Archive for the category “सुनते-सुनते”

‘‘सांस्कृतिक श्रम: भारत में ‘लोक प्रदर्शन’ की अवधारणा’’ की समीक्षा: धीरज नीते

लोक की प्रदर्शन कलाओं (performing arts), विशेषकर पूर्वी भारत, के विशाल और विविध क्षेत्र में सांस्कृतिक मूल्यों के निर्माण और सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति को व्याख्यायित करने में सांस्कृतिक श्रम की अद्भुत भूमिका होती है। संस्कृति उद्योग (पूंजीवादी) के आधिपत्य के हमले में लोक की प्रदर्शन कलाओं की जमीन निरंतर सिकुड़ती जा रही है। इसीलिए यह पुस्तक एक सामयिक हस्तक्षेप है, और ज़ाक राँसिएर की निरन्तरता में, जाति-विभाजित समाज में कला, सौन्दर्य, मनोरंजन और अनुभूति के विमर्शों की सौंदर्य-प्रणाली की सैद्धांतिकी को स्पष्ट करती है।

आवरण-पृष्ठ

पुस्तक लोक की प्रदर्शन कलाओं की पाँच परंपराओं पर केंद्रित है: भुइयाँ पूजा, बिदेसिया, दुगोला, रेशमा-चुहड़मल और जन नाट्य मंडली। पुस्तक के लेखक ब्रह्म प्रकाश का मानना है कि शुरू की ये चार विधाएँ भावना के आंतरिक इलाकों से संबंधित हैं; जो कि हमारे ऐन्द्रिक बोध को तुष्ट करती हैं, और कला के विध्वंसक, नकारवादी, और रचनात्मक पक्षों को सामने लाती हैं। ये अनुष्ठानिक भूमि पूजा संबंधी संस्कार-प्रस्तुतियों, चुटकुलों, ‘अश्लील’ और मांसल यौन-चित्रणों, हास्य, और ऊँच-नीच पर आधृत जाति व्यवस्था के सामाजिक व्यंग्यों का एक वैविध्य प्रस्तुत करती हैं। ये सौंदर्यपरक अभिव्यक्तियाँ कुलीन सत्ता और इसकी वर्चस्वशाली संस्कृति का प्रतिरोध रचती हैं। पाँचवीं , जन नाट्य मंडली, नुक्कड़ नाटक जैसे ‘राजनीतिक नाट्य माध्यमों’ में लोक-शैलियों का इस्तेमाल उपयोग करती है। लोक परंपरा के भीतर के प्रतिगामी, अश्लील तत्वों की आलोचनात्मक-निराई के साथ-साथ महत्वपूर्ण प्रगतिशील सामग्रियों से अपने दर्शकों के विरेचन और मनोरंजन के लिए यह कला-प्रतिमानों के मानकों पर कार्य करती है; जैसे कि, महिला-उत्पीड़न के अनुभवों, और महिला कलाकारों को गरिमा प्रदान करने के लिए मुक्तिकामी विचारों को सामने लाती है।

पुस्तक लोक की प्रदर्शन कलाओं के सौदर्यात्मक अभ्यासों को मान्यता देती है, और भारत के शास्त्रीय सौंदर्य-प्रणाली को चुनौती देती है; खासकर, नाट्यशास्त्र की शास्त्रीय परंपराएँ और कुलीन रंगमंच से नाभिनालबद्ध उच्च संस्कृति में सन्निहित सौंदर्य आस्वाद को। यह शास्त्रीय वर्चस्व लोक के कलात्मक श्रम को असभ्य या भद्दा,  हुल्लड़ या अभद्र (पृष्ठ 14, 54) कहकर बदनाम करती है। सौंदर्य तकनीक, और लोक की प्रदर्शन कला-विमर्शों को स्पष्ट करने के लिए ब्रह्म प्रकाश के पास एक व्यावहारिक भाषा है। लोक कलाकारों का बहुसंख्यक वंचित समुदायों और उत्पादक वर्गों से आता है। भले ही, अधिकांश अवसरों पर वे आर्थिक रूप से पुरस्कृत नहीं होते हैं, फिर भी नृत्य, गायन और अभिनय के अपने कलात्मक जुनून का पीछा करते हैं। वे ऊँच-नीच वाली जाति-व्यवस्था में कला के विध्वंसक, नकारवादी और रचनात्मक क्षमता से संतुष्टि प्राप्त करते हैं।

इन लोक कलाओं के उत्पादन और उपभोग की प्रक्रिया में कलाकारों और दर्शकों दोनों के सौंदर्य संबंधी पूर्वाग्रहों की गुत्थी सुलझाने के लिए ब्रह्म प्रकाश ‘इंटिमेट इथनोग्राफी’ और ‘ऑटो इथनोग्राफी’ की विधियों का इस्तेमाल करते हैं। ग्रामीण भारत के एक लोकप्रिय धार्मिक अनुष्ठान भुइयाँ पूजा, और रेशमा-चुहड़मल के अतिविवादास्पद नाटक के अध्ययन में इन विधियों का सबसे सटीक इस्तेमाल दिखता है। उत्तरार्द्ध, ज्यादातर दर्शकों की सामाजिक वरीयता के हिसाब से प्रच्छन्न प्रतिलेखनों (जाति-संदर्भित) और त्वरित आशुरचनाओं का योग है। तकनीकी लचीलापन और स्वतः-स्फूर्त रूपांकन लोक प्रदर्शन की विशेषता है। यह पुस्तक कलात्मक व्यवहार, आरामफ़हम मनोरंजन, और श्रम-तनाव के विभाजन को दूर करती है। लोक प्रदर्शन में संस्कृति, कलात्मक जुनून और श्रम का सहास्तित्व इस पुस्तक का केन्द्रीय मंच है। यह पुस्तक, दोहरे अर्थों में, अनुभवजन्य विवरणों का एक उर्वर वैचारिक मुकाम बनाती है, साथ ही साथ प्रदर्शन कला-अध्ययन, और लोक कला के समाजशास्त्र का भी।

पुस्तक विवरण: Brahma Prakash, Cultural Labour: Conceptualising the ‘Folk Performance’ in India, Delhi: OUP, 2019. ISBN‏: ‎ 0199490813.

धीरज कुमार नीते, अंबेदकर विश्वविद्यालय, दिल्ली, और जोहान्सबर्ग विश्वविद्यालय, दक्षिण अफ्रीका से जुड़े समाजविज्ञानी हैं। इनसे dhirajnite@gmail.com पर संपर्क संभव है।

Review Essay of ‘‘Cultural Labour: Conceptualising the ‘Folk Performance’ in India’’: Dhiraj Nite

Cultural Labour elucidates the creation of cultural values and its aesthetic mode of articulation in the vast and variegated field of folk performance, especially in eastern India. It is a timely intervention because the space of folk performance is slowly shrinking, and increasingly confronted with the hegemonic terms of the capitalist culture industry. Following Jacques Ranciere,[1] it conceptualises the aesthetic regime, that is, the discourse of art, beauty, pleasure and the sensible in the caste-divided society.

The book focuses on five traditions of folk performance: Bhuiyan Puja, Bidesia, Dugola, Reshma-Chuharmal, and Jana Natya Mandali. The first four genres pivot on the visceral mode of articulation, argues Prakash. They appeal to sensory perception and bring about subversive, transgressive and creative poetics. They display a motley collection of ritualistic land worship, jokes, ‘obscenity’, erotic imageries, titillation, and social satire of the hierarchical caste order. Their aesthetic practices resist the hierarchal power and its dominant culture. The fifth folk performance genre, Jana Natya Mandali, uses folk theatrical mediums, such as street theatre. It works on the representative paradigm of art – to edify and entertain its audience in progressive contents, including critical scrutiny of regressive, obscene elements within the folk tradition. For instance, it highlights women’s experiences of oppression and liberatory views in order to endow dignity to female performers.

Book Cover

The book makes a concerted effort to valorise folk performance’s aesthetic practices to challenge the classicist aesthetic regime in India. The classicist traditions of Natyashastra and bourgeois theatre privilege aesthetic taste embodied in high culture. They denigrate folk performative labour as uncultured or coarse, loud and vulgar (pp. 14, 54). Prakash lays down a functional language to consider aesthetic technique and discourse of folk performance. Additionally, Prakash points out that those folk artists are predominantly members of subaltern communities and productive classes. They pursue their artistic passion for dance, singing and performance, even though folk performances are frequently not monetarily rewarding. They draw satisfaction from their artworks’ socially subversive, transgressive and creative potential in a caste-divided society.

Prakash applies the method of intimate ethnography or auto-ethnographical approach to decode the aesthetic predispositions of both artists and their audience in producing and consuming these performances. We see this most fruitfully applied in the study of Bhuiyan Puja, a popular religious ritual in rural India, and that of the highly contentious play of Reshma-Chuharmal. The latter is often laden with hidden [caste-specific] transcripts and quick improvisation amidst the social preference of its audience. The flexible technique and dynamic adaptation in folk performance are its characteristics. The book fords the separation between artistic activity, leisure and labour exertion. It foregrounds the co-presence of the three: culture, artistic passion and labour in folk performance. I must state out that it charts out a new territory in double senses of empirical details as well as an illuminating conceptual framework in the field of performance studies and sociology of folk art.    


[1] Jacques Ranciere, “Art, Life, Finality: The Metamorphoses of Beauty,” Critical Enquiry 43 (Spring 2017): 597-616. Jacques Ranciere, The Politics of Aesthetics: the distribution of the sensible, Edited and translated by Gabriel Rockhill (London, 2011): 15-26.

Book Details: Brahma Prakash, Cultural Labour: Conceptualising the ‘Folk Performance’ in India, Delhi: OUP, 2019. ISBN‏: ‎ 0199490813

Dr. Dhiraj Kumar Nite, A Social Scientist, University of Johannesburg, Ambedkar Univeristy, Delhi. You can contact him through  dhirajnite@gmail.com

कबीर का करघा और मुक्तिबोध का वामपंथी इन्टेलेक्ट: विष्णु खरे

यह बात-चीत इसी साल जनवरी की है. मौका था जयपुर समानांतर साहित्य उत्सव का. विष्णु खरे भी वहां आये हुए थे. बात-चीत में अनिल यादव, रवि प्रकाश, सुधांशु, अविनाश और उदय शंकर भी शामिल थे. # मार्तंड प्रगल्भ

Vishnu-Khare-Hindi-Kavita

साहित्यकार विष्णु खरे. (जन्म: 9 फरवरी 1940 – अवसान: 19 सितंबर 2018) (फोटो साभार: हिंदी कविता/यूट्यूब

 

 

विष्णु खरे के साथ एक अधूरी बातचीत: मार्तंड प्रगल्भ

प्रश्न मुक्तिबोध को लेकर अभी जो उत्सव चल रहा है, और जैसा कि मनमोहन कह रहे थे कि यह उत्सव और विस्मृति दोनों का साथ-साथ चलना है, यह दोनों दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, तो इसी सिलसिले में इन सब के बीच मुक्तिबोध को लेकर आपकी अपनी जीवन-प्रक्रिया और रचना-प्रक्रिया में ही जो अनुभव रहे हैं उसे थोड़ा साझा करते हुए, उनसे जो पहली मुठभेड़ है, उसे बताएं!

वि.ख. मुक्तिबोध का जो पहला संग्रह आया था तो मैं शायद उसे पहले पढने वालों में से एक था. बाद में मैंने अपने कॉलेज, रतलाम कॉलेज में एक छात्र से उसपर एम्.फिल. भी करवाया था, हिंदी में. वह मुक्तिबोध पर पहला एम्.फिल. है, पैंसठ में. कहने का मतलब है कि मुक्तिबोध का बहुत गंभीर प्रभाव मुझ पर तभी था. मुक्तिबोध का असर कोई नयी चीज़ नहीं है. मेरे यहाँ तो अभी तक चालू है. अभी कम नहीं हुआ है. उसकी वजह शायद यह है कि मैं खुद लिखने वाला हूँ और मैं एक कमिटेड राइटर भी हूँ, मुक्तिबोध हमारे लेखक हैं. हमलोग वामपंथी लोगों के वे कवि हैं. तब से लेकर अब तक मुक्तिबोध मेरे जीवन में और मेरे लेखन में केन्द्रीय रहे हैं. लेखन माने उनका जो आईडियोलॉजिकल असर है, उनका कमिटमेंट है, वह हमारे लिए एक लाइट हाउस की तरह है. हांलांकि यह भी सच है कि मुक्तिबोध की आमद के पहले ही मैं वामपंथी था. मुक्तिबोध से मेरे वामपंथ को ताकत मिली है. मैं उनको पढ़ कर वामपंथी नहीं हुआ. मैं पहले से था. मुझ पर मैक्सिम गोर्की का असर था. मुक्तिबोध बाद में आते हैं. लेकिन आजतक मुक्तिबोध के बिना मैं कुछ भी साहित्यिक सोच नहीं पाता. यह एक तरह से ऐसी उपस्थिति है जो कभी कम नहीं होती है.

प्र. मुक्तिबोध की राजनीतिक प्रतिबद्धता निश्चित रूप से एक लम्बे ट्रेडीशन में है. वामपंथ एक वैश्विक परम्परा थी जिससे मुक्तिबोध अपने तईं नया रचने की कोशिश कर रहे थे. हिंदी या भारतीय या इस पूरे उपमहाद्विपीय संदर्भ में राजनीतिक प्रतिबद्धता के कवि के रूप में मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन में नया पक्ष क्या रख रहे थे?

वि.ख. मुक्तिबोध ऐज़ सच प्रगतिशील आंदोलन में नहीं थे. मुक्तिबोध की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वे किसी भी इस तरह के मूवमेंट से अलग रहते हुए अपनी केन्द्रीय जगह बनाए हैं. यह बहुत आश्चर्य की बात है. यह हिंदी की ताकत की बात भी है कि मुक्तिबोध को समझने में हिंदी को किसी वामपंथी धारे की ज़रुरत नहीं पड़ी और वह मुक्तिबोध को मुक्तिबोध बनाने में कोई बैसाखी नहीं बनी. यह बहुत बड़ी बात है. मुक्तिबोध अभी भी इंडिपेंडेंट हैं. मुक्तिबोध को आप किसी भी इस तरह के स्कूल में बाँध नहीं सकते. मुक्तिबोध का जो पूरा होना है वह मृत्यु के बाद का है. एक बड़ी विचित्र बात है कि हिंदी में कोई लेखक मृत्यु के इतने दिनों बाद तक बना रहा. मुक्तिबोध मरता नहीं है. मुक्तिबोध की प्रतिष्ठा में, मुक्तिबोध के फेम में, मुक्तिबोध के एक्सेप्टेंस में कोई फ़र्क नहीं आया है बल्कि मुक्तिबोध निर्बाध बढ़ रहा है. आप देखिये न मुक्तिबोध के ज़माने का, और उनके पहले का भी, पूरा प्रगतिशील स्कूल नष्ट हो गया. इनके पहले के बड़े-बड़े कथित प्रगतिशील कवि खत्म हो गए. मुक्तिबोध का मुक्तिबोध होना और इतने बड़े कवि-समुदाय द्वारा स्वीकृत होना अजीब है. हमलोग कह सकते हैं कि हमने मुक्तिबोध को सबसे पहले समझा. मुक्तिबोध अगर हमारे बगैर भी इतना बड़ा हो गया और होता जा रहा है तो मुक्तिबोध की ताकत का वह रेशा ढूंढना चाहिए कि वह क्यों एक्सेप्टेड है. क्योंकि मुक्तिबोध की ईमानदारी टोटली ट्रांसपैरेंट है. टोटली. वहां पर कोई ओपेक्नेस है ही नहीं…ट्रांसपैरेंट है.

प्र. यह जो इंडिपेंडेंट लेफ्ट की बात आप कह रहे हैं कि जितनी भी प्रगतिशील परम्पराएं थीं मुक्तिबोध उनसे अलग रह कर, बिना स्कूल का अनुकरण किये, और बिना किसी स्कूल का पालन किये या बिना किसी मठ में गए और बिना कोई मठ बनाने की प्रक्रिया में शामिल हुए, जिस इंडिपेंडेंट लेफ्ट की धारा को प्रेरणा देते हैं, उनकी प्रतिबद्धता का यह अंश आपको प्रेरणा कैसे देता है?

वि.ख. टोटली.

प्र. अभी के समय में अगर कहें कि इस तरह के किसी इंडिपेंडेंट लेफ्ट की जगह अगर बन रही है तो उसका स्वरुप या उसकी पॉलिटिक्स को हमलोग कैसे समझ पायेंगे?

वि.ख. देखिये जिस तरह आप मुक्तिबोध की पॉलिटिक्स को समझते हैं वैसे ही आपको हमलोगों की भी पॉलिटिक्स समझनी पड़ेगी. अगर आप मुक्तिबोध को समझते हैं और हमलोग उनके आस-पास भी कहीं हैं, तभी आप हमें समझेंगे. अगर हमलोग बेईमान हैं तो आप समझ जायेंगे कि यह बेईमानी है. उसका कोई फ़ॉर्मूला नहीं हो सकता है. यह अजीब बात है कि मुक्तिबोध आपको खुद अपना जज होने के लिए प्रेरित करता है. वह फ़ॉर्मूला नहीं देता. वह कह रहा है कि तुम जज करो…मुझे भी जज करो. तो यह जो अपने प्रशंसकों को भी खुला छोड़ना, चुनाव के लिए, जजमेंट के लिए, यह बहुत बड़ी बात है. अच्छा पर यह ज़रूर कहूँगा कि जो आपने बात की न इंडिपेंडेंट लेफ्ट… तो ऐसा कोई मूवमेंट मुक्तिबोध ने नहीं चलाया, न हमलोग चला रहे हैं. हमलोग टोटली लेफ्ट हैं, ऐसा सोचते हैं. लेकिन बाकी जो अपने आप को लेफ्टिस्ट क्लेम करने वाले लोग हैं उनसे हम अलग हैं.

प्र. यहाँ हम इसी अंतर को थोड़ा और मूर्त तरीके से समझना चाह रहे हैं!

वि.ख. मुक्तिबोध एक तरीके से टोटल आर्टिस्ट था. टोटल आर्टिस्ट. वह यह नहीं देखता कि कौन सुनता है, क्या करता है. वह लिखता था और अपना पूरा लिखता था. इसी तरह आपको यह देखना पड़ेगा कि आज का कौन सा कवि है जो इंडिपेंडेंट लिख रहा है और मुक्तिबोध के वैल्यू से डिग के नहीं. हो सकता है कि हममें से कोई मुक्तिबोध से भी आगे जाय, सोच में. यह पॉसिबल है क्योंकि दुनिया बदल रही है और बदल रही है तो मुक्तिबोध को भी बदलना पड़ेगा. आज जहाँ मुक्तिबोध है, आज से बीस साल बाद मुक्तिबोध रह नहीं सकते. लेकिन कोई आदमी आएगा या कुछ लोग आयेंगे, कई आदमी आयेंगे जिनमें मुक्तिबोध दिखेगा आपको. पूजन के सेन्समें नहीं  , विचारधारा के सेन्स में, कमिटमेंट के सेन्स में, आप ऑलरेडी देखते हैं, और साफ़ है कि हमारे लोग मुक्तिबोध के हैं और कई लोग नहीं हैं. जो हमारे साथ नहीं है, मुक्तिबोध के साथ नहीं है, वे भी बुरे नहीं हैं. यह हम मानते हैं कि मुक्तिबोध के साथ रह कर आप कहीं ज्यादा सीखते हैं, कहीं ज्यादा बड़े होते हैं. हम मुक्तिबोध को छोड़ नहीं सकते अकेले क्योंकि वह हमें नहीं छोड़ता. वह हमारे पीछे पड़ा हुआ है. लगातार. क्योंकि मुक्तिबोध को समझना बाक़ी है. मुक्तिबोध को पूरा पढ़ा जाना बाक़ी है.

प्र. मुक्तिबोध की दो प्रचलित छवियों की बात करें तो एक ओर उनका शहीदी चित्र खींचा जाता है- असद ज़ैदी और कई अन्यों की स्मृति में मुक्तिबोध की शहादत की मुहर है, और दूसरी ओर उन्हें ब्रह्मराक्षस की सीमाओं में बाँधने की कोशिश की जाती है, ब्रह्मराक्षस की छवि गढ़ी जाती है. इन छवियों की आलोचना आप कैसे करते हैं?

