मुक्तिबोध के बहाने साहित्य-संस्कृति पर एक बहस: डॉ. राजकुमार
पश्चिमी विचारों के बढ़ते वर्चस्व के बावजूद उन्नीसवीं शताब्दी में ‘अन्धेर नगरी’ जैसे नाटकों, बीसवीं सदी में हबीब तनवीर के नाटकों, विजय तेन्दुलकर के ‘घासीराम कोतवाल’, गिरीश कर्नाड के ‘नागमण्डलम’ और ‘हयवदन’ जैसे नाटकों; विजयदान देथा की कहानियों और मुक्तिबोध की कहानियों और कविताओं में भारतीय परम्परा के सहज विकास के साक्ष्य मिल जाते हैं। ये सूची और भी लम्बी हो सकती है लेकिन ऊपर गिनाए गये नामों के सहारे हिन्दी की जातीय परम्परा ही नहीं, भारतीय साहित्य की जातीय परम्परा के विकास की वैकल्पिक अवधारणा प्रस्तुत की जा सकती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी की जातीय परम्परा की वैकल्पिक अवधारणा विकसित करने में मुक्तिबोध के रचनात्मक और वैचारिक लेखन की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो सकती है। #लेखक
रूप की संस्कृति और मुक्तिबोध
By डॉ. राजकुमार
1.
कोई भी कार्य ठीक से पूरा करने के लिए एक संस्कृति की आवश्यकता होती है। अंग्रेजी में इसे वर्क कल्चर कहते हैं और इसका काम चलाऊ अनुवाद कार्य-संस्कृति हो सकता है। कार्य-संस्कृति के अभाव में ठिकाने से कोई भी काम कर पाना मुश्किल हो जाता है। कार्य-संस्कृति सिर्फ कानून, कायदों के औपचारिक ज्ञान और उन्हें व्यवहार में लागू करने से नहीं बनती। जब तक किसी बाहरी दबाव या डर के बिना हम स्वतः अपने दायित्त्व का निर्वाह नहीं करने लगते, तब तक यह नहीं माना जा सकता कि सही मायने में हमने एक कार्यसंस्कृति विकसित कर ली है। असल में कार्य संस्कृति एक संस्कार की तरह हमारे व्यक्तित्व में व्याप्त हो जाती है, जिसका कई बार हमें, सचेत रूप में, अहसास भी नहीं होता। यदि समकालीन भारत में ज्यादातर लोग अपने दायित्त्व का निर्वाह नहीं करते या सिर्फ मजबूरी में या भयवश अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं तो इसका मतलब ये है कि हम कार्य-संस्कृति विकसित करने में असफल रहे हैं। एक सार्थक कार्य-संस्कृति का विकास किसी भी समाज को बेहतर ढंग से संचालित करने के लिए जरूरी है।
कार्य-संस्कृति की तरह साहित्य और कलाओं की भी संस्कृति होती है। साहित्यिक संस्कृति के अभाव में अच्छे और बेहतर साहित्य का सृजन असम्भव नहीं तो मुश्किल जरूर हो जाता है। साहित्यिक संस्कृति का सम्बन्ध सिर्फ समकालीन साहित्यिक संस्कृति से नहीं होता; समकालीन साहित्यिक संस्कृति भी वास्तव में किसी सभ्यता के समूचे साहित्यिक इतिहास को आत्मसात् करने पर बनती है। सार्थक साहित्य के रूप में पहचान उसी लेखन की बनती है जिसे अपनी सभ्यता के सांस्कृतिक इतिहास से उत्तीर्ण होकर लिखा जाता है। साहित्यिक लेखन मूलतः सांस्कृतिक कर्म है। इस सांस्कृतिक कर्म का एक राजनीतिक सन्दर्भ भी बन जाता है। लेकिन इसे राजनीतिक कर्म में निःशेष नहीं किया जा सकता है। माक्र्सवादी विचारधारा के हिमायती होने के बावजूद मुक्तिबोध के साहित्यिक लेखन का गहरा सरोकार भारतीय सांस्कृतिक परम्परा से रहा है। इसीलिए निराला के बजाय उनका तादात्म्य जयशंकर प्रसाद से बनता है। ‘तुलसीदास’ और ‘राम की शक्ति पूजा’ जैसी कविताएँ लिखने के बावजूद निराला की रचनाओं में सांस्कृतिक-बोध प्रसाद की रचनाओं की तरह अनुस्यूत नहीं है।
