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अब्बा (बांग्ला कहानी): नवारुण भट्टाचार्य, अनुवाद- मिता दास

नवारुण की इस कहानी को पढ़ते हुए स्पैनिश के महान साहित्यकार रोबर्टो बोलानो का एक कथन याद आता है.  किसी दोस्त ने उनके एक अप्रकाशित उपन्यास के बारे में पूछा – उसमें बच्चा मरता है कि नहीं! बोलानो का उत्तर था -किसी भी लेखक को अपनी किताब में बच्चों की हत्या नहीं करनी चाहिए. नवारुण की बेवाकी, गद्य के साथ बर्ताव, हाशिए की जिन्दगी से जो लगाव है, और यह सब जब एक सहजता के अनौपचारिक शिल्प में ढलता है तो रोबर्टो बोलानो का याद आना लाजिमी हो जाता है. खैर, पढ़िए यह कहानी.

By Banksy

By Banksy

By नवारुण भट्टाचार्य

जिन लोगों ने दंगा किया उनमें सदाशिव भी शामिल था यह कहना ठीक नहीं होगा, और नहीं था यह भी कैसे कह सकते हैं। ऑफिस के लोग, उनकी बीवियां भी, तो गाड़ी में चढ़कर दुकान लूटने गए थे। क्या पुलिस ने दंगा नहीं करवाया? और वहीं हो गया झमेला। किसने किया और किसने नहीं किया उनको ढूंढना-छांटना बड़ा ही दुश्कर हो उठा था। पर हां, दंगेबाजों में सदाशिव को पकड़ लिए जाने पर भी यह मानना ही पड़ेगा कि वह ऐवेंइ (यूं ही) है।

 कुछ माह पहले अन्य पड़ोसियों की देखा-देखी वह भी कहीं से एक त्रिशूल उठा लाया था घर, तब सदाशिव की मां ने कहा, क्या करेगा इसे लेकर? झगड़ा-झंझट होगा तो सभी लोग दल के संग मिलकर चूहा मारने जाएंगे। तो तू क्या करेगा? मैं भी जाऊंगा। सदाशिव की मां तब और भी कई बातें करना चाहती थी, बात जबान पर आ चुकी थी पर सदाशिव ने कितनी देशी पी रखी थी वह समझ ही नहीं पाई इस वजह से उसने बात आगे ही नहीं बढ़ाई।

सदाशिव की एक टांग जरा पतली और थोड़ी टेढ़ी थी। वैसे वह बहुत दुबला और ठिगना भी था। जैसा भी हो, उस शाम को रोटी और पानी पी कर सदाशिव सो गया था तब उसकी मां ने त्रिशूल को हिलाडुला कर देखा, तो देखती क्या है कि यह तो बिलकुल ही फालतू माल है। सोते हुए सदाशिव की जेब से मां ने एक सिगरेट का पैकेट निकला जिसमें कुछ कटोरियों के अलावा अधजली बीड़ी और दो साबुत बीड़ी मिली। एक बीड़ी सुलगा ली थी सदाशिव की मां ने।

सोने और न सोने के बीच सदाशिव की मां को दूर से एक आवाज लय में सुनाई देती। कहीं तो… इस घनी रात में मीटिंग हो रही है। चिल्ला-चिल्लाकर कोई तो भाषण दे रहा है। इतनी रात में भी भला कोई मीटिंग करता है? सुनने वाला कोई रहता है क्या भला? असल में वह कोई मीटिंग थी ही नहीं। चौरस्ते के मोड़ पर एक सफेद एम्बेसेडर कार खड़ी थी और उसके पिछले दरवाजे को खोल दो माइक के चोंगे बाहर निकल आए थे, और भाषण बज रहा था एक कैसेट में। और जो लोग इसे बजा रहे थे वे लोग नीची आवाज में आपस में बातें कर रहे थे और साथ-साथ पान मसाला खा रहे थे। उनमें से एक ने सफारी सूट पहना था बाकी के तीनों ने पजामा-कुरता पहन रखा था।

ड्राइवर फुटपाथ पर बैठा ऊंघ रहा था, इससे पहले भी उन्होंने तीन और मुहल्लों में गाड़ी रोककर भाषण बजाया था। सभी जगह आधे-आधे घंटे तक यही कैसेट बज रहा था। अभी और भी दो मुहल्लों में उसे यही भाषण आधे-आधे घंटे और बजाना है। कैसेट को एक स्टूडियो में तैयार किया गया था, एक दम पेशेवरों के कायदे सरीखा। कहीं-कहीं आवेग की खातिर वाद्य यंत्र भी बज उठता, कहीं-कहीं आर्तनाद और कभी-कभी विद्रूप का स्वर तीव्र हो उठता हंसी का एक शोर भी। जब यह भाषण चल रहा था एक पुलिस वैन चक्कर मार कर चली गई। सफारी सूट पहने व्यक्ति ने उस वक्त आकाश की तरफ मुंह उठाकर एक पान मसाले का पूरा पैकेट निगल लिया।

सदाशिव ने सोचा था शराब से काफी नशा चढ़ेगा, घर पर ही बैठकर आधी बोतल गटक गया था। सिर्फ पचास ही रुपए मां को पकड़ाए थे और बाकी के ढाई सौ अपने पास रख लिए थे। इनसे काफी दिन उसका काम चल ही जाएगा। इस बीच शंकर, कांजी, भाजो सभी दल-सा बना कर आए और सदाशिव को खींचकर बाहर निकाला। दल बनाकर सभी ट्रक पर चढ़ कर गए, डाई किया हुआ गैस सिलिंडर लेकर। उनके संग थी तलवार, रॉड, छुरी, सींक, एसिड और पेट्रोल बम। सदाशिव ने कमरे के कोने में टिकाया हुआ त्रिशूल उठा लिया। गंदे पजामे की डोर (नाड़ा) कसकर बांध ली और फिर उसे मोड़कर ऊपर उठा लिया एवं इस बीच सदाशिव कोई बात नहीं करता है बस सिर्फ धुनकी में अनर्थक चीत्कार कर उठता था।