वि.ख. देखिये इन दोनों छवियों को मैं सही नहीं मानता. कारण ये है कि मुक्तिबोध शहीद नहीं थे इस तरह से. मुक्तिबोध को शहीद मानकर केवल रफा-दफा किया जा सकता है. मुक्तिबोध की व्याख्या उनके टोटल वर्क पर होनी चाहिए. उनकी शहादत हमें भूलनी पड़ेगी. वरना हम उनके पूजक बन के रह जायेंगे. मुक्तिबोध हमारे पास एक बहुत बड़ी सम्पदा हैं. आज भगत सिंह को कौन मानता है? कोई नहीं मानता. भगत सिंह भगत सिंह बना दिए गए बस. शहीद-ए-आज़म बन गए. मुझे मुक्तिबोध को हिंदी कविता का या हिंदी साहित्य का शहीदे-आज़म नहीं बनाना है. वह जिंदा हैं. अपने वर्क में जिंदा हैं, हमारे जीवन में जिंदा हैं. क्योंकि वह हमारे जीवन के लिए यूजफुल है. आज भगत सिंह यूजफुल नहीं रहे. लेकिन मुक्तिबोध हमारे लिए क़दम-क़दम पर यूजफुल हैं. इसलिए मैं न शहीद और न ही उन्हें ब्रह्मराक्षस मानता हूँ. यह एक तरह से मुक्तिबोध को मिस्टीफाई करने की बात है, बिला वजह. मुक्तिबोध को ब्रह्मराक्षस मानना, उनको भाजपा की गोद में डाल देना है. मुक्तिबोध के साथ कुछ भी मिस्टिक नहीं किया जा सकता. वह मिस्टेरियस आदमी नहीं था. मिस्टिक नहीं था वह. वह तांत्रिक नहीं था. उसके पास सभी अलामतें थीं कि वह दुनिया देख रहा था. अब आप कहेंगे मुक्तिबोध खुद तांत्रिक हो गए थे, यह बेवकूफी है. मैं इन दोनों खेमों को मुक्तिबोध के लिए बहुत हानिकारक मानता हूँ, और मुक्तिबोध के लिए क्या, जो मुक्तिबोध को पढ़ते हैं उनके लिए. मुक्तिबोध पर हमले की कोशिश जो लोग कर रहे हैं, वह मैं समझता हूँ ब्रह्मराक्षस वाला खेमा है. अब दिक्कत क्या है कि बहुत सारे लोग हैं हिंदी कविता के वे मुक्तिबोध को बड़ा मानना नहीं चाहते अपने से. इन्हें लगता है कि अगर मुक्तिबोध ही मुक्तिबोध रहेगा तो हम कहाँ जायेंगे. मुझे लगता है कि असद ज़ैदी वगैरह लोगों में यही ग्रंथि है कि भाई हम भी कुछ हैं. कुछ हमारी बात भी बने. मुक्तिबोध क्या होता है! और कब तक रहोगे मुक्तिबोध के! मेरी बात तो यह है कि मैं मुक्तिबोध से आगे जाते हुए भी उनका गुलाम हूँ. यह सब कुछ उसी से सीखा है. उससे प्रेरित हुए हैं, तो कैसे कह दें कि भाई वह शहीद हो गया. शहीद हो गए? अरे वह जिंदा है. शहीद हुआ होगा तुम्हारे लिए. वह तो हिंदी के लिए भी शहीद नहीं हुआ. क्योंकि वह जिंदा रहना चाहता है भाई, काम करते हुए, तो उसको आप शहादत मत दीजिये. मेरा कहना यह है कि उन्हें कोई शहीद न माने और जो मानता है वह अपराधी है. मुक्तिबोध को शहीद मानना अपराध है. उसको मानो कि वह जिंदा है और हमारे बीच है. हम ज़िंदा हैं. मैं कहता हूँ कि मैं मुक्तिबोध हूँ, चलिए बहस कीजिये. हममें से जो भी फील करता है कि वह मुक्तिबोध का है- उसके अन्दर मुक्तिबोध बैठा है. यह बात है.

प्र. मुक्तिबोध की रचना-प्रक्रिया की विशिष्टता आखिर क्या थी या किस तरीके से वह प्रैक्टिस, वह विश्वदृष्टि हम तक अबाधित चली आ रही है?

वि.ख. मुक्तिबोध एक्चुअली एक विश्वचेता कवि थे. उनको सिर्फ भारतीय कवि मानना बड़ा गलत है. ‘बाचीज़ा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे’. वह तमाशे की बात नहीं करता था. वह अकेला कवि है कबीर के बाद. कबीर ब्रह्मांडीय कवि हैं. मैंने कहा भी है कि कबीर का जो करघा है, माने जुलाहे का जो करघा है एक पूरी कायनात है. तो एक ओर कबीर का जुलाहापन और उसका करघा और फिर उसके बाद मुक्तिबोध का इन्टलेक्ट, वामपंथी इन्टलेक्ट. वामपंथी आदमी पूरी कायनात को इकठ्ठा देखेगा ही. वह अभिशप्त है. वह बिना दुनिया का जायज़ा लिए बल्कि कहिये कि बिना कॉसमॉस का जायज़ा लिए हो ही नहीं सकता.

प्र. कबीर के बाद मुक्तिबोध- अर्थात जिसे आरंभिक आधुनिक काल कहा जाता है वहाँ एक जुलाहे की, दस्तकार की, आर्टीजन कवि की विश्वदृष्टि और उनकी साधना के बाद मुक्तिबोध!

वि.ख. मैं आपसे कह रहा हूँ कि उस ज़माने की सबसे बड़ी टेक्नोलोजी करघा थी, करघे से बड़ी कोई टेक्नोलोजी थी नहीं पूरे विश्व में. कबीर उसका एक्सपर्ट है. वह समझता है सब चीज़.

प्र. लेकिन कबीर की आर्टीजनशिप की दुनिया और मुक्तिबोध की औद्योगिक सभ्यता की दुनिया में जो लीप है, ब्रह्मांडीय दृष्टि में जो यह लीप है, उसी संदर्भ में कि एक श्रमिक-कवि या कवि-कामगार जो अपने चारों ओर की दुनिया में सक्रिय है और इस वक़्त की ‘टेक्नोलोजी’ के सहारे जेनेरिक मनुष्यता की आत्मा को बनाने में लगा है- कॉसमॉस के भीतर, वैसी स्थिति में एक कवि-कामगार की राजनीति को रचनाप्रक्रिया में कैसे स्पष्ट करेंगे?

(यहाँ हमारी बात-चीत रुक जाती है. विष्णु-खरे का कोई पुराना मित्र उनसे मिलने आ चुके थे. आज जब कि खरे हमारे बीच नहीं है इसलिए इस बात-चीत को इसी रूप में आगे जारी रखना संभव नहीं है.)

मार्तण्ड प्रगल्भ

 

छात्र राजनीति और संस्कृति-कर्म में व्यस्त रहने वाले मार्तण्ड प्रगल्भ जे.एन.यू. के भारतीय भाषा केंद्र से पी.एच.डी. हैं. फ़िलहाल  रेडिकल नोट्स कलेक्टिव  के साथ कार्यरत हैं. उनसे mpragalbha1@gmail.com पर संपर्क संभव है            

Something deeply disturbing about Bob Dylan: Sandip K Luis

After the announcement of noble literature award to Bob Dylan in 2016, there has been a hue and cry among the intelligentsia both in praise and criticism of it. It is being argued by the ‘for Dylan’ group that the noble literature award to Dylan symbolizes the ‘return of sixties’, while its critic held the point that it is being ‘romantic’ by those who unconsciously trying to bring sixties in to the mainstream. However, it should be noted that Dylan became famous for his participation and songs in civil rights and anti war  movements in America.

Joan Baez and Bob Dylan

Joan Baez and Bob Dylan

Noble laureate Dylan and Return of Sixties?  

By Sandip K Luis

Yes, there is something deeply disturbing about Bob Dylan’s bagging of the literature-Nobel, that too for “having created new poetic expressions within the great American song tradition”. I hardly know anything about “THE great American song tradition”, but I am pretty sure that such nationalistic justifications – let alone mere claim of ‘new expressions WITHIN’ – cannot be the central concerns here (if that is the case then I expect the same in judging scientific contributions as well).

The radical intellectuals everywhere are more than happy because Dylan is not simply anyone who just fought for civil rights and the peace of humanity, but the very icon, perhaps ‘the icon’, of that golden era of youth counterculture and agitations called “The Sixties”. Yes, I am also very much for civil rights and the global peace, but wait dear; we are not discussing the Peace-Nobel here, right? That will amount to an insult of comparing Dylan with Obama.

If it is for the ‘literary’ contributions of Dylan, that too by surpassing the more identifiable literary personalities like Murakami or Ngugi Thiongo (well, “Times they are a-changin”), I want to know what is really ‘literary’ in him. To admit the truth, I have hardly bothered to listen to Dylan, finding his lyrics, along with the music, too cheesy optimistic and slick minded. But when it is all about the Sixties its “flower-power”, what else you expect?

If one is seriously concerned about the real literal quality of the Sixties-music, then there is only one option left; Dylan’s one and only rival, LEONARD COHEN. But Cohen, with the dim-lit interior of his prayer-like-songs scripted through years of labour, uttered in haunting whispers and sardonic sniggers, is not ‘political’ or ‘popular’ like that of his friendly-adversary Dylan (this is even true in the case of Cohen’s seemingly ‘political’, but not very ‘popular’, songs like ‘The Partisan’ or ‘Democracy’). To religiously enter his shadowy world and to bear the weight of his words, you have to undo yourself like him.

But knowing very well that nothing can satisfy this nihilistic soul, who hauntingly said that ‘the crumbs of love you offer me are the crumbs I left behind’ (‘Avalanche’), my point is not at all that the Nobel should have given to Cohen – after all, c’mon, it just the Nobel. Rather it is a Cohenian view, with all its cynicism and contempt, on Dylan’s recognition, if not his literary or musical merits. The point is simple. Everywhere people are excited about “the Return of the Sixites” in art, culture and politics (justifications vary from the ‘Kiss of Love’ wave in India to the ‘Spring Revolutions’ in the Middle East). But by giving the Nobel to ‘The Icon of the Sixites’; one thing is assured for sure. The Sixties can no longer be a subculture to worth its name, not simply because it is now revered at par with Obama’s contributions to the global peace, but more because of the following reason. The integration of the Sixties to the mainstream and its equation with the American culture are now perfectly complete with Dylan’s Nobel.

But nihilism is nothing but the hope unalloyed. Perhaps this might also be an occasion to hope and work for a ‘Sixties’ we never had; a ‘Sixties with Leonard Cohen’. Hence his song: “Now the wheels of heaven stop / you feel the devil’s riding crop / Get ready for the future: it is MURDER…” (‘The Future’ by L. Cohen)

Sandip K. Luis is pursuing his PhD from SAA, JNU, New Delhi

Who are we: Kalki Koechlin

A Poem By Kalki Koechlin

We are the people of the world
The collective,
The masses,
The capitalistic, communal fascists,
We are you.

Snap Shot from Wild Tales (2015)

Snap Shot from Wild Tales (2015)

We are ready for action,
For tragedy,
Atrocity, hostility
And fashion.
We are the impersonal.

We love great films
But do not live great lives.
We create drama
But shy away from real life.
We are an army of sheep.

We fight for causes
And stand up in the streets.
We fight for clauses,
Throw stones and bombs
And then build tombs with our feats.

We are an amorphous blob
We are a greedy fat man
Standing in a cue
Unnoticed, a nobody
A slob.

We are nameless
So that we can be shameless.
We are the mob,
The headless god.
We are blameless.

Debates, chat shows, votes of the public
And no opinion of our own
Online indulgence
Typing thoughts
Borrowed from a borrower
Selected, educated
And thoroughly plagiarised thoughts
Do’s and ought’s,
Typed, copied,
Copied, pasted,
Pasted, passed,
Passed in unprinted pages
Of a virtual web
Denser than the dark ages.
Thoughts we copy right,
Thoughts we own
And thoughts we’re not
thinking alone.

Everybody writes about it,
Thinks about it,
Talks about it,
But if somebody is actually doing it,
Nobody gives a shit.

The We.
The fancy lives of the We.
Making news out of lipstick
Travel and choice of ice cream,
All frivolous news
That comes out of our pockets
And leaves a nation starving.

We, the people
We, the classes
We, the businessman,
The poor man
And the ladies who pout with the fat off their asses.

Our self worth
Rests on the opinion of others,
On magazine covers,
On how many more overs,
On frequent lovers.

We, the masses,
The people,
The system,
The supporters,
The obedient payers of taxes.

We are to blame
And we should be ashamed.
We have neighbours,
We have money,
And we have poverty.
We have each other.

We are the problem,
And we are the solution.
We could know who we are,
We could go far,
If we just stopped being so wee.
courtesy- https://www.youtube.com/watch?v=TYoJ3FHsMBA

Searching Roots Of Life And Existence: Reflections Of Rajendra Yadav

Rajendra Yadav, one of the prominent literary figures of India who brought ‘New Wave’ in post independence Indian literature, breathed last in the mid night on Monday at New Delhi. Fiercely independent of thought, he heralded modern sensibility in Indian Literature through his trail-blazing original works and translations alike. Giving new direction and radically shaping the form and content of story writing, he forged ahead as a major architect of ‘Nai Kahani’ movement and helped carve an irrevocable place for Nai Kahani transforming the Hindi Literary scene permanently. In all his major writings he revolts against inhibiting traditional values and orthodox precepts as well as socio-political chicanery in modern times. He has been widely translated in all the Indian languages and main foreign ones, and frequently appeared in reputed journals, newspapers, anthologies, and books both in India and abroad.

This speech was delivered by him On March 23, 1999 at JP Memorial lecture organized by PUCL.

Aug 28 1929- Oct 28- 2013

Photo By Uday Shankar

By Rajendra Yadav

I am unable to free myself of the realisation and fear that we are living in a terribly anti-creative atmosphere. Those who are leading and ruling the country have crushed our creative instincts have encouraged import and borrowing. Statistics in place of investigation and analyses and copying in place of research or invention have become our ‘model.’ We have become used to live in the world of translation and copy. Whatever we do, their originals already exist somewhere. Our experience lies in affixing our seal and presenting it. Our pressures and social relevance have relegated to the margin that we could develop our research upon – be it a commodity or an idea, an instrument or art. The spectre of international competition has pushed us into the shortcuts of deformed and imbalanced development. We have become prisoners of a vicious circle where we can neither be underdeveloped and isolated, nor be in the race of development, to match them on their terms. The pain of having fallen prey to wrong challenges has made self-denigration our National past time. We lament over our moral degradation as a ritual, and over our weaknesses and insignificance and then continue on the same path. Probably this is a spiritual solution of achieving individual salvation and then falls in the rut again.

It is a fearsome irony of our situation that gossip magazines have circulation in lacs and a book may take five years to sell 5,000 copies. It is a tragedy of the explosion of words and elimination of thought. Magazines are a game for the moneybags and are sustained by advertisements from the same class. ‘Well-known intellectual’ journalists are hired to play the game of presenting the class interests of the sponsors as national interest so that politics and power may be exploited to serve their aims. As a writer I am unable to free myself of the guilt of realising that I neither have any role in what is happening around me nor do I have any say in this. We reassure each other that the creative artist is a genius – we don’t know we derive inspiration from which past and then merge into which future. Because my intrinsic capital that Door Darshan and journalism are eating into bit by bit, is my sensitivity. The shattered life-board, to which I am clinging in this stormy sea in the hope of surviving, is being slowly chipped off by these two crocodiles- while one is continually rendering my language meaningless and hollow, the other is doing the same to my imagery. Creative language demonstrates its power and meaningfulness in multiple possibilities and allusion. On the other hand, journalistic language and fact narration is married to uni-diractionality and superficiality. Similarly, visions awaken my memories and imagination. But television pictures imprisoned in frames drown me in the insensitive ghost world of dead shadows. Like this, one has deprived me of my language and the other my imagery, because both are monopolised by power and property. Whenever I write anything, the sting of its artificiality and lack of truth makes me uncomfortable.

The explosion of media has definitely made me knowledge-able but not wise. In the process of losing my memory and imagination I have realised that I don’t have any vision. No personal dreams, no social Utopia. Which is that rope and ladder that will pull me up from the dark abyss of the present towards light? Sometimes I think that this energy may come only from memories and experiences. May be, during the quest for my roots I am able to realise my dream that will become my future. I start examining my roots. My personal life is not purely mine, it is a mixture of many things. The times and the society that have shaped us has, one knows not, how many traditions and how many myths. To understand them the story writer in me looks towards the previous generation. Towards those respectable personalities who spent three-fourth of their life in a slave India and brought us into the new India, may be in understanding them I can free myself from personal nostalgia and get the insight to see the best in me. The truth is that to avoid the pain of disillusionment, I have always avoided looking at them objectively.

I know that my idols are so fragile that they will collapse at mere touch. This apart, the values of these old people can give me only reverence, curiosity or a feeling marvel. Are we to preserve them as collector’s items just as we had inherited them? In other words, strange dresses, hair styles, hats, middle class servile people sitting by the side of some English or Indian officer or standing around them with an imprint of success on the face, in the background of flower pots or varandahs. All this was so foreign, strange, and laugh-able. Fading pictures in Sepia tone – to live feudal contradiction and double standards in the same breath never bothered them, never stopped them. They proclaimed allegiance to feudal belief and took advantage of illegal gratification, because they never examined their old values and beliefs, never questioned them, only accepted them religiously. What they earned themselves was the ego of carrying forward the past. I view them as persons classified into dishonest and bribe takers, dogmatist, and believers in inequality, traditionalist, insensitive towards servants and women, and time-servers. They had no interest either in the struggle for freedom going on in some urban centres or in the future of those who were leading it; if anything they were opposed to it. Their general belief was that these dhoti-clad could not touch the British Raj, the Raj that had subdued Germany and Ja-pan – this was the common belief during the period of two world wars. These people lived under the protection of the terror of colonial empire and derived inspiration from it. In their own way they were themselves unbridled dictators. We had started our attempts to understand the new age and our efforts to enter it only after rejecting these people and freeing ourselves of them. I can pity their limitations and slave mentalities, but have no respect for them. The quest for roots takes me from this immediate past to-wards the past of the Nation and Society: towards religion, culture and history… If you pardon me, I do not find anything acceptable or worth following there also. The values and beliefs of a spent and backward society are unimportant and irrelevant to me. I can eulogise them, but I can not follow then. To somehow try to modernise some characters or thoughts or situations, by hook or by crook is as big a lie as to plant today’s values and beliefs on them. It will be a betrayal of both the periods. What was yesterday is impossible today, and what is today was not possible then. Those people were the product of their circumstances, and I am today’s. If I look towards that period for a solution of my questions, it will be a simplistic journey and if they visit us as a ritual or a ghost they will distort my life and my view. To impose the bygone values on the present means closing the doors to the future. What do the mythical beings give me except the satisfaction that they also had lived in some such circumstances and problems? Apart from the idle satisfaction that “they had also lived in similar situations and problems”, what else do history and the mythological characters give me? While borrowing both these from there, am I being honest towards mythology and history – don’t I deface and create according to my whims? And then, what is history and historical proof? Antiquity and history always appear to me as a crafty ‘Government witness’ who can be made to say anything. They are always ‘eye-witness’. Both the parties can prove their point time and again ranging between naked communalism and great liberal humanism. They are magical law books quoting from which an able lawyer can get me off a charge of murder and the other one can get me a death sentence.

Probably this is the reason that some authorities have always taught us that Indian history is basically the history of values and principles and not that of incidents and persons. I can be proud of this exception, but in the light of all my knowledge this sounds utterly unscientific. Every thought, every concept is the product of its circumstances. It is another thing, though, that once established it develops and fructifies autonomously, and in this process it becomes more and more abstract or metaphysical. It is like a barren cloud that moves along the earth, but one can neither depend on its shade nor can one expect rain from it. Earth may or may not derive any benefit from it, it does become a play field for some whole timer philosophers and thinkers for their intellec-tual game. Lord Buddha may have established a dharma for human welfare and compassion, but for thousands of years the picture of Baudh Dharma in our mind is that at some distant place there is some Vihaar where groups of Bhikkhus are all the time trying to find the answers to the questions of life and death, trying to unlock the mysteries of birth and rebirth – the magical atmosphere of the awe of supernatural. There remains no contact with the lives of countless people who are born and who die, nor do they return to this world to test their knowledge. Hindu Dharma does not even recognise the need for any Sangh or collective dialogue. Its only aim is individual attainment and moksha.

Here I try to convince myself. All right, since I can not make my history, my present, or future. And, nor can the past heroes be my ideals – let them remain where they are and continue to inspire my wonder, reverence, and respect. In sum, Indian culture and thought must contain something that is my guide today, which is relevant and worth accepting, something that can be the foundation stone of my society. I am told at this point that serv-ice, scarifies, and dedication are the only highest cultural values which can be of help in constructing a peaceful society. Service, sacrifice, and dedication are the positive moral values which India can present with pride for the benefit of the world, I am reminded.

