एक साहित्यिक की डायरी’ से तो आप सब परिचित हैं. मुक्तिबोध की इस रचना ने इतनी प्रसिद्धि पाई की असाहित्यिक लोगों ने डायरियां लिखना ही लगभग बंद कर दिया . इधर एक असाहित्यिक की डायरी हमारे हाथ लगी .इसमें कुछ हालिया घटनाओं और बहसों के हवाले हैं. दिलचस्प लगे तो पढ़ लीजिए . लेकिन याद रहे , डायरी है , सम्पादकीय नहीं .
By Michele Meister
By मार्तंड प्रगल्भ
मेरा एक मित्र है . बेरोजगार है. आजकल दिल्ली में मुनिरका की गलियों में गाहे-बगाहे दिख जाता है. बेरोज़गारी और ज़माने की चिंता से थोडा सनकी भी हो चला है. पढ़ा-लिखा है. बतकही का रस जानता है. साहित्य में रुचि है. और सच पूछिए तो हम-आपसे कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लेता है साहित्य को. पिछली बार देखा था दिसंबर की ठंढ में. गुस्से से भरा उसका चेहरा अभी भी याद है मुझे. विश्वविद्यालय के गेट पर मिला था. ज़ल्दी में था. कह रहा था इस रेप काण्ड के विरोध में जनता सड़क पर है , संस्कृति-कर्मियों को भी वहाँ होना चाहिए. कला और साहित्य में सत्ता-विरोध और सड़कों पर कलाकारों-साहित्यकारों का सामूहिक प्रतिरोध एक दूसरे के विरोधी नहीं बल्कि पूरक हैं. कहते-कहते बस आ गयी और वह बस के भीतर गुम हो गया. दूसरे दिन मेरे मोबाइल पर उसका सन्देश मिला था कि अमुक दिन इंडिया गेट पर विरोध प्रदर्शन के लिए ज़रूर आयें. मैंने भी मन में ठान लिया था कि जाऊँगा ही. पर अंत समय में गया नहीं. प्रदर्शन हुआ और लगातार हुआ. किसी और ने फेसबुक पर विरोध-प्रदर्शन की तस्वीरें भी मुझे बाद में दिखायी थीं.
मेरा मित्र परितोष एक वामपंथी सांस्कृतिक मंच से जुड़ा है. उस दिन के बाद मैंने उसे विश्वविद्यालय के आस-पास फिर देखा नहीं. हांलाकि मेरी बड़ी इच्छा थी कि मिलता तो कुछ बात करता. इस इच्छा का एक फौरी संदर्भ भी था. एकाध सप्ताह बाद ही एक हिंदी दैनिक ‘घनसत्ता’ के सम्पादक ने उसी सांस्कृतिक संगठन को कोसते हुए एक अजीबोगरीब, लगभग विद्वेषपूर्ण ,सम्पादकीय लिखा था. सम्पादक साहेब का आरोप था कि कोई भी लेखक संगठन वहां दिल्ली की सडकों पर नहीं था! असल में वामपंथी लेखक-सांस्कृतिक संगठनों की मिशनरी आलोचना और लेखकों के मार्क्सवाद-प्रेम का प्रतिरोध इनका प्रिय शगल रहा है. अखबार में आरोप था कि अमुक लेखक संगठन के महासचिव या किसी अन्य पदाधिकारी का चेहरा या उसका बैनर उन्हें नहीं दिखा. बाद में कुछ दुष्टों ने अख़बारों और सामाजिक मीडिया में छपी तस्वीरों और रिपोर्टों का हवाला उन्हें दिया. शायद उनके ही अखबार के दीगर संस्करणों की ख़बरों को उनके फेसबुक पर चस्पां किया. पर लाहौर से तुरत-फुरत आये सम्पादक ने इन तस्वीरों में दिख रहे चेहरों को पहचानने से इनकार कर दिया . और उनका ‘मार्क्सवादी’ – विरोध अक्षत बना रहा ! पर अपन जैसे लोगों ने उन्हें कोई महत्व नहीं दिया. बात शायद आई -गई हो गयी. पर मैं अपने मित्र से मिलना चाहता था. उसके बाद भी लगातार गोष्ठियों, सेमिनारों,काव्य-पाठों और विरोध-प्रदर्शनों वाले उसके सन्देश मेरे मोबाइल पर आते रहे थे ज़रूर. एकाध जगह मैं गया भी था. उसे उन आयोजनों में अतिव्यस्त देख मेरा जी नहीं हुआ उसे टोकने और बतियाने का. बहरहाल परसों शाम (हाँ शाम ही को तो) वह मुझे विश्वविद्यालय के कैंटीन पर दिख गया.
