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‘चांद’, ‘माधुरी’ और हिंदी नवजागरण : अविनाश मिश्र

अपने लेखकीय कर्म की प्रतिबद्धता, मूल्यनिष्ठता और व्यापकता के लिए प्रसिद्ध प्रियंवद का नया काम एक ऐसे वक्त में हमारे सामने आया है जब समता के संघर्ष कमजोर पड़ रहे हैं, न्याय की राह और मुक्ति की इच्छा नए सिरे से दमन के बीच है, राजनीति और पत्रकारिता पतनशीलता के शीर्ष पर हैं और हिंदी की साहित्यिक मेधा की ऊंचाई नापने के लिए ‘दैनिक जागरण’ की मदद ली जा रही है। इस स्थिति में प्रियंवद के संपादन में हिंदी नवजागरण काल (1929 ई. से 1933 ई. तक) की दो प्रमुख पत्रिकाओं — ‘चांद’ और ‘माधुरी’ — से रचना-चयन के सात खंडों का प्रकाशन एक महत्वशाली और प्रासंगिक घटना है। एक बेहद अश्लील सांस्कृतिक शोर और प्राचीनता-प्रेम के दरमियान, बहुत पीछे जाए बगैर यह प्रकाशन यह जानने का अवसर है कि कभी हमारी संस्कृति कैसी थी, हमारी बनावट कैसी थी, हमारे घर कैसे थे, हमारी प्राथमिकताएं और आवश्कताएं कैसी थीं, हमारा रहन-सहन और अन्न कैसा था, हमारी शिक्षा-दीक्षा, हमारी किताबें और पोशाक कैसी थी, हमारे नाटक, हमारी नाटक-मंडलियां और फिल्में कैसी थीं, हमारी पत्रकारिता कैसी थी, अभिव्यक्ति और विचारों की स्वतंत्रता और मूल मानवीय अधिकारों के लिए हमारा कभी न खत्म होने वाला संघर्ष कैसा था। # लेखक 

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तस्वीर सौजन्य: उदय शंकर

सारे सवालों की रोशनी में अंधेरा नजर आया

(‘चांद’ और ‘माधुरी’ चयन के सात खंडों के प्रकाश में एक प्रतिक्रिया और एक प्रसंग)   

 BY अविनाश मिश्र  

मैथिलीशरण गुप्त की ‘आर्य’ शीर्षक कविता की प्रारंभिक पंक्तियां — हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी / आओ विचारें आज मिल कर ये समस्याएं सभी — अपनी बहुउद्देशीयता की वजह से कभी पुरानी पड़ती नजर नहीं आती हैं। हमारी समस्याएं बढ़ती-बदलती रहती हैं और यह विचार करने की सामर्थ्य भी कि हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी…

‘चांद’ चयन के संपादकीय खंड में राष्ट्रीय शिक्षा पर रामरखसिंह सहगल के किस्तवार संपादकीय शिक्षा में स्त्रियों और दलितों की स्थिति, उसमें व्याप्त वर्ण-व्यवस्था का पक्ष, और उसके जरिए सत्ता के प्रतिकार की तत्कालीन परंपरा बयान करते हैं। मौजूदा राजसत्ता इस वक्त जो हमारे विश्वविद्यालयों और विद्यार्थियों के साथ कर रही है, इसकी जांच के लिए ये संपादकीय एक आधार सरीखे हैं। आधुनिक शिक्षा-प्रणाली के संदर्भ में रामरखसिंह सहगल मेकॉले को उद्धृत करते हैं, ‘‘हमें भारत में ऐसे मनुष्यों की एक श्रेणी पैदा कर देने का शक्ति-भर प्रयत्न करना चाहिए, जो हमारे और उन करोड़ों भारतवासियों के बीच, जिन पर हम शासन करते हैं, दुभाषिए का काम करे। इन लोगों को ऐसा होना चाहिए कि ये केवल रंग और रक्त की दृष्टि से भारतवासी हों, किंतु रुचि, विचार, भाषा और भावों की दृष्टि से अंग्रेज हों।’’ [खंड : 1, पृष्ठ : 93]

‘चांद’ चयन के संपादकीय खंड को पढ़कर बहुत सहज ही इस बात की प्रतीति होती है कि अपने उन बहुत सारे राष्ट्र-निर्माताओं को जो भारतीय मानस को सहेजने-गढ़ने के लिए सचेष्ट रहे, हम कब का भुला चुके हैं। कुछ नाम इस चयन के पन्नों पर जब खुलते हैं, तब यह नजर आता है कि स्वतंत्रता से पूर्व सामाजिक-सुधार के सुदीर्घ संघर्ष में लगे रहे इन नामों का अब कोई नामलेवा नहीं है। हरविलास जी शारदा एक ऐसा ही नाम हैं और सरलादेवी चौधरानी भी। शारदा सामाजिक और राजनीतिक सुधारों में एक गंभीर पारस्परिक संबंध देखते थे। उनके अनुसार एक की ओर ध्यान न देने से दूसरे को गहरा आघात पहुंचता है। सामाजिक और राजनीतिक सुधार साथ-साथ हों, वह इस बात के हामी थे। बाल-विवाह संबंधी लड़ाई, अछूतोद्धार और स्त्री-समानता के लिए हरविलास जी शारदा के यत्न कितने अविस्मरणीय हैं, इसकी सूचना ‘चांद’ के संपादकीय पढ़कर मिलती है।

‘स्त्रियों के जन्मसिद्ध अधिकार’ शीर्षक संपादकीय में धनीराम प्रेम लिखते हैं, ‘‘श्रीमती सरलादेवी चौधरानी भारत की उन थोड़ी-सी महिलाओं में से हैं, जिन्होंने राजनीतिक तथा सामाजिक क्षेत्र में बहुत-कुछ कार्य किया है। उनकी सेवाएं पुरानी हैं और उनका अनुभव बहुत प्रौढ़। वह जो कुछ कहती हैं, वह सारगर्भित तथा गवेषणापूर्ण होता है और उसमें मनन करने योग्य पर्याप्त सामग्री रहती है। अभी हाल ही में उन्होंने ‘बंगाल महिला कांग्रेस’ की सभानेत्री की हैसियत से जो भाषण दिया है, वह बड़ा महत्वपूर्ण है। उस भाषण में भारतवर्ष के सामने तथा भारतवर्ष के द्वारा संसार के सामने उन्होंने बड़े स्पष्ट तथा जोरदार शब्दों में स्त्रियों के जन्मसिद्ध अधिकारों की मांग पेश की है।’’ [खंड : 1, पृष्ठ : 185-186]

सरलादेवी की मांगों में हर आयु और वर्ग की स्त्री के लिए जिन अधिकारों की चर्चा की गई, वे स्त्री को एक नागरिक की तरह देखने की बुनियादी कार्य-योजना को प्रस्तावित करते हैं। सरलादेवी की आवाज तत्युगीन स्त्री-स्थिति को पूर्णतः परिवर्तित करने के पक्ष में थी। इसमें स्त्री-मुक्ति की आकांक्षा का वजन था।

इसके अतिरिक्त ‘मिथिला’ (बहुविवाह की जातिवादी कुप्रथा के संदर्भ में), ‘हिंदू-समाज और तलाक’, ‘ऑर्डिनेंस-युग’, ‘हमारी धार्मिक समस्याएं’, ‘दर्द की तस्वीरें’, ‘वर्तमान राजपूताना’, ‘वे और हम’, ‘हिंदू-समाज और जातिभेद’, ‘हिंदुओं में संयुक्त-कुटुंब-प्रथा’, ‘सामाजिक-क्रांति’, ‘भारतीय स्त्री-समाज’, ‘संसार-संकट’, ‘विश्वव्यापी अर्थ-संकट’, ‘स्वदेशी’, ‘भारत में बेकारी’ ये शीर्षक ही ‘चांद’ के संपादकीयों के — जो रामरखसिंह सहगल, शुकदेव राय, त्रिवेणी प्रसाद, भुवनेश्वर प्रसाद मिश्र ‘माधव’, लक्ष्मीदेवी, धनीराम प्रेम, मथुरा लाल शर्मा, नवजादिकलाल श्रीवास्तव द्वारा लिखे गए — सरोकार और दृष्टि की व्यापकता को बताने के लिए पर्याप्त हैं।

इस पर्याप्तता का प्रभाव समझने के लिए ‘चांद’ और ‘माधुरी’ के चयन-खंडों के संयुक्त प्राक्कथन में व्यक्त प्रियंवद के शब्द उल्लेखनीय हैं, ‘‘1929 में बाल-विवाह के विरोध में ‘शारदा एक्ट’ पारित हुआ और 1929 में ही स्त्रियों की कुछ श्रेणियों को पैतृक संपत्ति में अधिकार मिला। स्त्रियां अब जहाज उड़ा रही थीं, विश्वविद्यालयों में डिग्रियां ले रही थीं, खिलाड़ी बन रही थीं, तैरने की पोशाक पहनकर पानी में छलांगें लगा रही थीं। वे जेल जा रही थीं, शराब की दुकानों पर पिकेटिंग कर रही थीं, सिनेमा के परदे पर निस्संकोच काम कर रही थीं।’’ [खंड : 1, पृष्ठ : 12]

‘चांद’ और ‘माधुरी’ के अंकों से चयनित कहानियों के खंड क्रमशः दो और छह की कहानियां पढ़कर आधुनिक हिंदी कहानी के बनने की प्रक्रिया समझी जा सकती है। नवजागरणकालीनता की वजह से जागरण, गर्व और सुधार इन कहानियों का केंद्रीय पहलू है। ‘चांद’ कहानी खंड में चतुरसेन शास्त्री, विश्वम्भरनाथ शर्मा ‘कौशिक’, जनार्दनप्रसाद झा ‘द्विज’, ‘मुक्त’, धनीराम ‘प्रेम’, ‘रतन’, अनूपलाल मंडल, विष्णुदत्त शर्मा, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, ब्रह्मस्वरूप गुप्त, अंतर्वेदी, टॉल्स्टॉय, गौतमचंद्र त्रिवेदी ‘नीरस’, नर्मदाप्रसाद खरे, पृथ्वीनाथ शर्मा, प्रेमचंद, जीवानंद वात्सायन, जहूरबख्श, रणवीरसिंह ‘वीर’, ललितकिशोरसिंह की कहानियां हैं और ‘माधुरी’ कहानी खंड में केशवदेव शर्मा, के.पी., सुदर्शन, प्रेमचंद, खड्गजीत मिश्र, प्रयाग दास भार्गव, भगवती प्रसाद वाजपेयी, रामेश्वरप्रसाद श्रीवास्तव, चंद्रगुप्त विद्यालंकार, इलाचंद्र जोशी, कालिका प्रसाद चतुर्वेदी, प्रफुल्लचंद्र ओझा, शंभुदयाल सकसेना, मुंशी अलीअब्बास हुसैनी, अवध उपाध्याय, सोमदत्त विद्यालंकार, केदारनाथ अग्रवाल, कन्हैयालाल की कहानियां हैं।

‘चांद’ के लेख, आलोचना एवं पुस्तक परिचय खंड (3) और ‘माधुरी’ के संपादकीय, आलोचना एवं पुस्तक परिचय खंड (4) में भी एक सशक्त स्त्री-पक्ष व्यक्त हुआ है। संसारप्रसिद्ध स्त्रियों की तुलना में भारतीय स्त्री और उसकी सामाजिक स्थिति, गर्भ-निरोध और स्त्रियों के जेल-जीवन पर ‘चांद’ के अंकों में प्रकाशित लेख सटीक अर्थों में एक बड़े सामाजिक सुधार का प्रस्ताव करते प्रतीत होते हैं। ‘चांद’ और ‘माधुरी’ में आलोचना एवं पुस्तक परिचय खंड के अंतर्गत हिंदी किताबों की एक ऐसी दुनिया नुमायां होती है जो अब धूसरित हो चुकी है। अब न इन किताबों का कहीं पता है, न इनके लेखकों, आलोचकों, अनुवादकों और प्रकाशकों का… ये भारत के लगभग सब कोनों में थे और यह होना इस बात की तस्दीक है कि पुस्तक-प्रकाशन तब किसी महानगरीय केंद्रीयता से ग्रस्त नहीं था। इन किताबों के विषय इनके लिए आवश्यक श्रम और दृष्टि की विविधता का आप प्रमाण हैं। ‘काउंट टालस्टाय के उपन्यासों का अनुवाद’ शीर्षक माधुरी में प्रकाशित संपादकीय टिप्पणी बताती है, ‘‘संसार की कोई ऐसी प्रसिद्ध भाषा नहीं, जिसमें टालस्टाय की रचनाओं के सुंदर अनुवाद न हों। हिंदी में भी उनकी कुछ कहानियों और दो-एक नाटकों का अनुवाद हो चुका है, पर उनके बड़े-बड़े उपन्यासों का, जिन्होंने संसार-साहित्य में एक नए युग की सृष्टि कर दी है, अभी तक अनुवाद नहीं हुआ। उनके तीन बड़े उपन्यास उच्चकोटि के हैं— ‘एनी करेनिना’, ‘रिजरेक्रेशन’ और ‘वार एंड पीस’। जिन लोगों ने इन साहित्य-रत्नों को पढ़ा है, वे जानते हैं कि इस जोड़ के उपन्यास संसार में अधिक नहीं हैं— उनके नाम उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। इन उपन्यासों से वंचित होकर कोई भी भाषा गर्व से सिर ऊंचा नहीं कर सकती। …इसलिए यह लिखते हुए हम एक गौरव-युक्त हर्ष का अनुभव कर रहे हैं कि इन तीनों पुस्तकों के अनुवाद हिंदी में हो गए हैं, और इसका श्रेय हमारे मित्र श्री रुद्रनारायणजी अग्रवाल को प्राप्त है। लगभग तीन हजार पृष्ठों का अनुवाद करना कोई आसान काम न था, पर आप टालस्टाय के परम भक्त हैं, और भक्ति ही वह वस्तु है, जो पहाड़ों पर कुएं खोदती है, कंदराओं में चित्र बनाती है और शैलश्रृंगों पर मंदिरों का निर्माण करती है।’’ [खंड : 4, पृष्ठ : 29]

सोवियत संघ-विघटन से पूर्व मास्‍को के प्रमुख प्रकाशन गृह प्रगति एवं रादुगा प्रकाशन और भारतीय पीपुल पब्लिशिंग हाउस से आए मदन लाल मधु (‘आन्ना कारेनिना’ और ‘वार एंड पीस’ के अनुवादक) और भीष्म साहनी (‘रिस्रेक्शन’ के अनुवादक) के रूस में क्रमशः रोजगार और प्रवास के दौरान किए गए अनुवादों के लगभग चार दशक पूर्व किए गए रुद्रनारायणजी अग्रवाल कृत तोल्स्तोय के उपन्यासों के अनुवाद क्या हुए, यह प्रश्न यहां विचारणीय है।

‘चांद’ और ‘माधुरी’ से चयन के इन खंडों में कविताओं का चयन नहीं किया गया है। विविध व परिशिष्ट खंड (7) में ‘माधुरी’ के जनवरी-1931 अंक से ‘मारवाड़ के कुछ दोहे’ (रामनरेश त्रिपाठी) जरूर शामिल हैं। इस चयन में कविताओं से दूरी बरतने के प्रियंवद ने दो कारण बताए हैं, ‘‘पहला यह, कि कविताओं में या तो अत्यंत भावुकता भरी, छायावादी, रूमानी भाषायी बाजीगरी थी या फिर स्थूल राष्ट्रवादी उच्छवास या फिर प्राचीन परंपरा में लिखे सवैये, मुक्तक आदि। यद्यपि कवियों में कुछ नाम महत्वपूर्ण थे, जैसे कि महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा (इनकी कविताएं सबसे अधिक थीं) सोहनलाल द्विवेदी, जगन्नाथ दास रत्नाकर, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ व कुछ अन्य भी। पर ये कविताएं किसी भी मानक से हमारे चयन के उद्देश्य के पास नहीं पहुंचती थीं। संभव है ये उस समय लोकप्रिय हों, पर ये अपने समय का मुख्य स्वर नहीं थीं। ‘केसर की क्यारी’ ‘चांद’ का एक ऐसा ही स्तंभ था जिसमें उर्दू शाइरी का प्रतिनिधित्व था। पर वह भी बहुत कमजोर था। उर्दू शाइरी इसके पहले ही बहुत ऊंचे मेयार तय कर चुकी थी। इसके अलावा इसमें कुछ भी तत्कालीन मनुष्य से नहीं जुड़ता था।’’ [खंड : 1, पृष्ठ : 15]

प्रो. राजकुमार अपने एक लेख में भारतेंदु युगीन हिंदी नवजागरण में कथित उर्दू परंपरा में लिखे गए साहित्य की चर्चा के सिरे से गायब होने की समस्या को प्रश्नांकित करते हैं। लेकिन ‘चांद’ और ‘माधुरी’ से ये चयन-खंड इस बात का प्रमाण हैं कि यह समस्या द्विवेदी युग में भी कायम रही आई। यहां राजकुमार का यह कथ्य ध्यान देने योग्य है, ‘‘उर्दू को आप हिंदी की शैली मानें या उसकी परिकल्पना को ही अस्वीकार करें, लेकिन सच्चाई है कि हिंदी के नए चाल में ढलने से पहले उर्दू में साहित्य लिखने का सिलसिला शुरू हो चुका था। इसलिए फारसी लिपि या उर्दू में  फारसी-अरबी के शब्दों को जबरदस्ती ठूंसने की आलोचना करने के बावजूद हिंदी जाति के नवजागरण की चर्चा से उर्दू में लिखे गए साहित्य को आप बाहर नहीं कर सकते। ऐसा करने से उसकी सांप्रदायिक परिणिति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं और अंततः वही हुआ भी। मुख्य बात यह है हिंदी क्षेत्र की व्यापकता और भाषायी जटिलता के कारण यहां ऐसी स्थितियां उत्पन्न हुईं कि तेलुगू, बांग्ला या मराठी की तरह हिंदी का कोई एक रूप सुनिश्चित करना और बाकी रूपों को बाहर कर देना सभी को स्वीकार्य निर्णय नहीं बन पाया। फारसी और फिर उर्दू की परंपरा के विकास के कारण हिंदी के ही कई रजिस्टर बन गए। कई बार तो एक ही समय में अलग-अलग परंपरा से जुड़े लोग इन रजिस्टरों का अलग-अलग ढंग से उपयोग करते दिखाई पड़ते हैं। समस्या तब उत्पन्न होती है जब हम इनमें से किसी एक रूप के आधार पर हिंदी का स्वरूप स्थिर करने की कोशिश करते हैं। हिंदी, हिंदुस्तानी और उर्दू के बीच खींचतान के समूचे इतिहास को इसी परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए। भारतेंदु युगीन हिंदी नवजागरण की समस्या यह है कि उसने हिंदी का एक सही रूप तय कर बाकी रूपों को प्रकारांतर से अवैध घोषित कर दिया और उनके बारे में किसी भी प्रकार के चिंतन-अध्ययन का ही निषेध कर दिया। उर्दू परंपरा में लिखे गए साहित्य को हिंदी नवजागरण के दायरे से बाहर कर देने के बावजूद भारतेंदु को इस बात का एहसास था कि उर्दू शाइरी की परंपरा से भिन्न खड़ी बोली हिंदी में कविता लिख पाना आसान नहीं होगा।’’