यह मिजाज मगर काफी संक्रामक था। और भी अनेक जिनके बदन उसके जैसे ही पतले दुबले, उठाईगिरे की तरह जो किसी भी तरफ के नहीं होते बस चीख उठते हैं अकारण ही। सदाशिव जैसे सभी उस वक्त एक-एक जोश-मशीन थे। आंनदी मुखड़े वाला यह गैंग कुछ दूर जा दाएं ही मोड़ पर ठिठक गया था। मैला टी-शर्ट और बदरंग-सा ट्रैक सूट जिसे उलटकर पहने हुआ था। चेहरा सिनेमा के फटे पोस्टर के टुकड़े से ढंका हुआ और उस पर रख दी गई थी एक पूरी ईंट। इसलिए कि अगर जोर की हवा चले भी तो पोस्टर उड़कर उसके कुचले चेहरे को बेनकाब न कर दे। भाजो ने मृत देह की पेंट के जेब में हाथ डाल कर एक रुमाल जैसा ही कोई कपड़े का टुकड़ा निकाल कर फेंक दिया।

कुछ देर चुप रहने के बाद फिर वे चलने लगे, लंगड़ा होने के कारन सदाशिव पिछड़ रहा था, सामने से एक ट्रक आया। ड्राइवर की सीट की ऊपरी छत में जो लोग सर ऊंचा किए बैठे थे उनके हाथों में तलवार, बरछा लिए उन्मत्त नाचते और बदला लेने के स्लोगन सुर मिलकर गा रहे थे। ट्रक के भीतर अलमारी, रैक, सुलाकर रखा गया रेफ्रिजरेटर, टीवी, सूटकेस बर्तन-भांडे, परदे, स्कूटर, आईना, राॅड आइरन से बनी चेयर रखी थी। ट्रक को आते देख सदाशिव और अन्य लोग रास्ते के दोनों किनारे होकर उसके लिए जगह बना देते हैं। ट्रक गति बढ़ा देता है। सदाशिव का दल एक बार फिर जोर से जय जयकार कर उठा, और दौड़ने भी लगा। सदाशिव नहीं दौड़ता, इसलिए पीछे रह जाता। तब वह त्रिशूल अपनी लाठी बना लेता है। रास्ते में ढंग-ढंग की आवाजें आनी शुरू हो जाती हैं।

सदाशिव उनके पीछे-पीछे जब रीगल के गेट पर पहुंचा तो देखता है कि वे लोग बाहर ही खड़े हैं जिन्होंने आग लगाई थी, जिन्होंने खून किया था और बलात्कार भी उन्होंने ही किया था पर अब उन लुटेरे लोगों को घुसने ही नहीं दिया जा रहा है और बाउंड्री वाल के भीतर दो फ्लैट जल रहे हैं धू-धूकर। आग के लपटों के बीच टूटने-फूटने की आवाज, दरवाजों का टूटना। खिड़कियों का पल्ला खुलकर ग्रिल से अलग हो गया। सदाशिव कुछ देर खड़े रहकर देखता रहा आग का तांडव और धुएं का गोल-गोल हो ऊपर को उठना। अंदर एक गाड़ी में आग भी लगी हुई थी। इस अपार्टमेंट में वह एक बार ही आया था। पीछे की ओर थोड़ी-सी खुली जमीन है वहीं के झाड़-जंगल काटने का काम मिला था भाग्येश को और वह उसी के संग यहां आया था। पीछे एक गेट भी था, वहीं काम करने वालों के लिए एस्बेस्टस लगी छत वाले लगे-लगे तीन कमरे थे। लगता है वहां उतनी लूटपाट नहीं मची, पीछे के गेट से वहां जाने पर शायद कुछ मिल ही जाए?

भूल की थी सदाशिव ने, इधर मांस जलने की बू आ रही थी, तोड़-फोड़ भी हुई थी। पुराने टायर को जलाकर मृत देह में आग लगाई गई थी, चप्पल उलटी पड़ी थी। गेट भी खुला था। शायद कुछ लोग इस ओर से भाग खड़े हुए थे। भीतर आग जल रही थी और अधजला कैलेंडर भी दिख रहा था। दरवाजे से चेहरा घुसाकर देखा था सदाशिव ने, गरम लावे जैसा था भीतर। दरवाजा टूटकर गिर गया था और उसके नीचे से एक हाथ बाहर की ओर निकल आया था। भीतर घुस कर अगर कुछ हिलाया-डुलाया जाए तो शायद कुछ मिल भी सकता है पर साहस नहीं कर पाया सदाशिव।

उसी वक्त भीतर से डरकर सांस लेने की या सांस रोकने की कोशिश करने की अस्वाभाविक आवाज से डरकर पीछे पलट कर सदाशिव ने देखा था। नहीं, कोई भी नहीं है। कुछ नहीं सिर्फ दूरी पर घर जलने की अजब-सी आवाज भर थी। शाम का उजाला रोज ही की तरह कम हो रहा था। अब लगता है कुछ और जलने को बाकी नहीं बचा था। किन्तु सदाशिव ने जो आवाज सुनी थी क्या वह गलत थी? थोड़ा डर भी लग रहा था सदाशिव को। तभी सदाशिव त्रिशूल हाथ में लिए बोल उठा था- कौन?

कोई जवाब नहीं मिला।

…कोई है? इसका भी जवाब नहीं आता। शरीर थर-थर कांपने लगा सदाशिव का। त्रिशूल को वह अच्छी तरह से जकड़ लिया। सदाशिव एक बारगी सोच बैठा कि उसने वो आवाज गलत सुनी थी। किन्तु क्या वह गलत था! दरवाजे के नीचे से जो एक हाथ बाहर निकला दिखाई दे रहा था क्या वह जीवित है? कराह रहा है? पर दरवाजे को हटाना उसके बस की बात नहीं।

सावधान! मेरे हाथ में किन्तु त्रिशूल है, छेद डालूंगा!

