉडलिवर ऑयल ने ले ली थी इसका स्वाद तो आज तक मेरी रीढ़ में झुरझुरी पैदा कर देता है। इसके साथ टोस्ट और मार्मलेड। मुझे पराठे और घर के ताज़ा बने मक्खन की याद आती थी, जो मेरी दादी हर सुबह निकाला करती थीं। इसके अलावा अब मुझे खाने के लिए डाइनिंग टेबल पर बैठना पड़ता था, जो वास्तव में मेरे लिए असहज था।
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मुझे सोने के लिए एक अलग कमरा दिया गया था। रावलपिण्डी में मेरे लिए कोई कमरा नहीं था, वहाँ मैं अक्सर दादी के साथ सोता था। उनका पेट बहुत बड़ा था और मैं उससे लिपटकर सोता था, उनके नरम, लटकती हुए पेट की तहों में अपने आपको सुरक्षित महसूस करता था। वह मुझे महाभारत की कहानियाँ सुनाती थी, लोरियों गाती थीं और मुझे हौले-हौले थपथपाकर सुलाती थीं। मेरे नये घर में ऐसा नहीं था। पहली बार अकेले सोना डरा देने वाला था, खास तौर पर अंग्रेज़ी फ़िल्म देखने के बाद। मुझे दिलासा देने और लोरियाँ गाकर थपथपाते हुए सुलाने के लिए दादी नहीं थी। मुझे बुरे सपने आते थे, हर रात जाग जाता था और दादी के लिए विलाप करता था, पड़ोसियों को परेशान करता था। इससे नन्हीं शबनम डर जाती थी। जैसे ही वह मेरी चीख-पुकार सुनती, ज़बरदस्त आवाज़ में बिलखने लगती। लगता था कि ठंडी  ब्रिटिश हवा ने उसके फेफड़ों को बड़ा मज़बूत बना दिया था! चारों तरफ हंगामा था। कुछ पड़ोसी घबराहट में बाहर अपनी बालकनियों में निकल आते, इस डर से कि दंगाई आख़िरकार श्रीनगर पहुंच गए हैं और नरसंहार करने लगे हैं। यह वास्तव में मेरे माता-पिता के लिए शर्मनाक रहा होगा। डैड बबरा जाते थे और भागकर मेरे कमरे में आते और मुझे शान्त करने कोशिश करते थे। वह धीमे, धीरज भरे शब्दों में मेरे डर को दूर करने की कोशिश करते, मुझे गले लगाते और मुझे आश्वस्त करने कि सब कुछ ठीक है। उन्होंने मुझे बताया कि मैं अब एक 'बड़ा लड़का' था और मुझे अपने बिस्तर पर सोना सीखना चाहिए। लेकिन मैं अपने तरीके से जीना चाहता था। मैं इन 'माता-पिता द्वारा तय किए गए नियमों का आदी नहीं था। मैंने डैड की बात सुन ली और शान्त हो गया, लेकिन जैसे ही वह कमरे से बाहर निकले मैंने फिर से विलाप चालू कर दिया। मुझे यकीन है कि इससे मेरे माता-पिता और हमारे पड़ोसी बुरी तरह घबरा गए थे।
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ऐसा एक के बाद एक, हर रात को तब तक होता रहा, जब एक दिन डैड लड़खड़ाते हुए मेरे कमरे में पहुंचे। उनके सब्र का बाँध टूट चुका था। उन्होंने मुझे चेहरे पर एक थप्पड़ मारा और मुझसे चुप रहने के लिए विनती की। एक थप्पड़, हालाँकि धीमा था, पर मेरे लिए कुछ नया था। मुझे इससे पहले कभी मार नहीं पड़ी थी। इस अप्रत्याशित क़दम से मुझे चोट तो कम लगी थी, पर मुझे सदमा लगा, मैं हैरानी से ख़ामोश हो गया। शायद डैड के पास मुझे समझाने का यही एकमात्र रास्ता बाक़ी था। मैंने रात बिताई और बचपन की मासूमियत के साथ सुबह तक सब कुछ भूल गया। लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ और डैड को बेहतर तरीके से जानने लगा, मुझे अहसास हुआ कि वह एक अलौकिक संवेदनशील और भावुक इंसान थे। वह थप्पड़ को नहीं भूले थे। जैसा कि मुझे जीवन में बहुत बाद में पता चला, इस थप्पड़ ने उन्हें दशकों तक परेशान रखा और उन्हें इसे लेकर अपराध-बोध बना रहा। वह बच्चों से प्यार करते थे और उन्हें बहुत संवेदनशीलता के साथ संभालते थे। उस घटना के बाद उन्होंने न तो कभी अपनी आवाज़ ऊँची की न कभी मुझ पर हाथ ही उठाया।


Publisher ‏ : ‎ Manjul Publishing House Pvt Ltd 
Language ‏ : ‎ Hindi
Year:  2021
Print length ‏ : ‎ 292 pages
Price (Paper Back): 450 INR

लंचबॉक्स: विदेह के सदेह होने की कथा : अमितेश कुमार

लंचबॉक्स (2013) ने इस धारणा को चोट पहुंचाई है कि कलात्मक स्तर की फिल्म सहजता से संप्रेषित नहीं हो सकती है. इसने हिंदी सिनेमा उद्योग का यह सच भी उजागर किया है कि असली समस्या ऐसी फिल्मों को दर्शकों तक कायदे से नहीं पहुंचाये जाने का है. यदि फिल्में कायदे से दर्शकों तक पहुंचे तो निःसंदेह उसे दर्शक मिलेंगे. वही दर्शक जिनकी मूढ़ता को लेकर हम आश्वस्त हो चुके हैं. लेकिन करोड़ी क्लब के सिनेमा दर्शकों के इतर या उनके भीतर दर्शकों का एक ऐसा वर्ग भी है जो ताजी, संवेदनशील, बेहतर शिल्प में कही गई फ़िल्में भी देखना चाहता है.

‘लंचबॉक्स’ सिनेमाई पाठ के उन उदाहरणों में से एक है जिसे आप जितनी बार पढ़ते हैं एक नवीन अर्थ निकलता है. जितनी बार आप अपनी दृष्टि का परिप्रेक्ष्य बदलते हैं उतनी बार सिनेमा का परिप्रेक्ष्य भी बदलता है. इसके कथ्य में एक ‘मूल्यपरक’ तरलता है और यह किसी कहानी की तरह हमारे जीवन में बहुत तिरछे होकर घूसती है और वहीं अटकी रह जाती है. इसलिये इस फिल्म पर बात करते हुए आप कथ्यपरक बातों के अलावा बहुत सी वागाडंबर वाली भी बात कर सकते हैं क्योंकि आप इस फिल्म के प्रभाव में है. #लेखक 

लंचबॉक्स: विदेह के सदेह होने की कथा

By अमितेश कुमार 

फिल्म का शीर्षक ही वह दरवाजा है जिससे फिल्म के पाठ की अर्थबहुलता में आप आसानी से प्रवेश कर सकते हैं. लंचबॉक्स के गलत पते पर पहुंच जाने का ‘संयोग’ फिल्म की वह केंद्रीय घटना है जिसके इर्द गिर्द पूरा आख्यान रचा गया है. डब्बेवाले के अनुसार लंचबॉक्स के गलत पते पर पहुंचने की संभावना नगण्य है क्योंकि उसे हार्वर्ड, प्रिंस चार्ल्स इत्यादि का प्रमाण पत्र मिल चुका है. फिल्म  के बाहर यदि हम इस तथ्य को जाँचे तो भी इस दावे पर यकीन न करने की कोई गुंजाईश नहीं है. यह ‘संयोग’ वह सिनेमाई युक्ति है जिसे फिल्मकार ने अपनाया है.

फिल्म का बड़ा हिस्सा लंच बनाने, डब्बावालों के लंच पहुंचाने और लंचटाइम के बीच घटित होता है. इस लंच के मायने इन किरदारों के लिये फिल्म के शुरू में जो रहते हैं फिल्म के अंत में वही नहीं रह जाते. इला का अपनी पड़ोसन (फिल्म में जिसकी आवाज भर है) से जुड़ाव का एक स्रोत खाने की रेसेपी है जिससे वह अपने पति को खुश कर उसका ध्यान अपनी ओर खींचना चाहती है जो जीवन की आपाधापी में उससे विमुख हो चुका है. जिससे अपनी पत्नी के बनाये खाने का स्वाद भी पहचाना नहीं जाता. इला की यह कोशिश विफल रहती है क्योंकि लंचबॉक्स गलत पते पर पहुंच गया है, एक रूखे आदमी ‘साजन फर्नांडिस’ के पास, जो खाने के समय भी किताब पढ़ता रहता है, जिसके बारे में उसके कार्यालय में अफवाहें फैली हैं, जिससे उसके मुहल्ले के बच्चे डरते हैं, जो नितांत अपने अकेलेपन में समय से पहले स्वैच्छिक सेवानिवृति लेकर मुंबई से बाहर जाना चाहता है.

इला और साजन की जिंदगी टकराती है और लंचबॉक्स में रखी पर्चियों से दोनों की बातचीत शुरू होती है. साजन की जिंदगी की कठोरता के पीछे का तथ्य और उसके भीतर का कोमल भी सामने आने लगता है. तीसरा मुख्य किरदार असलम शेख है जो साजन की जगह लेने उसी के कार्यालय में आया है. वह खाने की पहचान रखता है, वह ‘लंचबॉक्स’ को आत्मीयता से सूंघ कर उसके स्वाद की टोह लेता है. स्वंय भी खाना बना सकता है, ट्रेन की यात्रा के दौरान सब्जी काटता है. इला के भेजे हुए लंच से साजन की भोजन में दोबारा रूचि जगती है, फिल्म में पहली बार जब लंच साजन की मेज पर आता है वह उसकी तरफ़ आँखे उठा कर भी नहीं देखता लेकिन बाद में रोज वह लंचबॉक्स का इंतजार करने लगता है. इला को अपनी पति का खिंचाव वापस नहीं मिलता लेकिन उसके व्यक्तित्व का एक अलग हिस्सा खुलता है. साजन उसके बनाये खाने में रूचि ले रहा है. खाने में शेख की रूचि ही साजन और उसको लंचटाइम के दौरान एक दूसरे से जोड़ती है.

फिल्म के तीनों ही किरदारों के लिये खाने के मायने अलग अलग हैं. इला के लिये यह उसकी सत्ता का बोध कराने वाला और उसका विश्वास कायम रखने वाला काम है, साजन के लिये यह जरूरत के अलावा कुछ नहीं और शेख इसकी कीमत जानता है इसलिये उसके लिये यह दिव्य है, वह डब्बा सूंघ कर स्वाद बताने की क्षमता रखता है. यह ‘भूख’ ही है जिसका अलग-अलग रूप सामने आता है. इला की मां इस भूख के मायने भूल चुकी है. उसे इसकी याद अपने पति की मौत के तुरंत बाद आती है. वह महसूस करती है कि पति की सेवा में उसने भूख जैसे जरूरी चर्या को भी भूला दिया था. इला के पति का भोजन से कृत्रिम संबंध है. साजन इला को बताता कि मुम्बई में बहुत से लोग लंच में सिर्फ़ केला खाते हैं. शेख के लंच में भी सेब और केला ही रहता है.

‘लंचबॉक्स’ के तीनों मुख्य किरदारों का कथा सरंचना में प्रवेश क्रम से होता है. पहले इला (निमरत कौर) आती है, बच्चे को तैयार करती, पति के लिये खाना बनाती, लंचबॉक्स पैक करती और डब्बे वाले को सौंपती हुई, शाम को अच्छे से तैयार होकर पति का इंतजार करती इला. जिसके पास समय काटने का यंत्र अपनी पड़ोसन से बात करना, मनपसंद गाने सुनना, जो उसकी पड़ोसन कैसेट से इला की ही फरमाइश पर बजाती है, खाना बनाना, कपड़े धोना आदि है. इला की दिनचर्या में एक यांत्रिकता और रोजमर्रापन की एकरसता है. वैवाहिक जीवन भी नीरस है जिसमें साजन की सलाह पर अमल कर कुछ रंग भरना चाहती है. हनीमून के कपड़े में अपनी फ़िगर की मेंटनेस दिखा कर और अपने होने वाले बच्चे की याद दिला कर भी वह पति को हासिल नहीं कर पाती. पति (नकुल वैध) की देह भाषा और अभिनय इला के अभिनय में और दिनचर्या के काम में वह पूरा रसायन अभिव्यक्त होता है जो पति और पत्नी के बीच में है. क्या यह केवल इला का जीवन है? इस फिल्म में दो और ‘औरतें’ हैं. इला की मां और पड़ोसी देशपांडे आंटी. इन दोनों का जीवन अपने अशक्त पति के इर्द गिर्द ही समर्पित है लेकिन इन दोनों को इससे कोई शिकायत नहीं है. लेकिन इला में एक विद्रोह है. वह कम से कम सोचती है कि वह भूटान जाये जहां खुशी उत्पादन से अधिक कीमती है. वह बाहर निकलने का अवसर तलाशती है क्योंकि वह उस रसायन को खोज रही है जो दो लोगों को साथ रखने के लिये जरूरी है. दिनचर्या की एकरसता से वह उब चुकी है. लंचबॉक्स में लिखी चिठ्ठियां उसे रास्ता दिखाती है. लेकिन वह अपने जीवन-चक्र से बाहर नहीं निकल पाती. वह एक विद्रोही चिट्ठी लिख कर उसे भविष्य में दुबारा पढ़ना चाहती है.

सिनेमा का दूसरा किरदार साजन फर्नांडिस (इरफ़ान खान) विधुर है जो क्लेम डिपार्टमेंट में काम करता है. वह एक रूखा आदमी है जिससे मोहल्ले के बच्चे भी गेंद मांगने में डरते हैं. जो एक गलत पते के लंचबॉक्स में धन्यवाद की चिट की बजाये ‘Food was Salty Today’ की चिट लिखता है. पडोस की लड़की उसको देखकर अपने घर की खिड़की बंद कर देती है. वह नितांत अकेलेपन और ठहराव को जी रहा है और इसे तोड़ने में उसकी कोई दिलचस्पी नजर तब तक नहीं आती जबतक उसके जीवन में गलत पते से भटका एक लंचबॉक्स और उसकी ऑफिस में उसकी जगह लेने वाला शेख नहीं आता है. इला से खतो-किताबत के बाद उसके व्यक्तित्व की अंदरूनी सरंचना में परिवर्तन होता है. हम देखते हैं कि वह सहज हास्य बोध भी रखता है, वह शेख को अफ़वाह की सच्चाई न बता कर कि उसने बिल्ली को मारा था, कहता है कि दरअसल वह आदमी था इसलिये शेख भी बच के रहे. साजन की इला को लिखी चिठ्ठियां किसी कविता से कम नहीं है.

 things are never bad as seen

just watched your weight

उसके कठोर और सपाट चेहरे के पीछे का उसका एक सुखद अतीत है. चरित्र की जटिलता और गहराई को इरफ़ान खान ने बड़े सहज अंदज में जिया है. यह वह किरदार है जो जितना बाहर है उतना ही भीतर. जीवन के प्रति आशा रखने के लिये इला को प्रेरित करते हुए वह ट्रेन में एक वृद्धा की मुस्कान का जिक्र करता है. शेख की नौकरी बचाता है. इस किरदार में एक यात्रा है जिसकी सूक्ष्मता को पढ़ा जाना चाहिये. साजन का ठोसपन जैसे जैसे घूलता है वैसे ही उसमें अचानक एक ठहराव लौटता है. अचानक उसे अपने बूढ़े होने का बोध होता है और वह इला से अपने संबंधों के बारे में सोचता है. नासिक जा कर बसने का निश्चय पर अमल कर लेता है. उसके सामने बच्चे हैं, गेंद के लिये, वह उन्हें कहता है कि वह इसलिये वापस आया है ताकि बच्चे किसी का ग्लास न तोड़े और रात में वह लड़की उसे देखकर हाथ हिलाती है, अपनी खिड़की बंद नहीं करती. वह ऐसा आदमी है जिसकी जिंदगी दफ़्तर और घर के बीच सिमट गई है, पत्नी के न होने का अकेलापन उसे रूखा बना गया है. उसका कोई सामुदायिक जीवन नहीं है. वह अपना काम परफ़ेक्शन से करता है और दूसरे भी करें यह उम्मीद भी रखता है. उसका जीवन ट्रेन में, बस में और खड़े खड़े बीत गया है, वह डरता है कि कहीं उसकी कब्र भी ‘वर्टिकल’ न हो जाये. साजन अपने जीवन की नीरसता का अभ्यस्त हो चुका है उसकि दिलचस्पी इसको तोड़ने में भी नहीं है. जबकि वह अपने आस-पास बदलती और बनती हुयी दुनिया से भी बाख़बर है. वह जीवन की मुश्किलों के बारे जानता है लेकिन उसका स्वंय का अलगाव चरम पर है लेकिन मानवीय रिश्ते का स्पर्श जब उसे छूता है तो वह लौटता है और पूरी संवेदना के साथ.

सिनेमा के तीसरा किरदार असलम शेख (नवाजुद्दीन शेख) की गतिविधियां किसी नियमग्रस्तता से बाध्य नहीं है, इला और साजन की तरह. वह अपने लिये रास्ता बनाना जानता है, जिजीविषा से भरा हुआ है. उसे अपने आप पर विश्वास है. वह साजन की उपेक्षा का उसे जवाब देता है ‘सब कुछ खुद से सीखा है यह भी सीख लूंगा’. अनाथ है लेकिन ‘अम्मी कहती है’, उसका तकिया कलाम है, इससे वह अपनी बात का वज़न बनाता है. रिश्ते बनाने में उसकी दिलचस्पी है. इसके लिये वह परेशान करने की हद तक कोशिश करता है कि साजन से रिश्ता बनाये, और उसमें सफ़ल भी होता है. ऑफिस में वह साजन की जगह लेने आया है लेकिन वह उसका विपरीत किरदार है. शेख के किरदार की अलमस्ती को नवाज जीवंत कर देते हैं.

