By कृष्ण कल्पित
आवारगी का काव्यशास्त्र
(प्रथम अध्याय)
कर्णाटीदशनास्ति: शित: महाराष्ट्री कटाक्ष क्षत:
प्रौढान्ध्री-स्तन-पीडि़त:, प्रणयिनि भ्रू-भंग वित्रासित:।
लाटी बाहु-विचेष्टीतश्च मलय स्त्री तर्जनी तर्जित
सोऽयं सम्प्रति राजशेखरकविर्वाराणसीं वाञ्छति॥7॥
—राजशेखर
कर्णाट देश की महिलाओं के दाँतों से अंकित, महाराष्ट्रनियों के तीव्र कटाक्षों से आहत, आंध्र की प्रौढ़ रमणियों के स्तनों से पीडि़त, प्रणयिनियों के कटाक्ष से भयभीत, लाटदेशीय रमणियों के भुजपाशों से आलिंगित और मलय निवासी नारियों की तर्जनी से तर्जित यह कवि राजशेखर अब वृद्धावस्था में वाराणसी में बसना चाहता है।
वाराणसी जाकर बस जाने की इच्छा तो मेरे मन में भी बरसों से है, पर एक हज़ार से अधिक वर्ष पूर्व संस्कृत के एक यायावर कवि राजशेखर ने वाराणसी में बसने के जो कारण गिनाए हैं, वैसे कारण और अर्हता प्राप्त करने में मुझे अभी समय लगेगा।
वैसे तो हज़ारों लाखों लोग बिना किसी कारण वाराणसी में बसे हुए हैं, लेकिन हम अपने समय के एक अनूठे कवि ज्ञानेन्द्रपति से तो यह उम्मीद रख ही सकते हैं कि वे राजशेखर की तरह हमें बताएँ कि कोई पच्चीस वर्ष पूर्व एक दिन अचानक गंगातट पर आकर क्यों बस गए; क्योंकि बिना कसी कारण बनारस में बसना अपराध है, जहाँ जिस पथ से आता है शव उसी पथ से जाता है शव! लोकोपवाद से बचने के लिए भी यह ज़रूरी है।
अगर आपके पास पापों की गठरी नहीं है तो फिर बनारस जाकर क्या कीजिएगा? अभी तो पूरी दुनिया घूमिए—पाप की गठरी को भारी कीजिए—अभी तो यायावर राजशेखर की तरह आवारगी कीजिए—अभी तो यहाँ-वहाँ दूर-दूर तक लावण्य के ढेर बिखरे हुए हैं।
प्रायोजित, सुरक्षित और समयबद्ध आवारगी के इस क्षुद्र समकालीन समय में सच्ची आवारणी अलभ्य है और सच्चे आवारा दुर्लभ। आवारगी एक मुश्किल कला है। यह दुनिया का आठवाँ आश्चर्य है, पैंसठवीं कला है और पिच्यासिवाँ आसन है। इसका कोई शास्त्र नहीं है। यह किसी विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ाई जाती। यह पाँवों को लहुलूहान करने का हुनर है। यह जलते अंगारों पर नृत्य करने का दुस्साहस है।
आवारगी एक कोई वनलता सेन है, जो किसी दुर्लभ क्षण में जीवनानन्द दास को मिलती है—इस पथ के दावेदार चरित्रहीन शरत थे—रवीन्द्र नहीं। उर्दू-हिन्दी शब्दकोश में इसका एक अर्थ भीषण जाड़े में लखनऊ के एक सस्ते शराबघर में ठंड से अकड़ी हुई मजाज़ लखनवी की लाश भी है। ये ताँबे के कीड़े हैं, जिन्हें शाहजहाँपुर की धूल में भुवनेश्वर ने खोजा था। यह सत्यजित राय की ‘चारुलता’ नहीं, बल्कि ऋत्विक घटक की ‘बाड़ी थेके पालिए’ है। यह ‘असाध्य वीणा’ तो कतई नहीं है, बल्कि शमशेर की ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ है। यह मुक्तिबोध की ‘घेर घुमावदार’ बावड़ी है या फिर राजकमल की अँतडिय़ों में उलझा हुआ ‘मुक्ति प्रसंग’ है।
उर्दू शायरों के अनुसार आवारगी में भी एक सलीका चाहिए। यह एक चालाकी है। वही प्रसिद्ध चालाकी, जिसने हमारे कथित पुरोधाओं को निस्तेज और निर्वीर्य कर दिया है। सत्ता के सतत् संघर्षण से जिनकी तशरीफें फूल गई हैं—जो शाम को इन्डिया इन्टरनैशनल सेन्टर में स्कॉच की चुस्कियों के साथ मुक्तिबोध की सुमिरनी फेरते रहते हैं।
मुक्तिबोध इनके लिए शराब के साथ खाए जाने वाले सलाद से अधिक कुछ नहीं हैं। यह लोग हर तीसरे महीने आवारगी के लिए पेरिस, फ्रैंकफुर्त, शिकागो और लंदन जाते रहते हैं और हमें विदेशी किताबों के कैटलोग दिखाकर डराते रहते हैं। ये सब नकली यायावर हैं, जिन्हें पहचान कर ही हम सच्ची आवारगी की तरफ बढ़ सकते हैं।
वे आधी रात को निकलते हैं घरों से
अक्सर घरवालों को बिना बताए
अंधेरे में ठिठकते हैं एक बार
फिर पैदल ही चल देते हैं स्टेशन की ओर
बुद्ध भी बिना बताए ही घर से निकले थे। नवजात शिशु, सुन्दर स्त्री यशोधरा और अपार वैभव को छोड़कर। वैसे तो बहुत सारे आवारा मशहूर हैं, लेकिन अब तक की मनुष्यता के इतिहास में बुद्ध से बड़ा आवारा कोई और हुआ हो—मुझे पता नहीं। एक दिन मैं नीरांजरा, अचिरावती और नैरांजना नदियों के तट पर एक साथ घूम रहा था। कपिलवस्तु से पाटलिपुत्र से श्रावस्ती से चेतवन से उज्जयिनी से काशी से कोसाम्बी से कुशीनगर से नालंदा से मथुरा से वेलुवन से वैशाली से जंबुनाद तक। यह मेरी आवारगी थी—देशकाल, समय-सीमा और भाषाओं के पार। मैं कन्थक नामक घोड़े पर सवार था, छन्दक मेरा सहायक। ब्राह्मïणों के पाखंड और वैदिक कर्मकाण्ड को ध्वस्त करता हुआ मैं सोच रहा था कि युद्ध का सामना अयुद्ध से और घृणा का मुकाबला अघृणा से ही हो सकता है। यह एक रोमांचक यात्रा थी और मैं अपनी आवारगी में सोच रहा था कि यदि सुरापान और स्त्री-समागम को जोड़ दिया जाए तो बौद्ध-दर्शन दुनिया का सर्वश्रेष्ठ दर्शन हो सकता है।
लगभग नवीं शताब्दी में श्री महेन्द्र विक्रम वर्मा रचित ‘मत्तविलास प्रहसनम्ï’ के उस शाक्य भिक्षु की तरह मुझे भी लगता है कि यह वृद्ध बौद्धों का युवा बौद्धों के विरुद्ध रचा हुआ षड्यन्त्र है। इसे पूरा विश्वास है कि बुद्ध के पिटक ग्रन्थोंं की मूल प्रति में सुरापान और स्त्री-समागम का समावेश ज़रूर होगा। वह उस मूल पिटक के अनुसंधान में रत है, वह उसे खोजना चाहता है। या उनमें यह प्रावधान जोडऩा चाहता है। इसी कर्म में वह शाक्य भिक्षु निमग्न रहता है। एक दिन बौद्ध-मठ जाते हुए वह सोचता है—’अत्यंत दयालु भगवान बुद्ध ने महलों में निवास, सुन्दर सेज लगे पलंगों पर शयन, पहले प्रहर में भोजन, अपराह्म में मीठे रसों का पान, पाँचों सुगन्धों से युक्त ताम्बूल और रेशमी वस्त्रों का पहनना इत्यादि उपदेशों से भिक्षु-संघ पर कृपा करते हुए क्या स्त्री-सहवास और मदिरापान का विधान भी नहीं किया होगा? ज़रूर किया होगा। अवश्य ही इन निरुत्साही तथा दुष्ट वृद्ध बौद्धोंं ने हम नवयुवकों से डाह कर पिटक-ग्रन्थों में स्त्री-सहवास और सुरापान के विधान को अलग कर दिया है—ऐसा मैं समझता हूँ। मैं इस भूल को सुधारूँगा। ऐसा करके मैं बुद्ध-विचार और संघ का बहुत बड़ा उपकार करूँगा।’
‘एक शराबी की सूक्तियाँ’ लिखकर मैं अपने आप को आवारगी का छोटा-मोटा विशेषज्ञ समझने की हिमाकत कर बैठा था। मैं आसमान से तब गिरा, जब मेरी भेंट हज़ार वर्ष पहले लिखे गए इसी संस्कृत नाटक ‘मत्तविलास प्रहसनम्ï’ के मुख्य पात्र मद्यप कापालिक से हुई। यह कापालिक अपनी सहचरी देवसोमा के साथ हर घड़ी मदिरा-मत्त रहता है। आवारगी उसके चरणों की धूल नज़र आती है। यह कापालिक काँचीपुर के एक शराबघर में अपनी प्रिया देवसोमा से कहता है—’प्रिय, देखो देखो। यह मद्यशाला ही यज्ञशाला है, यहाँ ध्वजा को बाँधने का खम्भा ही यूप