इस पर भी कोई आवाज वापस नहीं आई। दिन के वक्त का उजाला खत्म होने को था और सदाशिव ने महसूस किया कि सब कुछ कैसे जीवंत हो उठा। अंधकार घिरने से पहले सब कुछ कैसे हिल-डुलकर स्पष्ट हो उठता है। कुछ ही दूरी पर जमीन के ही ऊंचाई का एक चहबच्चा (जमा पानी) था। सदाशिव ने त्रिशूल को बरछे की तरह ऊंचा उठा लिया और चहबच्चे की ओर बढ़ा, सिर्फ काई का ही दाग दिखा, पानी नहीं के बराबर। उसके अंदर एक कोने से पीठ टिकाए, कच्छा पहने हुए एक छोटा-सा लड़का, सर मुंडा हुआ और सर पर फोड़ा, बच्चा सदाशिव को देख कर उठ खड़ा हुआ। सदाशिव त्रिशूल को ऊंचाकर खड़ा हो गया जैसे वह त्रिशूल घोंप देगा अभी, बच्चा चुपचाप-सा खड़ा था।

सदाशिव को देख उसका मुंह खुला का खुला रह गया। एक लम्हे के गुजर जाने के बाद सदाशिव का खुद ब खुद त्रिशूल वाला हाथ नीचे हो गया। उजाला भी अब सिमट चुका था। वह समझ चुका था की सदाशिव उसे नहीं मारेगा। और अगर मारेगा भी तो इस वक्त तो बिलकुल भी नहीं। वह वापस बैठ गया, कच्छा फिर भीगने लगा। सदाशिव भी समझ गया कि वह अब बच्चे को नहीं मार पाएगा। नशा कब का हिरन हो चुका था। अबकी सदाशिव त्रिशूल रखकर पसर गया था। सदाशिव ने एक बीड़ी सुलगा ली। उसने सोच लिया की वह बीड़ी पीकर उठेगा और चला जाएगा। अगर बच्चे को नहीं मार पाया तो कम से कम चहबच्चे के पानी में ज्वलंत बीड़ी का आखरी टुकड़ा फेंक ही सकता है।

 पर सदाशिव ने देखा कि जितनी देर वह बीड़ी के कश ले रहा था और उस बच्चे के बारे में सोच रहा था। वह बच्चा अब धीरे-धीरे उसके भीतर घर करने लगा था। जरूरत क्या है… उसके बारे में सोचने की? कितने ही तो रोज मर रहे हैं? और उधर देखो दरवाजे के नीचे से किस तरह एक हाथ बाहर निकल आया है। शायद कोई जल रहा हो, और वे जो भाग खड़े हुए हैं शायद उन्हें भी यहीं- कहीं आस पास के रास्तों में ही पकड़ लिया गया हो।

 फिर से झमेले में फंस गया सदाशिव, पर बच्चे को मृत लोगों की कतार में नहीं रख पा रहा था। अगर वह लंगड़ाते हुए बाहर निकल कर चला भी जाए तो कोई कुछ कहने वाला भी नहीं। किन्तु सदाशिव के चले जाने के बाद और भी अंधेरा बढ़ जाएगा और वह बच्चा भीगी ईंटों के बीच चहबच्चे में गीला ही बैठा रहेगा। कब तक…? क्या उठ कर बाहर आएगा…? पता नहीं कर पाया सदाशिव, पर उसने एक बात अच्छी तरह से जान ली थी कि जो लोग बाहर इंतजार कर रहे हैं- उन्हें यह बच्चा नहीं मिलेगा। दिन का उजाला खत्म हो जाएगा। चहबच्चे के भीतर अंधेरा, तसले में सड़ा हुआ पानी और भीतर कोने में सिमट कर सर में फोड़े वाला बच्चा…।

-ऐ! उठकर आ! अंधकार कोई जवाब नहीं देता।

मैं कुछ नहीं करूंगा। डर मत! उठकर आ।

अंधकार में पानी कुछ हिल उठता है।

हाथ को पकड़! पकड़ कर बाहर आ।

छोटे से हाथ ने सदाशिव के हाथ को थाम लिया। सदाशिव ने बच्चे को हाथ पकड़ कर बाहर निकल लिया। और फिर उसके गले को, हड्डियों को, धुकधुक करते हृदय को, छाती, कमर, पैर सब को हाथों से झाड़ कर देखने लगा। पहने हुए कच्छे से पानी टपक रहा था पैरों से होकर, हवा लगने से बच्चे को ठंड लग रही थी, वह कांप रहा था। सदाशिव को छोटे-छोटे दांतों की किटकिट सुनाई देती है। वह बच्चे को सीने से लगा लेता है। खुद के हाथों से उसके बदन को सहलाते हुए सेंकता है। बच्चा उसकी छाती में अंधकार में अंधकार बन बैठा रहता है। धुकपुक-धुकपुक करता रहता है दिल। बच्चा जोर-जोर से सांस लेता है और फिर सिमट जाता है। सदाशिव जोर से उसे जकड़ लेता है। छोटी-छोटी उंगलियां, छोटे-छोटे नाखून सदाशिव महसूस करता है। वह उसे नोंचता है और फिर थककर अलग हो जाता है।

 सदाशिव का बायां पैर पतला-सा है और लंगघता भी है। वह अपने दाएं कंधे पर बच्चे को लादकर बाएं हाथ में त्रिशूल पकड़े हुए अंधेरे में ही पीछे के गेट से बाहर आ जाता है। अब एक ट्रक उसे लगा कि गेट पर आया हुआ है। वहीं सब भीड़ बनाकर खड़े हैं। लगता है और भी माल लादा जाएगा या फिर लाश। गले रेते हुए औरतें या नोंचकर या बींधकर मारे हुए पुरुष। शायद उन्होंने सदाशिव को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। या फिर त्रिशूल ने ही उनकी नजर को बांध लिया था।

 घर में अंधेरा उतर आया था, पता नहीं कितना बजा होगा उस वक्त घर पर, आग बुझ चुकी थी। तभी बेसमेंट या किचन में या किसी कोने में प्रचंड आवाज के साथ विस्फोट हुआ और एक गैस सिलिण्डर फट गया। सब हड़बड़ा उठे, सदाशिव भी। बच्चा भी चैंक उठा। आग की झलक देख डर से ताक रहा था और चीखा सहमकर।बड़बड़ाया- अब्बा!

उन्होंने भी चीख सुनी थी।

साभार- समकालीन जनमत, दिसंबर, 2014 

My Baba Nabarun Bhattacharya: Tathagat Bhattacharya

By Tathagat Bhattacharya

It has not been possible for me to respond to your messages of solidarity (find it a better word than condolence) earlier. And it is mathematically impossible to send individual replies to you all, I am sorry for that. Your thoughts are much appreciated. My father stood for certain principles which do not quite sit with the way of today’s world. So, it is okay he does not have to endure it anymore. But possibly as long as Bangla lives and as long as the poor, the lumpens, the powerless rejects of the world exist, his works will be relevant.