लंचबॉक्स का एक मुख्य किरदार मुंबई शहर है, जो डब्बेवालों की डब्बा पहुंचाने की यात्रा, साजन और शेख के ऑफिस जाने और आने की यात्रा के माध्यम से सिनेमा में दर्ज होती है. ‘लंचबॉक्स’ में मुंबई का सिनेमाई स्टिरीयोटाइप नहीं है बल्कि रोजमर्रा की मुंबई है,  कामकाजी मर्दों, गृहणियों, डब्बोवालों, लोकल ट्रेन, ऑटो, टैक्सी की मुंबई. मुंबई की स्थानिकता को फिल्म गति और ठहराव दोनों ही बिंबों के जरिये पकड़ती है. एक तरफ यह मुंबई के बिलकुल स्थानीय-रूढ़ जीवन और इसमें जूझ रहे व्यक्तियों के जरिये मुंबई की एक अलग, सिनेमा में कम दिखाई जाने वाली पहचान को स्थापित करता है, वहीं दूसरी तरफ मुंबई के बहाने समकालीन महानगरीय जीवन की सार्वभौम छवि को भी उभारता है. मुंबई होते हुए भी यह जीवन कहीं का भी हो सकता है, जहां मर्द कार्यालय में और सड़कों पर हैं, एवं स्त्रियां किचेन में. बच्चे स्कूल जा रहे हैं या खेल रहे हैं.

आज के परिदृश्य में चिठ्ठी के जरिये बातचीत असंभव-सा लगता है. दोनों किरदार एक दूसरे से फोन पर बात करने की कोशिश नहीं करते. कहानी के बाहर इसे अतार्किक माना जा सकता है. मोबाइल का इस्तेमाल सिनेमा में सबसे व्यस्त शख्स इला का पति करता है.

इला की पड़ोसी उसके बगल में नहीं उसके फ्लैट के ऊपर रहती है. दोनों का एक दूसरे से संपर्क आवाजों, आडियो कैसेट और सामान लेन-देन करने वाली टोकरी के जरिये होता है. उनके संपर्क की छवि अमूर्त है. पति-पत्नी, मां-बेटी, सामुदायिक हर प्रकार का रिश्ता प्रभावित हो रहा है. इला के जोर देने पर उसकी मां पैसे लेने की बात जब स्वीकार कर लेती है तब इला खुद असमंजस में पड़ जाती है. पिता की मृत्यु पर इला कह तो देती है कि उसका पति भी आ रहा है लेकिन इसके सच होने के प्रति वह खुद आश्वस्त नहीं है. इला अपनी मां के सामने एक झूठ को जीने के लिये विवश है और उसकी मां भी सच जानते हुए इस झूठ को कायम रखती है. झूठ ही उन दोनों को जीवन के कठोर यथार्थ से सामना करने का हौसला देता है. सामुदायिक रिश्ता शहर में बिलकुल ही दरक चुका है. साजन के ऑफिस और मोहल्ले दोनों जगहों ने साजन को उसके अकेलेपन पर छोड़ दिया है. इसको सायास शेख तोड़ता है जो स्वयं भी अकेला है. इस शहर में सभी लोगो ने अपना एकांत विकसित कर लिया है और अब वे उसी में रहने को अभिशप्त हैं.

फिल्म की पटकथा में छोटी-छोटी बारिकियां भी ओझल नहीं हुई हैं.  इंटरकट संपादन के बीच दृश्यों में तरलता और एक दूसरे में घूल जाने की विशेषता है. रंग, प्रकाश और दृश्य- सज्जा का संयोजन ऐसा है जिससे यथार्थ कभी भंग नहीं होता या अतिरंजित नहीं लगता. इला कपड़े धो रही है, कैमरा स्थिर है, फोन की आवाज आती है. वह फ्रेम से बाहर चली जाती है. फ्रेम स्थिर है फिर आवाज आती है, आ रही हूं. कोई स्पष्ट सूचना नहीं है लेकिन दर्शकों को पता चल जाता है कि घटना क्या घटी है. दृश्यों की यही संवादात्मकता सिनेभाषा को सघन बनाती है. अकेलेपन, निराशा, सूनेपन को रचने में कैमरे की बेहतरीन मदद ली गई है.

इला देशपांडे आंटी के अशक्त पति का जिक्र चिठ्ठी में कर रही है, साजन के ऑफिस सारे पंखें चल चल रहे हैं. चिठ्ठी में देशपांडे आंटी के पंखे का रूकने का जिक्र होते ही साजन ऊपर देखता है, सिर्फ उसके सिर के ऊपर का पंखा नहीं चल रहा है, फिर वह धीरे-धीरे चलने लगता है, ऑफिस के बाकी पंखे सामान्य हैं.

साजन को एक स्त्री के बच्चे समेत आत्महत्या की सूचना मिलती है वह इस कदर आशंकित होता है कि अगले दिन ऑफिस में लंच का इंतजार करता है. कैमरा भी इस इंतजार को चित्रित करता है. दर्शकों की उत्सुकता बढ़ जाती है और अंततः चपरासी के लंच रखे जाने से इस आशंका का शमन होता है. ‘लंचबॉक्स’ हमें यह याद दिलाता है कि सिनेमा मूलतः दृश्य माध्यम है, जिसमें श्रव्य थोड़ा गौण हो तो वो और भी बेहतर संवाद रच सकता है. सिनेमा का एंटी क्लाइमेक्स में जाना कुछ निराश करता है. फिल्म साजन की तलाश और इला के इतंजार पर खतम होती है.

लंचबॉक्स अपने ‘अस्तित्व’ से उचाट हुए दो पात्रों को आमने-सामने रखता है जो अपने विदेहपन को त्याग कर सदेह होते हैं. आज मनुष्य के सामने सबसे बड़ा संघर्ष अपनी अंदरूनी संवेदना को बचाये रखना का है, यह संघर्ष आंतरिक अधिक है. ‘लंचबाक्स’ की सफलता इस संघर्ष के सूक्ष्म चित्रण में है. यह संघर्ष चलते हुए पंखे को साफ करने जैसा है जिसमें अपना हाथ भी सुरक्षित रखना है और पंखा भी साफ रखना है.

 

Amitesh Kumar

 

अमितेश कुमार, दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी हैं और इलाहबाद विश्विद्यालय में प्राध्यापक हैं.  रंगमंच संबंधित  ब्लॉग ‘रंगविमर्श’ के मॉडरेटर हैं। अमितेश से amitesh0@gmail.com पर संवाद संभव है। 

 

Being Unpatriotic is Injurious to Health: Tatiana Szurlej

Even the most sensitive about their history Indian nationalists, who were ready for the greatest sacrifices in the name of the mythical queen Padmavati, turn a blind eye to the presentation of India as a wicked and unfair player. The immersion of the story about cruel people who want to win at all costs in a patriotic sauce is enough for viewers to believe in this patriotism, just as the words “smoking kills” is seen as sufficient in films about people who indulge themselves in pleasure of addiction. #Author670328-raazi

Raazi: Being unpatriotic is injurious to Health

BY  Tatiana Szurlej

Spy movies can be divided into two main groups, and usually they either glorify the work of a spy, helping their heroes by depicting the enemy in a bad light, or they present a more complex picture, focusing on the moral aspects of espionage. Films of the second type usually contest, at least to some extent, the work of spies, presenting them as people acting against one of the basic social rules, which is honesty. Spies presented in this, second type of films are thus portrayed as deceivers, who, of course, act in the name of higher values, but with not fully accepted methods. As the story progresses the said spies, eventually become entangled in an extremely difficult situation in which they are forced to act to the detriment of people whose trust they have gained, and often begin to love. Raazi  (2018) seems to be one of such films, but suddenly the story changes drastically, as if the director got scared of her work.

Raazi is a story about Sehmat Khan, a daughter of a Kashmiri spy who is unable to continue his mission because of illness. However, as the neighboring countries are about to enter a war, he decides to send his daughter to hostile Pakistan on a mission. The girl, raised with the spirit of patriotism and convinced that there is nothing more important than serving the country, agrees to marry a young Pakistani man and move in with his family, so that she can pass useful information across the border to India. It soon turns out, however, that the new family is full of wonderful, warm people who accept the girl with open arms and without prejudices related to her Indian origin, and this should – at least theoretically – ignite some ethical problems, and question this kind of missions, but it doesn’t. Although the father of the Pakistani family sometimes says something against India, his attitude proves only that he has completely accepted his daughter-in-law and by expressing his unflattering opinions, does not treat her as a woman coming from the enemy’s country. Moreover, the most inspiring character is the young husband who not only understands how difficult it is for a girl to be in a foreign, unfriendly country, but also does not force his wife in to any intimate relationship, understanding that it is important for them to first know and like each other. All this should make the heroine understand, at least a little, that she will have to pay a much higher price for her task than she had expected, since it is easier to act against the wicked people than those, with whom we begin to feel emotionally connected, still the director is reluctant to deepen this issue.

The situation in which Sehmat has become intertwined seems to be difficult for the filmmakers. They do not want to explore this issue too deeply, but at the same time they cannot escape from it, and in effect the film seems to live its own life and get out of control of its authors, who in turn fight to subjugate it at all costs. The story runs towards the internal conflict, and the moral problem faced by the protagonist attached to her new family, and especially to her husband. The director however tries to tame it by making it a suspense spy story, which is an unsuccessful attempt, completely. While trying to answer the question of what the conflict heroine is really facing, some critics regard her sacrifice as a kind of prostitution, seeing a young girl selling body for her homeland in Sehmat, but I think that these reactions are exaggerated, especially in the country in which arranged marriages are the norm and no one approaches them in this way. What’s more, as it has already been mentioned, the young husband of the protagonist is a man, with whom it is difficult not to fall in love, and yet there are no emotions associated with this conflict, so it is no wonder that the film raises some questions, which would not have risen, if the story was conducted in the right manner. The fact that the viewer does not know what is inside the heroine does not seem to be the intention of the filmmakers, being rather the result of the aforementioned dilemma, which they faced when the work began to get out of control. After each spying action, Sehmat, a seemingly tough girl, is portrayed as a terrified and distraught person, but the viewer does not learn anything more about her feelings, until the hysteria shown in the climax – a typical element of Alia Bhatt’s films. As a result, we do not get neither a fanatically blinded heroine, who begins to soften, nor a sensitive girl who undertook the mission without knowing how difficult it will be to cope with. Therefore, because the heroine is rather an unremarkable person, also the danger to which she is exposed does not act on the viewer as it should, because it is difficult to identify with her and as a result to support her or fear for her life. The director tries to build tension, focused especially on the figure of a bit fiendish servant, but even here she could have tried harder. Despite all the actions taken by Sehmat she comes out safely in the last moment, these scenes do not build tension, and everything comes to the heroine surprisingly easily. Of course, the easiness of the task could be provided deliberately, as an element causing loss of alertness and leading the heroine to make a fatal mistake, and subsequent series of murders committed to hide it, but again, this is just a wishful thinking, because even if Sehmat has to kill, her mistake is not evident here.

The reason why the viewer neither supports nor hates the heroine of the film lies in the fact that Alia Bhatt is not a good actress and outside of scenes of hysteria, her performances are less than average (probably this is the reason why in so many films there is a scene in which the heroines of Bhatt flutter around the screen shouting their pain). Yet, in Raazi, especially at the beginning, Bhatt performs quite well, probably because she plays a person, who also acts and pretends to be someone else, and as such, unconsciously, or maybe with full consciousness, she uses her somewhat artificial performance as an asset.The film therefore takes the best and worst elements of Alia Bhatt’s work, interweaving the artificiality with despair, but it is not enough to build up the tension and gain sympathy or dislike of the viewer. Although it seems quite bizarre, there is nothing suspicious in the girl’s artificial behaviour for any member of her new family, except the aforementioned old servant, but viewers need something more to understand whom they watch, especially since they know why Sehmat is in Pakistan, and they accompany her also in times of doubt. Presenting the spy crying in bed and while taking shower is not enough if someone had chosen such a story for the movie. In the initial sequences of Raazi, showing the training of the young adept, we find scenes where she doubts her abilities and moments in which the unexperienced girl naively imagines that the fact that she tries her best is enough to become a perfect spy. Later, however, such scenes disappear, and even if the filmmakers try to smuggle some elements of fear and doubts, they are not very convincing. Of course, we can agree that the heroine is already a trained spy who cannot show her weakness, but why do we have to witness that crying in the shower then? The intentions of the filmmakers at the moment of the climax are clear, but it would be better if the explosion of despair presented was preceded with the accumulation of hidden, but at the same time very much present emotions which are unfortunately absent in the film.

Because so little is really known about what the main character thinks, the sympathy of the viewer, which probably was not the aim of the filmmakers, stays on the side of the Pakistani family, which is cynically exploited and wounded by a young girl. It is all even more striking when we realise that the heroine succeeds not because of her great abilities, but above all thanks to the fact that her new family trusts her so much. Perhaps this is why the director who at some point lost control over film decides to explain to her viewers that they should all be on the Indian side and that the espionage is a heroic act. As a result of this approach, we get a slightly unstable work. The film shows the story about the bitter victory at all costs, which turns out to be nothing but a loss of human values personified by spurious and inhuman characters, and in a moment it completely changes and praises spies for their steadfastness and dedication to the country, because thanks to their courage India won. The most interesting, however, is not the sudden explanation given by the film showing something completely different that the presented story, but the fact that this action had the desired effect. Even the most sensitive about their history Indian nationalists, who were ready for the greatest sacrifices in the name of the mythical queen Padmavati, turn a blind eye to the presentation of India as a wicked and unfair player. The immersion of the story about cruel people who want to win at all costs in a patriotic sauce is enough for viewers to believe in this patriotism, just as the words “smoking kills” is seen as sufficient in films about people who indulge themselves in pleasure of addiction.

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Tatiana Szurlej

Tatiana Szurlej is an Indologist from Poland. She is a film critic and writes for many popular Indian magazines and blogs. She is a PhD from Poland’s Jagiellonian University on the topic The courtesan figure in Indian popular cinema: Tradition, Stereotype, Manipulation. Currently, she teaches at the European Study Institute, Manipal University, Karnataka.

Padmaavat- Bhansali’s version of Veera Rasa: Tatiana Szurlej

Based on the Malik Muhammad Jayasi’s epic poem, the new film of Sanjay Leela Bhansali, Padmaavat is a glorious tale of courageous people, for whom the honour is more important than death. In contrast to The Cloud Door (1994, Mani Kaul) – the previous adaptation of the poem, which concentrated mainly on the erotic aspect of love between a beautiful princess and a king from the far away kingdom, and as such which shows the beauty of the shringara, the Bhansali’s version of the story is a pure example of the classical veera rasa. #Author

When the medium becomes controversy

By  Tatiana Szurlej

Even though she is not a Rajput princess, Padmavati seems to understand the Rajput’s ethos more than the first wife of Ratan Singh, who doesn’t seem to be an important part of his life. It is then the second queen, who prepares her husband for the battle, who saves king’s life and who finally decides to die in the fire in sake of not only her honour, but the honour of her husband and the whole clan. The viewer may wonder why the brave king Ratan Singh did not kill his enemy, when he had a chance, or why he remains extremely fair, even after realising that his opponent is an evil person, who will do everything to win. The answer is simple – because the hero of the epic story does not do anything which should become a flaw on his honour. The main problem with the Padmaavat controversy lays in the fact that some people try to see a historical account in it, instead of immersing themselves in a world of epic tales in which queens are extremely beautiful and noble, kings brave and honourable, and enemies ready to start a war to win a woman, whom they had never seen. It is not a coincidence that filmmakers refer to the Ramayana and Mahabharata in their film. If we don’t question the fact that Hanuman, who was able to burn the whole Lanka left Sita there instead of saving her for Rama, or that Pandavas had to kill Kauravas in the fratricidal war, why do we treat the story presented by Bhansali as a historical account? Of course, it is always hard not to compare the story, whose heroes are the historical figures with real events, and not to accuse the filmmaker of inaccuracies, but the very way in which the story of Queen Padmavati is presented on the screen should be enough for everybody to believe that the director was never interested in historical facts. It could be perhaps easier for the audience to accept the film if Bhansali decides to bring some unusual elements of the poem of Jayasi to his work, which, like the talking parrot would make the film less “real”, and easier to accept without comparing it to historical texts.

Like in many stories of a similar genre, the division between the good and evil is quite simple in the film. The spectators follow the presented events from the Rajput’s point of view, Alauddin Khilji is then no more than a barbaric villain for them. This fact is announced already almost at the beginning of the film, in the scene of the Khilji’s dance during his wedding, in which the hero shows a palm with a blood mark on it as a clear sign of his wickedness. Interestingly, a similar gesture appears in a scene of a ghoomar dance performed by the Queen Padmavati, whose palm adorned with henna looks exactly like the one of Sultan. From this small but evident announcement the viewer knows whose struggle will be presented on the screen. Even if Sultan meets the King on the battlefield, the real war takes place between him and Padmavati, and they are the protagonists of the film.

The savagery of the Sultan is visible in almost every aspect of his life, from his debauchery, through his cruelty till very clothes he wears, food he chooses and the way he eats. Comparing to him, Ratan Singh appears as a righteous king and a well-mannered man. Alauddin Khilji is dangerous and unpredictable, Ratan Singh noble. Since it is always difficult to play a flawless person, it is then no surprise in the fact that the most interesting hero, and the best performance of the film is the creation of Alauddin Khilji. However, even if his task was more difficult, Shahid Kapoor could still make more effort and bring some life to his Ratan Singh, whose greatness should appear in something more than just speeches about the Rajput’s honour. In fact, it is hard to believe in love between Padmavati and Ratan Singh, not only because there is no much chemistry between Deepika Padukone and Shahid Kapoor, but first of all because we don’t know much about the King’s personality, and he remains just a paper character. On the contrary, in spite of his cruelty, and madness, there is still a strange charm in the character of Alauddin Khilji, who except of being the most evil character of the film is at the same time the most funny one, however never becoming ridiculous. Shahid Kapoor tried probably not to copy the creation of Ranveer Singh, but he seems completely lost, without any idea how to build his character on the screen to make him memorable.