है, सुरा सोमरस है, मतवाले ही पुरोहित (ऋत्विक) हैं। चषक ही चमस है, शूल्यमांस चिखना ही हविष्य है, पियक्कड़ों का प्रलाप ही यजुर्वेद है और उनके गान समवेद, पीने की इच्छा ही अग्नि है, मद्यशाला का मालिक ही यजमान है। देखो—मत्तविलासों के नृत्य दर्शनीय हैं, जो बजते हुए मृदंग के इशारों पर हो रहे हैं; जिनमें अनेक प्रकार के अंगों का विक्षेप, शब्द तथा कटाक्ष हो रहे हैं—दुपट्टे को एक हाथ में लेकर ऊपर फहराया जा रहा है और गिरते हुए वस्त्र को सम्भालते हुए हाथों की विषम लय है तथा कंठस्वर लडख़ड़ाया हुआ है।’
शराबियों का ऐसा अभूतपूर्व नृत्य ‘मत्तविलास’ के बाद भारतीय वांङमय की समरभूमि में प्रेमचंद के यहाँ कफन में ही दिखाई पड़ता है—जब घीसू और माधो कफन के लिए इक_ा किए गए पैसों से शराब पीकर वह अविस्मरणीय नृत्य करते हैंं—ठगिनी क्यों नैना झमकावै! यह शायद साहित्य में दर्ज पहली दलित आवारगी थी जिसे प्रेमचंद ने लिखकर अमर कर दिया।
राहुल सांकृत्यायन के ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ के बावजूद अभी तक आवारगी का कोई शास्त्र नहीं बना। वह शायद बन भी नहीं सकता। आवारगी से शास्त्र बनते हैं, लेकिन आवारगी को किसी शास्त्र में नहीं समेटा जा सकता। आवारगी जन्मना होती है। सोच समझकर आवारगी नहीं हो सकती और आवारगी निरुद्देश्य भी नहीं होती। जेबों में नोट ठूँसकर या क्रेडिट कार्ड के भरोसे की गई आवारगी अपने नाम पर कलंक है। जिसने आजतक बिना टिकट ट्रेन की यात्रा नहीं की उसका जीवन व्यर्थ है। आवारगी में एक गहरी निस्संगता चाहिए होती है। ‘एन ऑटोबायोग्राफी ऑव ए सुपरट्रैम्प’ के नायक की तरह, जो टिकट चेकर से बचने के लिए रेल के डिब्बों में छिपने-छिपाने के उपक्रम में ट्रेन से गिरकर अपनी एक टाँग गवाँ बैठता है। उसे इसका भी कोई अफसोस नहीं, अब वह बैसाखी के सहारे आवारागर्दी करता है अपनी एक टाँग कटने की घटना उसके लिए एक छिपकली की पूँछ कटने से अधिक नहीं।
नई दिल्ली के लोधी गार्डन में सुबह-शाम रिबॉक के जूते पहनकर जॉगिंग करने वाले संतुष्ट सुअरों के विचरण को आवारगी नहीं कहा जा सकता। पटना में फ्रेजर रोड के किसी रेस्त्रां के नीम अंधेरे में किसी सुन्दर कन्या से सटकर बैठना भी आवारगी नहीं है। आवारगी वीकएंड का उद्यम नहीं है, बल्कि वह एक सतत प्रक्रिया है। वामन की तरह समूची पृथ्वी को तीन डग में नाप लेने वाले कूपमंडूक तो बहुत नज़र आएँगे पर अपने स्थान और अपने करघे पर बैठा हुआ कबीर कहीं नहीं जाकर भी (सिर्फ मगहर को छोड़कर) समूची दुनिया में आवारगी करता रहता है और सोलहवीं शताब्दी की वह आवारा औरत मीरा, जो दुर्ग-दीवारों को तोड़कर हाथ में इकतारा लेकर निकल पड़ी थी—साधुओं की संगत में। कविता भी प्रतिरोध हो सकती है—कबीर से सीखो। नृत्य भी विद्रोह हो सकता है—मीरा से सीखो।
यह सही है कि किसी आवारा के पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ होता है, फिर भी निराला की तरह उसके हृदयकुंज में आशा का एक प्रदीप हर-पल जलता रहता है। तो क्या निराला ने बगैर आवारगी के ‘तोड़ती पत्थर’ कविता लिखी होगी—
वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने
इलाहाबाद के पथ पर
क्या बिना किसी धुआँधार आवारगी के निराला ने आनन्द भवन की अय्याश अट्टालिकाओं पर गुरु हथौड़ा प्रहार किया था?
