काम-चिंतन की कणिकाएँ: रामधारी सिंह दिनकर

(१)

बहुत-सी नारियाँ इस भ्रम मे रहती हैं कि वे प्यार कर रही हैं। वास्तव मे वे प्रेम किये जाने के कारण आनन्द से भरी होती हैं। चूँकि वे इनकार नहीं कर सकती, इसलिए यह समझ लेती हैं कि हम प्रेम कर रही हैं। असल में यह रिझाने का शौक है, हलका व्यभिचार है । प्रेम का पहला चमत्कार व्यभिचार को खत्म करने में है, पार्टनर के भीतर सच्चा प्रेम जगाने में है !

(२)

ऐसी ओरतें हैं, जिन्होंने प्रेम किया ही नहीं है । लेकिन ऐसी औरतें कम हैं, जिन्होंने प्रेम केवल एक ही बार किया हो ।

जब प्रेम मरता है, तब बची हुई चीज ग्लाति होती है, पश्चात्ताप होता है।

प्रेम आग है, जलने के लिए उसे हवा चाहिए। आशा और भय के समाप्त होते ही प्रेम समाप्त हो जाता है ।

सुखमय विवाहित जीवन सम्भव है। स्वादमय विवाहित जीवन सम्भव नहीं है ।

प्रेम का नाम नहीं सुनते, तो बहुत-से लोग हैं, जो प्रेम में नहीं पड़ते। कवियों और उपन्यास-लेखकों ने प्रेम का प्रचार किया है ।

(३)

औरतें अपनी वासना को काबू में ला सकती है, मगर अपनी रिझाने की प्रवृत्ति को वे रोक नहीं सकती ।

प्रेम में पागल हो जाना किसी हद तक ठीक है, बेवकूफ बनना बिलकुल ठीक नहीं है ।

(४)

ऐसी सती नारियाँ कम हैं, जो अपने जीवन को बेस्वाद नहीं मानती हो । ये नारियाँ उस खजाने के समान हैं, जो सुरक्षित इसलिए है क्योकि वह गड़ा हुआ है। यानी इसलिए कि उसका पता किसीको चला ही नहीं है । ज्यों-ज्यों नर-नारी के मिलन के अवसरों मे वृद्धि हुई है, त्यों-त्यों सती नारियों की संख्या में हास हुआा है “पुरानी नैतिकता तभी बचायी जा सकती है, जब नर और नारी के मिलन के अवसर कम कर दिये जायें । नारी अग्नि है, पुरुष घृत-कुंभ है । दोनों के अलग रहने में ही पुरानी नैतिकता का कल्याण है ।

(५)

आदि काण्ड में नारी प्रेमी से प्रेम करती है । उसके बाद वह प्रेमी से नहीं, प्रेम से प्रेम करने लगती है ।

प्रेम और सतर्कता, ये साथ नहीं चल सकते । जैसे-जैसे प्रेम में वृद्धि होती है, सतर्कता खत्म होने लगती है ।

मोहिनी- राजा रवि वर्मा

(६)

जो समाज अपनी औरतों को परदो में बन्द रखता है और जो समाज उन्हें घुमने-फिरने की आजादी देता है, उन दोनों की कविताएँ अलग-अलग ढंग की होगी ।

सुन्दरता के बारे में तर्क जितना ही अधिक किया जायेगा, उसकी अनुभूति उतनी ही कम होगी।

(७)

सुखी प्रेम का इतिहास नहीं होता । प्रेम का इतिहास रोमांस का इतिहास है और रोमांस तब जन्म लेता है, जब प्रेम में वाधा पड़ती है, रुकावट आती है, विशेषतः तब, जब प्रेम दुखांत होता है। जिस प्रेम में आतुरता है, तेजी है, छटपटाहट और बेचैनी है, वह विपत्ति लाकर रहेगा ।

कहते हैं, यूरोप और अमरीका में व्यभिचार सबसे बड़ी प्रवृत्ति है । व्यभिचार न हो, तो कविता और उपन्यास में क्या रह जाता है ? सारा साहित्य उस प्रेम के इर्द-गिर्द चक्कर काटता है, जो नियमों का पालन करना नहीं जानता ।  मनुष्य जाति की आधी से अधिक विपत्तियों का नाम व्यभिचार है ।

विवर्जित के प्रति आकर्षण है, इसलिए विवाह टूटते हैं। लेकिन विवर्जित के प्रति आकर्षण में दुख है, यह जानते हुए भी आदमी संत्रास को स्वेच्छया क्यों अपनाता है ?

(8)

प्रेमी अपराध करके न तो सुधार की शोशिश करते हैं, न पश्चाताप । कारण ? उनका अंतर्मन कहता है कि उन्होंने पाप नहीं किया है, पाप और पुण्य की सीमा को लाँघकर वह आनन्द लूटा है, जो आनन्द पाप और पुण्य की सीमा के इघर है ही नहीं । अवैध प्रेम में प्रेम की पात्री नायिका नहीं होती, बल्कि यह अनुभूति होती है कि हम प्रेम कर रहे हैं। नारी नर को और नर नारी को इसलिए नहीं चाहता कि वे नर और नारी है, बल्कि इसलिए कि दोनों के मिलते ही एक ज्वाला उठती है, जो केवल नर या केवल नारी में नहीं उठ सकती।

रुकावट के बिता प्रेम मे जोर नहीं आता, रोमांस की आग नहीं धधकती। जहाँ असली रुकावट नहीं है, वहाँ उसकी कल्पना कर ली जाती है। प्रेमियों के प्रति दया हमारे भीतर यह सोचकर आनी चाहिए कि अन्त में विषाद उनका

इंतज्ञार कर रही है ।

वासना शरीर का चाहे जितना भी उपयोग करे, किन्तु शरीर के कानून को तोड़कर वह जीवित नहीं रह सकती । यूनानी और रोमन लोग इसीलिए प्रेम को बीमारी समझते थे।

(९)

वासना को शब्द और भाषा साहित्य से मिली है। अगर साहित्य ने प्रेम पर इतनी बातें नहीं कही होती, तो कम लोग इस जजाल में फँसते। गेटे के वर्दर (The Sorrows of Young Werther) के प्रकाशन के बाद यूरोप में आत्महत्या की लहर आ गयी थी। रूसो के प्रभाव में आकर लोग दूध ज्यादा पीने लगे थे। रेने के प्रकाश में आने के बाद कई पीढियाँ गमगीन रही थी । सुना है कि एक बार कलकत्ते में एक फिल्म का इतना भयानक प्रभाव पड़ा कि कई लड़कियों ने झील मे कूदकर आत्महत्या कर ली थी। उस फिल्‍म का नाम देवदास था।

(१०)

मैं तो भाग्य की ठोकरे खाकर अध्यात्म की ओर मुड़ा हूँ, मगर यह देवी शायद सुख से ऊबकर अध्यात्म की ओर जा रही है। लेकिन वह अभी काम और अध्यात्म के बीच झटके खा रही है, कोई ऐसा मार्ग खोज रही है, जो अध्यात्म का मार्ग हो, लेकिन काम का विवर्जन उससे नहीं होता है । अध्यात्म की सुनी-सुनायी बातें वह जोर से दुहराती रही और खोद-खोदकर यह पूछती रही कि विवाह-बाह्य प्रेम हो जाय, तो पाप उसे क्यों माना जाना चाहिए। मालूम होता है, उसे जब कोई युवक अच्छा लगता है, तब इतने से ही यह द्वंद्व उसे सताने लगता है ।

वह पूछने लगी, एक नारी दो नरों को प्यार कर सकती है या नहीं ? एक नर दो नारियों को प्यार कर सकता है या नहीं ? मन वो आप से आप खिंच जाता है उसे समेटे तो कैसे ? और यह समेटना ही क्या पुण्य है ? लड़की का हाथ मैं अपने हाथ मे ले सकती हूँ । लड़के का हाथ अपने हाथ में लेने से मन क्यों घबराता है ? बीहड़ प्रश्न ।  

मैंने कहा, यूरोप में चूमना भी दोष नहीं माना जाता । भारत में मात्र हेरने से शंका उत्पन्न हो जाती है । द्वंद्व व्यक्ति की तरंग और समाज के नैतिक बन्धन का है । अध्यात्म के बारे में मैं ठीक-ठीक नहीं बता सकता, लेकिन धर्म तो खुल्लम-खुल्ला समाज के नैतिक विधान के पक्ष में है। मगर अब मनोविज्ञान का राज चलने लगा है। मनोविज्ञान की शिक्षा है कि जान-बूझकर फैलने की कोशिश मत करो, जान-बूझकर सिकुड़ने की भी कोशिश मत करो । लेकिन याद रखो कि बार-बार की परीक्षाओं के बाद भी विवाह की प्रथा सही पायी गयी है और विवाह के अपने कानून हैं। जिस बात से पति या पत्नी को शंका हो, चिन्ता हो, शिकायत हो, वह बात चल नहीं सकती ।  

मुश्किल यह है कि अब मिलने-जुलने के इतने साधन निकल आये हैं कि पुरानी नैतिकता के लिए संकट खड़ा हो गया है। और जो नैतिकता इस नयी दुनिया से मेल खाती है, वह नैतिकता है ही नहीं । उपन्यासों में सेक्स की समस्या का चित्रण जिस रूप में किया जा रहा है, उससे तो यही शिक्षा निकलती है कि पति और पत्नी को परस्पर सहनशील होना चाहिए । जिस नाव में औरत बैठी है, उसी नाव में मर्द भी है।

देवी ने पूछा, “इस विपय मे श्री अरविन्द की राय क्या है ? ”

मैंने कहा, “उनका निश्चित मत था कि उनका योग नर-नारी-समागम के साथ चल नहीं सकता । श्री अरविन्द आश्रम में सेक्स की मनाही है। लेकिन ‘ईव्निंग टॉक’ में कहीं उन्होंने अपने शिष्यों से कहा था कि नर-नारी-सम्बन्ध का विषय अत्यन्त निगूढ़ है। उसे तुम अभी नहीं, आगे चलकर समझोगे। श्री अरविन्द से किसीने पर-स्त्री-गमन के विषय में भी पूछा था। उन्होंने कहा, “यह तो अपनी स्त्री के साथ समागम से भी खराब है ।”

इसके विपरीत, महर्षि रमण ने एक भक्त के बार-बार के प्रशन से आजिज होकर कहा था, “अगर तुम इस विषय में निरन्तर सोचते रहना नहीं छोड़ सकते, तो अच्छा है कि कर ही डालो और इस बार-बार के सोचने से मुक्त हो जाओ।”

मैंने कहा, “मन का सेक्स बहुत ही खराब चीज़ है, तन का सेक्‍स उतना बुरा नहीं माना जा सकता ।”

देवी ने इस सूक्ति को नोट कर लिया। मैंने अपने जीवन का एक अनुभव उसे सुनाया और कहा कि उस महिला को मैं हमेशा पवित्र मानता आया हूँ ।

मैंने उसके मन पर यह बात बिठाने की कोशिश की कि अध्यात्म का मार्ग ठीक-ठीक वही मार्ग नहीं हो सकता, जिस पर विषयी लोग चलते हैं । दूसरों के स्खलन के प्रति उदार रहो, मगर खुद स्खलन से बचो, यही संतों का दृष्टिकोण है।

(११)