देखता हूँ बड़ी क्षिप्र गति से वह मेरी ओर ही चला आ रहा है. उसने भी शायद मुझे देख लिया था. आते ही मेरे सामने बैठ गया और एक सिगरेट सुलगा ली. दो कश लेने के बाद अचानक बोल पड़ा ‘आ परितोषाद्विदुषां न साधु मन्ये प्रयोगविज्ञानम् ।बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चेतः’. ज्ञान के क्षेत्र में विद्वानों की संतुष्टि ज़रूरी है. बड़े से बड़ा सिद्ध भी केवल आत्म -प्रमाण पर विश्वास नहीं कर सकता. कालिदास ने ऐसा कहा है. पर जब विद्वानों के बीच किसी शब्द प्रयोग को लेकर असहमति हो तब?” मैंने सन्दर्भ के प्रति अपनी अनभिज्ञता विस्मय से प्रगट की. कहने लगा अरे ,अभी सन्दर्भ को मारो गोली . तुम क्या कहते हो? मैंने थोडा हकलाते हुए कहा कि महाभाष्यकार के अनुसार तो लोक ही प्रमाण होगा तब. “बस यही तो मैं सोच रहा हूँ”. उसने जैसे मुट्ठियाँ भांजते हुए कहा. परन्तु मैं अब थोडा स्थिर हो चुका था. बात को पकड़ते हुए मैंने भी सवाल फेंका . “लेकिन अगर लोक में भी अनेक प्रयोग मिलें तो.” उसने कहा तो सभी रूप मान्य होंगे. “लेकिन भाषा में निबद्ध ज्ञान -परम्परा के लिए तो इतनी छूट तो भारी पड़ेगी मित्र” मैंने तनिक मजा लेते हुए कहा. मैंने फिर कहा “और यही वजह है कि व्याकरण-ग्रंथों और कोशों की ज़रुरत होती है”. “इससे मेरा भी इनकार नहीं है. मैं भाषा के मानकीकरण के खिलाफ नहीं हूँ.” वह भी अब विवाद में गंभीर हो चला था. कहने लगा “परन्तु समय-समय पर लोक-प्रयोगों और तदनुरूप साहित्यिक-प्रयोगों के परिवर्तन को व्याकरण ग्रंथों और कोशों में प्रतिबिंबित होना चाहिए. भाषा तो बहता नीर है. बाँधोगे तो या तो सूख जाएगी या फिर उसके वेग से तुम्हारे बने बाँध टूट जाएँगे. और हिंदी जैसी भाषा की जीवन्तता और उसका वेग तो जनपदीय बोलियाँ ही हैं. एक बार उनसे कटे तो गए. संस्कृत के साथ हुआ, प्राकृतों और अपभ्रंशों के साथ हुआ तो कोई आश्चर्य नहीं कि तुम्हारी बंधी-बंधाई , ‘राष्ट्रीय-कृत’ हिंदी के साथ भी वही हो”. वह शायद भाषा –पावित्र्य –संरक्षिणी सभा के किसी सभापति से भिड़ आया था. मैंने उसकी आँखों में झलकते गुस्से को नज़दीक से देखा और सच पूछिए तो जैसे कोई कड़वी सचाई मुझे भी कंपा गयी. वह कहता गया. “अब देखो भाषा का निर्माण एक सामाजिक प्रक्रिया है. हिंदी के विशाल प्रदेश में बहुसंख्यक जनता जिस भाषा में सोचती-विचारती काम करती है, हिंदी का भविष्य वहां है.”