खंड-5 में ‘माधुरी’ में प्रकाशित कुछ लेखों का चयन है। ‘‘यह देखना रोचक है कि समकालीन होते हुए भी, ‘चांद’ और ‘माधुरी’ के लेखों में दृष्टि, चेतना, सरोकार व लेखकों की उपस्थिति, एक दीखने वाला फर्क है। ‘माधुरी’ लगभग मुख्य रूप से साहित्य की पत्रिका थी, जिसमें हिंदी के लगभग सभी बड़े नाम लिखते रहे थे। इसके लेखों में राजनीति से थोड़ी दूरी दिखती है, पर ‘चांद’ के लेखों में स्थिति इससे उलट थी।’’ [खंड : 5, ब्लर्ब से]

इस खंड में प्रकाशित— ‘गुमान मिश्र और उनका आश्रयदाता’ (लाला सीताराम), ‘हिंदी में उच्चकोटि की पुस्तकों का अभाव’ (अवध उपाध्याय), ‘महाकवि भूषण की इतिहास अनुकूलता’ (रामचंद्र-गोविंद काटे), ‘शिवाजी महाराज की वास्तविक जन्म-तिथि’ (गोपाल-दामोदर तामस्कर), ‘प्रयाग की हिंदी नाट्य-समिति’ (शिवपूजन सहाय), ‘प्राचीन भारत में राष्ट्रतंत्र’ (अरविंद घोष), ‘चुंबन’ (छन्नूलाल द्विवेदी), ‘रूस के आदर्श जेलखाने’ (देवव्रत शास्त्री), ‘बरवै-रामायण’ (सद्गुरुशरण अवस्थी), ‘उपाध्यायजी और अद्वैतवाद’ (वासुदेवशरण अग्रवाल), ‘अश्वमेध-यज्ञ’ (इंद्र विद्यालंकार), ‘प्रेमी मोपासां’ (केशवदेव शर्मा), ‘ब्रिटिश-साम्राज्य के पूर्व भारत’ (मंडन मिश्र), ‘कौटिल्य का वस्तु-विज्ञान’ (गोपाल-दामोदर तामस्कर), ‘हिंदी की आधुनिक कविता’ (विनयमोहन शर्मा), ‘भारतीय लिपि और भाषाएं’ (पांडेय रामावतार शर्मा), ‘उर्दू कविता में इस्लाह’ (ब्रजमोहन वर्मा), ‘हिंदी ‘य-श्रुति’ की परीक्षा’ (पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी शास्त्राचार्य) जैसे लेख ‘माधुरी’ की सुघड़, वैश्विक और विषय-वैविध्यपूर्ण संपादकीय दृष्टि का पता देते हैं। लेकिन इस सूची में स्त्री, दलित और मुस्लिम नामों का न होना, इस प्रश्न/विमर्श को जमीन दे सकता है कि क्या उनके नाम किन्हीं अप्रकाशित काली सूचियों में दर्ज थे? इस खंड में ही प्रकाशित सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ का लेख ‘वर्णाश्रम-धर्म की वर्तमान स्थिति’ पढ़ते हुए, यह प्रश्न भी बार-बार परेशान करता है कि इक़बाल को सांप्रदायिक मानने वाली नजर निराला को भी सांप्रदायिक क्यों नहीं मानती है। इस खंड में ही कृष्णबिहारी मिश्र का लेख ‘हिंदी-साहित्य का विकास’ इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल की संदिग्ध तुलनात्मक दृष्टि और काव्य-विवेक, उनकी तथ्यात्मक चूकों और अमौलिकता पर विचार बहुत पहले ही किया जा चुका है। हिंदी में ऐसे विचार और विमर्श प्राय: दबी जुबान में होते रहे/रहते हैं, लेकिन इस प्रकार की मुखरताएं यहां घेर कर खत्म कर दी जाती रही हैं। असद ज़ैदी ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम के 150 साल पूरे होने पर जो विवादित कविता लिखी थी उसमें प्रतापनारायणों, मैथिलीशरणों और रामचंद्रों के विषय में यों ही नहीं कहा था कि वे खुद एक बेहतर गुलामी से ज्यादा कुछ नहीं चाहते थे। इस प्रकार देखें तो ‘चांद’ और ‘माधुरी’ से रचना-चयन के इन सात खंडों का प्रकाशन इस बात के लिए मजबूर करता है कि हम अपने कथित महान हिंदी-निर्माताओं के ‘हिंदू विवेक’ यानी उनकी उस सांप्रदायिक-दृष्टि को रेखांकित करें जिसकी वजह से वे एक तरफ अंग्रेज शासकों की प्रशंसा में रत थे और दूसरी तरफ हिंदू महासभा के एजेंडे पर भी काम कर रहे थे। यहां ‘वर्णाश्रम-धर्म की वर्तमान स्थिति’ शीर्षक लेख से उद्धृत निराला रचित इस लंबे अनुच्छेद पर गौर करें :

‘‘सृष्टि की साम्यावस्था कभी नहीं रहती, तब अंत्यजों या शूद्रों की ही क्यों रहने लगी। ज्यों-ज्यों परिवर्तन का चक्र घूमता गया, त्यों-त्यों असीरियन सभ्यता के साथ एक नवीन शक्ति एक नवीन वैदांतिक साम्य-स्फूर्ति लेकर पैदा हुई, जिसके आश्रय में देखते-देखते आधा संसार आ गया। भारतवर्ष पर गत हजार वर्षों से उसी सभ्यता का प्रवाह बह रहा है। यहां की दिव्य शक्ति के भार से झुके हुए निम्न-श्रेणियों के लोगों को उसकी सहायता से सिर उठाने का मौका मिला— वे लोग मुसलमान हो गए। यहां की दिव्य सभ्यता आसुर सभ्यता से लड़ते-लड़ते क्रमशः दुर्बल हो गई थी, अंत तक उसने विकारग्रस्त रोगी की तरह विकलांग, विकृत-मस्तिष्क होकर अपने ही घर वालों से तर्क-वितर्क और लड़ाई-झगड़ों पर कमर कस ली। क्रोध अपनी ही दुर्बलता का परिचायक है, और अंत तक आत्मनाश का कारण बन बैठता है, उधर दुर्बल का जीवन भी क्रोध करना ही है, उसकी और कोई व्याख्या भी नहीं। फलतः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-शक्ति पराभूत होकर मृत्यु की प्रतीक्षा करने लगी। जब ग्रीक सभ्यता का दानवी प्रवाह गत दो शताब्दियों से आने लगा, दानवी माया अपने पूर्ण यौवन पर आ गई, हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का शासन सुदृढ़ हो गया, विज्ञान ने भौतिक करामात दिखाने आरंभ कर दिए, उस समय ब्राह्मण-शक्ति तो पराभूत हो ही चुकी थी, किंतु क्षत्रिय और वैश्य-शक्ति भी पूर्णतः विजित हो गई। शिक्षा जो थी अंग्रेजों के हाथ में गई, अस्त्र-विद्या अंग्रेजों के अधिकार में रही (अस्त्र ही छीन लिए गए, तब वह विद्या कहां रह गई? और वह क्षत्रियत्व भी विलीन हो गया), व्यवसाय-कौशल भी अंग्रेजों के हाथ में। भारतवासियों के भाग्य में पड़ा शूद्रत्व। यहां की ब्राह्मण-वृत्ति में शूद्रत्व, क्षत्रिय-कर्म में शूद्रत्व, और व्यवसायी जो विदेशों का माल बेचने वाले हैं कुछ और बढ़कर शूद्रत्व इख्तियार कर रहे हैं। अदालत में ब्राह्मण और चांडाल की एक ही हैसियत, एक ही स्थान, एक ही निर्णय। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपने घर में ऐंठने के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य रह गए। बाहरी प्रतिघातों ने भारतवर्ष के उस समाज-शरीर को, उसके उस व्यक्तित्व को, समूल नष्ट कर दिया; बाह्य दृष्टि से उसका अस्तित्व ही न रह गया। अंग्रेज-सरकार ने मुसलमान और नान-मुसलमान के दो हिस्से करके हिंदू-समाज की कद्र में एक कदम और बढ़कर अपनी गुणग्राहिता प्रकट की। यहां साफ जाहिर हो रहा है कि ‘न निवसेत् म्लेच्छराज्ये’ का फल क्या होता है, संस्पर्श दोष का परिणाम कितना भयंकर हुआ करता है।’’ [खंड : 5, पृष्ठ : 80-81]

हिंदी-निर्माताओं का हिंदू प्रशिक्षण किस तरह मुल्क के आजाद होने बाद भी परवान चढ़ता रहा है, इसके उदाहरण प्रत्येक दशक में नजर आ जाएंगे। यहां नाम गिनाने में नाम छूटने की आशंकाएं ज्यादा हैं, इसलिए अवकाश और औचित्य दोनों होने बावजूद इससे बचा जा रहा है, लेकिन मौजूदा भारतीय सरकार में हिंदी की नई पीढ़ी से एक हालिया उदाहरण दे ही देना चाहिए। 12 मार्च 2018 के ‘हिंदुस्तान’ के वाराणसी संस्करण की एक खबर का शीर्षक — ‘संकुल में पीएम : मोदी और मैक्रों ने देखा राम-हनुमान का मिलन’ — पढ़कर उसे पूरा पढ़ने की इच्छा हुई :

‘‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रो ने सोमवार को बड़ा लालपुर के दीनदयाल संकुल में रामचरित मानस के प्रमुख प्रसंगों पर आधारित नाटक ‘चित्रकूट’ का मंचन देखा। रूपवाणी संस्था की इस प्रस्तुति में दोनों शासनाध्यक्षों की मौजूदगी के दौरान बाली-सुग्रीव युद्ध और श्रीराम-हनुमान मिलन के प्रसंगों का मंचन हुआ।

संकुल के ओपेन थिएटर में दोनों शासनाध्यक्षों के साथ ब्रिगेटी मैक्रो (फ्रांस की प्रथम महिला) और प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी मौजूद थे। ओपेन थिएटर में दो गद्दे लगाए गए थे। लेकिन मोदी-इमैनुअल मैक्रो एक ही स्थान पर बैठे। वहां जगह कम पड़ने के कारण ब्रिगेटी मैक्रो ने बड़े ही सहज भाव से नीचे सीढ़ियों पर बैठकर रामलीला का मंचन देखा। उन्हें सीढ़ियों पर बैठता देख मोदी ने अफसरों को व्यवस्था करने का इशारा किया, लेकिन ब्रिगेटी मैक्रो ने मना कर दिया। दूसरी तरफ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अकेले बैठे थे।

व्योमेश शुक्ल निर्देशित इस नाटक में छऊ, कथक और भरतनाट्यम नृत्य-शैलियों को आधार बनाया गया। इस प्रस्तुति में राम, सीता, लक्ष्मण और हिरण की भूमिका क्रमशः स्वाति, नंदिनी, काजोल और साखी ने निभाई। अन्य भूमिकाओं में तापस, हेमंत, आकाश, देवांशी, दीपक गुप्त और विशाल थे।’’

यह कहने की इच्छा नहीं है, लेकिन कहना पड़ रहा है कि व्योमेश शुक्ल हिंदी के चर्चित कवि और कभी जन संस्कृति मंच से संबद्ध रहे हैं। एक उम्र तक उन्हें एक साथ हिंदी के महत्वपूर्ण, प्रतिबद्ध, प्रगतिशील व्यक्तित्वों और कथित कलावादियों का स्नेह, सहयोग और समर्थन मिला है। ‘पहल’ और ‘उद्भावना’ सरीखी पत्रिकाओं ने उनके काम की पुस्तिकाएं प्रकाशित की हैं। उन्हें अशोक वाजपेयी ने भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया है। उन्हें श्रीकांत वर्मा पर अब तक नहीं आई किताब लिखने के लिए रज़ा फाउंडेशन की फैलोशिप मिली है। वह रज़ा फाउंडेशन की पत्रिका ‘समास’ के अब तक नहीं आए एक अंक के संपादक रहे हैं… यह व्योमेश का विकास-क्रम है और ये सारी घटनाएं 16 मई 2014 से पूर्व की हैं। इस तारीख से ठीक पूर्व 16वें लोकसभा चुनाव में वह बनारस में नरेंद्र मोदी के विरुद्ध — अरविंद केजरीवाल का नहीं — कांग्रेसी अजय राय का प्रचार कर, उनके पक्ष में हिंदी लेखकों-पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को एकजुट कर चुके हैं। लेकिन इस तारीख के बाद से वह आंदोलनात्मक और साहित्यिक व्यर्थताएं तज कर ‘राममय रंगकर्म’ के प्रति पूर्णतः समर्पित और सक्रिय हो गए हैं। वह निराला की लंबी कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ पर तैयार की गई नृत्य-नाटिका की देश भर में सौ से ज्यादा प्रस्तुतियां दे चुके हैं। मोदी और योगी को राम-हनुमान का मिलन दिखाना उनकी नाटकीय साधना का महज एक पड़ाव है। 2019 में यानी 17वें लोकसभा चुनाव में किसी फाशिस्ट की ताजपोशी अगर पुन: होती है, तब यकीकन एक हिंदू-राष्ट्र में हम व्योमेश शुक्ल के रंगकर्म का चरमोत्कर्ष देखेंगे और यह न हुआ तब भी अफसरों-अवसरों की कोई कमी थोड़े ही है।

इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में वह हिंदू-मानस है जो मूलतः सांप्रदायिक है और जिसे कथित प्रात: स्मरणीय हिंदी-निर्माताओं ने तैयार किया है। इसलिए ही संभवतः रामविलास शर्मा का गढ़ा पद ‘हिंदी नवजागरण’ इतना संदेहास्पद है। संसार का कोई भी नवजागरण इतना अशक्त और अपूर्ण नहीं है जितना कि यह ‘हिंदी नवजागरण’ है। इसका ही नतीजा है कि इस हाहाकारी वक्त में हम सब जगह अपने बहुत नजदीक भयानक हिंदू मानस से घिरे हुए हैं। कोई भी स्थान और माध्यम अब निरापद नहीं है। हमारी शीर्षस्थानीयताएं ईश्वर को याद कर रही हैं (देखें : नामवर सिंह पर केंद्रित एनडीटीवी इंडिया का 4 मई 2018 का प्राइम टाइम)। इस दृश्य में ‘चांद’ और ‘माधुरी’ के चयन-खंडों का प्रकाशन बहुत सारी अवधारणाओं पर पुनर्विचार का प्रस्थान-बिंदु बन सकता है। यह पुनर्विचार ही संभवतः हमारे उन वास्तविक निर्माताओं के अधूरे कार्य और उनकी वेदना के स्रोत को संगतपूर्ण निष्कर्षों तलक पहुंचा सकेगा जो समाज, संस्कृति और साहित्य की सेवा के लिए अथक श्रम करते हुए, अशेष कष्ट सहते हुए, सफलता-असफलता से बेखबर आत्मत्याग की राह पर अपरिमित धन व्यय करते हुए अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को नष्ट करते रहे।

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संदर्भ :

प्रस्तुत आलेख में साल 2018 में वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर से प्रियंवद के चयन और संपादन में प्रकाशित ‘चांद’ और ‘माधुरी’ की रचनाओं के सात खंडों को आधार बनाया गया है। इस खंड से दिए गए उद्धरणों में लेखकों और पुस्तकों के नाम की वही वर्तनी और उच्चारण प्रयोग में लिए गए हैं, जैसे कभी ‘चांद’ और ‘माधुरी’ में प्रयुक्त हुए और इस वजह से इन खंडों में भी। प्रो. राजकुमार का उद्धरण पहले ‘नया ज्ञानोदय’ और बाद में tirchhispelling.wordpress.com पर प्रकाशित उनके लेख ‘हिंदी नवजागरण की परिकल्पना पर पुनर्विचार की जरूरत’ से है। असद ज़ैदी की कविता ‘1857 : सामान की तलाश’ आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित उनके तीन कविता-संग्रहों के चयन ‘सरे-शाम’ में पढ़ी जा सकती है। इस आलेख की अंतिम पंक्तियों में मुक्तिबोध की कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ की अंतिम पंक्तियों की ध्वनि है।

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साभार: पहल 112 

16107461_1328427407221041_632303947667798252_oआभासी पटल (सोशल साइट्स) के बाहर ‘कुंठित मन’ की ‘निर्लज्ज अभिव्यक्तियाँ’ कितनी अमानवीय होती हैं, वह जानी-पहचानी है. अविनाश के पास ‘कूटनीति’ की भाषा नहीं है, जिसका सबसे सजग इस्तेमाल आभासी लोक-वृत्त के दायरे में किया जाता है. जिस दिन उसके पास यह आ जायेगी, वह ख़त्म हो जाएगा.  यह आभासी-व्यवहार और कुछ नहीं, बल्कि हाल-चाल, दुआ-सलाम की भाषा को पाने का ही करतब है. यह भाषा आदमी को दलाल, अवसरवादी, व्यवसायी बना सकती है लेकिन रचनाकार नहीं. यह ‘सर्वधर्म-समभाव’ की सबसे उपजाऊ जमीन है. जहाँ भाषा गूगल-ट्रांसलेट हो जाती है. अविनाश से संपर्क -स्थापित हेतु  darasaldelhi@gmail.com का इस्तेमाल कर सकते हैं.

जाने दो वह कवि कल्पित था : अविनाश मिश्र

कभी निराला के लिए नागार्जुन ने लिखा था : ‘‘उसे मरने दिया हमने रह गया छुट कर पवन/ अब भले ही याद में करते रहें सौ-सौ हवन।’’ यह लिखाई बताती है कि हिंदी साहित्य में मरण का बहुत माहात्म्य है, यह ज्ञानरंजन भी बहुत पूर्व में कह चुके हैं। मुझे यह कहना भला तो नहीं लग रहा है, लेकिन मुझे लगता है कि कृष्ण कल्पित के जीते-जी शायद उन्हें वह प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी जिसके वह हकदार हैं। आज हिंदी साहित्य में कृष्ण कल्पित का मौखिक और कुटिल विरोध उनके लिखित विरोध से कई गुना बढ़ चुका है। उन पर हो रहे आक्रमण कभी निराला पर हुए आक्रमणों की याद दिलाते हैं। इस तरह देखें तो हिंदी कविता और आवारगी की ही नहीं कृष्ण कल्पित अपमान की परंपरा को भी आगे बढ़ा रहे हैं। इस अपमान में भी आनंद की तलाश उनकी सहज-वृत्ति है। इसके लिए वह जिस सिद्ध ‘विट’ तक जाते हैं, वह एक साथ उनके कुछ मित्रों और कई शत्रुओं का निर्माण करती है। इन शत्रुओं में औसत कवि-कवयित्री, फूहड़ लेखक-लेखिकाएं, मतिमंद और माफिया आलोचक, अर्थपिशाच प्रकाशक, काहिल प्राध्यापक और उनके निकम्मे शोधार्थी, मानसिक रूप से दिवालिए पत्रकार, चालू और हद दर्जे के बेवकूफ टिप्पणीकार, भ्रमरवृत्तिदक्ष दलाल और प्रतिभा-प्रभावशून्य युवक-युवतियां शामिल हैं। इस पर सोचा जाना चाहिए कि आखिर एक कवि इतने सारे मूर्त शत्रुओं के बीच रहकर कैसे काम करता है. #लेखक 

परंपरा का आवारापन

कृष्ण कल्पित की कविता-सृष्टि पर एकाग्र

 

By  अविनाश मिश्र  

‘‘आलोचक कवि हो यह जरूरी नहीं, लेकिन कवि का आलोचक होना अपरिहार्य है!’’