We had launched ‘Bhashabandhan’, the literary monthly that later became a quarterly, in 2003 with a lot of dreams. That show will go on. It became nearly impossible for Baba to sustain it. He would not accept help from any form of establishment. He had an erect spine, which unfortunately is pretty much a rarity amongst Bengal’s intelligentsia these days. But any help you can extend to me in this regard in your individual capacity will be welcome. Please inbox me in case you want to be a part of the regermination process.

Nabarun Bhattacharya

Nabarun Bhattacharya

There are certain things which need to be clarified at this point. These would not be needed if strange rumours and claims were not doing the rounds.
1) My father never received any help, in whatever form, from any political party or dispensation. Neither he asked for any. So haven’t me and my family. He did not need any.
2) The only lasting impression on my father’s life has been that of my grandfather, Bijan Bhattacharya who was a father, mother and mentor for him. To understand my father and the spine he inherited, one should watch the film ‘Padatik’, specially that part towards the end of it, where my grandfather says, “Ami kintu kokhono kono compromise kori nai (I have never compromised).” That has been the story of my family. All other fleeting characters in his life, no matter famous or not, no matter related by blood or not, have been passing references like the stomach bugs that get you down for three days every fourth year.
3) My father remained a committed Marxist till his last breath. However, his view of a classless and just world went beyond the boundaries of human society. Many of you, who knew me personally in my younger days and would come home, would remember how our house resembled a veterinary rehabilitation centre with injured and healthy cats, dogs and birds jostling for space in our garden. Insects, birds, animals, trees, small shrubs, wild growths (agacha) also figured very prominently in his scheme of things.
4) My father also was a deeply spiritual man though he rejected rituals. He had faith. I know some of you may find this contradictory but you will begin to see the light if you expand the premise of Marxism again beyond its anthropocentric boundaries. You must travel, observe, read, feel life’s various nooks and corners. You must have a rare sensitivity, the ability to remain involved and detached at the same time and see non-violence as the only way to live a simple life. I know it’s difficult to believe that the creator of Marshal Bhodi, Major Ballabh Bakshi, the fyatarus would be such a person deep inside, but there are certain things only a son will know about his father. Baba studied Buddhism and Hinduism in their intrinsic depth and details. There was a special place where he would sit and meditate every day. He sits there even now, even after his physical form is gone.

For those of you who have not read me, I am a journalist and push the pen to make ends meet. One of the main reasons I use my nickname here is that me and my wife, also a journalist, have been at the receiving end of the ire and anger of nut-cases who do not agree with our political writings and commentaries. They have warped and intolerant views of religion, politics and society and I do not wish to engage with idiots.
Many of you have been asking me as to if I intend to write. My father, in the wee hours of the very day he was transferred to the Intensive Therapy Unit, told me, “Ebar tui lekh (Now you write).” Few of you, who know me well, know I have been meaning to write for quite some time now. But some of you will be aware that 2008 onwards, my life has been very topsy turvy and I have had to encounter a spate of job losses, company closures, trouble at workplace and serious financial hardship. Writing for pleasure or passion was a luxury I could not afford then. It’s unfortunate that just when I was getting a semblance of stability and the bearings started holding up, Baba was diagnosed with this fucker of a disease.

Me, my mother Pranati, my wife Nilanjana have tried every thing, every place and every stream of treatment within our limited means.
But now that he is gone, it is time for me to carry the family tradition forward. Hopefully soon.

The loss of my father is possibly as catastrophic for me and my small family as the bomb was for the City of Toys (Khelnanagar). But then, I get a feeling that he is there, quietly watching over us, uttering the choicest invectives in his inimitable way when we get out of line.

There is a lot to celebrate about my father. The recognition, the cult status and readership he achieved possibly ensure that his works will stay relevant even decades down the line. In this regard, I want to let you know that the New York-based New Directions are bringing out Harbart. A German edition is in the works. A reputed publishing house from India is bringing out another five of his books in English and they will go international. Baba’s writing was distinctly modern, incisive, international and urban. His scholarship was encyclopaedic. You could not fuck with him almost on every thing. The tilapia from the tank, it seems, is not content with reaching Gangasagar. It is threatening to cross the ocean now.
In his personal life, he had an amazing companion. My mother, nine years older than Baba, has held our family together. When Baba lost his day job after the collapse of the Soviet Union, it was her tremendous strength and support that made us stay afloat. As a couple, they may become benchmarks for love and loyalty, simplicity and sophistication.

His relationship with my wife and my son was electric. My wife, Nilanjana, says her biggest supporter in any home boxing bout with me is gone. Yes, she will miss those bitching sessions with him. By the way, the last song Baba heard the night before the ITU terror struck was ‘We Shall Overcome’. Nila sang.

My son, Chegu (Swayam) used to call him ‘Bappa’ as Baba insisted he was not an oldie and therefore did not qualify to be called grandpa (Dadu). He still calls the urn carrying Baba’s remains ‘Bappa’ and is very happy we are taking ‘Bappa’ home for good. No, we are not immersing him in the Ganga. He is going to stay right here at home with us.

As for me, the loss is of course personal and private. What Baba was to me and what our relationship was are matters best left unsaid. Before Nila sang to Baba, I played two of Baba’s favourite songs: Leonard Cohen’s ‘Waiting for the Miracle’ and Mukesh’s ‘Jeena Yahan Marna Yahan’. Baba could not speak much then. But he smiled a little, eyes closed as the following lines jumped out of my phone: “Kal khel mein hum ho na ho, Gardish mein taare rahenge sada/ Bhuloge tum bhulenge woh, par hum tumhare rahenge sada”
In his personal life, mother’s affection was the only thing that he missed. But Baba’s Baba Bijan Bhattacharya made up for Baba’s biological mother’s lack of empathy, love and motherliness.

As friends, colleagues, co-workers in the cultural movement, he had wonderful companions. One of them, friends with Baba for the last 63 years, was with him till the end. Members of the cultural wing of CPIML Liberation have been a great source of support and strength and were with us till the very end. Baba’s colleagues at Bhashabandhan were of course there too.
In our neighbourhood, where the crows and cats, dogs and people would often see him on his evening strolls, possibly contemplating his own death, Baba was laid down on a block of ice. A reader had texted Baba expressing concern about his health towards the end of May. He forwarded me Baba’s reply on August 1. Baba had written back: “Do not cry.I am in a state which the existentialists call a borderline situation.With dignity and courage I must face it. -Nabarun”

So while Baba enjoyed the sensation of cold in his bodily form for the last time, rickshaw pullers, bootleggers of country liquor, small shopkeepers, the sweepers, the gardeners, the unemployed, the fyatarus, jostled for space with ministers, parliamentarians, writers, actors, film makers, academics and activists. As the skies opened up with possibly all the 330 million gods taking part in a fataruesqe pissing contest, the small covered area saw Trinamul Congress leaders standing glued to CPI(M) big guns. It would have made such a good Fevicol ad actually. It was as apt a setting as it could be, the soft-cotton scent of the mud was wonderful unlike the overpowering smell of gunpowder at plastic state funerals.

