काम के चौंसठ सूत्र : अविनाश मिश्र
आभासी पटल (सोशल साइट्स) के बाहर ‘कुंठित मन’ की ‘निर्लज्ज अभिव्यक्तियाँ’ कितनी अमानवीय होती हैं, वह जानी-पहचानी है. अविनाश के पास ‘कूटनीति’ की भाषा नहीं है, जिसका सबसे सजग इस्तेमाल आभासी लोक-वृत्त के दायरे में किया जाता है. जिस दिन उसके पास यह आ जायेगी, वह ख़त्म हो जाएगा. यह आभासी-व्यवहार और कुछ नहीं, बल्कि हाल-चाल, दुआ-सलाम की भाषा को पाने का ही करतब है. यह भाषा आदमी को दलाल, अवसरवादी, व्यवसायी बना सकती है लेकिन रचनाकार नहीं. यह ‘सर्वधर्म-समभाव’ की सबसे उपजाऊ जमीन है. जहाँ भाषा गूगल-ट्रांसलेट हो जाती है.
अविनाश मिश्र इस समय का रचनात्मक, खतरनाक और ‘आत्मघाती’ स्फुटन है. तमाम आपत्तियों और बदनामियों के बावजूद उसे पसंद किया जाता है. वह रेयर है.
चौंसठ सूत्र
By अविनाश मिश्र
कामसूत्रकार आचार्य वात्स्यायन, युवा आचार्य उदय शंकर और प्रिया ‘विजया’ के लिए
***
।। मंगलाचरण ।।
मेरे लिए अब प्रार्थना करने
और तुम्हारे नाम के
दुहराव के बीच
कोई दुराव नहीं है
मेरे प्रार्थनाक्षर
तुम्हारे नाम के वर्णविन्यास को चूमते हैं
मेरी आकांक्षा है कि
सतत् प्रार्थना में ही रहूं
*
।। आलिंगन ।।
वह फाल्गुन था जब तुम आईं
अवसाद मुझे नष्ट करने ही वाला था
मैं जैसे एक संधि पर था
एक मिलनबिंदु पर
यह तुम्हारे आगमन से हुआ कि
अवसाद को मदहोशी
और उदासी को उन्माद में बदलने के लिए
मैं तुम्हारे अधरों का आघात चाहने लगा
*
।। चुंबन ।।
वे औपचारिक नहीं
प्रामाणिक थे
कभी तर्क की तरह प्रस्तुत
कभी सिद्धांत की तरह
वे सबसे प्रचलित दृष्टिकोण की तरह
स्वीकार्य थे
उनमें प्रतीक्षा का धैर्य था
और अनिश्चितता का तत्व भी
*
।। नखक्षत ।।
वे अल्पविराम थे
तुम्हारे कंधों और नाभि के निकट उभरे हुए
स्तनालिंगन के मध्य
मेरे नाम का वर्णविन्यास रचते
वे तुम्हारे पृष्ठ पर थे
और जिनके पश्चात भी प्रारंभ होते हैं वाक्य
ऐसे पूर्णविरामों की तरह
वे थे तुम्हारे नितंबों पर
*
।। दंतक्षत ।।
जिह्वायुद्ध में
तुम्हारी हंसी को चूमते जाते हुए
वे चंद्रबिंदु की तरह
लुप्त होना चाहते थे :
बिंदुमाला बनाते हुए
अर्थ न खोए
सौंदर्य
भले ही खो जाए
*
।। संवेशन ।।
प्रकट में तुम बहुत मौन हो
स्वगत में बहुत वाचाल
सौंदर्य के लिए नहीं लय के लिए आवश्यक
मेरे समग्र स्वप्नचित्रों का केंद्रीय वैभव हो तुम
*
।। सीत्कृत ।।
हल्के प्रकाश में
तुम और भी सुंदर थीं
हल्की सांस लेती हुईं
आशंका को स्थान न देती हुईं
लापरवाहियां तुम्हारे शिल्प में थीं
इस अर्थ में इस अर्थ से दूर
तुम्हारी बंद आंखों में भी मद था
मैंने सारी रात खुली आंखों से तुम्हें देखा
*
।। पुरुषायित ।।
जब मैं परीक्षा पूरी दे लूं
प्रीति मुझे लेने आए
मैं थक जाऊं इतना प्रणययुद्ध में
कि सूर्यास्त मेरी प्रशंसा करे
रात्रि मुझे और उत्तेजना दे
सूर्योदय मुझे और बल
*
।। औपरिष्टक ।।