मेरे दिमाग में हिंदी भाषा के विकास की एक संक्षिप्त रूप-रेखा कौंध गयी. इसी तरह की बातें तो चन्द्रधर शर्मा गुलेरी , प्रेमचंद, हजारीप्रसाद द्विवेदी, किशोरीदास वाजपेयी ,रामविलास जी और राहुल जी जैसे विद्वानों ने भी की थी. उस वक़्त भी भाषा की शुद्धता के पैरोकार हिंदी को संस्कृत की पुत्री बनाने पर तुले थे. संविधान सभा की बहसें भी दिमाग में घूम गयीं. दावं-पेंच, शक्ति सम्बन्ध और ‘राष्ट्रवाद’( सांस्कृतिक ही न!). हुआ वही जो कुछ लोग चाहते थे. और बदले में मिली रघुवीरी हिंदी! उर्दू से कन्नी काट कर आज़ाद हुए ही थे और अब बाकियों के साथ भी वही सलूक . भाषा की राजनीति से राजनीति की भाषा तय होने लगी थी. परितोष अपनी ही रौ में था. “एक तरफ बाज़ार है . कार्पोरेट मीडिया और सरकार . उसी का एक बढती रूप है हमारा बॉलीवुड . दूसरी ओर मजदूरों के विशाल जत्थे हैं . पटना से लेकर अहमदाबाद और लुधियाना-अमृतसर तक, गौहाटी से लेकर मुंबई –सूरत तक. आज गुडगाँव में हैं कल धर्मशाला तो परसों नागपुर. इनकी भाषा क्या है ? हिंदी ही तो है. बन रही है हिंदी इनसे. जो साहित्य इनके बीच से आरहा है , इनके बारे में आ रहा है , इनके प्रति प्रतिबद्ध है. हिंदी भी उनसे ही बन रही है. तो कोशकार क्या करेगा? कोर्पोरेट मीडिया और बॉलीवुड से प्रयोग स्थिर करेगा या संस्कृत में गोते खाएगा या फिर कामगार जनता की तरफ मुंह करेगा. एक ही रास्ता है और वह है जनता की ओर जाने का. इस मामले में कोई आगे नहीं बढ़ता. ले-दे कर सत्तर-अस्सी साल पुराने कोशों की शरण में जाना होता है. और बढे भी कैसे ! जनता से वास्तविक संपर्क हो तब न! और तुर्रा यह कि जनता के संगठन इन्हें भीड़ लगते हैं या फिर तानाशाह ! और कहेंगे कि हम हैं सबसे बड़े लोकतांत्रिक!” वह लगभग हांफ रहा था.
