डोंट चेंज द क्लाइमेट, चेंज द सिस्टम: ह्यूगो शावेज

Hugo Chavez

Hugo Chavez

कोपेनहेगन में ‘जलवायु परिवर्तन’ पर ह्यूगो शावेज का भाषण (22 दिसंबर, 2009)

By  ह्यूगो शावेज 
अध्यक्ष महोदय, देवियों और सज्जनों, राष्ट्राध्यक्षों और दोस्तों, मैं वादा करता हूं कि उतना लंबा नहीं बोलूंगा जितना कि आज दोपहर यहां बहुत सारे लोग बोले हैं। ब्राजील, चीन, भारत और बोलीविया के प्रतिनिधियों ने यहां अपना पक्ष रखते हुए जो कहा है, मैं भी अपनी बात की शुरूआत वहीं से करना चाहता हूं। मैं उनके साथ ही बोलना चाहता था, पर शायद तब यह संभव नहीं था। बोलीविया के प्रतिनिधि ने यह बात रखी, इसके लिए मैं बोलीविया के राष्ट्रपति कॉमरेड इवो मोरालेस को सलाम करता हूं। तमाम बातों के बीच उन्होंने कहा कि जो दस्तावेज यहां रखा गया है, वह न तो बराबरी पर आधारित है और न ही लोकतंत्र पर।
इससे पहले के सत्र में जब अध्यक्ष यह कह ही रहे थे कि एक दस्तावेज यहां पेश किया जा चुका है, तब बमुश्किल मैं यहां पहुचा ही था। मैंने उस दस्तावेज की मांग भी की, पर वह अभी भी हमारे पास नहीं है। मुझे लगता है कि यहां उस ‘टॉप सीक्रेट’ दस्तावेज के बारे में कोई भी कुछ नहीं जानता है। यहां बराबरी और लोकतंत्र जैसा कुछ भी नहीं है, जैसा कि बोलीवियन कॉमरेड ने कहा था। पर दोस्तों, क्या यह हमारे समय और समाज की एक सच्चाई नहीं है? क्या हम एक लोकतांत्रिक दुनिया में रह रहे हैं? क्या यह दुनिया सबकी और सबके लिए है? क्या हम दुनिया के वर्तमान तंत्र से बराबरी या लोकतंत्र जैसी किसी भी चीज की उम्मीद कर सकते हैं? सच्चाई यह है कि इस दुनिया में, इस ग्रह में हम एक साम्राज्यवादी तानाशाही के अंदर जी रहे हैं। और इसीलिए हम इसकी निंदा करते हैं। साम्राज्यवादी तानाशाही मुर्दाबाद! लोकतंत्र और समानता जिंदाबाद!
और यह जो भेदभाव हम देख रहे हैं, यह उसी का प्रतिबिंब है। यहां कुछ देश हैं, जो खुद को हम दक्षिण के देशों से, हम तीसरी दुनिया के देशों से, अविकसित देशों से श्रेष्ठ और उच्च मानते हैं। अपने महान दोस्त एडवर्डो गेलियानो के शब्दों में कहूं तो ‘हम कुचले हुए देश हैं, जैसे कि इतिहास में कोई ट्रेन हमारे ऊपर से दौड़ गई हो’। इस आलोक में यह कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है कि दुनिया में बराबरी और लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। और इसीलिए आज फिर से हम साम्राज्यवादी तानाशाही से दो-चार हैं। अपना विरोध दर्ज कराने के लिए अभी दो नौजवान यहां खड़े हो गए थे, सुरक्षा अधिकारियों की सावधानी से मामला सुलझ गया। पर क्या आपको पता है कि बाहर ऐसे बहुत सारे लोग हैं। सच यह है कि उनकी संख्या इस सभागार की क्षमता से बहुत-बहुत ज्यादा है। मैंने अखबार में पढ़ा है कि कोपेनहेगन की सड़कों पर कुछ गिरफ्तारियां हुईं हैं, और कुछ उग्र प्रतिरोध भी दर्ज कराये गए हैं। मैं उन सारे लोगों को, जिनमें से अधिकांश युवा हैं, सलाम करता हूं।
सच यह है कि ये नौजवान लोग आने वाले कल के लिए, इस दुनिया के भविष्य के लिए हमसे कहीं ज्यादा परेशान और चिंतित हैं, और यह सही भी है। इस सभागार में मौजूद हम में से अधिकांश लोग जिंदगी की ढलान पर हैं, जबकि इन नौजवान लोगों को ही आने वाले कल का मुकाबला करना है। इसलिए उनका परेशान होना लाजिमी है।
अध्यक्ष महोदय, महान कार्ल माक्र्स के शब्दों का सहारा लेकर कहूं तो एक भूत कोपेनहेगन को आतंकित कर रहा है। वह भूत को कोपेनहेगन की गलियों को आतंकित कर रहा है और मुझे लगता है कि वह चुपचाप इस कमरे में हमारे चारों तरफ भी टहल रहा है, इस बड़े से हॉल में, हमारे नीचे और आसपास; यह एक भयानक और डरावना भूत है और लगभग कोई भी इसका जिक्र नहीं करना चाहता। यह भूत, जिसका जिक्र कोई भी नहीं करना चाहता, पूंजीवाद का भूत है।
बाहर लोग चीख रहे हैं कि यह भूत पूंजीवाद ही है, कृपया उन्हें सुनिए। बाहर सड़कों पर नौजवान लड़कों और लड़कियों ने जो नारे लिख रखे हैं, उनमें से कुछ को मैंने पढा है। इन्हीं में से कुछ को मैंने अपनी जवानी में भी सुना था। पर इनमें से दो नारों का जिक्र मुझे जरूरी लग रहा है, आप भी उन्हें सुन सकते हैं- पहला, ‘जलवायु को नहीं, व्यवस्था को बदलो (डोंट चेंज द क्लाइमेट, चेंज द सिस्टम)।
इसलिए मैं इसे हम सबके लिए चुनौती के तौर पर लेता हूं। हम सबको सिर्फ जलवायु बदलने के लिए नहीं, बल्कि इस व्यवस्था को, इस पूंजी के तंत्र को बदलने के लिए प्रतिबद्ध होना है। और इस तरह हम इस दुनिया को, इस ग्रह को बचाने की शुरूआत भी कर सकेंगे। पूंजीवादी एक विनाशकारी विकास का मॉडेल है, जो जीवन के अस्तित्व के लिए ही खतरा है। यह संपूर्ण मानव जाति को ही पूरी तरह खत्म करने पर आमादा है।
दूसरा नारा भी बदलाव की बात करता है। यह नारा बहुत कुछ उस बैंकिंग संकट की ओर संकेत करता है, जिसने हाल ही में पूरी दुनिया को आक्रांत कर रखा था। यह नारा इस बात का भी प्रतिबिंब है कि उत्तर के अमीर देशों ने किस हद तक जाकर बड़े बैंकों और बैंकरों की मदद की थी। बैंकों को बचाने के लिए अकेले अमेरिका ने जो मदद की थी, मैं उसके आंकड़े भूल रहा हूं, पर वह जादुई आंकड़े थे। वहां सड़क पर नौजवान लड़के और लड़कियां कह रहे हैं कि जलवायु एक बैंक होती तो इसे जाने कब का बचा लिया गया होता (इफ द क्लाइमेट वॅर अॅ बैंक, इट वुड हेव वीन सेव्ड ऑलरेडी)।
और मुझे लगता है कि यह सच है। अगर जलवायु दुनिया के सबसे बड़े बैंकों में से एक होती तो अमीर सरकारों द्वारा इसे अब तक बचा लिया गया होता।
मुझे लगता है कि ओबामा अभी यहां नहीं पहुचे हैं। जिस दिन उन्होंने अफगानिस्तान में निर्दोष नागरिकों को मारने के लिए 30 हजार सैनिकों को भेजा, लगभग उसी दिन उन्हें शांति के लिए नोबल पुरस्कार भी मिला। और अब संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति शांति के नोबल पुरस्कार के साथ यहां शामिल होने आ रहे हैं। लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका के पास पैसा और डॉलर बनाने की मशीन है और उसे लगता है कि उसने बैंकों और इस पूंजीवादी तंत्र को बचा लिया है।
वास्तव में यही वह टिप्पणी थी जो मैं पहले करना चाहता था। हम ब्राजील, भारत, चीन और बोलीविया के दिलचस्प पक्ष का समर्थन करने के लिए अपना हाथ उठा रहे थे। वेनेजुएला और बोलिवर गठबंधन के देश इस पक्ष का मजबूती से समर्थन करते हैं। पर क्योंकि उन्होंने हमें वहां बोलने नहीं दिया, इसलिए अध्यक्ष महोदय, कृपया इसको मिनट्स में न जोड़ा जाए।
मुझे फ्रेंच लेखक हर्वे कैंफ से मिलने का सौभाग्य मिला है। उनकी एक पुस्तक है- ‘हाउ द रिच आर डेस्ट्राॅइंग न प्लेनेट’, मैं यहां पर उस पुस्तक की अनुशंसा करना चाहता हूं। यह किताब स्पेनी और फ्रेंच भाषा में उपलब्ध है। और निश्चय ही अंग्रेजी में भी उपलब्ध होगी। ईसा मसीह ने कहा है कि एक ऊंट का तो सुई के छेद में से निकल जाना आसान है, पर एक अमीर आदमी का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश पाना मुश्किल है। यह ईसा मसीह ने कहा है।