तुमसे ही मांगूंगा तुम्हें
सिर्फ तुम्हें
इंकार मत करना
देने से घटता नहीं है
और बचाते हैं वे
जिनके पास कम होता है
*
।। अनन्यपूर्वा ।।
कुंवारे अंग
कुंवारे राग
कुंवारी सृष्टि
कुंवारी आग
कुंवारा हृदय
कुंवारा सुहाग
मुझे उम्मीद थी
मैं नाउम्मीद नहीं रहूंगा
*
।। वरणसंविधान ।।
जो आत्मबल से युक्त हैं
मैत्री से संपन्न
नागरकता से पूर्ण
मनोभावों को समझते हैं
देशकाल की परिस्थितियों के ज्ञाता हैं
ऐसे नायकों को अनायास ही मिलती हैं अलभ्य नायिकाएं
आत्मवंचित
मैत्रीमुक्त
नागरकतारहित
अंतर्मुखी
एकाकी नायकों (?) के लिए है
हस्तमैथुन
*
।। विवाहयोग ।।
उच्चकुल भी रच सकता है नर्क
संबंधी भी कर सकते हैं घात
संपन्नता भी कर सकती है व्यथित
सुख भी कर सकता है छल
मात्र अनुराग ही है चयन के योग्य
मनोनुकूल
श्रेष्ठ
अभीष्ट
*
।। कन्यावरण ।।
किसी नक्षत्र को अशुभ मान लेना
किसी नदी को अपवित्र
किसी वृक्ष को अस्पृश्य
किसी अक्षर को अवांछित
किसी स्त्री से भी ऐसे ही व्यवहार करना
नक्षत्रों के नामों वाली
नदियों के नामों वाली
वृक्षों के नामों वाली
‘ल’ और ‘र’ पर खत्म हो जिसका नाम
ऐसी किसी स्त्री से विवाह न करना
लेकिन जब कोई स्त्री चीन्ह ले
तुम्हारी आंखों में
तुम्हारा सारा दुःख
तब भूल जाना सब कुछ
और बना लेना उसे अपनी
सांसों से भी ज्यादा जरूरी
*
।। संबंधनिश्चय ।।
तुम्हारे कदमों से मिलाता हूं
अपने कदम
तुम्हारी रफ्तार से
अपनी रफ्तार
तुम्हारी उंगलियों से
अपनी उंगलियां
तुम्हारे साथ चलना
भविष्य का अभ्यास करना है
*
।। परिचयकारण ।।
सुंदरताओं के सूत्र
सुंदरताओं को नहीं देते
जब तुमने कहा :
‘‘मैं इतनी सुंदर नहीं’’
मैंने नहीं कहा :
‘‘मेरी आंखों से देखो’’
*
।। आभ्यासिकी ।।
प्रेम अगर सफल हो
तब पीछे से उम्र घटती है
अगर असफल हो
तब आगे से
तुम्हारे बगैर
मेरी सारी यात्राएं अधूरी हैं
*
।। आभिमानिकी ।।
बहुत असभ्य और अश्लील हैं अंधेरे मेरे
तुम हो रही सुबह की तरह सुंदर हो
प्रेम है अस्तित्व की एक अवस्था
और तुम इसमें मेरा पता
मुझ तक पहुंचने के लिए
जरूरी है जानना तुम्हें
*
।। सम्प्रत्ययात्मिका ।।
सब तुमसे पूछेंगे :
‘‘तुमने मुझमें क्या देखा’’
तुम मुझसे पूछोगी :
‘‘तुमने मुझमें क्या देखा’’
मैंने तुम्हें
तुमने मुझे
देखते हुए देखा
परस्पर घायल इस संदर्भ में
एक दूसरे के प्रति इतने सच्चे
कि सारे संसार के लिए झूठे
*
।। विषयात्मिका ।।
जो प्यार में हैं
प्यार और बरसता है उन पर
जो नहीं हैं प्यार में
वे तरसते हैं प्यार की एक बूंद को भी
मैं बहुत वक्त से प्यार में हूं
बहुत वक्त से नहीं था प्यार में
*
।। प्रयोज्या ।।
प्यार हो तो तुम
कैसे भी रह लोगी
तुम कोई कहानी नहीं हो
जो मुझे दुःख दोगी
*
।। समरत ।।
कभी तुम्हारे पैरों में दर्द होगा
तब मैं दबा दूंगा
कभी मेरे पैरों में भी
दर्द होगा…
हम पहले और अकेले नहीं होंगे
दर्द में
*
।। अधररेखा ।।