Here my mind is troubled with some other questions. Every next age has questioned the old one as to how people tolerated injustice and oppression silently. I am surprised most of all by two things – Greek philosophy art are to-day accepted as highest human achievement. When thousands of slaves were crucified, were beaten raw with cats, were made to carry huge stones, or had to fight bare hand with bears and tigers, the philosophers of Greece would be en-joying jokes, showing the gift of the gab and trying to solve the delicate questions of philosophy and art, ad-miring sculptors – what were they made of. It is said that well known Greek philosopher Cicero used to deal in slaves and ran their training centres, Michelangelo used to crucify slaves so that they may feel the pain of Christ in their lifetime.

Secondly, I do not understand the life of the feudal lords in our own country. For not doing begaar, for not paying rent, or for some disobedience or disrespect the muscle men breaking the bones of the low caste persons, or scores of men being beaten raw or being hung upside down with burning chillies under them, or wives and daughters being raped in the presence of husband or father, or excreta being stuffed into the mouth. In the midst of these things, how can one forget oneself in prayers to God – how can one get lost in the finer nuances of poetry and music…? How can one continue the discourse and perusal of art and philosophy? No, the eternal values of Indian culture that we are all the timed hoisting proudly are not so innocent and liberal. These are not principles that are a product of the affection and mutual understanding, rational discussion of two equal parties. These are feudal values. I hear in the background the helpless cries, the suffering moans, the blood letting from inhuman killings and rapes of thousands upon thousands of persons. We condemned crores of people to serve us in the name of service, sacrifice, and dedication; we compelled them to serve and sacrifice under duress, we roasted them in the fire of our pride. We perfected the philosophies and weapons to keep them dedicated to us and to remain our slaves. We have killed, burnt, or compelled countless women, harijans, or dalits to live the life of animals just because their birth was not of their choice. They had a body they had not opted for. We have hammered into their psyche that this is the result of their Karma and their fate is to serve us, to sacrifice everything for us without expecting anything in return and the fulfilment of their life is in unconditional loyalty to us. We made them sacrifice their present. The allurement of heaven and fear of hell! How barbaric, cruel, and atrocious is the attitude that some people’s lives depend upon our likes and dislikes. And they internalise the idea that the culmination of their life and death is in our service. This is the fulfilment of a duty. So they may not have any complaint, we accept their sacrifice in the name of God! This becomes an ideal for compelling others also to do the same. How can the values of such people be my ideal today? How can the values of the people who, not only for justifying the cruel-ties, atrocities, and barbaric exploitation but also to gloss over the resultant mental unrest, take to renuncia-tion and the shelter of God, be the ideals in to-day’s world?

One may reluctantly accept them. But today all those feudal restrictions are changing, democracy is making its appearance – whatever humanity has saved as best and great after all the upheavals, will form the basis of the future society… Thing are not bad only, they have a bright aspect also. But, here I can not restrain myself from another thought. A few years ago, I had read a discussion in the Time magazine of America. The discussion was between two groups of doctors. When the Nazis started killing Lakhs of Jews in the Gas chambers as the ‘final solution’, some Nazi doctors thought that they could select some of them for their medical and scientific experiments. Those selected were going to die anyhow, therefore, they could be subjected to fatal experiment and the results could be recorded for posterity. Experiments were conducted on thousands of women and men, old and young. The American doctors were discussing whether the result of these medical or scientific experiments should be accepted as a gain of the human mind without raising the point that any values of ethics or cruelty were involved in them. Exactly the same question troubles me: should the great achievements of sacrifice, service, dedication, etc., culled from inhumanities of the feudal order, be viewed as the eternal achievements of Indian culture or should we develop our own values in today’s world?

Same old question! What is the way out? Neither history nor geography help me! Do rivers, oceans, mountains, fields, and changing seasons constitute a nation? Nationality and nation appear to me to be false and a political slogan of vested interests. Which Nation? Of Ashok, of Kanishika, of Akbar, or of the British? Till 60, 70 years ago we used to include Ceylon and Burma in the map of In-dia. An attack on Lahore or Dacca appeared an attack on our nation – today with the narrowing of national boundaries nationhood also has become confined to these narrow boundaries – one does not know how much land mass will be left tomorrow to incite our feeling of nationhood! How can the pride of this changeable nationhood be the basis of my emotional world, which is ever restless for expansion? How can I free myself of inner contradiction when I history confronting one another? All right, leave aside the past… we had some dreams or vision to mould our present into future and we were fighting for a society, were trying to tackle the exploitation of labour, class-conflict, and unequal distribution by a proletarian revolution. Was there any academic, writer, who was not moved by this dream? But slowly, be-fore our own eyes, all these dreams started crumbling.

A cry started rising that Marxism had failed – Capitalism had defeated it. All this was happening around us and we were unable to digest it. How can Marxism fail? The most scientific philosophy that had changed human history in a hundred years, the central philosophy of the 20th century that had divided the whole world into the two camps, for and against humanism – how can it fail? There is some-thing wrong somewhere. What went wrong in its practice that history has started retracing its steps. I believe even today that as long as the word ‘exploitation’ exists in the dictionary, Marxism can not die. Which is the point of view, other than dialectical materialism, that holds the key to understand history, society, power, and transformation in such a scientific way? Is history merely the other name of unrelated incidents, the story of upheavals of states and empires, or of the chain of chance events? What other ‘atom-bombs’ does the third world have except the philosophy of Marxism with which it can fight the feudal-colonial past and the assaults of capitalism? Are not all the freedom struggles in the world being fought with this lone weapon? Which weapons other than this philosophy were at the disposal of Russia, China, Cuba, and Vietnam? But why did this philosophy try to understand the circumstances here at home only in a bookish manner and continue to believe that if economic inequalities are removed, a socialist system will automatically take shape – that it is necessary only to understand class interests and to accelerate class conflict. But it forgot that in India there is also the basic truth of varna-vyavasthaa and its religious sanction: this fact was totally over-looked. In other words, with all its conceptual revolutionary zeal, it could not re-shape the society from with-in.

 But who are the people who will continue this struggle? It is believed that all revolutionary thought, all pronouncements of freedom, equality, brotherhood are born in the minds of the middle class. Though the bourgeoisie despises it and itself despises the proletariat, this is the class, which analyses and dreams, leads. The middle class in India is neither small nor weak. For the last hundred years all of us have been the product of this class, but when I try to look towards it for a ray of hope, the picture becomes hazier. One sees a rat race from below upwards, from the village to the city, and from the top to across the seas. There would be a rare educated middle class family from which one or the other member has not gone over to Europe or America. Once in a while some of them visit the country, lament over the conditions here and go back. Are we all not responsible for this? Most of us had started our lives in conditions of economic scarcity – worked part-time, completed our education with the misty dreams of changing the society. We wanted to change the social structure, but became a victim of the vicious circle of affluence. Protecting our children’s future from these difficulties and denials be-came our main concern. Whereas we used to wait for months for a bicycle or a fan and used to celebrate the acquisition of a radio, we started thinking in terms of small families so that we may give better facilities and education to next generation. We fulfilled all their needs, sent them to costliest schools, and gave them whatever they wanted. Their lives were far better than our child-hood. But this, is how we poisoned their mind and the result of which we are suffering to day. We have deprived them of struggle, initiative, by giving them facilities and protection. We developed our values through struggles and we have deprived the next generation of its sensitivities by eliminating the capacity to struggle with the result that the next generation became ‘receiver’- what was being given to them that was coming from where and how this was no longer their concern. Facilities given to them were the result of bribe, treason, black-marketing, smuggling did not bother them. Why would this consumerist generation, devoid of any values and a product of a bro-ken culture, think about nationalism, why would it pay any attention to social inequalities and the differences of wealth and poverty? Why would it entertain dreams that talk about ending exploitation? For us it may be treason, anti-social, or inhuman – for them it is a life-style of facilities. In this valueless and unrestrained world murder, violence, drugs, dowry, foreign junkets everything is acceptable. We have fashioned a licentious consumerist class to which country, culture, and society do not mean anything. This group is almost traitor, uncultured, and anti-social. It does not have a language of its own and has no sensitivity.

We are ourselves responsible for this generation. Have we understood our country and society?

When there was a bar-rage of charges that we did not understand our roots, our culture, and our history – we were living ideas borrowed from the west – the roots that we got hold of were horribly hollow. Here, the first truth that I faced was that the ideas that we adopted during the past 150 years were all western – modernism, humanism, democracy, national-ism, Marxism, existentialism, and now post-modernism. None of these is rooted here. The mockery is that our middle class adopted all these ideas only at the intellectual level, these neither became a part of our practices, nor the asis of behaviour. In social life, in the work place, and at home in the family structure there continued the old feudal pattern. All these ideas from the rest of the world did not change us, simply diverted our mind. Whatever we had adopted in the name of culture that also was Western and was given by colonial imperialists. Ed-ward Said has analysed it in detail in his book Oriental-ism. “India has a past, but no history”- proclaimed the Europeans and the British. They discovered our mythological, religious, and philosophical works, languages, ruins, cave paintings and established their authenticity – constructed a grand past – so that we become engaged in singing their praise or become engaged in spiritual quests while they engage in plundering, killing, and breaking us.

The new version of this orientalism that was presented as the only solution of all the problems was given the name of cultural nationalism, that is, one nation, one religion, and the rule of one party. This was another face of communal religious state. History was rewritten to suit it, culture was redefined and regeneration of the past was established as the dream for the future. The biggest enemies of the greatness of the country were declared to be Islam and Christianity. Culture is defined today with reference to these two enemies. In this context, there is no denying the fact that cultural nationalism in its core is another name for Manu’s varna based feudal social structure and is the agenda of Hindu dictatorship. Hindu varna system is the sworn enemy of democracy or socialism. While the minorities, in order to preserve their separate identify and for collective security, take refuge in religion, the communalism of the majority establishes Fascism. Both feed on each other. Feel endangered from each other – one considers it a danger to religion and for the other it is a danger to the nation. This atmosphere of terror and lack of confidence goes on making both more and more strident. To quote Premchand, here communalism comes in the garb of culture and nationalism. “Cultural nationalism” is the process of islamization of the Hin-dus. Is minority complex. Its theorists, like Golvalkar, have talked about, in clear words, as freeing the nation from the lowly and the other religions (mlecchh aur vidharmi) and have praised Hitler for having dared to do this. If these minorities have to live in our country, they should live as second grade citizens and should not talk about rights, status that belongs to the majority. This is what the Sangh Parivar is trying to teach the Muslims and Christians through the language of murders, arson, riots, and the destruction of religious places. It is itself the victim of insecurity-complex of the minorities and of majority arrogance. At the family level, Hinduism is democratic and majoritarian, but for co-religionists it is intolerant, inhu-man, and cruel. ‘Maunvadi cultural nationalism’ does not give to Dalits, women, and tribals the rights that are available to those within the Varna system and to men. They will have to stay at the place that has been deter-mined for them by our great culture. If under the bad and corrupting influence of the west they raise their voice, their habitats will be burnt; they will be killed collectively and individually and will not be allowed to observe any family-social function in the manner the upper caste people do. As far as women are concerned, what can they do? In every family they exist as slaves – we will keep them as we like – they will be denied education and legal and Constitutional rights – they should produce children, should look after the household and should feel obliged – otherwise, they have to suffer death, rape, ex-pulsion. This is the language of the scholar in every religion.

The Marxian precept that “Religion is opiate of the proletariat” inspires me to run free of every religion and every history. I try to be agnostic and secular. But, then I find that I have become a stranger to the religious Indian masses. On the other side, in trying to be above religion I find myself supporting every religious bigotry, fixity of ideas, blind faith, and inhumanity – if the attitude of being religion-neutral (sarva-dharma samabhaava) is not cowardice, what else is it? How can this barbaric savarna (within the Varna classification), male dominated cultural nationalism, which does not give either equal rights or civic rights to eighty percent persons, be my ideal. It something that imposes the thought, literature, art, history, of the few. No, all this gives me neither any solution, nor shows any path – neither a scientific understanding of the past nor the dream of the future. There is no way out for me with-out freeing myself of this culture and this past.

I am in a blind alley where there is no past, no future, there is no history and no geography – where everything is undependable, untrustworthy, and ethereal. The biggest tragedy is that I was never bound, like the existentialists, to the idea of “now and here” with an intensity and despondence that I may cut to pieces my soul, make my ir-rationality, or absurdity a philosophy, and use it as a weapon; that I may get rid of my fake beliefs and dreams like a peel, to feel free…. I still feel the lack of belief and yearn for a vision. Then, is this my end and is this what the western thinkers have termed the end of history, society, humans, and ideologies? I fear may be I am stuck here and the human caravan is going forward by some other route? Has history faced such a situation before also?

I remember- Bhakti movement – that is the biggest national level ‘cultural revolution’ of the recorded Indian history. This is what had happened when the reigning varna system had started giving stench like that from trapped waters. Then, this very religion and devotion was used by the lower, disadvantaged, and deprived sections to raise their collective voice and to present it as an alternative; to give dynamism to history – there were weavers, chamaars, carpenters, dyers, women – those productive classes that had been pushed to the margin by the parasitic forward classes – there were the likes of Kabir, Tukaram, Raidas, Meera, Sehjo, and others. These were the people who rendered irrelevant and useless the entire monopolist, centralist, elements.

Surely, at this juncture of history the same producer worker deprived classes will show us the way out from this stench – are doing so. Our roots are neither in any religious text, nor in any historical ruins – they are where there is labour, demand for equal rights – there is democratic openness, and where there is collective uprising against the oppression of thousands of years… I will end with these lines from Dinkar, “where there is plurality, the idols of war weep – all the wars of world are attempts at unity.”

Courtesy PUCL

स्त्री विमर्श: इससे दयनीय कोई दूसरा विमर्श नहीं है हिंदी में: वीर भारत तलवार

मैं स्त्री सवाल पर आपसे कुछ बातें करना चाहता हूं। दलित विमर्श और आदिवासी विमर्श ऐसा विमर्श है, जो हिंदुस्तान में ही चला,  किस वैश्विक आंदोलन या विचारधारा का अंग नहीं बन पाया। लेकिन स्त्री-विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है। लेकिन विडंबना कि  बात यह  है कि हिंदी में जो स्त्री विमर्श चल रहा है, उसका इस वैश्विक विचारधारा से बहुत कम लेना-देना है, नहीं के बराबर है। एक-दो अकादमिक लोगों की बात नहीं करता हूं, जो इस चीज के बारे में ज्यादा जानकारी रखते हैं। हिंदी में जो स्त्री-विमर्श चलता है, जिसमें मैत्रेयी पुष्पा और लता शर्मा और मनीषा और रोहिणी अग्रवाल जैसे लोगों को हम पढ़ते रहते हैं। ये लोग सबसे ज्यादा मुखर हैं स्त्री विमर्श पर, तो लगता है कि स्त्री विमर्श से दयनीय कोई दूसरा विमर्श नहीं है हिंदी में। यानी एक तो इस स्त्री विमर्श का कहीं भी उस वैश्विक विचारधारा के विकास से, उसकी सैद्धांतिकी से जो इतने वर्षों से विकसित हुई है दुनिया में, कुछ भी लेना-देना नहीं है। पश्चिम में नारीवादी आंदोलन की एक लंबी पंरपरा रही है, सैकड़ों वर्ष की। मताधिकार आंदोलन (Suffragist movement) उन्निसवीं सदी से चला आ रहा है। आज वहां इतना जो कुछ भी हासिल किया गया है, लड़ कर किया है, समाज लड़ाई से बदलता है, आंदोलन से बदलता है, सिर्फ कानून बनाने से नहीं बदलता है समाज। इसलिए पश्चिम में स्त्री के अधिकार की चेतना बिल्कुल नीचे तक गई है। हिंदुस्तान में स्त्री-मताधिकार के लिए 1918 ई. में कांग्रेस ने एक बैठक बुलाई और एक प्रस्ताव पारित कर दिया कि स्त्रियों को भी मताधिकार दिया जाएगा और पारित हो गया,  मदन मोहन मालवीय को छोड़कर सबने उसका समर्थन किया। पारित हो गया। यहां किसी स्त्री में यह चेतना जगाने की जरूरत ही नहीं पड़ी कि तुम्हें मताधिकार हासिल करना है और इसके लिए तुम्हें लड़ना है। बैठे-बैठाए सब मिल गया। रावण न मरा, लंका न जली, खुद घर लौट आई जनकनंदिनी। तो इस प्रकार का जहां आंदोलन होगा, वहां कोई चेतना नहीं हो सकती है। स्त्री विमर्श को लेकर इतनी महत्वपूर्ण सैद्धांतिकी का विकास हुआ, 1970 के दशक में ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ नाम की एक किताब लिखी गई थी और अभूतपूर्व क्रांतिकारी किताब थी। ये जो स्त्री पुरुष आपस में सेक्स संबंध बनाते है, सेक्स करते हैं, वो सेक्स संबंध असल में एक पावर डिस्कोर्स होता है उसके बीच। पुरुष किस प्रकार से इंटरकोर्स करता है, उसका क्या नजरिया होता है, क्या हरकतें होती हैं उसकी,  कौन से शब्द बोलता है उस समय, किस भाषा में बात करता है, यह सब एक पावर डिस्कोर्स है। पहली बार इतने डिटेल में उन्होंने इस चीज को रखा, कि सेक्स सिर्फ का आनंद नहीं, उसके अहं की तुष्टि का, उसके पुरुषार्थ की तुष्टि का भी आनंद है और वह स्त्री को एक पैसिव चीज समझता है जिसका खंडन बहुत पहले सिमोन द बोउवा कर चुकी थीं- सेकेंड सेक्स लिखकर कि सेक्स में स्त्री पैसिव नहीं होती है। लेकिन पुरुष उसी को मानना चाहता है कि पैसिव ही है। और वो एक पावर डिस्कोर्स करता है। इस तरह की किताब 1970 में लिखी गई। हिंदी में कोई इस चीज की चर्चा नहीं करता कि सेक्सुअल बिहैवियर में हमारा पावर डिस्कोर्स क्या है?DSC_0106

इसी प्रकार से 1980 के दशक में मुझे याद है, जब मैं नारीवादी विचारों की ओर झुका, तो बड़ी महत्वपूर्ण किताब आई थी और हम सब वामपंथी उसको पढ़ते थे, Sheila Rowbotham की किताब थी- Beyond The Fragments. Sheila Rowbotham की किताब थी। Sheila Rowbotham एक यूरोपियन मार्क्सवादी हैं और यूरोपियन मार्क्सवादियों ने नारीवाद को लेकर भी बहुत सारी सैद्धांतिकी का विकास किया। दुर्भाग्य से कुछ भी जानने की जरूरत हम महसूस नहीं करते। उन्होंने एक नई कान्सैप्ट दी। उन्होंने कहा- Prefigurative movement यानी प्रारूप आंदोलन। हम कैसा समाजवाद लाना चाहते हैं, उस समाजवाद में स्त्री-पुरुषों के हम कैसे संबंध बनाना चाहते हैं, उसका प्रारूप आंदोलन हमें करना चाहिए। हम अपने संगठन में पहले उसके प्रारूप का प्रयोग करें, अगर हम उसको लाना चाहते हैं तो। इस  Prefigurative movement की कान्सैप्ट उन्होंने दी थी। हिंदी के नारीवाद में, नारी विमर्श में कहीं भी इस तरह की किसी अवधारणा का जिक्र आपको नहीं मिलेगा।