हर नया विचार किसी न किसी आवारगी में आकार लेता है। हर सृजनात्मकता के पीछे कोई आवारगी ज़रूर होती है और फिर कविता जैसी कला के लिए तो आवारगी खाद-पानी की तरह मुफीद होती है। उसके बगैर शायद कविता संभव ही नहीं है। फिर भी घनघोर आश्चर्य की बात है कि भारतीय और पाश्चात्य काव्यालोचना में आवारगी का कहीं कोई जि़क्र नहीं पाया जाता। न वह वृत्ति है न प्रवृत्ति न तत्त्व। काव्यालोचन से आवारगी पूरी तरह बहिष्कृत है। जैसे यह कोई काल्पनिक चीज़ है, तो फिर कविता क्या है? कविता की दुनिया में आलोचना अब भी एक कुलीन इलाका है—जहाँ ऐसी पथभ्रष्ट प्रवृत्तियों की थियरी नहीं बनाई जा सकती।
Hektor, the Trojan hero. Aristotle questions his courage.
आवारगी अब भी आलोचकों द्वारा निंदित क्षेत्र है। कवि अवश्य आवारा प्रसिद्ध हुए हैं, उनकी आवारगी की भी किंवदन्तियाँ बनी हैं। लेकिन संस्कृत के अलंकार शास्त्रियों, रीति-आचार्यों से लेकर अब तक उत्तर-आधुनिक विखंडनवादियों तक किसी भी कविता-क्रिटिक ने आवारगी की गर्द-भरे आईने से कविता कला का क्रिटिक नहीं लिखा है। जबकि बहुधा बगैर भाषा के कविता संभव हो सकती है, लेकिन बगैर आवारगी के नहीं।
अब तक की काव्यालोचना में आवारगी, यायावरी, भले ही काव्य तत्त्व के रूप में नहीं पर परोक्ष रूप से कहीं मिलती है तो राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ में। काव्यालोचना के इस अपूर्व ग्रन्थ के रचयिता ने कृति में स्वयं को यायावरीय कहा है। और यह तो पहले ही आ चुका प्रसंग है कि समूचे भारतवर्ष में आवारगी करने के बाद कवि राजशेखर अब काशी में बसना चाहते हैं। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि काव्यशास्त्र की हस अपूर्व पुस्तक की शैली भी किसी यात्रा-वृतान्त की तरह है। यह तब तक का संस्कृत साहित्य का इतिहास भी है और इसका ‘काव्य-पुरुष’ अध्याय पढ़कर लगता है कि यह एक रोचक आख्यान है। यहाँ खंडन भी है और नई स्थापनाएँ भी। इस पुस्तक में अपने समय के बौद्धिक वातावरण का बहुत ही प्रामाणिक व सरस वर्णन हुआ है।
एक बार मैं अपने समय से और समकालीनता से इतना सताया हुआ था कि मिशेल, फुको, रोलाँ बार्थ, देरीदा, वॉल्टर बेंजामिन, एडोर्नो, एडवर्ड सईद, अमर्त्य सेन अैर ब्रोदोलो को चकमा देकर राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ में घुस गया। हज़ार साल का गच्चा मार गया। आवारगी के सामने काल हाथ जोड़े खड़ा रहता है। सच्चा आवारा एक आनन्द-यात्रा में रहता है।