बारहवीं सदी में फ़्रांस में प्रेम आदर का विषय था और प्रेमी इज्जत से देखे जाते थे । इसी कारण साहित्य में एक परम्परा बन गयी, जिसका वर्तमान रूप यह है कि नैतिकता की दृष्टि से वासना उत्तम वस्तु है। वासना के लिए यह तनिक भी आवश्यक नहीं है कि वह सामाजिक रस्म-रिवाज या आचरण का ध्यान रखे । जो भी व्यक्ति उद्दामता के साथ प्रेम करता है, वह औसत आदमियो के झुंड में से उठकर उन उन्नत लोगो के बीच पहुँच जाता है, जिनकी संख्या थोड़ी है और जो पाप और पुण्य के पचड़े से निकल गये हैं। यही परम्परा अब सिनेमा में घुसकर ध्वंस फैला रही है। वासना पुण्य और पाप से अलग स्वतन्त्र अनुभूति का विषय बन गयी है और सिनेमा से शिक्षा यह निकल रही है कि प्रेम आचारों से मुक्त होता है। लेकिन यह मुक्ति नहीं है। आदमी मुक्त तभी होता है, जब इन्द्रियाँ उसके वश में आ जाती हैं।

सिनेमा और साहित्य का सस्ता सुयश यह बतलाता है कि मानवता प्रेम के मारे बीमार है ।

(१२)

रोमांटिक मर्द किस नारी की ओर जाना चाहता है ? उस नारी की ओर, जो सभी नारियों में छिपी विचित्रता का सार है, जो आकर भी नहीं आती है, जो आलिंगन में बंधने पर भी स्पर्श से दूर है, जो आकांक्षा जगाकर उसे तृप्त करने से भागती है, जो शय्या में होकर भी पूर्ण रूप से वहाँ नही होती, “जो सपने के सदृश बाँह में उड़ी-उड़ी आती है; और लहर-सी लौट तिमिर में डूब-डूब जाती है।”

“प्रियतम को रख सके निमज्जित जो अतृप्ति के रस में;

पुरुष बड़े सुख से रहता है उस श्रमदा के वश में।”

(१३)

नर और नारी अपने माशूक को अवैध मार्ग पर ले जाना चाहते हैं, जिससे उन्हें प्रेम के लिए प्रेम का सुख मिल सके । आनन्‍दातिरेक भी अब एक तरह की सनसनाहट का नाम हो गया है। उसकी कोई मिल नहीं है, कोई दिशा नहीं है।

जो लोग तुलना के भ्रम में पड़े हुए हैं। मेरी बीबी वैसी नहीं हैं, जैसी दूसरे की बीबी । अरे यार, औरत को कमर तक ढँक दो, फिर सभी औरतें बराबर हैं। और भावना चाहो, तो वह कुरूप नारी में भी मिलती है। रूप के न होने पर भी प्रेम व्यर्थ नहीं होता । प्रेम व्यर्थ होवे रूप बिना ?

अगर हर कोई अपने पति या अपनी पत्नी से अतृप्त हो, तो समाज का रूप क्या होगा ?

वे जानते नहीं कि जो कुछ उनके पास है, उसका आनन्द कैसे लिया जाय । आनन्द के कल्पित रूप की खोज में वे फूल-फूल पर मंडराते फिरते हैं। किन्तु आनंद पाने की असली कुंजी उनके पास नहीं है ।

जो सबसे जरूरी चीज है यानी वफादारी, उसीको वे कहीं खो आये हैं। वफादारी के मानी ये हैं कि हम अपने पार्टनर को उसकी तमाम अच्छाइयों और बुराइयों के साथ स्वीकार करते हैं, प्रेम को बीच में लाये बिना हम उसे मनुष्य के रूप में ग्रहण करते हैं।

रूस के निहिलिस्ट चिंतक रोमांटिक थे। उन्होंने विवाह की प्रथा को उड़ा दिया था। किन्तु इससे जो बुराइयाँ फैली, उनके खिलाफ लेनिन चिल्लाने लगे और महज सामाजिक उपयोगिता की दृष्टि से विवाह की प्रथा फिर से वापस लायी गयी ।

(१४)

विवाह को आसान मत बनाओ । अमरीका और यूरोप में प्रेम हुआ नहीं कि लड़का-लड़की विवाह कर लेते हैं। यह काफी नहीं है। विवाह की सम्भावनाओं के कारण विवाह होना चाहिए । विवाह सोलह आने प्रेम नहीं है। उसमें कर्तव्य का भी पुट होता है।

समाज के स्थायित्व से अधिक महत्व व्यक्ति के सुख को देना ठीक नहीं है। विवाह के व्रत का जो महत्त्व है, मनोवैज्ञानिक विलास अथवा रेचन के सिद्धान्त का उससे अधिक महत्त्व नहीं हो सकता ।

(१५)

बुद्धि से विवाह की अनिवार्यता सिद्ध नहीं होती । बुद्धि से ब्रह्मचर्य भी अशक्य व्रत है। उसके लिए अमानुषिक शक्ति चाहिए।

विवाह के प्रस्ताव में यह नहीं कहना चाहिए कि तुम मेरी कल्पना की साकार प्रतिमा हो, तुम मेरी कामनाओं की मूर्ति हो, तुम मेरी लैला हो, जिसका मैं मजनूँ बनना चाहता हूँ। यह कहने से क्या होता है ? कल को मर्दे का मन अगर भर गया, तो पत्नी से उसे कौन सूत्र बाँधकर रखेगा ?

विवाह का उचित प्रस्ताव यह होना चाहिए कि तुम जैसी हो, उसी रूप में मैं तुम्हें स्वीकार करता हूँ और वैसे ही स्वीकार करके मैं तुम्हारे साथ रहूंगा । मैं तुम्हें अपनी जीवन-संगिनी बनाता हूँ मेरे प्रेम का यही एकमात्र प्रमाण है ।

आज के नर-नारी की मुद्रा ऐसी हो गयी है कि व्रत को वे आनन्द का शत्रु समझते हैं। व्रत को वे प्राकृतिक नियम नहीं मानते । इसलिए उनकी मान्यता है कि व्रतपूर्ण विवाह अमानुषिक प्रयास के बिना नहीं निभ सकता । जिस आनन्द की वे खोज करते हैं और जीवन का वे जो धर्म समझते हैं, व्रत उसका ठीक प्रतिलोम है। और व्रत को यदि उन्हें पालना ही पड़ा, तो वे समझेंगे कि यह नियम जीवन को अधूरा रखकर ही पाला गया है।

(१६)

छली नायकों के बहाने क्या-क्या हैं ?

“इससे क्या होता है ? यह तो आती-जाती बात है । इससे क्‍या तुम्हारे प्रति मेरा प्रेम कम होता है ?” अथवा यह कि “मैं असमर्थ हूँ । यह मेरी वाइटल जरूरत है । नीतियों की परवाह मैं कैसे करूँ ?” यार, ये ही दलीलें यदि नायिका देने लगें, तो तुम पर क्या गुजरेगी ?

(१७)

अगर औरतें मर्द के बराबर हो गयी, तो उनका डीमोशन हो जायगा। वे मर्दों की खोज व विषय नहीं रह जायेंगी, न पुरुषों की पूजा की पात्री मगर यह बात जरूर है कि प्रेम समानों के बीच होता है और वह समानता को प्रेरित करता है ।

नारी के प्रति हमारा सच्चा प्रेम-निवेदन यह होना चाहिए कि हम उसे समान मानें, मनुष्य मानें और यह सोचना भूल जायें कि नारी चाँदनी है, नारी स्वप्न है, नारी गुलाब और जुही है, वह आधी देवी और आधी कामिनी है। सेक्स और स्वप्न को मिलाकर नारी की रोमांटिक कल्पना रोमांटिक लोगों ने की थी । किन्तु नारी का असली रूप वह है, जिसे या तो मार्क्स ने देखा था या गांधी ने ।

गांधी नर और नारी को व्रती बनाना चाहते थे। पुरुष जब व्रती होता है, तब नारी उसकी दृष्टि मे काम का साधन या प्रतिबिंब नहीं रह जाती, वह व्यक्ति बन जाती है। यह वह दृष्टि है, जो कामियों को ज्ञात नहीं। नारी को मोहक और आमंत्रणपूर्ण मानना अपनी ही कामयुक्त कल्पना का प्रक्षेप है ।

यदि काम तेजी से जिधर-तिधर को भागता फिरे, तो प्रेम की गति मद्धिम रहेगी। प्रेम जब व्रत लेता है और भागीदार के भीतर व्रत की भावना को जन्म देता है, तभी यह कहा जायेगा कि प्रेम ने अपने को पूर्ण रूप से व्यक्त कर दिया ।

जो विवाह में विश्वास करता है, वह प्रथम दृष्टि वाले प्रेम में आस्था नहीं रखता और इस बात में तो बिलकुल ही नहीं कि वासना अदम्य होती है। वासना को अदम्य मानने की जो प्रथा चली है, व्यभिचार को बढ़ावा उसी प्रथा से मिल रहा है।

स्वस्थ ओर शक्तिशाली शरीर वाले लोग प्रथम दृष्टि में प्रेम के शिकार नहीं होते ।

विवाह को भावुकता तथा बर्बर प्रेम का श्मशान मानना चाहिए । यदि बर्बर प्रेम ही प्राकृतिक प्रेम समझा जाय, तो उसकी तगड़ी अभिव्यक्ति बलात्कार में होती है और बलात्कार का अर्थ यह है कि नारी को हम व्यक्ति न मानकर केवल सेक्स की पुतली मानते हैं। बहु-पत्नीत्व और बलात्कार, ये दोनों नारी के व्यक्तित्व का दमन करते हैं ।

सुसंस्कृत और सच्चा प्रेमी कभी भी कोई ऐसा कृत्य नही करेगा, जो हिंसा है, जिससे भागीदार के व्यक्तित्व का ह्रास होता है ।

(१८)

मनोविज्ञान में बहुत-सी फालतू बातों पर भी विचार करते हैं । कहते हैं कि मर्द औरत से इसलिए जलता है कि वह अपने पेट से बच्चा पैदा नहीं कर सकता ।

और औरत मर्द से इसलिए जलती है कि उसके पास लिंग नहीं है, योनि है।

फेमिनिस्ट आन्दोलन वाली औरतें कहती हैं कि औरत-मर्द का भेद प्रकृति ने नहीं किया, वह मर्दों की रची हुई सभ्यता से प्रचलित हुआ है। ओरतें इस सभ्यता को ढाह रही हैं। पोशाक अमरीका में ऐसी चली है, जिसे यूनिसेक्स्वल कहना चाहिए और धन्धे भी औरतें ऐसे करने लगी हैं, जो पुरुषों के हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि पुरुष औरतों से विरक्त हो रहे हैं और नारियाँ समझती हैं कि कोई सन्तोष पुरानी सभ्यता में था, जो उन्हें स्वतन्त्रता प्राप्त करने के बाद से नहीं मिल रहा है।

मर्दों के बारे मे कहा जाता है कि वे समलैंगिक हो रहे हैं, विवाह-बाह्य काम का भोग कर रहे हैं। विवाहिता के साथ वे नपुंसक हो गये हैं । और ये ही दोष औरतों में भी उत्पन्न हुए होंगे।

अगर नर-नारी का भेद सभ्यता का किया हुआ है, तो इस सभ्यता को औरतें बर्दाश्त क्यों करती हैं? असली कारण यह है कि जीव-विज्ञान की दृष्टि से औरतों को प्रकृति ने जिस तरह की बना दिया, वे वैसी हो रहेंगी । वे पुरुष को प्यार करने को बनी हैं, पुरुष के द्वारा प्यार किये जाने को बनी हैं। यह स्वभाव नहीं बदलेगा। सामाजिक आचार बदल सकते हैं, मगर वायलाजिकल प्रवृत्ति नहीं बदलेगी । औरतें कहती हैं कि फ्रायड ने औरतों को सहानुभूति से नहीं देखा । इसलिए कि फ्रायड ने कहा था “एनाटामी इज डिस्टिनी ।” शरीर-रचना में जो भेद है, उसीने औरत को मर्द के अधीन बना दिया।