हिंदी में जो नारी विमर्श है उसकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह सिर्फ साहित्यिक दायरे तक सिमटा हुआ है। उसके बाहर कुछ एनजीओ स्त्रियों के नाम पर चल रहे हैं, वो चल रहे हैं, लेकिन कोई नारीवादी आंदोलन उनके बाहर नहीं दिखाई देता है। सामाजिक आंदोलनों से इस चल रहे नारीवादी विमर्श का क्या संबंध है? कोई संबंध नहीं है। इतना बड़ा जो अभी आंदोलन हुआ दिल्ली में 16 दिसंबर के रेपकांड के बाद उसमें स्त्री संगठनों की क्या भूमिका थी? मैं आपको एक तुलनात्मक उदाहरण देता हूं। 1970 के दशक में महाराष्ट्र में मथुरा रेप केस हुआ, एक मशहूर रेपकेस है, जहां पुलिस कान्सटेबल ने मथुरा के साथ रेप किया, एक दलित स्त्री के साथ, और सुप्रीम कोर्ट तक ने बरी कर दिया उन कांस्टेबलों को कि ये लड़की जो है, चरित्रहीन है। उसी के बाद कानून में बदलाव हुआ कि लड़की के चरित्र का सवाल नहीं उठाया जाएगा। इस केस के खिलाफ बड़ी जागृति हुई और उसमें वो सारी जागृति का श्रेय बंबई के नारीवादी संगठनों को था। उन्होंने रेप और ऑपरेशन के खिलाफ एक फोरम बनाया और उस फोरम को आधार बनाके डेढ़ सौ-दो सौ कर्मठ नारीवादी कार्यकर्ताओं ने मिलकर इस आंदोलन को खड़़ा किया जिसका प्रभाव बाद में दिल्ली, कलकत्ता सब जगह पड़ा और 8 मार्च वीमेन्स डे के दिन वह आंदोलन देश में भी फैला। स्त्री संगठनों की वजह से फैला। इस बार दिल्ली में जो आंदोलन हुआ इतना बड़ा, इसमें स्त्री संगठन थी नहीं, फिर भी यह आंदोलन इतना फैल कैसे गया, जबकि महाराष्ट्र का मथुरा केस का आंदोलन इतना नहीं फैला। उसकी बहुत बड़ी वजह थी ये कि वो सिर्फ स्त्री संगठनों का आंदोलन, जिसको कोई राजनीतिक सपोर्ट नहीं था महाराष्ट्र में। लेकिन इस आंदोलन में ये जो भारत की कम्युनिस्ट पार्टी- माले है, इसका जो स्त्री मोर्चा है, ऐपवा, उसकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका थी, खासकर उसकी नेता कविता कृष्णन की। तो इस राजनीतिक समर्थन की वजह से यह  आंदोलन इतने बड़े जनांदोलन में बदल गया और पूरे देश में फैला। तो पोलिटिकल सपोर्ट एक मूवमेंट को कितना फैला सकता है, अगर वो मिल जाए उसको, इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है यह मूवमेंट।

बिना स्त्री संगठन के ये हिंदी में नारीवादी विमर्श जो लोग चला रहे हैं, वो कहीं इस आंदोलन के नेतृत्व में नहीं थे, जो कि दिल्ली में हुआ। जुलूस रोज-रोज नहीं निकलते हैं, लेकिन विचारधारात्मक संघर्ष रोज-रोज होता है और होना चाहिए। विचारधारात्मक संघर्ष कई रूपों में होता है। साहित्य में होता है, कला में होता है, संगीत में होता है,  तरह-तरह के सृजनात्मक प्रयोगों में होता है। नारीवादी विमर्श उसी प्रकार का विमर्श है।

महाराष्ट्र में मैं आपको बहुत हाल का उदाहरण दूं। डॉक्टर अंबेडकर की बनाई हुई एजुकेशन सोसाइटी का एक कॉलेज है, कॉलेज ऐंड कॉमर्स ऐंड इक्नोमिक्स, वडाला में। वहां की जो वाइस प्रिन्सिपल हैं डॉक्टर ललिता, उनहोंने एक कैलेंडर बनाया है, जो मेरे पास भेजा गया है और जिसको मैंने सबसे आगे बढ़के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले आइसा को भेंट किया। वह कैलेंडर जेंडर इक्विलिटी के सवाल पर उन्होंने बनाया। हर महीने के पेज पर स्त्री से संबंधित मुद्दों को उठाया गया। उसकी क्लिपिंग दी गई और फिर मांग रखी गई और नीचे तारीख दी गई। बारह महीने आपको याद दिलाया जाएगा, स्त्रियों के सवाल पर आपका नजरिया कितना गलत है और क्या होना चाहिए। और उन्होंने एक नारा भी दिया, बहुत अच्छा, जिस प्रकार आइसा ने एक नारा दिया स्त्री आंदोलन के बारे में- बेखौफ आजादी, स्त्री के लिए बेखौफ आजादी होनी चाहिए, जहां भी वो जाए वहां वो सुरक्षित रहे, तो फ्रिडम विदाउट फीयर, उसी प्रकार से उस कैलेंडर में भी एक नारा दिया गया, वो भी उतना ही सही है- वीमेन्स राइट इज ह्यूमन राइट। स्त्री के अधिकार मनुष्य के अधिकार हैं, इस नारे के साथ वो पूरा कैलेंडर है।

अभी महाराष्ट्र में एक कार्यक्रम हुआ, ज्योतिबा फुले की पत्नी सावित्री बाई कविताएं लिखती थीं। स्त्री-चेतना जगाने के लिए, बहुत सारी कविताएं उन्होंने लिखी हैं। उन कविताओं पर महाराष्ट्र की एक स्त्रीवादी कलाकार झेलम परांजपे ने एक नृत्य नाटिका बनाई। हिंदी में किसी नारीवादी कलाकार ने बनाई हो एक भी नृत्य नाटिका इस प्रकार की या एक भी कैलेंडर इस प्रकार का बनाया हो, तो बताइएगा! महाराष्ट्र की एक नारीवादी मित्र कहती हैं कि स्त्री विमर्श तो बहुत हुआ, अब पुरुष विमर्श होना चाहिए। पुरुषों को भी बहुत कुछ बताने-समझाने की जरूरत है। दरअसल उन्हीं को बहुत कुछ समझाने-बताने की जरूरत है। ये बात हंसी की लग ही है आपको, लेकिन ये बात बहुत ही गंभीर है और बहुत वास्तविक है। महाराष्ट्र में जब 80 के दशक में मथुरा रेप केस को लेकर स्त्रीवादी आंदोलन या संगठनों ने आंदोलन किया, उनके बहुत से वामपंथी पुरुष मित्र बहुत प्रभावित हुए और इन वामपंथी पुरुषों ने मैन अगेंस्ट वायलेंस अंगेस्ट वीमेन- स्त्री पर होने वाली हिंसा के विरोधी पुरुषों का संगठन बनाया। काउंसलिंग एक चीज होती है, जो देखिए बहुत जरूरी होती है, और वैचारिक संघर्ष को आगे बढ़ाती है। एक-एक इनडिविजुअल से संपर्क करके स्त्रियों ने रेप के खिलाफ फोरम बनाया। उसमें वो क्या करती थीं? उससे मिलती थीं, उससे बात करती थीं, उसके अंदर की हीनता को दूर करती थीं, उसके अंदर के शर्म को दूर करती थीं, उसके गौरव को जगाती थीं- तुम्हारा कुछ नुकसान नहीं हुआ, तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है, अपराध हुआ है, तुम लड़ोगी, हम तुम्हारे साथ हैं, ये सब काउंसलिंग करती थीं उसकी। और ये पुरुष क्या करते थे, जिन पुरुषों ने संगठन बनाया? जो पुरुष औरतों से इस प्रकार बर्बरता से पेश आते हैं, उन पर हिंसा करते हैं, अपनी पत्नियों को पिटते हैं, बलात्कार करते हैं, उनके घर जाकर उन पुरुषों से मिलकर उनकी काउंसलिंग करते थे, कि तुम क्या गलत कर रहे हो? तुमको समझना चाहिए। मैं इसी चीज की बात कर रहा हूं कि एक वैचारिक संघर्ष को आगे ले जाने के लिए पचासों तरीके होते हैं। वो तरीके हिंदी क्षेत्र में, हिंदी के नारी विमर्श में कहां हैं? हम कितनी उथली और सीमित जमीन पर खड़े होकर ज्यादा बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं?

हिंदुस्तान में संस्कृति को बदलने की लड़ाई शुरू हुई है 16 दिसंबर के आंदोलन के बाद से। हमारे देश के समाज की जो संस्कृति है, इसमें बहुत गहरी बुनियादी तब्दीलियों की जरूरत है। खासकर संस्कृति की सबसे बड़ी समस्या स्त्री के बारे में नजरिया है। उस नजरिये के बारे में कोई चेतना नहीं है हिंदी के स्त्री विमर्श में। हिंदी का स्त्री विमर्श, कुछ स्त्रियों की जिनका मैंने नाम भी लिया, इनके अपने पूर्वाग्रहों, विश्वासों और इनकी मांगों का एक विस्फोट होकर रह गया है। मैत्रेयी पुष्पा जिस तरह के लेख लिखती हैं और हम उनको पढ़ते रहते हैं, जिस प्रकार की वो आलोचना करती हैं, कौन संस्कृति है जो नारीवादी कहलाएगी? कोई औब्जैकटिव कैरेटेरिया नहीं है। आपको अच्छा लगा और आपके मन में यही बात है, तो वो नारीवादी है। मैत्रेयी पुष्पा ने हिंदी में जो नारीवादी आलोचना लिखी है, उसमें कामायनी को उन्होंने हिंदी की सबसे प्रगतिशील कृति बताया,  जो कामायनी बहुत सारे स्तरों पर सामंती संस्कारों से ग्रस्त कृति है। उस ‘कामायनी’ को आपने साबित कर दिया, आपको वो पसंद आया, आपके नारीवाद के कुछ तर्क हैं जिससे आपको लग गया। तो इसी प्रकार की आलोचना है। जो बुनियादी सवाल है, जो स्त्री की स्थिति को हमारे समाज में नियंत्रित और निर्धारित करते हैं, हिंदी के नारीवादी विमर्श में उनको नहीं उठाया जाता। ये कौन सी संस्थाएं हैं जो हमारे समाज में औरत बनाने का काम करती है? परिवार है, शिक्षा प्रणाली है, राज्य है, कानून है, धर्म है, कलाएं हैं, मीडिया है- ये सारी संस्थाएं हैं समाज की, जो मादा को स्त्री बनाती हैं। आप सभी जानते हैं कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है, मार-मार के बनाया जाता है उसको स्त्री। और ये संस्थाएं है जो स्त्री बनाती हैं उसको, स्त्री की स्थिति को तय करती हैं ये। इनकी कोई चेतना हिंदी के नारीवादी विमर्श में अगर हो तो कोई कहीं दिखा दे मुझे।

स्त्री विमर्श का एक बहुत बड़ा सवाल है मर्दवाद। इसकी क्या आलोचना है हिंदी में? मैं आपको बताउंगा कि कैसे अच्छे-अच्छे नारीवादियों ने मर्दवाद को कैसे आत्मसात कर रखा है। मर्दवाद जो स्त्री प्रश्न की एक सबसे बड़ी बुनियादी विरोध की अवधारणा है और उसके साथ स्त्रीत्व के सवाल पर आऊंगा। रोहिणी अग्रवाल हिन्दी की बड़ी नारीवादी आलोचक समझती जाती हैं। उन्होंने कई किताबें लिखी हैं। तस्लीमा नसरीन की एक कविता को उन्होंने उद्धृत किया है कि ये पुरुष जो है न स्त्रियों को खरीद के लाते हैं, घर में उसका मनमाना इस्तेमाल करते हैं और उसके बाद लात मारकर भगा देते हैं उसको। उसने कहा, मेरी भी इच्छा होती किसी लड़के को ऐसे ही लाऊं। और ऐसा ही उसका उपभोग करूं, मेरी बड़ी इच्छा होती है, लड़के खरीदने की, जवान लड़के, छाती पर उगे घने बाल, उन्हें खरीदकर, पूरी तरह रौंदकर, उनके सिकुड़े हुए अंडकोष पर जोर से लात मारके कहूं- भाग साले। ये कविता तस्लीमा नसरीन ने लिखी, एक नारीवादी ने। दूसरी नारीवादी ने आलोचना लिखी- कैसी आग उगलती कविता है, फायर गर्ल है तस्लीमा। अब तो उल्टा खेल खेलने की जरूरत है। पुरुषों को समझ में नहीं आता कि स्त्रियों को ऐसे रौंदकर जब हम लात मारकर भगाते हैं, तो कैसा महसूस होता है। हम उनको महसूस कराएंगे ऐसे। उनकी दुनिया में तभी हाहाकार मचेगा। मगर जरा ठहर के सोचिए कि ये एक स्त्री शोषण के सवाल पर एक तात्कालिक आवेगपूर्ण प्रतिक्रिया, एक उग्र प्रतिक्रिया के अलावा इसमें और क्या है? किस लड़के को खरीदकर ले आएगी तस्लीमा नसरीन? हमें आपको तो नहीं खरीद सकती? किसी कमजोर गरीब घर के, किसी आदिवासी-दलित लड़के को लेके आएगी, क्योंकि लड़कियां भी तो उसी प्रकार की पाते हैं पुरुष। तो आप एक कमजोर और गरीब लड़के को वैसे ही खरीद के ले आओगे, जैसे कमजोर और गरीब लड़कियों को लेकर कोई ले आता है? ये कोई नारीवाद नहीं है। ये एक घटना की प्रतिक्रिया हो सकती है, लेकिन इसी उग्र प्रतिक्रिया में आप उस मर्दवादी अवधारणा को आत्मसात कर ले रही हैं, जो मर्दवादी धारणा शरीर का इस प्रकार का उपभोग करके लात मारके उसको भगा देती है।

मर्द को मुक्त समझना और मर्द के जैसा बनने की कोशिश करना नारीवाद नहीं है। मर्दवाद अपने आप में घृणित चीज है। पुअर बॉय्ज़ डोंट क्राई- लड़के रोते नहीं हैं। हममें से कोई नहीं होगा, जिसने बचपन में एक-दो बार ये वाक्य न सुना हो। खेल से लौट के या झगड़े से घर जब भी हम आते थे, हमारी मां बहने कोई न कोई हमसे जरूर कहता था- ए लड़का होके रोता है। लड़कियों की तरह से रोने बैठ गया। हमें जो मर्द होना सिखाया जाता है बचपन से। ये मर्दवाद सबसे ज्यादा खतरनाक अवधारणा है, नर को मर्द बनाना, मादा को स्त्री बनाना, ये हमारे समाज की संस्कृति की बहुत बुनियादी समस्या है। न लड़के रोते हैं, न लड़कियां रोती हैं, मनुष्य रोता है। मनुष्य होने के कारण हम रोते हैं। ये स्त्री पुरुष का विभाजन सबसे झूठा और मिथ्या विभाजन है। ये उतना ही मिथ्या विभाजन है जितना मिथ्या विभाजन जाति का विभाजन है। तुमी देखो नारी-पुरुष, आमी देखी सिगोई मानुष- तुम हर जगह स्त्रियों और पुरुषों को देख रहे हो, मैं तो सिर्फ मनुष्यों को देख पा रहा हूं।

स्त्री पुरुष की अवधारणा एक झूठी अवधारणा है। दोनों मनुष्य हैं, दोनों ही की जरूरत एक है। दोनों की भावना एक है। शरीर की बनावट से इस चीज में कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए मैं समझता हूं कि हमारे देश में और पूरी दुनिया में संस्कृति को बदलने की जो लड़ाई है, उसका एक बुनियादी मुद्दा होना चाहिए स्त्री और पुरुष के विभाजन को खत्म करना। जहां भी स्त्री और पुरुष का विभाजन आप देखें, उसका विरोध करें। जिस प्रकार मर्दवाद एक झूठी अवधारणा है, जो नर को खूंखार बनाती है, उसी प्रकार स्त्रीत्व की अवधारणा भी इतनी ही गलत और बेबुनियाद अवधारणा है, जो स्त्री को घुटनाटेकु बनाती है। उन्हें स्त्री-पुरुष बनाके हम उनकी मनुष्यता को उनसे छीन लेते हैं।

आप जानते हैं ये रेप वगैरह जो है कैसे मर्दानगी का काम समझा जाता है। सावरकर ने एक किताब लिखी- Six Golden Epochs of Indian History भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम अध्याय। शिवाजी पर उन्होंने लिखा है कि शिवाजी जैसे महान प्रतापी राजा ने भी कैसी गलतियां कीं, जब उन्होंने मुगलों को हरा दिया और मुगल सेना भाग गई और उन सबकी स्त्रियां हमारे चंगुल में आ गई थीं, तब शिवाजी ने उनको अपने हरम में लाने और सबके साथ आनंद लेने के बजाए उनको मुक्त कर दिया। ये पुरुषार्थ की कमी शिवाजी ने क्यों दिखाई? आप सोचिए कि शिवाजी ने स्त्रियों का आदर किया, मुस्लिम स्त्रियों को, उनको छोड़ दिया, कुछ भी नहीं किया उनके साथ, बल्कि अपने सैनिकों से कहा कि वे इज्जत के साथ इनको घर पहुंचा आएं। तो ये शिवाजी ने पुरुषार्थ का काम नहीं किया! पुरुषार्थ का काम होता अगर वे उन सबसे बलात्कार करवाते अपने सैनिकों से। ये पुरुषार्थ की अवधारणा है! लेकिन ये पुरुषार्थ की अवधारणा हमेशा ऐसी खूंखार नहीं होती है। जो लोग बलात्कार की बात नहीं करते हैं, जो लोग यौन हिंसा की बात नहीं करते हैं, वे भी उतने ही मर्दवादी हैं। समाज में ऐसी संस्थाएं हैं, बहुत सी संस्थाएं, भद्र लोग, हमारे घर के लोग, वो थोड़े कहते हैं कि स्त्रियों से बलात्कार करो या उन पर हिंसा करो। वो कहते हैं- स्त्रियों के साथ अच्छा बर्ताव करना चाहिए। मर्यादा का पालन करना चाहिए और स्त्रियों को भी मर्यादा में ही रहना चाहिए। सबको अपनी मर्यादा का पालन करना चाहिए। ज्यादातर पुरुष समाज जो है यही बात करता है, इससे मर्दवाद में कोई फर्क नहीं पड़ता। ये भी वही बात कह रहे हैं लेकिन बहुत दूसरे तरीके से। मर्दवाद का मतलब ये नहीं कि वो जो बलात्कार करेगा और हिंसा करेगा, खूंखार रूप में तभी वो मर्दवाद होगा, नहीं, वो स्त्री से बहुत अच्छा बर्ताव करते हुए भी….