कोई भी सभ्यता अपने सुदीर्घ सांस्कृतिक जीवन के दौरान साहित्य और कला के विविध रूपों या विधाओं का विकास करती है। इन विधाओं/रूपों की अपनी बुनियादी संरचना होती है। इस बुनियादी संरचना का एक व्याकरण होता है। उस विधा में जो भी सार्थक बदलाव आते हैं, वे इस व्याकरण के अधीन संभव होते हैं। विजातीय प्रभाव भी इस व्याकरण के अधीन रूपान्तरित होकर रचना में आते रहते हैं। आरम्भिक आधुनिक दौर में संगीत, साहित्य, नृत्य, स्थापत्य, चित्रकला आदि के क्षेत्र में जो भी बदलाव आये, वे इसी तरह आए। इसीलिए विजातीय तत्त्वों को आत्मसात कर लेने के बावजूद जातीय परम्परा की निरन्तरता बनी रही।
साहित्य और कला के जातीय रूप जड़ नहीं होते। पहले से चली आ रही परम्परा से ही उनका विकास होता है। कोई रूप स्थिर होने से पहले कई स्रोतों से बहुत सारी चीजें आत्मसात करता है। जैसे कत्थक नृत्य के जिस रूप से आज हम परिचित हैं, वह रूप एक दिन में नहीं, धीरे-धीरे अस्तित्त्व में आया। एक बार जब कोई रूप पूर्णता प्राप्त कर लेता है तो उसका स्वरूप स्थिर हो जाता है। वह स्वायत्तता अर्जित कर लेता है। उसकी एक बुनियादी संरचना निर्मित हो जाती है। ये संरचना एक प्रकार के व्याकरण के अधीन कार्य करने लगती है। फिर इस व्याकरण में कोई बुनियादी बदलाव करना मुश्किल हो जाता है। इस रूप/विधा या माध्यम में काम करने वाला रचनाकार तभी सफल होता है, जब उस विधा के व्याकरण को समझकर सक्रिय होता है। इसके बावजूद, किसी विधा के अन्दर ऐसी गुंजाइश रहती है कि उसमें कुछ नया उन्मेष किया जा सके। उदाहरण के लिए गजल विधा का प्रयोग प्रायः प्रेम सम्बन्धी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए किया जाता रहा है। किन्तु गजल में प्रेम की केन्द्रीयता को स्वीकार करते हुए भी सार्थक नवोन्मेष सम्भव है। फ़ैज अहमद फ़ैज की गजलें इस बात का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं कि प्रेम की केन्द्रीयता को स्वीकार करने के बावजूद उसमें क्रान्तिकारी और प्रगतिशील तेवर पैदा किये जा सकते हैं। किन्तु यदि गजल की विधा में वीर रस या समाज सुधार सम्बन्धी बातें डालने की कोशिश की जाए तो ये स्वरूप उसे धारण नहीं कर पाएगा। एक अच्छा रचनाकार वो है जो अपने माध्यम के प्रति संवेदनशील है; जो ये जानता है कि सुई से तलवार का काम नहीं लिया जा सकता और न ही तलवार से सुई का।
ये सही है कि नये युग की अनुभूतियों को साकार करने और नये विषयों को साहित्य और कला के माध्यमों में रचने हेतु नई विधाओं या रूपों का विकास होता है, किन्तु नई विधाएँ या नये रूप भी अपनी पूर्व परम्परा से ही निकलते हैं। उनका व्याकरण पूर्व प्रचलित रूपों से थोड़ा अलग तो होता है, लेकिन उनसे निरपेक्ष नहीं होता। इसीलिए उसे जातीय परम्परा के विकास के रूप में देखा जाता है। जैसे ध्रुपद गायन परम्परा का विकास ख्याल गायकी के रूप में हुआ और फिर ख्याल गायकी की परम्परा से आगे पूर्वी गायकी का विकास हुआ। पूरबी अंग की गायकी में लोक परम्परा में पहले से मौजूद होरी, चैती, दादरा, कजरी इत्यादि रूपों का उपशास्त्रीय गायन के रूप में उन्नयन होता है। इसी तरह रवीन्द्र संगीत का विकास हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत परम्परा और बांग्ला की बाउल गायन की लोक परम्परा से जुड़कर हुआ। रवीन्द्र संगीत कोे पश्चिमी संगीत परम्परा के कुछ तत्त्वों का भी समावेश है। रवीन्द्र संगीत को इसीलिए संगीत की जातीय परम्परा के सहज विकास के रूप में देखा जाता है। इसके बावजूद उसका बुनियादी स्वभाव भारतीय संगीत परम्परा से निर्मित है। इसके विपरीत जहाँ पश्चिमी संगीत की नियामक भूमिका होगी, वहाँ भारतीय संगीत परम्परा से कुछ तत्व ले लेने के बावजूद भी उसका स्वभाव जातीय/भारतीय नहीं रहेगा। भले ही उसकी भाषा और रंग-रोगन भारतीय क्यों न हो। गाँधी ने कई बातें पश्चिमी परम्परा से लीं, फिर भी उनके चिन्तन का स्वभाव भारतीय बना रहा, क्योंकि उन्होंने पश्चिमी विचारों को भारतीय चिन्तन परम्परा के व्याकरण में आत्मसात कर लिया। इसके उल्टी बात उन विचारकों की है जिन्होंने भारतीय चिन्तन परम्परा को पश्चिमी परम्परा में आत्मसात करने की कोशिश की।
उन्नीसवीं सदी में औपनिवेशिक आधुनिकता के आगमन के साथ भारतीय नवजागरण की चर्चा आरम्भ होती है। भारतीय नवजागरण के दौरान ज्ञान, साहित्य और कला की पहले से चली आ रही बुनियादी संरचना को त्यागकर पश्चिमी संरचनाओं को अपना लिया जाता है। इसे पैराडाइम शिफ्ट कहा गया। पश्चिमी पैराडाइम के निकष पर भारतीय सभ्यता की साहित्यिक, सांस्कृतिक और ज्ञान सम्बन्धी परम्पराओं को नापा जाने लगा। पश्चिमी पैराडाइम को ही थोड़ा-बहुत बदलकर भारतीय यथार्थ को बोधगम्य बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाने लगा। पश्चिमी साहित्यिक तथा कलात्मक रूपों में भारतीय यथार्थ-बोध को ढालकर अभिव्यक्त किया जाने लगा। रामविलास शर्मा ने इसे हिन्दी की जातीय परम्परा के विकास के रूप में समादृत किया है। अंग्रेजी के विद्वान आलोचक होमी भाभा ने इसे ‘मिमिक्री’ और ‘हाइब्रिडिटी’ की संज्ञा दी है। किन्तु न तो इसे हिन्दी की जातीय परम्परा का विकास कहा जा सकता है और न ही इसकी व्याख्या ‘हाइब्रिडिटी’ के रूप में की जा सकती है। आरम्भिक आधुनिक दौर में हुए बदलाव की व्याख्या अवश्य हिन्दी की जातीय परम्परा के विकास के रूप में की जा सकती है क्योंकि उस दौर में पश्चिमी एशिया और अरब से आये प्रभाव को पहले से चले आ रहे साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों के व्याकरण के अधीन आत्मसात कर लिया गया। किन्तु उन्नीसवीं सदी में ऐसा नही हुआ। पहले से चले आ रहे साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों को त्यागकर पश्चिमी साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों को अपना लिया गया और फिर इन पश्चिमी साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों में ‘भारतीय यथार्थ’ ठँूसने की कोशिश की जाने लगी। साहित्यिक