गार्सां द तासी हिंदी-उर्दू में परिचय के मोहताज नहीं हैं. वे हिंदी साहित्य के पहले इतिहासकार के रूप में जाने जाते हैं. इसके अलावा उनके बारे हम बहुत कुछ नहीं जानते हैं. उनके अधिकांश लेख हिंदी और इंग्लिश में अनुदित नहीं हुए हैं. बावजूद इसके उनके सैकड़ों लेख मूल फ़्रांसिसी में उपलब्ध हैं.उनके बारे में एक मजेदार तथ्य यह भी है कि वे कभी भारत नहीं आये थे, वैसे ही जैसे कार्ल मार्क्स कभी भारत नहीं आये थे और 1857 के विद्रोह के बारे में आधिकारिक तौर पर लिख रहे थे. गार्सां द तासी का यह भाषण एक गैर ब्रिटीश यूरोपीय के उस ख़ास नजरिये को भी उद्धृत करता है कि पूरब के उपनिवेशों को देखने का ‘तटस्थ’ नजरिया क्या हो सकता है! एक मजेदार संभावना के बीज़ इस भाषण से उपजते हैं कि कार्ल मार्क्स और गार्सां द तासी, दोनों के 1857 से संदर्भित विचारों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाए, दोनों ही गैर ब्रिटिश यूरोपीय और कभी भी भारत न आने वाले बुद्धिजीवी रहे हैं.
उम्मीद है कि किशोर गौरव, जो कि फ़्रांसिसी अध्ययन केंद्र जेएनयू, नई दिल्ली में पीएचडी के शोध छात्र हैं, आगे भी इसी तरह के अनुवाद उपलब्ध करवाते रहेंगे. तिरछीस्पेल्लिंग उनका आभारी है.
Garcin De Tassy
1794 – 1878
अनुवाद – किशोर गौरव
गार्सां द तासी
10 दिसंबर 1857 का भाषण
पूर्वी भाषा संस्थान, बिब्लोतैक इन्तरनास्योनाल
उत्तर भारत में जो भयावह घटनाएं इस वर्ष हुई हैं, विशेषकर उत्तर पश्चिम के प्रांतों में, जो की वे प्रांत हैं जहां की मुख्य भाषा हिंदुस्तानी है और जहां वह विशेष तौर पर विकसित है, उनकी वजह से वहां साहित्यक कार्य बिलकुल ठप हो चुके थे और इसलिए मैं जो वार्षिक व्याख्यान देता हूं जिनमें विगत वर्ष के उर्दू और हिंदी जबानों के प्रकाशनों और अखबारों का विवरण होता है, वह मैं नही दे पाया। यह आपको ज्ञात है। हिंदुस्तान की अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एक नई और जबरदस्त बगावत की शुरुआत हो चुकी है।
जो कुछ भी कहा जाए, लेकिन हिंदुस्तानी अपनी मनमौजी और अत्याचारी स्वदेशी सरकारों की तुलना में अंग्रेजी सरकार को बेहतर समझतें हैं जो कि भले ही बहुत पितृतुल्य न हो, लेकिन कम से कम स्थापित नियमों के अनुरूप चलती है। यह तथ्य मुझे हिंदुस्तान के कई मूल निवासियों से मिलकर और उन्हीं की कृतियों को पढ़कर ज्ञात हुआ है। फिर भी अंग्रेजों का यह सुंदर हिंदुस्तानी साम्राज्य जिसकी यूरोप के राष्ट्र प्रशंसा और जिससे ईर्ष्या करते हैं—131,990,000 निवासियों के साथ 37,412 वर्ग मील क्षेत्र पर रहते हैं, अचानक से हिंसक तौर पर हिल गया, जैसे कि थॉमस मूर की इस धुन को सार्थक साबित करने के लिए :
जो भी उज्जवल है वह फीका पड़ जाता है
जो जितना उज्जवल हो वह उतना उतना ही ज्यादा
(All that’s bright must fade,
The brightest still the fleetest.)