तुम घर में रहो, काम करो, बाहर भी जाओ, समय पर आ जाया करो बेटे। ज्यादा अंधेरे में बाहर नहीं रहना और देखो दोस्तों के साथ ज्यादा नहीं जाना, तुम आ जाओ घर में, हमलोग सब तुम्हारे साथ हैं। ये भी उसी चीज को बहुत अच्छे ढंग से कह रहे हैं। और बाहर जाओगी तो फिर…..अगर ये हमारी बातें नहीं मानोगी, इस मर्यादा को नहीं मानोगी, तो फिर वही होगा जो बाहर होता है और जिसके लिए वीर सावरकर ने कहा। तो एक ही सिक्के के दोनों पहलू हैं। इसी प्रकार से मैं कहना चाहूंगा कि स्त्रीत्व की धारणा भी उतनी ही बेबुनियाद है, जिसमें बहुत सारी स्त्रियां स्वाभाविक रूप से विश्वास करती हैं। स्त्रियों के अंदर करुणा होती है, स्त्रियां ममतामयी होती हैं। उनके अंदर अपने बलिदान की भावना भरी होती है- ये सब स्त्रियों को बनाया जाता है। इस प्रकार से उनकी मनुष्यता को, उनकी स्वाभाविक आकांक्षाओं को, उनकी स्वाभाविक प्रकृति को उनसे ही छीन लिया जाता है। उनको स्त्री के रूप मे ढाला जाता है। तो यह  मनुष्य की संस्कृति की बहुत बुनियादी समस्या है। और ये खाली समाजवाद के आ जाने से, खाली बुनियादी आधार बदल जाने से हल नहीं हो जाएंगी। संस्कृति की लड़ाई बहुत लंबी लड़ाई है। जब तक आप विचारधारात्मक संघर्ष इस पर नहीं चलाएंगे, आपसे वो कभी हल होने वाली नहीं हैं। माओत्से तुंग का जो आखिरी इंटरव्यू एडगर स्नो ने लिया था 72-73 के आसपास, उसमें उन्होंने माओ से पूछा- चीन में समाजवाद तो आ गया, ये बताइए स्त्री और पुरुष की बराबरी चीन में कब तक आएगी, आपको क्या लगता है? माओत्से तुंग ने कहा- चार-पांच सौ साल से पहले नहीं आने वाली।

मैं समझता हूं कि उसे आप चार-पांच सौ साल से भी ज्यादा सोच सकते हैं। क्योंकि यह संस्कृति की लड़ाई है। स्त्री विमर्श पूरे समाज के लोकतांत्रिक रूपांतरण और समाजवाद की भी एक बहुत बुनियादी लड़ाई है। अगर स्त्री विमर्श इस सवाल का सामना नहीं करता है, दो-चार नहीं होता,  तो वो कितना संकीर्ण रह जाएगा, हम समझ सकते हैं।

प्रो.वीर भारत तलवार

प्रो.वीर भारत तलवार

प्रो.  वीर भारत तलवार,  प्रख्यात हिन्दी आलोचक, जेएनयू में प्राध्यापक। उनसे virbharattalwar@gmail.com पर संपर्क संभव है। 

हैदराबाद में दिये गए व्याख्यान का अंतिम अंश।
साभार समकालीन जनमत 

आदिवासी विमर्श: धर्म, संस्कृति और भाषा का सवाल कहाँ है?: वीर भारत तलवार

BY वीर भारत तलवार 

आदिवासी विमर्श पर मैं विस्तार से बिल्कुल नहीं कहूंगा। हिंदी में जो सबसे नया विमर्श और सबसे कमजोर और थोड़ा सा मुश्किल विमर्श है, वह आदिवासी विमर्श है। आदिवासी विमर्श की स्थिति यह है कि मैं हरिराम जी की किताब देख रहा था कि कितने उपन्यास आदिवासियों पर लिखे गए, जो खुद आदिवासी लेखकों के चार उपन्यास उन्होंने बताए, हो सकता है थोड़ा और खोजा जाए तो पांच-दस हो जाएं, कुछ दूसरे लोगों ने भी आदिवासियों पर उपन्यास लिखे हैं। उनमें से कुछ उपन्यास तो सच पूछिए इतने आदिवासी विरोधी हैं, कि उनको क्या कहा जाए! आदिवासियों पर जो भी उपन्यास लिखे गए हैं, वो खाली रिसर्च करने वाले लोग उनको जानते हैं, उनको कोई पढ़ता नहीं है। कितने लोग पढ़ते हैं आदिवासियों पर लिखे गए उपन्यासों को और खुद आदिवासियों के लिखे उपन्यासों को कितने लोग पढ़ते हैं? पीटर पालीन का उपन्यास कितने लोगों ने पढ़े हैं या मंगल मुंडा का उपन्यास कितने लोगों ने पढ़ा है? अभी हाल में मैंने एक उपन्यास पढ़ा मलयाली भाषा का, नारायण, जो कि इडिकी जिले के हैं और पोस्ट ऑफिस डिपार्टमेंट में काम करते हैं,  उनहोंने ‘कोच्चारती’ एक उपन्यास लिखा। 1998 में छपा है। केरल साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला है उसको। और वो इतना महत्वपूर्ण उपन्यास है, और मैं समझता हूं कि उसे बहुत कम लोगों ने पढ़ा है। हम अन्य भारतीय भाषाओं की बहुत सारी रचनाओं को नहीं जानते हैं। हमारे देश में इतने महान उपन्यासकार हुए जिन्होंने आदिवासियों पर लिखा, उडि़या में हुए हैं, गोपीनाथ मोहांती के अमृत संतान और प्रजा जैसे उपन्यास। किस्सागो को नोबेल पुरस्कार मिल गया। यह उपन्यास अमृत संतान के आगे कुछ नहीं है। उनके पांच लोगों ने उनको पुरस्कार दे दी और उनको  तख्ती मिल गया। लेकिन हिंदुस्तान में आदिवासियों पर लिखे हुए उपन्यास को हिंदी का साहित्यिक समाज बहुत कम पढ़ता है। अभी मारंगगोड़ा और ग्लोबल गांव के देवता वगैरह की चर्चा चल पड़ी है। वर्ना इससे पहले बहुत कम हैं। ‘धूणी तपे तीर’ की बाजार में जो सफलता है, वो राजस्थान के एक बहुत बड़े आंदोलन से जुड़े होने के कारण है। लेकिन हिंदी में आदिवासी साहित्य को कितना आदरपूर्ण स्थान मिला है, यह उसका सबूत नहीं है।

हिंदी में आदिवासी विमर्श एक कमजोर स्थिति में है। उसके कारण बहुत स्पष्ट हैं। आदिवासी विमर्श करने के लिए आदिवासियों के बारे में जानना बहुत जरूरी है। और आदिवासियों के बारे में जानने के लिए उनके बीच जाना बहुत जरूरी है। हिंदी में प्रणय कृष्ण जैसे बुद्धिजीवी बहुत कम हैं जो आदिवासियों के सवाल को इतनी सहानुभूति और संवेदना के साथ समझने की कोशिश करते हैं। बड़े-बड़े लेखक हैं, जिन्होंने आदिवासियों पर कुछ लिख मारा है, बिना आदिवासी समाज को गहराई से समझे। मैं नाम लेकर कहूंगा कि महाश्वेता देवी का जो साहित्य है, वह आदिवासियों के बारे में सतही साहित्य है । बहुत दूर खड़े रहकर जो चीज दीख जाती है, वह यह कि उनका बड़ा आर्थिक शोषण होता है। वही ये लोग लिख सकते हैं। लेकिन उसमें आदिवासी समाज की आत्मा नहीं है। उसका अंतःकरण नहीं है। एक आदिवासी की मानसिक बनावट आपको कहीं नहीं मिलेगी। इसीलिए हिंदी में आदिवासी विमर्श हिंदी के साहित्यकार लोग नहीं चला सकते, क्योंकि उनको आदिवासी समाज का कोई ज्ञान नहीं है। और जिन लोगों ने लिखा भी है आदिवासी विमर्श के नाम पर, वो क्या लिखते हैं! आदिवासियों के विस्थापन के सवाल पर ही लिखेंगे, इससे ज्यादा नहीं लिखेंगे। दूसरी तरफ वामपंथी हैं जो  विस्थापन का सवाल भी इसलिए उठाते हैं, क्योंकि उनकी उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों और स्टेट से नफरत है, जो आदिवासियों को बड़े पैमाने पर विस्थापित कर रही है। अन्यथा, आदिवासियो की जमीन तो पिछले डेढ़ सौ सालों से जा रही है, कानूनी सूराखों की वजह से, कानून का पालन नहीं करने की वजह से। गवर्नर को सारे अधिकार हैं, लेकिन गवर्नर कुछ नहीं करना चाहता। आदिवासी समाज बहुत ज्यादा संकट में फंस चुका है। आज उसके पास समय ही नहीं है अपनी स्थिति को बदलने के लिए, अपने को बचाने के लिए। यह कवि की समस्या नही बनी। आदिवासी विमर्श का विषय नहीं बना। आज जब बहुराष्ट्रीय कंपनियां इतने पैमाने पर उसको उजाड़ रही हैं। आदिवासी लोग इस तरह से विमर्श नहीं करते हैं। आदिवासी के गांव मे समस्या होगी तो वो किसी पहाड़ या अखाड़ा में उनकी  पंचायत बैठेगी, विचार-सभा करेगी। अगर अर्जी देनी है तो अर्जी देंगे, नहीं तो फिर हथियार लेकर लड़ेंगे। आदिवासी विमर्श तो इसी प्रकार से होता है। लेकिन अंग्रेजी में कुछ लोगों ने आदिवासियों पर लिखकर के जो सनसनी और एक चिंता भी फैलाई है, उसमें कुछ पढ़े-लिखे हिंदी के लेखकों ने योगदान किया और थोड़े से पढ़े-लिखे आदिवासियों ने भी। लेकिन ये इस विमर्श के बहुत छोटे दायरे को सूचित करता है।chittaprosad

आदिवासी विमर्श के बहुत सारे मुद्दे अभी तक ठीक से उठाए ही नहीं गए हैं। जैसे आदिवासी संस्कृति का सवाल, आदिवासियों की भाषाओं का सवाल, उनके धर्म का सवाल कभी किसी ने नहीं उठाया। मैं आपको एक उदाहरण दूं, आदिवासी संस्कृति की कोई गहरी जानकारी गैर-आदिवासियों को नहीं है। उनका एक नितांत अलग दृष्टिकोण आदिवासियों की संस्कृति के बारे में बना हुआ है। इसलिए हम उस सवाल को उठा ही नहीं सकते। और मैंने जैसा कहा कि आदिवासी खुद उस प्रकार से विमर्श नहीं करते हैं कि एक विमर्श खड़ा हो। धर्म के सवाल को कभी भी उठाया नहीं गया। एक बुद्धिजीवी थे रामदयाल मुंडा, उन्होंने धर्म के सवाल को उठाया। उसका एक कारण है। रामदयाल मुंडा खुद एक पाहन के बेटे हैं, एक पुजारी के बेटे रहे और धर्म में उनकी बचपन से दिलचस्पी रही। उनके इलाके में खासकर हिंदू धर्म का काफी प्रभाव रहा है। लेकिन फिर भी वह हिंदू की ओर तो नही गए। ये एक अच्छी बात है। उन्होंने आदिवासी धर्म का ही सवाल उठाया। उनका प्रयास था कि हिंदुस्तान के तमाम आदिवासियों को मिलाकर एक उनका अखिल भारतीय धार्मिक स्वरूप खड़ा किया जाए। इसकी वजह थी। वजह यह थी कि हमारा संविधान कहता है कि आदिवासी इस देश के एक विशिष्ट सांस्कृतिक समुदाय हैं। उनका अपना वैशिष्ट्य है। वो एक विशिष्ट सांस्कृतिक समुदाय है, उसका कोई धर्म है भी या नहीं? हिंदुस्तान में सरकार के आदेश से जनगणना होती है उसमें आदिवासी का क्या धर्म लिखाया जाता है? उससे पूछा जाता है कि तुम हिंदू हो कि नहीं? मुसलमान हो, ईसाई हो, सिक्ख हो? नहीं? ठीक है, अन्य हैं। ‘अन्य’ उसका धर्म लिखा जाता है। अगर वो हिंदू नहीं है, इस्लाम नहीं है, सिक्ख नहीं, ईसाई नहीं तो वो ‘अन्य’ हैं। ये ‘अन्य’ क्या है? उसका कोई धर्म नहीं है और वो हिंदुस्तान का एक विशिष्ट सांस्कृतिक समुदाय है!

इस स्थिति को बदलने के लिए रामदयाल ने धर्म के सवाल को उठाया, आदिवासी विमर्श में इन सवालों की चर्चा नहीं होती। धर्म अच्छी चीज है, बुरी चीज है, वो नहीं हम कह रहे हैं। इस संविधान में धर्म का एक अधिकार दिया हुआ है। उस धर्म का अधिकार आदिवासी को है या नहीं। सरकार के पास उसके धर्म की कोई मान्यता है या नहीं, सवाल इसका है। रामदयाल का सवाल यह भी था कि आदिवासी को अपने धर्म में कितना आत्मविश्वास है, क्या वह धर्म को लेकर हीनभाव से ग्रस्त है! यह सवाल उनको सवाल मथता था। इस सवाल की कुछ पेचीदगियां हैं। धर्म को एक राष्ट्रीय रूप देना! उनका सदाशय जो भी रहा हो, लेकिन धर्म को एक राष्ट्रीय रूप प्रदान करना थोड़ा मुश्किल मामला है। चाहे वो आदिवासी के ही मामले में क्यों न हो? और धर्म को लेकर कुछ और देने की कोशिश झारखंड में आरएसएस ने की है। सरना पेड़ों के नीचे उन्होंने बड़े-बड़े जमावड़े लगाने शुरू किए आदिवासियों के, उनके धार्मिक समूहों के रूप में। और ये धर्म को सामूहिक रूप प्रदान करना कभी भी खतरे से खाली नहीं है, इसकी बहुत गलत दिशा है। लेकिन मैंने आपसे बताया कि यह एक सवाल आदिवासी विमर्श में आपको कहीं नहीं मिलेगा। इसी प्रकार उनकी संस्कृति का सवाल नहीं मिलेगा, भाषाओं का सवाल नहीं उठाया जा रहा है।

महाराष्ट्र में आदिवासी बहुत ताकतवर हैं। झारखंड के बाद शायद वहीं ज्यादा ताकतवर हैं। आदिवासियों के बड़े-बड़े साहित्य सम्मेलन होते हैं। अब तक 9 आदिवासी सम्मेलन हो चुके हैं महाराष्ट्र में, 9 आदिवासी सम्मेलन! लेकिन महाराष्ट्र के ज्यादातर आदिवासी मराठी भाषा में अपना साहित्य लिखते हैं। बहुत कम लोग हैं जिन्होंने अपनी आदिवासी भाषा में साहित्य लिखा और जो लिखा वह भी बहुत कम लेखकों ने लिखा। उनकी भाषाओं का सवाल इस विमर्श में कहीं नहीं आया। झारखंड में संथाली साहित्य सम्मेलन होते हैं, विश्व साहित्य सम्मेलन होता है संथालियों का, क्योंकि वो हिंदुस्तान के आसपास के भी कुछ देशों में मौजूद हैं। लेकिन संथालियों को अपनी भाषा पर बहुत गर्व है। संथाली अपनी भाषा में लिखते हैं, संथालियों का सम्मेलन होता है, तो वहां संथाली भाषा के कम से कम 500 प्रकाशन आते हैं। 500 प्रकाशन संथाली भाषा के! हिंदुस्तान के तमाम आदिवासियों ने मिलकर उतना साहित्य नहीं लिखा अपनी भाषा में, जितना अकेले संथालियों ने अपनी संथाली भाषा में लिखा है। ये असमानता तो है। लेकिन भाषाओं का सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। सुनीति कुमार चटर्जी जो इतने बड़े भाषाविद् हुए उन्होंने ये भविष्यवाणी कर रखी है कि आदिवासी भाषाएं अपनी मौत मरती जाएंगी, दो-तीन सौ साल में खत्म हो जाएंगी। इसका जवाब आदिवासी विमर्श को देना है कि क्या ये भाषाएं खत्म हो जाएंगी, मर जाएंगी या आदिवासियों के जीवन में उनकी संस्कृति के लिए इसका कोई महत्व है। आदिवासी विमर्श को बड़ी गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि अपनी भाषा के बिना वो अपनी संस्कृति को कब तक बचाकर रख सकते हैं?

आदिवासी समाज की एक जो बहुत बड़ी समस्या है, वह है शिक्षित लोगों की अपने समाज और संस्कृति के प्रति हीन भावना। मैं इतने करीब उनके रहा और रांची में देखता हूं कि पढ़े-लिखे आदिवासी हैं जो कॉलेजों से, यूनिवर्सिटी से पढ़कर निकलते हैं, अपनी भाषा नहीं बोलते हैं। अपनी भाषा बोलना नहीं चाहते हैं। जवाहरलाल नेहरू विवि. में कई आदिवासी हैं, झारखंड से आकर पढ़ते हैं। उनहोंने अपना एक संगठन भी बना रखा है- अल्ल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन और उनकी सभाएं करते हैं और टूटी फूटी अंग्रेजी में बोलने की कोशिश करते हैं, जो उनको नहीं आती है। हिंदी भी नहीं बोलना चाहते, हॉल से बाहर निकले ही जिसमें वे आपस में बात करते हैं, वो नहीं बोलते हैं। टूटी-फूटी गलत-सलत अंग्रेजी बोलते हैं और आदिवासी भाषा तो भूलकर नहीं बोलते हैं। ये जो हीनता की भावना है और जो पैदा भी की गई है उनकी भाषाओं के प्रति, उनकी संस्कृति के प्रति, कुछ व्यक्ति के रूप से इससे उबरे हुए लोग जरूर हैं आदिवासी विमर्श में, लेकिन आदिवासियों की सामान्य भावना हीनता की भावना है। एक आत्मसम्मान का आंदोलन, जो अंबेडकर ने दलितों में चलाया और सफल हुए, वो आदिवासियों में अभी तक नहीं है, इसलिए वहां अस्मिता के आंदोलन का बड़ा महत्व है आजकल।

प्रो.वीर भारत तलवार

प्रो.वीर भारत तलवार

प्रो.  वीर भारत तलवार,  प्रख्यात हिन्दी आलोचक, जेएनयू में प्राध्यापक। उनसे virbharattalwar@gmail.com पर संपर्क संभव है। 

हैदराबाद में दिये गए व्याख्यान का दूसरा अंश। शेष अगले किश्त में। 
साभार समकालीन जनमत 

दलित विमर्श: सिर्फ अपनी मुक्ति की सोच से उत्पीडि़त समाजों-समुदायों की मुक्ति नहीं हो सकती: वीर भारत तलवार

प्रोफेसर वीर भारत तलवार, हिन्दी के उन चंद आलोचकों में अग्रगण्य हैं, जो सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों से एक जेनुइन जुड़ाव रखते हैं। हिन्दी की जोड़-तोड़ और छद्म-पूजनपंथी संस्कृति से दूर यह आलोचक आज लोगों के लिए आकर्षण का कारण इसीलिए भी बना है कि दिल्ली में समूहिक बलात्कार की घटनाओं ने इस आलोचक को इतना विचलित कर दिया है कि  वे इधर लगातार अस्मिता-प्रश्नों पर नए सिरे से विचार कर रहे हैं। हिन्दी में जो तीन मूल अस्मिता-विमर्श चलते हैं- दलित-स्त्री-आदिवासी विमर्श, उस पर उन्होंने विस्तार से विचार किया है। हमारी योजना है कि उन तीनों विमर्शों को धारावाहिक रूप में आपके समक्ष प्रस्तुत करूँ।

By वीर भारत तलवार
हमारे देश में इस समय ये जो तीन विमर्श चल रहे हैं। इनमें सबसे जो कारगर और प्रभावशाली विमर्श है, वह तो दलित विमर्श ही है। वो सचमुच एक ऐसा विमर्श है जिसकी एक वास्तविक सत्ता बन चुकी है। और इस विमर्श का महत्व भी बहुत है। इस विमर्श ने हमारे देश में, समाज में एक ऐसे सवाल को खड़ा किया जिस सवाल को लेकर बड़े-बड़े महात्मा आज तक आते रहे और अपनी सारी सदाशयता और अपनी इच्छाओं के बावजूद कुछ नहीं कर सके। वो है जाति का सवाल। जाति का सवाल जिसको लोहिया जी कहते थे कि कोढ़ है इस समाज का, एक ऐसी निराधार अवधारणा है जिसका कोई आधार नहीं है, कोई विवेक सम्मत तर्क नहीं है जिसके पीछे। एक अहंकारपूर्ण मिथ्या चेतना है वो। लेकिन उस चेतना से प्रेरित होकर करोड़ों लोग अपना जीवन जीते हैं, उसमें आस्था रखते हुए। और उस आस्था से प्रेरित होकर दूसरों की जान ले लेते हैं, हत्या करते हैं, हिंसा करते हैं। ऐसी निराधार विवेकहीन अहंकारपूर्ण मान्यता पर पहली बार कारगर ढंग से इस देश में सवाल खड़ा किया दलित विमर्श ने, जिसका श्रेय है बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर को। और ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई को। ज्योतिबा फुले का साथ सावित्री बाई का नाम मैं साथ-साथ लेना चाहता हूं, क्योंकि उन्होंने जो कुछ किया, एक साथ मिलके किया। वो सिर्फ ज्योति बा फुले का ही योगदान नहीं था, उसमें सावित्रीबाई का योगदान शामिल है। इसलिए उसे स्वीकार करना चाहिए, जैसे आप मार्क्स-ऐंगल्स बोलते हैं, ऐसे ही ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई जो हिंदुस्तान के मेरी नजर में पहले आधुनिक स्त्री-पुरुष थे। उनके संबंध स्त्री-पुरुषों के दृष्टिकोण से एक आदर्श संबंध थे। और जब हम स्त्री-पुरुष के आधुनिक संबंधों के बारे में विचार करते हैं तो हम ज्योति बा फुले और सावित्री बाई की मिसाल सामने रख सकते हैं।