सांस्कृतिक विधाओं की परिकल्पना डिब्बे के रूप में किए बिना साहित्यिक सांस्कृतिक रूपों और अन्तर्वस्तु (यथार्थ) में पूर्ण पार्थक्य स्वीकार कर पाना संभव न था। साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप वास्तव में ‘रूप’ नहीं होते। वे किसी संस्कृति को बोधगम्य बनाने वाले मंत्र की तरह होते हैं जिनके बिना उस संस्कृति का बोध ही असंभव हो जाता है। किसी सभ्यता की धड़कन उसके सुदीर्घ सांस्कृतिक इतिहास के दौरान विकसित साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों में अवतरित होती है। टेक्नाॅलजी का एक सभ्यता से दूसरी सभ्यता में स्थानान्तरण आसान होता है, किन्तु साहित्यिक-सांस्कृतिक रूपों को एक जगह से निकालकर दूसरी जगह रोपना आसान नहीं होता।
भाषा का स्वभाव किसी डिब्बे की तरह नही, जिसमें कुछ भी डाला जा सके। भाषा दर्पण की तरह भी नहीं, जो यथार्थ को प्रतिबिम्बित करे। भाषा कोई पारदर्शी माध्यम भी नहीं, जिसके आर-पार देखा जा सके। भाषा यथार्थ को प्रतिबिम्बित नही करती, बल्कि एक संसार रचती है। यह संसार यथार्थ से मिलता-जुलता हो सकता है और पूरी तरह काल्पनिक भी। संसार रचने की सामथ्र्य भाषा में है। इसका मतलब यह है कि भाषा अपने ढंग से, अपनी शर्तों पर एक संसार रचती है। आप भाषा में जो बतलाना चाहते हैं, वह बात भाषा में वैसे ही नहीं आती, जैसे आप चाहते हैं। बात बदल-बदल जाती है। मुक्तिबोध ने कला के तीन क्षण में इस प्रसंग की विस्तार से चर्चा की है। फ़ैज ने इसी बात को अपने अन्दाज में इस तरह कहा है:
दिल से तो हर मुआमला करके चले थे साफ हम।
कहने में उनके सामने बात बदल-बदल गयी।।
2.
हिन्दी की जातीय परम्परा की सबसे ज्यादा चर्चा रामविलास शर्मा ने की। रामविलास शर्मा ने भारतेन्दु युग के साथ विकसित होने वाले समूचे आधुनिक हिन्दी साहित्य की व्याख्या हिन्दी की जातीय परम्परा के सहज विकास के रूप में की है। रामविलास शर्मा ने हिन्दी की जातीय परम्परा की जिस तरह व्याख्या की है, वह मुख्यतः अन्तर्वस्तु प्रधान है। अन्तर्वस्तु केन्द्रित समझ से सामाजिक परिवर्तन के कारणों की व्याख्या की जा सकती है। लेकिन साहित्य और कला के विभिन्न रूपों में घटित होने वाले परिवर्तन की सन्तोषजनक व्याख्या नहीं की जा सकती। क्योंकि साहित्यिक और कलात्मक रूपों की एक विशिष्ट संरचना होती है और उनमें जो भी बदलाव आते हैं, वे बदलाव प्रायः उस संरचना के अन्दर से निकलते हैं। ये मानना गलत है कि साहित्यिक या कलात्मक रूप सामाजिक परिवर्तनों को यथावत् प्रतिबिम्बित करते हैं। सामाजिक परिवर्तन का एहसास साहित्यिक-कलात्मक रचनाओं से होता जरूर है। लेकिन ये एहसास साहित्य और कला के विभिन्न माध्यम् अपनी शर्तों पर, माध्यम के स्वभाव के अनुरूप ही कराते हैं। इनका वैशिष्ट भी यही है। इसीलिए संगीत सुनने और कविता पढ़ने/सुनने से हमें जो अनुभूति होती है, वह अनुभूति समाज-विज्ञान पढ़ने से होने वाले अनुभूति से भिन्न होती है।