यह कहने वाले समकालीन हिंदी कविता के सबसे आवारा कवि कृष्ण कल्पित कवियों में सबसे बड़े शराबी और शराबियों में सबसे बड़े कवि हैं। एक आलोचनात्मक आलेख के लिहाज से यह शुरुआत कुछ अजीब और भारहीन लग सकती है, लेकिन मैं चाहता हूं कि जैसे कृष्ण कल्पित (कृ.क.) को कविता नसीब हुई है, वैसे ही मुझे उनकी कविता की आलोचना नसीब हो।

इस आलोचना के केंद्र में वे असर हैं जो मेरे उत्साह में मुझ तक विष्णु खरे के जरिए, विष्णु खरे तक मुक्तिबोध के जरिए, मुक्तिबोध तक निराला के जरिए, निराला तक कबीर के जरिए, कबीर तक बाणभट्ट के जरिए और बाणभट्ट तक वाल्मीकि के जरिए आए। लेकिन कहां ये तेजस्वी और पराक्रमी कवि-आलोचक और कहां अत्यंत अल्प बौद्धिकता वाला मैं! मुझे यह बहुत अच्छी तरह मालूम है कि जिस परंपरा में कृ.क. आवारगी करते रहे हैं, उसमें मेरी गति बहुत क्षीण है। इस गति के बावजूद मैं कृ.क. की कविता-सृष्टि पर एकाग्र होकर कुछ कहने का प्रयत्न कर रहा हूं और इस सिलसिले में विष्णु खरे की एक कविता ‘कूकर’ मेरे साथ चलने लगी है।

हिंदी कविता संसार में एक लंबे समय तक कृ.क. के नाम के आगे गलत या प्रश्न का निशान लगाया जाता रहा है, लेकिन अब यह एक तथ्य और सच्चाई मालूम पड़ती है कि कृ.क. पूरब की कविता की पूरी परंपरा को देखने वाले अपनी और अपने से ठीक पूर्व की पीढ़ी में एकमात्र आवारा कवि हैं। अपने नियमों से ही अपना खेल खेलते हुए वह कविता की दुनिया में किसी और के खेल में शामिल होने वाले बेवकूफों, कायरों और शोहदों में नहीं हैं और उनसे दूर भी रहे हैं।

दिशाओं में गर्क हो जाने की ख्वाहिश रखने वाले वह उन कवियों में से हैं जिन्होंने अपने शुरुआती रियाज को भी शाया करवाया है। इस रियाज को अगर रियाज ही माना जाए, तब हिंदी कविता की मुख्यधारा में सही मायनों में कृ.क. का काव्य-प्रवेश साल 1990 में आए ‘बढ़ई का बेटा’ से होता है। इस संग्रह की आखिरी कविता कवियों के मुख्यधारा तक आने, उसमें भटकने, खटने और खो-खप जाने को बयां करती है :

बहुत दूर से चलकर दिल्ली आते हैं कवि

भोजपुर से मारवाड़ से संथाल परगना से मालवा से

छत्तीसगढ़ से पहाड़ से और पंजाब से चलकर

दिल्ली आते हैं कवि

जैसे कामगार आते हैं छैनी-हथौड़ा लेकर

रोजी-रोटी की तलाश में

[ कवियों की कहानी ]

 

इस काव्य-प्रवेश से एक दशक पूर्व ‘भीड़ से गुजरते हुए’ के गीतों से पहले एक भूमिका में कवि ने दर्ज किया :

अभी मैं हांफ रहा हूं

मुझे सुनने को आतुर लोगों

अभी मैं हांफ रहा हूं

जब मैं हांफने की

पूरी यात्रा तय कर लूंगा

तब मैं पूरी कथा कहूंगा

कृ.क. के कवि के इस शाया रियाज में रेतीली स्थानीयता की विसंगतियां थीं, प्रेमानुभव थे और ‘दर्द जितना भी मिला, प्यास बनकर पी गए’ वाली रूमानियत और शहादत थी। इसमें लोक-संवेदना और विस्थापन की मार थी। लय से लगाव और छंद का ज्ञान साथ लिए इस रियाज में एक अनूठा कथा-तत्व था, इसलिए इसे कथा-गीत कहकर भी पुकारा गया :

राजा रानी प्रजा मंत्री बेटा इकलौता

एक कहानी सुनी थी जिसका अंत नहीं होता

इस रियाज ने एक आवारागर्द अक्ल रखने वाले कृ.क. की कवि-छवि का बहुत दूर तक नुकसान किया। इसने हिंदी कविता की व्यावहारिक राजनीति को यह छूट दी कि वह कृ.क. के कवि के इर्द-गिर्द प्रश्नवाचकता का वृत्त निर्मित करे और इसे बहुत दूर तक विस्फारित कर सके। इस वृत्त में ‘कैद’ कवि का काव्य-संघर्ष इसलिए बहुत उल्लेख्य है क्योंकि उसकी कविता पहले गीत की रूढ़ संवेदना से बाहर आई, फिर आठवें दशक के फॉरमूलों से और फिर नवें दशक के नक्शे से भी। इस प्रकार एक सीधी गति में सफर करते हुए कृ.क. की कविता आज सारे दायरों को ध्वस्त कर अपना एक अलग देश बना चुकी है और यह कहना सुखद है कि छूट चुके मरहलों से उसके रिश्ते अब भी अच्छे हैं।

प्रस्तुत सामयिकता में कृ.क. की कविताएं अभ्यस्त मुहावरों और काव्य-समझ की कविताएं नहीं हैं। इस वक्त हिंदी में कविता के जितने भी सांचे हैं — प्रतिबद्ध कविता, वैचारिक कविता, सैद्धांतिक कविता, राजनीतिक कविता, क्रांतिकारी कविता, ऐतिहासिक कविता, वैश्विक कविता, आंचलिक कविता, प्राकृतिक कविता, सांस्कृतिक कविता, लोक कविता, ग्रामीण कविता, कस्बाई कविता, नागर कविता, पर्वतीय कविता, स्त्रीवादी कविता, दलित कविता, आदिवासी कविता, अल्पसंख्यक कविता, सर्वहारा कविता, तात्कालिक कविता, समयातीत कविता, आवश्यकतावादी कविता, आशावादी कविता, निराशावादी कविता, इच्छावादी कविता, चालू कविता, जड़ कविता, स्मृत्यात्मक कविता, गत्यात्मक कविता, रत्यात्मक कविता, काव्यात्मक कविता, गद्य कविता, ठोस कविता, तरल कविता, मुश्किल कविता, सरल कविता, अगड़ी कविता, पिछड़ी कविता, आधुनिक कविता, उत्तर आधुनिक कविता, गंभीर कविता, लोकप्रिय कविता, जन कविता, बौद्धिक कविता — उनमें से किसी एक में कृ.क. की कविता को नहीं रखा जा सकता। इस कविता-समय में इन काव्य-प्रकारों और प्रवृत्तियों के बीच इस प्रकार कृ.क. की कविता एक ‘आवारा कविता’ नजर आती है। आवारगी सदा से समय में तिरस्कृत रही आई है। यह अलग बात है :

पुरस्कृत कवियों से कविता दूर चली जाती है

कविता तिरस्कृत कवियों पर रीझती है

[ कविता-रहस्य, 25:1 ]

 

आवारा कविता अपने आस-पास को बहुत सजगता और ईमानदारी से देखती है, लेकिन वह अपने समय में बहुत अकेली भी पड़ जाती है और इसलिए ही वह परंपरा से संबद्ध होती है। इस प्रकार की कविता में एक खास किस्म का देहातीपन और बेबाकी होती है, और उसका कहना-बोलना अक्सर किसी सच्चे-निहंग पागलपन की याद दिलाता है। यहां यह भी बताते हुए आगे बढ़ना चाहिए कि किसी गैर-मार्क्सवादी कवि की कविता को सीधे मनुष्य से प्रतिबद्ध बता देने वाले समीक्षात्मक-आलोचनात्मक प्रयत्न मार्क्सवादी आलोचना के कूपाकाश में प्राय: बहुत नवीन और अलग समझे जाते रहे हैं। लेकिन किसी विचार या राजनीति से प्रतिबद्ध होने बावजूद कविता — अगर वह कविता है — तो अनिवार्यतः — प्रथमतः और अंततः — मनुष्य से ही प्रतिबद्ध होगी, इसलिए किसी कवि की कविता का मनुष्य से प्रतिबद्ध होना या बने रहना कोई नई और अनूठी बात नहीं है। नयापन और वैशिष्ट्य तो इसमें है कि कवि अपनी प्रतिबद्धता को बयां कैसे कर रहा है, और यह भी मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूं, बस इस प्रसंग में इस जरूरी बात को दुहरा भर रहा हूं। इस अर्थ में देखें तो कृ.क. का कवि एक शास्त्रकार भी है। वह माफिया आलोचकों को पहचानता है और उसकी कविता कातिलों का कातिल होने की बराबर कोशिश करती है। आस-पास को कभी ओझल न करने वाली मानवीय दृष्टि के साथ दृढ़ यह कविता बंकिमता को बचाती है और परंपरा में आवारगी करते हुए कथित आधुनिकता और उत्तर-आधुनिकता दोनों से ही परहेज बरतती है। यह इस यकीन के साथ व्यक्त होती है कि एक नए कवि में सारे पुराने कवि शामिल होते हैं। यह जरी-गोटेदार भाषा से दूरी बनाकर करुणा और क्रोध से संभव हुई वाग्मिता को प्रश्रय देती है। तत्कालप्रिय प्रवचनात्मकता से प्राप्त वैचारिक प्रतिबद्धता-पक्षधरता से बचती हुई यह लोगों के बीच, लोगों का होने की कोशिश करती है और इस कोशिश में जनप्रिय और बदनाम साथ-साथ होती है।

कविता में क्या हो, क्या न हो, क्या कहा जाए, क्या न कहा जाए, कैसे कहा जाए, कैसे न कहा जाए… यह सब हिंदी कविता में गई सदी के सातवें दशक में ही पूर्णरूपेण तय और स्पष्ट हो गया था। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो आज करीब-करीब सारे नए-पुराने कवि इस स्पष्टता के साथ ही लिख रहे हैं। कृ.क. इन अपवादों में से ही एक या कहें इन अपवादों में भी एक अपवाद हैं। कविता और कवि-व्यक्तित्व दोनों ही कृ.क. के पास है। निराला और राजकमल चौधरी के बाद यह संयोग कृ.क. के रूप में हिंदी में कई दशकों के बाद घट रहा है। यह यों ही नहीं है कि आज हिंदी साहित्य (हिं.सा.) के सारे संगठित तत्व और शक्तियां कृ.क. पर क्रुद्ध और इसलिए उनके विरुद्ध हैं। अद्भुत आकर्षक आवारगी से भरा हुआ कृ.क. का व्यक्तित्व और उसका कवित्व हिं.सा. के जड़, संकीर्ण और अदूरदर्शी आलोचकों के बीच उभरा है। यह भी कह सकते हैं कि कृ.क. जैसे कवि के लिए यह समय पूरी तरह मुफीद नहीं रहा आया। कृ.क. कविता में और कविता से अलग भी प्राय: बहुत मूल्यवान बातें कहते हैं, लेकिन कभी-कभी उनमें व्यावहारिक संचार का बहुत अभाव होता है। इस अभाव को अपना अपमान समझ हिं.सा. की व्यावहारिक राजनीति उनसे एक शत्रु की तरह बर्ताव करती है। यह बर्ताव तत्काल भले ही कुछ बर्बाद करता दिखे, लेकिन बहुत दूर तक इसकी कोई गति नजर नहीं आती, क्योंकि कृ.क. के पास भविष्य कविता के रूप में सुरक्षित है और इस दृश्य में भी यह कृ.क के सौभाग्य का तेवर नहीं तो और क्या है कि उनके और उनके कवित्व के प्रति अनुराग रखने वाले बढ़ते ही जा रहे हैं। उनके पक्ष में नजर आने वाले ऐसे उदीयमान व्यक्तित्वों की कोई कमी नहीं है जिनसे कल हिंदी धन्य होगी। यहां वरिष्ठ कवियों के बहाने युवा कवियों को संबोधित कृ.क. की ये कविता-पंक्तियां दृष्टव्य हैं :

जिसकी एक भी पंक्ति नहीं बची

उसके पास सर्वाधिक तमगे बचे हुए हैं

 

[ वरिष्ठ कवियो ]

एक योग्य कवि की लंबी उपेक्षा उसको पराक्रमी बनाती चली जाती है। इस पराक्रम से उसके प्रशंसकों का एक अलग समुदाय निर्मित होता है और उसके समर्थकों की एक अलग श्रेणी… ‘निराला की साहित्य साधना’ को यहां याद करते चलिए। दुरभिसंधियां युक्तियां बन जाती हैं, लेकिन एक वैविध्यपूर्ण कवि-व्यक्तित्व खुद को कभी संघर्ष से वंचित नहीं करता। कुंठाएं उसे दबोचने की कोशिश करती हैं, लेकिन वह आत्म-विश्वास को संभाले रखता है। कृ.क. के यहां ये विशेषताएं नजर आती हैं। उन्होंने शिल्प से आक्रांत और शब्द से आडंबर किए बगैर हिंदी कविता में एक असंतुलन उत्पन्न किया है। इस असंतुलन ने तमाम ‘विशिष्ट कवियों’ को असुरक्षा में डाल दिया है। अब स्थिति यह है कि सांस्कृतिक रूप से सत्तावान तंत्र और संरचनाएं कृ.क. की प्रत्येक पंक्ति से भयभीत रहती हैं। इस तंत्र और इन संरचनाओं ने वर्षों तक उनके कवि को खत्म करने के यत्न किए, लेकिन ‘अपने होने को प्रकाशित करने’ के नए माध्यमों के उदय के बाद आज कृ.क. हिंदी के सबसे चर्चित कवियों में से एक होकर उभरे हैं। उन्होंने एक काव्यात्मक न्याय के लिए प्रचलनों के बीतने की प्रतीक्षा की है। उनकी प्रतीक्षा समाप्त नहीं हुई है, लेकिन उन्हें कुछ राहत है क्योंकि मौजूदा हिं.सा. में उनके प्रकट-अप्रकट ‘प्रॉपर प्रशंसक’ अभी हिंदी के किसी भी दूसरे कवि से ज्यादा भासते हैं। उनकी कविता के प्रेमियों की दर्ज-बेदर्ज और लिखित-वाचिक प्रतिक्रियाएं हिंदी कविता संसार में उनके कवि के ‘अन्यत्व’ को पुख्ता करती हैं। उनके इस उदय और उभार ने तमाम चिढ़े हुए, अयोग्य, औसत और जलनशील तत्वों को उनके खिलाफ भी सक्रिय कर दिया है। इसके साथ ही उनके उन शत्रुओं का यहां क्या ही उल्लेख किया जाए जिनका प्रज्ञा-क्षेत्र ही बाधित है और जिनका पूरा व्यक्तित्व और लेखन कृ.क. के शाश्वत किए-धरे के आगे बहुत संक्षिप्त और सस्ता लगता है। कृ.क. जिस शैली और शाला से खुद को जोड़ते हैं, वहां यश के साथ अपयश मुफ्त मिलता है और इसलिए उनके अपयश से ‘यश’ कमाने वालों की भीड़ भी इधर बहुत भारी हो गई है। इस भीड़ में अधिकांश ऐसे हैं जो ‘भीड़’ को ‘भीर’ और ‘भारी’ को ‘भाड़ी’ लिखते हैं।

कभी निराला के लिए नागार्जुन ने लिखा था : ‘‘उसे मरने दिया हमने रह गया छुट कर पवन/ अब भले ही याद में करते रहें सौ-सौ हवन।’’ यह लिखाई बताती है कि हिं.सा. में मरण का बहुत माहात्म्य है, यह ज्ञानरंजन भी बहुत पूर्व में कह चुके हैं। मुझे यह कहना भला तो नहीं लग रहा है, लेकिन मुझे लगता है कि कृ.क. के जीते-जी शायद उन्हें वह प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी जिसके वह हकदार हैं। आज हिं.सा. में कृ.क. का मौखिक और कुटिल विरोध उनके लिखित विरोध से कई गुना बढ़ चुका है। उन पर हो रहे आक्रमण कभी निराला पर हुए आक्रमणों की याद दिलाते हैं। इस तरह देखें तो हिंदी कविता और आवारगी की ही नहीं कृ.क. अपमान की परंपरा को भी आगे बढ़ा रहे हैं। इस अपमान में भी आनंद की तलाश उनकी सहज-वृत्ति है। इसके लिए वह जिस सिद्ध ‘विट’ तक जाते हैं, वह एक साथ उनके कुछ मित्रों और कई शत्रुओं का निर्माण करती है। इन शत्रुओं में औसत कवि-कवयित्री, फूहड़ लेखक-लेखिकाएं, मतिमंद और माफिया आलोचक, अर्थपिशाच प्रकाशक, काहिल प्राध्यापक और उनके निकम्मे शोधार्थी, मानसिक रूप से दिवालिए पत्रकार, चालू और हद दर्जे के बेवकूफ टिप्पणीकार, भ्रमरवृत्तिदक्ष दलाल और प्रतिभा-प्रभावशून्य युवक-युवतियां शामिल हैं। इस पर सोचा जाना चाहिए कि आखिर एक कवि इतने सारे मूर्त शत्रुओं के बीच रहकर कैसे काम करता है :

जनवरी बलात्कार के लिये मुफीद महीना है

फरवरी में किसी का भी कत्ल किया जा सकता है

मार्च लड़कियों के घर से भागने का मौसम है

अप्रैल में किया गया अपहरण फलदायक होता है

मई में सामूहिक हत्याकांड अच्छे से किया जा सकता है

जून के महीने में दलितों के घर लहककर जलते हैं

जुलाई में मुसलमानों को मारा जा सकता है

अगस्त में तो बच्चे मरते ही हैं

सितंबर में किसान चाहें तो पेड़ों से लटक सकते हैं

अक्टूबर में डिफाल्टर देश छोड़कर भाग सकते हैं

नवंबर गोरक्षकों के लिए आरक्षित है

वे किसी भी निरपराध नागरिक को सरे-आम मार सकते हैं

दिसंबर में आप आंसू बहा सकते हैं

प्रायश्चित कर सकते हैं

और अगर चाहें तो कृष्ण कल्पित के विरुद्ध विज्ञप्ति जारी कर सकते हैं!