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तो दलित विमर्श ने सबसे महत्वपूर्ण काम किया कि इस देश में जाति के सवाल को इस तरह से खड़ा कर दिया कि उसे कोई भी नजरअंदाज नहीं कर सकता। उससे आंखें नहीं चुरा सकते, उसका जवाब दिए बिना आप आगे नहीं बढ़ सकते। ये बहुत असाधारण बात हुई है। युगांतरकारी बात हुई है। ये दलित जाति का सवाल जो है, आज हमारे देश में देशज आधुनिकता की कसौटी बन चुका है। मॉडर्न आदमी, आधुनिक व्यक्ति कौन है, कल तक हमारे पास इसकी कोई कसौटी नहीं थी, हम पश्चिम की मुताबिक ढलने को ही मॉडेरनिटी समझते थे। लेकिन आज इस देश में एक कसौटी है हमारे पास, जाति प्रथा में विश्वास करते हुए कोई आधुनिक नहीं हो सकता। आप चाहे बाकी कितनी बातें करें, बहुत महीन काटते रहिए आप, लेकिन अगर आप जाति में विश्वास करते हैं, तो आपका सारा पिछड़ापन, आपकी सारी जहालत सामने आ जाएगी। तो ये हमारी देशज आधुनिकता की सबसे बड़ी कसौटी आज बन चुकी है, जिसने जाति प्रथा को निस्सार घोषित कर दिया है। जाति प्रथा खत्म हो चुकी है, ऐसा नहीं है। लेकिन उसी रास्ते पर है वो। और इस दलित विमर्श का बहुत बड़ा योगदान है हिंदी समाज में। और इसके साथ ही दलित विमर्श ने एक और काम किया और उसका भी श्रेय डॉ. अंबेडकर को है, धर्म की आलोचना। जिस धर्म की आलोचना करने वाले कल तक नास्तिक कहलाते थे, और वेदों में सबसे बड़ा पाप नास्तिकता है। और आर्य समाज के इतने बड़े सुधारक थे, दयानंद सरस्वती, जातिप्रथा के भी खिलाफ थे, लेकिन वे भी नास्तिक व्यक्ति को देशनिकाला देने की बात कहते थे। तो जिस देश में धर्म की आस्था पर सवाल करना मुश्किल था, वहां उस देश में धर्म की इतनी विस्तार से आलोचना डॉ.अंबेडकर ने की, जिसको लेकर दलित विमर्श जो हैं, आगे बढ़ा है। ये एक दूसरी विडंबना है कि डॉ. अंबेडकर की विचारधारा के लोगों पर प्रभाव के बावजूद अधिकांश दलित समाज अभी अंधविश्वासों में जी रहा है और धर्म की बहुत सारी कुरितियों में फंसा हुआ है। लेकिन उससे लड़ने का रास्ता भी इसी दलित विमर्श के भीतर है, डॉ. अंबेडकर की विचारधारा के अंदर है। इसके अलावा साहित्य में जो दलित विमर्श हिंदी में हुआ है, मैं दूसरी भाषाओं के विमर्शों के बारे में इतना नहीं जानता हूं। सिर्फ सूचनाएं हैं, वो भी हमारे बजरंग बिहारी तिवारी जी जो इतना अच्छा काम कर रहे हैं, पूरे हिंदुस्तान के विभिन्न प्रदेशों के दलित विमर्श का एक तुलनात्मक अध्ययन वो कर रहे हैं जो हिंदुस्तान में किसी बहुत बड़ी संस्था का काम है। वो अकेले दम पर कर रहे हैं। तो उनके लेखों को जरूर पढ़ना चाहिए उससे कई महत्वपूर्ण उपयोगी जानकारी मिलती है।
तो ये जो दलित साहित्य ने हिंदी में एक और काम किया कि जो हमारी साहित्यिक परंपरा थी, जो कि मुख्य रूप से द्विज आलोचकों की ही बनाई हुई थी। द्विज आलोचकों का उसमें होना बहुत स्वाभाविक है, इसलिए कि इस देश में शिक्षा पर उन्हीं का अधिकार था, जाहिर है कि साहित्य हो, विज्ञान हो, जो भी हो, वो चाहे मार्क्सवाद  और कम्युनिज्म ही क्यों न हो, उसमें द्विज लोग ही सबसे पहले आगे रहते, ये एक स्वाभाविक सी बात थी। तो वो जो परंपरा है जिस पर उनके द्विज संस्कार भी बहुत हावी हैं, उनके द्विज पूर्वाग्रह भी बहुत हावी हैं, और हिंदी साहित्य के बहुत सारी विद्यार्थी इन बातों को जानते हैं, उस परंपरा पर, उस इतिहास पर, उसमें जो मूल्यांकन का क्रम है, उसमें जो जगहें तय हैं साहित्यकारों की, कवियों की, लेखकों की, उस पर दलित साहित्य ने सर्वाधिक सवाल खड़े किए। और ये सवाल किसी हिंदी के आलोचक की तरह से नहीं खड़े किए। उन्होंने  ऐसी भाषा में खड़े किए कि लोग तिलमिला उठे और उसका जवाब देते हुए बना नहीं, तो खीज गए लोग और उनको लगा कि ये तो गाली गलौज की भाषा बोल रहे हैं। मैं ये नहीं कहता कि सारी की सारी आलोचना उनकी वाजिब है और मान ली जानी चाहिए, लेकिन उन्होंने ये सवाल बड़े कारगर तरीके से खड़े किए और हिंदी साहित्य में पहली बार एक खलबली मच गई। जो काम मार्क्सवादी आलोचकों को करना चाहिए था और जिसमें वो चूक गए थे, ऐसे बहुत से सार्थक सवालों को दलित आलोचकों ने, साहित्यकारों ने हिंदी में खड़ा किया। चाहे कबीर को लेके हो, हजारी प्रसाद द्विवेदी को लेके हो, तुलसीदास को, प्रेमचंद को, निराला को, बहुत सी निरर्थक भी बात हो सकती है, लेकिन बहुत से सार्थक सवाल भी उन्होंने खड़े किए और अब आप उससे आंख नहीं चुरा सकते हैं। दलित विमर्श के कारण आज हिंदी में दलित लेखकों की एक स्थिति बनी है जो पहले नहीं थी। दलित लेखकों के किसी हद तक संगठन बने हैं। और किसी हद तक वे एक आवाज बने हैं, जिसको सुना जाता है, जिसको सुनना पड़ता है। दलित विमर्श का हिंदी में बहुत बड़ा योगदान है। इस दलित विमर्श की सफलता तो आप इससे देखिए, कि आज दलित साहित्य को कितना बड़ा बाजार उपलब्ध है, उसके प्रकाशक को, उसके साहित्य को, जो किसी और साहित्य को उपलब्ध नहीं है। दलित लेखकों को छापने के लिए बड़े-बड़े प्रकाशक बड़ी तत्परता से तैयार हो जाते हैं। और उनकी किताबें बाजार में खूब बिकती हैं, कई-कई संस्करण निकल जाते हैं। ये हिंदी में दलित विमर्श की एक सफलता है। दूसरे प्रदेशों के दलित विमर्श की तुलना में हिंदी का दलित विमर्श कैसा है, बहुत सारी बातें नहीं कह सकता मैं। लेकिन जो थोड़ी बहुत सूचनाएं मिली हैं, तमिल, तेलगु, मराठी वगैरह को देखते हुए, तो उससे तो यही लगता है कि हिंदी में उनकी तुलना में दलित साहित्य अभी भी सीमित दायरे में है। और उसका एक उदाहरण यही है कि आज भी हिंदी में यही सवाल दलित विमर्श में महत्वपूर्ण बना हुआ है कि दलित साहित्य कौन लिख सकता है? वो सिर्फ दलित ही लिख सकते हैं या गैरदलित भी लिख सकते हैं। मैं भी एक समय में इसका बड़ा समर्थक रहा कि दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है, पर मुझे अब इसमें शंका होती है। मैं समझता हूं कि किसको हम दलित साहित्य कहेंगे, उसका एक आब्जेक्टिव कैरिटेरिया होना चाहिए। न कि आप जाति का पता लगाकर ये पता लगाएंगे कि वो दलित साहित्य है या नहीं। दलित साहित्य किसे माना जाए और किसे नहीं माना जाए, इसकी कुछ वस्तुगत कसौटियां बननी चाहिए। इसके कुछ मापदंड निर्धारित होने चाहिए। और उन्हीं के आधार पर ये तय होना चाहिए कि ये दलित साहित्य है, इस प्रकार के सैद्धांतिकरण में कोई दिलचस्पी दलित लेखक नहीं रखते हैं। इसका कारण क्या है? बहुत से कारण हो सकते हैं। उसमें से एक कारण दलित साहित्य के अपने बाजार को सुरक्षित रखना भी हो सकता है। पर वो एक कारण हो सकता है। दूसरे कारण तो विचारधारात्मक ही हो सकते हैं। लेकिन इस सवाल पर सोचने की जरूरत है। और यही कारण है कि दलित साहित्य के मूल्यांकन के लिए दलित लेखक पूरी तरह से गैर-दलित द्विज आलोचकों की ओर देखते हैं। वो इसी की वजह से है। दलित साहित्य में उपन्यास लिखे जा रहे हैं, कविताएं, कहानियां लिखी जा रही हैं, पर आलोचना का, खासकर दलित साहित्य की आलोचना का उस प्रकार से विकास नहीं हो रहा है। उसके लिए वो फिर उन्हीं लोगों को देखते हैं, जिनसे वो बहुत सहमत नहीं है या जिनको विरोधी समझते हैं। इसका कारण यही है क्योंकि हमारे पास दलित साहित्य को निर्धारित करने वाले मापदंड नहीं हैं। दलित साहित्य का सौंदर्य किस बात में है, उसकी भाषा की ताकत किस बात में है, एक दलित साहित्य की रचना में किस तत्व पर जोर दिया जाना चाहिए? ये सारे सवाल आज के दलित साहित्यकारों की चिंता के विषय नहीं बने हैं। और इसीलिए दलित साहित्य में आलोचना का कोई विकास नहीं हुआ है। जो गैरदलित लेखक हैं, वे दलित साहित्य नहीं लिख सकते हैं। इसलिए नहीं लिख सकते हैं, क्योंकि उनके अनुभवों की एक सीमा है।उन्हें दलित जीवन का वो अनुभव नहीं है। वे सहानुभूति रख सकते हैं, सहानुभूति के साथ साहित्य लिख सकते हैं। ये बात तो दलित लेखक के साथ भी लागू हो सकती है कि अगर वो ऐसे विषय पर लिखना चाहे, युद्ध के विषय पर, और वो स्वयं युद्ध में कभी न गया हो, तो यह उस पर भी लागू होती है। लेकिन देखना यह चाहिए कि जो व्यक्ति उन अनुभवों को हासिल करता है और करने के बाद लिखता है। मुल्कराज आनंद ने ‘अछूत’ उपन्यास लिखा है, बहुत महत्वपूर्ण उपन्यास है। हिंदी में एक लेखक है- मदन दीक्षित, मोरी की ईंट उनका बहुत ही महत्वपूर्ण उपन्यास है, सफाई कर्मचारियों के समाज पर लिखा गया, उतना अच्छा दूसरा कोई उपन्यास नहीं मिलेगा आपको। इतने भीतर के अनुभवों को हासिल करके उन्होंने ये लिखा, लेकिन चूंकि दलित साहित्य की कोई वस्तुगत कसौटी निर्धारित नहीं है, इसलिए उस उपन्यास पर चुप्पी साध ली जाती है, उसके महत्व को स्वीकार नहीं किया जाता, उस पर चुप हो जाते हैं लोग।

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दलित विमर्श की जो सीमाएं हिंदी में दिखाई देती हैं उसमें एक बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है कि देश की जो बाकी परिस्थितियां हैं, जो परिवर्तन हो रहे हैं देश में, जो आंदोलन हो रहे हैं देश में, उनके बारे में दलित विमर्श का क्या दृष्टिकोण है? इराक युद्ध है, अफगानिस्तान युद्ध है, भूमंडलीकरण है, बाजारवाद है, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दबदबा है, इन सबके बारे में दलित विमर्श का कोई दृष्टिकोण होगा या नहीं होगा? ये सवाल अभी तक अनुत्तरित है। और इससे भी बड़ा सवाल है कि दलित विमर्श में जो जाति का प्रश्न है, उसका दलित के जीवन के आर्थिक प्रश्न से क्या संबंध है? जाति के प्रश्न का वर्ग के प्रश्न से क्या संबंध है? अभी भी इसको खुलकर और एक स्थापित तथ्य की तरह से स्वीकार नहीं किया गया है। ये कहा गया है कि सामाजिक बेइज्जती मूल समस्या है दलित विमर्श की, गरीबी नहीं। सामाजिक बेइज्जती अखरती है, गरीबी नहीं। गरीब ब्राह्मण की बेइज्जती नहीं होती है, दलित की होती है। ये तर्क बिल्कुल सही है। हिंदुस्तान में जाति प्रथा के आधार पर शोषण की प्रणाली हिंदुस्तान की एक ऐसी मौलिक विशेषता है, जो हमारे जानते और किसी समाज में नहीं दिखाई देती। और यही कारण है कि मार्क्सवाद जो पूरे विश्व के मेहनतकश लोगों के लिए एक मुक्तिकामी दर्शन है और आज भी है, उस मार्क्सवाद को जब हम भारत में  लागू करने की कोशिश करते हैं, तो उसमें ये दलित प्रश्न बाहर रह जाता है। क्योंकि मार्क्सवाद में इसका कोई विवेचन नहीं है। मार्क्सवाद की इस कमी को अंबेडकर के बिना पूरा कर नहीं सकते। हिंदुस्तान में उत्पादन में अतिरिक्त मूल्य के आधार पर होने वाले शोषण के अलावा हिंदुस्तान में शोषण की एक अपनी देशज प्रणाली रही है, जो धर्म, संस्कृति और समाज के आधार पर खड़ी की गई है। उसमें आर्थिक शोषण भी है। और ये जो शोषण की प्रणाली है इसे सबसे पहले बहुत विस्तार के साथ ज्योतिबा फुले ने दिखाया था। ज्योति बा फुले का एक नाटक है- तृतीय रत्न, आज के हर नागरिक को ये नाटक पढ़ना चाहिए। ये नाटक ‘तृतीय रत्न’ और उनकी किताब ‘गुलामगिरी’- ये दो किताबें ऐसी हैं, जो हमें बताती हैं, कि ये जाति के आधार पर शोषण की जो प्रणाली है, जिसे हम ब्राह्मणवाद का नाम देते हैं, ये ऐज ए सिस्टम कैसे काम करता है, ये फंक्शन कैसे करता है, ये सिस्टम है क्या, ये पहली बार ज्योतिबा फुले ने बताया। और अंबेडकर दूसरे व्यक्ति हैं, जिन्होंने इस चीज को एक शास्त्र तक पहुंचा दिया। वैज्ञानिक विवेचन जो समाजवाद के विभिन्न विचारों को लेकर मार्क्स ने किया, एक वैज्ञानिक समाजवाद का दर्शन रखा, वो काम हिंदुस्तान में जाति को लेकर जो शोषण का जो पूरा तंत्र है, उसको अंबेडकर ने सबसे वैज्ञानिक रूप में पेश किया। और इस संदर्भ में भारतीय परिस्थितियों में ये ज्योतिबा फुले और अंबेडकर मार्क्स के जैसे ही हैं हमारे लिए, ये हमें समझ लेना चाहिए। हिंदुस्तान में मार्क्सवादी आधार पर क्रांति करने के लिए फुले और अंबेडकर की विचारधारा को शामिल करके, जोड़कर ही हम आगे बढ़ सकते हैं, इस चीज को बहुत से मार्क्सवादी स्वीकार करने लगे हैं, महसूस करते हैं, लेकिन जो ऑफिसयल मार्क्सिज़्म है, उसमें वो चीज अभी भी आई नहीं है और वो बहुत सारे वैचारिक उहापोह में हैं कि इसको कैसे शामिल किया जाए? जब मार्क्स अपनी विचारधारा के विकास के लिए हेगल जैसे सामंतों के पुरोहित प्रोफेसर से, राज्य के अपने आदमी से उसके दर्शन की विशिष्टताओं को ले सकते थे कि हमारा दर्शन पूर्ण हो, तो हम अंबेडकर और फुले से क्यों नहीं ले सकते? जबकि अंबेडकर और फुले की तो वर्गीय स्थिति वैसी नहीं है, जैसी हिगेल के थी। उनकी तुलना में ये बहुत प्रगतिशील लोग हैं।
तो मित्रो, जाति और वर्ग का सवाल हिंदुस्तान में सामाजिक परिवर्तन के लिए बहुत अहम सवाल है। ये मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि जिस तरह अंबेडकर को छोड़कर हिंदुस्तान में सामाजिक परिवर्तन नहीं किया जा सकता, उसी तरह से मैं इतनी ही कड़वी सच्चाई है कि हिंदुस्तान में सामाजिक परिवर्तन करने के लिए सिर्फ अंबेडकर काफी नहीं होंगे, उनसे आगे जाना होगा। और वो आगे जो हम जाएंगे, उसमें मार्क्सवाद हमारी बहुत मदद करता है। देखिए ज्ञान का जो विकास होता है, वो कैसे होता है? ज्ञान कोई एक बनी बनाई स्थिर चीज नहीं है, कि किताबों में बंद कर दिया गया है और ज्ञान उतना ही रहेगा, ऐसा नहीं है। ज्ञान का विकास विभिन्न स्रोतों से होता है। समाज के सामने जो समस्याएं खड़ी होती हैं, उनको समझने के लिए होता है, उन समस्याओं का हल करने के लिए होता है। हिंदुस्तान में अगर हम क्रांति करना चाहते हैं, हम एक समतामूलक समाज कायम करना चाहते हैं तो हमें अंबेडकर और ज्योतिबा फुले और मार्क्स- तीनों के महत्व को समझना होगा, इस वैचारिक विकास को हमें करना होगा, वर्ना हम हिंदुस्तान को नहीं बदल सकते। हम एक समतामूलक समाज नहीं कायम कर सकते।दलित की जो सामाजिक बेइज्जती है, उसके आर्थिक स्रोत भी होते हैं। उसकी जो आर्थिक विवशता है, उसके पास कुछ भी नहीं है। अंबेडकर ने इसी चीज की ओर तो ध्यान खींचा हमारा कि मध्यकाल के संत लोगों ने  लिखा कि ईश्वर के बनाए हुए सब बंदे हैं इसलिए सब बराबर हैं। पर सवाल ईश्वर के बनाए हुए बंदों की समानता का नहीं है। सवाल इस समाज में कायम भौतिक असमानता का है। एक दलित को उन सारे अधिकारों से, संपत्ति के अधिकारों से वंचित करके रखा गया है, सवाल उसके मानवाधिकारों का है। सवाल उसके लोकतांत्रिक-नागरिक अधिकारों का है, सवाल समाज के उत्पादन में उसके हिस्से का है। और ये जो वो वंचित है सब चीजों से, यह भी उसकी सामाजिक बेइज्जती का एक स्रोत है बहुत बड़ा। जिस दलित के पास कुछ भी नहीं होगा, उसकी तो सामाजिक बेइज्जती हर तरह से होगी। जब तक वो आर्थिक रूप से मजबूत नहीं होगा, उसकी आर्थिक मुक्ति नहीं होगी। जब तक एक शोषित वर्ग के रूप में वह मुक्त नहीं होगा, तब तक उसकी बेइज्जती खत्म नहीं होगी। और यहाँ मार्क्स  की  जरूरत हमें पड़ेगी।

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एक आखिरी जो सवाल मैं उठाना चाहता हूँ, इस पर हिंदी का दलित विमर्श नहीं ध्यान देता है । किसी भी उत्पीडि़त समुदाय की मुक्ति के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण सवाल है कि दूसरे उत्पीडि़त समाजों की मुक्ति के बारे में वो क्या सोचता है? कोई भी उत्पीडि़त समाज अगर सिर्फ अपनी मुक्ति के बारे में सोचता है, वो कभी मुक्त नहीं हो सकता, जब तक कि वो दूसरे उत्पीडि़त समाजों की मुक्ति के बारे में भी न सोचे, उनके प्रति एक सही रवैया न रखे, उनके साथ मिलकर चलने को तैयार न हो। ये पांडिचेरी में प्रोफेसर हैं मुरुशेखर साहब, कई लोगों ने उनके एक नाटक की चर्चा की है, बलि का बकरा, तमिल के अच्छे, बहुत अच्छे लेखक हैं, नाटक लिखते हैं- बलि का बकरा। देवी का रथ जो खींचा जाता है वर्ष में एक बार, गांव में ब्राह्मणों के द्वारा, तो उसको खींचते हुए रस्सी टूट गई, रस्सा टूट गया, तो देवी को बहुत कोप आया। देवी अब श्राप देती इस गांव को। तो उससे कैसे बचा जाए? ब्राह्मणों की सभा होती है, तो उस सभा में ये तय होता है, कि देवी के कोप से बचने के लिए, देवी को प्रसन्न करने के लिए अब एक बलि उसको देनी जरूरी है। किसकी बलि दी जाए? सारे ब्राह्मण पीछे हट जाते हैं, छुप जाते हैं। अंत में एक दलित युवक को खोज लिया जाता है इस बलि के लिए। और उस दलित युवक को पकड़ के लाया जाता है कि चलो तुमको गांव के लिए बलि होना है, तभी देवी शांत होंगी। वो मजबूर आदमी, उसका अपने जीवन पर कोई अधिकार नहीं। उसकी पत्नी रोती-कलपती पीछे आती है, कि मेरे पति को छोड़ दो, बहुत कुछ कहती है, लेकिन ब्राह्मणों का दिल नहीं पसीजता है। लेकिन उसके पति के दिमाग में एक बात आती है, वो कहता है, दलित ही की बलि देनी है न, ठीक है, ये मेरी पत्नी है, मैं बोलता हूं इसकी बलि दे दो। मुझे जाने दो। जिस व्यक्ति का अपने जीवन पर कोई अधिकार नहीं है, वह दूसरे के जीवन पर इतना अधिकार जमा रहा है, कि उसकी बलि दे दो!ये जो दूसरा व्यक्ति है, स़्त्री, दलित-स्त्री, इसकी आवाज हमारा दलित विमर्श उसी तरह से नहीं उठाता है। वो उसे इनकार तो नहीं करते हैं, लेकिन वो बहुत कम्फर्टेबुल भी फील नहीं करते। असुविधा महसूस करते हैं। और इसीलिए ये दलित स्त्री विमर्श की आवाज उठेगी। तो दलित समाज, दलित विमर्श अगर दलित स्त्री की मुक्ति के सवाल पर नहीं सोचेगा, उस सवाल को मान्यता नहीं देगा, तो वह अपनी भी मुक्ति नहीं कर सकता। और दुर्भाग्य से हिंदी दलित विमर्श में ये घटना वास्तविक रूप से घटी है कि दलित विमर्श की एक धारा, इतनी स्त्री विरोधी हो चुकी है वो धारा कि मैं समझता हूं कि वो दलित समाज की मुक्ति से भी बहुत दूर हो चुकी। अंबेडकर इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, उन्होंने स्त्रियों के सवाल पर बहुत लिखा, फुले ने बहुत लिखा, शाहू ने बहुत लिखा, पेरियार ने बहुत लिखा, मैंने किसी दलित लेखक को नहीं देखा कि उनके साहित्य का विवेचन करे स्त्री के प्रश्न पर। इसलिए स्त्रियों को यह सवाल अलग से उठाना पड़ रहा है। इतनी सी बातें तो मैं दलित विमर्श के बारे में कहना चाहता था।