हिन्दी की जातीय परम्परा की कोई भी सार्थक चर्चा साहित्य या कला के ‘माध्यम’ को छोड़कर सम्भव नहीं। साहित्य और कलाओं के प्रभाव का निर्धारण भी मुख्य रूप से माध्यम विशेष में अर्जित की गयी दक्षता से होता है। ये प्रभाव सिर्फ अन्तर्वस्तु से निर्धारित/तय नहीं होता।
मुक्तिबोध सम्भवतः हिन्दी के उन विरल लेखकों में से हैं, जिनका सांस्कृतिक बोध बहुत ही गहरा है। सही मायने में सृजनात्मक सांस्कृतिक बोध स्थूल नहीं, बहुत सूक्ष्म होता है; और विचार नहीं, संस्कार की तरह रचनात्मकता के विभिन्न आयामों में रूपायित होता है।
मुक्तिबोध का रचना संसार हमें इसलिए प्रभावशाली लगता है क्योंकि उन्होंने भारतीय सभ्यता के सांस्कृतिक बोध को संवेदना के स्तर पर अनुभव किया और फिर अपनी कृतियों में इस अनुभूति को सृजित किया। विचारणीय प्रश्न ये है कि जब सर्वत्र यथार्थवाद का बोलबाला था, मुक्तिबोध ने अपनी रचनात्मकता अभिव्यक्ति के लिए ऐसे रूप की खोज की जिसका सम्बन्ध न तो यथार्थवाद से और न ही आधुनिकतावाद से बनता है। असल में मुक्तिबोध का जैसा रचनात्मक व्यक्तित्व था, उसकी अभिव्यक्ति यथार्थवादी शिल्प में सम्भव नहीं थी। उसकी अभिव्यक्ति आधुनिकतावादी शिल्प में भी संभव नहीं थी। ये बात अलग है कि मुक्तिबोध की रचनात्मक अभिव्यक्ति की संगति यथार्थवादी शिल्प के बजाय आधुनिकतावादी शिल्प से ज्यादा बनती है। फिर भी उसकी सन्तोषजनक व्याख्या आधुनिकतावादी सैद्धान्तिकी के सहारे सम्भव नहीं। मुक्तिबोध की रचनात्मकता का बहुत गहरा सम्बन्ध भारत की पूर्व औपनिवेशिक सांस्कृतिक परम्परा से है। उसी की बुनियाद पर वे आधुनिकतावादी और यथार्थवादी सैद्धान्तिकी का अतिक्रमण करते हैं। भले ही मुक्तिबोध ने बहुत सोच-समझकर ऐसा न किया हो, लेकिन उनकी कविताओं और कहानियों के विन्यास के आधार पर ऐसा अवश्य कहा जा सकता है कि उनकी रचनात्मकता न तो आधुनिकतावाद के साँचे में फिट होती है, न यथार्थवाद के साँचे में।
3.
अगर भारतेन्दु युग से आधुनिक हिन्दी की शुरूआत मानी जाए, तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि आधुनिक युग की शुरूआत के साथ ही रूप और अन्तर्वस्तु का पार्थक्य स्वीकार कर लिया गया। रूप और अन्तर्वस्तु का पार्थक्य स्वीकार करने से आशय यह है कि रूप की परिकल्पना एक तटस्थ अवधारणा के रूप में की जाने लगी, जिसमें सुविधानुसार कोई भी अन्तर्वस्तु डाली जा सकती है। इस बात को ज्यादा सरल तरीके से कहें तो रूप की परिकल्पना एक डिब्बे के रूप में की गयी, जिसमें जरूरत के हिसाब से कुछ भी डाला जा सकता है।
आधुनिकताजन्य चेतना के प्रचार-प्रसार के सम्बन्ध में भारतेन्दु ने लिखा है, ‘‘मैंने यह सोचा है कि जातीय संगीत की छोटी-छोटी पुस्तकें बनें और वे सारे देश, गाँव गाँव, में साधारण लोगों में प्रचार की जायँ। यह सब लोग जानते हैं कि जो बात साधारण लोगों में फैलेगी उसी का प्रचार सार्वदेशिक होगा और यह भी विदित है कि जितना ग्रामगीत शीघ्र फैलते हैं और जितना काव्य को संगीत द्वारा सुनकर चित्त पर प्रभाव होता है उतना साधारण शिक्षा से नहीं होता। इससे साधारण लोगों के चित्त पर भी इन बातों का अंकुर जमाने को इस प्रकार से जो संगीत फैलाया जाय तो बहुत कुछ संस्कार बदल जाने की आशा है। … इस हेतु ऐसे गीत बहुत छोटे छोटे छंदों में और साधारण भाषा में बनैं, वरंच गवाँरी भाषाओं में और स्त्रियों की भाषा में विशेष हों। कजली, ठुमरी, खेमटा, कँहरवा, अद्धा, चैती, होली, साँझी, लंबे, लावनी, जाँते के गीत, बिरहा, चनैनी, गजल इत्यादि ग्रामगीतों में इनका प्रचार हो और सब देश की भाषाओं में इसी अनुसार हो।’’