अंग्रेजी हुकूमत पर यह इल्जाम है कि उसने ईसाई पादरियों द्वारा धर्म परिवर्तन को प्रोत्साहन देकर विद्रोह का रास्ता साफ किया है। यह मिथ्या है क्योंकि अंग्रेज धर्मावलम्बियों ने हमेशा इस बात की शिकायत की है कि अंग्रेजी हुकूमत उनके प्रयासों को लेकर न केवल उदासीन रही है बल्कि उसने इसमें अड़चनें भी पैदा की हैं और अखबारों में यह भी पढ़ने में आया है कि जो सिपाही ईसाई बन गए उन्हें निकाल दिया गया था ताकि हिंदुस्तानियों को ऐसा न लगे कि अंग्रेजी हुकूमत उनका धर्म परिवर्तन करने को इच्छुक है। इसके अलावा, उत्साही ईसाइयों ने अक्सर कंपनी पर अंधविश्वास सहन करने और यहां तक कि सबसे आपत्तिजनक बुतपरस्त परंपराओं के साथ समझौता करने और बुनियादी तौर पर अद्वैतवादी मुसलमानों व हिंदू मूर्तिपूजकों में भेद नहीं करने का आरोप लगाया है। किसी भी नजरिए से प्रोटेस्टेंट पादरियों को कैथोलिक पादरियों से जयादा अहमियत दी गई हो ऐसा नहीं है। अंग्रेजी हुकूमत ने कैथोलिक पादरियों को पूरी छूट दी हुई है। इसके अलावा कैथोलिक, जिनकी संख्या भारत में प्रोटेस्टैंट से ज्यादा है, के पास दो बिशप या अपोस्टोलिक विकार्स (vicars) बंगाल और दो बम्बई की अध्यक्षता के लिए हैं। बाकी मद्रास, हैदराबाद, विशाखापत्तनम, मैसूर, कोयंबटूर, सरधना, आगरा, पटना, वेरपोली, कनारा या मैंगलोर, कीलों और मदुरै में हैं। कुल मिलाकर 16 बिशप या अपोस्टोलिक विकार्स (vicars) हैं, जबकि प्रोटेस्टैंट के पास केवल तीन बिशप हैं : कलकत्ता, मद्रास और बम्बई में। सच्चाई यह है कि दिल्ली में एक बिशप का क्षेत्र स्थापित करने और लाल पत्थर की पुरानी मस्जिद – जामा मस्जिद – को चर्च में तब्दील करने कोशिश है, अगर यह हिंदुस्तान की राजधानी को फिर से हासिल करने की कोशिश में किए गए हमले के बाद बच जाए तो। दूसरी तरफ कैंटरबरी का बिशप तीन अन्य बिशप-क्षेत्र स्थापित करने की मांग कर रहा है : लाहौर में पंजाब के लिए, पश्चिमोत्तर प्रांतों के लिए आगरा में, और दक्षिणी कर्नाटक के लिए तिरुनलवेली में। और तो और, कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट दोनों ही पादरी अपने धर्मोत्साह में एक दूसरे को टक्कर दे रहे हैं। कैथोलिक मुख्यतः हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कर रहे हैं और प्रोटेस्टैंट मुख्यतः मुसलमानों का।
विद्रोह का प्रमुख कारण चर्बी वाले कारतूस, जिनकी वजह से हिंदुस्तानियों का धर्म भ्रष्ट हो जाता है, नहीं है, न ही अवध-राज्य पर अंग्रेजी आधिपत्य ही, हालांकि हिंदुस्तान के पदक्रम के हिसाब से अवध का राजा वास्तव में सिर्फ एक नवाब या प्रांत का वजीर होता है और उसका राजा का ओहदा तैमूर और अकबर के जायज वंशज, जो दिल्ली के नाममात्र के तख्त पर बैठता है, के द्वारा स्वीकृत नहीं है। उन खतरनाक कारतूसों के मुद्दे पर असंतोष के मुखपत्र हिंदुस्तानी अखबारों ने विद्रोह के पूर्व की अखबारों की अबाध आजादी का लाभ उठाया और हिंदुस्तानियों को उन कारतूसों का उपयोग न करने के लिए उकसाया क्योंकि, बकौल उनके, अंग्रेज उनके द्वारा उन्हें ईसाई बनाना चाहते थे। सच्चाई हो या बहाना, उन लोगों की नासमझी पर खेद प्रकट करना चाहिए जो यह मान बैठे हैं कि वे उन पूर्वाग्रहों को पांव तले रौंद सकते हैं जो कि वाकई हिंदुस्तानियों के धर्म का सार हैं।
जो भी हो, बगावत से जुड़ी हलचल लगभग पूरे हिंदुस्तान मे इस साल नजर आने लगी थी। आप सभी जानते हैं कि सिपाहियों की पहली टुकड़ियों ने मई में मेरठ में विद्रोह किया। वहां से वह दिल्ली की तरफ कूच कर गए जिसे उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया। यह कार्रवाई मुसलमानों के द्वारा निर्देशित की गई थी, जो हिंदुस्तान के भूतपूर्व मालिक थे। उनकी ऊर्जा के मद्देनजर यह होना ही था कि वे इस बगावत के मुखिया होते।