प्रो.वीर भारत तलवार

प्रो.वीर भारत तलवार

प्रो.  वीर भारत तलवार,  प्रख्यात हिन्दी आलोचक, जेएनयू में प्राध्यापक। उनसे virbharattalwar@gmail.com पर संपर्क संभव है। 
हैदराबाद में दिये गए व्याख्यान का पहला अंश। शेष अगले किश्तों में। 
साभार समकालीन जनमत 

मर्दवाद से छुटकारा पाना एक बड़ी सांस्कृतिक लड़ाई है: वीर भारत तलवार

By वीर भारत तलवार

बेखौफ़ आज़ादी:  Women’s Right is Human’s Right

16 दिसंबर के बलात्कार के बाद देश में और खासकर दिल्ली में व्यापक पैमाने पर जिस जनआंदोलन का उभार हुआ, और उसमें जिस तरह जेएनयू के विद्यार्थियों ने भाग लिया और यहाँ के छात्रसंघ ने जैसी भूमिका निभाई, सबसे पहले मैं उसको सलाम करता हूँ। जेएनयू की इस ऐतिहासिक भूमिका के लिए उसको हमेशा याद किया जाएगा।

यह आंदोलन जो आज हुआ है, और लगातार आगे बढ़ रहा है, इसके महत्व को हम एक दूसरे तरीके से भी समझ सकते हैं। 1970 के दशक में जो मथुरा रेप केस का फैसला हुआ, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि लड़की चरित्रहीन थी और उसका बलात्कार नहीं हुआ। इस फैसले के विरोध में 18 जनवरी 1980 को बंबई के कई संगठन सड़कों पर आए और उन्होंने मिल कर ‘फोरम अगेन्स्ट रेप’ नामक एक फोरम बनाया और उसके माध्यम से धीरे-धीरे पूरे देश में आंदोलन फैल गया। 8 मार्च को दिल्ली, कलकत्ता, मद्रास सभी जगह रेप के खिलाफ आंदोलन हुए। इसके साथ ही उसका एक कल्चरल विंग भी था जिसमें स्टडी-ग्रुप वगैरह भी थे और ये रेप के खिलाफ जो फोरम बना, जो इनके सदस्य थे, वे पीड़ित महिलाओं, जिनके साथ रेप हुआ था, उनके पास जाकर उनकी काउन्सलिन्ग करते थे। इस प्रकार उसे एक जन-अभियान का रूप दिया गया था।

आज जो जन-आंदोलन चल रहा है उसमें एक बड़ा और महत्वपूर्ण फर्क है। 1980 में जो आंदोलन बंबई से शुरू हुआ वह मुख्य रूप से महिला-संगठन का आंदोलन था। कुल मिलकर लगभग 150 सक्रिय महिलाएं सामने आई थीं और उन्होंने इस आंदोलन को चलाया था। लेकिन इस बार जो आंदोलन हुआ है यह सिर्फ महिला संगठनों द्वारा संचालित नहीं है, बल्कि महिला संगठन बहुत कम हैं इसमें। यह आंदोलन जिस बड़े पैमाने पर फैला उसका एक बहुत बड़ा कारण हिंदुस्तान की एक बड़ी वामपंथी राजनीतिक पार्टी, उसका एक बड़ा स्त्री संगठन एपवा (APWA) और उसका एक बड़ा विद्यार्थी संगठन आइसा (AISA) है। ये संगठन अगर नहीं होते तो यह आंदोलन आज देशव्यापी रूप नहीं ले पाता। जनाक्रोश को एक संगठित और व्यापक रूप देने के लिए एक राजनीतिक संगठन कितना जरूरी है, यह आज बहुत महत्वपूर्ण है। हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि आज देश में कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो इस तरह के आंदोलन को फैलाना चाहता हो, सिवाय इसको भुनाने के। यह एकमात्र संगठन था (AIPWA और AISA), जिसने जनाक्रोश को देखते हुए उसके मूल्यों के लिए इस लड़ाई को फैलाया।DSC_0071

दूसरी बात मैं यह कहना चाहूँगा कि भारत में बदलाव लाने के लिए जो आंदोलन हैं, वह कहाँ से शुरू हो सकते हैं? हिंदुस्तान की सारी राजनीतिक व्यवस्था, जो political class है, जो सिर्फ चुनाव लड़कर सत्ता हासिल करना चाहते हैं, उनकी सीमाएं आज बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट हो चुकी हैं। अन्ना हज़ारे का आंदोलन, एक ऐसा आंदोलन था जो बड़ी संभावनाओं के लिए हुआ था, हालांकि उसकी कई सीमाएं भी थीं। वह सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ था इसलिए किसी भी राजनीतिक दल ने उसका समर्थन नहीं किया। मैं समझता हूँ कि वामपंथियों को उस आंदोलन को उसकी सीमाओं से मुक्त करके, उसकी अंतर्निहित संभावनाओं का अपने ढंग से विकास करना चाहिए था क्योंकि एक पूरा जनांदोलन बनने की असीम शक्ति उस आंदोलन में थी। दुर्भाग्य से हिंदुस्तान का वामपंथी आंदोलन इस काम से चूक गया। वे भी चूक गए जो आज इस आंदोलन को उठा रहे है, लेकिन यह अच्छी बात है कि आज जो आंदोलन हुआ, वामपंथी संगठन इस काम से नहीं चुके और उसने इस सवाल को उठाया।

एक महत्वपूर्ण दृष्टि से यह सांस्कृतिक आंदोलन है। किसी देश में बदलाव का आंदोलन कहाँ से शुरू होगा यह कहा नहीं जा सकता है। आप सब जानते हैं कि चीनी क्रान्ति का आंदोलन भी 4 मई के एक सांस्कृतिक आंदोलन से ही शुरू हुआ था और संयोग से वहाँ के विद्यार्थियों ने ही 1919 ई. में किया था। मैं वर्तमान आंदोलन के एक सांस्कृतिक रूप को ज्यादा देख पा रहा हूँ। यह एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आंदोलन है जिसने हमारे देश में जेंडर (Gender) के सवाल को व्यापक पैमाने पर उठाया है। इस सांस्कृतिक आंदोलन के उभरने के साथ-साथ दुश्मन भी तैयार गया है। दो खेमें इस आंदोलन के बाद उभर कर आए हैं। इस आंदोलन के विरोधी खेमों के प्रतिनिधियों ने, चाहे वो शंकरचार्य हों, मोहन भागवत हों या राजनीतिक दलों के नेता भी हों, उन लोगों ने भी अपनी बातें कही हैं। स्त्रियों की लक्ष्मण रेखा खींची है और बताया है कि स्त्रियाँ भी दोषी हैं। महत्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा कहे जाने के बाद भी इस विरोधी खेमे की आवाज़ कमजोर सी लगी है। पर मैं आपसे कहना चाहूँगा कि दुश्मन को आप कमजोर न समझिएगा। उसके पीछे बहुत बड़ी ताकत है जनता की पिछड़ी हुई चेतना, जनता की सोयी सोई हुई चेतना, जिन सवालों पर जनता को कभी सचेत नहीं किया गया है। वह पिछड़ी हुई चेतना ही इन लोगों की सबसे बड़ी ताकत है, उसी के बल पर ये लोग खड़े हैं। ये जो हमारी संस्कृति की प्रथाएँ हैं, हमारी धार्मिक मान-मर्यादाएं हैं, जो सदियों से चली आ रही हैं, ये सब इनकी ताकत हैं। अगर आप इनके खिलाफ लड़ने की हिम्मत रखते हैं तो आपको ये समझकर चलना चाहिए कि दुश्मन बहुत शक्तिशाली है। सामाजिक रूढ़िवाद उसका मुख्य आधार है और इस लड़ाई को अगर हम आगे ले जाएँगे तो निश्चित रूप से समाज में एक ध्रुवीकरण पैदा होगा- इन मूल्यों के खिलाफ और इन मूल्यों के पक्ष में। और, इस तरह इस सांस्कृतिक लड़ाई के दो मुख्य ध्रुव होंगे। एक ओर हिंदुस्तान का युवा-वर्ग होगा और दूसरी ओर हिंदुस्तान की सामंती शक्तियाँ, पुरोहितवाद, सांप्रदायिक और फ़ासिस्ट ताक़तें होंगी और उस लड़ाई के लिए मैं समझता हूँ कि मानसिक रूप से उन लोगों को तैयार होना चाहिए जो इस जनांदोलन में अपनी भूमिका निभा रहे हैं।DSC_0058

आज इस देश में सांस्कृतिक लड़ाई बहुत महत्वपूर्ण हो गई है, खासकर मौजूदा भूमंडलीकरण और बाजारवाद के कारण। ये जो पिछले 10-15 सालों में रेप की संख्या इतनी बढ़ी है उसका एक बहुत बड़ा कारण भूमंडलीकरण और बाजारवाद का माहौल है और उसे उदारीकरण की नीतियों से बढ़ावा मिला है। आज देश में लुटेरी और भ्रष्ट जितनी ताकते हैं, सबको खुली छूट मिली हुई है। आप कुछ भी कर लीजिये कुछ नहीं होगा। कानून की भूमिका सिमटकर लुटेरों की रक्षा करने और उनके खिलाफ जनसंघर्ष उठाने वालों का दमन करने तक ही सीमित रह गई है। इसके अलावा आज देश में कानून की कोई व्यवस्था और भूमिका नहीं रह गई है। लेकिन सांस्कृतिक लड़ाई लड़ने के लिए उसके बदलने तक का इंतजार नहीं करना चाहिए। यह जो एक मार्क्सवादी बहस चलती रहती है कि आधार के ऊपर ही ये चीजें खड़ी हैं और आधार बदलेगा तभी ये बदलेंगी, यह एक बीती हुई बात है। बुनियादी आधार बदलने तक कोई सांस्कृतिक लड़ाई रुकती नहीं है। माओत्से तुंग से किसी ने पूछा था कि चीन में समाजवाद तो आ गया, स्त्री-पुरुष समानता कब कायम होगी? माओत्से तुंग ने कहा था- तीन-चार सौ साल लगेंगे। यह समाजवादी क्रांति के उस सबसे बड़े नेता का कहना था। उन्होंने कोई झूठा आश्वासन नहीं दिया, कोई सब्जबाग नहीं दिखाया, कोई झूठा सपना नहीं दिखाया। समाजवाद आ जाने के बाद भी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में बदलाव आने में 3-4 सौ साल लगेंगे चीन में, क्योंकि बदलना इतना आसान नहीं होता है कि बुनियादी आधार बदला तो संस्कृति भी बदल गई। इसलिए संस्कृति की लड़ाई हमेशा चलनी चाहिए, बुनियादी आधार बदलने का इंतजार नहीं किया जा सकता है। ये जो सांस्कृतिक लड़ाई का सवाल है, स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में भी ये सवाल उठे थे देश में। रानाडे वैगरह का यही मुख्य विरोध था कि समाज सुधार होने चाहिए, स्त्रियों की दशा में सुधार होना चाहिए, तो तिलक ने कहा- नहीं, पहले अंग्रेजों को भगाओ, पहले हमारा देश आज़ाद हो। हम अंग्रेज़ी क़ानूनों से स्त्रियों की दशा में सुधार नहीं चाहते। हम आज़ाद होंगे तो हम सारी चीजों का सुधार करेंगे। हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई से बाहर हुआ किसानों का आंदोलन, जमींदारी प्रथा के खिलाफ आंदोलन, स्त्रियों का आंदोलन। इसलिए बाहर हुआ क्योंकि आज़ादी की लड़ाई इन सवालों को नहीं उठा रही थी। ये सवाल आज़ादी की लड़ाई दौरान भी रहे कि सांस्कृतिक बदलाव की लड़ाई भी साथ-साथ शुरू होनी चाहिए या नहीं? समाजवाद के बारे में भी यह बात सही है। आधार और बुनियादी बदलाव की बहुत बात की जाती है पर लेनिन के इस कथन पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है कि- बहुत सारे सुधार हैं जिनके लिए हमें क्रांति से पहले संघर्ष करने होंगे, कई सुधार क्रांति के बाद भी जारी रखने होंगे, कुछ ही सुधार हैं जो सिर्फ क्रान्ति के बाद शुरू किए जा सकते हैं। उन्होंने बहुत स्पष्ट रूप से देखा कि बहुत से सुधार आंदोलनों के लिए क्रान्ति तक रुकने की जरूरत नहीं है। DSC_0068सौभाग्य से 1980 के आस-पास जब हम जेएनयू आए तो देश में स्त्री-आंदोलन का माहौल था, स्त्रीवादी साहित्य पढ़ा जाता था। आज कितने लोग स्त्रीवादी साहित्य पढ़ते हैं, मैं नहीं जानता हूँ। लेकिन 1980 के दशक में एक बहुत महत्वपूर्ण किताब आई थी।  Sheila Rowbotham की किताब थी- Beyond The Fragments. Sheila Rowbotham एक ब्रिटिश वामपंथी नारीवादी थीं और उन्होंने एक बड़ी बात महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि ‘स्त्री-पुरुष संबंध कैसे होंगे समाजवाद के बाद, अगर हमारी इस बारे में कोई अवधारणा है तो उस अवधारणा को साकार करने का प्रयत्त्न समाजवाद आने के बाद ही नहीं होगा, आज से होना चाहिए। समाजवाद को लाने के लिए जो संगठन हैं, जो कम्यूनिस्ट पार्टी है या और भी जो संगठन हैं, उन संगठनों के भीतर सबसे पहले उस स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को साकार करो जो तुम समाजवाद के बाद कायम करना चाहते हो। अगर ये नहीं करते हो तो तुम्हारी उन अवधारणाओं की बात झूठी है।’ जो रूप आप कायम करना चाहते हैं उसका प्रारूप हमें पहले दिखाओ। उसे पहले अपने संगठन के अंदर प्रयोग करके दिखाओ जहां तुम्हें पूरी स्वतन्त्रता है। यह Prefigurative Movement यूरोपियन वामपंथी नारीवाद की एक बड़ी महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह बात मुझे बड़ी अच्छी लगती है कि आज उस पारिभाषिक नाम का इस्तेमाल किए बिना, लोग इस अवधारणा की बहुत सी बातों के प्रति सचेत हो रहे हैं। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है।

आज इस आंदोलन ने जिन सांस्कृतिक सवालों को जन्म दिया है, उसमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल है, स्त्री के प्रति हमारे नजरिए का। इसी प्रकार ये दो खेमे बने हैं इस सांस्कृतिक लड़ाई में, जहां एक तरफ सारी सांप्रदायिकतावादी, फ़ासिस्ट, पुरोहित, सामंतवादी, ब्राह्मणवादी ताक़तें खड़ी हैं और दूसरी तरफ जनवादी आंदोलन से जुड़े हुए वामपंथी, स्त्रीवादी लोग खड़े हैं, तो इन दोनों ताकतों की लड़ाई के बीच जो एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा हुआ है वो है स्त्री के प्रति नजरिए का। पुरोहितपंथी, ब्राह्मणवादी ताक़तें कहती हैं कि स्त्रियों को संरक्षण देने की जरूरत है। वो ये तो नहीं कह सकते कि बलात्कार उचित है, वो कहते हैं कि स्त्रियों को संरक्षण, सुरक्षा देने की जरूरत है। इसीलिए वो अपील करते हैं कि ‘स्त्रियों बाहर मत जाओ। घर में रहो। हम पुरुष लोग हैं, घर में तुम्हें सुरक्षा मिलेगी। तुम बाहर जाकर अपनी सुरक्षा को खतरे में डालती हो?’ यह हमारी संस्कृति का एक बुनियादी सवाल है जो आज उठके खड़ा हुआ है- स्त्री को संरक्षण चाहिए, सुरक्षा चाहिए या आज़ादी चाहिए। स्त्री कहाँ सुरक्षित है, घर में या बाहर में? वे कहते हैं, हमारी सरकार कहती है कि बाहर स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। हम पुलिस वगैरह का इंतजाम कर रहे हैं तब तक आप बाहर कम निकलिए और रात को तो बिलकुल मत निकलिए। ये जो एक सवाल खड़ा है- क्या वाकई स्त्रियाँ घर में सुरक्षित हैं? बहू के पेट में यदि बच्चा आया है तो उसकी जांच कराई जाती है। और अगर भ्रूण में लड़की है तो उसकी हत्या कर दी जाती है। लड़की को आप घर में पैदा नहीं होने देते और आप कहते हैं कि घर में लड़कियां सुरक्षित हैं। अगर वह पैदा हो गई तो पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई, खाना-पीना सब में लड़कों के साथ उससे भेदभाव किया जाता है। घरेलू हिंसा के खिलाफ वो कहीं जाकर कुछ बोल नहीं सकती है। उसी परिवार में पति बलात्कार करता है, उस बलात्कार की कहीं कोई सुनवाई नहीं है, उसको बलात्कार माना ही नहीं जाता है। घर में बाहर के मुक़ाबले कहीं ज्यादा हिंसा होती है स्त्रियों पर, यह एक सच्चाई है। बाहर के मुक़ाबले घर में स्त्री ज्यादा असहाय है। बाहर उस पर हिंसा हो तो कुछ लोगों को मालूम हो, पुलिस-थाना हो, कुछ आवाज़ उठे। घर में? घर में तो आप सवाल ही नहीं कर सकते है। पति-पत्नी के बीच की बात है, आप कौन हैं बीच में आने वाले? ये एक बंधा हुआ जवाब है। घर में स्त्री बहुत असहाय है अपने ऊपर होने वाली हिंसा के खिलाफ। समाज के सामने हमें इस बात को बार-बार दोहराना पड़ेगा कि स्त्रियाँ घर में और भी ज्यादा असुरक्षित हैं।DSC_0061

यह जो घर है वह एक प्रकार से पुरुष का उपनिवेश है जिसमें वह बाहरी हस्तक्षेप बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं करता है और यह उपनिवेश आज से नहीं है, ब्रिटिश भारत में भी यही था। आप 19वीं सदी को याद कीजिये जिसमें स्त्री सुधार के आंदोलन चले थे और सुधारकों ने ब्रिटिश सरकार से कानून बनाने के लिए कहा था। बचपन में ही शादी हो जाती थी तो सुधारकों ने कहा कि 12 वर्ष तक लड़की के साथ intercourse नहीं होना चाहिए। अतः सरकार से कहकर यह कानून बनवाया गया। इसके खिलाफ देशव्यापी आंदोलन हुआ था। क्यों? इसीलिए कि स्त्री का मामला पुरुषों का अपना उपनिवेश है। उनके घर में सरकार दखल नहीं दे सकती है। राष्ट्रवादियों ने कहा- अंग्रेज़ सरकार और चाहे जो कानून बनाए, लेकिन हमारे घर की अंदर की चीजों में दखल नहीं दे सकती है। उनके बारे में कानून नहीं बना सकती है। ये अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ लड़ने वाले बहुतों ने कहा। घर हमारा उपनिवेश है। तुम भारत पर कानून चलाओ लेकिन हमारे घर के बाहर। हिन्दी के बड़े-बड़े लेखक प्रताप नारायण मिश्र वैगरह सब इसके खिलाफ थे। किसी ने इसका समर्थन नहीं किया। घर के बारे में जो नजरिया रहा है इसको चुनौती देना, इसको बदल डालना हमारी संस्कृति का एक बड़ा सवाल है। स्त्री की आज़ादी की सुरक्षा, सबकी आज़ादी की सुरक्षा एक सही सवाल है। झूठे सवालों से छुटकारा पाना बहुत जरूरी है। मुक्तिबोध ने कहा था कि-

कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में

सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएँ

गिरकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से

कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और

उत्तर और भी छलमय

समस्या एक-

मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में

सभी मानव सुखी, सुंदर व शोषण मुक्त कब होंगे?”