भारतेन्दु के उपर्युक्त कथन से इस बात की पुष्टि होती है कि रूप की परिकल्पना अन्तर्वस्तु निरपेक्ष सत्ता के रूप में की जाने लगी।
इससे पहले रूप और अन्तर्वस्तु की परिकल्पना परस्पर निरपेक्ष सत्ता के रूप में नहीं की जाती थी। जैसे हिन्दुस्तानी संगीत परम्परा में ये बताया गया है कि अमुक राग अमुक समय पर गाया जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि एक समय विशेष की संवेदना एक राग विशेष में ही रूपायित हो सकती है। अर्थात् राग के स्वभाव का सम्बन्ध प्रहर विशेष के अनुरूप बनता है। समय और राग के सम्बन्ध की पहचान का विस्तार षड्ऋतुवर्णन और फिर बारहमासा गायन की लोकपरम्परा में दिखायी देता है। यदि चैबीस घण्टे के चक्र में रागों का समय निर्धारित किया गया है, तो बारहमासे को साल के बारह महीनों के चक्र में स्थापित किया गया है। ये माना गया कि हर महीने का स्वभाव अलग है। किसी माह या ऋतु के स्वभाव के अनुरूप ही उस माह या ऋतु में गाये जाने वाले गीत की धुन विकसित की गयी। उदाहरण के तौर पर फागुन माह में गाये जाने वाले गीत ‘होरी’ की धुन और सावन महीने में गाये जाने वाले गीत कजरी की धुन अलग है। इसका मतलब ये है कि धुन सिर्फ रूप नहीं है, जिसमें कैसा भी गीत गाया जा सकता है। चैती की धुन में होरी नहीं गा सकते और होरी की धुन में चैती गाने पर अटपटा लगेगा। इस तरह धुन और गीत परस्पर इस तरह मिल जाते हैं कि इनमें से किसी को मात्र ‘रूप’ नहीं कहा जा सकता। धुन भी अंतर्वस्तु है और गीत भी अन्तर्वस्तु है। यह भी कहा जा सकता है कि रूप और अन्तर्वस्तु इस तरह एकाकार हो जाते हैं कि ये कहना न तो सम्भव है और न तो उचित है कि क्या रूप है और क्या अन्तर्वस्तु। कुन्तक ने इस स्थिति को ‘निरस्त सकल अवयव’ कहा है। कुन्तक का आशय यह है कि रचना में प्रयुक्त विभिन्न अवयवों की स्वतंत्र सत्ता समाप्त हो जाती है। ठीक इसी तरह गीत और धुन का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है। जो प्रभाव है वह इनके एक हो जाने से उत्पन्न होने वाला प्रभाव है।
ऊपर के विवेचन से ये बात समझने में मदद मिल सकती है कि रूप की परिकल्पना समय और विषयवस्तु से निरपेक्ष नहीं होती। एक रूप में जो चाहें, वो मनमाफिक नहीं भरा जा सकता। जैसे कजरी की धुन में परिवार नियोजन का महत्त्व गाया जाने लगे तो उसका प्रभाव बहुत संतोषजनक नहीं होगा। इसका एक निहितार्थ ये भी है कि रूप अपने स्वभाव के अनुरूप अन्तर्वस्तु को ही स्वीकार करता है। रूप के स्वभाव के विपरीत जब भी कुछ डालने की चेष्टा की जाती है, उसके सार्थक और टिकाऊ परिणाम नहीं निकलते। प्रसिद्ध चिन्तक हेडेन व्हाइट ने इसीलिए ‘कंटेंट आॅफ दि फार्म’ की चर्चा की है। ‘कंटेंट आफ दि फार्म’ से आशय यह है कि सामान्य समझ के विपरीत रूप यह निर्धारित करता है कि उसमें कैसी अन्तर्वस्तु रखी जा सकती है। रूप से अन्तर्वस्तु निर्धारित होती है। अन्तर्वस्तु से रूप नहीं।