 

[ नया बारामासा ]

 

बुरी खबर और भयावह यथार्थ को कविता में लाने के लिए कृ.क. कविता को किसी अपराध की तरह संभव करते हैं। अन्याय, शोषण और गैर-बराबरी के विरुद्ध लड़ने का उनका तरीका एक ‘नैतिक कवि’ का तरीका नहीं भी लग सकता है। इस लड़ाई में वह ‘राजनीतिक रूप से गलत’ भी नजर आ सकते हैं, लेकिन उनका पक्ष और स्थिति बहुत स्पष्ट है। दरअसल, वह बहुत तत्कालप्रिय ढंग से उम्मीद और नाउम्मीदी में होना नहीं जानते हैं और न ही वह अपने कवि और कविता और कथ्य की शर्त पर सबको खुश रखना चाहते हैं। वह उस प्रतिबद्धता से खुद को अलग करते चलते हैं, जिसका दांव पर कुछ भी नहीं लगा होता :

वह दिन जरूर आएगा जब मुझे मार गिराया जाएगा

 

मेरा जीवन हत्यारों का चूका हुआ निशाना है!

[ चूका हुआ निशाना ]

 

कृ.क. की अब तक प्रकाशित कविता-सृष्टि में यह बात बहुत स्पष्ट नजर आती है कि वह एक साथ साहित्यिक और सामाजिक कवि हैं। इस दर्जा साहित्यिक कवि कि समाज उन्हें पढ़-सुनकर बहुत सहजता से साहित्यिक हो सकता है। यह एक जनकवि के होने की अलामत है। एक जनकवि खुद को और जन के दुख को सुनाना जानता है। इस जिक्र में यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि मौजूदा दौर में सही मायनों में हिंदी में जनकवि होने की विशेषता सिर्फ कृ.क. में ही दृश्य होती है। यह हमारी भाषा और उसमें कविता का दुर्भाग्य है कि कृ.क. की काव्य-प्रतिभा के साथ-साथ उनकी इस विशेषता के साथ भी न्याय नहीं हुआ। उनकी इस क्षमता को पहचानकर भी नजरअंदाज किया गया। बौद्धिकों और जनता दोनों को ही आकर्षित करने वाली कृ.क. की कविताओं में वे सारे अवयव हैं जो एक जनकवि का निर्माण करते हैं। हिंदी की औसतताओं के कौआरोर में उनकी कविता महज किताबी नहीं है। वह यात्राएं करना जानती है, खुद को गाना और कंठ में बसना भी। यह कविता जन को संस्कारित करने की काबिलियत रखती है, लेकिन इसे प्रशंसक मिलते हैं, जन नहीं मिलते, पाठक मिलते हैं, वे आलोचक नहीं मिलते जो इस कविता को जन के बीच प्रतिष्ठित कर सकें। यहां सार्त्र को याद कीजिए जिन्होंने कहा था कि मेरे पास पाठक हैं, लेकिन मुझे जनता चाहिए।

लड़कपन से ही कवि-कर्म में संलग्न कृ.क. के कवि के निर्माण में तुलसी, सूर, मीरा, कबीर की तरह ही मीर, ग़ालिब, ज़ौक़, नज़ीर और हाफ़िज़, बेदिल, शेखसादी और कालिदास, भवभूति, भर्तृहरि और खुसरो का योगदान है। यह स्वयं कवि ने स्वीकारा है और यह भी कि उसकी हिंदी में उर्दू सहज रूप से विद्यमान रहती है। कृ.क. हिंदी नहीं हिंदवी का कवि कहलाना पसंद करते हैं। हिंदवी वह है जिसमें मीर लिखते थे।

आलोचना और प्रशंसा दोनों से ही अब तक आहत नहीं हुए कृ.क. वरिष्ठों में सबसे युवा हैं और युवाओं में सबसे वरिष्ठ, स्वीकृतों में वह सबसे बहिष्कृत हैं और बहिष्कृतों में सबसे स्वीकृत। वह मुक्त वैभव में छंद हैं और छंद वैभव में मुक्त। जहां सब मुखर हैं, वहां वह चुप हैं और जहां सब चुप हैं, वहां वह मुखर। वह कवियों की जमीन जानते हैं और जमीन की कविता भी। भुला दिए गए शब्दों को वे जमा करते हैं और घिसे हुए शब्दों को हटाते रहते हैं। उनके शब्दों में दृश्य हैं, लेकिन फिल्म बनाने की एक धुंधली-सी इच्छा बहुत बार मन में जगने के बावजूद वह आज तक एक भी फिल्म नहीं बना पाए हैं। बचपन से लेकर अब तक के बहुत सारे ऐसे दृश्य उनकी आंखों के सामने से गुजरे हैं, जब उन्हें लगा है कि एक फिल्म बनानी चाहिए। कस्बे के घर के आंगन में गोबर से लिपे हुए चूल्हे को फूंक मारकर सुलगाती हुई दादी की आंखों से निकलते हुए आंसू, अपने लंबे कानों को जोर-जोर से हिलाकर तितर-बितर करती हुई काले छबकों वाली बकरी और चटख-चटख करती हुई लकड़ियां— यह सब देखकर पहली बार उन्हें लगा था कि केवल दृश्यों के माध्यम से भी कुछ रचा जा सकता है। यह बहुत पुरानी बात है, जब उनके पिता होर्डिंग्स बनाया करते थे और उनसे रंगों की पुताई करवाते थे। चाक्षुष सौंदर्य और मानवीय क्रियाओं से भरे-पूरे ऐसे न जाने कितने दृश्यों का एक अंतहीन और अटूट सिलसिला यहां तक चला आया है। कुछ रचने की इस आरंभिक अकुलाहट ने ही उन्हें कवि-कर्म में प्रवृत्त किया। यहां पूर्व में दर्ज उनके रियाज, काव्य-प्रवेश और काव्य-विकास को याद करें तो उनकी कविताएं सिनेमा से जुड़े उनके स्वप्न और उनकी आकांक्षा का प्रतिफलन लगती हैं :

कभी-कभी यह सोचकर घबरा जाता हूं कि अचानक फिल्म बनाने की सुविधाएं पा गया तो क्या करूंगा? फिल्म बनाने से पहले पांच-दस हजार फुट कच्ची फिल्म बिगाड़नी चाहिए। अब तक बिगाड़ देनी चाहिए थी। पहली बार में पांच-सौ फुट में से साढ़े चार सौ फुट फिल्म सही निकाल पाना कितना मुश्किल होगा। लेकिन अगर ऐसा हुआ भी तो क्या इस बात का डर, तनाव और एक किस्म का निजी आतंक भी मेरी रचनात्मकता का हिस्सा नहीं रहेगा? इस ‘अभाव’ को भी तो रचनात्मकता में बदला जा सकता है।

[ पसरी हुए रेत पर ]

अभाव को रचनात्मकता में बदलती हुई कृ.क. की कवि-छवि में कुछ पुराने शब्द, कुछ भावनाएं और कुछ अनगढ़पन सदा नजर आता रहा है। कमजोर जिंदगी के बयान छुपाने की कोशिश उनकी कविता ने अब तक नहीं की है :

नई दिल्ली के कवियो!

चाहे जितनी कमजोर दिखे मैं अपनी कविता नहीं बदलूंगा

 

[ दिल्ली के कवि ]

 

ऊपर उद्धृत पंक्तियां साल 1987 में हुई कृ.क. की एक कविता से हैं। वह बार-बार दिल्ली में आते और बार-बार दिल्ली से जाते रहे हैं। साल 1988 में हुई उनकी एक और कविता में इस बीच के ब्यौरे कुछ यों सामने आते हैं :

कुछ कवि हो गए मशहूर कुछ काल-कवलित

कुछ ने ढूंढ़ लिए दूसरे धंधे मसलन शेयर बाजार

 

कुछ डूबे हुए हैं प्रेम में कुछ घृणा में

 

कुछ ने ले लिया संन्यास कुछ ने गाड़ी

 

कुछ लिखने लगे कहानी कुछ फलादेश

 

इनके बीच एक कवि है जिसे अभी याद हैं

पिछली लड़ाई में मारे गए साथियों के नाम

उसके पास अभी है एक नक्शा!

[ नक्शा ]

‘नक्शा’ आलोकधन्वा को समर्पित है, लेकिन इसमें कृ.क. का सफर भी साफ नजर आता है। इस नजर आने में बहुत दूर-दूर से चलकर दिल्ली आती हुई रेलगाड़ियां हैं जिनमें कवि हैं — दुनिया की सबसे पुरानी कला के मजदूर — अपने अभावों, पुकारों और तकलीफों के साथ। वे ऋतु कोई भी हो शोक में डूबे हुए हैं — आंसुओं को रोकने की कला सीखते हुए — देश की अलग-अलग दिशाओं से आए हुए वे दिल्ली की अलग-अलग दिशाओं में भटक रहे हैं, उन्हें कोई काम नहीं मिल रहा है :

वे जिंदा रहने को आते हैं दिल्ली और मारे जाते हैं

भूख से बेकारी से उपेक्षा से मरते हैं वे

[ कवियों की कहानी ]

एक कवि गोरख पांडे की याद में लिखी गई यह ‘कवियों की कहानी’ एक दूसरे कवि कृ.क. ने लिखी है यह सोचकर :

होती है हर एक कवि की अपनी एक कहानी

जिसे लिखता है एक दूसरा कवि

 

इस साहित्यिक और बौद्धिक वातावरण को बहुत करीब से देखते हुए कृ.क. की और हिंदी की उम्र में धीमे-धीमे चलते हुए वह वक्त नजदीक आ गया, जब उन्होंने इस वातावरण के विरोधी कवि के रूप अपनी काव्य-भाषा और शैली के लिए नए आयाम पाने का संघर्ष प्रारंभ किया। पूरब की पूरी कविता और काव्य-शास्त्र की पूरी परंपरा में आवाजाही और उससे मुठभेड़ करते हुए कृ.क. की उम्र में वे वर्ष भी आए, जब वह समकालीन हिंदी कविता के लिए बिल्कुल बेगाने हो गए :

इस जरीगोटेदार भाषा के बांदी समय में

कौन समझेगा कि मुझ पगलैट को तो

अपने ही खोजे शब्दों के बदरंग चिथड़े प्यारे हैं

 

[ शब्दों के चिथड़े ]

कृ.क. ने मध्यकाल की मीरा की कविता और जीवन को केंद्र में रखते हुए ‘कोई अछूता सबद’ में हिंदी में लोकप्रिय हुए तत्कालीन स्त्री-विमर्श को समझने की कोशिश की :

तुम जो पहनाओगे पहनूंगी

जो खिलाओगे खाऊंगी

तुम जहां कहोगे वहां बैठ जाऊंगी

कहोगे तो बिक जाऊंगी बाजार में

[ ढलती रात में ]

संसार एक नई शताब्दी से परिचित हो चुका था, लेकिन हिंदी कविता संसार कृ.क. से अब तलक एक अपरिचित की तरह बर्ताव कर रहा था। उनकी आवारगी बढ़ती जा रही थी और आवारा पंक्तियां और सूक्तियां उन पर आयद हो रही थीं और वह उन्हें इस उम्मीद में प्रकाशित करवाते जा रहे थे कि शायद वे एक रोज मानवता के काम आएंगी :

कभी प्रकाश में नहीं आता शराबी

 

अंधेरे में धीरे-धीरे विलीन हो जाता है

[ एक शराबी की सूक्तियां, 35 ]

 

कृ.क. की एक कहानी ‘शराबघर’ के नायक की मरने की इच्छा शराब पीने के बाद अधिक प्रबल हो उठती है। वह एक रोज अपनी मृत्यु संबंधी सारी कविताओं को एक डायरी में उतारता है और डायरी के पहले पृष्ठ पर लिखता है :

‘मैं मरना चाहता हूं।’

 

लेकिन वह मरा नहीं, वह आज तक शराबघरों में भटक रहा है। उसकी सूक्तियों को जानने वालों की संख्या बढ़ती चली जा रही है, लेकिन अभी भी उसे जानने वाले बहुत कम हैं।

‘एक शराबी की सूक्तियां’ को कृ.क. ने अपना ‘मुक्तिप्रसंग’ कहा है और राजकमल चौधरी ने ‘मुक्तिप्रसंग’ को अपना वर्तमान :

‘‘…मैं अपने अतीत में राजकमल चौधरी नहीं था। भविष्य में यह प्रश्नवाचक व्यक्ति और इस व्यक्ति की उत्तर-क्रियाएं बने रहना मेरे लिए संभव नहीं है। क्योंकि, मैं केवल अपने वर्तमान में जीवित रहता हूं। …अतएव, ‘मुक्तिप्रसंग’ मेरा वर्तमान है। …मृत्यु की सहज स्वीकृति से देह की सीमाओं, संगतियों और अनिवार्यताओं से मुक्त हुआ जा सकता है। …ऑपरेशन थिएटर की सफेद टेबल पर संज्ञाहीन होते हुए, मैंने ऐसा अनुभव किया है। मैंने अनुभव किया है कि स्वयं को और अपने अहं को मुक्त किया जा सकता है। …इस अनुभव के साथ ही, दो समानधर्मा शब्द जिजीविषा और मुमुक्षा इस कविता के मूलगत कारण हैं। …सती-वर्तमान के अग्निजर्जर शव को अपने कंधों पर, मैं शिव की तरह धारण करता हूं। मैं इस शव के गर्भ में हूं, और यह शव मेरे कंधों पर है। इसकी विकृति, वीभत्सता और दुर्गंधियों में मुझे जीवित रहना ही पड़ेगा। जीवित ही नहीं, मुक्त और स्वाधीन भी रहना होगा।’’

 

राजकमल चौधरी को यहां उद्धृत करने की जरूरत इसलिए महसूस हुई ताकि यह कहा जा सके कि कृ.क. की प्रत्येक प्रकाशित कृति कृ.क. का ‘मुक्तिप्रसंग’ ही प्रतीत होती है। उनकी प्रत्येक कृति उनकी पूर्व और आगामी कृतियों से मुक्त और स्वाधीन है। बहरहाल, लोक के अवलोकन और अर्थ के आरोह-अवरोह और मिजाजे-सुखन की अच्छी तरह शिनाख्त करने में व्यस्त उनकी आवारगी के नए-नए रंग एक के बाद एक हिंदी कविता संसार के मुंह पर खुलने लगे। उनकी कविता का वह बंद दरवाजा जिसे हिंदी साहित्य के समकालीन बौद्धिक वातावरण में कोई खटखटा नहीं रहा था, उन्होंने उसे खुद ही खोल दिया और बाद इसके इस वातावरण में बेचैनियां, सरगोशियां, गलतफहमियां फलने-फूलने-फैलने लगीं। बेइंसाफी के यथार्थ में कृ.क. बहुत बेपरवाह नजर आए और उनकी कविता पूर्व-अपूर्व कवियों के नक्षत्र-मंडल को तहस-नहस करने के इरादे से परंपरा में कुछ इस प्रकार धंसी कि सूक्ति, संदेश, अफवाह, अधूरा वाक्य, चेतावनी, धमकी, शास्त्र, इतिहास, कथा और नामालूम क्या-क्या हो गई :

 

विलग होते ही

बिखर जाएगी कलाकृति!

 

[ एक शराबी की सूक्तियां, 78 ]

नगर ढिंढोरा पीटता फिरता हूं हर राह

रोज रात को नौ बजे करता हूं आगाह

 

[ बाग़-ए-बेदिल, पृष्ठ-41 ]

 

कल्पितजी को हो गया काव्य-शास्त्र से प्यार

देखो क्या अंजाम हो भवसागर या पार!   

 

[ कविता-रहस्य, 24:6 ]

 

मैं अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर एक बार फिर कहता हूं :

यह महादेश चल नहीं सकता

 

[ हिंदनामा : एक महादेश का महाकाव्य, 52 ]

…यह कोई शिगूफा नहीं मेरा शिकस्ता दिल ही है जो इतिहास की अब तक की कारगुजारियों पर शर्मसार है जिसका हिंदी अर्थ लज्जित बताया गया है जिसके लिए मैं शर्मिंदा हूं और इसके लिए फिर लज्जित होता हूं कि मुझे अब तक क्यों नहीं पता था कि मांस के शोरबे को संस्कृत में यूष कहा जाता है शोरिश विप्लव होता है 1857 जैसा धूल उड़ाता हुआ एक कोलाहल और इस समय मैं जो उर्दू-हिंदी शब्दकोश पढ़ रहा हूं जिसके सारे शब्द कुचले और सताए हुए लोगों की तरह जीवित हैं…

 

[ रेख़ते के बीज : उर्दू-हिंदी शब्दकोश पर एक लंबा पर अधूरा वाक्य ]

कविता लिखना अपराध है

किसी खास मकसद के लिए किया गया जुर्म


कविता पुरस्कृत होने की कला नहीं सजायाफ्ता होने की छटपटाहट है

जो सभागारों में सिसक रहे हैं वे कवि नहीं हैं

कवि वे हैं जो रूमाल से अपना चेहरा छिपाए संसार से छुपते फिरते हैं


[ कविता के विरुद्ध ]

कृ.क. की कविता-सृष्टि से प्रस्तुत इन उद्धरणों के उजाले में यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि काव्य-स्फीतियों और विस्फोटों के आगे नतमस्तक हिं.सा. की मुख्यधारा की कविता में जिस वस्तु को कविता-संग्रह कहकर पुकारा जाता है, ऐसी एक भी वस्तु साल 1990 के बाद से कृ.क. की अब तक सामने नहीं आई है। लगभग तीन-साढ़े तीन दशक प्राचीन कृ.क. की कविता-सृष्टि में कविता-संग्रह इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सिर्फ एक ही है— ‘बढ़ई का बेटा’। इस दरमियान उन्होंने अपनी विवादास्पदता के अंतरालों में ‘रेख़ते के बीज’, ‘साइकिल की कहानी’, ‘अकेला नहीं सोया’, ‘कविता के विरुद्ध’, ‘खाली पोस्टकार्ड’, ‘मीठा प्याज’, ‘वापस जाने वाली रेलगाड़ी’, ‘राख उड़ाने वाली दिशा में’, ‘वरिष्ठ कवियो’, ‘अपना नाप’, ‘पानी’, ‘एक कवि की आत्मकथा’, ‘नया बारामासा’, ‘एक अधूरा उपन्यास’, ‘अफीम का पानी’, ‘प्रसिद्ध’, ‘खून के धब्बे’, ‘नया प्रेम’, ‘चूका हुआ निशाना’ जैसी चर्चित पर असंकलित कविताएं लिखने के अलावा जो कुछ भी लिखा है — वह संग्रह के लिहाज से नहीं — किताब की तरह लिखा है। यह गौरतलब है कि कृ.क. की किताबें एक जिल्द में प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रकाशित हो रहती हैं। उनकी कविताएं उनकी तरह ही बिखरी हुई हैं। वे उन सारी जगहों पर बिखर गई हैं, जहां वे प्रकाशित हो सकती हैं। एक विकास-क्रम में बिखरना और निखरना… कृ.क. की कविता-सृष्टि के दो संयुक्त-तत्व हैं। समय से और समकालीनता से सताए हुए कृ.क. इस लोक के तमाम स्मृत-विस्मृत कवियों के कुल के हैं। आवारापन में वह बुद्ध के कुल के हैं। फक्कड़पन में वह कबीर और मीरा के कुल हैं। संस्कृत में वह भर्तृहरि, बाणभट्ट और राजशेखर के कुल के हैं। उर्दू में वह मजाज़ और मंटो के कुल के हैं। हिंदी में वह निराला, उग्र, भुवनेश्वर और राजकमल चौधरी के कुल के हैं।