As ‘The Internationale’ and ‘We Shall Overcome’ filled the air, the crowd started to move. Baba was a part of that procession too. A real man was on his last march.

This piece is by Nabarun Bhattacharya’s son. You may share and post this but please do not use commercially without asking the writer.

नबारून दा: ज्वालामुखी के दहाने खलबला रही चाय का आमंत्रण

प्रणय कृष्ण द्वारा शायद यह पहला प्रयास है हिंदी में, जहाँ नबारून भट्टाचार्य की चर्चा उनके समूचे रचनात्मक व्यक्तित्व के प्रसंग में की गयी है. हिंदी में क्रांतिकारी राजनितिक सक्रियता के स्तर पर जो पीढ़ी सक्रिय थी, उनके यहाँ नबारुण की रचनात्मक छबि ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ तक ही सीमित है. यह एक स्तर पर सच भी है कि नबारुण दा की शुरूआती पहचान इसी काव्य-पुस्तिका के सन्दर्भ में स्थापित हुयी थी. लेकिन इस पहचान को स्थिर करने का काम नबारुण के गद्य-लेखन ने किया है. नबारुण दा का यही गद्यकार व्यक्तित्व बंगाली युवकों-युवतियों के बीच लोकप्रियता के चरम पर स्थित है. नबारुण की चर्चा उनके उपन्यास ‘हार्बर्ट’ (१९९३) और ‘काँगाल मालसाट’ (२००३) के बिना अधूरा ही नहीं बल्कि एकांश भी नहीं है. साथ ही साथ पुरंदर भाट नामक कवि नायक (जो की काँगाल मालसाट का एक चरित्र है) की काव्य-पंक्तियों के बिना नबारुण की जीवंतता और तिक्तता को समझना और भी मुश्किल काम है. @तिरछीspelling 

मेरे द्वारा निर्मित शब्दों का घर/ टूट जायेगा रूदन से/ मेरे मरने के बाद/ वैसे अचंभित होने जैसा कुछ भी नहीं है इसमें/ पुछ जाऊंगा घर के आईने से/ दीवारों पर नहीं होंगे मेरे चित्र/ वैसे दीवार अच्छा नहीं लगा कभी मुझे/ अब आकाश ही मेरा दीवार होगा/ जिस पर चिमनियों के धुँए से/ पंछी मेरा नाम लिखेंगे/ आकाश ही मेरे लिखने का टेबिल होगा अब/ ठंडा पेपरवेट होगा चाँद/ काले मखमली कुशन में तारे टिमटिमायेंगे/ मुझे याद कर के/ दुखी होने की जरूरत नहीं है तुम्हें/ इन बातों को लिखते हुए मेरे हाँथ नहीं काँप रहे/ पर जब पहली बार थामा था तुम्हारे हाथों को/ कुछ आवेग और कुछ झिझक में/ मेरे हाँथ जरूर काँपे थे/ मेरी सुन्दर पत्नी मेरी प्रेयषी/ मेरी यादें तुम्हें घेरे रहेंगी/ जरूरी नहीं है जकड़ी रहो तुम भी उनमें/ गढ़ना अपना जीवन खुद/ मेरी यादें होंगी तुम्हारा साथी/ तुम करो यदि प्रेम किसी से/ दे देना इन सारी यादों को उसे/ कॉमरेड बना लेना उसे अपना/ हाँ मैं जरूर सबकुछ तुम पर छोड़े जा रहा हूँ/ मेरा विश्वास है कि गलतियाँ नहीं करोगी तुम/ तुम मेरे बेटे को/ अक्षरज्ञान के समय/मनुष्य धूप और तारों से प्रेम करना सिखाना/ वह मुश्किल से मुश्किल गणित सुलझा पायेगा तब/ क्रांति का एलजेब्रा भी/ वह मुझसे बेहतर समझेगा/ चलना सिखायेगा मुझे जुलूसों में/ पथरीले जमीन पर और घास पर/ हाँ! मेरी कमियों के बारे में भी बताना उसे/ पर ध्यान रहे वह मुझसे नफरत न करे/ कोई बड़ी बात नहीं है मेरा मरना/जानता था/ बहुत दिनों तक जिंदा रहने वाला नहीं हूँ मैं/ पर समस्त तरह के मृत्यु का अतिक्रमण कर/ हर तरह के अन्धकार को अस्वीकार कर/ मेरा विश्वास कभी नहीं डिगा/ क्रांति हमेशा दीर्घायु हुई है/क्रांति हमेशा चिरजीवी हुई है

(नबारून दा की ‘अंतिम इच्छा’ (শেষ ইচ্ছে) शीर्षक कविता, बांग्ला से अनुवाद- राजीव राही)

Photo Courtesy Q

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By प्रणय कृष्ण

क्या ऐसी ‘अंतिम इच्छा’ आपने किसी की सुनी है? कैसा रहा होगा वह जीवन जिसकी ‘अंतिम इच्छा’ ऐसी हो? ३१ जुलाई, २०१४ को जब हम सब अपने अपने शहरों में प्रेमचंद जयन्ती मना रहे थे, नबारून दा दुनिया को चुपचाप लगभग साढ़े चार बजे अलविदा कह गए. पिछली २३ फरवरी को पटपड़गंज, दिल्ली के मैक्स हास्पिटल में अंतिम बार भेंट हुई थी. लोकसभा चुनाव, वाम एकता और कुछ हंसी-दिल्लगी की बातों के बीच बमुश्किल उनके स्वास्थ्य पर बात टिक पा रही थी. कह रहे थे कि रेडियोथेरेपी के बाद यदि ट्यूमर छोटा हो जाता है, तो ऑपरेशन संभावित है. यह भी कि शायद कुछ कहानियों और एक उपन्यास को वे पूरा कर पाएँगे.