अत्याचार तो औरतों पर हुए हैं। नवीं सदी में जर्मनी में एक कानून था। अगर कोई व्यक्ति कम उम्र की लड़की की हत्या कर देता, तो उसे २०० रुपये जुर्माना होता था। अगर यही हत्या पूर्ण युवा स्त्री की की जाती, तो जुर्माना ६०० रुपये होता था। कारण ? कारण यह कि युवा स्त्री सद्यः उपयोग की वस्तु थी।

अमरीका में कहा जाता है कि प्रभुत्व कायम रखने की कोशिश में औरतें पतियों को पागल बना देती हैं, माताएँ बेटों को आत्महत्या करने को विवश करती हैं। एक लेखिका ने लिखा है, “इसके मानी ये हुए कि अमरीकी औरतें बारी-बारी से पति और पुत्र को खाती हैं ।”

(१९)

दोस्तावास्की के ब्रदर्स कारामाजोव में पिता कहता है कि औरत बदसूरत होती ही नहीं है। जब मैं सबरजिस्ट्रार था, मेरा एक दोस्त कैयूम था। वह डिपुटी मजिस्ट्रेट था। वह भी कहा करता था, खूबसूरत और बदसूरत का भेद बुढ़ापा करता है। जवाती औरत-औरत में भेद नहीं करती ।

सभ्यता जब आदिम अवस्था में थी, मर्द के सबसे प्रथम पालतू जीव का नाम नारी था ।

यूरोप में मध्यकाल में आकर नारी के प्रति भाव बदला । दरबारों में और बड़े घरानों में नारियाँ देवी समझी जाने लगी, प्रेम की देवी, ईश्वर की विभा का प्रतीक । नाइट लोग युद्ध में जाते समय अपनी प्रेमिकाओं का रूमाल साथ ले जाते थे। चुंबन तो किसी-किसी को ही नसीब होता था। मगर यह व्यवहार नाइट अपनी पत्नी से नहीं करते थे, उस नारी से करते थे, जो उनपर मोहित होती थी । या जिस पर वे खुद मोहित होते थे । परन्तु राजपुताने में यह प्रथा नहीं थी। यहाँ प्रेम का चिह्न सामन्त अपनी ही पत्नी से मांगते थे! राणा चुड़ावत ने अपनी  महारानी का मूंडमाल ही पहन लिया था।

(२०)

अगर औद्योगिक सभ्यता नहीं आयी होती, तो औरतों को घर के कामों से छुटकारा नहीं मिलता, न वे नारी-स्वाधीनता-आन्दोलन के लिए समय निकाल पाती । छाती से दूघ पिलाने की प्रथा इसलिए खत्म हो रही है कि औद्योगिक सभ्यता ने शिशुओं के लिए अलग से दूध तैयार कर दिया है।

पश्चिम से जो रिपोर्ट आती है, उससे मालूम होता है कि वहाँ विवाहू-पूर्व अनुभूतियाँ अधिकांश को होती हैं और विवाहितों के भीतर भी व्यभिचार बहुत प्रचलित है। बात कहाँ तक ठीक है, कहना मुश्कित है। पहले की सभ्यता में क्या था, यह जानना भी कठिन है। पहले तो समाज में KINSEY होते नहीं थे !

भीमराव अम्बेडकर के घरेलू वैद्य आचार्य चतुरसेन शास्त्री

By आचार्य चतुरसेन शास्त्री

अम्बेडकर का वह गम्भीर नाद गूंज उठता है जो उस पुरुषश्रेष्ठ की व्यक्तिगत विशेषता थी। लोग कहते हैं कि वह कानून के असाधारण विद्वान थे। और धर्मशास्त्र के वह कितने गम्भीर मननकर्ता थे, इस बात का साक्षी तो मैं स्वयं हूँ। वह श्रद्धा और अंधविश्वास के झमेले से पाक-साफ रहकर झाड़-झंखाड़ में लिपटी हुई उन सांस्कृतिक बुराइयों को झटपट ताड़ लेते थे, जिनके कारण जातियों का उत्थान-पतन होता है । उनमे यह विवेचना शक्ति उनके पाण्डित्य और अध्ययन के कारण नहीं उत्पन्न हुई थी। वह उस प्रतिक्रिया से उत्पन्न हुई थी, जो उनमें अभिजात्य हिंदुओं के हाथों मिलनेवाले तिरस्कार के फलस्वरूप आई थी ।

बहुत अरसा हुआ, उन दिनो वह हिन्दू कोड का बिल निर्माण कर रहे थे । हिन्दुत्व पर उनका असाधारण अधिकार था। अछूतो के हितों के लिए उनके हृदय में केवल हमदर्दी और न्याय की कल्पना ही न थी, क्योंकि वह केवल उनके कोरे हिमायती न थे, वह तो उनके साथी और अंग थे। वह चाहे जिस उच्च आसन पर रहे हों, पर यह यह कैसे भूल सकते थे कि उनका जातीय आसन कितना नीचा है और वह इसे असह्य मानते थे। इसी से वह आजन्म दलितों के अधिकार की रक्षा के लिए लड़ते रहे। यह उनकी लड़ाई असहायों तथा दलितों की सहायता और हिमायत के लिए नहीं थी, आत्मनिष्ठा के लिए थी, आत्मोद्धार के लिए थी। इसी से वह इतने सबल, दृढ़ और अचल रहे कि उन्हें न कोई प्रलोभन डिगा सका, न भय ।

जिन दिनों वह हिन्दू कोड बिल का मसौदा बना रहे थे, मेरी बहुधा उनसे मुलाकातें होती तथा इसी विषय पर वार्तालाप भी होता था। स्त्रियों को समाज में समानाधिकार मिले और वे पतियों के घरों में उनकी आश्रित बन कर न रहे, यहां तक तो मैं उनसे सहमत था, परंतु तलाक का मैं एकदम विरोधी था। औरतों की यह कानूनी अदल-बदल मुझे पसंद नहीं थी। भारतीय संयुक्त परिवार प्रथा  पर बहुधा उनसे बातचीत हुई। हिदू विवाह और उत्तराधिकार सम्बन्धी कानूनों के वह अपने काल के एक ही पण्डित थे। उन जैसा कानून का ज्ञाता तो मैंने सागर वाले डा० हरिसिंह गौड़ को ही देखा या पर इनमें यह लगन न थी। मैंने ही उनका ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया था कि हिन्दू व्यवहार (ला) स्मृतियों की व्याख्या के आधार पर बना है, जबकि अब भी हिदू विवाह वैदिक रीति से होते हैं। वैदिक और स्मार्त अंतर पर भी हमारे गम्भीर विवेचन होते रहे। उत्तराधिकार और दाय भाग का अंतर, उनका प्रचलन, आर्यों की दुरंगी विवाह नीति, वर्णसंकर , अनुलोम, प्रतिलोम, महाभारत में व्यास का विद्रोह, परम्परा का नियमित रूप मे चला आता विद्रोह – इन सभी शास्त्रीय बातों पर छानबीन और विवेचना होती रहती थी। वे सभी को जानते और मानते थे। वैसे संस्कृत के वह पण्डित नहीं थे, पर सभी धर्मग्रंथ मौलिक रूप में उन्होंने अग्रेजी अनुवाद के साथ पढे थे । वह सभी की बात सुनते और समझते थे, पर करते अपने मन की थे। धर्मग्रंथों को वह आप्तवाक्य नहीं मानते थे । जो कुछ वहाँ लिखा है, वही हमें आज भी करना चाहिए यह युक्ति वह निस्सार समझते थे । उन का कहना था, धर्मग्रंथ तो स्वयं ही पूर्वापर विरोधी है। वेद, ब्राह्मण, सूत्र और स्मृतियाँ परस्पर एकमत नहीं है, पर आचार्यों ने पूर्वआचार्यों की आज्ञा का उल्लंघन किया है। सो मैं आज अपने पूर्वाचार्यों का उल्लंघन करता हूँ। इसी से वह अपनी टेक पर दृढ़ थे। कड़े से कड़े विरोध का वह जवाब नही देते थे, बहस नहीं करते थे, केवल हँस कर बातों में उड़ा देते थे। यह थी, उन की आत्मनिष्ठा, जिसमें संशोधन और इधर-उधर करने की गुंजाइश कहीं थी ही नहीं।

बहुत बार मुझे खीज आई। एक बार तो मैंने कह दिया कि आप तलाक की बात उठाकर हमारे हिंदुओं के घरों मे आग लगाना चाहते हैं, हमारे घरों को उजाड़ देना चाहते हैं, इसमें आप दया माया या हानि लाभ का विचार ही नहीं करते। इसका कारण यह है कि आप आर्य तो हैं नहीं, द्रविड़ हैं, कदाचित अनार्य।

यह बात भी सुनकर वह हँस दिए- वही अपनी सहज हँसी जिसका स्पष्ट यह अर्थ होता था कि हमारे ऊपर इस बात का भी कोई असर नहीं है।

विचारों और सिद्धांतों की उनकी यह दृढ़ता और उनकी अपनी मान्यताओं के प्रति अटूट लगन किसी प्रतिस्पर्धा के कारण न थी। वह कुटिल पुरुष न थे, पकृत साधु थे- स्वच्छ मन और साफ हृदय के स्वामी। अपनी इमानदारी के ही कारण वह अपने सत्य से डिगे नहीं। मान, सम्मान, अपमान की उन्होंने परवाह की नहीं।

साधारण बातचीत और व्यवहार में वह मृदुल और कोमल थे। लोगों से अधिक मिलने जुलने या मुलाकातियों को खुश रखने की उन्हें परवाह नहीं थी। अन्य अध्ययनशील जनों की भांति वह एकांतप्रिय और मितभाषी थे पर कटु नहीं थे, रूखे नहीं थे। मुझे याद नहीं आता कि उनसे मिलने वालों में से किसी ने कभी उनके दुर्व्यवहार की शिकायत की हो या उन्हें घमण्डी पाया हो ।

कभी-कभी वह मुझे चिकित्सक की भांति भी याद कर लेते थे। ऐसा ही एक मजेदार सस्मरण में सुनाता हूँ।

श्री सोहनलाल शास्त्री ने मुझे लिखा कि डाक्टर साहब की कमर में दर्द रहता है, आपसे वह इस संबंध में कुछ परामर्श करना चाहते हैं, कृपा कर यदि असुविधा न हो तो अमुक समय पर आ जाइए ।

उन दिनो वह कानून मंत्री थे और इण्डिया गेट के समीप रहते थे। ठीक समय पर मैं जा पहुंचा। पहुंचने पर मैंने देखा कि सोहनलाल जी कुछ घबराए हुए हैं। मैंने पूछा मामला क्या है?