वहां रहना भी सुंदर है
कुछ देर
जहां कुछ देर बाद रहना
सुंदर न लगे
*
।। वक्षरेखा ।।
गहराई
सदा
सुंदर
होती है
यह अलग तथ्य है कि
दृष्टि उसमें डूब जाती है
*
।। योनिरेखा ।।
समय से पूर्व पहुंचना मूर्खता है
समय पर पहुंचना अनुशासन
समय के पश्चात पहुंचना अहंकार
*
।। अशिक्षितपटुत्वम् ।।
स्त्रियों में कलाओं का संस्कार जन्मजात होता है
शास्त्रीयता और प्रयोग से वे और कलावान् होती हैं
पुरुष कलावान् नहीं हो सकते
वे या तो कलावादी होते हैं या कलाविरोधी
*
।। एकपुरुषाभियोग ।।
तुम बार-बार खुलना चाहती हो
मेरे सामने
बार-बार बढ़ते हैं मेरे हाथ
तुम्हें बांधने
प्यार एक लय है
इसमें मुक्ति कहां
*
।। मयूरपदक ।।
एक स्तन को प्यार करो
सारी रात
तब दूसरा रहता है उदास
सुबह तक
इस उदासी को जानता है वह जल जो
बालों
आंखों
अधरों
गर्दन
से
उतरता
हुआ
पहुंचता
है
उस
तक
*
।। रागवत् ।।
इतना ध्यान दूंगा तुम पर
खुद का ध्यान नहीं रख पाऊंगा
स्नानागार की दीवार पर चिपकी
बिंदिया की तरह छूट जाऊंगा
सारे उजालों में तुम बिन रहूंगा मायूस
नाक की कील की तरह कहीं गिर जाऊंगा
सांझ ढले जब तुम लौटती होगी
तुम्हारे माथे से स्वेदबूंद की तरह चू पडूंगा
रात गए जब तुम गिरोगी मुझ पर
बिस्तर की तरह तुम्हें संभालूंगा
तुम बिन
बहुत बर्बाद हूं मैं
*
।। आहार्य राग ।।
सीढ़ियों पर
झूलों में
चट्टानों पर
रजतरश्मियों में
तुमने उतारा मुझे अपने भीतर
हमारे अभिसार की आवाजों में खो गया
समाचारों का कोलाहल
विस्मृत हुआ विश्व
*
।। कृत्रिम राग ।।
मैं जानता हूं तुम्हें
यह जानकर भी
तुम जानती नहीं मुझे
मैं सोचता हूं यह
तुम संभवत: यह सोचती हो
मैं जानता हूं तुम्हें
यह जानकर भी
तुम जानती नहीं मुझे
*
।। व्यवहित राग ।।
तुम इच्छाओं से भरी हुई हो
जैसे यह सृष्टि
मैं सुन सकता हूं तुम्हें उम्र भर
व्रती है यह दृष्टि
*
।। पोटारत ।।
जाना तो जाना
कुछ भी नहीं जाना
कुछ मनवाया
कुछ माना
मुझसे क्या-क्या झूठ बोला
सच-सच बोलो
*
।। खलरत ।।
सुख के लिए
मैं तुम्हें दर्द नहीं दे सकता
क्योंकि जानता हूं
सुख के लिए
तुम सह सकती हो
दर्द भी
*
।। अयंत्रित रत ।।
अंगराग की तरह लगता हूं
तुममें
असंदिग्ध है मेरी योग्यता
नए सौंदर्य साधनों के सम्मुख
मुझे कविता पसंद है
और कविता को मैं
बस इतना पर्याप्त है
मेरे कविकर्म के लिए
*
।। आलंबन ।।
आंखें जलती हैं नींद से
ख्वाब दूर खड़े रहते हैं
तुम सोती हो मेरे कंधों पर
मैं लगाता हूं तुम्हारा तकिया
मेरी नींद
तुम्हें लग गई है
*
।। आलाप ।।
तुम खोज लाती हो
मेरी सारी खोई बातों के सूत्र
मैं खोजता हूं
तुम्हारे
केशों में अपनी सांसें
तुम्हारे
उरोजों और ऊरुओं पर
स्मारणीयक
*
।। सुरत ।।
तुम सो गई हो प्यार के बाद
मैं तुम्हें सोते हुए देख रहा हूं
जब तुम जागोगी
मैं तुम्हें फिर प्यार करूंगा
तुम फिर सो जाओगी
मैं तुम्हें फिर देखूंगा
*
।। कन्याविस्रम्भण ।।