Bhansali explores artistically the fact that most of viewers of his film are familiar with the presented story, and know the end of the tale. This approach is visible especially in an intensive presence of fire on the screen, attracting attention of the audience especially in those scenes, which take place in Chittor, but not only there. Apart of the final sequence of the Queen’s jauhar, there are few other scenes in which the fire is not a merely more or less visible background, but a significant element, being a kind of dialogue with the audience, and it’s knowledge of the end of the story. One of such scenes is the one in which Alauddin Khilji burns historical notes which don’t mention his name. That moment seems to be just an another act of madness of the Sultan, but confronted with the final death of Queen Padmavati shows that apart of the power of destroy, the fire can also create a legend.

The structure of the film consists many opposites, which show not only the difference between two fighting worlds representing good and evil, but which also interestingly reflect each other. Apart of the mentioned two scenes with dancing heroes, and the interpretation of the power of fire, the biggest contrast between two enemies is highlighted by the use of colour, with the main difference between the golden, sunny world of Rajputs with green, cold, dark kingdom of the Sultan. Bhansali develops here his earlier idea of almost monochromatic sets, which perfectly reflect the colour of the desert, and subsequent fire, but which are also a perfect background for a very significant red elements, which symbolise passion, and courage. The red colour is similarly contrasted with the cold greenness of the Sultan’s environment, but this time it becomes darker, representing destroy, and death. Similarly with red, the pink colour of the powder which Padmavati applies on the feet of her husband during the Holi festival symbolise love and devotion, while the pink colour of the lotus in hands of Allauddin reflects mainly his defeat. However, one of the most interesting parallel presented in the film is the similarity between Padmavati and Malik Kafur. The Sultan’s intensive relation with Malik Kafur, and his devotion to his master is similar to the relation of Padmavati and Ratan Singh, who, as already mentioned seems to forget about his first wife after second marriage. Similarly, the Sultan doesn’t seem to think much about his wife, not only because of his obsession about Padmavati, but first of all because of Malik Kafur, who is more than a slave to him. The passion of Malik Kafur is visible especially in the love song he sings for his master, in which Alauddin Khilji is clearly shown as an object of the sexual desire. Moreover, Malik Kafur is so sure about his special status, that he is not jealous about Padmavati. Knowing that winning the woman won’t change the feeling of Sultan towards him, he helps his master to win the battle with the King.

The most intriguing element of the film is a very fresh way in which the filmmakers show Padmavati on the screen. Unlike in most Indian films, in Padmaavat it is not the heroine, whose sensual dance brings excitement to the audience. Apart from the very calm and a rather static ghoomar dance, the Queen does not dance, nor does any other woman in the film. On the contrary, the character, who brings the biggest excitement by the physical beauty of his dancing body is Alauddin Khilji, who appears not only in a very suggestive dance in the mentioned song …, but also in a demonic performance in …. song. The wild masculine dance of warriors in the … song is similar to the one of Bajirao Mastani, but this time the performance is not a happy dance of glory, but the scary dance of upcoming destroy, becoming almost a new version of the cosmic tandava dance.

In all that innovative and bold elements presented by Bhansali in his movie the most surprising is the fact, that it is not the homoeroticism (which usually is a problematic theme in Indian cinema), not the new kind of the item object, not even some historical inaccuracies which are the most controversial ones, but the honour of the Queen, which according to the protestants was abused. The clue scene which can explain this objection is the one, which causes all the tragic events, and the final death of the King and Queen. The King’s guru … is caught while he peeps to the King and his wife. The crime is so great that he is banished from the kingdom, because watching the private life of the Queen is a huge crime and sin, and nobody should dare to do that. Interestingly, in a reflected scene, Malik Kafur caught on a similar act is not punished by the Sultan, which shows not only the fact that Sultan doesn’t think about the honour of women, but which also shows his status. The audience receives then a clear message that watching Queen Padmavati is a sinful act. Still, what does the audience do while watching the film? Exactly the same – we all see scenes we should not participate in, as the cinema itself is nothing more than a pleasure of watching somebody’s secrets. The protestants are then just victims of the medium, which power they discovered. We may then say that Padmaavat is a great victory of the cinema, which proved that even today, with all media which surround us it can have such an impact on the audience, that it starts to feel guilty after watching the forbidden world of parda on the screen. The filmmakers carefully inform the audience that they don’t intend to hurt anybody’s feelings, but they can’t do anything with the basic role of the cinema which is to give a pleasure of the forbidden world. However it is worth also to mention all disclaimers which appear before the film. It seems that even after more than a hundred years of the cinema, the viewers are still so naive that it is necessary to remind them that they don’t watch the true. We find then an information here that the film does not encourage Sati. Well, that should be obvious for every sensitive person, but if it’s not, then maybe the audience should be informed as well that the film does not encourage asking for the enemy’s head, starting a war because of a woman or a bigamy. As already explained on the beginning, the film is a heroic tale about the glorious past in which there lived kings who had more than one wife, beheading enemy was a natural behaviour, and jauhar was an act of courage. And all that is presented with a great care and sensibility being, like most films of Sanjay Leela Bhansali a beautiful and breath-taking spectacle.

 

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Tatiana Szurlej

Tatiana Szurlej is a famous Indologist from Poland. She is a film critic and writes for many popular Indian magazines and blogs. She is a PhD from Poland’s Jagiellonian University on the topic The courtesan figure in Indian popular cinema: Tradition, Stereotype, Manipulation. Currently, she teaches at the European Study Institute, Manipal University, Karnataka.

‘रईस’ की तुलना में ‘काबिल’ अच्छी फिल्म है: तत्याना षुर्लेई

 

“रईस” की तुलना में मैं “काबिल” की ओर हूँ. यह फ़िल्म “रईस” से अच्छी इसलिए है कि “काबिल” यह दिखावा नहीं करता है कि वह कुछ नया और आर्टिस्टिक दिखानेवाला है. दोनों फिल्मों को देखकर फिर से यह दोहराना पड़ेगा कि अगर किसी को बारीक सिनेमा बनाना नहीं आता है तो उसे मुख्यधारा में ही रहना चाहिए. मुख्यधारा और मनोरंजन कोई कमतर जगह नहीं है और ऐसी फिल्मों की बड़ी ज़रुरत है. “काबिल” में कुछ न कुछ कमियां तो हैं लेकिन “रईस” से अच्छी इसलिए लगती है कि यह अपने दर्शकों के प्रति फेयर और फ्रैंक है. इसका ट्रेलर भी किसी को धोखा नहीं देता है. सब को पता है कि यह मनोरंजन के लिए बनी एक व्यावसायिक फ़िल्म है और जिसकी कहानी उम्मीद के मुताबिक ही है. #लेखक

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काबिल  पोस्टर

काबिल: मनोरंजन कोई बुरी बात नहीं है

By तत्याना षुर्लेई

फ़िल्म की कहानी रोमांटिक और मासूम प्यार से शुरू होती है, फिर इसमें दारुण दुःख पहुंचाने वाली क्रूरता, हिंसा और अन्याय आते हैं, और अंततः राहत देनेवाला बदला. फ़िल्म का नायक, रोहन भटनागर (ऋतिक रोशन) एक अँधा जवान आदमी है जो एक सुन्दर लड़की, सुप्रिया (यमी गौतम) से प्यार और शादी करता है. सिनेमा में दिखने वाले विकलांग लोगों में अक्सर किसी एक कमी की जगह उन्हें कई असाधारण क्षमताएं दी जाती हैं (न सिर्फ भारतीय फिल्मों में – ऐसा स्टीरियोटाइप दुनिया की बहुत सारी फिल्मों में प्रभुत्व रखता है). रोहन भी इसी तरह का आदमी है – उसको दिखाई नहीं देता है लेकिन इस विकलांगता के प्रतिउत्तर में वह दुसरे लोगों की आवाज़ों को अच्छी तरह नक़ल करता है. रोहन कार्टून का डबिंग करता है और इस काम में इतना प्रतिभावान है कि अकेले ही फ़िल्म के सारे नायकों की अलग-अलग आवाजें देता है. उसकी यह योग्यता बाद में बदला लेने वाले दृश्यों में उनकी बहुत मदद करेगा.

आसपास में रहनेवाले दो अपराधी, अमित (रोहित रॉय) और उसका दोस्त माधव (रोनित रॉय) बार-बार रोहन और सुप्रिया की ख़ुशी के आड़े आते हैं. इनके लिए इस जोड़ी की विकलांगता मजाक उड़ानेवाली बात है. एक दिन वे छेड़-छाड़ से आगे चले जाते हैं और सुप्रिया का बलात्कार करते हैं. अमित का भाई शहर का बड़ा आदमी है इसलिए वह आसानी से भ्रष्ट पुलिस को अपने पक्ष में कर लेता है. भ्रष्ट पुलिस हिंदी सिनेमा का सब से पसंदीदा टॉपिक है जिससे फिल्मवाले अभी तक थके नहीं हैं. लेकिन विषयों का दुहराव और दर्शकों के उम्मीदों पर खरा उतरने वाला प्लॉट मुख्यधारा की सिनेमा के सबसे जरुरी हिस्से हैं.

अपनी पत्नी की मौत के बाद, यह देखकर कि पुलिस कुछ नहीं करेगा, रोहन खुद बदला लेता है और भ्रष्ट पुलिस इंस्पेक्टर से जीतता है. यह प्लॉट बहुत टिपिकल और आसान है – ऐसी फिल्में तो बार-बार बनती हैं, फिर भी हमेशा की तरह वे अपने दर्शकों को अंत में बड़ी राहत देती हैं. “काबिल” में नयी बात यह है कि फ़िल्म की कहानी एक ही तरह के दो दृश्यों से अच्छी तरह खेलती है. उदहारण के लिए रोहन की पत्नी के बलात्कार के केस में इंस्पेक्टर बार-बार बोलता है कि सबूत के बिना वह कुछ नहीं कर सकता है, लेकिन बाद में, बदले वाले दृश्य में, फ़िल्म का नायक भी पुलिस से अपने क्राइम के सारे सबूत छुपाता है. सुप्रिया ने फँसी लगा ली तो रोहन ने माधव को भी फांसी पर लटकाया. सुप्रिया का बलात्कार करने से पहले उसको बिस्तर से बांधा और उसके मुँह में कपड़ा लगाया गया था ताकि वह कुछ बोल न सके, तो ऐसी ही स्थिति लेटाकर अमित की भी हत्या होती है. इस तरह के अलग-अलग आइने में प्रतिबिंबित होने वाले दृश्यों की तरह सारी उल्टी परछाईयाँ फ़िल्म में दिखाई गईं हैं.

रुसी लेखक, अन्तोन चेखव ने एक बार लिखा की नाटक के शुरू में दर्शकों को अगर दीवार में लटकी बन्दुक दिखाई देती है तो इसका मतलब यह है कि कहानी में इसका इस्तेमाल जरुरी है. “काबिल” में इस नियम का प्रयोग बहुत हुआ है. लगभग हर छोटे दृश्य, जैसे साईकिल वाला, या रोहन का पत्नी को घड़ी गिफ्ट करना इत्यादि. पहले तो इन सब का कोई बड़ा मतलब नहीं दिखता है, लेकिन बाद में ये सारे दृश्य वापस आते हैं और नायक अपने बदले वाले दृश्य में इन सब का कोई न कोई प्रयोग करता है.

सबसे अच्छी बात यह है कि मुख्यधारा की दूसरी फिल्मों के विपरीत “काबिल” में जब भी  किसी ऑब्जेक्ट का दुबारा इस्तेमाल है तो दर्शकों को याद दिलानेवाला बोरिंग फ्लैशबैक या ऑफ-स्क्रीन से झुंझला देने वाली आवाजें नहीं आती हैं (बस फ़िल्म के अंत में अंधे लोगों के बारे में रोहन के शब्द दोबारा आए हैं). साथ ही साथ “काबिल” अपने दर्शकों की बुद्धिमत्ता का सम्मान करता है जो कि पॉपुलर फिल्मों में अक्सर नहीं होता है.

ऋतिक रोशन ने “काबिल” से पहले भी विकलांग आदमी का अभिनय किया है. मगर इस बार उसने अच्छी तरह से अपने सबसे बड़े हुनर को अपने नायक की विकलांगता से जोड़ दिया है. ऋतिक का सब से बड़ा कौशल उसका नाच है जो इस बार ड्रीम सीक्वेंस का हिस्सा नहीं है. डांस स्कूल के सीन में ऋतिक फिर से दर्शकों को यह दिखाता है कि वह बॉलीवुड का सब अच्छा डांसर है. पुराने थिएटर में लड़ाई के सीन में नायक के अंधापन के साथ अँधेरा का भी दिलचस्प इस्तेमाल है. यह जरुर है कि नायक का कौशल कभी-कभी कुछ ज़्यादा ही दिखाया गया है जो कि विकलांग आदमी में नहीं होते हैं.

अंधे लोगों की ज़िन्दगी में जो कुछ भी अजीब चीजें, हरकतें सामान्यतः दिखती हैं, फिल्मवालों ने भरसक कोशिश की है कि उनकी व्याख्या प्रस्तुत की जाएँ. शादी की रात, नायक और नायिका के कमरे में जली हुई सारी मोमबत्तियाँ, जो ट्रेलर में भी दिखाई गईं हैं, किसी को अजीब लग सकती हैं. इसीलिए फ़िल्म में उसकी व्याख्या है कि वे क्यों आईं! यहाँ मोमबत्ती फ़िल्म में चेखव वाली चीज़ बन गयी. दिलचस्प बात यह भी है कि इस फ़िल्म में ऋतिक रोशन की दूसरी फिल्मों से अलग दर्शकों को उसके दोनों अंगूठे पुरे समय दिखाई देते हैं. यह निशान कोई विकलांगता नहीं है, बल्कि नायक के भाग्यशाली होने की निशानी है, फिर भी अपनी पुरानी फिल्मों में ऋतिक इसे छुपाता था. चूँकि “काबिल” सामन्य लोगों से अलग दिखने वाले लोगों के शांति से जीने के अधिकार और उनके प्रति होने वाले भेद-भाव के बारे में फ़िल्म है, इसीलिए दूसरों से अपनी भिन्नता दिखाना विकलांगता के पक्ष में एक मज़बूत आवाज़ है. विकलांग नायक का अभिनय करना और खुद दूसरों से कुछ अलग होना अलग-अलग बातें हैं और यहाँ ऋतिक ने फिर से अपनी एक और खासियत का अच्छा इस्तेमाल किया.

फ़िल्म में कमियां ज़रूर हैं और उनमें सब से बड़ी शायद फ़िल्म का आइटम नंबर है. इसकी ज़रुरत बिलकुल नहीं थी, क्योंकि यह गाना और परफॉरमेंस अच्छा नहीं हैं. शायद फिल्मवाले आगे आने वाली अपने नायक की अलग-अलग लड़ाइयों से पहले दर्शकों को थोडा-सा आराम देना चाहते थे, फिर भी अगर ज़रुरत थी तो इसे ज़्यादा अच्छी तरह से करना चाहिए था. सुप्रिया का भूत वाला आईडिया भी ज़्यादा अच्छा नहीं था, इससे फ़िल्म बस ज़्यादा दयनीय बन जाती. नायिका की मौत और उससे पहले उसके प्रति घटित अपराध ही इतने कष्टप्रद हैं कि इससे ज़्यादा कुछ डालने की जरुरत नहीं थी.

फ़िल्म में एक चिंताजनक बात माधव की बहन के प्रति रोहन का व्यवहार है. माधव और उसका दोस्त अमित जब सुप्रिया को छेड़ते थे तो रोहन को मालूम था कि यह महसूस करना कितना कष्टप्रद है. फिर भी अपने बदले वाले क्षण में रोहन माधव की बहन को छेड़ता है. यह ज़रूर है कि रोहन का व्यवहार उतना ख़राब नहीं है जितना अमित और माधव का था. वह बस अमित की आवाज़ का नक़ल करता है और यह दिखाने की कोशिश करता है कि यह सब बुराइयाँ अमित ही करता है. लेकिन, बाद में वह माधव को स्पष्ट करता है कि यह आईडिया उसे यह महसूस करवाने के लिए था कि जब कोई तुम्हारी प्यारी बहन को छेड़ता है तो तुम्हें कैसा लगता है. इस तरह की सोच पूरी दुनिया में बहुत पॉपुलर है– जब एक आदमी दुसरे आदमी की औरत से बदतमीजी करता है तो बदले में उसकी औरत से भी यही बदतमीजी करनी चाहिए. जबकि दोनों मामलों में औरतें एक तरह से बेकसूर होती हैं. इसीलिए आदमियों के झगड़े में उनको घसीटने और दंडित करने का यह आईडिया बहुत खतरनाक है.

अगर फ़िल्म में एक छोटा-सा स्पष्टीकरण यह होता कि अपराधी क्यों यह सब अपराध करते हैं तो यह भी कहानी के लिए और भी अच्छा होता, और आखिर में इतनी लड़ाइयों के बाद नायक के चेहरे पर ज़्यादा निशान दिखने चाहिए थे. मेनस्ट्रीम सिनेमा का हीरो सुपर हीरो की तरह होता है लेकिन फिर भी इतनी पिटाई के बाद हीरो के चेहरे में भी कोई न कोई चोट तो आता ही है. इन कमियों के बावजूद “काबिल” वीकेंड के शाम के लिए बहुत अच्छी फ़िल्म है जिसे देखते समय दर्शक रो सकते हैं, हंस सकते हैं और अंत में राहत महसूस कर सकते हैं.

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तत्याना षुर्लेई पोलैंड की रहने वाली हैं, एक इंडोलॉजिस्ट (भारतीय उपमहाद्वीपीय भाषा और संस्कृति की जानकार)  और फिल्म आलोचक हैं. हिंदी की मशहूर पत्रिकाओं और ब्लॉग्स के लिए लिखती रही हैं. पोलैंड के शहर क्राकोव स्थित जेगिलोनियन विश्वविद्यालय से “द कोर्टसन फिगर इन इंडियन पॉपुलर सिनेमा: ‘ट्रेडिशन, स्टीरियोटाइप, मैनिपुलेशन” नामक विषय पर पीएचडी हैं. वर्तमान में मनिपाल विश्वविद्यालय, कर्नाटक के यूरोपीय अध्ययन संस्थान में पढ़ाती हैं.