मेरी यह आवारगी राजशेखर के साथ थी। राजशेखर को इस तरह भी देखा जाना चाहिए कि वह पहला कवि आलोचक था, जिसने कहा था कि स्त्री भी कवि हो सकती है। न केवल हो सकती हैं, बल्कि थीं। ‘काव्यमीमांसा’ में राजशेखर ने जिन समकालीन स्त्री कवियों का जि़क्र किया है, उनमें कर्णाटदेश की विजयांका, लाटदेश की प्रभुदेवी, विकट नितंबा, शांकरी, पांचाली, शीला भट्टारिका और सुभद्रा हैं। इतनी कवयित्रियाँ तो अभी समकालीन हिन्दी कविता के परिदृश्य में भी दिखाई नहीं पड़तीं।
क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि राजशेखर बनारस में बसने वाले अपने श्लोक में जिन भू-भाग की स्त्रियों का जि़क्र करते हैं, वहाँ-वहाँ की कवयित्रियों का जि़क्र उनकी ‘काव्यमीमांसा’ में भी है। इसे क्या समझा जाए? आप चाहें तो ‘काव्यमीमांसा’ को एक रसिक के आख्यान की तरह भी पढ़ सकते हैं या फिर आलोचनात्मक आख्यान; या फिर यह एक प्रसिद्ध कवि की मुग्ध कर देने वाली कारीगरी है, जहाँ साहित्य के सारे रस एक ही सरोवर में एकाकार हैं। स्त्री कवियों का जि़क्रभर ही नहीं, बल्कि उनकी कला के बारे में भी हमें पता चलता है। विजयांका को उन्होंने वैदर्भी रीति की रचना में कालिदास के बाद अन्यतम बताया है। तारीफ का यह तरीका आपको नामवर सिंह की याद दिला सकता है—सटीक और निशाने पर। लाटदेश की प्रभुदेवी के बारे में राजशेखर लिखते हैं कि उन्होंने सूक्तियों, कामकेलि तथा कलाओं का काव्य में सन्निवेश कर अपने को अमर कर दिया। भारतवर्ष के सभी भू-भागों की स्त्री कवियों का वर्णन ‘काव्यमीमांसा’ में उपलब्ध है। जिसे पढ़कर बीच-बीच में आपको भ्रम हो सकता है कि आप वात्स्यायन का कामसूत्र पढ़ रहे हैं। कवियों की जीवन शैली, आचार इत्यादि का अध्याय तो राजशेखर ने ‘कामसूत्र’ से लिया ही है।
राजशेखर ने विकट नितंबा की रंजित वाणी की प्रशंसा की है। शीला भट्टारिका के लिए कहा है कि वे पांचाली रीति से कविता करने वाली उत्तम कवि भी थीं। और सुभद्रा की रचना विवेकपूर्ण होती थी। इतना रसभीगा होने के बावजूद राजशेखर का ‘काव्यमीमांसा’ आलोचना ग्रन्थ है और हज़ार बरसों से है।
आलोचना ग्रन्थ होने के बावजूद यह एक कवि की आलोचना है, इस बात का पता हमें तब चलता है, जब राजशेखर अपने समकालीनों और पूर्ववत्र्ती कवियों की आलोचना ईष्र्या से भरकर काव्योक्त ढंग से करते हैं। उनका कहना है कि बाण की स्वच्छन्द वाणी किसी कुलटा स्त्री जैसी है, हालांकि उनकी पदरचना अच्छी है। माघ पर आक्रमण करते हुए वे लिखते हैं—माघ की रचना माघ की तरह कँपाने वाली है और कवियों का उत्साह भंग करने वाली है इत्यादि। यह एक ऐसे बौद्धिक-आवेग-ताप से रची हुई कृति है, जिसकी आँच एक हज़ार वर्ष बाद भी मद्धम नहीं पड़ी है। मेरी आवारगी मुझसे पूछती है कि आखिर बचेगा क्या?