मेरी उंगलियों की छुअन से
होती है तुम्हारे पेट में गुदगुदी
इसका अर्थ है :
तुम सच्ची हो प्रेम में
अगले संसर्ग में नहीं करवाओगी विलंब
अगर नहीं होती गुदगुदी
इसका अर्थ होता :
तुम तड़पाओगी बहुत…
यह शुद्ध संशय नहीं
संकीर्ण संशय है
*
।। गोष्ठीसमवाय ।।
‘‘टूटी हुई बिखरी हुई’’
शीर्षक ये मेरा नहीं है
‘‘द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार’’
पंक्तियां ये मेरी नहीं हैं
‘‘चिकनी चांदी-सी माटी
वह देह धूप में गीली
लेटी है हंसती-सी’’
कविता ये मेरी नहीं है
मेरी
केवल
तुम हो
एकमात्र
कविता
*
।। घटानिबंधन ।।
जो सबसे ज्यादा असुंदर थी
उसने स्वयं को सबसे ज्यादा सजा रखा था
जो उससे कम असुंदर थी
उसने स्वयं को उससे भी ज्यादा सजा रखा था
जो कम सुंदर थी
उसने स्वयं को कम सजा रखा था
और जो वास्तव में सुंदर थी
वह वहां आ नहीं पाई थी
*
।। छायाचुंबन ।।
कहीं होकर भी नहीं होना
कहीं नहीं होकर भी होना
बहुत रूप हैं तुम्हारे
रंग मात्र एक मेरा
*
।। रतरम्भावसानिक ।।
प्रेम का प्रारंभिक प्रभाव
बहुत मधुर लगता है
जैसे
कोई गीत अपने शुरुआती संगीत से
जगाता है अपेक्षाएं
एक फूल भी यही करता है
इस सच के बावजूद
कि यह प्रभाव नहीं रहेगा
*
।। चित्ररत ।।
तुम्हारी आंखें जैसे जामुन
तुम्हारी हंसी जैसे घुंघरू
तुम्हारे होंठ जैसे नाव
तुम्हारी सांसें जैसे नदी में फेंका गया पत्थर
उपमाएं क्षीण हो रही हैं
स्मृति गहन
*
।। चक्षु:प्रीति ।।
प्रेम का अभिनय नहीं हो सकता
प्रेम अभिनय को उपेक्षा की आंखों से देखता है
उपेक्षा मारती है जब अभिनय को
तब वह जान पाता है कि
प्रेम
रंगस्थल नहीं है
*
।। चित्तासंग ।।
मैंने सोचा :
कल तुम कहकर भी नहीं आओगी
यह सोचते ही
आनेवाला कल
मेरे लिए
बीता हुआ कल हो गया
*
।। संकल्प ।।
तुम्हें कितना चाहा
और बदले में
कुछ नहीं चाहा
तवज्जोह तक नहीं
*
।। निद्राच्छेद ।।
संकल्प
बहुत तेज दर्द की तरह उठता है
सीने में
शुभरात्रि की जगह
प्रेमरात्रि कहती है
मेरी
नींद
मुझे
*
।। तनुता ।।
खुद को तुम्हें देकर
तुम्हें बड़ा और गहरा किया मैंने
मैं भरता हूं तुम्हारी नाभि में जल
भरती नहीं मेरी प्यास
तुम्हारा अभाव नष्ट हुआ
मेरा स्वभाव
*
।। व्यावृत्ति ।।
तुम सबसे बड़ी आलोचक हो मेरी
मैं सबसे बड़ा प्रशंसक तुम्हारा
यह सुख है
शेष दुःख
मेरे खाते में लिख दो
वे धीरे-धीरे मुझे खाते रहेंगे
*
।। लज्जाप्रणाश ।।
‘‘तुम अच्छी हो’’
तुमसे संबोधित यह बात
मैं पूछता नहीं हूं
कहता हूं
‘‘मैं अच्छी हूं’’
मुझसे संबोधित यह बात
तुम पूछती नहीं हो
कहती हो
तुम ठीक से नहीं सुनतीं
‘‘तुम अच्छी हो’’
*
।। उन्माद ।।
तुमने इस कदर सताया मुझे
कि तुम्हें लगा तुम भी सता सकती हो
एक सताई गई स्त्री भी सता सकती है
यह तुम बता सकती हो
*
।। मूर्च्छा ।।
मैं नहीं आया तुम्हारे पास
तुम ही आईं
तुम्हारा प्यार तुम्हारी ताकत है
मेरा प्यार मेरी दुर्बलता
*
।। मरण ।।