The Postmodern mores and Cinematic Expression: Dhiraj Kumar Nite

Tanu Weds Manu Returns (TWMR) is a commercial movie, and all signs are to make it a big money-grossing of this year. That said, let’s proceed. All commercial movies are necessarily an expression of socio-cultural and political proclivity of the movie maker. The logic of Investment shapes technological inputs; but the narrative strategy, cinematography and the conceptualisation of characters are, equally, the product of cultural and political locus of film makers. Let’s call this non-economic aspect of film making as the ethico-political logic and craft logic. The sexist form of cinematic characters are as much guided by the image of target audience shared by film makers as by the sexist discourse i.e., ethico-political logic, which the former often entertains. The movie of our discussion presents an enchanting ethico-political logic; the craft logic and the economic logic accompany the former to make it commercially viable. A superb combination of three distinguishes it from the so-called art movie.@Author

TWMR (2015)

TWMR (2015)

By Dhiraj Kumar Nite

Ethico-Political Logic of Cinematic Expression

TWMR brings two enamouring female characters who do share as much similarity as contrasting attributes. Both are women-in-rebellion in their own rights. They defy the tradition of cultural restraints set on the women by patriarchy. Tanu [Trivedi] embodies as much self-seeking modern conceit as, I suggest, a post-modern autonomist self. She seeks to freely flow in pursuit of a boyishly unrestrained, hedonistically rich and thrilling newness. However, she is bereft of any wishes for financial self-sufficiency. The financial foundation of her sparking adventurous life is the wealth of her parents, the boyfriend and the husband. She recognises dignity in labour, but she keeps herself away from such demanding fact of human life. As a whole her character is altogether novel imagination. She is not Anita (Praveen Boby) of Deewar, who was an equally infectious, iconoclastic discovery of the 1970s. She neither satisfies the definition of modern [bourgeois] womanhood, who is a companion of her male member to support his productive life and perform the role of an emotional anchor. Nor does she fit with the image of a modern female antithesis, who relishes financial self-sufficiency and transformative womanhood. I tempt to look at her as a post-modern womanhood in her status as a female thesis. The refusal to productivist paradigm of modernity is her distinguishing attribute. Abundance of necessaries of humankind to life is conducive to her refusal. At the same time, she does not regardthe female’s virtue in her reproductive function for the manly world. For any association with such considerationwould be a hindrance to realisation of her exploratory self. Marriage is a means than an end in-itself.

Datto, alias Kusum is one of the strongest female characters ever imagined in the Bollywood. She is distant from the retrogressive feudal tradition and the self-seeking moderns [bourgeois] conceit. She is at the cusp of refreshing transcendence. She seeks to win the world that is competitive. She takes pride in her ability of financially supporting the family or socially dependent kith & kin; relishes her agenda [rather than any burden of responsibility] of fostering a web of social relations/network; and commits to resist the latter when it attempts to overwhelm her autonomist, exploratory self. She nurtures the ethic of care, cooperation, and progressive transformation. For instance, in the course of seventh round of the Brhamanical ritual of marriage she enquires on her groom, her beloved if he is well-disposed to the final step. She decides to walk out, for she was not simply reluctant to marry to someone who is still emotionally attached to his first wife. She is careful of and cooperative towards a possibility of consolidation of love between self-deprecating Tanu and unsure Manu. She represents an image of, I tempt to suggest, a post-modern female antithesis. The latter transcends the self of feminist or socialist female antithesis, which was born in modern world and contributed to its progress. She is anyone but Indrani Sinha (Raakhee of Tapasya).

TWMR is decidedly neither a naturalist feature film nor realist. Damn, what to celebrate! It is in the league of some movies made in the recent times, which explore the grey areas of their characters. Dabang’s inspector, Piku’s daughter, Haider’s mother and son, Queen’s Rani: all of them perform their social functions with certain peculiarities. The villains are also grey characters; the hero and heroine also pleasingly indulge in the necessary ‘social vice’. Different classes intersect – at times collide with – eachother here and there. Tanu as a distraught person stumbles across a quiet beggar; the latter kisses her outreached palm and intends to offer a price for such weird thrill that visited him. Disconcerted Tanu moves on. It reminds the penultimate episode of Manto’s story A Woman’s life. In the latter Saugandhi was flustered at her rejection by the customer. Tanu is taken aback by her own realisation of the extent of dissolute condition, of acceptance by a destitute man. All this orchestrates something as much palpably earthly, which one would believe that a natural course of life witnesses; as fantasy for the world to entertain, even if not in the sight to descend soon.Needless to say, the realm of imagining of social characters is perilously fraught with the logic of investment. What is saleable sets the circumference, the limit. Therefore, Tanu and Manu return to each other to produce not just a happy ending, so notoriously characteristics of the Bollywood, but to satisfy the moral compass of the target audience. No explanation is sought for the change of hearts and minds between Tanu and Manu, who were so reasonably disposed to undertake separate strayed journeys till the previous moment. Here, TWMR loses an opportunity to lend us a cult movie. This is a recurrent feature of the story authored by Himanshu Sharma. There was no explanation on offer for the appearance of an uncommon lady, TanuTrivedi, known as batman, in Kanpur city in the prequel movie (TWM). Hobsbawm writes (On History: chapter, Postmodernity and History) that there is an increased tendency of exploring the meaning at the cost of explanation, which we find as a defining trait of the postmodernist literature.

The anti-foundationalist and anti-essentialist approach presents the aesthetics of meaning; of the politics;of the form; of the hierarchy. Let me digress to support my observation with what I borrow from a recent article of a cultural theorist,Fredrick Jameson, ‘The Aesthetics of Singularity’, New Left Review, vol. 92, March-April 2015.1. In our postmodern age we not only use technology, we consume it, and we consume its exchanges, value; its price along with its purely symbolic overtones. Similarly, the form of the work has become the content; and that we consume in such works is the form itself. In the modernist texts the effort is to identify form and content so completely that we cannot really distinguish the two; whereas in the postmodern ones an absolute separation must be achieved before form is folded back into content. Further, there is centrality of the postmodern economy, which is characterised as the displacement of old-fashioned industrial production by finance capital. 2.Only thing capital cannot subsume is the human entity itself, for which the attractive theoretical terms excess and remainder are reserved. The post-human is the final effort to absorb even this indivisible remainder.3.We have not yet entered a whole new era rather a new age of third, globalised stage of capitalism as such. Here, postmodern philosophy is associated with anti-foundationalism and anti-essentialism. This is characterised as the repudiation of any ultimate system of meaning in nature or the universe; and as the struggle against any normative idea of human nature. 4. What further distinguishes it from the old critiques of modernity is the disappearance of all anguish and pathos. Nobody seems to miss god any longer, and alienation in a consumer society does not seem to be a particularly painful or stressful prospect. No one is surprised by the operations of a globalised capitalism. This is called as cynical reason. Even increasing immiseration, and the return of poverty and unemployment on a massive world-wide scale, are scarcely matters of amazement for anyone. So clearly are they the result of our own political and economic system and not of the sins of the human race or the fatality of life on earth. We are so completely submerged in the human world, heideggerian ontic, that we have little time any longer for what he liked to call the question of being. 5. In our time all politics is about real estate. Postmodern politics is essentially a matter of land grabs. … Not to surprise,one protagonist of TWMR is a builder, another is a squatter, and the third is the issue of the location of housing in London between Tanu and Manu than the condition of house.

The craft logic of TWMR is scintillating. Every character is well chiselled. Every cast moulds herself/himself into the concerned social character. The use of close-up camera, not so popular in the Bollywood, demandingly tests calibre of actors. The narrative maintains suspense and well-proportioned subplots till the end. Editing carries pace of the narrative at an enjoyable and captivating scale. Cinematography weaves locales, which the audience would identify with and also chew it. The content, dialogue and body language successfully present a refreshing social drama rather than an electrifying comedy, for which it had immense spice to grow into at the hand of a director like Priyadarshan. Music and the songs are as much to bring out glittering, tormented or repenting inner self as to advance the story line. Finally, Kangana’s dancing effort is the rare occasion,where she bursts out as one actor involved in double roles.

Dhiraj k NiteDhiraj Kumar Nite, A Social Scientist, University of Johannesburg, Ambedkar Univeristy Delhi. You can contact him through dhirajnite@gmail.com

बूढ़ों का वसंत और लोलितागिरी: डॉ. विनय कुमार

सत्तर पार का एक बूढ़ा ‘सुपरस्टार’ है, उसे विश्वास है कि उसे सप्तर्षियों में से एक मान लिया गया है,सो मृत्यु उसे नहीं व्यापेगी।यह बूढ़ा हालांकि मुंह के भीतर नकली दाँत और माथे के ऊपर नकली केश लगाता है, जब तब बीमार पड़ते रहता है, तो भी सोलह साल की लड़की से प्रेम का नाटक करने के लिए हमेशा तैयार रहता है। बूढ़ा प्रयोगों का शौकीन है। उसे लगता है, प्रयोग करते रहने से आदमी हमेशा जवान बना रहता है। अपनी उम्र को जीत लेने का नाटक करते-करते इस बूढ़े ने साबित किया है कि सचमुच उम्र को जीता जा सकता है। वैसे अपनी उम्र को जीतने के लिए यह बूढ़ा एक खास किस्म का शहद भी खाता है। यह शहद पुणे के एक बाग़ में तैयार होता है। यह शहद या तो सिर्फ यह बूढ़ा खाता है या फिर मधुमक्खियों पर राज करने वाली रानी मधुमक्खी, बाकी जो कोई इस शहद को खाना चाहता हो उसे उस क्लब में शामिल होना पड़ेगा जो कि रानी मधुमक्खी का क्लब होता है। यह क्लब अकसर आईपीएल की टीमों के खरीदारों और उनके दोस्तों से बनता है। साठ पार कर चुका एक और बूढ़ा है। यह बूढ़ा ‘सर्वशक्तिमान’ है। इस बूढ़े के पास एक नुस्खा है। बूढ़ा रानी मधुमक्खी के क्लब में शामिल होने का नुस्खा बताता है। इस बूढ़े ने भी उम्र को जीत लिया है।यह बूढ़ा अपने शरीर को सोने से मढ़वा देना चाहता है। सोना मढ़वाये सूट को धारण करने वाला बूढ़ा अपने को रॉकस्टार कहलवाने का शौकीन है, उसे रॉकस्टार कहा भी जा रहा है। साठ साल के इस लोकतंत्र पर इक्कीसवीं सदी में बरस इक्कीसवे बरस की जवानी छा रही है। सारे बूढ़े जवान हो गये हैं, सारे बच्चे भी जवान हो गये हैं, और जो जवान हैं, उनसे कहा जा रहा है कि अब आप चिरयौवन की अनंत आकाशगंगा में टहल लगाने को तैयार हैं। यंगिस्तान कहलाने वाले इस देश में अब कोई नहीं मरता। यहां रोग-शोक-दुःख-मृत्यु कुछ भी नहीं है। यह सब उस दौर की बातें हैं जब ग्रोथ-रेट के साथ किसी पुछल्ले की तरह हिन्दू शब्द जुड़ा होता था। यह ‘हिन्दू’ शब्द उस युग की इकॉनॉमी में इस देश के आदमी को आदिमानव बताने के लिए प्रयोग किया जाता था। आदिमानव ने छलांग लगायी है, अब वह महामानव है या फिर महामानव बनने को तैयार खड़ा है। महामानवत्व के सुखसागर में डूबते उतराते इस माहौल में यह लेख कह रहा है कि भाई साहेब, ये तो एक रोग है…! यह तो सिर्फ एक भूमिका है, पृष्ठभूमि है..आख्यान आगे है। डॉ. विनय कुमार की लेखनी में नयापन क्या है? नयापन वही है जो हिंदी के समकालीन रचनात्मक परिदृश्य से गायब है। नई सूचनाएं, नए ज्ञान ताकि हम बाकी संसार के साथ कदमताल कर सकें! अंग्रेजी या विदेशी साहित्य-लेखन से सहज लोगों के लिए विनय कुमार का लेखन नया नहीं बल्कि एक तरह का दुहराव भी लग सकता है, लेकिन इसे एक तरह की शुरुआत माननी चाहिए। समकालीन हिंदी कथेत्तर गद्य हिंदी का सबसे गरीब संस्करण हो गया है। डॉ. विनय की पुस्तक ‘एक मनोचिकित्सक के नोट्स’ इस गरीबी को कुछ कम ही करता है। प्रस्तुत है इसी पुस्तक से छोटे-छोटे दो गद्यांश। @चंदन श्रीवास्तव 

Sugar Daddy (1976)-Poster

Sugar Daddy (1968)-Poster


By डॉ. विनय कुमार

 चीनी कम होने की निःशब्दता

 
चीनी कम

मादरे-वतन में अगर मनमोहनॉमिक्स की इन्द्रधनुषी छटा का नूर न होता तो हमें ‘प्रिविलेज्ड बूढ़ों के वसंत’ और ‘लोलितागिरी’ पर चर्चा की जरुरत महसूस न होती… ‘निःशब्द’ और ‘चीनी कम’ पर चर्चाएँ कहाँ हो रही हैं? क्या उस भारत में जो अनुसरण करता है या उस छोटे भारत में जो नेतृत्व करता है. जो भारत ‘भूख-भय-भ्रष्टाचार’ की मार से खुद ‘निःशब्द’ है और जिसकी किस्मत में यूँही ‘चीनी कम’ है उसे यह विलासितापूर्ण सहूलियत कहाँ कि प्रेम और विवाह की तरह-तरह की रेसिपि को चटखारे लेकर पढ़े. वृद्ध और युवती के प्रेम, साहचर्य और विवाह का मुद्दा गर्म हो रहा है या गरमाया जा रहा है? सोचने की बात है. सोचने का फैशन न रहने के बावजूद इस पर सोचने की जरुरत है.

वृद्ध का युवती से विवाह भारत के लिए कोई नई बात नहीं है. दक्षिणभोगी नीतिकार कह गए ‘वीरभोग्या वसुंधरा’ और सेनाओं के सहारे वीरता सिद्ध करने वाले सत्तावान हत्यारों को भोग का सिद्धांत मिल गया. महलों के भीतर रानियों के मोहल्ले से लेकर नगर तक बसने लगे. जरा सोचकर देखिये कि कृष्ण की साथ हजार रानियों का खर्चा कैसे चलता होगा. सिर्फ इच्छा की पूर्ति के लिए कृष्ण को प्रजा से कितना वसूलना पड़ता होगा. सत्ता और धन की गोटियों से खेला जाने वाले यह खेल नन्द और यशोदा की विरासत के बूते तो कतई संभव न था.

अब इस मुद्दे को स्त्रियों की दृष्टि से देखें. तरह-तरह के स्वाभाविक और आरोपित सीमाओं के बावजूद स्त्रियाँ सभ्यता-यात्रा में बराबर की भागीदार रही हैं. कल से आज तक जीवन और वर्चस्व की लड़ाइयों में वे अपनी तरह से शरीक रही हैं. हल और हथियार भले ही कम उठाती रही हैं, मगर श्रम के स्वेद और युद्धों के आँसूं और रक्त से कम नहीं भींगती रही हैं. नर और मादा की तरह जंगलों में भटकती मानवजाति ने जब ‘घर’ बनाया तो उनकी भूमिका इस कदर बदली कि उनका मनोविज्ञान पुरुषों से काफी अलग हो गया. घर और तन से चिपके बच्चों ने उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता का पाठ पढ़ाया. अन्न और मांस कमाकर लौटे पुरुष को जब भूख और थकान से राहत मिलने लगी तो वह स्त्री को पहले ‘जरुरत’ फिर ‘जायदाद’ की तरह प्यार करने लगा. परिणाम यह हुआ कि स्त्रियाँ ‘कृपाकांक्षिणी’ और ‘सुरक्षाकामिनी’ हो गईं. शायद यही कारण है कि स्त्रियाँ पुरुषों की उम्र से अधिक उनकी सामर्थ्य को अहमियत देने लगीं.

स्त्री के मनोविज्ञान की इस विशिष्ट पहचान के पक्ष में सबसे बड़ा जैविक प्रमाण (बायोलॉजिकल एविडेंस) यह है कि स्त्रियों की यौनिक उत्तेजना का सबलतम कारक है—पुरुष प्रदत्त देखभाल और सुरक्षा. याद करें प्रकाश झा की फिल्म ‘दिल क्या करे’. इस फिल्म की नायिका चलती ट्रेन में बलात्कार की कोशिश करने वाले गुंडों से बचाने वाले अजनबी को थोड़ी ही देर के बाद बेहद ‘निःशब्द’ तरीके से अपनी देह सौंप देती है और यात्रा के अंत में अजनबी के प्रति आँखों से आभार प्रकट करते हुए विदा हो जाती है. इतना कुछ हो जाने के बावजूद अजनबियत बरकरार रहती है. ऐसा क्यों? क्योंकि सिलसिले खतरनाक भी हो सकते हैं. अजनबियत अपने आप में एक सुरक्षा कवच है. इस प्रसंग को सुरक्षा के प्रति स्त्री के मनोवैज्ञानिक (सायकोबायोलॉजिकल) प्रतिक्रिया के रूप में देखें.

अगर स्वतंत्रता पूर्व के भारत की बात करें तो मुग्धाओं के प्रेम की सुविधा सामंतों, सेठों और वाग्वीर ज्ञानिओं के ही भाग्य में थी. लोकतांत्रिक भारत में इसमें ‘प्रिविलेज्ड क्लास’ के नेता और आला अफसर भी शामिल हो गए. अब जबकि उदारीकरण की मीठी छुरी से अच्छी-बुरी पुरानी मान्यताएं हँस-रोकर हलाल हो रही हैं, एक नए सोशल आर्डर को मान्यता दिलाने की कोशिश सर उठा रही हैं. एक फिल्म में सुबह की दौड़ लगाते हुए अमिताभ आते हैं ‘जब तक जाँ में है जाँ तब तक रहे जवां, रोज सुबह से माँगें नई-नई खुशियाँ.’ इस फिल्म में बुढ़ाते जाने के बावजूद वे विवाह नहीं करते. मगर उदार भारत में शताब्दी के महानायक कामनाओं के नदी में ‘निःशब्द’ बहते नज़र आए. ‘निःशब्द’ में थोडा अपराधबोध हुआ और ख्याल-ए-ख़ुदकुशी से उबरे तो तय किया कि तीस पार की कुड़ी से कुड़माई की जाये. इस ढीठ बदलाव के मनोविज्ञान की व्याख्या वैश्वीकरण और उदारीकरण की रोशनी में ही संभव है.