कुछ भी हो, लगभग पूरे भारत में एक साल के भीतर क्रांतिकारी विद्रोह की आग फैल चुकी है। इसकी शुरुआत मई में हुई जब मेरठ रेजिमेंट के सिपाहियों ने बगावत की। वहां से उन्होंने दिल्ली की तरफ कूच किया जिसे उन्होंने कब्जे में ले लिया। इस कार्रवाई का नेतृत्व भारत के मुसलमानों ने किया जो वहां के पुराने शासक भी रहे हैं। स्वभाविक था कि वे विद्रोह के भी लीडर रहते। उन्होंने महान मुगलों के शासन को फिर से स्थापित किया। उन्होंने “खलिफत की पनाह” को माना तो हिंदुओं ने “नए राजा” को अथवा “नौ-राजा” को – वही सुल्तान जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने “पादशाह” की उपाधि दी थी, और जिसे उन्होंने उनको और उनके परिवार को मिलने वाली पेंशन को डेढ़ लाख पाउंड तक बढ़ाकर “सिराजउद्दीन” (धर्म का प्रकाश) मोहम्मद बहादुर शाह सानी कर दिया था। उस उपाधि को सिपाहियों ने बदल कर सिराजउद्दीन हैदर शाह गाजी (काफिर को मारने वाला) कर दिया। उनकी हुकूमत के दिनों में चलने वाले सिक्कों पर उन्होंने ये पंक्तियां लिखीं :
बाजार जद सिक्का नुसरत तराजी
सिराजउद्दीन हैदर शाह गाजी
(सिराजउद्दीन हैदर शाह गाजी ने जीत की खुशी में सोने का सिक्का चलाया)
हम जानते हैं कि सिराज के राज के चार महीने कैसे बीते, यह भी कि कैसे दिल्ली के पतन के बाद बेगम जीनत महल (महल के गहने) पर क्या-क्या गुजरी और यह भी कि परिवार के पांच शहजादों को किस तरह मारा गया। उनमें से तीन को तो तुरंत मार दिया गया और बाकी दो को मुकदमा चलाकर मौत दी गई। हालांकि बूढ़े बादशाह और उनकी बेगम की जान बख्श दी गई।
सिपाहियों की बहाली, संघर्षरत और भागे हुए लोगों पर पूर्ण नियंत्रण, मथुरा में फंसे हुए कैदियों और अंग्रेजों की बाकी जीतों की वजह से विद्रोह कमजोर होता चला जाएगा और सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। ये उन लोगों की सबसे बड़ी प्रार्थनाएं हैं जो इंसानियत के दोस्त हैं, और जो सबसे पहले अंग्रेजों के, जो यूरोप की सभ्यता और ईसाइयत के प्रतिनिधि हैं, शुभचिंतक हैं, और फिर भारत के लोगों के, और जो, विद्रोह में उभरी उनकी अतिरेक क्रूरताओं के बावज़ूद, हिंदुओं की प्राचीन सभ्यता में यकीन करते हैं और मुसलमानों के भी हितैषी हैं, क्योंकि वे उस वृहद ईसाई परिवार के सदस्य हैं जो ईसा में कालिमात उल्लाह (भगवान के वचन) देखते हैं।
दिल्ली के बादशाह की उम्र 92 बरस नहीं है, जिस तरह अखबारात बताते हैं बल्कि वह 84 बरस के हैं, क्योंकि 1837 में उनकी उम्र 64 थी। कुछ समय पहले कहा जाता था कि अपने सुंदर चेहरे, नफासत और खास अदा के कारण वह सबके द्वारा पसंद किए जाते हैं। वे अकबर शाह-2 के बेटे हैं जिन्हें 1806 में मराठों ने बादशाह बनाया था, और जिनके बाद उन्हें 28 सितंबर 1837 में गद्दी मिली थी।
अपने पिता के जीते जी, जब वह सिर्फ शहजादे थे, तभी से उन्हें मिर्जा अबू जफर (विजय) खान बहादुर कहा जाने लगा था। इन्हीं सब विशेषणों में से उन्होंने अपना तखल्लुस ‘जफर’ चुना था क्योंकि बादशाह बनने के पहले और बाद में, उनका सुखन की तहजीब से तब तक नाता रहा जब तक वो अभागी बगावत उनके शांत महल तक नहीं जा पहुंची।
बादशाह शाह आलम के पोते और शहजादे सुलेमान शिकोह के भतीजे ‘जफर’ ने, जिन्होंने ‘आफताब’ (सूरज) और ‘शिकोह’ (ऊर्जा) के नाम से हिंदुस्तानी कलाम को बढ़ाया, उनकी परंपरा को जारी रखा। काव्य में उनके शिक्षक शेख इब्राहिम जौक थे, जो खुद भी बहुत ऊंचे शाइर थे। उन्होंने जफर को काफी सुझाव दिए। उनके जीवनी-लेखक –- शेफ्ता और करीम –- जो खुद भी शाइर रहे हैं, जफर की बौद्धिक और नैतिक खूबियों पर काफी जोर देते हैं। वह उनको वास्तविक कवियों की कतार में पहली जगह देते हैं क्योंकि जफर की लेखनी में जो मौलिकता और कारीगरी है, उससे लगता है कि जफर ने काव्य की सारी विधाओं को साध लिया है, खासकर अपनी ठुमरियों और गीतों में, जो घर और बाहर हर जगह गाए जाने लगे हैं। उनकी अनेक किताबों के अलावा एक भारी-भरकम ‘दीवान’ है, जो दिल्ली में छपा है। शेफ्ता और करीम ने उसमें से ढेर सारे उद्धरण दिए हैं। उनकी लिखी गुलिस्तां (शर-ए-गुलिस्तां) की समीक्षा भी छप चुकी है। इस शहजादे को सुलेख भी बहुत अच्छा आता है और उन्होंने खुद अपने हाथों से उस कुरआन को लिखा है जो अभी जामा मस्जिद की आभा बढ़ा रही है। उनकी देखा-देखी उनके बेटे मिर्जा दारा बख्त बहादुर ने भी हिंदुस्तानी गजलों का संकलन किया है और जिसे कासिम, सरवर और करीम जैसे आलोचकों ने अपने समय का बेहतरीन संकलन करार दिया है। हम पूरी उम्मीद करते हैं कि वह मरें नहीं, और चाहे अपना फकीरी चोला पहने ही सही, वह हिंदुस्तानी काव्य को बहुमूल्य साहित्य प्रदान करते रहें।