कुछ देर तक हम दोनों चुप रहे . बिना कुछ कहे मैं उठा और चाय लेने कैंटीन के काउंटर की तरफ बढ़ गया. परितोष ने अचानक कहा “मेरे लिए काली लेना अदरक वाली. अच्छा रुको , मैं भी चलता हूँ.” दोनों चाय लेकर रिंग रोड पर निकल आये . गरमी कुछ कम हो चली थी. पर बीच-बीच में गर्म हवा के झोंके आ जाते थे. छुटियाँ शुरू थी इसलिए भीड़-भाड़ थोड़ी कम हो चली थी. सुबह जो अमलतास के पीले फूल चमकदार और ऐश्वर्य से भरे थे उनमें अधिकांश तो झड़ गए थे . जो बचे थे, मुरझाये थे और ढलते सूरज की किरणों में मन को उदास करने वाले थे. हाँ प्रोफेसरों के क्वाटरों के पीछे आम की छोटी-छोटी अमौरियाँ मन प्रसन्न करने वाली थीं. हमलोग जब कुछ एकांत में निकल आये तो उसने फिर से बात आरम्भ की. “ देखो , बात दरअसल भाषा के प्रति दो भिन्न दृष्टियों की है. एक है भाषा के शुद्धिकरण की , संस्कृतीकरण की, और शुद्ध भाषा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की. पहली दृष्टि का एक और भेद है जो ऊपर-ऊपर से शुद्धिकरण का विरोधी दीखता है , अपने को शुद्धिवादी कहे जाने पर ऐतराज करता है ,पर है नहीं. यह है बहुभाषावाद. इसे बहुसंस्कृतिवाद या अमेरिकी मल्टीकल्चरलिज़म का ही विस्तार मानो. संसदीय लोकतंत्र का यह नवउदारवादी युग इसी नारे के साथ है और भाषाओं की गैरबराबरी के खिलाफ चलने वाले प्रगतिशील आन्दोलनों को अपने उदार आवरण में पालतू और भ्रष्ट बनाता है. यह भाषाओं की अस्मिता की राजनीति से अपना कारोबार चलाता है और विश्वबाजार को नए-नए दुकान उपलब्ध करवाता है. ठेठ राजनीतिक सन्दर्भ दूं तो भाजपा, कांग्रेस और दक्षिणपंथी क्षेत्रीय दल- मायावती से लेकर नितीश कुमार तक- इस पहली दृष्टि के प्रतीक हैं. इनके लिए लोकतंत्र का नारा सबसे कारगर है. साहित्य में भी लोकतंत्र का नारा लगाने वाले अधिकाँश कलावादी और व्यक्तिस्वातंत्र्य के वादी यथास्थितिवाद के घोर समर्थक हैं. और भाषा की शुद्धि के भी! और अकारण नहीं कि एक ‘लोकतांत्रिक’ सम्पादक पूरी मानवता को सी.आई.ए का ऋणी मानता है!” वह चलते –चलते रुक गया था. सडक के किनारे पत्थर की एक बेंच थी. किनारा कुछ-कुछ पहाड़ी घाटी का भ्रम पैदा करता था. नीचे ढलान थी और जो जंगल में गुम हो जाती थी. घाटीनुमा उस अवकाश के उस पार विश्विद्यालय की नौ मंजिली लाइब्रेरी दृष्टि को रोक लेती थी. हवाई जहाज़ लगातार सर के ऊपर से गुजरते रहते . उसकी भयानक गड़गड़ाहट पहले सोने न देती थी. अब भी यदा-कदा जब विचारों की किसी अमूल्य श्रृंखला को भंग कर देती तो मन चिड़चिड़ा हो उठता था.
उसने जब उस लोकतांत्रिक सम्पादक का ज़िक्र किया तो अचानक से अपन ने सन्दर्भ पा लिया. और शाम से ही मित्र की उद्विग्नता का पूरा चित्र मेरी आँखों में घूम गया. मन ही मन में मुझे उसकी प्रकृति पर हलकी -सी हँसी आ गई. पर वह पहले की ही भांति कह रहा था “ और दूसरी दृष्टि है भाषा के जनवाद की.” मैंने उसे बीच में ही टोका. “ देखो तुम जिस राजनीतिक स्वरुप की चर्चा कर रहे हो उससे मैं पूरी तरह सहमत हूँ. भाषाओं के इतिहास में भी संक्रमण के दौर आये हैं. अब जिसे हम भक्तिकाल कहते हैं या ठीक उसके पहले का जो काल