धूमिल के गाँव खेवली( बनारस) में सन २००8 में जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में उनसे आग्रह किया गया कि वे ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ ( मंगलेश डबराल कृत हिन्दी अनुवाद) ज़रूर पढ़ें. दो पंक्तियाँहिन्दी में पढ़ने के बाद उन्होंने बांगला में शेष कविता पढ़नी शुरू की. लगा मानों मेघ गड़गड़ा रहे हैं. उस काव्यपाठ कीयाद अभी भी सिहरन पैदा करती है.

एक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी के रूप में नबारून दा के चरित्र की दृढ़ता उनके एक्टिविज्म और रचनाकर्म में ही नहीं, देश-दुनिया में दमन-शोषण और मानवद्रोह की तमाम वारदातों के खिलाफ व्यक्तिगत स्तर पर भी निर्भीकता के साथ उठ खड़े होने में दिखाई देती है. उन्होंने सच कहने के लिए किसी के अनुमोदन का इंतज़ार कभी नहीं किया. पश्चिम बंगाल विधानसभा के पिछले चुनावों से पहले का वाकया याद आता है. सिंगूर-नंदीग्राम के बाद इन चुनावों में वाममोर्चा की हार तय दीख रही थी. दशकों से वाम प्रतिष्ठान का संरक्षण पाए बौद्धिक भी ‘माय, माटी, मानुष’ की ममतामयी पुकार लगा रहे थे. तमाम भूतपूर्व और ‘अ’भूतपूर्व क्रांतिकारी बौद्धिक और खुद को माओवादी बतानेवाले भी ममतामय हुए जा रहे थे. नबारून अकेले ही यह कहने को उठ खड़े हुए कि वाममोर्चा का विकल्प ममता नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी वाम विकल्प ही हो सकता है. यदि वह बंगाल में अभी उपलब्ध नहीं है तो क्या मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को उसे बनाने के काम में नहीं लगना चाहिए? उपलब्ध बूर्जुआ विकल्पों में से किसी एक के पीछे खड़ा हो जाना एक बुद्धिजीवी द्वारा अपने दायित्व का विसर्जन है. यह वही व्यक्ति कह सकता था जिसने ‘नक्सलबाड़ी विद्रोह’ को खड़ा करने और उसके सन्देश को जनता में पहुँचाने में बुद्धिजीवियों की भूमिका को देखा था और खुद इस भूमिका में खड़ा हुआ था.

 नबारून न केवल वाममोर्चा के लिए, बल्कि ममता-राज के लिए भी भारी असुविधा खड़ा करने वाले बुद्धिजीवी थे. अकारण नहीं कि उनके २००३ में लिखे उपन्यास ‘कोंगाल मालसाट’ ( भिखारियों का रणघोष) पर जब २०१३ में सुमन मुखोपाध्याय ने फिल्म बनाई, तो ममता बनर्जी सरकार उसे सहन न कर पाई. उसे सेंसर की तमाम आपत्तियां झेलनी पडीं. मूल उपन्यास में चोकटोर (काला जादू करने वाले) और फ्यातरू (उड़ने वाले मानव) ऐसे काल्पनिक पात्र हैं जिन्होंने सत्ता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है. इन विद्रोहियों को दंडबयोष ( चिर-पुरातन, सतत बतियाता रहनेवाला कव्वा) और बेगम जानसन के भूत ने प्रशिक्षित किया है. ये पात्र पारंपरिक योद्धाओं की तरह नहीं हैं, बल्कि आजीविका के लिए ये छल-कपट, झूठ-फरेब भी करते हैं, शराब भी पीते हैं. ये दबे-कुचले लोगों के जीवन के निर्मम यथार्थ को प्रतिबिंबित करते हैं. नबारून दिखाना चाहते हैं कि जनता ही विद्रोह की ताकत है, चाहे वह जितनी भी खराब भौतिक और भावपरक स्थितियों में हो. चंद शुद्ध और आदर्श क्रांतिकारी उसकी जगह नहीं ले सकते. इन विद्रोहियों के पास कोई अत्याधुनिक हथियार नहीं , बल्कि कुदाल, छुरा, सब्जी काटनेवाला चाकू, टूटे फर्नीचर के टुकड़े जैसे हथियार ही इनके पास हैं. इन्हें अतिप्राकृतिक सहायता के तौर पर छोटी-छोटी उड़नतश्तरी जैसी वस्तुएं भी हासिल हैं जो शत्रु की गर्दन धड़ से अलग कर देने की क्षमता रखती हैं. २०१३ में बनी फिल्म में मूल उपन्यास के बरअक्स स्क्रीन-प्ले में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए. बंगाल के सत्ता -परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए चोकटोर और फ्यातरू जैसे चरित्र जो कभी विद्रोह के प्रतिनिधि थे, उन्हें सत्ता, सम्मान और वित्तीय सुरक्षा के लिए सत्ता-प्रतिष्ठान का अंग बनते दिखाया गया है. इसीलिए दंडबयोष कहता है, ” लड़ाई जारी रहेगी, यह तो (सत्ता-परिवर्तन) सामयिक है.” इसलिए भले ही ममता सरकार और फिल्म बोर्ड ने आपत्ति गाली-गलौज की भाषा, आन्दोलन की हंसी उड़ाने, ममता बनर्जी का शपथ-ग्रहण दिखाने और उस पर आपत्तिजनक टिप्पणियाँ करने पर की, लेकिन वास्तविक आपत्ति तो इस बदली हुई अंतर्वस्तु पर ही थी.