और किस देश में ऐसा अभागा शहर होगा जैसी कि आजकल दिल्ली है? डर है कि इसकी तो कोई यादगार भी न बचने पाएगी। पिछले बलवे के दौरान ही उसकी कितनी इमारतें और वर्साय (Versailles) की बराबरी करने वाले फव्वारे नष्ट हो गए थे। संयोग से, वे इमारतें चाहे न रही हों, उनके वर्णन जरूर बच गए हैं, जिन्हें मौलवी सैयद अहमद ने ‘अशआर-उस-नदीद’ (बड़े लोगों के संस्मरण) के नाम से प्रकाशित किया है, और जिसका तो मैं पूरा ही अनुवाद प्रकाशित कराना चाहता हूं। चलते-चलते मैं यह भी बता दूं कि इस पुस्तक के लिथोग्राफिक हिस्से पर जो आलेख खोदे गए हैं उनमें फारसी और अरबी इस्तेमाल की गई हैं जो भारत के मुसलामानों की परिष्कृत भाषाएं हैं। संस्कृत में जो शिलालेख मिले हैं वह सिर्फ अशोक की लाट पर मिले हैं, और जो हिंदुस्तानी में हैं वे आलमगीर-2 ने 1755 में सूफी निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर खुदवाए थे। हाल के अंग्रेजी अखबारों ने दिल्ली के दिलचस्प वर्णन किए हैं, और मैंने खुद उनमें से जो ‘आराइश-ए-महफिल’ के लेखक का ऊंचा जिक्र करते हैं उनका परिचय अपनी पुस्तक ‘हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास’ में कराया है। उनमें से कुछ टुकड़े जो इस संवाद के लायक हैं, उन्हें पेश कर रहा हूं। उनमें से कुछ विशेष रूप से इस दुर्भाग्यपूर्ण राजधानी के वीरान और अवसादपूर्ण वर्तमान का खाका खींचते हैं, जिन्होंने मानो उचित ही अपनी अतिशयोक्ति पूरब के साहित्य की अलंकार-वृत्ति से पकड़ी है :
‘‘दिल्ली की इमारतें सुंदर और सुखद हैं और उसके बगीचे तो पूरी दुनिया में बेहतरीन हैं। लगभग हर जगह पानी की धाराएं हैं और वहां के तालाब तो मानो किसी सुंदर जलपात्र की तरह हैं। अगर रिजवान वहां की खूबसूरती देख लेता तो फिर वो जन्नत की रखवाली नहीं करता। उस बड़े शहर का एक-एक कोना सातों आबोहवाओं से बड़ा है और उसकी छोटी से छोटी गली पूरे के पूरे शहर जितनी बड़ी है। हर दरवाजे पर लोग जुटे हैं और हर जगह देखने के लिए कुछ न कुछ जरूर है। कई शहरों और गांवों के लोगों ने वहां अपना घर बसाया है और हरेक को वहां कुछ न कुछ अपने भले की चीज मिली है। हर मात्रा में हर जगह की वस्तु और हर जगह के लोग हैं। वहां कोई चीज न मिले ऐसा मुश्किल है। सारा बाजार काफी अच्छा है और वहां की सबसे मुख्य सड़क तो सबसे सुंदर भी है। हरेक दूकान अलग है और चीजें तो राजाओं की तरह वृहद हैं। बाजार तो इस तरह से फैला है कि उसे देखकर दिल बड़ा हो जाता है। वह इतना सुव्यस्थित है कि अगर वहां पका चावल गिर जाए तो उसे उठाकर खाया जा सकता है। दूकानदार खरीदने वालों को आंख उठाकर नहीं देखते। सबसे छोटे बिसाती की दूकान पूरे कस्तुंतुनिया की बिसाती से बड़ी है। एक-एक रकम बदलने वाला पूरे ईरान की रकम से बड़ा है। हर दूकान में रुपए खनखनाते हैं। अगर कोई राज्य खरीदना हो तो एक ही दूकानदार एक क्षण में खरीद सकता है। अगर एक पूरी सेना गोला-बारूद खरीदना चाहे तो एक दिन में खरीद सकती है। किसी मजदूर को वहां काम की कोई कमी नहीं है और खरीद-फरोख्त तो बराबर चलती ही रहती है। कीमती पत्थरों की सबसे छोटी दूकान पूरी की पूरी खान से कम नहीं है। पूरी दुनिया की संपत्ति को अगर वहां इकठ्ठा कर लिया जाए तो सिर्फ एक साहूकार मौके पर काफी रहेगा। हरेक दूकान खूबसूरती के मामले में पूरी वसंतसेना है। वहां किसी चीज की कमी नहीं हो सकती। हर जगह भीड़ है और हर जगह उल्लास है। इस शहर का हरेक भवन लाजवाब है और हर जगह संपन्नता है। मस्जिदों, कॉलेजों, धर्मस्थलों और सुंदर मकानों की लाइन लगी है।’’