राजशेखर ने अपने को यायावर कुल का कहा है। यानी जिस कुल का काम आवारगी है। एक बंजारा जाति होती है घूमने-फिरने वाली। राजशेखर भी आवारा कवियों के कुल के थे। अकालजलद उनके पूर्वज थे। काव्य पुरुष जैसी कल्पना राजशेखर ही कर सकते थे। इस अध्याय को आप किसी उपन्यास की तरह पढ़ सकते हैं—आत्मकथा की तरह भी। जब काव्यपुरुष माँ सरस्वती को परेशान करने लगा तो उसके लिए साहित्य विद्यावधू का निर्माण किया गया। यह काव्य पुरुष भी आवारगी में माहिर है। पहले वह पूर्व दिशा की ओर जाता है। साहित्यवधू उसे रिझाने का असफल प्रयास करती है। काव्यपुरुष फिर पांचाल देश जाता है, अवन्ती जाता है, दक्षिण जाता है, उत्तर जाता है। और विदर्भ जाकर काव्यपुरुष साहित्यवधू से गन्धर्व विवाह करता है। ऐसी घुमक्कड़ी—ऐसी आवारगी। क्या आपको नहीं लगता कि यहाँ राजशेखर फिर अपनी आत्मकथा लिखने लगे हैं? काव्यपुरुष राजशेखर ही थे। ‘काव्यमीमांसा’ का यह अध्याय लगभग जादुई है, यथार्थ है या नहीं, पता नहीं।
इस जादू के बावजूद ‘काव्यमीमांसा’ काव्यशास्त्र का विलक्षण ग्रन्थ है। राजशेखर कहते हैं सतत् अभ्यास से वाक्य में पाक आता है। राजशेखर कहते हैं कि कविता करना ठीक है पर कुकवि होना ठीक नहीं। यह सजीव मरण है।
राजशेखर कितनी सरलता से यह कहते हैं कि एक कवि के तो घर में ही काव्य रह जाता है। दूसरे का काव्य मित्रों के घरों तक पहुँचता है। किन्तु दूसरी तरह के कवियों का काव्य विदग्धों के मुख पर बैठकर पैर रखकर हर तरफ फैल जाता है। क्या आपको यह समकालीन हिन्दी कविता पर लिखी टिप्पणी नहीं लगती है?
आवारा लोगों और आवारगी के बारे में भी ‘काव्यमीमांसा’ में एक श्लोक है—
पुष्पिण्यौ चरतौ जंघे भूष्णुरात्मा फलेग्रहि:।
शेरेस्य सर्वे पाप्यान: श्रमेण प्रपर्थ हता:।।
अर्थात् आवारगी से जाँघें दृढ़ हो जाती हैं। आत्मा भी मज़बूत और फलग्राही हो जाती है और उसके सारे पाप पथ पर ही थक कर नष्ट हो जाते हैं। राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ दरअसल आवारगी का काव्यशास्त्र है। पाणिनी ने कहा होगा, दण्डी ने, भारवि ने, कालिदास ने, भरत ने—उग्रट ने कहा होगा, लेकिन अब यायावरीय राजशेखर कहता है। जैसे यायावरी दिए गए दृष्टान्त के सिद्ध होने का प्रमाण हो। यह पुराणों में वर्णित भारत-वर्ष का भ्रमण करके लिखा हुआ काव्यशास्त्र ग्रन्थ है। एक ऐसे समय और समाज में यह लिखा गया, जहाँ बौद्धिक उत्तेेजना का माहौल था। जब टीकाएँ मूल ग्रन्थों से अधिक प्रसिद्ध हो चली थीं। राजशेखर ने अपने समय तक के संस्कृत वाङमय का गम्भीर अध्ययन किया था, जिसकी तेजस्वी झलकें हमें ‘काव्यमीमांसा’ में जहाँ-तहाँ मिलती रहती हैं। खंडन और स्थापना। आवारगी ने एक यायावर को काव्यालोचना का काव्यपुरुष बना दिया।
वैसे संस्कृत में यायावरों की कमी नहीं रही। संस्कृत में गद्य काव्य लिखनेवाले महाकवि सुबन्धु के ग्रन्थ ‘वासवदत्ता’ में यायावरी के कई मनोरम दृश्य हैं। उनकी आवारगी ने ही उनसे ऐसा कामोद्दीपक वर्णन करवाया होगा—’पर्वत के चारों ओर शिप्रा बह रही थी। शाम को सुन्दरियाँ उसमें स्नान करने आया करती थीं—उनकी गहरी नाभि में भर जाने के कारण नदी-जल कुंठित हो जाया करता था। वह ललना अपने उन्नत पयोधरों से अलकृंत हो रही थी—उस समय उसके स्तन ऐसे लग रहे थे, जैसे उन्हें गिरने के भय से लौह-कील से जड़ दिया गया हो। वे मानो कामदेव के एकान्त निवास-स्थल हों और वे ऐसे लग रहे थे, जैसे समस्त अंगों के निर्माण के बाद बचे हुए लावण्य के ढेर हों।