है, हजार इसवी के आस-पास का, बहुत बड़ा परिवर्तन हो रहा था पूरे उपमहाद्वीप में . देशी भाषाओं ने धीरे-धीरे संस्कृत –प्राकृत-अपभ्रंश को उनके साहित्यिक भाषा के गौरवमय आसन से नीचे धकेल दिया. ऐसा नहीं था कि इन देशी भाषाओं का अस्तित्व पहले था ही नहीं. लोग इन्हीं भाषाओं के अपने पुराने –नए रूपों में दुनिया को देखते- समझते थे. पर साहित्य और ज्ञान के लिए इन भाषाओं का प्रयोग वर्जित था. साहित्य और ज्ञान की एक आधिकारिक भाषा थी, लम्बे समय तक वह संस्कृत ही रही बाद में गौण रूप से प्राकृत और अपभ्रंशों को यह आसन मिला. जो लोग यह समझते हैं कि अपभ्रंश से देशी भाषाओं का उद्गम हुआ है , वो बहुत बड़ी भूल करते हैं. ये देशी भाषाओं का बढता दबाव था कि अपभ्रंशों के अलग अलग रूपों में हमें देशीपन के उदाहरण मिलने लगते हैं. इसलिए ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग’ एक भ्रामक इतिहास दृष्टि है. दरअसल होना चाहिए था ‘अपभ्रंश के विकास में हिंदी का योग’. और यह बड़ा परिवर्तन राज्य और काव्य के बदलते रिश्तों और नए सांस्कृतिक वातावरण, अर्थात इस्लाम की संश्लिष्ट अंतर-क्रियाओं का परिणाम थी. बाबा फरीद और मुल्ला दाउद से लेकर संत कवियों ने देशी भाषाओं में साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ की. यह उनके भिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि और नए सामाजिक स्तर के कारण प्राप्त आत्मविश्वास का परिणाम थीं. उसके बाद लम्बे समय के परिवर्तनों ने रीतिकाल तक आते-आते साहित्यिक भाषा के रूप में ब्रज को स्थिर कर लिया. खड़ी बोली,हिन्दवी, हिन्दुई ,उर्दू आदि सम्बन्धी विवाद मैं यहाँ दुहराना नहीं चाहता. अंग्रेजी राज में भाषा को लेकर विवाद हुए , राजनीति हुई ,पर कभी ऐसा नहीं था कि जनता की आमफहम भाषा साहित्य से एकदम बाहर रही. भाषा की यह दूसरी परम्परा संस्कृति के शुद्धिकरण के खिलाफ सितारेहिंद,भारतेंदु, अयोध्याप्रसाद खत्री , प्रेमचंद, गुलेरी ,किशोरीदास वाजपेयी ,फिराक, शिवदान सिंह चौहान , रामविलास शर्मा, राहुल सांकृत्यायन आदि के साथ चली आई है. पर इस दूसरी परम्परा के भीतर भी विवाद और मतांतर रहे आये हैं. पर आमतौर पर यह भाषा की प्रगतिशील परम्परा है. इनके आपसी विवाद रोचक और ज़रूरी हैं पर अभी मैं उसमें पड़ना नहीं चाहता.” थोडा रुक कर मैंने फिर शुरू किया “ अस्सी के दशक के आखिर से जो नवउदारवाद आया, संचार माध्यमों में जो व्यापक परिवर्तन हुए उससे परिस्थितियाँ बदल गयी हैं. नयी सदी के दूसरे दशक तक आते-आते तकनीक जब से फेसबुक जैसे माध्यमों तक पहुंची है, भाषा- प्रयोगों में उथल- पुथल- सी मच गयी है. अभिव्यक्ति अब प्रिंट-पूँजी के भरोसे नहीं है. इस आभासी माध्यम ने अभिव्यक्ति के नए रास्ते खोल दिए हैं. अभिव्यक्ति के इस बढ़ते जनाधार ने भाषा की शुद्धि-चिंताओं को परेशान कर दिया है. मैं इन माध्यमों की सीमाओं को जानता हूँ. पर यह एक प्रगतिशील बात तो हुई ही. मानकीकरण की प्रक्रिया भी ज़रूरी है. और यहाँ मैं तुम्हारी बात से फिर सहमत हूँ कि उस मानकीकरण की प्रगतिशील और जनवादी प्रक्रिया का विकास करना ऐतिहासिक ज़रुरत है.”