जालिम कृत्यों का सबसे बड़ा खिलाड़ी तो हिंदू नाना साहिब है, मराठा पेशवा बाजी राव का दत्तक पुत्र जिसका मुख्य निवास कानपुर के पास बिठूर में है। इस रक्त-पिपासु व्यक्ति के बारे में कहा जाता है की वह धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलता और लिखता है और उसने शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ का अनुवाद भी किया है। लेकिन अगर कितने ही भारतीयों ने इस विद्रोह में क्रूरताएं की हैं तो कितने ही दूसरे भारतीयों ने अपनी और अपने परिवार की जान खतरे में डालकर अपने से अनभिज्ञ अंग्रेजों की जान भी बचाई है। जैसा कि लॉर्ड पामर्स्टन ने मेयर की सालाना दावत में कहा है, ‘‘अगर दोषियों की संख्या हजारों में है, तो मासूम लोगों की संख्या लाखों में है।’’
अखबारों ने तारीफ के लायक कितने ही तथ्य गिनाए हैं। ज्यादातर भारतीय राजाओं ने अंग्रेजों के लिए यथासंभव किया। उन्होंने उनके लिए सेना, रसद और पैसा सब दिया। अवध में तो कितने ही रजवाड़ों ने खतरों में अंग्रेजों की मदद की और उनमें से कितनों की ही जानें बचाईं।
ग्वालियर के राजा सिंधिया ने जिन्होंने यूरोपीय सभ्यता की भरपूर सराहना की क्योंकि उनके राज्य में विद्रोह से पहले 90 प्रोफेसरों से चलने वाले स्कूल खोले गए और ढाई हजार से ज्यादा बच्चों को अंग्रेजों के समान शिक्षा दिलाई गई। मुझे मालूम हुआ है कि सिंधिया ने अपनी रिआया के कई लोगों के साथ मिलकर अपने इलाकों में विद्रोहियों को घेर लिया और उन्हें बगैर लड़े हथियार डालने पर मजबूर किया, हालांकि आपके पास काफी सेना थी। कोई चारा न देखते हुए विद्रोही चुपचाप अपनी जगह वापस चले गए और मुझे इंदौर के मराठों के सरदार होल्कर को भी याद करना होगा जो अंग्रेजों से वफादार रहते हुए विद्रोहियों से यों मुखातिब हुए :
‘‘किसी भी धर्म में औरतों और बच्चों को मारना गुनाह है।’’ अंततः एग्जामिनर (Examiner) अखबार ने बताया कि कई अंग्रेज जिन्हें मृत समझा गया उन्हें वफादार भारतीयों ने शरण दी और जब उन इलाकों में शांति बहाल हुई तब वे वहां से निकले।
वे भारतीय जो भक्ति के वास्तविक कार्य में लीन थे उनका सबूत प्रभावित लोगों से उनकी सहनुभूति में मिला। उनमें से एक सैयद अब्दुल्लाह थे जो अवध के राजा और उनकी विधवा के पुत्र थे। उन्हें जब सर हेनरी लॉरेंस की मौत की खबर मिली जिन्होंने पंजाब में अंग्रेजी हुकूमत में अनुवादक और प्रशासनिक की भूमिका निभाई थी, तो उन्होंने भावुक होकर हिंदुस्तानी में एक कविता (मसनवी) की रचना की और फिर स्वयं ही उसका अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो उनकी भाषा पर पकड़ को दिखाता है। यहां उनकी एक कविता का शाब्दिक अनुवाद दिया जा रहा है :
‘‘लॉरेंस भारत के बहुत बड़े मित्र थे और वह अभी यहां की चकाचौंध से उभर ही रहे थे… उन्होंने हर सिर से दुःख की गर्द हटाई और हरेक गाल का आंसू पोंछा। हालांकि लड़ाई वाले दिन उनका चेहरा गर्म लोहे की तरह लाल था, पर उनका दिल मोम से भी ज्यादा नरम था। हर समय खुदाई बातों में लगने वाला उनका जी संसार की बातों के लिए न था, बल्कि उनकी इच्छा भगवान से यही प्रार्थना करने की थी कि हर दिल खुश रहे। हाय, एक खून की प्यासी बंदूक की बर्बरता के सामने उनकी एक न चली। चाहे उस बंदे ने दुनिया को छोड़ दिया पर अपनी ख्याति से वह आज भी जिंदा है। वह मरे नहीं क्योंकि उनका नाम कयामत के दिन तक जिंदा रहेगा। उनके सराहनीय गुण उस तरह रहेंगे जिस तरह पत्थर के साथ नक्काशी।’’
इस कविता का अंत एक चतुर पंक्ति के साथ होता है, जिसमें लॉरेंस की मृत्यु का वर्ष हिज़री और ईसवी संवत् दोनों में दिया गया है: “अच्छे ख़ानदान के हेनरी लॉरेंस चल बसे। उनका नाम हमेशा याद रहेगा।” इस पंक्ति के पहले भाग के अक्षरों को जोड़ दें तो १८५७ की संख्या मिलती है, वहीं अगर दूसरे भाग के अक्षरों को जोड़ दें तो १२७४ की संख्या मिलती है।