‘आप बैठिए, अभी बताता हूँ ।’

वह मुझे बजाय डाक्टर साहब के ड्राइंग रूम में बैठाने के अपने दफ्तर में ले गए। वहाँ बैठाकर वह कुछ देर के लिए शायद यह देखने कि डाक्टर साहब क्या कर रहे हैं भीतर चले गए।

वापसी में उन्होंने विनीत भाव से कहा–‘ कष्ट के लिए आप क्षमा कीजिए। अभी डाक्टर साहब दो मिनिट में फारिग हुए जाते हैं। मिल लीजिए, मगर कृपा करके बीमारी या चिकित्सा संबंधी कोई बात मत कीजिए।’

मैं हैरान था — इसका क्या मतलब ? मुझे तो बुलाया ही गया है रोग के सम्बन्ध में सलाह करने के लिए। परन्तु सोहनलालजी बहुत परेशान हो रहे थे। असल बात वह कहना चाहते न थे । उन्होंने इतना ही कहा— ‘मैं फिर आप को बताऊँगा, अभी तो आप उनसे मिल लीजिए | कृपा कर मेरी बात का ध्यान रखिए।’

मुझे यह बात अच्छी नहीं लगी। मैने कहा- ‘अपनी ओर से कोई प्रश्न उठाने की मेरी कोई आदत नहीं है। चलिए आप।’

भीतर जाकर देखा तो डाक्टर साहब आराम कुर्सी पर बैठे थे। चेहरे पर थकावट के चिह्न तो जरूर थे, पर मुस्कान वैसी ही थी। सामने मेज पर मकई के भुट्टों की १०-१२ गिल्लियां पड़ी हुई थी। अनायास ही मेरा ध्यान उनकी तरफ गया । साधारण शिष्टाचार के बाद मैंने हँसकर कहा- ‘आप अभी शायद मकई के भुट्टे खा रहे थे।’ डाक्टर साहब अभी जवाब न दे पाए थे कि उनकी धर्मपत्नी आकर पास ही कुर्सी पर बैठ गईं और मेरी ओर कठोर मुद्रा से देखने लगी, जिसका कारण मैं समझ नहीं पाया। डाक्टर साब ने हँसकर मेरी बात का जवाब दिया उन्होंने पत्नी की ओर संकेत कर कहा- देखो यह डाक्टर हैं, इन्हीं के कहने से यह खाए हैं।

‘लेकिन आपके तो कमर में दर्द है?’

‘हाँ, इनका कहना है कि यह इस बीमारी में फायदेमंद है।’

मैंने श्रीमती जी की ओर प्रश्नसूचक ढंग से देखा। यह विवाह डाक्टर साहब ने उन दिनो कुछ मास पूर्व ही किया था और श्रीमती जी को देखने का मेरा यह पहला ही अवसर था। मैं समझ नहीं रहा था कि उनकी मेरे प्रति इस कदर कड़ी नजर क्यों है।

उन्होंने पूछा- ‘क्या आप डाक्टर हैं?’

‘जी, मैं वैद्य हूँ। आयुर्वेदिक चिकित्सक।’  

‘आयुर्वेद तो कोई विज्ञान नहीं है।’

मैं अपनी आदत से लाचार हूँ । लडाई का चैलेंज मैं सहन कर नहीं सकता हूँ । यह तो सरासर लड़ाई की चुनौती थी। उनकी कम नजर तो पहले ही थी। अब इस पर यह फतवा। स्पष्ट ही मुझे यह प्रकट हो गया कि वह यहाँ न मेरी हाजिरी चिकित्सक की हैसियत से पसंद करती है न आयुर्वेद पर ही उनकी श्रद्धा है। इसके अतिरिक्त शायद वह किसी भी चिकित्सक को अपने घर में दखल देना नही चाहती थी, क्योंकि वह एक नामांकित डाक्टर और पडिण्ता थी ।

परतु वह चाहे जो भी हों, उन्होंने मुझे करारी नजर दी थी इसलिए जब उन्होंने कहा कि आयुर्वेद कोई विज्ञान नहीं है, तो मैंने आहिस्ता से पूछा, ‘क्या आपने आयुर्वेद पढ़ा है?”

इस प्रश्न से वह गुस्से में हो गईं और इधर मैं भी तीर-तमचे से लग हो गया। कठिनाई यह थी कि जहाँ वह स्त्री थी और गृहस्वामिनी थी वहाँ मैं अतिथि था । फिर भी जब लडना ही है तो सोच विचार क्या ?

परन्तु डाक्टर साहब ने मामले की गहराई को भाप लिया। उन्होंने हँसकर युक्ति से बातचीत का प्रसंग दूसरी ओर फेर दिया। उन्होने प्रथम गुझे प्रसन्न करने को आयुर्वेद की प्रशंसा की, फिर पत्नी को भी प्रसन्न करने के लिए उसकी वर्तमान अधोगति की थोडी व्याख्या की। इसके बाद चतुराई से उन्होंने बातचीत का प्रसंग औपचारिक बना दिया और उस दिन एक अप्रिय घटना होते होते रह गई । थोड़ी ही देर में मैंने विदा मांगी और मैं श्रीमती जी को खुश करने का शिष्टाचार नहीं भूला । जब वह हँस दी, तभी मैंने उन्हें दुबारा प्रणाम किया और मैं चला आया ।

मैं समझता हूँ, डाक्टर अम्बेडकर में भारत के राष्ट्रपति होने की योग्यता थी।

यदि वह अछूतो का प्रतिनिवित्व त्याग देते और समूचे भारतीय जनपद का प्रतिनिधित्व समष्टि में करते तो उन्हें भारतीय राष्ट्रपति का पद मिलता, जिसके कि यह प्रकृत अधिकारी थे। यह बात मैंने उन्हें एक पत्र में लिखी भी थी, परन्तु वह कैसे अपने रक्त-संबंध से अकेले रह सकते थे ? कैसे उन लाखो अछूतो का साथ छोड़  सकते थे, जिनके साथ अभिजात्य कुलीनों ने शताब्दियों से अत्याचार किए हैं। इसके लिए वह गांधी जी से भी लड़ते रहे, यद्यपि वह गाँधीजी को प्यार करते थे। गांधीजी के प्रति उनकी निष्ठा का पता ही तब लगा जब गाँधीजी ने प्राणांत उपवास किया था, जिसके कारण अम्बेडकर ने अपना अजेय वाण झुका लिया था। गांधीजी भी इस महात्मा के सत्यव्रत को समझते थे, और उनका वैसा ही मान भी करते थे। अपने अन्त समय में वे बौद्धधम की शरण में गए। उनके मन की दुर्बलता मैं समझता था। कभी भी वे हिदू न बन पाए। वे जानते थे, हिन्दू समाज मे घुसने के चार द्वार थे। चारों ही उनके लिए निषिद्ध थे। विद्वान होने पर भी पंडित होने पर भी माननीय होने पर भी, क्योंकि वे जन्मजात अंत्यज थे। जीवन के आरम्भ ही से उन्होंने इस निषेध का अनुभव किया । भारतीय जनतन्त्री राज्य मे मत्री पद पाकर भी, एक विदूषी ब्राह्मण महिला से विवाह करके भी उनके मन का द्वैव मिटा नहीं। जिन्ना ने उन्हे मुसलमान होने का निमन्त्रण दिया था, परंतु इतनी निष्ठा तो उनमें थी कि इस निमन्त्रण को वे ठुकरा दे | बौद्धधम का उदय निस्सन्देह उसी प्रतिक्रिया से हुआ था जो अम्बेडकर के मन में वद्ध मूल थी। इसलिए उनका मन बौद्धधम की ओर झुक गया। इसके लिए उन्हें दोष नही दिया जा सकता। कोई भी आत्मसम्मानी व्यक्ति उस अपमान को सह नही सकता, जो अम्बेडकर जैसे प्रकाण्ड पडित और धर्मशास्त्री को केवल जन्मदोष से सहना पड़ा । आर्यसमाज आज सजीव होता तो वे उधर अवश्य झुकते पर वह प्रथम ही निस्तेज संस्था हो चुकी थी। बौद्ध संस्था में भी कुछ जीवन नहीं रहा था, न अब है । परन्तु नए युग के साथ बोद्धधम ने एक नया रूप और दृष्टिकोण स्थापित किया है, उसी से डाक्टर अम्बेडकर ने उसे अपना आत्मार्पण किया ।

संदर्भ: आचार्य चतुरसेन शास्त्री, मेरी आत्मकहानी, चतुरसेन साहित्य समिति, ज्ञानधाम, शाहदरा-दिल्ली, 1963

नोट: प्रूफ की गलतियाँ अवश्य होंगी। धनाभाव-समयाभाव के आलोक में इसे क्षम्य समझें!

पाओलो विर्नो के, भाषा संबंधी, तीन हाइपोथीसिस

अन्य मानव प्राणियों (जंतुओं) के इरादों, और भावनाओं को मानव प्राणी (जंतु) एक मूलभूत अंतर-व्यक्तिपरकता के कारण समझता है जो व्यक्तिगत विषयों के संघटन से पहले का चरण है। स्वचेतन ‘मैं’ के आने से पहले ही ‘हम’ अपनी सार्थकता सिद्ध कर देता है। एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच संबंध सबसे पहले और विशेष रूप से एक निर्वैयक्तिक संबंध है। लेव व्य्गोत्स्की, डी. डब्ल्यू. विनीकोट और गिल्बर्ट सिमोंडन जैसे विचारकों ने प्राक-वैयक्तिक अनुभव-क्षेत्र के अस्तित्व की उपस्थिति पर जोर दिया है। मिरर न्यूरॉन्स की खोज करने वाले वैज्ञानिकों में से एक, विटोरियो गैलिस ने, खास कर, इस प्रश्न को निर्णायक तरीके से पुनर्परिभाषित किया है, और मस्तिष्क के इस क्षेत्र विशेष के कामकाज के संदर्भ में ‘मैं’ पर ‘हम’ की प्राथमिकता की वकालत की है। कोई पीड़ित है या आनंद ले रहा है, आश्रय या परेशानी की तलाश में है, हम पर हमला करने या हमें चूमने वाला है, यह जानने के लिए हमें प्रमाणों की आवश्यकता नहीं है, इरादों का कोई उच्छृंखल (बरोक) आरोपण दूसरे के दिमाग पर प्रक्षेपित करने की जरूरत नहीं है। अवर फ्रंटल लोब (अग्र मस्तिष्क का निचला हिस्सा) के भीतरी इलाके में स्थित न्यूरॉन्स के एक समूह की सक्रियता ही इसके लिए पर्याप्त है।

फिल्म विट्गेन्स्टाइन का एक दृश्य

‘मनुष्य-संवेद्य’ (anthropomorphic) नर-वानर समुदाय (primates) के साझे वाली आदि सामाजिकता के लिए भाषा कम से कम एक मजबूत संवाद-माध्यम नहीं है। यह मान लेना गलत होगा कि अपनी युक्तियों से लैस भाषा मनों के मेल-मिलाप को व्याख्यायित या व्यक्त करती है, जो कि पहले से ही मस्तिष्क-तंत्र द्वारा आश्वस्त है। मौखिक विचार दूसरे मानव-जंतुओं की कार्रवाइयों और जुनून के स्वतःस्फूर्त बोध के सह-भावक तत्वों को कमजोर, यहाँ तक कि अस्थायी तौर पर क्षतिग्रस्त का कारण बनता है। वाक्य-विन्यास के पंडित तंत्रिका-क्रियाविज्ञान से चालित होने के बजाय उसके सम्प्रेषण में बाधा डालते हैं या कभी-कभी उसे निलंबित कर देते हैं। चिह्नों और संकेतों पर आधृत ध्वनि-व्यवस्था से भाषा भिन्न होती है, साथ ही साथ मूक संज्ञानात्मक व्यवहारों (यथा, संवेदनों, मानसिक चित्रों) से, क्योंकि यह हर तरह के प्रतिनिधित्व को नकारने में सक्षम है। जब किसी शरणार्थी/अप्रवासी से सामना होता है तो अवधारणात्मक साक्ष्यों के हवाले से कहते हैं कि “यह एक मनुष्य है”, जबकि निर्विवाद रूप से तत्क्षण ही वह ‘नहीं है’ में रूपांतरित हो जाता है। एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच पारस्परिक पहचान की विफलता भाषा में निहित है। यह वक्तव्य कि “यह एक आदमी नहीं है” व्याकरणिक रूप से निर्दोष है, और एक बोध से लैस है, तथा किसी के द्वारा उच्चरित हो सकता है। बोलने वाला जंतु ही वह एक मात्र है जिसमें अपने पड़ोसी को पहचाने की क्षमता नहीं होती है।