आवारगी भले ही घोर निराशा में की जाए, लेकिन उसमें कामभाव छिपा रहता है। एक कामांक्षा। आज तो यह विपुला पृथ्वी सबको एक गाँव दिखाई पड़ रही है तो इसमें आवारा लोगों का कोई कम योगदान नहीं है।
रात हँस-हँस के ये कहती है कि मैखाने में चल
फिर किसी शहनाज़े-लाला-रुख के काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर ऐ दोस्त वीराने में चल
क्या आवारगी का राष्ट्र-गीत ‘आवारा’ लिखने वाले मजाज़ लखनवी ने कभी भर्तृहरि का शृंगार-शतक पढ़ा होगा—
मान्सर्ममुत्सार्य विचार्य कार्य-
भार्या: समर्यादमिद वदन्तु।
सेत्या नितम्बा: कियु भूधराणा-
स्मरस्मेर-विलासिनीनाम्ï॥
अर्थात्
शहनाज़े-लाला-रुख के काशाने में चल या फिर किसी वीराने में।
इक महल की आड़ से निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिए की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब
ऐ गमे-दिल क्या करूँ, ऐ वहशते-दिल क्या करूँ?
मजाज़ की कविता का केन्द्रीय तत्त्व आवारगी है। जीवन भी। मजाज़ के साथ मेरी आवारगी के भी कई किस्से हैं। आवारगी ज़रूरी नहीं कि समकालीनों के साथ ही हो—वह कभी-कभी तो किसी एक टिमटिमाते हुए सितारे के साथ भी हो सकती है।
किताबों के साथ तो मैंने बहुत आवारगी की है। दोस्तायवस्की की ‘जुर्म और सज़ा’, तालस्ताय की अन्ना, पुनरुत्थान, युद्ध और शांति, काम्यू का आउट साइडर, काफ्का की ट्रायल और चीन की दीवार, रेणु की परती-परिकथा। बाणभट्ट की आत्मकथा का बाण तो खुद बहुत बड़ा आवारा था, नाम गिनवाने का कोई अर्थ नहीं और इधर मैं समकालीनता पर धूल फेंकता हुआ संस्कृत क्लासिकों के साथ आवारगी कर रहा हूँ।
जो सर्वाधिक निन्दित हो, उसके साथ आवारगी का अलग अपना मज़ा है—जैसे राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’।
मैं इतनी सारी कथा-कृतियों का आशिक और राजशेखर साथ चलते हुए कहते हैं कि जिस कवि की प्रतिभा का क्षय निम्नकोटि की कथा-रचना में नहीं होता, वहीं कवियों में श्रेष्ठ है।
मैं अभी बनारस नहीं बसना चाहता, क्योंकि मेरे रास्ते में अभी बहुत सारे लावण्य के ढेर बिखरे हुए हैं!
(कृष्ण कल्पित रचित ‘आवारगी का काव्य-शास्त्र’ नामक ग्रन्थ का प्रथम अध्याय समाप्त। इति यायावरीय:।)
कृष्ण कल्पित
अपने तरह का अकेला-बेबाक और विवादित कवि । कृष्ण कल्पित का जन्म 30 अक्टूबर, 1957 को रेगिस्तान के एक कस्बे फतेहपुर शेखावटी में हुआ। अब तक कविता की तीन किताबें और मीडिया पर समीक्षा की एक किताब छप चुकी है। एक शराबी की सूक्तियां के लिए खासे चर्चित। ऋत्विक घटक के जीवन पर एक पेड की कहानी नाम से एक वृत्तचित्र भी बना चुके हैं। अभी हाल ही में बाग़-ए-बेदिल नाम से एक विलक्षण और विशाल काव्य-संकलन प्रकाशित । आवारगी का काव्यशास्त्र इसी संकलन की भूमिका है।