हालांकि ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ अंग्रेज़ सेना पर ही क्रूरताएं बरती गई हों। दिल्ली का क़त्ले-आम हो, या कानपुर का या और कहीं का वीभत्स दृश्य, हर जगह हर दर्ज़े के शहरी लोग मारे गए हैं। इनमें से मुझे मेरे दोस्त जनाब फ्रांसिस टेलर का नाम याद करना होगा जिनका ज़िक्र मैंने अपने पिछले व्याख्यान में किया था और जिन्होंने मुझे दिल्ली में प्रकाशित होने वाले हाल ही की क़िताबों की फेहरिस्त भी उपलब्ध करवाई थी। टेलर महोदय भारत की बदकिस्मत राजधानी के कॉलेज में प्राध्यापक थे, जिसके ३०० छात्रों को पश्चिमी सिद्धांतो के अनुसार गणित और खगोल पढ़ाया जाता था, और एशियाई पद्धति से भाषाएं और विज्ञान पढ़ाए जाते थे। ये टेलर ही थे जिनकी सहायता से मुझे उत्तर-पश्चिम प्रांत की साहित्यिक हलचलों की ख़बर मिलती रहती थी। वे ही मेरे सबसे मेहनती और मेहरबान संवाददाता थे. उन्हें हिंदुस्तानी की अच्छी समझ थी और जिसमें वे धाराप्रवाह बात करते थे, इसलिए साहित्यिक ख़बरों की जानकारी के लिये वे मेरे लिए बेहद ज़रूरी थे। स्थानीय लोगों से उनकी दोस्ती भी उन्हें दिल्ली के क़त्ले-आम से बचा नहीं सकी, जिसमें १० मई को उनकी हत्या कर दी गई। अपने पीछे वे उनकी जवान विधवा और बहुत छोटी उम्र के बच्चे छोड़ गए हैं। जिस हिंदुस्तानी अदब से वे प्यार करते थे और जिसकी उन्होंने बड़ी सेवा की उसके लिये यह बहुत बड़ा नुकसान है, क्योंकि उन्होंने दिल्ली कॉलेज के अपने होनहार प्रशासनिक पूर्ववर्ती बूतरो और स्प्रेंगर के फ़ारसी और अरबी, संस्कृत और अंग्रेजी से अनुवाद के साथ-साथ मूल हिंदुस्तानी (उर्दू और हिंदी) में लेखन और प्रकाशन को प्रोत्साहित किया।
जिसने प्राच्य साहित्य को भारी नुकसान पहुंचाने में सिर्फ बग़ावत का ही हाथ हो, ऐसी बात नहीं है। अभी हाल ही में तेहरान में मिर्ज़ा मुहम्मद इब्राहिम की मृत्यु हो गई। १८३७ से मेरे परिचित ये शख़्स लंबे समय से ईस्ट-इंडिया के हैलीबरी कॉलेज में प्रोफ़ेसर थे जहाँ से छोड़कर वे ईरान के बादशाह की ख़िदमत में चले गए। वे धाराप्रवाह अंग्रेजी लिखते और बोलते थे और उन्हें उनकी चपलता और हाज़िरजवाबी के लिए जाना जाता था। उनकी फ़ारसी की व्याकरण, फ़ारसी अदब पर २० सालों तक अथेनियम रिसाले में छपने वाले उनके बेहद आकर्षक लेखों, “यशायाह की क़िताब” का उनके द्वारा किये गए फ़ारसी अनुवाद, और अपने शिष्य फ़ारस के बादशाह के लिए लिखी “रोम इतिहास” पुस्तक के लिए हम उनके बेहद ऋणी रहेंगे।
यूरोप में, हिंदुस्तानी प्राच्यवादी एम. एन. न्यूटन इसी अप्रैल में कम उम्र में ही चल बसे, वे प्रसिद्ध हर्टफोर्ड के संपादक स्टीफन ऑस्टिन के साहित्यिक सहयोगी रहे हैं; और मई में, चेलटेनहम कॉलेज में बड़े नामी अध्यापक रहे और कई वर्षों तक हिंदुस्तानी सीखकर भारत के बारे में जानने वाले कैप्टेन एडम गॉर्डोन भी अचानक ही अपने परिवार, मित्रों और विज्ञान को छोड़कर चल बसे।
और तो और इसी पेरिस में हमारे ज़माने के सबसे प्रसिद्ध प्राच्यवादी एम.कैथ्रमैर 18 सितम्बर को अपने शयन कक्ष में ही सिधार गए। इस विद्वान ने, जिन्होंने २५ वर्षों तक फ़ारसी ज़ुबान की तालीम दी और अपनी पूरी ज़िन्दगी अध्ययन में बिताई। वे हमेशा सांसारिकता से दूर रहे और अपने आखिरी दिन तक शालीनता और सादेपन से जीवन व्यतीत किया। १७८२ में जन्मे इस विद्वान ने २६ वर्ष की आयु में ही मिस्र के साहित्य पर एक ग़ैर-मामूली क़िताब लिखकर ख्याति अर्जित की और ३३ की आयु में शिलालेख विभाग (l’Académie des inscriptions) में प्रवेश पाया और दस वर्ष पश्चात कॉलेज द फ़्रांस में हिब्रू भाषा विभाग के अध्यक्ष बने, जिसमें उनका कार्य अध्यापन के साथ-साथ विभाग के अधिवेशनों में सक्रिय तौर पर विचार-विमर्श या विशद साहित्यिक विवेचन में भाग लेना था। ये सब कार्य उन्होंने लम्बी अवधि तक किया जिसमें बरोन दास्ये के सेवा-निवृत्त होने पर सेक्रेटरी का अतिरिक्त कार्य भी शामिल था। उनका बाकी समय ख़ास कार्यों में व्यतीत होता था, जिसमें पुत्र के पैदा होने से बढ़ी पारिवारिक ज़िम्मेदारियां भी बाधा नहीं डाल पाती थीं।