मेरे हृदय की ओर आते बाण बहुत थे
प्रेम ने भी मुझे निष्कवच किया
मैं इसलिए मरता हूं तुम पर
क्योंकि जी नहीं सकता तुम्हारे बगैर
*
।। भावपरीक्षा ।।
तुमने कहा :
‘‘मैं जा रही हूं’’
मैंने कहा :
‘‘आओगी नहीं’’
इस ‘आओगी नहीं’ के आगे प्रश्नचिन्ह है या नहीं
यह एक प्रश्न है
*
।। विस्थापन ।।
आकाश से तुम पर आती हुईं जलबूंदें
बहुत अपरिचित थीं तुमसे
आकर इतनी विलीन हुईं तुममें
कि विस्मृत हुआ व्योम उन्हें
*
।। प्रवासचर्या ।।
कितने दिवस हुए
चांद हाथों में लिए हुए
कितने दिवस हुए
शीतलता छुए हुए
कितने दिवस हुए
आंखों में गए हुए
*
।। एकचारिणी ।।
मैं न देख सकूं जिन दिवसों में तुम्हें
उन दिवसों में तुम सिंगार मत करना
व्यय को व्यर्थ हो जाने देना
व्यथा को व्यापक
*
।। क्षीरजलक ।।
सुंदर था वह क्षण
स्मृतियों में भी वही हुआ
मैं बहुत गलत था जीवन में
तुमसे मिलकर सही हुआ
*
।। स्त्रीपुरुषशीलावस्थापन ।।
एकल रहना है स्त्रीवाद
‘मुझे चांद चाहिए’ कहना है स्त्रीविरोधी
कौमार्य की चाह में न बहना है प्रगतिशीलता
इस संसार के पार भी है एक संसार
जहां एक रोज तुम्हारा बहुत सुंदर लगना
रोज तुम्हें गौर से न देखना है
*
।। सवर्णा ।।
विवाहपूर्व यौन संबंध
विवाहेतर यौन संबंध
विवाह पश्चात भी हस्तमैथुन
हमउम्र मित्रों या कमउम्र बच्चों के साथ
अप्राकृतिक और अशोभनीय आचरण
कभी-कभी कुत्तों
या निर्जीव वस्तुओं के साथ अराजक हो जाना
और भी तमाम माध्यम हैं
विवाह कर लाई गई एक लड़की को
बगैर छुए प्रताड़ित करने के
*
।। निरनुबंध ।।
वेश्याएं
कुछ भी पहन लें
वासनाएं ही जगाती हैं :
प्रेम
प्रगतिशीलता
स्त्रीविमर्श
*
।। नीवीविस्रंसण ।।
जब तुम गर्भ में थीं
मैं तुम्हें नहीं जानता था
जब तुम गुरुकुलों में थीं—
शास्त्रार्थ के लिए प्रवीण होती हुईं
मैं तुम्हें नहीं जानता था
जब तुम राजधानी में आईं—
प्रतिकार को संगठित करने
मैं तुम्हें नहीं जानता था
मैं खो गया तुममें
क्योंकि मैं तुम्हें नहीं जानता था
जब तुम मुझे आकांक्षाओं के समीप ले गईं
और बुझ जाने तक मैंने तुम्हें प्यार किया
तब तक मैं तुम्हें कहां जानता था
*
।। नखविलेखन ।।
नाखूनों से तुम्हारे स्तनों पर
अर्द्धचंद्र बनाते हुए
मैंने देखा :
पुराने अर्द्धचंद्र अब तक भरे नहीं हैं
तुम विरह में रहीं
क्योंकि मैंने भूल की
*
।। उपसंहार ।।
दर्द वह मेरा है
जो तुम्हें होता है
तुम ही बढ़ाती हो इसे
तुम ही और बढ़ाती हो
तुम्हारे सब अंग
अब मेरे संग हैं
***
परिशिष्ट
आधार-ग्रंथ/संदर्भ/पारिभाषिक शब्दावली/अन्य संदर्भ
आधार-ग्रंथ :
श्रीवात्स्यायनमुनिप्रणीतं ‘कामसूत्रम्’ : हिंदीव्याख्याकार डॉ. पारसनाथ द्विवेदी, प्रकाशक : चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी।
*
संदर्भ :
आलिंगन, चुंबन, नखक्षत, दंतक्षत, संवेशन, सीत्कृत, पुरुषायित, औपरिष्टक— संभोग के आठ प्रकार।
आभ्यासिकी, आभिमानिकी, सम्प्रत्ययात्मिका, विषयात्मिका— प्रीति के चार प्रकार।