जब पश्चिम में औद्योगिक क्रान्ति हुई तो सत्ता और अर्थ के समीकरण बदले. पुराने सामन्तों और सेठों की जगह उद्यम से उभरे नवधनाढ्यों ने ली. उद्योगों ने पूंजी के नए पहाड़ बनाए, ऐश्वर्य और सुख की नई परिभाषाएँ विकसित कीं और एकदम नए किस्म की कुलीनों की जमात खाड़ी की. उद्यम और उत्पादन बहादुरों की जमात पूंजी के नशे में ‘जब तक है जाँ तब तक लुटें मजा’ की राह पर चल पड़ी. तबसे आज तक यूरोप और उसके सारे उपनिवेश में ‘एन्जॉय योर सेल्फ’ का नारा गूंज रहा है. भोग के प्रयोग ने स्त्रियों के सामने भी यह विकल्प प्रस्तुत किया कि वे चाहें तो अमीर बूढ़ों की सहचरी बन सकती हैं. धन और सत्ता का सुख किसे नहीं चाहिए. स्त्रियाँ अपवाद नहीं हैं. उनमें से कुछ को लगा कि अमीर बूढ़ों के प्रति आकर्षित होना एक सुरक्षित, आरामदेह और शक्ति एवं ऐश्वर्य प्रदान करने वाला बेहतर विकल्प है. यहीं से खड़ी हुई प्रिविलेज्ड प्रेमियों की एक नई जमात. अमेरिका में इस जमात को ‘शुगर डैडीज’ कहा जाता है. अब तो आप मानेगें कि बूढ़ों का यह वसंत ‘ग्लोबलाइजेशन का बाई प्रोडक्ट’ है और उसे फैशन शो की तरह प्रायोजित किया जा रहा है, भारत के नए उद्यम-वीरों के लिए. कुल मिलाकर वृद्ध-युवती साहचर्य का यह फैशन पूंजी के पहाड़ों से उठने वाली पुरानी पछुआ हवा का यह पुरवैया झोंका है.

जो पश्चिम में हो चूका वह भारत में हो रहा है. मगर जो जो भारत में हो रहा है वह पश्चिम में नहीं हो रहा है. पश्चिम में स्त्री-पुरुष संबंधों के समीकरण बदल गये हैं. वहाँ स्त्री सशक्तिकरण का दौर सफल हो चुका है. काफी तादात में स्त्रियाँ ज्ञान, धन, शासन-सत्ता की स्वामिनी हो चुकी हैं. नई रायशुमारियाँ बताती हैं कि अब समृद्ध और सत्तावान प्रौढ़ाएँ भींगती मसों के युवक से प्रेम और विवाह करने लगी हैं. आज नहीं तो कल भारत में यह हो सकता है. ‘चीनी कम’ की सफलता की कामना करने वाले शुगर डैडीज सोच लें.

निःशब्द

हमारे समय में शहरी और कस्बाई भारत में प्रेम पर चर्चा कोई अजूबा नहीं है. महामायावी मीडिया की कृपा से हम तरह-तरह के प्रेम पर होने वाली तरह-तरह की चर्चाओं के अनिवार्य घेरे में हैं. मोनिका-क्लिंटन और जूली-मटुकनाथ जैसी कथाएँ चाट मसाले की तरह हमरे खाने की प्लेटों में अनिवार्य रूप से छिड़की जा रही है और चूँकि हम भूखे नहीं रह सकते इसीलिए उसे चखने को विवश हैं. प्रेम का हो या न हो यह ‘प्रेम’ के अहर्निश उच्चारण से उठने वाले शोर का समय अवश्य है और ऐसे समय में आई है एक फिल्म ‘निःशब्द’. एक ‘टीन’ (युवती) और एक वक्त की मार से छीजे हुए ‘टिन’ (वृद्ध) की प्रेमकथा को लेकर.

इस फिल्म के पहले इस पर चर्चाएँ आईं और खूब आईं, जिनका लब्बोलुआब यह था कि भारत बदल रहा है- इंडिया प्वायज्ड टु बिकम बोल्ड एंड ब्यूटीफुल, देखो तो सही क्या मणिकांचन संयोग है- ओल्ड बिग बी और कमसिन ब्यूटीफुल जिया. सुपरस्टार की लोलितागिरी. जिया देखोगे तो जिया धड़क-धड़क जाएगा. तो ‘निःशब्द’ से पहले आई शब्दों की भीड़ इश्तेहार की तख्तियां उठाये. और जब फिल्म आई तो आई और आकर चली गयी. पटना में मटुक-जूली का तड़का भी भीड़ न बटोर पाया.

दरअसल ‘निःशब्द’ आकर्षण और प्रेम से अधिक त्रासदियों की कथा है. नायिका खंडित परिवार से आती है. पिताओं से भरे समाज में वह पिता के प्रेम से वंचित है. यह अभाव उसके मनोयौनिक (सायकोसेक्सुअल) विकास में अपनी भूमिका निभाता है. चूँकि किसी चीज की इच्छा उसकी कमी से ही पैदा होती है इसलिए उसके अचेतन में पितृपुरुष के लिए चाह का मौजूद होना कोई अजूबा नहीं. यहाँ प्रश्न उठता है कि उसने सहेली के पिता को पिता की तरह क्यों नहीं चाहा. ऐसा इसलिए कि वह पिता-पुत्री के संबंधों के व्याकरण से अनभिज्ञ थी. हर शिशु नर या मादा पैदा होता है. संबंधों की समझ तो परिवार और परिवेश के साथ ‘इंटरएक्शन’ से विकसित होती है. नायिका की समस्या यह है कि जब संयोग उसे अबाधित एकांत में नायक को समझने का अवसर प्रदान करता है और उसके अचेतन में पितृपुरुष को पाने की इच्छा सिर उठाती है तो वह स्वयं को एक पुत्री की तरह अभिव्यक्त नहीं कर पाती क्योंकि उसे वह मनोवैज्ञानिक भाषा ही नहीं पता जिसमें एक पुत्री अपने पिता से बात करती है. उसकी इच्छा उसके बचपन के अभाव से उठती है, मगर व्यक्त होती है युवा भाषा में. यह त्रासदी नहीं तो और क्या है! नायक अपनी तरह की त्रासदी का शिकार है, विवाहित होकर दाम्पत्य प्रेम से वंचित. दाम्पत्य की विडंबना यह है कि वह प्रेमहीन होकर भी संतानवान हो सकता है. नायक तृप्त पिता है मगर एक अतृप्त पुरुष. फिल्म में संयोग उसके अतृप्त पुरुष का कद इतना बढ़ा देता है कि पिता बौना हो जाता है. अतृप्त पुरुष की भाषा के शोर में पिता की भाषा खो जाती है. अगर सही-गलत के पारंपरिक और समाजसम्मत नजरिये से सोचें तो यह दायित्व नायक का ही था कि वह नायिका के हित में सही भाषा में बात करता. क्योंकि नायिका भले ही पुत्री की भाषा नहीं जानती थी, नायक तो पिता की भाषा जानता था. वह निःशब्द की ‘जिया’ के मोह को गुड्डी की ‘जया’ के मोह की तरह भंग कर सकता था. मगर इच्छाओं को बहकाते-दहकाते ग्लोबलाइज्ड समाज में यही, शायद यही हो सकता था. यह त्रासदी नहीं तो और क्या है?

अगर मिथकों पर रत्ती भर भी यकीन करें तो मानना होगा कि भारत शांतनु और ययाति का देश है. स्मरण है कि कमसिन कायालोलुप राजाओं की वासना की वासना को सैद्धांतिक आधार प्रदान करने के लिए लोभी शास्त्रकारों ने सोलह की उम्र को अक्षत सौन्दर्य के भोग का प्रवेशद्वार घोषित कर दिया था. ‘स्वीट सिक्सटीन’ का जूमला तो बहुत बाद की चीज है. आज चिकित्सा विज्ञान सोलह की उम्र को मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से अपरिपक्व मानता है. सोलह और अठारह में फासला ही कितना है. ‘निःशब्द’ के बहाने से ही सही, यहाँ यह कहना होगा कि अठारह वर्षीय युवती के लिए साठ वर्ष के पुरुष के मन में उमड़ा प्रेम उस कंगन की तरह होता है, जिसके सहारे वह पंचतंत्र के बूढ़े शेर की तरह अपने शिकार को फंसाने की कोशिश करता है. मीडिया और जूली को मटुक जी भी ‘निःशब्द’ के नायक की तरह अपने दाम्पत्य-जीवन को असफल बताते हैं. यहाँ उनसे यह पूछना दिलचस्प होगा कि जूलिगिरी उनकी आदत तो नहीं.

‘सठियाना’ एक फब्ती भर नहीं है. बढ़ती उम्र के लोगों की रक्त-नलिकाएं संकरी हो जाती हैं, इस कारन मस्तिष्क में रक्त-संचार कम हो जाता है. कभी-कभी मस्तिष्क में फैली रक्त-नलिकाओं में थक्का बन जाता है और मस्तिष्क के किसी ख़ास हिस्से को रक्त मिलना बंद हो जाता है. अगर यह दुर्घटना मस्तिष्क के ‘फ्रंटल लोब’ नामका हिस्से में घटित होती है, तो ग्रसित व्यक्ति वर्जनाहीन/अनैतिक व्यवहार कर सकता है. ‘जूलियों’ को ‘मटुकों’ से प्यार करने के पहले उनके मस्तिष्क का सीटी स्कैन कराकर देख लेना चाहिए कि ‘फ्रंटल लोब’ सिकुड़ तो नहीं रहा. सनद रहे की छाती में धडकने वाला दिल एक पम्पिंग सेट-भर है, वह दिल जो भावनाओं का केंद्र है, उसका निवास मस्तिष्क में ही होता है.

…साठ और अठारह का अंतराल सिर्फ उम्र का अंतराल नहीं होता, यह उर्जा, क्षमता और भविष्य का अंतराल भी होता है. टेस्टोस्टेरोन नामक पुरुष हार्मोन पच्चीस वर्ष में अपने शिखर पर होता है जबकि साठ वर्ष की उम्र में घाटी में घसीटता दीखता है. प्लैटोनिक प्रेम तो हार्मोन के मदद के बगैर भी शिखर पर पहुँच सकता है, मगर प्लैटोनिक फेज ख़त्म होने के बाद क्या- क्या होगा- यह भी सोचना चाहिए. अब आयें भविष्य पर.

अठारह की उम्र के भविष्य का अर्थ है सुबह के आठ आठ बजे और साठ का समय है शाम के पांच बजे. साठ वाला डूब जाएगा अठारह वाली के दिन कैसे कटेंगें! इसे भी सोचा जाना चाहिए!

vinay kumar

डॉ. विनय कुमार मनोवेद माइंड हॉस्पिटल, पटना में मनोचिकित्सक हैं.  हिंदी साहित्य से लेकर साहित्येत्तर सांस्कृतिक रुचियों तक को बहुत नजदीक से परखते हैं. नॉन फिक्शनल हिंदी की अकाल वेला में अद्भुत चमक के अधिकारी हैं. हाल ही आई पुस्तक ‘एक मनोचिकित्सक के नोट्स’ से खासे चर्चित. उनसे dr.vinaykr@gmail.com पर संपर्क संभव है. 

Om-Dar- Ba-Dar: Excerpts Of Original Script

८०९० के दशक में सिनेमा की मुख्या धारा और सामानांतर सिनेमा से अलग भी एक धारा का एक अपना रसूख़ थायह अलग बात है कि तब इसका बोलबाला अकादमिक दायरों में  ही ज्यादा था। मणि कौलकुमार साहनी के साथसाथ कमल स्वरुप इस धारा के प्रतिनिधि फ़िल्मकार थे।  वैकल्पिक और सामाजिकसंचार साधनों और डिजिटल के इस जमाने में ये निर्देशक फिर से प्रासंगिक हो उठे हैं। संघर्षशील युवाओं के बीच गजब की लोकप्रियता हासिल करने वाले कमल  स्वरूप की  कल्ट फिल्म  ओम दर बदर इधर फिर से जी उठी हैं। अभी हाल ही में एनएफडीसी  ने  इसे डिजिटली  संरक्षित कर एक  एक बड़ा काम किया है। यह कदम एक महान फिल्म को जीवनदान देने जैसा है।  डिजिटली संरक्षित होते ही इसने अपने कमाल दिखाने शुरू कर दिये हैं। पीवीआर ने  इसे  17 जनवरी, 2014 से  पूरे देश में  प्रदर्शित करने  का फैसला किया है।  

आज व्यावसायीक और तथाकथिक सामानांतर फिल्मों का भेद जब अपनी समाप्ति के कगार पर पहुँच चुका हैतब कमल स्वरूप और इनकी कल्ट फिल्म  ओम दर बदर  की विगत महत्ता और योगदान पुनर्समीक्षा की मांग करता है।  इसी कड़ी में यहाँ  ‘ओम दर बदर ‘ की मूल पटकथा के कुछ हिस्से आपसे साझा किया जा रहा है। 

ओम दर बदर पोस्टर

ओम दर बदर पोस्टर

सीन नं. 28: इन्टीरियर/एक्सटीरियर:

                बाबूजी का ग़रीब घर/गली, सुबह  बारिश की पहली हवा  बाबूजी, गायत्री,   छोटा ओम।

                {आंगन में गायत्री पंखों के सामने बैठकर बाल सुखा रही थी। -फिर गंघी करने लगी। बाल झटकी – आइने के सामने खड़ी होकर सफेद बाल ढूंढने लगी। तोड़कर अंगुली में लपेटा – आंगन में फेंका तो धूप आई – जाकर धूप में खड़ी हुई।}

                {अपने कमरे में बाबूजी खाट पर अख़बार ओढ़े सो रहे थे। दीवार पर एक छिपकली थी।}

गायत्री: ओम ! स्कूल कब जायेगा?

                {ओम अंदर कमरे में बैठा भूगोल के नक्शे में बनी नदी में रंग भर रहा था।

ओम: छुट्टी है।

                {गायत्री का कंघी करता हुआ हाथ रुक गया}

गायत्री: क्यों ?

ओम: बरसात होगी।

गायत्री: क्यों ?

ओम: तू कंघी जो कर रही है।

                {बरसात के पहले वाली हवा चली। कैलेन्डर फड़फड़ाने लगे। बाबूजी की बनाई जन्म-पत्रियाँ हवा में उड़ीं। हवा का रुका हुआ झोंका छूट कर उथल-पुथल मचाने लगा। गायत्री – समेटने लगी।

 

सीन नं. 29: एक्सटीरियर:

                {शहर में तूफान के पहले वाला अंधड़ा छाया। साइकिलें हवा में उड़ीं। पेड़ उखड़े। सड़क पर पागल औरत हँसने लगी।}

सीन नं. 30: 28 के समान।

                {ओम शान से आसमान की तरफ देख रहा था। आसमान गरजा तो दीवार की छिपकली बाबूजी के मुंह पर रखे अख़बार पर गिरी। बुरी ख़बरें थीं। बाबूजी डरकर उठ बैठे। पांव में जूते पहले से पहने हुए थे। हाथ बनाई छोटी प्रश्न कुंडलियां हवा में उड़ रही थीं। एक ख़ास चीज़ ढूंढने लगे। अलमारी, तकिये सब छान मारे। आंगन में कुंडलियों के दो राकेट बने हुए थे। खोलकर देखा।

बाबूजी: ओम, तू कमरे में आया था।

ओम: न। 

बाबूजी: तो रॉकेट कौन उड़ा रहा था।

ओम: रूस और अमेरिका।

बाबूजी: गायत्री, दो कुंडलियां नहीं मिल रहीं, हवा में तो नहीं उड़ीं।

                {गुलशन नंदा के उपन्यास में रखी कुंडलियां निकालकर बाबूजी को दी}

गायत्री: मैं पढ़ रही थी।

बाबूजी:     तीस की बीस कर रहा हूं। एक साल के दस मिलेंगे। ख़िज़ाब है।

गायत्री: छि: ! घुट घुट के मरेगी वो। -मेरे भी तो बाल सफेद हो रहे हैं।

बाबूजी: तो चली जा जहां तू समझती है हमेशा: जि़न्दा रहेगी।

                {गायत्री अपमानित होकर अपनी खटिया के किनारे पर जा बैठी। दरवाज़े से गली दिखती थी। वो बाहर गली में निकली। कुछ दूर पहुंचते ही बारिश की पहली बौछार गिरी। बचने को भागी।}

सीन नं. 31: एक्सटीरियर:

                झील में नौका विहार, चांदनी रात, ठंड,   लाल रूमाल डाले आवारा     छोरा और हिप्पन छोरी।

                {लाल रूमाल और काला चश्मा पहने आवारा छोरा और हिप्पन छोरी नाव चला रहे थे}

छोरा: जानती हो प्यार किसे कहते हैं: {ल व्ह} एल.ओ.वी.ई.! लव, लेक ऑफ सॉरो- ओ, ओसियन ऑफ़ टीयर्स- वी, वैली ऑफ डैथ- ई, एण्ड आफ लाईफ। प्यार कोई बाजारू – चीज़ नहीं है जो अमेरिका में बिके।

                {नाव दूर जाकर पानी में डूब गई}

सीन नं. 32: इन्टीरियर/एक्सटीरियर:

                पिक्चर हाल, दिन, बारि गायत्री, जगदीश, दर्शक

                {अन्धेरी में गायत्री को लगा कई जन उसे घूर रहे हैं। जगदीष की नजर की पकड़। जगदीष पर्दे की ओर देखने लगा। वो भी अकेला था। पिक्चर छूटी। भीड़ दरवाजे की तरफ बढ़ने लगी। जगदीश सामने खड़ा था – हकला कर बोला – ‘‘आई लव यू’’ और तेज़ी से पलटकर भागा। गायत्री हक्की बक्की रह गई। भीड़ दरवाज़े के बाहर छूटी तो सीढि़यां उतरते हुए, फुल साइज़ मिरर में अपने को कइयों के बीच अकेला पाई।

सीन नं. 33: एक्सटीरियर:

                सुनसान सड़क, बारि के बाद दोपहर, जगदीश,  गायत्री, ऑटोरिक्शा

                {बारिश के बाद सड़क के दोनों ओर पेड़ धूप में सूख रहे थे। गायत्री अकेली, उदास घर की ओर जा रही थी एक ऑटोरिक्शा कान के पास से सनसनाता हुआ गुजर गया। छाती पर हाथ गया तो चुन्नी गायब।}

          ऑटोरिक्शा – कुश्ती लड़ेगी…….