इसके अतिरिक्त उन्होंने बारी-बारी से मिस्र के इतिहास और भूगोल पर रिपोर्टें’ तैयार की जिनमें से उनका ‘नबाती लोगों के संस्मरण’ काफ़ी प्रसिद्ध हुआ; मक्रीज़ी का ‘मामलूक सुल्तानों का इतिहास’, राशिउद्दीन के ‘ईरान के मुगलों का इतिहास’ और इब्न-ख़लदून की ‘ऐतिहासिक प्रस्तावना’ के उनके अनुवाद काफ़ी सराहे गए, जो अभिलेख अकादमी से कई जिल्दों में प्रकाशित ‘पांडुलिपि रिकार्ड्स’ में शामिल किये। उन्होंने ज्ञान पत्रिका (Journal des Savants ) या रिसालों में अनेकानेक लेख छपा डाले। इस पूरे वक्त के दौरान, उन्होंने पांच शब्दकोशों- अरबी, फ़ारसी, पूर्वी तुर्की, कॉप्टिक और सीरिआई शब्दकोश- पर कार्य को विश्राम नहीं दिया। उनका अनोखा मनोरंजन सेकंड हैंड किताबों की दुकानों या पुरानी लाइब्रेरी के भंडार में दुर्लभ पुस्तकों और पुरानी पांडुलिपियों की खोज करना था, और उनकी सबसे बड़ी ख़ुशी अपनी परिवार और अपने थोड़े से दोस्तों को समर्पित थी. वे अपने आगंतुकों का अंत्यंत सम्मान के साथ सत्कार करते थे, यहाँ तक कि चर्च की रात्रि बैठकों में भी आमंत्रित करते थे और अपनी विद्या को खुले या गुप्त रूप से बांटते थे। वे गर्मजोशी से अपने मिलने वालों का स्वागत करते थे, वे दूसरों के दुर्भाग्य के प्रति उदार थे और अक्सर उनके बायें हाथ को मालूम नहीं रहता था कि दायां हाथ क्या कर रहा है। एक तेज़तर्रार औरत ने एक बार उचित ही उनके शिक्षाप्रद लेकिन आध्यात्मिक और मित्रतापूर्ण व्यव्हार का ज़िक्र यों किया था:
सांसारिक व्यक्ति सदैव ज्ञानी की जगह ले लेता है,
हमेशा औरों का मन लगाता है, और मुस्कुराता है
बढ़िया ढंग से मधुर और बग़ैर पांडित्यपूर्ण के
यहाँ तक कि गालियां सुनने के लिए अनुरोध करता है
स्पष्ट लहजे में बात कहता है,
ज्ञानी पुरुष का मनोरंजन करता है, और मूर्ख की परवाह नहीं करता
कहा जाता है कि माननीय कैथ्रमैर यांसेनिस्ट (Janséniste) थे। अगर इसका आशय यह है कि वे शास्त्रीय-परंपरा के विपरीत परमात्मा की कृपा की अनिवार्यता में यकीन करतें है, तो इस हिसाब से वे यांसेनिस्ट नहीं थे, क्योंकि उनसे ज़्यादा बड़ा कैथोलिक कोई नहीं होगा। लेकिन अगर इसका मतलब किसी ऐसे ईसाई से है जो नए तौर-तरीकों का विरोध करे, सादा आचार-विचार करे, चर्च के नियमों और ह्रदय से फ़्रांसीसी रिवाज़ों का कठोर पालन करे तो कैथ्रमैर ज़रूर यांसेनिस्ट थे।
उनसे बड़ा निराकांक्षी कोई भी नहीं होगा। सिर्फ़ कुछ अकादमियों और विदेशी संस्थानों से वह जुड़े थे तथा उनके पास लेजियों-दो’ऑनर के नाईट के आलावा कोई उपाधि भी न थी। १८२९ में उनके कुछ मित्रों ने ही अभिलेखागार अकादमी के प्रेजिडेंट पद के लिए उन्हें आगे किया था, और वह भी तब जब वे ४७ वर्ष के थे और १४ साल से संस्थान के सदस्य थे।
सज्जनों, अपने संस्थान के ऐसे बड़े शिक्षक को खोकर हमने उनके स्थान पर उनके सबसे मेधावी विद्यार्थियों में से एक माननीय श. शेफर को नियुक्त किया है, जो बेहतरीन साहित्यिक गतिविधियों से उपजे हैं और उनके पास यह सहूलियत है कि उनकी यात्राओं और क्रियाकलापों की बदौलत वे उस भाषा से अच्छी तरह परिचित हैं जिसका प्रचार-प्रसार उन्हें अब करना है। आप में से जो सज्जन मेरे हिंदुस्तानी भाषा के विषय को पढ़ना चाहते हैं, वे फ़ारसी को भी पढ़ें क्योंकि फ़ारसी हिंदुस्तानी के मुस्लिम हिस्से (उर्दू) से घनिष्ठता से जुड़ी है जिसे फ़ारसी के बगैर जानना काफी मुश्किल है। दूसरी तरफ़ यह भी तय है कि फ़ारसी जानने की लिए उर्दू का आना आवश्यक है, ख़ासकर भारत की फ़ारसी के लिए, क्योंकि वहां के रोज़मर्रा के वाक्य ख़ास भारतीय लहजे में से निकले हैं। लेकिन फ़ारसी ही उर्दू की कुंजी है, जैसे संस्कृत हिंदी की, जो हिंदुस्तानी की हिन्दू शाखा है। इसलिए मैं आपसे अनुरोध करूँगा कि आप इस पुरानी भाषा को भी सीखें, जो इसी वर्ष एक बड़े भाषाशास्त्री द्वारा पढ़ाई जाएगी। अन्य अवसरों पर मैं हिंदुस्तानी के सही इस्तेमाल पर बल देता आया हूँ। इसकी अहमियत निश्चय ही और भी बढ़ जाती है क्योंकि हम भारतीय भाषाएँ सीखने की ज़रूरत को लगातार महसूस करते रहे हैं और आने वाले समय में नागरिक एवं सैनिक नौकरियों में इसके ज्ञान की और भी जरुरत पड़ने वाली है।