भाषा ने मन की सहज सामाजिकता में जो विष भर दिया है, उसका प्रतिकार करने में वह असफल नहीं होती। मिरर न्यूरॉन्स द्वारा उत्पन्न संवेदन के आंशिक या पूर्ण रूप से नष्ट करने के अलावा इससे होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए यह एक उपचार (या तो बेहतर, या एक मात्र सक्षम) प्रदान करती है। आरंभिक ध्वंस खुद के ही पुनर्ध्वंस में तब्दील हो सकता है। लोकवृत (पब्लिक स्फिअर), जो कि हमारा पारिस्थितिकी पनाह है, ध्वंस और निर्माण का असंतुलित परिणाम है, जहाँ पूर्व उत्तर से कम महत्वपूर्ण नहीं है। इसीलिए यह क्षतचिह्न जैसा दिखता है। दूसरे शब्दों में, लोकवृत्त निषेध के निषेध का देन है। इस मुहावरे के द्वन्द्वात्मक लहजे से कोई पाठक यदि नाक-मुँह बनाए, तो इसके लिए मैं पहले से ही क्षमा-प्रार्थी हूँ, इस बारे में और कुछ किया भी नहीं जा सकता है। किसी तरह की गलतफहमी नहीं रहे, इसीलिए यह जोड़ना जरूरी है कि ‘निषेध का निषेध’ एक आदिम और पूर्व-भाषाई सद्भाव को पुनर्स्थापित नहीं करता है। पहचान (अस्तित्व) के नकार का खतरा हमेशा टल जाता है, या नए तरीके से निष्प्रभावी हो जाता है; हालांकि, यह अपरिवर्तनीय रूप से सामाजिक आचरणों में दर्ज होता है।

अनुवाद : उदय शंकर

पुस्तक विवरण: An Essay on Negation: Towards A Lingustic Anthropology

‘मेरे पिता (बलराज साहनी) की यादें’ से एक अंश: परीक्षत साहनी

नए इंग्लैण्ड रिटर्न मेरे माता-पिता के तौर-तरीके पूरी तरह से ब्रिटिश थे जो मेरे लिए बहुत अजीब थे। मेरी परवरिश अलग शैली और अलग आदतो के साथ हुई थी। घर के मक्खन के साथ खाए जाने वाले पराठे, रावलपिण्डी की रसोई में पालथी  मारकर बैठने की जगह बेकन और अण्डों, दलिया और एक चम्मच कॉडलिवर ऑयल ने ले ली थी इसका स्वाद तो आज तक मेरी रीढ़ में झुरझुरी पैदा कर देता है।

पुस्तक-आवरण

पिता की यादें और मेरा बचपन

By परीक्षत साहनी

कई लोग कहते हैं कि मेरे डैड अनूठे थे। बहरहाल, वह बचपन में ही मेरे जीवन से गैर-हाज़िर रहे। मेरे जन्म के समय सितारे एक सीध में नहीं रहे होंगे, क्योंकि मेरे बचपन के अधिकांश वर्ष हैरानी और भ्रम की स्थिति में ही गुज़रे। 1939 में जैसे ही मेरे जीवन की शुरुआत हुई, नियति ने मुझे डैड और मेरी माँ-दमयन्ती (दम्मो जी) से अलग कर दिया। मैं मुश्किल से छह महीने का था जब डैड और दम्मो-जी मुझे हमारे रावलपिण्डी के पूर्वजों वाले घर में छोड़कर विदेश यात्रा (ब्रिटेन, बीबीसी-हिंदी) पर जाने को मजबूर हुए। पाँच साल का होने तक मैं उन्हें देख नहीं पाया था।
... 
 
मैंने अपने जीवन के पहले पाँच वर्ष अपने दादा-दादी और अपने चाचा-चाची, भीष्म साहनी जी और शीला जी (जो मेरे लिए माता-पिता के समान थे) के साथ बिताए। वे दिन देश के लिए भयावह थे, स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष अपने चरम पर जा रहा था। लेकिन, हमारी हवेली के अहाते में मेरा लाड़-दुलार चल रहा था, मेरी सारी ज़िद और मुरादें पूरी हो रही थीं। उनके साथ रहते हुए मुझे अपने माता-पिता के प्रेम की कमी कभी महसूस नहीं हुई।
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साल 1944 की गर्मियों में मुझे मालूम हुआ कि मेरे माता-पिता इंग्लैण्ड से लौटने वाले हैं। इस ख़बर से घर के बड़े-बुजुर्ग उत्साह और उमंग से भर गए, लेकिन मुझ पर कोई असर नहीं पड़ा। उत्साहित होने की जगह मैं चकित और भ्रमित था। माता-पिता? वे कौन थे? मैंने कभी उन्हें ठीक से देखा नहीं था या देखा भी हो तो, उन्हें याद रख पाऊँ, इतना बड़ा नहीं था मैं।
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जिस जोश-ओ-खरोश से मेरे माता-पिता मेरी ओर भागकर आए, मुझ पर आलिंगन और चुंबनों की बौछार की, उससे मैं अभिभूत था। इन लोगों ने मुझे किन 'घुसपैठियों का लाड़ला बना दिया था! उनके साथ एक बच्ची थी, उन्होंने मुझे बताया गया कि वह मेरी बहन है। मैंने उसे शक की नज़र से देखा, और संकोच से जैसे ही उसके तरफ कदम बढ़ाया, उसने रोना शुरू कर दिया और मैं जहाँ का तहाँ खड़ा रह गया। भयभीत, डर और सन्देह के कारण, रुआँसा होकर मैं अपने बचाव के लिए वापस दादी के पल्लू में आकर सिमट गया।
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अगले कुछ दिनों में मेरी माँ और पिता ने अपनी माता-पिता की भूमिका निभाना शुरू कर दिया। मेरे लिए यह एक अजीब अनुभव था। इन नये अजनबी लोगों के प्रति अपने प्रेम और लगाव की अदला-बदली कर पाना मेरे लिए मुश्किल था।
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मेरे भ्रम को बढ़ाने के लिए मुझे अपनी जड़ों से उखाड़ दिया गया। उन दिनों, इस उपमहाद्वीप पर कश्मीर शायद सबसे सुरक्षित जगह थी, जहां कोई हिन्दू-मुस्लिम दंगा नहीं होता था। जब मेरे माता-पिता ने मुझे श्रीनगर ले जाने का फ़ैसला किया, तो मैं दादा, दादी और भीष्म-जी से अलग होने के विचार से बहुत खुश नहीं था। मैं पहले कभी उनसे दूर नहीं रहा था। श्रीनगर में मैं जिस तरह से व्यवहार कर रहा था, उससे साफ़ ज़ाहिर था कि मैं अपने दादा-दादी, चाचा-चाची से दूर होकर बेचैन था। मेरे माता-पिता के तौर-तरीके अजीब थे, ऐसा उनके बरसों तक इंग्लैण्ड में रहने के कारण था। उन्होंने मेरा परिचय टॉयलेट पेपर से करवाया, यह मुझे पूरी तरह कुछ 'अजीब' और निरर्थक लग रहा था। जब तक उन्होंने मुझे इसका उपयोग नहीं समझाया दिया, मैं बाथरूम को गन्दा कर दिया करता था और वहाँ उपयोग किए गए टॉयलेट पेपर्स का ढेर लगा दिया करता था।
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मैंने उन शर्ट और शॉर्ट्स को पहनने से इनकार कर दिया जो वे मेरे लिए लाए थे और कुरता-पायजामा पहनने पर जोर देता रहा, जिन्हें पहनने का मैं आदी था। मैंने अपने बगीचे के एक अखरोट के पेड़ की टहनियों पीछे छिपकर घण्टों बिता दिए और दोपहर और रात के खाने की सूचना देने वाले घड़ियाल को अनसुना किया। सभी को खाने की टेबल पर बुलाने के लिए घण्टी का उपयोग करने का विचार मेरे लिए नया था। इस नए दम्पति के साथ निभाना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल लग रहा था!
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मेरे डैड लम्बे और खूबसूरत थे। उन्होंने मेरे साथ खेल खेले और मुझे जादू के करतब दिखाए। वह आश्चर्यों का पुलिंदा थे। मुझे बहलाने के लिए हमेशा नए तरीके तलाशते रहते थे। मैं उन्हें हैरत से देखते रह जाता था। मुझे याद है, वह बड़े विनम्र और दयालु थे। लेकिन मैं अडिग था। मुझे याद है वह असहज हो रहे थे और एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं उन्हें हर समय अजीब तरह से घूरते क्यों रहता हूँ। बेशक, मेरे पास कोई जवाब नहीं था; मैं लाचार था। इस सच्चाई को पचा पाना मेरे लिए आसान नहीं था कि वह मेरे पिता थे, क्योंकि, व्यावहारिक दृष्टि से वह मेरे लिए एक बाहरी व्यक्ति थे। एक खाई थी जिसने हमें विभाजित किया और इसे पाट पाना मेरे लिए मुश्किल था। एक बच्चे के तौर पर, सरलता से चल रहे अपने जीवन में अचानक इतने बड़े झटके को झेलने के लिए मैं तैयार नहीं था। डैड ने मेरे करीब आने की बहुत कोशिश की, लेकिन बेचैनी मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी।
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हमारे साथ शबनम भी थी, जिसका जन्म इंग्लैंड में हुआ था। दिखने में वह एक आकर्षक गुड़िया की तरह थी, लेकिन ब्रिटिश साँचे में ढली हुई थी। उसके भीतर विंस्टन चर्चिल की खूबियाँ थीं। जब भी मैं उसके पास जाता था, वह शेरनी की तरह दहाड़ती थी। मैं उसे छूने की कोशिश करता, तो वह रोने लगती थी। वह भी मुझे अपने जीवन में अचानक पाकर उसी तरह भौंचक थी, जैसा कि मैं था और अपने माता-पिता का ध्यान मेरी तरफ बँट जाने से भी थोड़ी असन्तुष्ट थी। वह किसी हिंसक प्राणी की भेदी निगाहों से मुझे लगातार घूरती रहती थी (जैसा मैं डैड को घूरता रहता था)। इससे मैं डर गया था (जैसे मेरी टकटकी से मेरे माता-पिता हतोत्साहित थे)। वह एक उपद्रवी बच्ची थी, और एक बार, जब मैं उसके बहुत करीब पहुँच गया, तो उसने मुझे हमारी माँ की सैंडल से इतनी ज़ोर से मारा कि मेरे सिर पर बनी गाँठ एक महीने तक कम नहीं हुई थी। मैंने उसके बाद उससे दूरी बनाए रखी।
... 