                { ऑटोरिक्शा के बाहर लाल चुन्नी हवा में लहराई}

                इसके पहले कि चुन्नी जमीन पर गिरती, जगदीश ने साईकल पर बैठे-बैठे चुन्नी को नीचे गिरने से बचा लिया। साईकल पर बैठे-बैठे चुन्नी गायत्री को लौटाई।

जगदीश: आई एम सॉरी। पर कुसूर आपका भी है।

गायत्री: अकेली थी इसलिये।

जगदीश: अकेला मैं भी हूँ।

                {कुछ दूर तक दोनों के बीच तनाव बना रहा। जगदीश ने चुनौती देकर पूछा}

जगदीश: उचक कर कैरियर पर चढ़ सकती हैं आप। लिफ्ट दे रहा हूँ।

                {गायत्री उचक कर बैठ गई। जगदीश के हाथों में हैंडल कांपा। गायत्री मुस्कुराई। साईकल डबल बोझ से चरमरा कर चली।}

सीन नं. 34: एक्सटीरियर:

                बाबूजी के घर की छत और गली, शाम बारि के बाद, जगदीश और गायत्री

                {जगदीश ने गायत्री को घर के बाहर उतारा।}

जगदीश: माय सेल्फ जगदीश, फराम झुमरी तलैया।

                {गायत्री ने छत से जगदीश को जाते हुए देखा जगदीश सामने से आती हुई साईकिल से टकरा कर गिर पड़ा। गायत्री खिलखिलाती हुई सीढि़यों से आंगन में उतरी। ठोकर लगी। वहीं बैठकर सोच में डूब गई।

सीन नं. 35: इन्टीरियर/एक्सटीरियर:

                बाबूजी का घरपिछवाड़े की गली, दोपहर बारिके बाद, जगदीश,  गायत्री

                {गायत्री ने रेडियो पर स्टेशन ढूंढा,  फिर मोढ़े पर बैठ कर आंगन में गायत्री मशीन वाली सुई से कपड़े पर तोता बना रही थी। सामने गली से धोबी अपने गधे के साथ गुजरा। फिर पोस्ट मैन आया।

पोस्टमैन: गायत्री संकर केयर आफ बी संकर-

                {चिट्ठी खोल कर पढ़ने ही वाली थी कि रेडियो पर अपना नाम सुना।}

रेडियो प्रोग्राम:

          और ये खत है इस प्रोग्राम को बेहद चाहने वाले, झुमरी तलैया के जगदीश साहब का – लिखा है कि आज से झुमरी तलैया की बजाय उन्हें अजमेर का माना जाये – लीजिये मान लिया – जगदीष साहब आपने पता तो बदल लिया लेकन आपका मनपसंद गीत पिछले आठ साल से नहीं बदला- आपका फरमाइशी गीत हाजिर है- और हमेशा की तरह इसी गाने को सुनना चाहते हैं- अजमेर से ही जगदीश, गायत्री, ओम, टिंकू, झिंकू, पिंकी, डॉली और उनके मम्मी डैडी-

                {गाना शुरू हुआ। गायत्री ने चिट्ठी पढ़ी}

चिट्ठी: आवाज़ की दुनिया के दोस्तों। मैंने कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि फरमाइशी प्रोग्राम में मेरे नाम के साथ जुड़ी लड़की पिक्चर हॉल में मिलेगी। क्या पता इन फरमाइशी प्रोग्राम में जुड़े नामों का सम्बन्ध जन्म-जनमान्तर का हो। कहां मैं झुमरी तलैया और तुम अजमेर….खिड़की खोलो तो मैं दिखूं…………।

                {गायत्री ने खिड़की खोली तो दिल धड़का। नाले के उस पार जगदीश साईकिल की घंटी बजाकर हंस रहा था। गायत्री खिड़की की ओट में हो ली। चिट्ठी को आगे पढ़ा।

चिट्ठी: मेरी साईकिल का ख्याल रखना

                                                तुम्हारा जे.

                {फिर से खिड़की से झांका तो केवल साईकिल खड़ी थी। गायत्री खिड़की से साईकिल का ख्याल रखने लगी।}

कमल स्वरूप

कमल स्वरूप

कमल स्वरुप फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट पुणे के1974 के स्नातक हैं। घासीराम कोतवाल(1976),अरविन्द देसाई की अजीब दास्तान (1978), गाँधी(1982), सलीम लंगड़े पर मत रो (1989),सिद्धेश्वरी (1989)जैसी फिल्मों में सहायक निर्देशकसंवाद लेखकप्रोडक्शन डिजाइनर और शोधार्थी के बतौर इनका रचनात्मक सहयोग रहा है। बतौर निर्देशकनिर्माता कमल स्वरुप ने अभी तक सिर्फ एक फिल्म बनाई है– ओम दर बदर(1988), भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी तरह की एक मात्र कल्ट फिल्मफिल्म फेयर पुरस्कार से पुरस्कृत। ओम दर बदर के अलावे कुछ डाक्यूमेंटरी फिल्में भी।  दादा साहेब फाल्के और भारतीय फिल्मइतिहास  के अद्भुत अध्य्येता। दादा साहब फाल्के का महावृतांत  ‘ट्रेसिंग  फाल्के ‘ के नाम से प्रकाशित । इसी साल दादा साहेब फाल्के  रचित एक नाटक  से प्रेरित  डॉक्यूड्रामा  ‘रंगभूमि ‘ का निर्माण।    

बलराज साहनी- जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं: चंदन श्रीवास्तव

By चंदन श्रीवास्तव

अभिनय महान कहलाएगा बशर्ते अभिनेता किरदार को ऐसे निभाये कि उसका अपना व्यक्तित्व तिरोहित हो जाय, वह ना रहे, निभाया गया किरदार ही रहे। इस पंक्ति को पढ़कर किसी को कबीर याद आ जायें तो क्या अचरज- ‘जब मैं था तब हरि नहीं- अब हरि हैं हम नाहीं ’! अचरज कीजिए कि बलराज साहनी के अभिनय की ऊंचाई को ठीक-ठीक इसी कसौटी पर महान ठहराया जाता है, यह भूलते हुए कि कबीर का समय बलराज साहनी के समय से अलग है, और ठीक इसीलिए 15 वीं सदी के भक्त का अपनी भाव-वस्तु से जो तादात्म्य संभव रहा होगा वह शायद बीसवीं सदी के किसी अभिनेता का अपने किरदार के साथ संभव ना भी हो । आख़िर चेतना का वस्तूकरण, व्यक्तित्व का विघटन, संवेदना का विच्छेद जैसे पद बीसवीं सदी के मनुष्य को समझने-समझाने की गरज से आये थे। अचरज कीजिए कि खुद बलराज साहनी ने भी अपनी तरफ़ से अभिनय की महानता की कसौटी प्रस्तुत करने की कोशिश की तो किरदार के साथ अभिनेता के एकात्म को ज़रुरी शर्त माना, भले ही अभिनय के दौरान उन्हें इससे तनिक अलग भी अनुभव हुआ हो। इस आलेख का विषय बलराज साहनी के इस ‘अलग अनुभव ’ की तरफ़ संकेत मात्र करना है, ताकि इस आम सहमति को तनिक प्रश्नाकुल होकर कुरेदा जा सके कि किरदार से अभिनेता का एकात्म ही अभिनय की महानता की एकमात्र कसौटी है।

बलराज साहनी

बलराज साहनी

                                          1

आम सहमति यही है कि ‘ बलराज साहनी कई चेहरों वाला अभिनेता ’ थे। ‘ कई चेहरों वाला अभिनेता ’ कहने के पीछे मंशा यह बताने की होती है कि “अधिकतर अभिनेता विभिन्न पात्रों के रोल करने पर भी अपने ख़ुद के चेहरे को छिपा नहीं पाते हैं और सही अर्थों में उन पात्रों को साकार करने में असमर्थ रहते हैं..” जबकि बलराज साहनी ने विभिन्न पात्रों की भूमिका इस तरह निभायी कि “ ख़ुद की शख़्सियत को उन पात्रों में उजागर नहीं होने दिया, इसीलिए वे पात्र इतने सजीव होकर होकर साकार हुए। ”(1) । बलराज साहनी के अभिनय के संदर्भ में ‘ कई चेहरों वाला अभिनेता ’ का रुपक इतना प्रभावशाली है कि थोड़े हेर-फेर के साथ हर समीक्षक इस बात को दोहराना जरुरी समझता है। मिसाल के लिए जन्मशती के इस साल में बलराज साहनी के अभिनय की विशेषता को याद करते हुए एक सुधी समीक्षक ने उनकी तुलना यूनान के पौराणिक पात्र प्रोतेउस से की क्योंकि एक तो वह किसी के पकड़ में नहीं आता और आ भी जाय तो “ऐसी रफ़्तार से इतने वास्तविक-से चोले बदलने लगता है कि पकड़नेवाला घबरा कर उसे छोड़ देता है और वह फिर फ़रार हो जाता है। ”(2)कमोबेश ऐसी ही बात अपने इस सहोदर भाई के बारे में भीष्म साहनी भी कहते हैं- “ बलराज की सफलता का राज था कि वे किसी किरदार को निभाते वक्त उसमें अपना दिल ही नहीं, आत्मा भी झोंक देते थे। काबुलीवाला फ़िल्म करते वक्त उन्होंने पठान काबुलीवाला के जीवन को नजदीक से जानने के लिए उसका गहन अध्ययन किया। यही कारण है कि जब आप बलराज की किसी फ़िल्म को याद करते हैं, तो बलराज याद नहीं आते वह किरदार याद आता है। हर किरदार अपने आप में अलग नजर आता है। अभिनेता बलराज गायब हो जाता  है। वह अपनी पहचान को किरदार में घुला देते थे। यह इस कारण होता था क्योंकि वे किरदार से गहरे स्तर पर जुड़ जाते थे. बलराज कहते थे कि एक्टिंग सिर्फ कला नहीं है, यह एक विज्ञान भी है.”(3)

भीष्म साहनी ने जिस बात को संक्षेप में लिखा है, उसका विस्तार बलराज साहनी पर केंद्रित ख्वाजा अहमद अब्बास के एक संस्मरण में मिलता है। इस संस्मरण में अभिनेता बलराज साहनी से जुड़ी कई कहानियां हैं, ऐसी कहानियां जो अभिनय के प्रति बलराज साहनी की निष्ठा का साक्ष्य तो हैं ही, पाठक के मन में अभिनेता बलराज के प्रति श्रद्धा-भाव जगाती हैं। अब्बास साहब लिखते हैं- “ 1945 में इप्टा ने जब फ़िल्म धरती के लाल बनायी, जिसमें सारे के सारे गैर-पेशेवर अभिनेता-अभिनेत्री थे, उसके लिए लंबे-तड़ंगे तथा नफीस बलराज साहनी ने, जो बीबीसी में दो बरस काम करने के बाद कुछ ही अर्सा हुए लंदन से वापस लौटे थे,खुद को ऐसे आधे-पेट खाकर गुजर करते बंगाली किसान में बदला,जैसे वह अकाल के मारे लाखों किसानों में से ही एक हों। वह महीनों तक सिर्फ एक वक्त खाकर गुजारा करते रहे थे ताकि कैमरे के सामने उनकी अधनंगी देह,अपने भूख के मारे होने की गवाही दे। और हर रोज कैमरे के सामने जाने से पहले वह अपनी धोती,समूचे शरीर और चेहरे पर भी,कीचड़ मिले पानी का छिडक़ाव कराते थे ताकि हर तरह से अकिंचनता प्रकट हो। ”(4)

‘दो बीघा ज़मीन’ के बारे में तो ख़ैर, यह बात प्रसिद्ध है ही कि इस फ़िल्म के किरदार को निभाने के लिए बलराज साहनी कई हफ्ते तक कलकत्ता में रिक्शा खींचने वालों की बस्ती में रहे थे। यहां उन्होंने रिक्शा खींचने के लिए खुद को प्रशिक्षित ही नहीं किया था बल्कि रिक्शा खींचने वालों के तौर-तरीके भी सीखे थे। ‘दो बीघा ज़मीन ’ के किरदार को निभाने के लिए बलराज साहनी ने क्या-क्या किया इसका एक ब्यौरा खुद बलराज साहनी की जबानी सुनिए- “बम्बई शहर से बाहर जोगेश्वरी के इलाके में उत्तर प्रदेश और बिहार के भैंसे पालने वाले भैया लोगों की बहुत बड़ी बस्ती है। मैं अगले दिन से वहां के चक्कर लगाने लगा। मैं भैया लोगों के साथ बैठता, उनकी बातें सुनता, उन्हें काम करते हुए देखता। वे कैसे चलते हैं, क्या पहनते हैं, क्या खाते हैं, कैसे उठते-बैठते हैं- यह सब मैं बड़े गौर से देखता और अपने मन में बैठाता। भैया लोगों को सिर पर गमछा लपेटने का बहुत शौक होता है और हर कोई उसे अपने ही ढंग से लपेटता है। मैंने भी एक गमछा खरीद लिया और घर में उसे सिर पर लपेटने का अभ्यास करने लगा। लेकिन वह खूबसूरती पैदा न होती। मेरे सामने यह एक बहुत बड़ी समस्या थी, जिसे हल करने की मैंने पूरी कोशिश की। ‘दो बीघा जमीन’ में मेरी सफलता ज्यादातर इसी अध्ययन का नतीजा है।”(5)

एक बार फिर से प्रसंग पर लौटते हुए बात ख्वाजा अहमद अब्बास के संस्मरण की करें। अब्बास साहब ने तफ्सील से बताया है कि बलराज साहनी द्वारा अभिनीत किरदार अगर प्रसिद्ध हुए तो इसलिए कि उनका अभिनय कौशल “मानव व्यवहार के सहानुभूतिपूर्ण प्रेक्षण और यथार्थवाद के लिए गहरे लगाव,ब्यौरों के प्रति तथा चरित्र व व्यक्तित्व एक एक-एक रग-रेशे के प्रति आश्यचर्यजनक ईमानदारी ” से भरा था। अब्बास साहब लिखते हैं- “काबुलीवाला में,रवींद्रनाथ टैगोर के रचे बहुत ही भोले पठान के प्यारे से पात्र को साकार करने के लिए,उन्होंने रावलपिंडी में गुजरे अपने बचपन की स्मृतियों को फिर से जगाया था,जहां सीमांत क्षेत्र से आने वाले पठान सहज ही और रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा होते थे। इसके अलावा उन्होंने स्थानीय पठानों से संपर्क कर उनसे उनकी बोल-चाल सीखी थी,उनका प्रिय साज़ रबाब बजाना सीखा था और पश्तो के गीत गाना सीखा था। उन्होंने पठानों की हिंदुस्तानी की बोल-चाल की ध्वनि और उसके लालित्य को सीखा था। ..वर्षों तक वह जहां भी जाते थे, उनके चाहने वाले उनका स्वागत काबुलीबाला के बोलने के तरीके की उनकी प्रस्तुति की नकल कर के किया करते थे। ” (6) । इसी तरह इप्टा के नाटक आखिरी शमा में बलराज साहनी द्वारा अभिनीत मिर्जा गालिब के चरित्र के की तैयारी के बारे में अब्बास साहब ने लिखा है कि “इस पात्र की प्रस्तुति को पूर्णतम बनाने में.. उन्होंने अपने दोस्तों से देहली की उर्दू इस तरह सीखी थी, वह इस जुबान में वैसे ही बोल सकते थे, जैसे गालिब बोलते रहे होंगे। उन्होंने मुशाइरा शैली में शाइरी पढ़ने की नफीस कला भी घोंटकर पी ली थी। गालिब के पात्र की उनकी प्रस्तुति इतनी विश्वसनीय तथा जीवंत थी कि गालिब के एक महान पारखी तथा गालिब साहित्य के विद्वान ने कहा था: ‘‘जाहिर है कि महान शायर को मैंने कभी देखा तो नहीं था, पर मैं इतना जरूर जानता हूं कि गालिब ऐसे ही नजर आते,ऐसे ही शायरी पढ़ते और नाटक में चित्रित विभिन्न हालात में उनकी ऐसी ही प्रतिक्रिया रही होती।’’(7)