नबारून बिजॉन भट्टाचार्य और महाश्वेता देवी के पुत्र ही नहीं, बल्कि वाम संस्कृतिकर्मियों की एक महान परम्परा के वारिस थे, जिसका अहसास उन्हें हर पल था.जन संस्कृति मंच के १३वें राष्ट्रीय सम्मेलन (२०१०, दुर्ग-भिलाई) को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “….मुझको ही पूछता हो, तुम तो तुम्हारा… जब तुम बच्चा थे, तब से बहुत लोग को देखा, तुम बिजॉन भट्टाचार्य का बेटा हो, उसके साथ था, तुम उत्पल दत्त को देखा, ऋत्विक घटक की फिल्म में तुम रिफ्लेक्टर..दिया है, तुम मानिक बाबू को देखा, तुम अरुण मित्र, विष्णु डे को, सुभाष मुखोपाध्याय को देखा, मखदूम मोहियुद्दीन को देखा, बलराज साहनी को देखा, Now how do you plan to re-view life? तुम क्या करोगे अब?….Should I go and join the market forces and create something for the market? Might be that will fetch me some money. Actually I require money, but I cannot afford to earn it by indecent means…क्योंकि आप लोग ये समझें कि .. मेरा एक नावेल है ‘ऑटो’ .. एक  auto-driver को लेकर. तो उसपर तो मैंने एक young aspiring filmmaker को बोल दिया कि तुम इसको बनाओ. उसका dreamहै filmबनाना.. और उसके बाद बंगाल का जो सबसे बड़ा heroहै, उसका जो industrial  production house है वो मुझको बोला -हमको’auto’दे दो , तुम को बहुत अच्छा ‘ये’ मिलेगा-‘price’. But I told him that, ‘Bhai! this is not for sale. It is my word  as given to him and he is a young man. If I don’t help the young man, he will reject me and all the youth will reject me in future.’ That is one thing I am afraid of. I don’t want two face. That will be ‘पाप’. Our Indian concept- ‘पाप’-Certain things should be renounced to gain something.और एक बात है …कि एक French intellectualथे Guy Debord. बहुत पगला था. मेरा याद में…Suicideकिया. उसका एक bookहै-‘The Society of the Spectacle’…..This damn bloody capitalist society is always trying to create spectacles. …. This society of spectacles must be challenged and that is the risk. That is what, not only our forefathers have done, it is also done by the international literati…. a great man like Aragon, like Eluard, like Neruda, like … everyone, so we belong to a very great heritage which we cannot renounce.”

नबारून दा के पास सिर्फ क्रान्ति की उल्लासमयी कल्पना ही न थी, उन्होंने क्रान्ति के दमन को, बुरी तरह से कुचले जाने के बाद, विभ्रम और विकृति की और ढकेले जाने के बाद भी, फिर फिर ‘हठ इनकार का सर’ तानते देखा. विश्व-क्रांतिकारी प्रयासों का उन्होंने भीषण शोध किया था. उपरोक्त भाषण में ही उन्होंने कहा था, ” And this is the heritage we must keep alive and this is the struggle in which we cannot lose… May be, we will die. You see, defeat is nothing, defeat is nothing.All the wars cannot be won. Che-Guevara didn’t win, but he has won it forever. That is the main thing.We must keep everything in perspective. We must fight globalization, we must fight local reaction, we must fight the show of military state power in the adivaasi area and we must protest everything illegal, evil and pathetic  that is happening in my country. “

 नबारून बंगाल के नक्सल आन्दोलन के आवयविक बुद्धिजीवी थे, जिसकी मूल प्रतिज्ञा और आशय को बदलती विश्व-परिस्थिति में सतत पुनर्नवा करते जाने की उनकी क्षमता अपार थी. ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ जैसी कविताएँ और ‘आमार कोनो भय नेई,तो?’ सरीखी तमाम कहानियां वास्तविक घटनाओं से प्रेरित हैं जिन्हें उन्होंने देखा भी था और भोगा भी था. महाश्वेता देवी ने अपने कालजयी उपन्यास ‘१०८४ वें की मां’ की निर्माण प्रकिया के बारे में अमर मित्र और सब्यसाची देब से बातचीत के दौरान कहा था कि, “….बारासात और बड़ानगर के दो जनसंहारों के बारे में हमें जानकारी थी. इन जगहों पर नक्सल युवकों का कत्लेआम हुआ था. लेकिन इससे पहले विजयगढ़ के पास श्री कॉलोनी में एक ह्त्या हुई. मेरे छात्र सुजीत गुप्ता की ह्त्या हुई थी, जिसके पिता एक डॉक्टर के कम्पाउण्डर थे. घटना के एक हिस्से की मैं साक्षी थी. बाकी बातें मुझे मेरे बेटे नबारून और दूसरे लोगों से पता चलीं. नबारून कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव रखते थे. उन्होंने अनेक तरीकों से नक्सलपंथियों की मदद करने की कोशिश की.” (Mahasweta Devi: In Conversation with Amar Mitra And Sabyasachi Deb(Indian Literature, Vol. 40, No. 3 (179), (May – June1997)

नबारून दा के लिए नक्सलबाड़ी कभी भी विगत रोमान नहीं रहा. उन्होंने उस आन्दोलन के ऐतिहासिक आशय को आत्मसात किया, नयी से नयी परिस्थिति के बीच उसकी विकासमानता को, भारत के वामपंथी आन्दोलन की परम्परा और दुनिया भर में चले क्रांतिकारी प्रयासों की विरासत के परिप्रेक्ष्य में उसको परखा और अपने कलाकार के लिए भी जीवित सच्चाई के रूप में सतत उसका नवोन्मेष किया.

उन्हें निरंतर उद्वेलित कलाकार का हृदय मिला था, जिसके चलते वे तमाम विधाओं में लगातार आवाजाही करते थे. फिल्म, थियेटर, कथा और कविता में बहुधा विधाओं के तटबंध तोड़ती हुई उनकी रचना-धारा प्रवाहित होती थी.  नबारून दा का कथाकार अमानवीय व्यवस्था पर मारक हमले संगठित करता है. उनकी कहानियों और उपन्यासों में कथा का ढांचा टूट-फूट जाता है, आख्यान विश्रंखलित होकर दूसरे आख्यानों में मिल जाते  है, पात्रों की आतंरिक  दुनिया भी भीषण रूप से विभाजित है, मानो वे एक साथ कई दुनियाओं में रहते और उनसे निर्वासित होते रहते हों, उनके कार्य-व्यापार और संवाद भी ऊपरी तौर पर असंगत और अतर्क्य (किन्तु अयथार्थ नहीं) लगते हैं, तब जो चीज़ उनके कथा-संसार को संरचना और उद्देश्य की एकता प्रदान करती है, वह है कथाकार की प्रचंड व्यस्था-विरोधी युयुत्सु चेतना जिसका निर्माण ‘७० और ‘८० के दशक के नक्सल आन्दोलन की आंच में हुआ है. उनका कथाकार जादू और फैंटेसी के हथियारों से लैस है. अपने समाज के कारोबार को नज़दीक से देखना ‘खतरनाक’ है क्योंकि इस तरह देखने से इस समाज(पूंजी की दुनिया) की निरंकुशता, अतार्किकता और असंगति साफ़ नज़र आती है. इस दुनिया को चलानेवाले मुट्ठी भर तत्व अपने मनमानेपन, व्यभिचार और अपराध को जब तर्क और यथार्थ के परदे से ढँक लेते हैं तब क्या तार्किक है, क्या अतार्किक, क्या यथार्थ है और क्या अयथार्थ, यह जानना सामान्य समझ से परे प्रतीत होता है. पूंजी की दुनिया ने तर्क और यथार्थ का जो कवच पहन रखा है, उसे भेदने के लिए ही महान कलाकारों ने जादू और फैंटेसी के हथियारों का सहारा लिया है.