कृ.क. की कविता-सृष्टि का काव्य-पुरुष प्रचलन के विपर्यय में और प्रयोग के पक्ष में सतत सक्रिय, रचनात्मक, सांसारिक और विवादात्मक रहा है। उनके काव्य-पुरुष के इस संघर्ष को समझने के लिए ‘बाग़-ए-बेदिल’ की स्थापना बहुत काम आ सकती है। यह स्थापना उनके लेखे उनकी एक लिखी जा रही पुस्तक ‘आवारगी का काव्यशास्त्र’ का प्रथम अध्याय है। यह अध्याय एक रचयिता की आवारगी का अनूठा विश्लेषण है। राजशेखर की ‘काव्य-मीमांसा’ के एक श्लोक के आश्रय से यहां स्पष्ट होता है कि आवारगी से जांघें दृढ़ हो जाती हैं। आत्मा भी मजबूत और फलग्राही हो जाती है और उसके सारे पाप पथ पर ही थक कर नष्ट हो जाते हैं। दो हजार पन्नों की सामग्री को संपादित करने के बाद पांच सौ बारह पन्नों में समाए ‘बाग़-ए-बेदिल’ के जिल्दबंद होने से पहले इस किताब के कुछ और नाम भी थे — ‘समकालीन संदेश रासक’, ‘शैतान के श्लोक’ और ‘पार्थ और सार्त्र’ — लेकिन पक्की स्याही से छपने के बाद अब इसका सिर्फ एक नाम है— ‘बाग़-ए-बेदिल’। समकालीन हिं.सा. की व्यावहारिक राजनीति में एक अज्ञात-अनाम-अजनबी कवि की तरह व्यवहृत कृ.क. ने इस किताब को यह सोचकर शाया करवाया कि यूरोपीय, मुगल, गॉथिक और आधुनिक शिल्प की समकालीन हिंदी कविता की इमारतों के बीच, ‘बाग़-ए-बेदिल’ के ये खंडहर शायद बुरे नहीं लगेंगे :

‘कद्र जैसी मेरे शे’रों की अमीरों में हुई,

वैसी ही उनकी भी होगी मेरे दीवान के बीच!’

 

इसी तरह ‘बाग़-ए-बेदिल’ में भी आपको

नकली कवियों

मंदबुद्धि संपादकों

डॉनों

मठाधीशों

गॉडफादरों इत्यादि

कुलीन कातिलों का चेहरा दिखाई पड़ेगा पार्थ!

 

पढ़ते

सुनते

देखते रहिएगा—

 

कल्ब-ए-कबीर और कला कातिलों की जंग का

यह हैरतअंगेज जासूसी काव्य!

 

[ कला कातिल-2 ]

‘बाग़-ए-बेदिल’ हिंदी साहित्य के एक विशेष कालखंड का व्यंजनात्मक इतिहास है। विलुप्त काव्य-पंक्तियों, धुनों, लयों, छंदों का पुनर्वास करती हुई यह कृति एक वाचिक वैभव का लिखित पाठ है। आक्रामकता और आत्ममुग्धता से लबालब ‘बाग़-ए-बेदिल’ के बारे में समादृत कवि अरुण कमल का यह कथन उद्धृत करने योग्य है : ‘‘कौन-सा ऐसा समकालीन है जिसके तरकश में इतने छंद हैं, इतने पुष्प-बाण? आवाज और स्वर के इतने घुमाव, इतने घूर्ण, इतने भंवर, इतनी रंगभरी अनुकृतियां हैं। कई बार तो इनमें से कुछ पदों को पढ़कर मैं ढूंढ़ता हुआ क्षेमेंद्र या राजशेखर या मीर या शाद तक पहुंचा। ये कविताएं हमारे अपने ही पते हैं खोए हुए, उन घरों के पते, जहां हम पिछली सांसें छोड़ आए हैं। इन्हें पढ़कर लगता है कि हिंदी कवि के पास खुद अपनी कितनी बड़ी और चौड़े पाट वाली परंपरा है।’’

इस सबके बावजूद यह हाल है कि क्या कहा जाए… हिंदी संसार में यों लगता है जैसे शत्रुओं की तो छोड़िए कोई शुभचिंतक मित्र भी पूरा का पूरा कृ.क. का अपना नहीं। कृ.क. का जिक्र आने पर वे या तो चुप रहते हैं या आधे दिल से विहंस कर पैरवी करते हैं या बात बदलने का यत्न। एक अक्षय परंपरा में आवारा भटकने के लिए कृ.क. अकेले कर दिए गए हैं, लेकिन वह इस तरह के पहले और अकेले कवि नहीं हैं। उन जैसे कवियों को इसलिए एक और मन मिलता है— कभी न थकने वाला। मन जो हवाओं-सा तेज नहीं, लेकिन जानता है कि उसे उड़ना ही है— एक जारी कवि-समय में अपने काव्य-पथ और समानधर्माओं की तलाश में। मैं इस आलोचना को यहां खत्म नहीं कर रहा हूं, बस कुछ वक्त के लिए रोक रहा हूं, यह सोचकर :

समझदार था मूरख भी था

दीवाना भी वह किंचित था

 

अश्रु आंख में और हृदय में

युगों-युगों का दुख संचित था

उसकी कही हुई बातों में

आखर कम अरथ अमित था

 

जाने दो वह कवि कल्पित था!    

***

 

संदर्भ :

प्रस्तुत आलेख में कृष्ण कल्पित की अब तक प्रकाशित कविता और कविता से संबंधित छह किताबों — राजस्थान साहित्य अकादेमी से प्रकाशित ‘भीड़ से गुजरते हुए’ (1980), रचना प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित ‘बढ़ई का बेटा’ (1990), कलमकार प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित ‘कोई अछूता सबद’ (2003), अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद से प्रकाशित ‘बाग़-ए-बेदिल’ (2013), दखल प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित ‘एक शराबी की सूक्तियां’ (2015) और बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित ‘कविता-रहस्य’ (2015) — को आधार बनाया गया है। इसके अतिरिक्त जिल्दबंद होने से पूर्व ही सोशल नेटवर्किंग साइट ‘फेसबुक’ पर स्वयं कवि के द्वारा ही प्रकाशित ‘हिंदनामा : एक महादेश का महाकाव्य’ को भी पाठ में लिया गया है। कवि की फेसबुक टाइमलाइन के साथ इंटरनेट की दुनिया में यत्र-तत्र बिखरी कविताओं को भी प्रयोग में लिया गया है। ‘जनसत्ता’, ‘संबोधन’, ‘जलसा’, ‘पाखी’ और ‘इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी’ जैसे पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कवि के काम और कविताओं पर भी नजर मारी गई है और टेलीविजन और सिनेमा को केंद्र में रखकर लिखे गए लेखों-टिप्पणियों की कलमकार प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित किताब ‘छोटा परदा बड़ा परदा’ पर भी। निराला के लिए नागार्जुन द्वारा लिखी गई पंक्तियां यात्री प्रकाशन से प्रकाशित निराला पर केंद्रित नागार्जुन की किताब ‘एक व्यक्ति : एक युग’ (1992) के समर्पण-पृष्ठ से हैं। राजकमल चौधरी का कथ्य देवशंकर नवीन के संपादन में वाणी प्रकाशन से आए उनकी कविताओं के एक चयन ‘ऑडिट रिपोर्ट’ (2006) में शामिल लंबी कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ से पहले दी गई टिप्पणी से लिया गया है। अरुण कमल को उद्धृत करने के लिए ‘बाग़-ए-बेदिल’ के आखिरी पन्ने को धैर्य से पढ़ा गया है। प्रस्तुत आलेख की शुरुआत और आखिरी अनुच्छेद पर विष्णु खरे की कविता ‘कूकर’ की छायाएं हैं, कहीं-कहीं इस कविता की कुछ पंक्तियां जस की तस, कहीं कुछ बदलकर ले ली गई हैं। इसके लिए विष्णु खरे के प्रति आलेखकार कृतज्ञ है।

***

साभार: पहल 110

 

आभासी पटल (सोशल साइट्स) के बाहर ‘कुंठित मन’ की ‘निर्लज्ज अभिव्यक्तियाँ’ कितनी अमानवीय होती हैं, वह जानी-पहचानी है. अविनाश के पास ‘कूटनीति’ की भाषा नहीं है, जिसका सबसे सजग इस्तेमाल आभासी लोक-वृत्त के दायरे में किया जाता है. जिस दिन उसके पास यह आ जायेगी, वह ख़त्म हो जाएगा.  यह आभासी-व्यवहार और कुछ नहीं, बल्कि हाल-चाल, दुआ-सलाम की भाषा को पाने का ही करतब है. यह भाषा आदमी को दलाल, अवसरवादी, व्यवसायी बना सकती है लेकिन रचनाकार नहीं. यह ‘सर्वधर्म-समभाव’ की सबसे उपजाऊ जमीन है. जहाँ भाषा गूगल-ट्रांसलेट हो जाती है. अविनाश से संपर्क -स्थापित हेतु  darasaldelhi@gmail.com का इस्तेमाल कर सकते हैं.

एक और जिंदगी ‘सिर्फ तुम’ की प्रिया गिल जैसी: अविनाश मिश्र

आभासी पटल (सोशल साइट्स) के बाहर ‘कुंठित मन’ की ‘निर्लज्ज अभिव्यक्तियाँ’ कितनी अमानवीय होती हैं, वह जानी-पहचानी है. अविनाश के पास ‘कूटनीति’ की भाषा नहीं है, जिसका सबसे सजग इस्तेमाल आभासी लोक-वृत्त के दायरे में किया जाता है. जिस दिन उसके पास यह आ जायेगी, वह ख़त्म हो जाएगा.  यह आभासी-व्यवहार और कुछ नहीं, बल्कि हाल-चाल, दुआ-सलाम की भाषा को पाने का ही करतब है. यह भाषा आदमी को दलाल, अवसरवादी, व्यवसायी बना सकती है लेकिन रचनाकार नहीं. यह ‘सर्वधर्म-समभाव’ की सबसे उपजाऊ जमीन है. जहाँ भाषा गूगल-ट्रांसलेट हो जाती है.

अविनाश मिश्र इस समय का रचनात्मक, खतरनाक और ‘आत्मघाती’ स्फुटन है. तमाम आपत्तियों और बदनामियों के बावजूद उसे पसंद किया जाता है. तिरछीस्पेल्लिंग पर अविनाश की  ‘नए शेखर की जीवनी’ की  पहली  प्रस्तुति  और दूसरी  प्रस्तुति  आप पढ़ चुके हैं, यह तीसरी प्रस्तुति है. 

the-king-of-habana-2015

स्नैपशॉट- द किंग ऑफ़  हवाना  (2015)

By अविनाश मिश्र

नए शेखर की जीवनी

घर मैंने छोड़ दिया

कोई मूल्यवान चीज

मैंने नहीं छोड़ी

@धूमिल

 

एक नए नगर में बहुत सारी जगहों का कोई इतिहास नहीं है.वे धीरे-धीरे अपना इतिहास अर्जित कर रही हैं. नई जिंदगियों के लिए इतिहास को झेलना बहुत मुश्किल है, क्योंकि इतिहास में सब कुछ हो सकता है —सच्चाई भी—लेकिन जिंदगी नहीं.

शेखर इतिहास गंवा चुका है. अब वह चाहता है केवल इतनी अस्मिता कि एक नए नगर में बस सके.

नए नगर बेहद संभावनाशील प्रतीत होते हैं. उनकी सरहदों में घुसते ही उम्मीद और यकीन की नई इबारतें खुलती हैं. वहां भाषा की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. वहां सजगता की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. वहां जागरूकता की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. वहां लोगों की सबसे ज्यादा जरूरत होती है. वहां सबसे कम जरूरत उस चीज की होती है जिसे शेखर गंवा चुका है. फिर भी वह वहां अर्जित करेगा, वह सब कुछ जो वह गंवा चुका है.

*

शेखर अब एक नए नगर में है. इस नए नगर में एक कमरा है. एक झाड़ू है. एक बिस्तर है. एक स्त्री है. इस एकवचन में बहुवचन हैं इस स्त्री की आंखें.

ये आंखें शेखर को बहुत उम्मीद से देखती हैं. वह नहीं चाहता कि यह उम्मीद कोई शक्ल ले. लेकिन लापरवाहियां शेखर के शिल्प में हैं. इसलिए ही ये आंखें उम्मीद से हो गईं.

शेखर के बाबा तब मरे जब मुल्क में आपातकाल था और शेखर के जनक तब, जब मुल्क में यह जांचा जा रहा था कि कौन कितनी देर खड़ा रह सकता है.

 शेखर के बाबा नारे लगाते हुए मरे और जनक पुराने बंद हो चुके चंद नोट किनारे लगाते हुए.

 लेकिन शेखर अभी मरना नहीं चाहता—न अपने बाबा की तरह, न अपने बाप की तरह.

अभी तो एक और जिंदगी उसकी प्रतीक्षा में है. अभी तो आस-पास का सब कुछ इस जिंदगी का स्वप्न है. इस इंतजार को वह खोना नहीं चाहता. इस इंतजार में सुख है.

शेखर उत्सुकता को अपराध की सीमा तक बुरा मानताहै.

बीत चुकी स्थानीयताओं में यानी अपने बचपन के नगर में जब भी वह किसी ऑटो में बैठा, उसे यही गीत सुनने को मिला :

मेरी आंखों में जले तेरे ख्वाबों के दिए 

कितनी बेचैन हूं मैं यार से मिलने के लिए’

एक और जिंदगी ‘सिर्फ तुम’ की प्रिया गिल जैसी होगी. जब भी कोई उससे पूछेगा कि क्या चाहती हो? वह कहेगी : ‘सिर्फ शेखर.’

अभी तो जो जिंदगी है उसमें प्रशंसा का पहला वाक्य आत्मीय लगता है, लेकिन प्रशंसा के तीसरे वाक्य में प्रशंसा का तर्क भी हो तब भी उससे बचने का मन करता है, क्योंकि प्रशंसा के दूसरे वाक्य से ही ऊब होने लगती है.

अभी तो जो जिंदगी है वह शेखर से कहती है कि वह उसके भाई जैसा है और यह सुनते ही वह समझ जाता है कि इस जिंदगी के फायदे दूसरे हैं. ये जिंदगी भी पुरुषों की तरह क्रूर, कुटिल, अवसरवादी, धूर्त और धोखेबाज है.

शेखर चाहता है कि जिन जिंदगियों से उसके रक्त के रिश्ते नहीं, वे उसे उसके सही नाम से पुकारें—शेखर…

इतनी जिंदगियों पर इतने अत्याचार देखे हैं और इतनी अत्याचारी जिंदगियां देखी हैं कि अपने जीवित होने से घृणा हो गई है शेखर को. लेकिन फिर भी जब कोई जिंदगी शेखर को शेखर पुकारती है, उसे लगता है कि वह क्रूरता से कोमलता की ओर, कुटिलता से सहृदयता की ओर, अवसरवादिता से ईमानदारी की ओर, धूर्तता से समझदारी की ओर और धोखेबाजी से विश्वसनीयता की ओर एक जरूरी कदम बढ़ा चुकी है.

इस जिंदगी से शेखर पूछता है कि कहां जाऊं जो बर्बरता के स्रोत पीछा न करें?

जिंदगी : जनपथ से राइट लो.

 शेखर : अगर दिल्ली विश्वविद्यालय से केंद्रीय सचिवालय जाऊं तो मेट्रो बदलनी तो नहीं पड़ेगी न?

 जिंदगी : बहुत विद्वतापूर्ण बातों का वक्त बीत गया.

 शेखर : मुझे लगता नहीं कि मैं दूर तक जा पाऊंगा. 

इस जिंदगी में जिसे देखो वही पूछता है कि कहां क्या मिल रहा है?

कोई नहीं पूछता :

‘कहां जाऊं

और दे दूं

खुद को.’

इस जिंदगी में खुद को दे देने के लिए शेखर बहुत जल्दी में रहता है. वह जल्दी-जल्दी चलता है, खाता है, पीता है. उसे लगता है कि कहीं कुछ छूट रहा है जो पीछे नहीं आगे है. वह उसे पकड़ने के लिए जल्दी में रहता है.

वह जानता है कि एक दिन लोग कहेंगे :‘अगर शेखर ने जल्दी न की होती, तब वह पहुंच गया होता.’

*

यह जिंदगी तब की पैदाइश है, जब लोग अपना जन्मदिन इतना नहीं मनाते थे. जब अंग्रेजी इतनी नहीं बोली जाती थी. जब लोगों की आंखें भरी और कान खाली रहते थे और उन्हें धीरे से भी पुकारो तो वे सुन लेते थे. तब तकनीक थोड़ी कम थी और निरर्थकता भी.

शेखर बहुत पहले का नहीं है, लेकिन न जाने क्यों उसे लगता है कि पहले सब कुछ ठीक था और आगे सब कुछ ठीक हो जाएगा.

शेखर पागल थोड़ा नहीं है, अर्थात् बहुत है.

लेकिन शेखर केवल ताली बजाने के लिए नहीं बना है, उसने रची है अपने ही हाथों से यह दुनिया भी और इस दुनिया में एकसौगजकाप्लॉटभी—दिल्लीसेकुछहटकर.

इस प्लॉट को एक आवास की शक्ल देने के सिलसिले में वह बेचैन रहता है. लेकिन आर्थिक आपातकाल ने एक आवास के स्वप्न को खुले आवासीय यथार्थ में बदल दिया.

जम्बो सर्कस हो या गैंग रेप या अवैध कोकीन बरामद हो, ट्रक-मर्सिडीज भिड़ंत हो या पप्पू खंजर की गिरफ्तारी… सब कुछ अब शेखर के इस सौ गज के प्लॉट के आस-पास ही होता है.