रागवत्, आहार्य राग, कृत्रिम राग, व्यवहित राग, पोटारत, खलरत, अयंत्रित रत— सात रतविशेष।
चक्षु:प्रीति, चित्तासंग, संकल्प, निद्राच्छेद, तनुता, व्यावृत्ति, लज्जाप्रणाश, उन्माद, मूर्च्छा, मरण— काम की दस अवस्थाएं।
*
पारिभाषिक शब्दावली (क्रमशः) :
नखक्षत : नाखूनों द्वारा देह पर अर्द्धचंद्रादि चिन्ह विशेष।
स्तनालिंगन : स्तनों से नायक की छाती को दबाना।
दंतक्षत : दांत से देह पर काटना।
जिह्वायुद्ध : नायक का अपने अधरों, जिह्वा और दांतों से नायिका के अधर, दांत और जिह्वा को भलीभांति चूमना।
बिंदुमाला : दंतक्षत का एक प्रकार जिसमें सभी दांतों से काटने के कारण बिंदुओं की एक माला-सी बन जाती है।
संवेशन : संभोगासन।
सीत्कृत : सीत्कार।
पुरुषायित : विपरीत रति अर्थात् जब स्त्री पुरुष के ऊपर आकर संभोग में क्रियाशील हो।
प्रणययुद्ध : प्रहणन।
औपरिष्टक : मुखमैथुन।
अनन्यपूर्वा : अक्षत-योनि।
वरणसंविधान : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें विवाह-संस्कारों का वर्णन है।
नागरकता : रसिकता।
विवाहयोग : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें सहायकों द्वारा कन्या को अनुकूल बनाने के उपाय हैं।
कन्यावरण : ‘कामसूत्र’ के वरणसंविधानप्रकरण का एक भाग।
संबंधनिश्चय : ‘कामसूत्र’ का एक अन्य विवाह-संबंधी प्रकरण।
परिचयकारण : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें कन्या-प्राप्ति के उपाय हैं।
आभ्यासिकी : अभ्यास से सिद्ध प्रीति।
आभिमानिकी : संकल्प से सिद्ध प्रीति।
सम्प्रत्ययात्मिका : पारस्परिक विश्वास से सिद्ध प्रीति।
विषयात्मिका : श्रोत्रादि इंद्रियों के प्रत्यक्ष ज्ञान से और लोक से सिद्ध प्रीति।
प्रयोज्या : प्रेमिका।
समरत : समान स्त्री-पुरुष का संभोग।
अशिक्षितपटुत्वम् : कामशास्त्र की शिक्षा के बिना ही स्त्रियों का स्वत: कामकला में प्रवीण होना।
एकपुरुषाभियोग : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें कन्या-प्राप्ति के लिए एक पुरुष के द्वारा करणीय उपाय हैं।
मयूरपदक : नखक्षत का एक प्रकार। पांचों नाखूनों से स्तन को अपनी ओर खींचने से बनी रेखा।
रागवत् : प्रथम दर्शन में ही प्रेम हो जाना।
आहार्य राग : किसी स्त्री से धीरे-धीरे प्रेम बढ़ाना।
कृत्रिम राग : बनावटी प्रेम।
व्यवहित राग : किसी स्त्री से संभोग करते समय अन्य स्त्री के प्रेम की कल्पना।
व्रती : संकल्पशील।
पोटारत : कामवासना की तृप्ति के लिए अधम स्त्री से संबंध जोड़ना।
खलरत : कामवासना की तृप्ति के लिए किसी हीन व्यक्ति से प्रेम-संबंध जोड़ना।
अयंत्रित रत : परस्पर पूर्ण परिचित स्त्री-पुरुष की संभोग क्रिया।
अंगराग : उबटन।
उरोज : स्तन।
ऊरु : जांघ।
स्मारणीयक : नायिका के स्तनों और जंघाओं पर नाखूनों से रेखाएं खींचना।
सुरत : संभोग।