पहचान/अस्मिता को रेखांकित करने वाली चीज रूप है, न कि अन्तर्वस्तु। पहले तो यही देखा जाएगा कि आप सुर में गा सकते हैं या नहीं। किसी गायक की पहचान इस बात से होगी कि उसे रागों का ज्ञान है या नहीं और वह राग में गा सकता है या नहीं। गायक राग में क्या गाता है, गीत के विषय या बोल क्या हैं, ये बातें काफी हद तक उस राग की प्रकृति से निर्धारित होंगी। ये बात साहित्य पर भी लागू होती है।
अभी तक कही गयी बातें अगर ठीक हैं, तो फिर रूप और अन्तर्वस्तु सम्बन्धी उस समझ पर नये सिरे से विचार करना चाहिए, जिसकी शुरूआत हिन्दी में भारतेन्दु के साथ होती है। यह सही है कि समूचे आधुनिक हिन्दी साहित्य में विषयवस्तु को केन्द्रीय मानकर रूप और अन्तर्वस्तु के सम्बन्ध पर चर्चा हुई। व्यवहार में भी इस पर इसी रूप में अमल किया गया। यहाँ तक कि प्रयोगवादी-आधुनिकतावादी रचनाकारों ने भी रूप के महत्त्व और उसके सांस्कृतिक संदर्भ को नजरअंदाज करने की गलती की। अंग्रेजी ढंग का नाॅवेल या कविता लिखने वालों में केवल यथार्थवादी-प्रगतिवादी रचनाकार ही नहीं आते, प्रयोगवादी-आधुनिकतावादी रचनाकारों ने भी अंग्रेजी ढंग के रूप-विन्यास में ही अपनी ज्यादातर रचनाएँ लिखी हैं। प्रयोगवादी-आधुनिकतावादी रचनाकार रूप की चिन्ता तो खूब करते हैं, लेकिन ये बात भुला देते हैं कि जिस रूप में वो रचना कर रहे हैं, उस रूप का सम्बन्ध पश्चिमी साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा से है। पश्चिमी साहित्यिक-सांस्कृतिक परम्परा की कोख से जन्मे रूप में अव्वल तो भारतीय अन्तर्वस्तु आ नहीं सकती और अगर वो ठीक से उस ‘रूप’ में समा जा रही है तो उसे भारतीय अन्तर्वस्तु कहना ही संदेहास्पद होगा। ये जरूर कह सकते हैं कि रूप और अन्तर्वस्तु दोनों पश्चिमी हैं ! लेकिन फिर ये सवाल उठेगा कि गैर-पश्चिमी भाषा और साहित्यिक-सांस्कृतिक संदर्भ में ऐसी रचना की क्या संगति बनेगी, जिसका रूप और अंतर्वस्तु दोनों पश्चिमी है।
जैसाकि पहले कहा गया, इस प्रश्न का एक उत्तर होमी भाभा के यहाँ मिलता है, जहाँ वे इस स्थिति को वर्णसंकरता के रूप में व्याख्यायित करते हैं। ये न तो पूरी तरह पश्चिमी, और न पूरी तरह भारतीय रूप और संवेदना है, क्योंकि पश्चिम के सम्पर्क में आने के बाद समूचा साहित्यिक-सांस्कृतिक संदर्भ ही वर्णसंकर हो गया है। वास्तविकता तो ये है कि जिसे वर्णसंकरता की स्थिति कहा गया है, वो वास्तव में वर्णसंकरता की स्थिति है नहीं। यहाँ सब कुछ पश्चिम का ही है, सिर्फ रंगरोगन और भाषा भारतीय है। वर्ण संकरता की स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब दोनों पक्षों की भूमिका बराबरी की होती है। ये अकारण नहीं है कि इस कथित वर्णसंकरता ने किसी बड़े वैचारिक एवं रचनात्मक उन्मेष को जन्म नहीं दिया। वर्णसंकरता की ये अवधारणा इससे पहले इतिहासकारों द्वारा प्रयुक्त भारतीय नवजागरण की अवधारणा की