शेखर के जनक की मृत्यु और शेखर का खुद जनक होना नवंबर’16 की उन तारीखों में हुआ जब पूरा मुल्क कतारों में खड़ा था.

सारी कतारें शेखर के सौ गज के प्लॉट पर आकर खत्म होने लगीं. सारी बातें वह घसीट कर सौ गज के दायरे में ले आने लगा.

सीमेंट, मोरम, रेत, गिट्टियां, ईंट, मार्बल, सरिया, लोहा, लकड़ी, मिट्टी… वह संवाद के सारे मुद्दों को इनमें मिक्स करने लगा.

मय्यतों और सत्संगों में भी वह इस प्लॉट का जिक्र छेड़ बैठता.उसे पुश्तैनियत में कुछ नहीं मिला पपीते के एक पेड़ और आपातकाल की कुछ बुरी यादों के सिवाय. इसलिए वह जानता था करोड़ों-करोड़ बेघरों के बीच में एक सौ गज के प्लॉट के मायने. करोड़ों-करोड़ कीड़ों-मकौड़ों को रौंदने के बाद एक इतनी बड़ी जगह पर काबिज होकर,वह थोड़ा खुश होना चाहता था.

वह अपने नवजात शिशु से इस प्लॉट से संबंधित अभूतपूर्व योजनाओं पर चर्चा किया करता. वह अपने शिशु को समझाता कि असंतुष्टियों के असीमित और अर्थवंचित आयामों से बच कर चलना मेरे बच्चे.

शेखर ने प्रवचनों में सुना था :

सब कुछ माया है…

यह वाक्य दिन-ब-दिन अब और चमकीला होता जा रहा है.

आने वाले वक्त में जब शेखर का नवजात शिशु कुछ बड़ा होगा, सब तरफ बेइंतिहा चमक होगी. लेकिन सब कुछ ठीक-ठीक देख पाना वैसे ही असंभव होगा जैसे कि आज इस अंधेरे में जहां शेखर रहता है—एक अधूरे सौ गज के प्लॉट पर, एक और जिंदगी के इंतजार में…

***

 

काम के चौंसठ सूत्र : अविनाश मिश्र

आभासी पटल (सोशल साइट्स) के बाहर ‘कुंठित मन’ की ‘निर्लज्ज अभिव्यक्तियाँ’ कितनी अमानवीय होती हैं, वह जानी-पहचानी है. अविनाश के पास ‘कूटनीति’ की भाषा नहीं है, जिसका सबसे सजग इस्तेमाल आभासी लोक-वृत्त के दायरे में किया जाता है. जिस दिन उसके पास यह आ जायेगी, वह ख़त्म हो जाएगा.  यह आभासी-व्यवहार और कुछ नहीं, बल्कि हाल-चाल, दुआ-सलाम की भाषा को पाने का ही करतब है. यह भाषा आदमी को दलाल, अवसरवादी, व्यवसायी बना सकती है लेकिन रचनाकार नहीं. यह ‘सर्वधर्म-समभाव’ की सबसे उपजाऊ जमीन है. जहाँ भाषा गूगल-ट्रांसलेट हो जाती है.

अविनाश मिश्र इस समय का रचनात्मक, खतरनाक और ‘आत्मघाती’ स्फुटन है. तमाम आपत्तियों और बदनामियों के बावजूद उसे पसंद किया जाता है. वह रेयर है.

Snap short from Venus (2010)

Snap short from Venus (2010)

 चौंसठ सूत्र

By अविनाश मिश्र

 

कामसूत्रकार आचार्य वात्स्यायन, युवा आचार्य उदय शंकर और प्रिया ‘विजया’ के लिए

***

।।  मंगलाचरण ।।

मेरे लिए अब प्रार्थना करने

और तुम्हारे नाम के

दुहराव के बीच

कोई दुराव नहीं है

मेरे प्रार्थनाक्षर

तुम्हारे नाम के वर्णविन्यास को चूमते हैं

मेरी आकांक्षा है कि

सतत् प्रार्थना में ही रहूं

*

।। आलिंगन ।।

 वह फाल्गुन था जब तुम आईं

अवसाद मुझे नष्ट करने ही वाला था

मैं जैसे एक संधि पर था

एक मिलनबिंदु पर

यह तुम्हारे आगमन से हुआ कि

अवसाद को मदहोशी

और उदासी को उन्माद में बदलने के लिए

मैं तुम्हारे अधरों का आघात चाहने लगा

*

।। चुंबन ।।

वे औपचारिक नहीं

प्रामाणिक थे

कभी तर्क की तरह प्रस्तुत

कभी सिद्धांत की तरह

वे सबसे प्रचलित दृष्टिकोण की तरह

स्वीकार्य थे

उनमें प्रतीक्षा का धैर्य था

और अनिश्चितता का तत्व भी

*

।। नखक्षत ।।

वे अल्पविराम थे

तुम्हारे कंधों और नाभि के निकट उभरे हुए

स्तनालिंगन के मध्य

मेरे नाम का वर्णविन्यास रचते

वे तुम्हारे पृष्ठ पर थे

और जिनके पश्चात भी प्रारंभ होते हैं वाक्य

ऐसे पूर्णविरामों की तरह

वे थे तुम्हारे नितंबों पर

*

।। दंतक्षत ।।

जिह्वायुद्ध में

तुम्हारी हंसी को चूमते जाते हुए

वे चंद्रबिंदु की तरह

लुप्त होना चाहते थे :

बिंदुमाला बनाते हुए

अर्थ न खोए

सौंदर्य

भले ही खो जाए

*

।। संवेशन ।।

प्रकट में तुम बहुत मौन हो

स्वगत में बहुत वाचाल

सौंदर्य के लिए नहीं लय के लिए आवश्यक

मेरे समग्र स्वप्नचित्रों का केंद्रीय वैभव हो तुम

*

।। सीत्कृत ।।

हल्के प्रकाश में

तुम और भी सुंदर थीं

हल्की सांस लेती हुईं

आशंका को स्थान न देती हुईं

लापरवाहियां तुम्हारे शिल्प में थीं

इस अर्थ में इस अर्थ से दूर

तुम्हारी बंद आंखों में भी मद था

मैंने सारी रात खुली आंखों से तुम्हें देखा

*

।। पुरुषायित ।।

जब मैं परीक्षा पूरी दे लूं

प्रीति मुझे लेने आए

मैं थक जाऊं इतना प्रणययुद्ध में

कि सूर्यास्त मेरी प्रशंसा करे

रात्रि मुझे और उत्तेजना दे

सूर्योदय मुझे और बल

*

।। औपरिष्टक ।।

तुमसे ही मांगूंगा तुम्हें

सिर्फ तुम्हें

इंकार मत करना

देने से घटता नहीं है

और बचाते हैं वे

जिनके पास कम होता है

*

।। अनन्यपूर्वा ।।

कुंवारे अंग

कुंवारे राग

कुंवारी सृष्टि

कुंवारी आग

कुंवारा हृदय

कुंवारा सुहाग

मुझे उम्मीद थी

मैं नाउम्मीद नहीं रहूंगा

*

।। वरणसंविधान ।।

जो आत्मबल से युक्त हैं

मैत्री से संपन्न

नागरकता से पूर्ण

मनोभावों को समझते हैं

देशकाल की परिस्थितियों के ज्ञाता हैं

ऐसे नायकों को अनायास ही मिलती हैं अलभ्य नायिकाएं

आत्मवंचित

मैत्रीमुक्त

नागरकतारहित

अंतर्मुखी

एकाकी नायकों (?) के लिए है

हस्तमैथुन

*

।। विवाहयोग ।।

उच्चकुल भी रच सकता है नर्क

संबंधी भी कर सकते हैं घात

संपन्नता भी कर सकती है व्यथित

सुख भी कर सकता है छल

मात्र अनुराग ही है चयन के योग्य

मनोनुकूल

श्रेष्ठ

अभीष्ट

*

।। कन्यावरण ।।

किसी नक्षत्र को अशुभ मान लेना

किसी नदी को अपवित्र

किसी वृक्ष को अस्पृश्य

किसी अक्षर को अवांछित

किसी स्त्री से भी ऐसे ही व्यवहार करना

नक्षत्रों के नामों वाली

नदियों के नामों वाली

वृक्षों के नामों वाली

‘ल’ और ‘र’ पर खत्म हो जिसका नाम

ऐसी किसी स्त्री से विवाह न करना

लेकिन जब कोई स्त्री चीन्ह ले

तुम्हारी आंखों में

तुम्हारा सारा दुःख

तब भूल जाना सब कुछ

और बना लेना उसे अपनी

सांसों से भी ज्यादा जरूरी

*

।। संबंधनिश्चय ।।

तुम्हारे कदमों से मिलाता हूं

अपने कदम

तुम्हारी रफ्तार से

अपनी रफ्तार

तुम्हारी उंगलियों से

अपनी उंगलियां

तुम्हारे साथ चलना

भविष्य का अभ्यास करना है

*

।। परिचयकारण ।।

सुंदरताओं के सूत्र

सुंदरताओं को नहीं देते

जब तुमने कहा :

‘‘मैं इतनी सुंदर नहीं’’

मैंने नहीं कहा :

‘‘मेरी आंखों से देखो’’

*

।। आभ्यासिकी ।।

प्रेम अगर सफल हो

तब पीछे से उम्र घटती है

अगर असफल हो

तब आगे से

तुम्हारे बगैर

मेरी सारी यात्राएं अधूरी हैं

*

।। आभिमानिकी ।।

बहुत असभ्य और अश्लील हैं अंधेरे मेरे

तुम हो रही सुबह की तरह सुंदर हो

प्रेम है अस्तित्व की एक अवस्था

और तुम इसमें मेरा पता

मुझ तक पहुंचने के लिए

जरूरी है जानना तुम्हें

*

।। सम्प्रत्ययात्मिका ।।

सब तुमसे पूछेंगे :

‘‘तुमने मुझमें क्या देखा’’

तुम मुझसे पूछोगी :

‘‘तुमने मुझमें क्या देखा’’

मैंने तुम्हें

तुमने मुझे

देखते हुए देखा

परस्पर घायल इस संदर्भ में

एक दूसरे के प्रति इतने सच्चे

कि सारे संसार के लिए झूठे

*

।। विषयात्मिका ।।

जो प्यार में हैं

प्यार और बरसता है उन पर

जो नहीं हैं प्यार में

वे तरसते हैं प्यार की एक बूंद को भी

मैं बहुत वक्त से प्यार में हूं

बहुत वक्त से नहीं था प्यार में

*

।। प्रयोज्या ।।

प्यार हो तो तुम

कैसे भी रह लोगी

तुम कोई कहानी नहीं हो

जो मुझे दुःख दोगी

*

।। समरत ।।

कभी तुम्हारे पैरों में दर्द होगा

तब मैं दबा दूंगा

कभी मेरे पैरों में भी

दर्द होगा…

हम पहले और अकेले नहीं होंगे

दर्द में

*

।। अधररेखा ।।

वहां रहना भी सुंदर है

कुछ देर

जहां कुछ देर बाद रहना

सुंदर न लगे

*

।। वक्षरेखा ।।

गहराई

सदा

सुंदर

होती है

यह अलग तथ्य है कि

दृष्टि उसमें डूब जाती है

*

।। योनिरेखा ।।

समय से पूर्व पहुंचना मूर्खता है

समय पर पहुंचना अनुशासन

समय के पश्चात पहुंचना अहंकार

*

।। अशिक्षितपटुत्वम् ।।

स्त्रियों में कलाओं का संस्कार जन्मजात होता है

शास्त्रीयता और प्रयोग से वे और कलावान् होती हैं

पुरुष कलावान् नहीं हो सकते

वे या तो कलावादी होते हैं या कलाविरोधी

*

।। एकपुरुषाभियोग ।।

तुम बार-बार खुलना चाहती हो

मेरे सामने

बार-बार बढ़ते हैं मेरे हाथ

तुम्हें बांधने

प्यार एक लय है

इसमें मुक्ति कहां

*

।। मयूरपदक ।।

एक स्तन को प्यार करो

सारी रात

तब दूसरा रहता है उदास

सुबह तक

इस उदासी को जानता है वह जल जो

बालों

आंखों

अधरों

गर्दन

से

उतरता

हुआ

पहुंचता

है

उस

तक

*

।। रागवत् ।।

इतना ध्यान दूंगा तुम पर

खुद का ध्यान नहीं रख पाऊंगा

स्नानागार की दीवार पर चिपकी

बिंदिया की तरह छूट जाऊंगा

सारे उजालों में तुम बिन रहूंगा मायूस

नाक की कील की तरह कहीं गिर जाऊंगा

सांझ ढले जब तुम लौटती होगी

तुम्हारे माथे से स्वेदबूंद की तरह चू पडूंगा

रात गए जब तुम गिरोगी मुझ पर

बिस्तर की तरह तुम्हें संभालूंगा

तुम बिन

बहुत बर्बाद हूं मैं

*

।। आहार्य राग ।।

सीढ़ियों पर

झूलों में

चट्टानों पर

रजतरश्मियों में

तुमने उतारा मुझे अपने भीतर

हमारे अभिसार की आवाजों में खो गया

समाचारों का कोलाहल

विस्मृत हुआ विश्व

*

।। कृत्रिम राग ।।

मैं जानता हूं तुम्हें

यह जानकर भी

तुम जानती नहीं मुझे

मैं सोचता हूं यह

तुम संभवत: यह सोचती हो

मैं जानता हूं तुम्हें

यह जानकर भी

तुम जानती नहीं मुझे

*

।। व्यवहित राग ।।

तुम इच्छाओं से भरी हुई हो

जैसे यह सृष्टि

मैं सुन सकता हूं तुम्हें उम्र भर

व्रती है यह दृष्टि

*

।। पोटारत ।।

जाना तो जाना

कुछ भी नहीं जाना

कुछ मनवाया

कुछ माना

मुझसे क्या-क्या झूठ बोला

सच-सच बोलो

*

।। खलरत ।।

सुख के लिए

मैं तुम्हें दर्द नहीं दे सकता

क्योंकि जानता हूं

सुख के लिए

तुम सह सकती हो

दर्द भी

*

।। अयंत्रित रत ।।

अंगराग की तरह लगता हूं

तुममें

असंदिग्ध है मेरी योग्यता

नए सौंदर्य साधनों के सम्मुख

मुझे कविता पसंद है

और कविता को मैं

बस इतना पर्याप्त है

मेरे कविकर्म के लिए

*

।। आलंबन ।।

आंखें जलती हैं नींद से

ख्वाब दूर खड़े रहते हैं

तुम सोती हो मेरे कंधों पर

मैं लगाता हूं तुम्हारा तकिया

मेरी नींद

तुम्हें लग गई है

*

।। आलाप ।।

तुम खोज लाती हो

मेरी सारी खोई बातों के सूत्र

मैं खोजता हूं

तुम्हारे

केशों में अपनी सांसें

तुम्हारे

उरोजों और ऊरुओं पर

स्मारणीयक

*

।। सुरत ।।

तुम सो गई हो प्यार के बाद

मैं तुम्हें सोते हुए देख रहा हूं

जब तुम जागोगी

मैं तुम्हें फिर प्यार करूंगा

तुम फिर सो जाओगी

मैं तुम्हें फिर देखूंगा

*

।। कन्याविस्रम्भण ।।

मेरी उंगलियों की छुअन से

होती है तुम्हारे पेट में गुदगुदी

इसका अर्थ है :

तुम सच्ची हो प्रेम में

अगले संसर्ग में नहीं करवाओगी विलंब

अगर नहीं होती गुदगुदी

इसका अर्थ होता :

तुम तड़पाओगी बहुत…

यह शुद्ध संशय नहीं

संकीर्ण संशय है

*

।। गोष्ठीसमवाय ।।

‘‘टूटी हुई बिखरी हुई’’

शीर्षक ये मेरा नहीं है

‘‘द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास

फिर भी मैं करता हूं प्यार’’

पंक्तियां ये मेरी नहीं हैं

‘‘चिकनी चांदी-सी माटी

वह देह    धूप में    गीली

लेटी है हंसती-सी’’

कविता ये मेरी नहीं है

मेरी

केवल

तुम हो

एकमात्र

कविता

*

।। घटानिबंधन ।।

जो सबसे ज्यादा असुंदर थी

उसने स्वयं को सबसे ज्यादा सजा रखा था

जो उससे कम असुंदर थी

उसने स्वयं को उससे भी ज्यादा सजा रखा था

जो कम सुंदर थी

उसने स्वयं को कम सजा रखा था

और जो वास्तव में सुंदर थी

वह वहां आ नहीं पाई थी

*

।। छायाचुंबन ।।

कहीं होकर भी नहीं होना

कहीं नहीं होकर भी होना

बहुत रूप हैं तुम्हारे

रंग मात्र एक मेरा

*

।। रतरम्भावसानिक ।।  

प्रेम का प्रारंभिक प्रभाव

बहुत मधुर लगता है

जैसे

कोई गीत अपने शुरुआती संगीत से

जगाता है अपेक्षाएं

एक फूल भी यही करता है

इस सच के बावजूद

कि यह प्रभाव नहीं रहेगा

*

।। चित्ररत ।।

तुम्हारी आंखें जैसे जामुन

तुम्हारी हंसी जैसे घुंघरू

तुम्हारे होंठ जैसे नाव

तुम्हारी सांसें जैसे नदी में फेंका गया पत्थर

उपमाएं क्षीण हो रही हैं

स्मृति गहन

*

।। चक्षु:प्रीति ।।

प्रेम का अभिनय नहीं हो सकता

प्रेम अभिनय को उपेक्षा की आंखों से देखता है

उपेक्षा मारती है जब अभिनय को

तब वह जान पाता है कि

प्रेम

रंगस्थल नहीं है

*

।। चित्तासंग ।।

मैंने सोचा :

कल तुम कहकर भी नहीं आओगी

यह सोचते ही

आनेवाला कल

मेरे लिए

बीता हुआ कल हो गया

*

।। संकल्प ।।

तुम्हें कितना चाहा

और बदले में

कुछ नहीं चाहा

तवज्जोह तक नहीं

*

।। निद्राच्छेद ।।

संकल्प

बहुत तेज दर्द की तरह उठता है

सीने में

शुभरात्रि की जगह

प्रेमरात्रि कहती है

मेरी

नींद

मुझे

*

।। तनुता ।।

खुद को तुम्हें देकर

तुम्हें बड़ा और गहरा किया मैंने

मैं भरता हूं तुम्हारी नाभि में जल

भरती नहीं मेरी प्यास

तुम्हारा अभाव नष्ट हुआ

मेरा स्वभाव

*

।। व्यावृत्ति ।।

तुम सबसे बड़ी आलोचक हो मेरी

मैं सबसे बड़ा प्रशंसक तुम्हारा

यह सुख है

शेष दुःख

मेरे खाते में लिख दो

वे धीरे-धीरे मुझे खाते रहेंगे

*

।। लज्जाप्रणाश ।।

‘‘तुम अच्छी हो’’