एक दिन मेरे माता-पिता ने फैसला किया कि अब मुझे 'सभ्य' बनाने का समय आ गया है, तो वे मुझे एक अंग्रेज़ी फिल्म दिखाने के लिए ले गए। मैं पहले कभी सिनेमा हॉल में नहीं गया था और अंग्रेज़ी का एक लफ्ज भी नहीं जानता था। वह एक डरावनी फिल्म थी। अजीब से संगीत और कुछ दृश्यों ने मुझे भीतर तक हिला दिया। विचित्र संगीत और डरावने दश्यों को मैं भुला ही नहीं पा रहा था। इन दृश्यों की स्मृति हफ्तों तक मेरे साथ रही और रात में मुझे परेशान करती रही। बतौर नए इंग्लैण्ड रिटर्न मेरे माता-पिता के तौर-तरीके पूरी तरह से ब्रिटिश थे जो मेरे लिए बहुत अजीब थे। मेरी परवरिश अलग शैली और अलग आदतो के साथ हुई थी। घर के मक्खन के साथ खाए जाने वाले पराठे, रावलपिण्डी की रसोई में पालथी  मारकर बैठने की जगह बेकन और अण्डों, दलिया और एक चम्मच कॉडलिवर ऑयल ने ले ली थी इसका स्वाद तो आज तक मेरी रीढ़ में झुरझुरी पैदा कर देता है। इसके साथ टोस्ट और मार्मलेड। मुझे पराठे और घर के ताज़ा बने मक्खन की याद आती थी, जो मेरी दादी हर सुबह निकाला करती थीं। इसके अलावा अब मुझे खाने के लिए डाइनिंग टेबल पर बैठना पड़ता था, जो वास्तव में मेरे लिए असहज था।
... 

मुझे सोने के लिए एक अलग कमरा दिया गया था। रावलपिण्डी में मेरे लिए कोई कमरा नहीं था, वहाँ मैं अक्सर दादी के साथ सोता था। उनका पेट बहुत बड़ा था और मैं उससे लिपटकर सोता था, उनके नरम, लटकती हुए पेट की तहों में अपने आपको सुरक्षित महसूस करता था। वह मुझे महाभारत की कहानियाँ सुनाती थी, लोरियों गाती थीं और मुझे हौले-हौले थपथपाकर सुलाती थीं। मेरे नये घर में ऐसा नहीं था। पहली बार अकेले सोना डरा देने वाला था, खास तौर पर अंग्रेज़ी फ़िल्म देखने के बाद। मुझे दिलासा देने और लोरियाँ गाकर थपथपाते हुए सुलाने के लिए दादी नहीं थी। मुझे बुरे सपने आते थे, हर रात जाग जाता था और दादी के लिए विलाप करता था, पड़ोसियों को परेशान करता था। इससे नन्हीं शबनम डर जाती थी। जैसे ही वह मेरी चीख-पुकार सुनती, ज़बरदस्त आवाज़ में बिलखने लगती। लगता था कि ठंडी  ब्रिटिश हवा ने उसके फेफड़ों को बड़ा मज़बूत बना दिया था! चारों तरफ हंगामा था। कुछ पड़ोसी घबराहट में बाहर अपनी बालकनियों में निकल आते, इस डर से कि दंगाई आख़िरकार श्रीनगर पहुंच गए हैं और नरसंहार करने लगे हैं। यह वास्तव में मेरे माता-पिता के लिए शर्मनाक रहा होगा। डैड बबरा जाते थे और भागकर मेरे कमरे में आते और मुझे शान्त करने कोशिश करते थे। वह धीमे, धीरज भरे शब्दों में मेरे डर को दूर करने की कोशिश करते, मुझे गले लगाते और मुझे आश्वस्त करने कि सब कुछ ठीक है। उन्होंने मुझे बताया कि मैं अब एक 'बड़ा लड़का' था और मुझे अपने बिस्तर पर सोना सीखना चाहिए। लेकिन मैं अपने तरीके से जीना चाहता था। मैं इन 'माता-पिता द्वारा तय किए गए नियमों का आदी नहीं था। मैंने डैड की बात सुन ली और शान्त हो गया, लेकिन जैसे ही वह कमरे से बाहर निकले मैंने फिर से विलाप चालू कर दिया। मुझे यकीन है कि इससे मेरे माता-पिता और हमारे पड़ोसी बुरी तरह घबरा गए थे।
... 


ऐसा एक के बाद एक, हर रात को तब तक होता रहा, जब एक दिन डैड लड़खड़ाते हुए मेरे कमरे में पहुंचे। उनके सब्र का बाँध टूट चुका था। उन्होंने मुझे चेहरे पर एक थप्पड़ मारा और मुझसे चुप रहने के लिए विनती की। एक थप्पड़, हालाँकि धीमा था, पर मेरे लिए कुछ नया था। मुझे इससे पहले कभी मार नहीं पड़ी थी। इस अप्रत्याशित क़दम से मुझे चोट तो कम लगी थी, पर मुझे सदमा लगा, मैं हैरानी से ख़ामोश हो गया। शायद डैड के पास मुझे समझाने का यही एकमात्र रास्ता बाक़ी था। मैंने रात बिताई और बचपन की मासूमियत के साथ सुबह तक सब कुछ भूल गया। लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ और डैड को बेहतर तरीके से जानने लगा, मुझे अहसास हुआ कि वह एक अलौकिक संवेदनशील और भावुक इंसान थे। वह थप्पड़ को नहीं भूले थे। जैसा कि मुझे जीवन में बहुत बाद में पता चला, इस थप्पड़ ने उन्हें दशकों तक परेशान रखा और उन्हें इसे लेकर अपराध-बोध बना रहा। वह बच्चों से प्यार करते थे और उन्हें बहुत संवेदनशीलता के साथ संभालते थे। उस घटना के बाद उन्होंने न तो कभी अपनी आवाज़ ऊँची की न कभी मुझ पर हाथ ही उठाया।


Publisher ‏ : ‎ Manjul Publishing House Pvt Ltd 
Language ‏ : ‎ Hindi
Year:  2021
Print length ‏ : ‎ 292 pages
Price (Paper Back): 450 INR

‘‘सांस्कृतिक श्रम: भारत में ‘लोक प्रदर्शन’ की अवधारणा’’ की समीक्षा: धीरज नीते

लोक की प्रदर्शन कलाओं (performing arts), विशेषकर पूर्वी भारत, के विशाल और विविध क्षेत्र में सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण और सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति को व्याख्यायित करने में सांस्कृतिक श्रम की अद्भुत भूमिका होती है। संस्कृति उद्योग (पूंजीवादी) के आधिपत्य के हमले में लोक की प्रदर्शन कलाओं की जमीन निरंतर सिकुड़ती जा रही है। इसीलिए यह पुस्तक एक सामयिक हस्तक्षेप है, और ज़ाक राँसिएर की निरन्तरता में, जाति-विभाजित समाज में कला, सौन्दर्य, मनोरंजन और अनुभूति के विमर्शों की सौंदर्य-प्रणाली की सैद्धांतिकी को स्पष्ट करती है।

आवरण-पृष्ठ

पुस्तक लोक की प्रदर्शन कलाओं की पाँच परंपराओं पर केंद्रित है: भुइयाँ पूजा, बिदेसिया, दुगोला, रेशमा-चुहड़मल और जन नाट्य मंडली। पुस्तक के लेखक ब्रह्म प्रकाश का मानना है कि शुरू की ये चार विधाएँ भावना के आंतरिक इलाकों से संबंधित हैं; जो कि हमारे ऐन्द्रिक बोध को तुष्ट करती हैं, और कला के विध्वंसक, नकारवादी, और रचनात्मक पक्षों को सामने लाती हैं। ये अनुष्ठानिक भूमि पूजा संबंधी संस्कार-प्रस्तुतियों, चुटकुलों, ‘अश्लील’ और मांसल यौन-चित्रणों, हास्य, और ऊँच-नीच पर आधृत जाति व्यवस्था के सामाजिक व्यंग्यों का एक वैविध्य प्रस्तुत करती हैं। ये सौंदर्यपरक अभिव्यक्तियाँ कुलीन सत्ता और इसकी वर्चस्वशाली संस्कृति का प्रतिरोध रचती हैं। पाँचवीं , जन नाट्य मंडली, नुक्कड़ नाटक जैसे ‘राजनीतिक नाट्य माध्यमों’ में लोक-शैलियों का इस्तेमाल उपयोग करती है। लोक परंपरा के भीतर के प्रतिगामी, अश्लील तत्वों की आलोचनात्मक-निराई के साथ-साथ महत्वपूर्ण प्रगतिशील सामग्रियों से अपने दर्शकों के विरेचन और मनोरंजन के लिए यह कला-प्रतिमानों के मानकों पर कार्य करती है; जैसे कि, महिला-उत्पीड़न के अनुभवों, और महिला कलाकारों को गरिमा प्रदान करने के लिए मुक्तिकामी विचारों को सामने लाती है।

पुस्तक लोक की प्रदर्शन कलाओं के सौदर्यात्मक अभ्यासों को मान्यता देती है, और भारत के शास्त्रीय सौंदर्य-प्रणाली को चुनौती देती है; खासकर, नाट्यशास्त्र की शास्त्रीय परंपराएँ और कुलीन रंगमंच से नाभिनालबद्ध उच्च संस्कृति में सन्निहित सौंदर्य आस्वाद को। यह शास्त्रीय वर्चस्व लोक के कलात्मक श्रम को असभ्य या भद्दा,  हुल्लड़ या अभद्र (पृष्ठ 14, 54) कहकर बदनाम करती है। सौंदर्य तकनीक, और लोक की प्रदर्शन कला-विमर्शों को स्पष्ट करने के लिए ब्रह्म प्रकाश के पास एक व्यावहारिक भाषा है। लोक कलाकारों का बहुसंख्यक वंचित समुदायों और उत्पादक वर्गों से आता है। भले ही, अधिकांश अवसरों पर वे आर्थिक रूप से पुरस्कृत नहीं होते हैं, फिर भी नृत्य, गायन और अभिनय के अपने कलात्मक जुनून का पीछा करते हैं। वे ऊँच-नीच वाली जाति-व्यवस्था में कला के विध्वंसक, नकारवादी और रचनात्मक क्षमता से संतुष्टि प्राप्त करते हैं।

इन लोक कलाओं के उत्पादन और उपभोग की प्रक्रिया में कलाकारों और दर्शकों दोनों के सौंदर्य संबंधी पूर्वाग्रहों की गुत्थी सुलझाने के लिए ब्रह्म प्रकाश ‘इंटिमेट इथनोग्राफी’ और ‘ऑटो इथनोग्राफी’ की विधियों का इस्तेमाल करते हैं। ग्रामीण भारत के एक लोकप्रिय धार्मिक अनुष्ठान भुइयाँ पूजा, और रेशमा-चुहड़मल के अतिविवादास्पद नाटक के अध्ययन में इन विधियों का सबसे सटीक इस्तेमाल दिखता है। उत्तरार्द्ध, ज्यादातर दर्शकों की सामाजिक वरीयता के हिसाब से प्रच्छन्न प्रतिलेखनों (जाति-संदर्भित) और त्वरित आशुरचनाओं का योग है। तकनीकी लचीलापन और स्वतः-स्फूर्त रूपांकन लोक प्रदर्शन की विशेषता है। यह पुस्तक कलात्मक व्यवहार, आरामफ़हम मनोरंजन, और श्रम-तनाव के विभाजन को दूर करती है। लोक प्रदर्शन में संस्कृति, कलात्मक जुनून और श्रम का सहास्तित्व इस पुस्तक का केन्द्रीय मंच है। यह पुस्तक, दोहरे अर्थों में, अनुभवजन्य विवरणों का एक उर्वर वैचारिक मुकाम बनाती है, साथ ही साथ प्रदर्शन कला-अध्ययन, और लोक कला के समाजशास्त्र का भी।

पुस्तक विवरण: Brahma Prakash, Cultural Labour: Conceptualising the ‘Folk Performance’ in India, Delhi: OUP, 2019. ISBN‏: ‎ 0199490813.