सही सवाल को सामने रखिए और झूठे सवाल को खारिज कीजिए। स्त्री की सुरक्षा एक झूठा सवाल है। सबकी आज़ादी की सुरक्षा एक सही सवाल है। और इसी पर विचार किया जाना चाहिए।

मित्रो! इस आंदोलन को आप इसी रूप में हमेशा नहीं चला सकते। आप रोज-रोज जंतर-मंतर और इंडिया गेट पर जाकर रैलियाँ नहीं कर सकते। तो आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इस आंदोलन को हम कैसे जिंदा रखें? एक आंदोलन को लंबे समय तक जिंदा रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज होती है- विचारधारा। विचारधारात्मक संघर्ष ही इस आंदोलन को लंबे समय तक जीवित रख सकता है। इस विचारधारात्मक संघर्ष को आज हमें चलाने की जरूरत है। उन मूल्यों के लिए हमें यह संघर्ष चलाने की जरूरत है जिन्हें हम इस समाज में लाना चाहते हैं, जो हमारे लक्ष्य हैं और ये संघर्ष बहुत सारे रूपों में बहुत सारे मंचों से चलता है। ये संघर्ष साहित्य के मंच से चलेगा। ये संघर्ष वैचारिक गोष्ठियों, सेमीनारों, व्याख्यानों, कला, चित्रों, फिल्मों, गीत, संगीत, नाटक आदि के माध्यम से चलेगा। ये सारे सृजनात्मक रूप हैं विचारधारात्मक संघर्ष को चलाने के लिए। अगर हम इस आंदोलन से पैदा हुए सवालों को और इस आंदोलन को जिंदा रखना चाहते हैं तो हमें विभिन्न विचारधारात्मक रूपों में, विभिन्न सृजनात्मक रूपों में उन मूल्यों की लड़ाई को लड़ना होगा। जहां तक हिन्दी साहित्य की बात है तो उसके उपन्यास, कविता, कहानी आदि में जो स्त्री की नई छवि उभर रही है वह महत्वपूर्ण है। एक ताकतवर स्त्री की छवि। लेकिन हिन्दी साहित्य में जो स्त्री-विमर्श नाम का एक विमर्श चलता है, वह बड़ा ही दरिद्रतापूर्ण विमर्श है। इन सवालों पर हमें उनसे आगे जाने की जरूरत है। मैं आपको एक दूसरा उदाहरण देता हूँ। महाराष्ट्र को आप देखिए कि किस प्रकार सृजनात्मक रूप से वो हमेशा विचारधारात्मक लड़ाई को चलाते रहते हैं। एक और उदाहरण दूँ आपको। सावित्री बाई फुले। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले इस देश में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का पहला आधुनिक उदाहरण हैं। उनके बारे में आपको और भी जानना चाहिए। सावित्री बाई फुले के अंदर जिस प्रकार की चेतना थी, उस चेतना को झेलम परांजपे ने ओडिसी नृत्य के कार्यक्रमों द्वारा अभिव्यक्ति दी। सावित्री बाई फुले की स्त्रीवादी कविताओं को आधार बनाकर नृत्य की कई प्रस्तुतियाँ दीं। महाराष्ट्र में एक संगठन है MAVA (Men against violence against women)। स्त्रियों पर होने वाली हिंसा के विरोधी पुरुषों का संगठन। यह पुरुषों का संगठन है। फोरम अगेन्स्ट रेप में जैसे महिलाएं महिलाओं की counseling करती थीं, उसी प्रकार MAVA के सदस्य उन पुरुषों की counseling करते हैं, जो महिलाओं पर किसी भी प्रकार की हिंसा करते हैं, उनमें चेतना जागते हैं। मुझे नहीं लगता ऐसा कोई दूसरा संगठन होगा। इस प्रकार के सृजनात्मक प्रयासों का हिन्दी क्षेत्र में नितांत अभाव है।DSC_0105

जेएनयू में एक प्रतिध्वनि नाम का संगठन हुआ करता था जो क्रांतिकारी गाने गाया करता था। आज स्त्रियों के सवाल पर गाने वालों का कोई ग्रुप क्यों नहीं बन रहा है? क्यों नहीं स्त्रियों के सवाल पर हमारे इतने प्रतिभाशाली विद्यार्थी गीत लिख रहे हैं? इतनी अच्छी आवाज़ वाले क्यों नहीं गीत गा रहे हैं? इस तरह की सभाओं में हम क्यों नहीं स्त्रीवादी गीत गा सकते हैं? जो लोग चित्र बनाते हैं, स्त्रियों के सवाल पर चित्र बना सकते हैं, जो कवितायें करते हैं, कविता लिख सकते हैं, जो लोग फिल्म बनाते हैं, वो स्त्रियों के सवाल पर फिल्म बना सकते हैं। पचासों सृजनात्मक रूप हैं, जिनके माध्यम से हमें इन मूल्यों के लिए विचारधारात्मक संघर्ष को जारी रखना है। आज हम सबके सामने एक बड़ा सवाल है संस्कृति का, युवा वर्ग के सामने और खासकर युवकों के सामने। स्त्री विमर्श बहुत हुआ अब पुरुष विमर्श की जरूरत है। ज़्यादातर पुरुषों को ही समझने-समझाने की जरूरत है। स्त्री विमर्श का भी अपना महत्व है, उसे खारिज नहीं करना है लेकिन अगर व्यंग्य में भी कहें तो पुरुष विमर्श क्या है, इसे समझ लेना चाहिए। एक बहुत बड़ा सवाल है कि हम अपनी पितृसत्तात्मक मानसिकता को कैसे बदलें? ये युवा वर्ग के सामने, लड़कियों के सामने और लड़कों के सामने भी बड़ा सवाल है। मैं बिलकुल व्यावहारिक और सृजनात्मक रूप से आपके सामने ये प्रश्न कर रहा हूँ। आप सोचकर देखिए अपने व्यवहार में, अपने दृष्टिकोण में, अपने परिवार और दूसरे लोगों के रवैये में पितृसत्तात्मक मानसिकता जो हमें बचपन से अपने घर-परिवार से मिली है, समाज से मिली है, और अपने राज्य से मिलती है लगातार, इसे हम कैसे बदलेंगे?

हर युवती-युवक के सामने ये सवाल है कि जिन जीवन-मूल्यों के लिए हम लड़ रहे हैं, जेंडर-इक्यूलिटी के मूल्यों के लिए हम अपने जीवन में उसको कैसे उतारें? इसका जवाब मुझे नहीं देना है, आप लोगों को देना है। और, जवाब नहीं देना है, इसको साकार जीना है। यहाँ साहित्य के विद्यार्थी बैठे हैं। हमारी भाषा इतनी जेंडर-बायस्ड है कि कहना पड़ता है कि कमियाँ मुझमें भी हैं। मैं कई बार आदमी शब्द का प्रयोग मनुष्य के लिए करता हूँ। आदमीनामा लिखा नज़ीर अकबराबादी ने, वह पुरुषों के लिए है। हम गलत कहते हैं जब हम सबको आदमी कहते हैं। हमारी भाषा इतनी जेंडर-बायस्ड है, इसके बारे में हमें सोचना चाहिए। साहित्य के विद्यार्थियों को इस पर सोचना चाहिए कि हम किस तरह की भाषा का प्रयोग करते हैं, स्त्रियों के बारे में कितने अपशब्द हम कहते हैं। माँ-बहन की गालियों का ही सवाल नहीं है साली, ससुरा, ससुरी। मुझे क्लास में पढ़ाते हुए याद आया कि ये ससुरा, ये साला-साली इसीलिए गाली है। ये सब अत्यंत फूहड़ शब्द ही नहीं अच्छे समझे जाने वाले मुहावरेदार शब्दों में भी ये जेंडर-बायस्ड भाषा काम करती है। जैसा कि बहुत सी स्त्रियों ने कहना शुरू भी किया है यह एक प्रकार का Language Rape है। ये भाषाई बलात्कार है। हम इस प्रकार की भाषा से, इस मानसिकता से कैसे मुक्त होंगे यह महत्वपूर्ण सवाल है।

और अंत में मैं कहना चाहूँगा कि इस आंदोलन को चलाने के लिए, किसी भी आंदोलन को चलाने के लिए उसके जो मूल्य होते हैं वे मूल्य, उसके आदर्श, उसकी जो मांगें हैं, ये किसी न किसी नारे में कॉन्संट्रेट होनी चाहिए। नारे प्रतिनिधित्व करते हैं उन समस्त मांगों का, उन समस्त मूल्यों का, उस सारी चेतना का जिसके लिए हम लड़ रहे हैं। हमें कुछ ऐसे नारे विकसित करने चाहिए जो कि इस विचारधारात्मक संघर्ष को आगे भी ले जाने में बने रहें। वो एक क्रेटेरिया बन जाएँगे लोगों को जाँचने का कि आप इस नारे के साथ हैं अथवा नहीं। आप इस सारे मामले में विश्वास करते हैं या नहीं। तो समस्त चेतना, मूल्यों और संघर्ष को नापने और साथ होने का एक क्रेटेरिया बन जाता है। तो एक नारा जो जेएनयू के छात्रों ने पहले से ही दे रखा है। मुझे बहुत सही लगता है, और वो है- ‘बेखौफ़ आज़ादी’। इस सांस्कृतिक लड़ाई का सबसे प्रमुख नारा ‘बेखौफ़ आज़ादी’ होना चाहिए। ये नारा बहुत महत्वपूर्ण है। इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस सांस्कृतिक लड़ाई के जो तार राजनीति, प्रशासन, कानून, राज्य आदि से जुड़े हुए हैं, उस पूरे राजनीतिक परिदृश्य को ये नारा समेटता है। बेखौफ़ आज़ादी सिर्फ संस्कृति का सवाल नहीं है, बेखौफ़ राजनीति, लोकतन्त्र का, राज्य का, कानून का, पुलिस का, प्रशासन का हरेक से जुड़ा सवाल है। इसीलिए बेखौफ़ आज़ादी एक सही नारा है इस सांस्कृतिक लड़ाई का। इसके अलावा मैंने और भी नारे खोजने की कोशिश की, आप भी प्रयत्न करें। एक नारा जो मुझे ज्यादा व्यापक लगा और सही भी। मैं कहूँगा कि इस सांस्कृतिक लड़ाई से इस नारे को भी जोड़ा जाए और वो नारा है- Women’s Right is Human Right. स्त्री के अधिकारों का सवाल मानव अधिकारों का सवाल है।ये बात जो कभी दलितों के लिए अंबेडकर ने कही थी। । आज स्त्रियों के साथ होने वाले हर व्यवहार के लिए ये बात लागू है कि स्त्री अधिकार असल में मानव अधिकार हैं। इस नारे का महत्व यह है कि ये जो स्त्री-पुरुष वाला विभाजन है, एक तो प्राकृतिक विभाजन है। कोई स्त्री है, कोई पुरुष है।  लेकिन इस सवाल का मतलब शारीरिक रूप से नहीं है। इसके ऊपर जो हमारी सामाजिक निर्मिति है, ये स्त्री है और ये स्त्रीत्व होता है, ये पुरुष है और ये पुरुषत्व है। इस विभाजन को जड़-मूल से उखाड फेंकने की जरूरत है। ये स्त्री और पुरुष का विभाजन झूठा विभाजन है। बंग्ला में एक गीत है, गीत की पंक्तिया है ‘तुमी देखो नारी-पुरुष, आमी देखी शुद्धई मानुष’। तुम स्त्री और पुरुष मानकर देखते हो, मैं तो सब जगह मनुष्य को देखता हूँ। अतः ये स्त्री के अधिकार नहीं, स्त्री का सवाल है, मानवता का अधिकार है वो, मानवता का सवाल है वो। हमें पूरी मानवता के रूप में उनको उठाने की जरूरत है। आश्चर्य की बात है कि बड़े-बड़े लोग जिन्होंने मर्दवाद को चुनौती दी है। मर्दवाद से जब तक आप छुटकारा नहीं पायेंगे, आप इसी सड़ी-गली संस्कृति से छुटकारा नहीं पा सकते हैं। मर्द होना अलग बात है, मर्दवाद दूसरी बात है। ये मर्दवाद, ये पुरुषत्व, क्या चीज है ये पुरुषत्व ? ‘Boys don’t cry’ लड़के रोते नहीं,  हममें से कोई ऐसा नहीं होगा जिसने बचपन से ये बात न सुनी हो, अपने मां-बाप से, भाई-बहनों से, दोस्तों से- अए लड़का होके रोता है? छिः लड़के नहीं रोते। लड़कियों की तरह रोने बैठ गया। ये क्या बात है? ये कितनी घृणित चेतना है। हमें घृणा होनी चाहिए ऐसे सवालों से, ऐसे वाक्यों से और ऐसे मूल्यों से। मनुष्य रोता है। लड़का और लड़की नहीं रोते हैं। ऐसे सारे मुहावरे, ऐसी सारी भाषा, ऐसे सारे मूल्य जिसमें स्त्री और पुरुष का विभाजन किया गया है, फेंक देने लायक है। वो झूठे हैं, उनको खारिज कर देना चाहिए, ऐसी तमाम चीजों को। हजारी प्रसाद द्विवेदी मर्दवाद के खिलाफ लड़ते हुए उन्होंने ESCAPE में मर्दवाद को दिखाया। उन्होंने दिखाया कि ये जो लोग संन्यास ले लेते हैं ये मर्दवादी धारणा है। ये जो वैराग्य है और ये जो ऐशो-आराम, भोग-विलास है ये सब मर्दवादी धारणाएं हैं। ये जो सेनाएं खड़ी की जाती हैं, बड़े-बड़े मठ खड़े किए जाते हैं, और बड़ा राज्य का काम-धाम चलता है। ये सब मर्दवादी धारणाएं हैं। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में उनकी इन मान्यताओं को मैं बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ। लेकिन हजारी प्रसाद द्विवेदी जो इन बातों में मर्दवाद देख सके, वो आज भी हम नहीं देख पाते हैं। द्विवेदी जी कहते हैं कि ‘स्त्री की सफलता पुरुष को बांधने में है लेकिन उसकी सार्थकता पुरुष को मुक्त करने में है‘। ये सफलता और सार्थकता अपनी जगह पे है, लेकिन ये क्या चीज है?  क्यों स्त्री की सफलता ? अगर सफलता और सार्थकता है भी तो सिर्फ स्त्री की क्यों? पुरुष की क्यों नहीं ? हम अगर सफलता और सार्थकताओं में विश्वास करते है तो हमें कहना चाहिए कि मनुष्य की सफलता दूसरे को बांधने में है, लेकिन उसकी सार्थकता दूसरे को मुक्त करने मे हैं। ये मनुष्य का सवाल है। स्त्री ओर पुरुष का जहां भी सवाल उठाया जाएगा आप समझिए कि वो एक झूठा सवाल है और हमें उसका विरोध करना चाहिए। मर्दवाद पुरुषों और लड़कों के लिए एक बड़ा मूल्य बना हुआ है। जिसको Macho Man के द्वारा दिखाया जाता है. इसका असर बच्चों पर, खासकर बहुत साधारण लड़कियों पर, जिनकी चेतना सोई है, वो ऐसे मर्दवादी पुरुषों और लड़कों को बड़ा हीरो मानती हैं। ये मर्दवाद जो आदर्श बना हुआ है समाज में, हमारी सांस्कृतिक लड़ाई के लिए जरूरी है कि हम इस आदर्श को एक गर्हित मूल्य में बदल दें। मर्दवाद एक गर्हित मूल्य है। हर मर्द को इससे छुटकारा पाना चाहिए। हर स्त्री को भी इससे छुटकारा पाना चाहिए। मर्दवाद कोई वांछनीय चीज नहीं है, नितांत अवांछनीय चीज है। सावरकर जो मोहन भागवत वगैरह के पितामह हैं, जिनका उत्तराधिकार इन्हें मिला है, उस वीर सावरकर ने Six Glorious Epochs of Indian History (भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम अध्याय) किताब लिखी उसमें एक जगह उन्होंने शिवाजी के बारे में लिखा है कि ‘शिवाजी ने मुसलमानों पर आक्रमण करके उन्हें मार भगाया और उनकी स्त्रियों को बंदी बना लिया तो शिवाजी ने उन स्त्रियों को बिना बलात्कार किए छोड़ दिया, ये बहुत बड़ी गलती की शिवाजी ने। शिवाजी अपने पुरुषत्व का परिचय नहीं दे पाए।‘ आपने पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’ देखी होगी उसमें वो एक लड़की से शादी करता है और उसे लाहौर से रेगिस्तान के किसी इलाके में ले जाता है। लड़का पढ़ा-लिखा है और वो लड़की तो और भी विदेशों में रह चुकी है। वो लड़की की इच्छा का ख्याल रखते हुए उससे शारीरिक संबंध नहीं बनाता है। तब मौलवी लोग कहते हैं कि ‘अरे मर्द बन मर्द, जा उसके साथ सो के आ’। इन्हीं कामों के लिए मर्दानगी रह गई है? यही मर्दानगी है? अखबार (जनसत्ता) मे मैंने एक विज्ञापन देखा, दिल्ली पुलिस का- ‘औरतों को छेड़ना कोई मर्दानगी की बात नहीं हैं’। सही लिखा। लेकिन इसके बाद नीचे और एक चीज लिखी है- ‘उनकी रक्षा करना ही मर्दानगी है‘। मै कहता हूँ इस मर्दवाद पर लानत भेजनी चाहिए। यह एक गर्हित मूल्य है और इससे छुटकारा पाना हमारी सबसे बड़ी सांस्कृतिक लड़ाई है और इस चेतना को विभिन्न सृजनात्मक रूपों, विभिन्न कलात्मक रूपों में अभिव्यक्त करना चाहिए। तो ये दो नारे- Women’s Right is Human’s Right और ‘बेखौफ़ आज़ादी’,  ये दो ऐसे नारे हैं जो इस आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं।DSC_0106

एक और बहुत बड़ी चुनौती जो इस आंदोलन के विकास में है जो मैं आपसे कहना चाहूंगा कि इस आंदोलन को छोटे शहरों में ले जाने की जरूरत है, कस्बों में और देहाती इलाकों में ले जाने की जरूरत है। आप जेएनयू में कुछ कर सकते हैं, दिल्ली में भी कर सकते है, लेकिन खुरजा में जाकर करना, भोपाल में जाकर करना, भागलपुर में जाकर करना या जौनपुर में, वहां जाकर करना जहां इनके सांमती संस्कार चलते हैं, जहां स्त्रियां कुछ नहीं कर पाती हैं, लडकियों को बुरी तरह से छेड़ दिया जाता है और तब भी नज़र नीची करके चली जाएंगी, वरना घरवाले भी लड़की की ही पिटाई करेंगे कि तू इधर-उधर क्यों देख रही थी, वहां इन आंदोलनों को, इस चेतना को, इन मूल्यों को ले जाने की ज्यादा जरूरत है. अगर सिर्फ चुनाव जीतना हमारा मकसद नहीं है तो इस आंदोलनों को छोटे शहरों में, कालेजों में, गांवों में वहां के लड़के-लड़कियों के बीच हम कैसे ले जाएं,  अगर हम इसको जिंदा रखना चाहते हैं तो यह भी एक महत्वपूर्ण काम है।

(जेएनयू छात्रसंघ द्वारा आयोजित एक सभा में 23 जनवरी 2013 को दिया गया व्याख्यान )

वीर भारत तलवार

वीर भारत तलवार

प्रो.  वीर भारत तलवार,  प्रख्यात हिन्दी आलोचक, जेएनयू में प्राध्यापक

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