          2

 बलराज साहनी के अभिनय के बारे में प्रचलित ये सत्यकथाएं क्या एक अभिनेता के कौशल का साक्ष्य मात्र हैं, या इन कथाओं की एक अंदरुनी राजनीति है? क्या इन कथाओं के भीतर एक प्रेरणा यह सिद्ध करने की है कि अभिनय तभी श्रेष्ठ हो सकता है जब अभिनेता निभाये जा रहे किरदार की वास्तविक ज़िंदगी में उतरकर उसके सुख-दुःख को भोगे? दूसरे शब्दों में, क्या बलराज साहनी के अभिनय-कौशल को सिद्ध करने के लिए बहुधा उद्धृत की जाने वाली इन कथाओं के भीतर एक मंशा यह साबित करने की होती है कि यह कलाकार समाजवादी समाज-रचना के सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान था और उसकी अभिनय कौशल एक तो इस निष्ठा का ही सबूत है और दूसरे उसका अभिनय-कौशल समाजवादी समाज-रचना की दिशा में किया गया कृत्य होने के नाते महान है ? लग सकता है कि यहां महानता की बड़ी और जटिल कथा का एक छोटे-से वाक्य में लाघवीकरण हो रहा है, मगर ऊपर की कथाओं में इस प्रश्न का उत्तर हां में देने के पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं। मिसाल के लिए, जिस सुधी समीक्षक ने बलराज साहनी के अभिनय कौशल को सराहते हुए उसकी तुलना रुप बदलने वाले पौराणिक पक्षी प्रोतेऊस से की है, उसने लिखा है कि नैचुरल एक्टिंग की यह सिफअत वैसे तो अशोक कुमार और मोतीलाल में भी मौजूद थी, लेकिन “अशोक कुमार और मोतीलाल की सीमा यह थी वे ऊँचे या दरमियानी समाजी दरजे से अलग दिख नहीं पाते थे – उनमें आप उन्हें जो चाहे बना डालिए. उनके चेहरे सिर्फ़ ख़वास के रहे, अवाम के न बन पाए. हिंदी सिनेमा की इस ख़ला को भरा बलराज साहनी ने.” (8)

भीष्म साहनी अपने सहोदर भाई के अभिनय-कौशल को जब याद करते हैं तो यह जोड़ना जरुरी समझते हैं कि “ इससे ( किरदार के साथ एकात्म) बढ़कर भी शायद एक चीज थी, वह था बलराज का सामाजिक सरोकार। वे किसी किरदार को उसके सामाजिक संदर्भो से जोड़ कर देखते थे. उन्होंने मार्क्सवाद के महत्व को स्वीकार किया ”। और अपनी बात की पुष्टि में एक वाक़ये का ज़िक्र करते हैं कि कैसे ‘दो बीघा ज़मीन” की शूटिंग के दौरान बलराज साहनी मुलाकात कलकत्ते में बिहार से आये एक रिक्शेवाले से हुई और उन्होंने उसे फ़िल्म की कहानी सुनाई तो वह यह कहकर रोने लगा कि- “यह तो बिल्कुल मेरी कहानी है. उसके पास भी दो बीघा ज़मीन थी, जो उसने एक जमींदार के पास गिरवी रखी थी और वह उसे छुड़ाने के लिए पिछले पंद्रह साल से कलकत्ता में रिक्शा चला रहा था. हालांकि उसे उम्मीद नहीं थी कि वह उस ज़मीन को कभी हासिल कर पायेगा. इस अनुभव ने उन्हें बदल कर रख दिया। उन्होंने ख़ुद से कहा कि ‘मुझ पर दुनिया को एक गरीब, बेबस आदमी की कहानी बताने की जिम्मेदारी डाली गयी है, और मैं इस जिम्मेदारी को उठाने के योग्य होऊं या न होऊं, मुझे अपनी ऊर्जा का एक-एक कतरा इस जिम्मेदारी को निभाने में खर्च करना चाहिए ’।(9)

और ख्वाजा अहमद अब्बास के जिस संस्मरण का जिक्र आलेख में ऊपर आया है वह तो लिखा ही गया है इस पैरोकारी के साथ कि- “अगर भारत में कोई ऐसा कलाकार हुआ है जो ‘‘जन कलाकार’’ के ख़िताब का हकदार है, तो वह बलराज साहनी ही हैं। उन्होंने अपनी ज़िंदगी के बेहतरीन साल, भारतीय रंगमंच तथा सिनेमा को घनघोर व्यापारिकता के दमघोंटू शिकंजे से बचाने के लिए और आम जन के जीवन के साथ उनके मूल, जीवनदायी रिश्ते फिर से कायम करने के लिए समर्पित किए थे। ” फ़िल्म के पर्दे पर बलराज साहनी का चेहरा ‘ख्वास का नहीं अवाम का चेहरा ’ बन सका तो इसलिए कि ‘उन्होंने मार्क्सवाद के महत्व को स्वीकार किया था ’-  ख्वाजा अहमद अब्बास का उपरोक्त संस्मरण शायद इस बात को सबसे दमदार ढंग से प्रस्तुत करता है। उनका तर्क है- “ बलराज साहनी कोई यथार्थ से कटे हुए बुद्धिजीवी तथा कलाकार नहीं थे। आम आदमी से उनका गहरा परिचय (जिसका पता उनके द्वारा अभिनीत पात्रों से चलता है), स्वतंत्रता के लिए तथा सामाजिक न्याय के लिए जनता के संघर्षों में उनकी हिस्सेदारी से निकला था। उन्होंने जुलूसों में, जनसभाओं में तथा ट्रेड यूनियन गतिविधियों में शामिल होकर और पुलिस की नृशंस लाठियों और गोलियां उगलती बंदूकों को सामना करते हुए यह भागीदारी की थी। गोर्की की तरह अगर जिंदगी उनके लिए एक विशाल विश्वविद्यालय थी, तो जेलों ने जीवन व जनता के इस चिरंतन अध्येता, बलराज साहनी के लिए स्नातकोत्तर प्रशिक्षण का काम किया था। ”(10)

समाजवादी सिद्धांतों के प्रति निष्ठा ने बलराज साहनी को श्रेष्ठ अभिनेता बनने की ज़मीन मुहैया करायी, ऐसा सिर्फ उनके अभिनय को सराहने वाले सुधी समीक्षक ही नहीं बल्कि ख़ुद बलराज साहनी भी मानते हैं, लेकिन किसी घोषणा के अंदाज में नहीं बल्कि उस संयम के साथ जो उनके अभिनय की एक खास पहचान है। वे लिखते हैं- “यह कहना कि कलाकार को हर समय अपनी कला का ही ध्यान रहता है, और देश या समाज की समस्याओं से वे बिल्कुल अलग रहते हैं, बड़ी भारी भूल है। अभिनेता जनता के सामने जीवन नहीं पेश करता,दूसरों के जीवन की तस्वीर पेश करता है। हमलोग फ़िल्म में मैंने एक पढ़े-लिखे बेरोजगार नौजवान का पार्ट अदा किया, दो बीघा जमीन में एक दुःखी किसान का, औलाद में एक घरेलू नौकर का, सीमा में एक विद्वान समाज सेवक का, टकसाल में करोड़पति का और काबुली वाला में एक मुफलिस पठान का। सब रोल एक दूसरे से जुदा थे। अगर मैं किसानों, मजदूरों, पठानों वग़ैरह का जीवन क़रीब से जाकर नहीं देखता तो कभी यह संभव नहीं हो सकता था कि मैं यह पार्ट अदा कर सकता। अगर उन्हें क़रीब से देखना उचित था तो उनके जीवन की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को जानना और समझना भी मेरा फ़र्ज़ था, तभी मैं उनके दिलों की धड़कनों को अपनी आंखों और अपने शब्दों में अभिव्यक्त कर सकता था, वरना बात अधूरी रह जाती। ” (11)

                                                3

“जीवन की आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को” जाने-समझे बगैर किसी अभिनेता के लिए किरदार को निभा पाना संभव नहीं- इस निष्कर्ष पर बलराज साहनी कैसे पहुंचे ? क्या इस वजह से कि अभिनेता बनने के बावजूद उनका खुद के बारे में ख्याल यही रहा कि वे प्राथमिक रुप से एक साहित्यकार हैं ? शायद हां, क्य़ोंकि वे अपने साहित्यकार होने और अभिनेता होने को अनिवार्य-संबंध की एक कड़ी के रुप में देखते थे। इस बात को अलग-अलग रुपों में उन्होंने स्वीकार किया है कि “अगर मैं साहित्यकार ना होता तो इतना अच्छा अभिनेता नहीं बन पाता..”। (12) । फ़िल्म-अभिनेता बनने के पीछे जो कारण उन्होंने गिनाये हैं उसमें एक है पैसों की तंगी तो दूसरा है, साहित्य की दुनिया से बेवजह ठुकरा दिए जाने का मलाल। अपने बारे में वे किंचित गर्व से बताते हैं कि विलायत(बीबीसी लंदन में एनाऊंसर की नौकरी के लिए) जाने से “पहले मेरी कहानियां ‘हंस’ में बाकायदा प्रकाशित होती रहती थी. मैं उन भाग्यशाली लेखकों में से था, जिनकी भेजी हुई कोई भी रचना अस्वीकृत नहीं हुई थी। ” बीबीसी में नौकरी के दौरान उन्होंने एक भी कहानी नहीं लिखी और जब भारत लौटने पर इस “टूटे अभ्यास” को जारी रखने के लिए  उन्होंने एक कहानी हंस पत्रिका में भेजी तो वह लौटा दी गई। ख़ुद उन्हीं के शब्दों में- “मेरे स्वाभिमान को गहरी चोट लगी. इस चोट का घाव कितना गहरा था, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके बाद मैंने कोई कहानी नहीं लिखी .चेतन के फ़िल्मों में काम करने के निमन्त्रण ने जैसे इस चोट पर मरहम का काम किया. फ़िल्मों का मार्ग अपनाने का कारण यह अस्वीकृत कहानी भी रही। (13)

फ़िल्मों में अभिनय करते हुए पच्चीस से ज़्यादा बरसों के गुजर जाने के बावजूद अपने बारे में उनकी मान्यता यही रही कि वे प्राथमिक रुप से एक लेखक हैं। अपने “फिल्मी जीवन की पचासवीं वर्षगांठ” पर उन्होंने लिखा कि देश के बंटवारे के काऱण मुझे पिता के धन-दौलत के आश्रय से वंचित रहना पडा और पांवों पर खड़ा होने की मजबूरी ने मुझसे जो कई काम करवाये( मिसाल के लिए फ़िल्म डिवीजन की डाक्यूमेंटरी फ़िल्मों में कमेंटरी बोलना, विदेशी फ़िल्मों की हिन्दी डबिंग में भाग लेना, गुरुदत्त द्वारा निर्देशित फ़िल्म बाजी की पटकथा और संवाद लिखना) और फ़िल्मों में काम करना भी इसी मजबूरी का हिस्सा था। फ़िल्म बाज़ी के सफल होने के बाद इस फ़िल्म के निर्माता चेतन आनंद ने उन्हें एक फ़िल्म की कथा लिखने और उसे निर्देशित करने का न्योता दिया था और उन्होंने लिखा है कि-“आज मुझे अफसोस होता है कि चेतन आनंद की इतनी अच्छी पेशकश मैंने क्यों ना शुक्रगुज़ारी के साथ क़बूल की ” क्योंकि बलराज साहनी के ही शब्दों में- “लेखक और निर्देशक बनना मेरे जैसे आलसी स्वभाव के व्यक्ति को ज़्यादा रास आता। ”(14)

खुद को प्राथमिक तौर पर लेखक मानने वाले बलराज साहनी के लिए साहित्य का उद्देश्य है- “असलियत के सामने आईना रख देना ” यानी जीवन की हू-ब-हू तस्वीर पेश करना। इस सोच के अनुकूल वे नाटको-फ़िल्मों और उनमें किए जाने वाले अभिनय के बारे में भी यही मानते थे कि उसमें कुछ भी ऐसा नहीं किया जाना चाहिए जो “कहीं भी वास्तविकता और असलियत पर अत्याचार ” सरीखा हो। कविताई में जिसे अतिशयोक्ति कहा जाता है, वही फ़िल्मों में मेलोड्रामा कहलाता है- अगर इस पंक्ति को ठीक मानें तो कहा जा सकता है कि बलराज साहनी ने अपने लिए अभिनय की जो निजी कसौटी तय की थी वह हिन्दी फ़िल्मों की इतिहास-प्रदत्त या कह लें स्वभावगत विशेषता यानी मेलोड्रामेटिक बनावट के प्रतिपक्ष में तैयार की हुई कसौटी है। यह अकारण नहीं है कि एक तरफ वे कंपनियों के पेश किए हुए नाटकों को कलात्मकता से शून्य रचना मानते हैं क्योंकि सामूहिक जीवन के मामले में “अंदर से खोखली” और बाहर के सामाजिक जीवन से बहुत गहरे ना जुड़े होने के कारण ऐसी रचना पेश नहीं कर पायीं जिनका “ असलियत से संबंध” हो और अपने दौर की फ़िल्मों को अलिफ़-लैला नुमा “उन्हीं पुराने दकियानूसी नाटकों के रुपांतरण ” मानकर उनके  “दीर्घजीवी होने पर” वह शुबहा करते हैं। अलिफ़-लैला यानी फैंटेसी की दुनिया अगर अपने को अतिशयोक्ति(मेलोड्रामा) में साकार करती हो, तो इसके लिए बलराज साहनी के व्याकरण में कोई जगह नहीं जान पड़ती। कम से कम अपनी तरफ से उन्होंने अभिनय की जो कसौटी प्रस्तुत की है, उसको पढ़कर तो यही लगता है।

गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. और फिर शांतिनिकेतन में थोड़े दिन तक अंग्रेज़ी-साहित्य का अध्यापन करने वाले बलराज साहनी अभिनय का प्रतिमान प्रस्तुत करना हो तो शेक्सपीयर के नाटक हैमलेट के तीसरे अंक को याद करते हैं जिसमें नायक हैमलेट बादशाह के दरबार में नाटक पेश करने वाले अभिनेताओं को उपदेश देते हुए कहता है- “देखो स्टेज पर खड़े होकर इस तरह बोलो कि सुनने वालों को रस आये, यह नहीं कि उनके कान फट जायें। तुम अभिनेता हो, ढिंढोरची नहीं। और देखो, हाथ को कुल्हाड़े की तरह मार-मारकर हवा को मत चीरना। अभिनेता को चाहिए कि वह अपने मन को हमेशा काबू में रखे,चाहे उसके अन्दर भावनाओं के तूफान क्यों ना उठ खड़े हों। जो अभिनेता अपनी भावनाओं को क़ाबू में रखकर उन्हें संयम से व्यक्त नहीं कर सकता, उसे चौराहे पर खड़ा करके चाबुक मारना चाहिए।..”

“..और देखो फीके भी मत पड़ जाना। अंडर ऐक्टिंग करना भी अच्छा नहीं होता। ख़ुद अपनी समझ-बूझ को अपना उस्ताद बनाओ और उसी के अनुकूल चलो। अपने चाल-ढाल को, अपने संकतो के शब्दों के अनुकूल बनाओ और शब्दों को संकेतों के अनुकूल और बराबर ख्याल रखो कि कहीं भी वास्तविकता और असलियत पर अत्याचार ना हो। अगर कहीं भी अतिशयोक्ति से काम लिया तो नाटक का सारा मनोरथ ही खत्म हो जाएगा।। याद रखो, सैकड़ों वर्षों से नाटक का मनोरथ एक ही रहा है और भविष्य में भी वही रहेगा- असलियत के सामने आईना रख देना ताकि अच्छाई अपना रुप देख सके, उतार-चढ़ाव भी उस आईने में साफ दिखाई दें..”

उनकी पेशकश में चुनौती है कि – “जरा इन पंक्तियों की कसौटी पर आप अपने देखे हुए नाटकों और फ़िल्मों को परखिए और देखिए कि वे किस हद तक पूरी उतरती हैं..” (15)

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आलेख के इस आख़िरी भाग में आइए, देखने की कोशिश करें कि क्या बलराज साहनी के सिनेमाई अनुभव के भीतर कोई फांक है, दूसरे शब्दों में क्या उनके सिनेमाई अनुभव का कोई हिस्सा अभिनय के बारे में तय किए गए अपने ही प्रतिमान को नकारता हुआ-सा प्रतीत होता है ? इस सिलसिले में पहली बात “स्वाभाविक अभिनय” से जुड़ती है। भले ही बलराज साहनी की मान्यता यह रही हो कि ‘अभिनय अगर स्वाभाविक हो तो उसे हर कोई पसंद करता है ’(और यह मान्यता बहसतलब है) लेकिन ऐसा कहने के साथ-साथ यह जोड़ना भी ज़रूरी समझते हैं कि “स्वाभाविक अभिनय एक तरह से भ्रांति पैदा करने वाली चीज है, क्योंकि दर्शकों को स्वाभाविक लगने वाला अभिनय करते समय हो सकता है, अभिनेता को कई अस्वाभाविक बातें करनी पड़ें। उसका दृष्टिकोण दर्शक के दृष्टिकोण से भिन्न होता है…”।(16) प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या दृष्टिकोण का यह अलगाव निभाये गए किरदार से दर्शक का एकात्म स्थापित करने में कहीं से बाधक नहीं होता ? और दूसरी बात, कलाकार अगर अपने अभिनय को स्वाभाविक बनाने के लिए कुछ अस्वाभाविक चीजें करता है तो फिर इस अस्वाभाविकता का उस भोगे हुए यथार्थ से क्या रिश्ता है जिसे खुद बलराज साहनी ने अभिनय की प्रामाणिकता के लिए जरुरी माना है ?