धीरज कुमार नीते, अंबेदकर विश्वविद्यालय, दिल्ली, और जोहान्सबर्ग विश्वविद्यालय, दक्षिण अफ्रीका से जुड़े समाजविज्ञानी हैं। इनसे dhirajnite@gmail.com पर संपर्क संभव है।

Review Essay of ‘‘Cultural Labour: Conceptualising the ‘Folk Performance’ in India’’: Dhiraj Nite

Cultural Labour elucidates the creation of cultural values and its aesthetic mode of articulation in the vast and variegated field of folk performance, especially in eastern India. It is a timely intervention because the space of folk performance is slowly shrinking, and increasingly confronted with the hegemonic terms of the capitalist culture industry. Following Jacques Ranciere,[1] it conceptualises the aesthetic regime, that is, the discourse of art, beauty, pleasure and the sensible in the caste-divided society.

The book focuses on five traditions of folk performance: Bhuiyan Puja, Bidesia, Dugola, Reshma-Chuharmal, and Jana Natya Mandali. The first four genres pivot on the visceral mode of articulation, argues Prakash. They appeal to sensory perception and bring about subversive, transgressive and creative poetics. They display a motley collection of ritualistic land worship, jokes, ‘obscenity’, erotic imageries, titillation, and social satire of the hierarchical caste order. Their aesthetic practices resist the hierarchal power and its dominant culture. The fifth folk performance genre, Jana Natya Mandali, uses folk theatrical mediums, such as street theatre. It works on the representative paradigm of art – to edify and entertain its audience in progressive contents, including critical scrutiny of regressive, obscene elements within the folk tradition. For instance, it highlights women’s experiences of oppression and liberatory views in order to endow dignity to female performers.

Book Cover

The book makes a concerted effort to valorise folk performance’s aesthetic practices to challenge the classicist aesthetic regime in India. The classicist traditions of Natyashastra and bourgeois theatre privilege aesthetic taste embodied in high culture. They denigrate folk performative labour as uncultured or coarse, loud and vulgar (pp. 14, 54). Prakash lays down a functional language to consider aesthetic technique and discourse of folk performance. Additionally, Prakash points out that those folk artists are predominantly members of subaltern communities and productive classes. They pursue their artistic passion for dance, singing and performance, even though folk performances are frequently not monetarily rewarding. They draw satisfaction from their artworks’ socially subversive, transgressive and creative potential in a caste-divided society.

Prakash applies the method of intimate ethnography or auto-ethnographical approach to decode the aesthetic predispositions of both artists and their audience in producing and consuming these performances. We see this most fruitfully applied in the study of Bhuiyan Puja, a popular religious ritual in rural India, and that of the highly contentious play of Reshma-Chuharmal. The latter is often laden with hidden [caste-specific] transcripts and quick improvisation amidst the social preference of its audience. The flexible technique and dynamic adaptation in folk performance are its characteristics. The book fords the separation between artistic activity, leisure and labour exertion. It foregrounds the co-presence of the three: culture, artistic passion and labour in folk performance. I must state out that it charts out a new territory in double senses of empirical details as well as an illuminating conceptual framework in the field of performance studies and sociology of folk art.    


[1] Jacques Ranciere, “Art, Life, Finality: The Metamorphoses of Beauty,” Critical Enquiry 43 (Spring 2017): 597-616. Jacques Ranciere, The Politics of Aesthetics: the distribution of the sensible, Edited and translated by Gabriel Rockhill (London, 2011): 15-26.

Book Details: Brahma Prakash, Cultural Labour: Conceptualising the ‘Folk Performance’ in India, Delhi: OUP, 2019. ISBN‏: ‎ 0199490813

Dr. Dhiraj Kumar Nite, A Social Scientist, University of Johannesburg, Ambedkar Univeristy, Delhi. You can contact him through  dhirajnite@gmail.com

सांस्कृतिक क्षेत्र के तीन मूलभूत परिवर्तन: एजाज़ अहमद

तीसरी दुनिया के देशों के साहित्य को राष्ट्रीय रूपक के बतौर नहीं देखा जा सकता है। यहाँ तक कि ‘तीसरी दुनिया का साहित्य’ कहना ही अपने आप में एक पक्षपोषक/दुर्भावना-पूर्ण पद है। भारतीय साहित्य अपने आपद-धर्म में ही उपनिवेशवाद-विरोशी है। इसे राष्ट्रीय रूपक के बतौर देखना इसकी उपनिवेशवाद-विरोधी चेतना को कुंद करके सांप्रदायिक स्पर्श देना होगा। उत्तरऔपनिवेशक अध्ययन-पद्धति को इसी रूप में देखा जा सकता है।

ये सार-निष्कर्ष एजाज़ अहमद के हैं। वे भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख मार्क्सवादी बौद्धिक रहे हैं।

(1941-9 March 2022)

तीन मूलभूत परिवर्तन
By एजाज़ अहमद

पिछले दशक के दौरान सांस्कृतिक क्षेत्र में तीन मूलभूत परिवर्तन घटित हुए. पहला, हिंदुत्ववादी ताकतों का उभार हुआ, जिसके तहत जो शक्तियां राष्ट्रीय आंदोलन एवं गणराज्य बनने के प्रारंभिक दशकों के दौरान हाशिए पर पड़ी शक्तियां थी, अब भारत में (विशेषकर उत्तर भारत में) राजनीतिक प्रभुत्व एवं सांस्कृतिक वर्चस्व हासिल करने के प्रमुख दावेदार के तौर पर विद्यमान है.

दूसरा, आर्थिक उदारीकरण ने वस्तु पूजा की अखिल भारतीय संस्कृति के निर्माण की गति को प्रचंड रूप से तीव्र कर दिया, जो कि अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सहारे बुर्जुआवर्ग के शहरी परिवेश से निकलकर दूर-दराज़ के देहाती इलाक़ों तक फैल चुका है. साथ ही गणराज्य की स्थापना के मूलभूत सिद्धांतों पर किए जा रहे दूरगामी प्रभाव वाले आक्रमणों ने रोज़मर्रा के सांस्कृतिक जीवन का भयंकर पाशवीकरण किया है. समृद्धों की दैनंदिनिक संस्कृति का पाशवीकरण तो निश्चित रूप से हुआ ही है, ज़मीन पर विचर रहे संतुष्ट एवं असंतुष्ट लिप्साओं के प्रेत ने वृहत्तर समाज पर भी दूरगामी प्रभाव डाला है.

तीसरा, सामाजिक न्याय की प्राप्ति हेतु राष्ट्रीय परियोजना का भाव, सामाजिक कल्याण के निर्णायक मध्यस्थ के तौर पर बाज़ार की सर्वोच्चता का स्वीकार एवं प्रतिस्पर्धा धार्मिकताओं के पूर्ण पण्यीकरण ने मिलकर जाति एवं संप्रदाय की बर्बर अस्मिताओं की नई फसल तैयार कर दी है. इन्हें स्वदेशवादी विद्वानों के मध्य बौद्धिक सम्मान प्राप्त है, जिनके लिए धर्मनिरपेक्षता आधुनिकता का अभिशाप है, जबकि बर्बर अस्मिताएं कथित तौर पर ‘परंपरा’ के मूल तत्व है. इनमें से स्वदेशीवाद ‘उच्च संस्कृति’ की ख़ास किस्म की विकृति के तौर उभर रही है एवं हिंदुत्व, धर्मनिरपेक्ष लोकाचार के समक्ष पैदा होने वाला सर्वाधिक आसन्न ख़तरे के रूप में उपस्थित है, किंतु सबसे बड़ा और दीर्घकालीन ख़तरा बाजार की बंदिगी को लेकर है जो अभी ‘उदारीकरण’ के झंडे तले किया जा रहा है. धन के बेपनाह सकेंद्रण और दरिद्रता के भयावह विस्तार के साथ संबंद्ध इस बहुसांस्कृतिक समाज में अनियंत्रित बाज़ार को उन्मुक्त छोड़ देना, अपने जात के ही • मुखालिफ खड़ी, ऐसी पाशविकृत हो चुकी संस्कृति के निर्माण की आशंका जगाती है। जो ‘संपूर्ण जीवन पद्धति’ के तौर पर संस्कृति के जरा भी भावबोध से बिलकुल विच्छित्र होगी और मूलगामी समता के स्वप्नों के साथ पैदा हुए गणराज्य के इस तरह के पाशवीकरण से ना ही राजनैतिक लोकतंत्र और ना ही संयुक्त राष्ट्र संघ की संविदा पार पा सकेगी.

अनुवादक: मनोज झा
पुस्तक: किसकी सदी, किसकी सहस्त्राब्दी

चाँदनी रात में व्हाइट हाउस: वाल्ट ह्विटमैन

चाँदनी रात में व्हाइट हाउस

By वाल्ट ह्विटमैन

कितना सुहावना मौसम है। कभी-कभी रात में, चाँदनी में काफी देर तक विचरण करता रहता हूँ। आज की रात मैंने राष्ट्रपति निवास पर एक दीर्घ दृष्टि डाली। वह प्रासाद तुल्य धवल धौत भवन, ऊंचे गोलाकार स्तम्भ, नितांत निरभ्र, सुच्चिकण प्राचीरें और स्निग्ध ज्योत्सना निष्प्रभ संगमरमर पर प्रवाहित होती हुई और विचित्र धुंधले बिम्ब (परछाइयाँ नहीं) उत्पन्न करती हुई सी। सर्वत्र एक स्निग्ध पारदर्शी नीलाभ चंद्रिका, शुभ्र और प्रचुर गैस की रोशनियां विभिन्न कक्षों, प्राचीरों और मेहराबों पर वायु के साथ हिलोरें खाती हुई। हर एक वस्तु ऐसी शुभ्र-श्वेत, संगमरमर सी शुद्ध और आँखों में चकाचौंध करने वाली, फिर भी अति तरल और सस्मित। भावी कविताओं के स्वप्नों और नाटकों का व्हाइट हाउस उस स्निग्ध और अनुपम चंद्रिका में बहती हुई चाँदनी की धारा में तरुओं के मध्य! उसका जगमगाता हुआ अग्र भाग वास्तविक और छलना से घिरा हुआ। वृक्षों की आकृतियाँ और उनकी शाखाओं के मोड़ और गोलाइयां! तारों और आसमान की छाया में धरती का व्हाइट हाउस! सौन्दर्य का व्हाइट हाउस! रात को जिसके द्वारों पर शांत भाव से चलते हुए, नीले ओवरकोट पहने हुए द्वारपाल जो तुम्हें रोकते नहीं बल्कि जिस ओर भी तुम जाते हो, तीक्ष्ण दृष्टि से तुम्हारी ओर देखते हैं।

अनुवाद: मनोहर प्रभाकर

लिंकन के जमाने की तस्वीर

मूल अंग्रेजी में:

The White House by Moonlight

By Walt Whitman

A SPELL of fine soft weather. I wander about a good deal, sometimes at night under the moon. To-night took a long look at the President’s house. The white portico—the palace-like, tall, round columns, spotless as snow—the walls also—the tender and soft moonlight, flooding the pale marble, and making peculiar faint languishing shades, not shadows—everywhere a soft transparent hazy, thin, blue moon-lace, hanging in the air—the brilliant and extra-plentiful clusters of gas, on and around the facade, columns, portico, &c.—everything so white, so marbly pure and dazzling, yet soft—the White House of future poems, and of dreams and dramas, there in the soft and copious moon—the gorgeous front, in the trees, under the lustrous flooding moon, full of reality, full of illusion—the forms of the trees, leafless, silent, in trunk and myriad-angles of branches, under the stars and sky—the White House of the land, and of beauty and night—sentries at the gates, and by the portico, silent, pacing there in blue overcoats—stopping you not at all, but eyeing you with sharp eyes, whichever way you move.