कन्याविस्रम्भण : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें विवाह के पश्चात सहवास-संयम का वर्णन है।
शुद्ध संशय : लक्ष्यसिद्धि में संदेह होना।
संकीर्ण संशय : यह कार्य होगा या नहीं! इस प्रकार का संशय करना।
गोष्ठीसमवाय : साहित्यिक एवं सामाजिक गोष्ठियों का आयोजन।
घटानिबंधन : देवालय में त्योहारों एवं समारोहों पर सामूहिक नृत्य, गान एवं गोष्ठी का आयोजन।
छायाचुंबन : दर्पण या दीवार पर प्रतिबिंबित नायक-नायिका की परछाईं का चुंबन।
रतरम्भावसानिक : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें रत के आरंभ-अंत में क्या करना चाहिए इसका विवेचन है।
चित्ररत : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें संभोग की अद्भुत विधियों — स्थिररत, अवलम्बितक, धेनुक, संघटक, गोयूथिक, वारिक्रीडितक — का विवेचन है।
चक्षु:प्रीति : स्त्री के प्रथम दर्शन से आंखों में प्रेम का संचार हो जाना।
चित्तासंग : मन में प्रेमास्पद के प्रति आसक्ति उत्पन्न होना।
संकल्प : प्रेमास्पद की प्राप्ति के लिए संकल्परत हो जाना।
निद्राच्छेद : प्रेमास्पद की चिंता में नींद उड़ जाना।
तनुता : प्रेमास्पद की चिंता में नींद उड़ जाने से देह से दुर्बल हो जाना।
व्यावृत्ति : दुर्बलता के कारण विषयों से विरक्ति और दैनिक कार्यों से अरुचि।
लज्जाप्रणाश : निर्लज्ज हो जाना और गुरुजनों से भी न डरना।
उन्माद : पागलपन।
मूर्च्छा : बेहोशी।
मरण : मृत्यु।
भावपरीक्षा : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें नायिका के मनोभावों की परीक्षा से सिद्धि का उल्लेख है।
प्रवासचर्या : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें पति के परदेश चले जाने पर पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन है।
एकचारिणी : सद्गृहिणी।
क्षीरजलक : कामांध नायक-नायिका का प्रगाढ़ आलिंगन।
स्त्रीपुरुषशीलावस्थापन : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें स्त्री-पुरुष के शील-स्वभाव का अवस्थापन है।
सवर्णा : अपनी जाति की स्त्री।
निरनुबंध : लाभ की दृष्टि से किसी से भी समागम करना।
नीवीविस्रंसण : अधोवस्त्र की गांठ खोलना।
नखविलेखन : नखक्षत।
*
अन्य संदर्भ :
‘गोष्ठीसमवाय’ में क्रमश: प्रस्तुत कविता-शीर्षक, कविता-पंक्तियां और कविता शमशेर बहादुर सिंह की देन हैं।
‘स्त्रीपुरुषशीलावस्थापन’ में प्रस्तुत पंक्ति ‘मुझे चांद चाहिए’ सुरेंद्र वर्मा के एक बहुचर्चित उपन्यास का शीर्षक है।
***
अद्भुत……. बधाई…..
bus -,sau – sau salaam ….
अद्भुत व संग्रहणीय. बधाई…
Wonderful Avinash. Proud.
अभ्यासपूर्ण प्रस्तुती
waah adbhut.badhai
jabardast
‘कामसूत्र’ को आत्मसात कर, भावों ,कामदशाओं के विस्तृत, सविमर्श,सलय,सटीक, सूत्रवत् अनुभूति एवं अभिव्यक्ति के चौसठ सूत्र। कुछ सुंदर परिभाषाएँ भी …स्त्रीविमर्श, प्रगतिवाद की…
अब तक ऐसा कभी न पढ़ा था।