इस प्रश्न का सही उत्तर तो खैर हमेशा अनिर्णय की स्थिति में रहेगा कि लोकप्रियता किसी कला की महानता की एकमात्र कसौटी है या नहीं , परंतु यह बात मान ली जानी चाहिए कि कला अगर स्वान्तः सुखाय नहीं है तो फिर उसे लोक-स्वीकृति की तलब हमेशा लगी रहेगी। यह बात कम से कम फ़िल्म सरीखे जन-माध्यम के लिए तो कही ही जा सकती है क्योंकि इसका विराट दर्शक-वर्ग ‘अज्ञातकुलशील’ होता है और फ़िल्म बनाने वाले के सामने हमेशा इस बात की चुनौती होती है कि वह इस ‘ अज्ञातकुलशील ’ दर्शक की रुचि का कोई औसत मान निकालकर उस पर खड़ा उतरने की कोशिश करे। अभिनेता के दृष्टिकोण और दर्शक के दृष्टिकोण में अंतर स्वीकार करने वाले बलराज साहनी जब फ़िल्म की लोकप्रियता के बारे सोचते हैं, तो आश्चर्यजनक तौर पर अभिनय के बारे में तय किए गए अपने ही प्रतिमान से बिल्कुल अलग बात कहते हैं, कुछ ऐसी बात जो असलियत के सामने आईने रखने वाले उनके यथार्थवाद की जगह अतिरंजना और अतिशयोक्ति को प्रतिष्ठित करता प्रतीत होता है। मिसाल के लिए, अभिनय-कला शीर्षक निबंध में एक जगह उनका कहना है-“हम पढ़े-लिखे अभिनेता पुराने अभिनेताओं पर नाक-मुंह चढ़ाते हैं। हम कहते हैं कि उनका अभिनय स्वाभाविक नहीं था, उनमें बनावट होती थी, और वे बात को बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते थे। लेकिन उनके अभिनय का सही मूल्यांकन करने के लिए हमें यह देखना चाहिए कि उनका दर्शकों पर कैसा प्रभाव पडता था। वे जो भाव अभिव्यक्त करते थे, वे प्रायः सच्चे होते थे, और उनकी अभिनय शैली बहुत प्रभावशाली होती थी। बाल-गंधर्व जैसे अभिनेता अपनी शैली के बहुत बड़े उस्ताद थे। आगा हश्र के नाटक दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। ” (17)

बात बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जाय, सच्चाई तो भी रह सकती है, ऐसी प्रभावशील सच्चाई जो मंत्रमुग्ध कर दे- ऐसा अनुभव बलराज साहनी को कई बार हुआ। इसका एक साक्ष्य उनकी आत्मकथा के शुरुआती कुछ पन्नों पर ही मौजूद हैं। अपने स्कूली दिनों को याद करते हुए वे लिखते हैं उन दिनों मैंने ‘हीर-रांझा’ और ‘अनारकली’ नाम की फिल्में देखी थीं और अनारकली के रुप में अभिनेत्री सुलोचना के सौन्दर्य से अभिभूत हो उठा था। अनारकली को जिन्दा दफ्न करने के दृश्य को याद करके मैं रो उठा था। अनारकली की दर्दनाक मौत की पीड़ा में छटपटाते बलराज की हालत यह थी -“  यदि मुझसे कोई कहता कि यह सब तो सिनेमा के ट्रिक का मामला है और कोई भी ईंट सुलोचना के चेहरे को ढंकने के लिए नहीं रखी गई तो मैं उसे थप्पड़ मार देता, जहां तक मेरा सवाल है, सुलोचना मर चुकी थी और मेरे लिए जीवन में कोई आनंद शेष नहीं रह गया था..लेकिन सुलोचना तो जिन्दा थी और कई फिल्मों में उसने मेरे साथ काम भी किया। जब भी मैं उसके प्रति अपने इस किशोरवय के प्रेम का जिक्र करता तो वह इसे हंसी में उड़ा देती। आज जबकि मैं खुद एक फ़िल्म स्टार हूं तो उसकी इस हंसी का मतलब समझ सकता हूं लेकिन तो भी यह ख्याल मैं अपने दिल से नहीं निकाल पाता कि किसी दिन उससे कहूंगा कि वह सिर्फ मूर्खतापूर्ण आसक्ति भर नहीं था बल्कि प्रेम का मेरा पहला सच्चा अनुभव था..। ” (18)

और दूसरा साक्ष्य है फ़िल्म ‘दो बीघा जमीन” की लोकप्रियता के संबंध में की गई उनकी टिप्पणी। इस फ़िल्म से जुड़ी यादों को बलराज साहनी अपनी “आखिरी सांसों तक सहेजकर” रखना चाहते थे। बावजूद इसके इस फ़िल्म का यथार्थवाद उन्हें खटकता था। उन्हें मलाल रहा कि दो बीघा जमीन को जैसी सराहना बुद्धिजीवियों में मिली वैसी आम जनता के बीच नहीं। और इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने इस फ़िल्म में दो दोष गिनाये हैं। एक तो यह कि इस फ़िल्म का नायक कभी भी “उस अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज बुलंद नहीं करता, जिसका उसे सामना करना होता है , ” और दूसरे यह कि “ वह अपने दोस्तों और सहकर्मियों को खुद से दूर कर देता है ” जबकि एक औसत दर्शक जो खुद को हीरो के जूते में रख कर देखना चाहता है। वह कभी भी “ खुद को इस तरह के आत्मपीड़क और अंतर्मुखी हीरो के साथ जोड़ कर देखना ” नहीं चाहेगा। इस दोष का जिम्मेदार वे सारी प्रगतिशील कला और साहित्य की उस आदत को मानते हैं जो “विदेशी मूल्य और वाद पर खड़ा उतरना चाहते हैं ना कि उन मूल्यों पर, जो हमारी अपनी धरती की उपज हैं। दो बीघा जमीन की तकनीक भी विश्व प्रसिद्ध इतालवी निर्देशक की फ़िल्म बाइसिकिल थीफ और उसमें प्रदर्शित किये गये यथार्थवाद से प्रभावित थी। यही वह कारण था कि रूसियों ने भले ही दो बीघा जमीन के बारे में अच्छी बातें कहीं, लेकिन उन्होंने अपनी सारी प्रशंसा और सम्मान राजकपूर की फ़िल्म आवारा के लिए सुरक्षित रख लिया, बल्कि वे आवारा के प्रति दीवाने से हो गये।.. हालांकि हमने उम्मीद की थी समाजवाद के इस मक्का में लोग कहीं ज्यादा सुसंस्कृत और उन्नत कला  को सम्मान देंगे , लेकिन रूसियों को आवारा के प्रति उनकी दीवानगी के लिए कसूरवार नहीं माना जा सकता। खास तौर से यह देखते हुए कि आवारा में कितने बेजोड़ तरीके से भारतीय जीवन की धड़कन को पकड़ा गया है।” (19)

इस विन्दु पर संस्कृति-मनोविज्ञानी सुधीर कक्कड़ की याद आना लाजिमी है जो लिखते हैं कि सिनेमा भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले लोगों के साझा स्वप्नों(फैंटेसी) का वाहक है और एक ऐसा वैकल्पिक जगत मुहैया कराता है, जहां हम यथार्थ से अपने पुराने संघर्ष को जारी रख सकते हैं। हमारे फ़िल्म-जगत में फ़िल्म दर फ़िल्म स्वप्नों की ऐसी भारी मात्रा में नियमितता आश्चर्य में डालती है। एक तरह से जिंदगी की वास्तविक समस्याओं के ऐसे जादुई हल, भारतीय जनमानस में गहरी जमी ऐसे समाधानों की इच्छा की ओर इशारा करते हैं।.. कोई भी समझदार भारतीय यह नहीं मानता कि सिनेमा में वास्तविक जिंदगी का अंकन होता है। ” (20)

चन्दन श्रीवास्तव

चन्दन श्रीवास्तव

चन्दन श्रीवास्तव,  मूलतया छपरा(बिहार) के निवासी, पिछले पंद्रह सालों से दिल्ली में। पहले आईआईएमसी और फिर जेएनयू में पढ़ाई। “उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिन्दी लोकवृत्त का निर्माण” शीर्षक से पीएचडी के बाद दिल्ली के कॉलेजों में छिटपुट अध्यापन, फिर टीवी चैनल की नौकरी और अब विकासशील समाज अध्ययन पीठ(सीएसडीएस) की एक परियोजना इंक्लूसिव मीडिया फॉर चेंज से जुड़े हैं। इनसे  chandan@csds.in पर संपर्क संभव है। 

संदर्भ

(1) बलराज-संतोष साहनी समग्र, संपादक डा. बलदेवराज गुप्त, प्रचारक ग्रंथावली परियोजना, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी में संकलित सुखवीर का बलराज साहनी एक चेहरा, कई चेहरे शीर्षक आलेख।

2. नवभारत टाईम्स में प्रकाशित विष्णु खरे का लेख जो चवन्नी चैप नामक ब्लॉग पर ‘बलराज साहनी पर विष्णु खरे ’ शीर्षक से उपलब्ध है

3 अखरावट ब्लॉगस्पॉट पर भीष्म साहनी की नजर से बलराज साहनी- शीर्षक पोस्ट

4 देखें पुंजप्रकाश ब्लॉग स्पॉट पर जनकलाकार बलराज साहनी- ख्वाजा अहमद अब्बास शीर्षक पोस्ट

5. लाईवहिन्दुस्तान डॉट कॉम पर 5 मई 2012 को प्रकाशित दो ‘ बीघा जमीन की एक तलाश ’ शीर्षक पोस्ट

6. देखें पुंजप्रकाश ब्लॉग स्पॉट पर जन-कलाकार बलराज साहनी- ख्वाजा अहमद अब्बास शीर्षक पोस्ट

7 उपरोक्त, वही

8  चवन्नी चैप नामक ब्लॉग पर विष्णु खरे का आलेख, उपरोक्त

9. अखरावट ब्लॉग सपॉट पर- भीष्म साहनी की नजर से बलराज साहनी शीर्षक पोस्ट

10.( देखें- लाईवहिन्दुस्तान डॉट कॉम पर, उपरोक्त)

11. देखें- बलराज-संतोष साहनी समग्र, संपादक डा. बलदेवराज गुप्त, प्रचारक ग्रंथावली परियोजना, हिन्दी प्रचारक संस्थान, वाराणसी में संकलित ‘फिल्मी-दुनिया ’ नामक निबंध

12  देखें- बलराज-संतोष साहनी समग्र में- सुखबीर का आलेख, उपरोक्त)

13. देखें चवन्नीचैप ब्लागस्पाट पर क्यों अभिनेता बने बलराज साहनी शीर्षक पोस्ट

14. देखें- बलराज-संतोष साहनी समग्र में “अपने फिल्मी जीवन की पचासवीं वर्षगांठ पर ” शीर्षक आलेख

15. देखें बलराज-संतोष साहनी समग्र में सिनेमा और स्टेज नामक निबंध

16.  देखें बलराज-संतोष साहनी समग्र में अभिनय कला नामक निबंध

17. बलराज-संतोष साहनी समग्र में अभिनय-कला नामक निबंध

18. देखें बलराज साहनी- ऐन ऑटोबॉयग्राफी, हिन्द पॉकेट बुक्स, 1979, दिल्ली

19. अखरावट ब्लागस्पॉट पर मेरी निगाह में सिनेमा : बलराज साहनी, सत्यजीत रे, अडूर गोपालकृष्णन नामक पोस्ट

20. अखरावट बलॉगस्पॉट पर सिनेमा पर सुधीर कक्कड़: भारतीय सिनेमा दिवास्वप्नों पर पलता है.. शीर्षक पोस्ट

साभार- नया पथ

Madras Café and the Indian state apparatus: Prabhat Kumar

BY Prabhat Kumar

I watched Shoojit Sircar’s film Madras Café (MC) early this week. Commenting on a film released three-four weeks ago, when we are flooded with new Hindi films every Friday, is a lazy exercise and also involves the risk of going unread. Nevertheless, I am eager to share my thoughts on MC.Madras Cafe

For a person who has a superficial knowledge about the minute factual details regarding Ex-PM Rajiv Gandhi’s assassination in the context of Sri Lankan ethnic strife –involving Sinhala dominated Sri Lankan state, minority Tamil nationalist organization, Indian state apparatus– the film has been an engaging experience. While watching, however, I also somewhat felt irritated for being unable to keep pace with the movie. On an afterthought I have excused myself. Probably it is the film’s shortcoming, not mine. Quite contrary to the generally overstretched Hindi films, MC might be over edited! Audience is bombarded with fast-paced information. Back and forth movement of camera on the scale of the narrative’s time could have been avoided. Notwithstanding these minor flaws, on the whole, it appears to be a good film. A director’s film, indeed, that has got excellent support from his cameraman (especially footage of violence and suffering by civilians) and good assistance from the film’s background scores. At the level of acting the co-producer John Abraham (Indian RAW agent in Sri Lanka) has not done badly with his unchanging expressions. Nargis Faqri, a British war journalist who speaks with American accent, is not very bad either. Characters like by Bala (Prakash Belawadi), the John’s boss in Sri Lanka and the RAW chief in India (Siddharth Basu) were the most impressive and appeared immaculate in their performances. Other characters, even minor ones, like SP (Rajeev Pandey) who taps phone conversations, were looking natural exhibiting a better range of expressions than John.

Slowly, as I emerged from this engaging entertainer, I found that film had grown on me. Although very important in its own right, I was not bothered about facticity of an avowedly fictional political thriller. Instead, the cinematic narrative of a real political event struck a chord: the violence of Sinhala majoritarian nationalism pitted against its Tamil ethnic minority, counter-violence of the Tamil ethno-nationalism, incalculable suffering of the civilians (Tamil as well as non-Tamils) and moreover, the role of Indian state and its security apparatus in the ethnic strife of Sri Lanka, last but not the least, the global network of military-industrial business interests in the security market of nation-states (referred to in passing but far from staying unnoticed). For a person like me, who watches almost all good-bad-ugly Hindi films, it is the sensitive (but safe!) treatment of such subjects that was a new experience.

Before I wanted to pen down my musings, howsoever politically inflated it may appear below, I checked how has this film been reviewed and received in (English) media. I found most of what I have written about MC’s craft above had already been told. However, only a couple of reviews had noticed what I mentioned in the preceding paragraph: the significance of the film’s ‘political’ subject. Reviews dealing with the political side of the film, I feel, have mentioned and lauded only the too obvious (or should I say convenient to comment upon!) a subject: human tragedy of the strife captured by brilliant camera work. Other glaring and not so glaring but certainly inconvenient aspects of the film have gone uncommented.

To be precise, in my opinion, the film does not show, for e.g., early background of the nasty workings of the majoritarian Sinhala nation-state, what actually in the early years Tamil resistance stood for, etc. I will refrain from commenting further on what MC does not cover. After all, MC is essentially an ‘Indian statist narrative’, which tries to be self-consciously realistic by resisting melodrama. John, an Indian army officer, is the sutradhar, the narrator-protagonist. He tells us the story in the capacity of a participant observer, a RAW agent in Sri Lanka. He is sent there to materialise what Indian state could not do politically and officially. John is there (like Rambo!) to curtail the hegemony of LTF (read LTTE) by pitting other Tamil nationalist rivals against Anna (read Prabhakaran). However, he fails because of betrayal by his locally entrenched superior (another RAW official who is coincidentally Tamil). A duty-bound official suffers personal injuries, physical as well as emotional. More importantly perhaps, the sutradhar – the honest Indian citizen is a broken personality who later sank himself into alcohol for his inability to avert a ‘national’ disaster. The primary point of his telling (starting with hackneyed scene of confession to a priest in the Church) is to underline his failure to save his ex-prime minister (Rajiv Gandhi), because of the moles in the state’s own apparatus. There are also other moments, big and small, in the film’s narrative, the political import of which, I believe, could not be ignored. Remember the crucial but brief conversation between ex-intelligence man (played by Dibang) and the protagonist John in Thailand when the actual motive of the planned assassination is told. Through the sutradhar, the audience is told that big business houses of world negotiate through footloose (ex-) diplomats and (ex-) security servicemen for the smooth running and profit of their international enterprise. They function extraterritorially; they buy passage for their business; and directly or indirectly finance killing, warfare, also sale arms (?) to the state or ‘non-state’ actors (here LTTE).

To state the obvious, what is clearly shown in this ‘Indian statist’ narrative is the messy and unapologetic role of the Indian state and its security agencies in the ethnic strife of Sri Lanka. What is more, the film also shows (in the largely nationalist vein) the ‘extra-legal’ global network of military-industrial business interests in the security market of nation-states in which men from Indian establishment may have a clear stake and involvement.

Let me explain. Indian state and its security apparatus are shown to be deeply involved in the extra-legal and extra-territorial activities in the neighbouring region. How security agencies of the big and powerful nation-states, and India is no exception, manoeuvre the political happenings of the region without caring for its tragic human consequences. Military establishments are no exception to corruption, individual greed for money and power. These are issues which are unsurprising to those who engage in some ways or the other, directly or indirectly, with everyday work and practice of the state security agencies. Yet these are also the issues, about which discussion is hardly found to be taking place in public– discussion which could raise questions on its moral-political legitimacy. Probably, a large part of its citizenry (of course those who do not face violence directly) believes in their nation-state’s projected holy self-image; that the nation and its saviour army are too virtuous and sacrosanct to be involved in such acts. Profoundly undemocratic aspect of such involvements is hardly ever talked about in open. On the contrary, such discussions are either systematically discouraged, or take place from the statist perspective where interest of the state-apparatus is projected as the ‘national’ interest. Those who would dare to raise such issues from the non-statist position are received with suspicion in the age of jingoistic nationalism nurtured and propagated by the state and its embedded media. If one talks about India’s diabolic role in sabotaging the democratic upsurge in neighbouring Nepal, if one talks about the possibility of Indian security establishment’s entrenched interest and role in tearing apart the democratic upheaval on its own frontiers, s/he runs the risk of being targeted as ‘anti-national’.

The film, intentionally or unintentionally, brings this issue home. Although told from the perspective of an Indian state official for whom such illegal acts are dirty necessities (for the problem always already exists and initiated by the ‘other’; only way to save the nation is to break the ranks of ‘other’ nation/s operational either in the form of state or waiting-to-be-state!), the film visiblises the darker side of security discourse of the nation-states. It also exposes the transnational nexus of business executives and (retired!) security hawks, a nexus that has clear political consequences not only at the levels of high politics of the nation-state but also for the mass of people in general. MC, apart from being good in terms of its craft, may also be appreciated for this.

However, appreciation of MC as a film, which renders the illegitimate aspects of nation-state and its security apparatus visible on the silver screen, is contingent upon the way the film is received. Critics’ articulation of MC’s reception in public sphere has hardly spelt out this problematic aspect of the movie. A general silence probably reflects consent or at best indifference to such practices of the security state. Tamil nationalist groups have raised political objections. (Some wanted a ban on the film, which is of course unjustified.) But theirs is a populist opposition which accuses the movie for being biased against the (now dead) Tamil militarist-nationalist chief Anna (Prabhakaran) and his fief, the LTTE – a waiting-to-be-state. An opposition which hardly takes into account the issues and problems underlined above.

Prabhat Kumar

Prabhat Kumar

Prabhat Kumar, Assistant Professor of History, Presidency University, Kolkata

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