तुमसे संबोधित यह बात

मैं पूछता नहीं हूं

कहता हूं

‘‘मैं अच्छी हूं’’

मुझसे संबोधित यह बात

तुम पूछती नहीं हो

कहती हो

तुम ठीक से नहीं सुनतीं

‘‘तुम अच्छी हो’’

*

।। उन्माद ।।

तुमने इस कदर सताया मुझे

कि तुम्हें लगा तुम भी सता सकती हो

एक सताई गई स्त्री भी सता सकती है

यह तुम बता सकती हो

*

।। मूर्च्छा ।।

मैं नहीं आया तुम्हारे पास

तुम ही आईं

तुम्हारा प्यार तुम्हारी ताकत है

मेरा प्यार मेरी दुर्बलता

*

।। मरण ।। 

मेरे हृदय की ओर आते बाण बहुत थे

प्रेम ने भी मुझे निष्कवच किया

मैं इसलिए मरता हूं तुम पर

क्योंकि जी नहीं सकता तुम्हारे बगैर

*

।। भावपरीक्षा ।।

तुमने कहा :

‘‘मैं जा रही हूं’’

मैंने कहा :

‘‘आओगी नहीं’’

इस ‘आओगी नहीं’ के आगे प्रश्नचिन्ह है या नहीं

यह एक प्रश्न है

*

।। विस्थापन ।।

आकाश से तुम पर आती हुईं जलबूंदें

बहुत अपरिचित थीं तुमसे

आकर इतनी विलीन हुईं तुममें

कि विस्मृत हुआ व्योम उन्हें

*

।। प्रवासचर्या ।।

कितने दिवस हुए

चांद हाथों में लिए हुए

कितने दिवस हुए

शीतलता छुए हुए

कितने दिवस हुए

आंखों में गए हुए

*

।। एकचारिणी ।।

मैं न देख सकूं जिन दिवसों में तुम्हें

उन दिवसों में तुम सिंगार मत करना

व्यय को व्यर्थ हो जाने देना

व्यथा को व्यापक

*

।। क्षीरजलक ।।

सुंदर था वह क्षण

स्मृतियों में भी वही हुआ

मैं बहुत गलत था जीवन में

तुमसे मिलकर सही हुआ

*

।। स्त्रीपुरुषशीलावस्थापन ।।

एकल रहना है स्त्रीवाद

‘मुझे चांद चाहिए’ कहना है स्त्रीविरोधी

कौमार्य की चाह में न बहना है प्रगतिशीलता

इस संसार के पार भी है एक संसार

जहां एक रोज तुम्हारा बहुत सुंदर लगना

रोज तुम्हें गौर से न देखना है

*

।। सवर्णा ।।

विवाहपूर्व यौन संबंध

विवाहेतर यौन संबंध

विवाह पश्चात भी हस्तमैथुन

हमउम्र मित्रों या कमउम्र बच्चों के साथ

अप्राकृतिक और अशोभनीय आचरण

कभी-कभी कुत्तों

या निर्जीव वस्तुओं के साथ अराजक हो जाना

और भी तमाम माध्यम हैं

विवाह कर लाई गई एक लड़की को

बगैर छुए प्रताड़ित करने के

*

।। निरनुबंध ।।

वेश्याएं

कुछ भी पहन लें

वासनाएं ही जगाती हैं :

प्रेम

प्रगतिशीलता

स्त्रीविमर्श

*

।। नीवीविस्रंसण ।।

जब तुम गर्भ में थीं

मैं तुम्हें नहीं जानता था

जब तुम गुरुकुलों में थीं—

शास्त्रार्थ के लिए प्रवीण होती हुईं

मैं तुम्हें नहीं जानता था

जब तुम राजधानी में आईं—

प्रतिकार को संगठित करने

मैं तुम्हें नहीं जानता था

मैं खो गया तुममें

क्योंकि मैं तुम्हें नहीं जानता था

जब तुम मुझे आकांक्षाओं के समीप ले गईं

और बुझ जाने तक मैंने तुम्हें प्यार किया

तब तक मैं तुम्हें कहां जानता था

*

।। नखविलेखन ।।

नाखूनों से तुम्हारे स्तनों पर

अर्द्धचंद्र बनाते हुए

मैंने देखा :

पुराने अर्द्धचंद्र अब तक भरे नहीं हैं

तुम विरह में रहीं

क्योंकि मैंने भूल की

*

।। उपसंहार ।।

दर्द वह मेरा है

जो तुम्हें होता है

तुम ही बढ़ाती हो इसे

तुम ही और बढ़ाती हो

तुम्हारे सब अंग

अब मेरे संग हैं

***

 

 

परिशिष्ट

आधार-ग्रंथ/संदर्भ/पारिभाषिक शब्दावली/अन्य संदर्भ

आधार-ग्रंथ :

श्रीवात्स्यायनमुनिप्रणीतं ‘कामसूत्रम्’ : हिंदीव्याख्याकार डॉ. पारसनाथ द्विवेदी, प्रकाशक : चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी।

*

संदर्भ :

आलिंगन, चुंबन, नखक्षत, दंतक्षत, संवेशन, सीत्कृत, पुरुषायित, औपरिष्टक संभोग के आठ प्रकार।

आभ्यासिकी, आभिमानिकी, सम्प्रत्ययात्मिका, विषयात्मिका प्रीति के चार प्रकार।

रागवत्, आहार्य राग, कृत्रिम राग, व्यवहित राग, पोटारत, खलरत, अयंत्रित रत सात रतविशेष।

चक्षु:प्रीति, चित्तासंग, संकल्प, निद्राच्छेद, तनुता, व्यावृत्ति, लज्जाप्रणाश, उन्माद, मूर्च्छा, मरण काम की दस अवस्थाएं।

*

पारिभाषिक शब्दावली (क्रमशः) :

नखक्षत : नाखूनों द्वारा देह पर अर्द्धचंद्रादि चिन्ह विशेष।

स्तनालिंगन : स्तनों से नायक की छाती को दबाना।

दंतक्षत : दांत से देह पर काटना।

जिह्वायुद्ध : नायक का अपने अधरों, जिह्वा और दांतों से नायिका के अधर, दांत और जिह्वा को भलीभांति चूमना।

बिंदुमाला : दंतक्षत का एक प्रकार जिसमें सभी दांतों से काटने के कारण बिंदुओं की एक माला-सी बन जाती है।

संवेशन : संभोगासन।

सीत्कृत : सीत्कार।

पुरुषायित : विपरीत रति अर्थात् जब स्त्री पुरुष के ऊपर आकर संभोग में क्रियाशील हो।

प्रणययुद्ध : प्रहणन।

औपरिष्टक : मुखमैथुन।

अनन्यपूर्वा : अक्षत-योनि।

वरणसंविधान : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें विवाह-संस्कारों का वर्णन है।

नागरकता : रसिकता।

विवाहयोग : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें सहायकों द्वारा कन्या को अनुकूल बनाने के उपाय हैं।

कन्यावरण : ‘कामसूत्र’ के वरणसंविधानप्रकरण का एक भाग।

संबंधनिश्चय : ‘कामसूत्र’ का एक अन्य विवाह-संबंधी प्रकरण।

परिचयकारण : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें कन्या-प्राप्ति के उपाय हैं।

आभ्यासिकी : अभ्यास से सिद्ध प्रीति।

आभिमानिकी : संकल्प से सिद्ध प्रीति।

सम्प्रत्ययात्मिका : पारस्परिक विश्वास से सिद्ध प्रीति।

विषयात्मिका : श्रोत्रादि इंद्रियों के प्रत्यक्ष ज्ञान से और लोक से सिद्ध प्रीति।

प्रयोज्या : प्रेमिका।

समरत : समान स्त्री-पुरुष का संभोग।

अशिक्षितपटुत्वम् : कामशास्त्र की शिक्षा के बिना ही स्त्रियों का स्वत: कामकला में प्रवीण होना।

एकपुरुषाभियोग : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें कन्या-प्राप्ति के लिए एक पुरुष के द्वारा करणीय उपाय हैं।

मयूरपदक : नखक्षत का एक प्रकार। पांचों नाखूनों से स्तन को अपनी ओर खींचने से बनी रेखा।

रागवत् : प्रथम दर्शन में ही प्रेम हो जाना।

आहार्य राग : किसी स्त्री से धीरे-धीरे प्रेम बढ़ाना।

कृत्रिम राग : बनावटी प्रेम।

व्यवहित राग : किसी स्त्री से संभोग करते समय अन्य स्त्री के प्रेम की कल्पना।

व्रती : संकल्पशील।

पोटारत : कामवासना की तृप्ति के लिए अधम स्त्री से संबंध जोड़ना।

खलरत : कामवासना की तृप्ति के लिए किसी हीन व्यक्ति से प्रेम-संबंध जोड़ना।

अयंत्रित रत : परस्पर पूर्ण परिचित स्त्री-पुरुष की संभोग क्रिया।

अंगराग : उबटन।

उरोज : स्तन।

ऊरु : जांघ।

स्मारणीयक : नायिका के स्तनों और जंघाओं पर नाखूनों से रेखाएं खींचना।

सुरत : संभोग।

कन्याविस्रम्भण : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें विवाह के पश्चात सहवास-संयम का वर्णन है।

शुद्ध संशय : लक्ष्यसिद्धि में संदेह होना।

संकीर्ण संशय : यह कार्य होगा या नहीं! इस प्रकार का संशय करना।

गोष्ठीसमवाय : साहित्यिक एवं सामाजिक गोष्ठियों का आयोजन।

घटानिबंधन : देवालय में त्योहारों एवं समारोहों पर सामूहिक नृत्य, गान एवं गोष्ठी का आयोजन।

छायाचुंबन : दर्पण या दीवार पर प्रतिबिंबित नायक-नायिका की परछाईं का चुंबन।

रतरम्भावसानिक : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें रत के आरंभ-अंत में क्या करना चाहिए इसका विवेचन है।

चित्ररत : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें संभोग की अद्भुत विधियों स्थिररत, अवलम्बितक, धेनुक, संघटक, गोयूथिक, वारिक्रीडितक का विवेचन है।

चक्षु:प्रीति : स्त्री के प्रथम दर्शन से आंखों में प्रेम का संचार हो जाना।

चित्तासंग : मन में प्रेमास्पद के प्रति आसक्ति उत्पन्न होना।

संकल्प : प्रेमास्पद की प्राप्ति के लिए संकल्परत हो जाना।

निद्राच्छेद : प्रेमास्पद की चिंता में नींद उड़ जाना।

तनुता : प्रेमास्पद की चिंता में नींद उड़ जाने से देह से दुर्बल हो जाना।

व्यावृत्ति : दुर्बलता के कारण विषयों से विरक्ति और दैनिक कार्यों से अरुचि।

लज्जाप्रणाश : निर्लज्ज हो जाना और गुरुजनों से भी न डरना।

उन्माद : पागलपन।

मूर्च्छा : बेहोशी।

मरण : मृत्यु।

भावपरीक्षा : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें नायिका के मनोभावों की परीक्षा से सिद्धि का उल्लेख है।

प्रवासचर्या : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें पति के परदेश चले जाने पर पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन है।

एकचारिणी : सद्गृहिणी।

क्षीरजलक : कामांध नायक-नायिका का प्रगाढ़ आलिंगन।

स्त्रीपुरुषशीलावस्थापन : ‘कामसूत्र’ का एक प्रकरण जिसमें स्त्री-पुरुष के शील-स्वभाव का अवस्थापन है।

सवर्णा : अपनी जाति की स्त्री।

निरनुबंध : लाभ की दृष्टि से किसी से भी समागम करना।

नीवीविस्रंसण : अधोवस्त्र की गांठ खोलना।

नखविलेखन : नखक्षत।

*

अन्य संदर्भ :

‘गोष्ठीसमवाय’ में क्रमश: प्रस्तुत कविता-शीर्षक, कविता-पंक्तियां और कविता शमशेर बहादुर सिंह की देन हैं।

‘स्त्रीपुरुषशीलावस्थापन’ में प्रस्तुत पंक्ति ‘मुझे चांद चाहिए’ सुरेंद्र वर्मा के एक बहुचर्चित उपन्यास का शीर्षक है। 

***

शाश्वत अराजकता और विचारधारा की नग्नता: अविनाश मिश्र

आभासी पटल (सोशल साइट्स) के बाहर ‘कुंठित मन’ की ‘निर्लज्ज अभिव्यक्तियाँ’ कितनी अमानवीय होती हैं, वह जानी-पहचानी है. अविनाश के पास ‘कूटनीति’ की भाषा नहीं है, जिसका सबसे सजग इस्तेमाल आभासी लोक-वृत्त के दायरे में किया जाता है. जिस दिन उसके पास यह आ जायेगी, वह ख़त्म हो जाएगा.  यह आभासी-व्यवहार और कुछ नहीं, बल्कि हाल-चाल, दुआ-सलाम की भाषा को पाने का ही करतब है. यह भाषा आदमी को दलाल, अवसरवादी, व्यवसायी बना सकती है लेकिन रचनाकार नहीं. यह ‘सर्वधर्म-समभाव’ की सबसे उपजाऊ जमीन है. जहाँ भाषा गूगल-ट्रांसलेट हो जाती है.

अविनाश मिश्र इस समय का रचनात्मक, खतरनाक और ‘आत्मघाती’ स्फुटन है. तमाम आपत्तियों और बदनामियों के बावजूद उसे पसंद किया जाता है. वह रेयर है. तिरछीस्पेल्लिंग पर अविनाश की  ‘नए शेखर की जीवनी’ की  पहली प्रस्तुति  आप पढ़ चुके हैं, यह दूसरी प्रस्तुति है.

स्नैपशॉट- टिम्बकटू (2014)

स्नैपशॉट- टिम्बकटू (2014)

नए शेखर की जीवनी

By अविनाश मिश्र

बहुत बार वह कहानियां सुनाने लगता है बहुत बार कविताएं बहुत बार बहुत तकलीफ होती है बहुत बार वह बहुत चुप रहता है बहुत बार बहुत तस्वीर-सा लगता है बहुत सीधी बहुत सरल एक बात बहुत सीधे बहुत सरल ढंग से नहीं कह पाता बहुत बार बहुत ढंग से उलझाने लगता है

नए शेखर के जीवन में नए रहस्य हैं और यह रहस्यों का दुर्भाग्य है कि वे शेखर के जीवन में हैं।

*

भय शेखर को नहीं सताता है। भय उसमें आबाद है। भय को हत्याएं पसंद हैं। लेकिन शेखर ने भय को पालतू बना लिया है। इससे शेखर ने एक ऐसी सजगता अर्जित की है जिसमें हत्या की आशंका प्रत्येक क्षण सक्रिय रहती है। फिलहाल भय शेखर के काबू में है। शेखर उसे शाकाहारी बना रहा है।

*

बी.ए. के बाद शेखर ने एम.ए. नहीं किया। इसलिए वह उसके साथ कैसे होता जो एम.ए. के बाद होता है। बड़े राजनीतिक बदलाव हुए समाज में, लेकिन उसने खुद को खबरों से दूर रखा। घुस गया अजायबघरों में और देखता रहा जंग लगी हुईं तलवारें। पुस्तकालयों से वह वैसे ही गुजरा जैसे वेश्यालयों से— एकदम बेदाग। उसने कुछ भी जानना नहीं चाहा। उसने कुछ भी बदलना नहीं चाहा। उसने नहीं किया मतदान। नहीं बनवाया आधार-कार्ड। स्मार्ट-फोन तक नहीं खरीदा उसने। किसी आग्रह की विषय-वस्तु में वह नहीं उलझा। जब तक प्यार ने उसे नहीं छोड़ा, तब तक उसने भी प्यार को नहीं छोड़ा। यूं साथ और सफर तवील हुआ। लेकिन बहुत कुछ आखिर नहीं हुआ, जैसे बी.ए. के बाद एम.ए. नहीं हुआ।

*

अराजकता को अंतत: शाश्वत होना था और ‘विचारधारा’ को नग्न और निर्मूल्य। इस दृश्य में वहां जाना था, जहां रंगों को किसी ध्वज में इस्तेमाल न किया जा सके।

लेकिन वह वहां से आया था जहां एक पार्क में खाकी रंग की नेकर और आधी बाजू की सफेद कमीज पहनकर गोल-गोल भागते हुए उसकी देह स्वेद से भीग जाती थी।

उन दिनों खेलों में इतना दुर्निवार आकर्षण था कि उनके लिए भविष्य तक ले जाने वाली कक्षाएं तक भंग की जा सकती थीं। पुस्तकें परीक्षाओं से कुछ क्षण पूर्व खोली जाती थीं। उनके पृष्ठों के आपसी सौहार्द को बहुत मृदुलता के साथ चाकू, ब्लेड या फुटे से अलग करना होता था।

चाकू, ब्लेड या फुटा दैनिक प्रयोग की वस्तुएं थीं। रस्सी, सीढ़ी, कुदाल, फावड़ा, कुल्हाड़ी, करनी, बल्लम, बसूला… दैनिक प्रयोग की वस्तुएं थीं। नाव, नदियों का पानी, धर्मस्थलों की सीढ़ियां और मशाल दैनिक प्रयोग की वस्तुएं थीं। जहालत और मुशायरे, फतवे और वुजू, फटी हुईं टोपियां, छोटे पायजामे, काले बुर्के, मोहम्मद रफी के नगमे और तंग, अंधेरी, बदबूदार गलियां, खत और खुदा हाफिज… दैनिक प्रयोग की वस्तुएं थीं।

इस सबके समानांतर विध्वंस था जहां घृणा के नैरंतर्य में रूपक भ्रष्ट हो गए थे और आग बराबर फैलती जा रही थी। वह आग को मनुष्यता के लिए अनिवार्य समझता था, लेकिन आग ने सारा सद्भाव और उसकी सारी संभावनाएं नष्ट कर दी थीं। मंगलेश डबराल की कविता में दर्ज एक बयान के मुताबिक :

पहले भी शायद मैं थोड़ा-थोड़ा मरता था

बचपन से ही धीरे-धीरे जीता और मरता था

जीवित रहने की अंतहीन खोज ही था जीवन

जब मुझे जलाकर पूरा मार दिया गया

तब तक मुझे आग के ऐसे इस्तेमाल के बारे में पता नहीं था

मैं रंगता था कपड़े ताने-बाने रेशे

टूटी-फूटी चीजों की मरम्मत करता था

गढ़ता था लकड़ी के हिंडोले और गरबा के रंगीन डांडिये

अल्युमिनियम के तारों से बच्चों के लिए छोटी-छोटी साइकिलें बनाता

इसके बदले में मुझे मिल जाती थी एक जोड़ी चप्पल एक तहमद

अपनी गरीबी में दिन भर उसे पहनता रात को ओढ़ लेता

आधा अपनी औरत को देता हुआ

 