नबारून दा हमारे समय में जीवित और कर्मरत ऐसे ही महान कलाकार थे. उनके पात्रों की हंसी-दिल्लगी उस रुग्णता और विकृति में लिथड़ी हुई है जिसमें रहने को इस दुनिया के अश्लील नियंताओं ने उन्हें विवश कर रखा है. उनके पात्रों की विकारग्रस्त दिल्लगी भी ज़िंदगी की तर्कहीनता और क्रूरता को उघाड़ कर रख देने की कला है. ‘हार्बर्ट’ (१९९३) और ‘काँगाल मालसाट’ (२००३) जैसे उनके उपन्यास उनकी इसी कलानिष्ठा के नमूने हैं.’हार्बर्ट’ के नायक ‘हार्बर्ट सरकार’ कायह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि वह गोरा है. उत्तरी कोलकाता में पला बढ़ा हार्बर्ट यतीम है. वह असुरक्षित, अकेला, खुद से घृणा करनेवाला, अधपगला, मृतात्माओं से संवाद करने का स्वघोषित माध्यम और खराब कवि है. जीवन में उसका एकमात्र प्रेम एकसाथ दुखांत और हास्यास्पद है. वह एक ऐसा पात्र प्रतीत होता है जिसकी नियति है असफलता और गुमनामी, लेकिन वह अपने झक्कीपने और बाजीगरी से पाठक को लगातार चौंकाता है. मानो कह रहा हो कि कोई भी जीवन कितना भी टूटा, बिखरा, अभिशप्त और हास्यास्पद क्यों न हो, वह बेमतलब नहीं है, उसमें मौलिक होने की अपार संभावना है. उपन्यास हार्बर्ट की आत्महत्या से शुरू होकर फ्लैशबैक में उसकी ज़िंदगी में उतरता है, न केवल अपने नायक के जीवन में बल्कि कोलकाता शहर के कई दशकों के अद्भुत जीवन तथा संस्कृति, राजनीति और मानव-स्वभाव की गहराइयों में उतरता चला जाता है, देश-काल के अनेक संस्तरों में आवाजाही निरंतर चलती रहती है. हार्बर्ट ने मृतात्माओं से संवाद के स्वघोषित हुनर से जो किस्मत बनाई थी, उसे तर्कबुद्धिवादियों द्वारा  फर्जी घोषित किए जाने और कानूनी कार्रवाई की धमकी दिए जाने के बाद, सदमें में वह आत्मघात कर लेता है. लेकिन जैसे ही इलेक्ट्रिक शवदाह के चैंबर में उसके शरीर को रखा जाता है, एक भीषण धमाका होता है और पूरी इमारत दरक जाती है , अनेक लोग जो आस-पास हैं, वे घायल होते हैं. अखबारों की सुर्ख़ियों में हार्बर्ट के मरणोपरांत उसकी ‘आतंकवादी’ गतिविधि की सुर्खियाँ हैं, जिसका रहस्य जानने के लिए उच्च स्तरीय जांच बैठाई जाती है. उसकी चमत्कारिक शक्तियों की विस्फोटक छाप उसकी मृत्यु के क्षण में और भी गहरा जाती है. इस जादुई यथार्थवाद के प्रतीकार्थ को न जाने कितने कोणों से कोई व्याख्यायित कर सकता है. नबारून दा की कला का मरणोपरांत जादू भी अमिट है और निस्संदेह उनकी कला शासक जमातों को उनके मरणोपरांत सदैव आतंकित करती रहेगी, चाहे वे जितनी जांच बैठा लें.

अभी तो उनकी पार्थिव अनुपस्थिति भी ज्वालामुखी के दहाने पर रखी चाय की केतली में खलबला रही चाय पर हम सब को आमंत्रित कर रही है-

कलम को काग़ज़ पर फेरते हुए/ आप दृष्टि को/ बड़ा नहीं कर सकते/ क्योंकि कोई नहीं कर सकता।/ दृश्य के नीचे जो बारूद और कोयला है/ वहाँ एक चिनगारी/ जला सकेंगे आप?/ दृष्टि तभी बड़ी होगी/लहलहाते/फूल फूलेंगे धधकती मिट्टी पर/फटी-जली चीथड़े-चीथड़े ज़मीन पर/ फूल फूलेंगे।/ ज्वालामुखी के मुहाने पर/ रखी हुई है एक केतली/ वहीं निमन्त्रण है आज मेरा/चाय के लिए।/हे लेखक, प्रबल पराक्रमी कलमची/ आप वहाँ जायेंगे?

( जन संस्कृति मंच की ओर से प्रणय कृष्ण द्वारा जारी )

रेड सैलूट टू नवारुण दा

नवारुण दा आज हमारे बीच नहीं रहे. नवारुण दा उन विलक्षण लेखकों में से एक थे, जो सचमुच लाल सलाम के अधिकारी हमेशा रहेंगे. उन्हीं की एक छोटी सी कविता और उनके एक आत्म-वक्तव्यनुमा भाषण के साथ उन्हें याद करते हैं. उनकी रचनाएँ और जीवन हमेशा इस विश्वास का संबल रहेगा कि ‘मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’.

लुंपेन का गीत 

हर रात हमारी जुए में
कोई न कोई जीत लेता है चाँद
चाँद को तुड़वा कर हम खुदरे तारे बना लेते हैं

हमारी जेबें फटी हैं
उन्हीं छेदों से सारे तारे गिर जाते हैं
उड़कर चले जाते हैं आकाश में

तब नींद आती है हमारी ज़र्द आँखों में
स्वप्न के हिंडोले में हम काँपते हैं थर-थर
हमें ढोते हुए चलती चली जाती है रात
रात जैसे एक पुलिस की गाड़ी.

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