तरह ही बहुत उर्वर साबित नहीं हुई। क्योंकि पराधीनता के दौरान पश्चिम से जो भी संवाद हुआ, वो ग़ैर बराबरी के स्तर पर हुआ और इस संवाद में पश्चिम की हर क्षेत्र में नियामक और केन्द्रीय भूमिका स्वीकार करते हुए उसका भारतीय संस्करण गढ़ने की कोशिश की गयी। इसलिए इस स्थिति को वर्णसंकरता की अवधारणा के जरिये व्याख्यायित करने के बजाय ‘डिराइवेटिव डिस्कोर्स’ के रूप में व्याख्यायित करना ज्यादा सटीक होगा। डिराइवेटिव डिस्कोर्स की अवधारणा का इस्तेमाल पार्थ चटर्जी ने अपनी पुस्तक में राष्ट्रवादी चिन्तन को व्याख्यायित करने के संदर्भ में किया है। इस सोच में ये बात शामिल है कि मूल और नियामक चिन्तन तो पश्चिम का है, और राष्ट्रीय चिन्तन के रूप में जो कुछ लिखा-पढ़ा गया है, वो पश्चिमी चिन्तन से ही निकला है। इस विमर्श में भारतीय राष्ट्रीय चिन्तन की स्वायत्तता स्वीकार करने के बावजूद पश्चिमी चिन्तन की केन्द्रीयता बनी रहती है। क्या यही बात प्रयोगवादी-आधुनिकतावादी-यथार्थवादी रचनाकारों के साहित्यिक अवदान के बारे में भी कही जा सकती है! क्या उनके अवदान की व्याख्या डिराइवेटिव डिस्कोर्स के रूप में करना उचित नहीं होगा?
ये तो नही कहा जा सकता कि हिन्दी की जातीय परम्परा का उन्नीसवीं सदी के बाद विकास ही नहीं हुआ। लेकिन ये जरूर कहा जा सकता है कि हिन्दी की जातीय परम्परा के सहज विकास के रूप में समादृत किये जाने वाले बीसवीं शताब्दी के साहित्य का स्वरूप जातीय कम और पश्चिमी ज्यादा है। असल में, जैसे-जैसे जातीय परम्परा के संस्कार कमजोर कमजोर पड़ते गये, वैसे-वैसे पश्चिमी विचारों का प्रभाव बढ़ता गया। किन्तु पुराने संस्कार इतने आसानी से छूटते नहीं। पश्चिमी विचारों के बढ़ते वर्चस्व के बावजूद उन्नीसवीं शताब्दी में ‘अन्धेर नगरी’ जैसे नाटकों, बीसवीं सदी में हबीब तनवीर के नाटकों, विजय तेन्दुलकर के ‘घासीराम कोतवाल’, गिरीश कर्नाड के ‘नागमण्डलम’ और ‘हयवदन’ जैसे नाटकों; विजयदान देथा की कहानियों और मुक्तिबोध की कहानियों और कविताओं में भारतीय परम्परा के सहज विकास के साक्ष्य मिल जाते हैं। ये सूची और भी लम्बी हो सकती है लेकिन ऊपर गिनाए गये नामों के सहारे हिन्दी की जातीय परम्परा ही नहीं, भारतीय साहित्य की जातीय परम्परा के विकास की वैकल्पिक अवधारणा प्रस्तुत की जा सकती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी की जातीय परम्परा की वैकल्पिक अवधारणा विकसित करने में मुक्तिबोध के रचनात्मक और वैचारिक लेखन की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण हो सकती है।
शोर-शराबे से दूर अध्ययन-अध्यापन में मग्न रहने वाले युवा-तुर्क हिन्दी आलोचक। भक्ति साहित्य, हिन्दी नवजागरण, आधुनिकता, आधुनिक साहित्य, प्रेमचंद, हिन्दी कहानी इत्यादि पर लगातार लेखन। किताबों में जैसी रुचि इनकी है, वह अन्यत्र दुर्लभ ही हो गई है। फिलहाल, बी॰एच॰यू॰ के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक।इनसे dr.kumar.raj@gmail.com पर संपर्क संभव।
साभार – कथादेश
जारी….
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