मेरी औरत मुझसे पहले ही जला दी गई

वह मुझे बचाने के लिए मेरे आगे खड़ी हो गई थी

और मेरे बच्चों को मारा जाना तो पता ही नहीं चला

वे इतने छोटे थे उनकी कोई चीख भी सुनाई नहीं दी

मेरे हाथों में जो हुनर था पता नहीं उसका क्या हुआ

मेरे हाथों का ही पता नहीं क्या हुआ

वे अब सिर्फ जले हुए ढांचे हैं एक जली हुई देह पर चिपके हुए

उनमें जो हरकत थी वही थी उनकी कला

और मुझे इस तरह मारा गया

जैसे एक साथ बहुत से दूसरे लोग मारे जा रहे हों

मेरे जीवित होने का कोई बड़ा मकसद नहीं था

लेकिन मुझे इस तरह मारा गया

जैसे मुझे मारना कोई बड़ा मकसद हो

…जारी विध्वंस और नरसंहारों के एक अंतराल में वह उस पार्क में है जहां खाकी रंग की नेकर और आधी बाजू की सफेद कमीज पहनकर गोल-गोल भागते हुए उसकी देह स्वेद से भीग जाती थी। शुरुआत को एक अंतराल से देखकर विकास जांचा का सकता है।

वह इस पार्क से बाहर जाना चाहता है। यहां जन्मीं सारी कल्पनाओं, यहां देखे गए सारे स्वप्नों, यहां आए सारे विचारों से बाहर जाना चाहता है। इसके सारे रंगों और सारे रूपकों से बाहर जाना चाहता है। इस पार्क में ही खड़े होकर किसी पद के लिए किसी उम्मीदवार को चुनने की बजाए वह अपनी व्यस्कता का दैनिक प्रयोग डूबते हुए केसरिया सूरज को देखने में करना चाहता है…।

‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ का कॉडर कैसा होता है, यह शेखर जानता है।

शेखर के मत के बगैर भी चुनी जाती हैं सरकारें पूर्ण बहुमत से, यह शेखर जानता है।

*

शेखर के पास बड़े वाक्य नहीं हैं। बड़े वाक्यों से दुर्घटनाएं होती हैं। छोटे मुंह से निकले बड़े वाक्यों की असावधानी पकड़ में आ जाती है। जीवन बड़े वाक्यों से नहीं चलता। कभी-कभी वह बगैर वाक्यों के भी बहुत बेहतर ढंग से चलता है और कभी-कभी केवल प्रतीकों से ही बन जाते हैं रास्ते, जिन पर बगैर हांफे भर उम्र दौड़ता रहता है जीवन…।

‘‘शेखर जून की गर्मी में प्यासा भटक रहा है।’’

‘‘वह घर जाकर पानी पीना चाहता है।’’

‘‘बाद इसके पंखे की हवा में सुखाना चाहता है पसीना।’’

जीवन में ऐसे ही छोटे वाक्यों से राहत मिलती है। जैसे :

—‘‘मुझे पांच हजार रुपए की जरूरत है।’’

—‘‘मेरे पास नहीं हैं भाई।’’

—:-(

—‘‘लेकिन मैं कुछ इंतजाम करता हूं।’’

इस सच्चाई को ऐसे कहने से क्या फायदा :

‘‘जून की एक तपती दुपहरी में जब महानगर अपनी बैचेनियों से चिपचिपा रहा है और इस प्रतीक्षा में है कि धूप का रंग दिन पर से उतर जाए और सांझ कुछ अपने विवेक से काम ले वह उस घर में पहुंचकर जहां वह वर्षों से एकांतवास करता आ रहा है सुराही से उस पानी को पीना चाहता है जो वह सुबह भरकर गया था और जो अब तक इस तपिश में सूखने से बचा रहा आया वह पानी पीने के बाद और पंखा खोलने और उसकी हवा में अपना पसीना सुखाने से पहले समाचार सुनना चाहता है लेकिन अचानक उसे इलहाम होता है कि वह समाचार सुनते हुए भी पसीना सुखा सकता है और यह भी इलहाम ही है कि इतनी गर्मी में समाचार से सुनने से क्या होगा काश इस पंखे में तीन की जगह चार पर होते या चार हजार तो वह सारा पसीना अब तक सूख गया होता जिससे जल्द ही कोई निजात नहीं…’’

बड़े वाक्यों से केवल निराशा मिलती है। जैसे :

—‘‘मुझे बहुत जरूरत है भाई अगर आप मुझे पांच हजार रुपए उधार दे दें जो कि मुझे जैसे ही कहीं और से उधार मिलता है मैं बगैर देर किए आपको लौटा दूंगा क्योंकि मैं सदा आपका अभिन्न और विश्वसनीय बना रहना चाहता हूं ताकि जब भी मुझे कोई उलझन आ पड़े जो पांच हजार रुपए से ही सुलझेगी तो आप मुझे उधार दे सकें…’’

—”देखिए मैं आपको मना नहीं करता और दे देता आप मेरे बहुत अभिन्न और विश्वसनीय हैं लेकिन इस वक्त तो इतनी गर्मी पड़ रही है आप देख ही रहे हैं कि सारा व्यापार चौपट है क्या आप समाचार नहीं सुनते…’’

शेखर समाचार नहीं सुनता। शेखर के पास समाचार नहीं हैं। जीवन समाचारों से नहीं चलता। समाचारों से केवल दुर्घटनाएं चलती हैं। जीवन छोटे-छोटे वाक्यों से चलता है। जैसे :

‘‘शांत हो जाइए।’’

‘‘कहीं कुछ नहीं हुआ है।’’

‘‘यह एक अफवाह है।’’

‘‘यह शेखर ने फैलाई है।’’

शेखर पागल थोड़ा नहीं है, अर्थात् बहुत है।

*

संप्रभुओं के जघन्य अपराधों से भरे हुए ये वे क्षण हैं, जब भाषाएं संक्रमित हो रही हैं और क्षेत्रीयता क्षेत्र के बाहर भी इस कदर उपलब्ध है कि उसे देखकर उबकाई आती है। बोलियां रफ्ता-रफ्ता नष्ट हो रही हैं या अधिग्रहित, उन्हें बोलने वाले उन्हें बचा नहीं पा रहे हैं। ‘बचाना’ अतीत की एक क्रिया है और अतीत आराम चाहता है।

शेखर अब जो भी बोलता उसे उसका मूल्य चुकाना पड़ता है।

*

शेखर समाज को देखता है, उसे बदलता नहीं।

जो समाज को बदल रहे हैं, वे देख नहीं रहे हैं समाज को।

*

बहुत कम वक्त में शेखर ने बहुत महत्वपूर्ण कार्य किए। इनमें दो बार आत्महत्या की कोशिशों को भी गिना जाए। ये कोशिशें अगर कामयाब होतीं तो वक्त कुछ इस तरह का था कि इस कामयाबी का औचित्य सिद्ध किया जा सकता था।

प्रतिभावानों की नहीं, आज्ञाकारियों की जरूरत थी। इस दृश्य में वह इस कदर चुपचाप इस वक्त से गुजर जाना चाहता था कि किसी को कोई तकलीफ न हो। वह अधिक जानता था और अधिक जानकारी के लिए उसने कहीं संपर्क नहीं किया।

सारे रास्ते अगर योग्यताओं को ही मिल जाते तो मूर्खताएं कहां जातीं?

*

शेखर अकेलेपन के बारे में जो जानता है, वह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है वह जो वह सामूहिकता के बारे में जानता है। जो सीढ़ियां वह वर्षों से चढ़ता-उतरता आया, उनके बारे में बताने को कुछ भी नहीं है उसके पास। वे सारे रास्ते काबिले-जिक्र हैं जो उससे छूट गए।

अधूरे बिंब ही फैले हुए हैं जीवन के गद्य में… कैसी सुंदर आयु होती अगर शब्दों की जरूरत न होती।

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बेरोजगारी में स्त्रियां और नौकरी में क्रांति : अविनाश मिश्र

आभासी पटल (सोशल साइट्स) के बाहर ‘कुंठित मन’ की ‘निर्लज्ज अभिव्यक्तियाँ’ कितनी अमानवीय होती हैं, वह जानी-पहचानी है. अविनाश के पास ‘कूटनीति’ की भाषा नहीं है, जिसका सबसे सजग इस्तेमाल आभासी लोक-वृत्त के दायरे में किया जाता है. जिस दिन उसके पास यह आ जायेगी, वह ख़त्म हो जाएगा.  यह आभासी-व्यवहार और कुछ नहीं, बल्कि हाल-चाल, दुआ-सलाम की भाषा को पाने का ही करतब है. यह भाषा आदमी को दलाल, अवसरवादी, व्यवसायी बना सकती है लेकिन रचनाकार नहीं. यह ‘सर्वधर्म-समभाव’ की सबसे उपजाऊ जमीन है. जहाँ भाषा गूगल-ट्रांसलेट हो जाती है.

अविनाश मिश्र इस समय का सबसे रचनात्मक, खतरनाक और ‘आत्मघाती’ स्फुटन है. तमाम आपत्तियों और बदनामियों के बावजूद उसे पसंद किया जाता है. वह रेयर है. तिरछीस्पेल्लिंग पर अविनाश की यह पहली प्रस्तुति है.

A screen shot from Un Chien Andalou

A screen shot from Un Chien Andalou

नए शेखर की जीवनी

By अविनाश मिश्र

…कई कविताओं की राख से एक जीवन पैदा हुआ। जीवित रहने के लिए कविताएं जलानी पड़ती हैं। जीवन सारी योजनाओं के केंद्र में नजर आता है और कविताएं सारी योजनाओं से बाहर। जीवन को बनाया जाता है और कविताएं खुद बन जाती हैं। खुद बनना संसार में सम्मान का सबब है। लेकिन खुद बनना सारी योजनाओं से बाहर होना है।

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एक अर्से से शेखर के अतीत में किसी ने रुचि नहीं ली। सब उसके भविष्य की योजनाएं जानना चाहते हैं। …और उसका वर्तमान, वह कुछ ऐसा है, जैसे आंखें बहुत वक्त तक अंधेरे में रहने के बाद जल्द ही उजाले की अभ्यस्त नहीं हो पातीं। नाजिम हिकमत की जुबां में :

उसे नहीं मालूम क्या है उसके भविष्य के भीतर

वह तो मैं ही जानता हूं उसका भविष्य

क्योंकि मैंने जिएं हैं वे सभी विश्वास जिन्हें जिएगा वह

मैं उन शहरों में रह चुका हूं जहां रहेगा वह

मैं उन औरतों से कर चुका हूं प्रेम जिनसे करेगा वह

मैं सो चुका हूं उन जेलों में जहां सोएगा वह

मैं झेल चुका हूं उसकी तमाम बीमारियां

उसकी तमाम नींदें सो चुका हूं

देख चुका हूं उसके तमाम स्वप्न

आखिरकार वह खो देगा वह सब कुछ

जो मैंने खोया है जीवन भर

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‘भावनात्मक भूलें भविष्य को स्वर्णिम बनाएंगी’ यह यकीन शेखर के अद्यतन में अतीत हो गया है। भविष्य भावनाओं को रौंद देता है। गहरे आत्मान्वेषण के क्षण भी विदा होते हैं। अनियमितताएं नियमित हो जाती हैं। रातें अपनी कहलाती हैं, लेकिन उनका होना बेवक्त हो जाता है।

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शेखर ने सीखा है कि प्रेम के तनाव अंतत: सुखद होते हैं। प्रेम में ‘नहीं’ से सही और कोई शब्द नहीं। जब कोई पूछे, ‘‘प्रेम करते हो या नहीं?’’ तब ‘नहीं’ से सही और कोई शब्द नहीं।

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हे प्रभु !

बिल्लियों को आवारगी दो

और शेखर को वे रास्ते जो वे काट देती हैं।

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जल कभी लौटता नहीं और यही उसके अस्तित्व का वैभव है।

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नदी का सुख जल नहीं यात्रा है।

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शेखर ‘कहीं नहीं’ गया। ‘कहीं नहीं’ जाना सही से जाना है। कई बार ‘कहीं नहीं’ जाना भर पर्याप्त होता है, मूर्खों के प्रति अपनी असीम घृणा अभिव्यक्त करने के लिए।

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शेखर ने प्रेम के बहाने किए और रुका वहां, जहां रुकना चाहता था। अपने पैदल साथियों को छोड़कर वह कभी कार की तरफ नहीं लपका। रेलगाड़ियां उसे ले जाना चाहती थीं न जाने कहां, लेकिन उसने नफरत के रास्ते नहीं चुने। प्रेम के बहाने किए और रुका वहां, जहां रुकना चाहता था। शेखर पागल थोड़ा नहीं है, अर्थात् बहुत है।

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शेखर 18 दिन से एक ही जींस पहन रहा है और तीन साल से एक ही चप्पल। घर में पत्नी उससे खुश है और बाहर मोची। मकान-मालिक उससे संसार की तरह नाखुश है।

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शेखर जब 12वीं में पढ़ता था, तब उस लड़की के साथ भागा था जो आज उसकी पत्नी है। उसकी पत्नी को बड़ी झाड़ू चाहिए थी। उसने कहा, ‘‘शेखर, आस-पास और समाज में गंदगी बहुत है। मुझे एक बड़ी झाड़ू चाहिए।’’ उन दिनों वह अजय देवगन जैसा लगता था और अजय देवगन उसके जैसा— प्रेमी, आशिक, आवारा, पागल, मजनूं, दीवाना… ‘फूल और कांटे’ उसने 11 बार देखी थी। ‘फूल और कांटे’ टाइप फिल्मों के आशिक बहुत बदतमीज होते थे। वे लड़कियों को सरेआम जलील करते थे। लेकिन लड़कियां अंततः इन्हीं बदतमीजों से शादी करती थीं, क्योंकि ये बदतमीज खलनायकों से नहीं डरते थे। ऐसे आशिक बुराई पर बदतमीजी की जीत के उदाहरण थे और ऐसी लड़कियां बुराई पर झाड़ू की जीत की प्रतीक थीं।

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शेखर को श्रम अच्छा लगता है, स्वीकृति नहीं। तनख्वाह अच्छी लगती है, पुरस्कार नहीं। शेखर अपने अधिकारों से ज्यादा अपनी जिम्मेदारियों के बारे में सोचता है। वह रविवार से ज्यादा सोमवार के बारे में सोचता है। वह जानता है कि नौकरियां बदलने से दुनिया नहीं बदलती।

…जब शेखर बेरोजगार था तब एक दोस्त ने उससे कहा कि जब नौकरी करोगे तो सारी क्रांति हवा हो जाएगी। दोस्तों की दुनिया में क्रांति नहीं थी। क्रांति केवल स्त्रियों की दुनिया में थी। स्त्रियां दोस्त नहीं थीं। दोस्त क्रांतिहीन और नौकरीशुदा थे। वे एकांत में कभी-कभी क्रांति करने की कोशिश करते थे, लेकिन इसके लिए उन्हें स्त्रियों की जरूरत पड़ती थी। कहने का आशय यह कि बेरोजगारी और स्त्रियों के बगैर क्रांति संभव नहीं थी। लेकिन बेरोजगारी में स्त्रियां और नौकरी में क्रांति संभव नहीं थी।

शेखर को नौकरी अच्छी लगती है, नौकरशाह नहीं। शेखर पागल थोड़ा नहीं है, अर्थात् बहुत है।

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महत्वाकांक्षा अच्छी चीज है, लेकिन शेखर में नहीं है— उन सारी चीजों की तरह जो अच्छी समझी जाती हैं, लेकिन शेखर में नहीं हैं। वह होश संभालते ही हिसाब में कमजोर हो गया। अब सारा संसार उसे उलझाता रहता है। उसे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं…।

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शेखर अब ज्यादा पी नहीं पाता। ऊब जाता है।

वह इससे व्याकुल नहीं है, व्याकुल है इससे कि यह तथ्य अब गोपनीय नहीं है।

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शेखर जब भी एक उल्लेखनीय शास्त्रीयता अर्जित कर संप्रेषण की संरचना में लौटा है, उसने अनुभव किया है कि सामान्यताएं जो कर नहीं पातीं उन्हें अपवाद मान लेती हैं और जो उनके वश में होता है उसे नियम…। वह मानता है कि प्रयोग अगर स्वीकृति पा लेते हैं, तब बहुत जल्द रूढ़ हो जाते हैं। इससे जीवन-संगीत अपने सतही सुर पर लौट आता है। इसलिए वह ऐसे प्रयोगों से बचता है जो समझ में आ जाएं।

शेखर बहुत-सी भाषाएं केवल समझता है, बोल नहीं पाता। शेखर पागल थोड़ा नहीं है, अर्थात् बहुत है।

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मुश्किल में फंसे लोगों को शेखर कभी अपना उदाहरण नहीं देता। दूसरे उसका उदाहरण देते हैं, लेकिन वह खुद नहीं देता। वह बीमारों को दवा देता है, उनसे यह नहीं कहता कि मैं भी कभी बीमार था और कोई नहीं था मेरे सिरहाने। बाद में ये बीमार दूसरे बीमारों को शेखर का उदाहरण देते हैं, लेकिन वह खुद नहीं देता। वह बीमारों को दवा देता है, उदाहरण नहीं।

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सारी घड़ियों में कोई शेखर का पीछा करता है। घर से निकलता है वह तो पड़ोस से भी निकलता है एक आदमी और कुछ दूर तक पीछे आ अदृश्य हो जाता है। एक लड़की साथ पकड़ती है बस और भर सफर साथ रहती है। वह जाना चाहती है उससे आगे, वह जाती है उससे आगे— उसकी शुभकामनाओं के बगैर भी। …आदेश, योजनाएं, कार्रवाइयां, धमकियां और बीमारियां पीछा करती हैं। खबरें पीछा करती हैं। स्वार्थ पीछा करते हैं। कुंठाएं, आशंकाएं, समीक्षाएं, कलाएं और स्मृतियां पीछा करती हैं। जहां भी जाता है कोई न कोई, कुछ न कुछ पीछा करता है— नींद में भी भागता है, जागता है पसीने से तर-ब-तर, एक दु:स्वप्न पीछा करता है।

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शेखर मानता है कि ईश्वर को न मानना एक अवगुण है। उसे उन सारे विचारों से घृणा है जो उससे उसका ईश्वर छीनते हैं। उसका ईश्वर दर्शक-दीर्घा में हंसता हुआ एक त्रासद व्यक्तित्व और एक प्रतिभावान निर्देशक है। इस निर्देशन में शेखर जो कर चुका है, वह एक असफल फिल्म है। जहां ठहरा हुआ है, वह एक प्रदीर्घ मध्यांतर है। जहां जाना चाहता है, वह एक तनावपूर्ण कलाइमेक्स है।

शेखर के हाथों में चीजें कम हैं, पैरों में ज्यादा।

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[ इस कथ्य के शीर्षक के लिए अज्ञेय के दो खंडों में प्रकाशित उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ और नाजिम हिकमत की कविता-पंक्तियों के अनुवाद के लिए लेखक वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल का कृतज्ञ है ]

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