Source: Specimen Days

Corona is a Crown of Bones, Blurred by Blinding Tears: A 19th Century’s Text

विश्वव्यापी महामारी कोविड-19 के संदर्भ में आज के सबसे अधिक उच्चरित, लिखित शब्दों में से एक शब्द है, कोरोना। बीमारी संबंधी ‘कोरोना’ शब्द की पड़ताल करने पर इतिहास में सामान्यतः यह 1920 से मिलना शुरू होता है।

लेकिन 1898 के इस टेक्स्ट में आश्चर्यजनक रूप से ‘कोरोना’ शब्द बीमारी के संदर्भ में अपने प्रचलित समकालीन अर्थ में मिलता है। बॉम्बे प्लेग महामारी, उसकी विभीषिका और उपचार को संबोधित इस टेक्स्ट गुजरते हुए उसके सारे बिन्दु, संदर्भ, भावनात्मक आयाम परिचित से लगते हैं। पुराने टेक्स्ट से गुजरने के लिए अपरिहार्य श्रम, खास किस्म की योग्यता और धैर्य जैसी अनिवार्यताएं यहाँ अपना स्पर्श भी नहीं मांगती हैं।

बॉम्बे प्लेग महामारी ब्यूबोनिक प्लेग थी जो ‘येर्सिनिया पेस्टिस’ नामक बैक्टीरिया से होने वाली बीमारी थी। यह बीमारी चीन के युन्नान प्रांत से उत्पन्न हो वाया समुद्र बॉम्बे पहुंची थी। इसकी पहचान करने वाले चिकित्सक और विषाणु विशेषज्ञ अलेक्जेंडर यर्सिन थे। इन्होंने प्लेग-रोधी सीरम पर भी काम किया लेकिन परिणाम निराशाजनक ही रहा। इनके पश्चात डब्लू. एम. हाफकीन ने इस पर काम किया और तुलनात्मक रूप से इनका परिणाम बेहतर तो रहा लेकिन सिर्फ आधा ही। इनके द्वारा तैयार वैक्सीन के साइड इफेक्ट के तौर पर उनके एक सहयोगी को नर्वस ब्रैक्डाउन हुआ, दो सहयोगियों ने उनके साथ काम करने से मना कर दिया। वैक्सीन के मानवीय परीक्षण से पहले उन्होंने उसे खुद अपने ऊपर आजमाया। परिणाम के प्रति निश्चिंत हो मानवीय परीक्षण के लिए इसे भायखला जेल के कैदियों पर आजमाया गया। इस वैक्सीन के कारण सात लोगों की जानें गईं लेकिन शेष सभी की स्थिति सामान्य रही। इस तरह प्लेग पर विजय की यह पहली उम्मीद बनी।

स्रोत संदर्भ:

हेनरी मैथ्यू और एबेंजर लैंडल्स के संपादकत्व में 1841 में हंसी-मजाक और व्यंग्य की ब्रिटिश पत्रिका पंच: लंदन चारिवारी निकली। आज की सुपरिचित व्यंग्य-विधा ‘कार्टून’ के लिए यह जो नाम रूढ़ हुआ है, वह इसी पत्रिका का देन है। खैर, यह पत्रिका इतनी लोकप्रिय हुई कि उसी धमक तत्काल हिंदुस्तान के भीतर भी सुनाई देने लगी। देखते ही देखते पंचों की भरमार हो गई जिनमें से प्रमुख थेअवध पंच, बिहार पंच और हिन्दी पंच हिन्दी पंच के दस्तावेजों से गुजरते हुए उन्नीसवीं सदी के मध्य से लेकर उतरार्द्ध के शहरी भारतीय अभिजात/ बौद्धिक जगत के हवा-पानी से वाबस्ता होते हैं। उसी समय के वर्नाकुलर की पत्रिकाओं से इसका मिजाज नितांत भिन्न, और आज के नजरिये से कहें तो सामाजिक दायरे में आधुनिक था।

खैर दस्तावेजी अहमियत से लैस इस टेक्स्ट से गुजरते हुए ऐसा लगता है मानो इतिहास दुहराया जा रहा है। शहरी हल्कों में विद्यमान वही भय, वही कोरांटीन, वही सावधानी, टीका की उम्मीद में आस लगाए वही इंसान।
# Uday Shankar

Its corona is a crown of bones, blurred by blinding tears.

MUNICIPAL NOTES

By A Corporator Faineant

Baffled at every point. The plague is defying us still. We have whitewashed, and phenyled, and fumigated. We have condemned, altered, burned and destroyed. We have turned off water, and turned it on again. We have covered our streets with slush and mud, and we have left them to revel in clouds of dust. We have climbed down from our lofty height, yielding up our purse and ourselves to the Government and their Committee. We have haffkined ourselves, till the blind believer in the preventive serum has come to fancy that he has quaffed the cup of immortality and will endure for ever! We have yersined ourselves, and we have beggared ourselves. All to no purpose. The plague is once more at its murderous work, devouring us with unabated appetite. Like the moon, that, with impudent boldness, attempted to swallow the sun the other day; but unlike her, in that it does not know when and where to stop, and its corona is a crown of bones, blurred by blinding tears. The plague, like the superannuated human plagues that torment us with their eternal buzzing, is no respecter of persons, and its boldness, like theirs, is boundless.

No wonder then that, being so much at a disadvantage, we should, like the drowning man catching at the foam, welcome the tiniest ray of hope with eager eyes. It comes this time from a Florentine savant who, having tried his curative serum on monkeys and men with success, offers to send it on to us on our paying all expenses. This is fair and generous. And the curative serum before the preventive any day. Healthy persons may object to the introduction of poison into their system, all Mr. Seraph’s persuasive pleadings notwithstanding; but who, at death’s door, will turn away from whatever chance there may he of turning back into the realm of light and life? A serum too that has been tried, and found to be efficacious. On monkeys and on men, though the double trial was hardly necessary. We would have taken the monkey alone at his word, for what’s good for him must perforce be good for his lineal descendant. But this comes with a two-fold guarantee, and we snatched at it with eyes closed. It was Yersin last year. It is Lustig now.

But, said the well-meaning Dr. Bahadurji, let us proceed with caution. We have had the serum from Alexandre Yersin, we have had it from Yersin, with not very satisfactory results, and the former had to give it up as it took longer time to prepare than the plague takes to kill, and run its course. Let us find out what quantity we are likely to have at once, and how soon our stock can be replenished. For if we can’t get all we want during the natural life-time of the plague’ it will be money thrown away.

Weighty words of wisdom. But they had no weight with us and we would not wait. We could brook no delay—not even a few hours’ or a couple of days’ delay—we who dawdled over the plague in its early stages for months; we who refused even to recognise it by its right name ; we who allowed our care for the city to give place to care for self ; we who deserted our posts and fled for our own dear lives when we should have remained to counsel and encourage and console ; we who, after the plague was over, went to sleep in fancied security and took no steps to meet the recrudescence which we were warned to expect ! We could brook not a moment’s delay. We who, like the nasty cusses that we were, at one time used to wait till the brook should pass by! But we’ve changed all that now, and the Hon’ble Dr. Bhalchandra, whose idea of the value of time would appear to have altered since his elevation, took us to task for having “wasted” the couple of hours that we took in weighing Dr. Bahadurji’s words. Contradictory as it may sound, the plague, whatever it may be doing outside the House, has inoculated us with new life and fresh energy, and it now only remains to hope that Dr. Bahudurji may prove to be a false prophet, and the new serum the true elixir.

Source: Hindi Punch, February, 1898

नामाकूल मुर्गे और मुर्गियों की कलगी: मिखाईल शोलोखोव

मिखाईल शोलोखोव विश्व साहित्य के बड़े नाम और नोबेल पुरस्कार विजेता हैं.  उनका उपन्यास ‘वर्जिन सॉयल अपटर्नड् ‘ सोवियत प्रयासों से शुरू हुयी  साझेदारी खेती ,पशुपालन और उसके इर्द-गिर्द के संघर्ष  एवं जीवन की कहानी है. इसी उपन्यास का एक एक अंश यहाँ प्रस्तुत है.

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आवरण-पृष्ठ : वर्जिन सॉयल अपटर्नड्

कुंवारी भूमि का जागरण 

By मिखाईल शोलोखोव

सुबह नाश्ता करके वह मुर्गियों के बाड़े की और चल दिया. उसे देखकर बूढ़े अकीम बेसख्लेबनोव ने गुस्से में चिल्लाकर पूछा,

“तू सुबह-सबेरे यहाँ क्या कर रहा है?”

“तुम्हें और मुर्गियों को देखने आया हूँ. क्या हाल-चाल है बाबा?”

“अच्छी-खासी जिन्दगी कट रही थी पर अब मत पूछो.”

“क्यों, क्या हो गया?”

“मुर्गियों ने जीना हरम कर दिया है.”

“यह कैसे?”

“तू एक दिन यहाँ रूककर देख, तब समझ जाएगा! नामाकूल मुर्गे दिन भर आपस में लड़ते रहते हैं, उन्हें अलग करते-करते तो मेरी टांगें टूट गयी. मुर्गियों को ही लो, देखने में लग सकता कि जनानी बात है पर ये भी दिन भर एक-दूसरी की कलगी नोचती रहती है. भाड़ में जाए ऐसी नौकरी. आज ही दवीदोव के पास जाकर छुट्टी करने के लिए बोलूँगा और मधुमक्खियों की देख-रेख के लिए भेजने को कहूँगा.”

“बाबा, धीरे-धीरे वे एक दूसरे के आदी हो जायेंगे.”

“जब तक वे आदी होंगे, बुड्ढा कब्र में उतर चूका होगा. भला यह भी मर्दों का काम है? आखिर को मैं भी तो कज्जाक हूँ. तुर्कों की लड़ाई पर जा चुका हूँ. पर यहाँ मुझे मुर्गियों का कमांडर बना दिया है. नौकरी किये दो दिन ही हुए हैं पर बच्चे मेरा पीछा नहीं छोड़ते. जब घर जाता हूँ तो वे चिल्लाने लगते हैं, ‘बुड्ढा मुर्गी-छेड़! अकीम बाबा मुर्गी-छेड़!’ मुझे सबका मान-सम्मान प्राप्त था, पर बुढ़ापे में मुर्गी-छेड़ की उपाधि लेकर मरूँगा क्या? नहीं, मैं बिलकुल नहीं चाहता!”

“अरे छोड़ो भी, अकीम बाबा. बच्चों से क्या लेना?”

“अरे अगर बच्चे ही कहते तो कोई बात नहीं पर कई लुगाइयां भी उनके साथ हो गयी हैं. कल दोपहर खाना खाने जा रहा था. कुएं पर नास्तेन्का दोनेत्स्कोवा पानी खींच रही थी. पूछती है: ‘बाबा, मुर्गियों को संभाल पा रहे हो न? मैं बोला, ‘हाँ-हाँ.’ – बाबा, मुर्गियां अंडे दे भी रही हैं या नहीं?’ मैं बोला, ‘हाँ, कुछेक दे रही हैं पर ज्यादा नहीं.’ और वह कल्मीक घोड़ी पता है क्या बोली हंसकर? ‘देखना, जुताई तक वे एक टोकरी अंडे दे दे नहीं तो तुमसे करवाएंगे मुर्गे का काम.’ ऐसे मजाक सुनने के लिए मैं बुड्ढा हो गया हूँ. और यह नौकरी मुझे बिलकुल पसंद नहीं.”

बुड्ढा कुछ और भी कहना चाहता था पर बाड़े के पास दो मुर्गे भिड़ गए, एक की कलगी से खून की धारा फूट पड़ी और दूसरे की गल-थैली से मुट्ठी भर पंखों का ढेर उड़ा. बुड्ढा अकीम संटी उठाकर उनकी ओर दौड़ पड़ा.

अनुवाद: विनय शुक्ल 

 

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