इतना लंबा बोलने के बाद मैंने उसकी तरफ देखा तो वह मुस्कुरा रहा था. “ तुमने मेरी बात को ऐतिहासिक सन्दर्भ दे दिया” हंसते हुए परितोष ने कहा. अभी पहली बार उसके चेहरे पर हँसी देख कर सच पूछिये तो मुझे बहुत अच्छा लगा. हमलोग बात करते-करते हॉस्टल के गेट तक आ गये थे. मौन सहमति से हमारे कदम खुद-ब-खुद कमरे की ओर चल पड़े. मैंने सिगरेट सुलगा ली थी. मेरे मित्र ने इतनी देर से कोई सिगरेट नहीं निकाली थी. इसका मतलब था उसके पास पैसे नहीं हैं. सोचा सिगरेट के साथ रात का खाना भी यहीं मेस में खिलाना होगा. पर यह मुझे अच्छा ही लग रहा था. मैंने उससे सम्पादक के बारे में पूछा. बोला छोडो यार. उन की याद मत दिलाओ. “अब देखो न उसी दैनिक के सम्पादक थे प्रकाश जोशी. राजनीतिक रूप से मैं उन्हें पसंद नहीं करता. पर उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को सहज भाषा के पक्ष में रखा. और उनकी क्रिकेट पर लेखनी तो वाकई युगांतकारी है. अफ़सोस! इस तुरत-फुरत वाले बाज़ारू मनोरंजन, और तीन घंटे के मसाला शो ने जब क्रिकेट को ही बदल दिया तो अब उस भाषा का क्या किया जाएगा. वह तो प्रकाश जी के साथ ही चली गयी.”
हमलोग सिगरेट बुझा कमरे में दाखिल हुए. इस दौरान मेरा मन रामविलास जी को याद कर रहा था. मैंने ‘भारतेंदु युग और हिंदी भाषा की विकास परम्परा’ को आलमारी से निकाल लिया. मैंने उसमें से दो उद्धरण परितोष को पढ़ कर सुनाये. .”दरार आम जनता में नहीं थी.दरार थी उच्च वर्गों में.फिर उन्हीं उच्च वर्गों का सहारा लेकर भाषा समस्या कैसे हल होती.उच्च वर्गों का यह दृष्टिकोण भाषा के परिष्कार के नाम पर उसे जनपदीय बोलियों से और शहरी बोलचाल से दूर ठेल रहा था और यह सिलसिला अंग्रेजी राज के खत्म होने के पच्चीस साल बाद भी जारी है.” “पच्चीस नहीं साठ साल बाद भी” हंसते हुए उसने कहा. दूसरा उद्धरण यूँ था- “भाषा का परिनिष्ठित होना एक प्रक्रिया है जिसमे अनकों रूपों और प्रयोगों में कुछ छाँट लिए जाते है, शेष छोड़ दिए जाते है…किन्तु जो छोड़ दिए जाते है वो सदा नष्ट नहीं हों जाते वरन बोलियों में बने रहते हैं.आगे चलकर जब लोग बोलियों का अध्ययन करते है तब उन्हें पुराने कोशों,व्याकरणों और लिखित साहित्य में ना पाकर कल्पना करते है कि परिनिष्ठित रूपों के ये अपभ्रंश रूप है जो अशिक्षित लोगों की भाषा में प्रचिलित हों गए हैं”. “ये मारा” उसने लगभग मुझे गले लगाते हुए हवा में मुट्ठियाँ भांजी. मैंने किताब वापस रखते हुए कहा “जानते हो सम्पादक का कॉलम मैंने देखा था. मुझे उसी वक़्त कुछ शंका हुई थी. आजकल तो अखबार में ‘मार्क्सवादी’- विरोध का जलसा चल रहा है. मुझे लगता है दिसंबर से कोई जख्म जाग रहा है. पचास-साठ के दशक में जो बहसे हुई थीं उसकी तलछट सम्पादक ढो रहे हैं . जनता को भीड़ कहना , वो क्या है मुक्तिबोध की लाइनें…’डार्क मासेज़ ये मॉब हैं.’ है ना. और कलाकार की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की इमानदारी, लेखक-सांस्कृतिक संगठनों को तानाशाह बताना , सृजनात्मक लेखन की राह में रोड़ा डालने वाला कहना आदि-आदि. अब ये केवल संयोग नहीं कि तब भी वही खेमा ये सब कह रहा था आज भी वही खेमा ऐसा कह रहा है. कारण तो स्पष्ट है मित्र . मार्क्सवाद की दुनिया भर में जो वापसी हुई है , कुछ लोगों की सत्ता को डरा रही है . सता रही है. अब अगर ऐसा है तो मार्क्सवाद तो जवाब देगा. जनता जबाव देगी. कई बार जबाव सुनकर लोग कहते हैं कि वही पुरानी बात कह रहे हो. पर जानते हो ऐसे लोगों को हॉब्सबाम क्या जबाव देते थे….कहते थे कि साहेब जब लौट-लौट कर वही सवाल कीजियेगा तो जवाब भी तो वही मिलेगा.” हमदोनो ठठाकर हंस पड़े. परितोष ने कहा “ वो मुक्तिबोध की पंक्तियाँ ,जो तुम्हारी फेवरिट हैं , पढने को मन कर रहा है और ऊँची आवाज़ में पढने लगा –
“सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं
उनके ख़याल से यह सब गप है
मात्र किंवदन्ती।
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे।
प्रश्न की उथली-सी पहचान
राह से अनजान
वाक् रुदन्ती।
चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,…
भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गये
समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थल।
गढ़े जाते संवाद,
गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूल ।
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,
किराये के विचारों का उद्भास।
बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं।
नपुंसक श्रद्धा
सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी…
धुएँ के ज़हरीले मेघों के नीचे ही हर बार
द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ,
एक स्प्लिट सेकेण्ड में शत साक्षात्कार।
टूटते हैं धोखों से भरे हुए सपने।
रक्त में बहती हैं शान की किरनें
विश्व की मूर्ति में आत्मा ही ढल गयी.”
और फिर मैंने पढ़ा “कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ
वर्तमान समाज में चल नहीं सकता।
पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता,
स्वातन्त्र्य व्यक्ति का वादी
छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,
जन को।“
मेस का टाइम हो चला था. मैंने उससे कहा आज रात यहीं रूक जाओ. उसने इनकार कर दिया. “ नहीं यार , वापस जाऊँगा . कल सुबह ही कबीर कलामंच के साथियों की रिहाई के अभियान को लेकर एक प्रदर्शन है. समय मिले तो सुबह तुम भी आ जाना. कॉफ़ी हॉउस के पास सुबह नौ बजे.” थोडा रुक कर सर को झटक कर बड़े दृढ स्वर में कहता गया . “फासीवादी उभार है. लड़ने के सिवा चारा नहीं.” फिर एकाएक मुस्कुराते हुए बोला-“ जानते हो जब से मैं ने एक शीर्षक ‘नीर और नाले’ देखा है एक गीत बेइन्तिहाँ याद आ रहा है- ओ दुनिया के रखवाले! सुन दर्द भरे मेरे नाले….” और मैंने कहा “रखवाला कौन है , पता है !” और दोनों ने एक साथ कहा “ यह भी कोई पूछने की बात है कि दुनिया का रखवाला , ‘आतंक’ के विरुद्ध युद्ध छेड़नेवाला , कौन है ! और फिर ठठा कर हंस पड़े.
मार्तंड प्रगल्भ
मार्तंड प्रगल्भ जे.एन.यू. के भारतीय भाषा केंद्र में पी.एच.डी. के लिए शोधरत हैं। फिलहाल लिडेन (नीदरलैण्ड) में अध्ययन-प्रवास कर रहे हैं। उनसे mpragalbha1@gmail.com पर संपर्क संभव है।