एक कुशल अंग्रेज़ प्राच्यविद एम. डब्लू नासौ लीस ने टी बी मैकॉले के सुधारों के ख़िलाफ़ जाते हुए और टाइम्स में प्रकशित हुए एक विशेष पत्र में यह सुझाव दिया है कि हम सरकारी काम-काज़ में लैटिन शब्दों से ज़्यादा भारतीय शब्दों का इस्तेमाल करें। इस पत्र में, जिसका शीर्षक है “पूर्वी भाषाओं में अध्यापन पर पुनर्विचार”, यह सिद्ध किया गया है कि भारत में सैनिक और नागरिक पदों के लिए एशिया की भाषाएं और ख़ासकर हिंदुस्तानी सीखना परम आवश्यक है और इस विचार को निराधार साबित किया गया है कि आने वाले वक़्त में अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रचलन से एशियाई भाषाएं सीखने की यूरोपीय कवायद ठंडी पड़ जाएगी। वह इस बात पर खेद प्रकट करते हैं कि इस विषय पर भारतीय और अँगरेज़ प्रशासन में कोई समझौता नहीं है। और आख़िरकार वे अंग्रेजी हुकूमत के सियासी फ़ायदे के लिए पूर्व की सभी भाषाओं के अध्ययन पर ज़ोर देते हैं और सुझाव देते हैं कि ऑस्ट्रिया और रूस की तर्ज़ पर हमारे महान देश इंग्लैंड में भी पूर्वी भाषाओं के लिए एक वृहद कॉलेज खोला जाये जिसका नाम रेजिना मारिस (Regina maris) रखा जाये।
ऐसी सदिच्छा का समर्थन ही किया जा सकता है, खासकर आजकल के सन्दर्भ में जिसमें इंग्लैंड को भारत के लोगों द्वारा दुबारा स्वीकारे जाने की ज़रूरत है। सिर्फ़ सेना के बल पर आप एक ऐसे देश पर राज नहीं कर सकते जिसके तौर-तरीक़े आपसे एकदम भिन्न हों; उस सहानुभूति की भी तलाश करनी होगी जिसके ज़रिये वहां के लोगों से जुड़ा जा सके। लेकिन अँगरेज़ सरकार पूर्वी भाषाओं के अध्ययन के लिए आवश्यक कदम नहीं उठा रही, तो सिर्फ़ इंग्लैंड के बारे में ऐसा भी कहना ठीक नहीं होगा। इंग्लैंड में इतने सारे पूर्वी प्रकाशनों के आलावा, क्या इस त्रिदेशीय राज्य में पूरब की किताबों के इतने सारे विशेष संस्थान नहीं देखने को मिलते? और क्या कलकत्ता में बिब्लिओथिका इंडिका प्रकशित नहीं होती, जिसमें संस्कृत, फ़ारसी, अरबी के इतने सारे पुराने ग्रन्थ असंपादित छपते, हैं और जिनकी संख्या अभी से १३९ हो चुकी है? दूसरी ओर, देशी लोगों ने बगावत के इस इस दौर में भी पिछले वर्षों की तरह अभी तक रिसालों और पत्र-प्रकाशनों का सिलसिला थमा नहीं है। हिंदुस्तानी संस्करण की ख़ासियत यह है कि उसकी तालिकाएं और चित्रकारियां जैसे मुद्रा, अस्त्र-शस्त्र, पेड़-पौधे, फ़ल इत्यादि उस देश के सर्वोत्तम कलाकारों ने बनायीं है, और ये अनुवाद उसी मशहूर लेखक ने किया है जिसने ‘दिल्ली के स्मारकों का विवरण’ तैयार किया है (जिसका ज़िक्र मैं पहले कर चुका हूँ)
चाहे युद्ध ने भारत में अफ़रा-तफ़री मचाई हो, लेकिन हम तो यही उम्मीद करते हैं कि स्थिति के शांत होते ही भारत के लोग उसी तरह से दैनिक गतिविधियों में लिप्त हो जायेंगे जैसे पहले थे, और वे बड़े-बड़े आधुनिक शाइरों का उसी तरह से पाठ करेंगे जिस तरह से वे वाल्मीकि और व्यास का, और सबसे ऊपर उनके प्रिया कवि सौदा, और वली का जिसने पहली बार मुस्लिम शायरी में फ़ारसी कलाम का उपयोग किया है, और जिसने उन्हें हाफिज के बारे में उसी तरह बताया है जिस तरह होरेस ने रोमैं को आर्शीलोक के बारे में:
मैं वो पहला प्रसिद्ध रोमन गीतकार हूँ, जिसकी प्रशंसा किसी और व्यक्ति ने नहीं की है. मुझे हर्ष होता है, नयी रचनाएँ सामने लाकर, ताकि वह सच्चे लोगों के हाथों तक पहुंचें, ताकि वे उन्हें पढ़ सकें.
Ép. l, xix, 32-34.
अपने राष्ट्रीय कवियों की भांति वे उसी तरह की ग़ज़ल लिखेंगे जिनमें कभी पवित्र तो कभी अपवित्र या कभी दोनों तरह का प्यार बसता है, जिस तरह से मिनेसिंगर या दांते या शेक्सपियर के सोनेट में होता है। वॉल्टर स्कॉट ने भी लिखा है (ले ऑफ़ द लास्ट मिनस्ट्रेल):
दरबार, लश्कर, या बाग़ में
इस दुनिया के या उस दुनिया के लोगों पे
प्यार का राज है क्योंकि,
प्यार ही स्वर्ग है और स्वर्ग ही प्यार है।
किशोर गौरव, फ़्रांसिसी अध्ययन केंद्र, जेएनयू, दिल्ली में पीएचडी के शोधार्थी हैं और सामाजिक-राजनीतिक मोर्चों पर भी चिंतनशील रहते हैं. उनसे मोबाइल- 8800788583 और ईमेल- kgkishoregaurav@gmail.com पर संपर्क संभव है.
आभार- हंस, मई, 2015