Hugo Chavez, Nicolas Maduro

Hugo Chavez, Nicolas Maduro

ये अमीर लोग इस दुनिया को, इस ग्रह को नष्ट कर रहे हैं। क्या उन्हें लगता है कि वे इसे नष्ट कर कहीं और जा सकते हैं? क्या उनके पास किसी और ग्रह पर जाने और बसने की योजना है? अभी तक तो क्षितिज में दूर-दूर तक इसकी कोई संभावना नजर नहीं आती। यह किताब मुझे हाल ही में इग्नेशियो रेमोनेट से मिली है, जो शायद इस सभागार में ही कहीं मौजूद हैं। ‘प्रस्तावना’ की समाप्ति पर क्रैम्फ एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहते हैं, मैं उसे यहां पढ रहा हूं- ‘‘इस दुनिया में पाये जाने वाले संसाधनों के उपभोग में हम तब तक कमी नहीं ला सकते जब तक हम शक्तिशाली कहे जाने वाले लोगों को कुछ कदम नीचे आने के लिए मजबूर नहीं करते और जब तक हम यहां फैली हुई असमानता का मुकाबला नहीं करते। इसलिए ऐसे समय में, जब हमें सचेत होने की जरूरत है, हमें ‘थिंक ग्लोबली एण्ड ऐक्ट लोकली’ के उपयोगी पर्यावरणीय सिद्धांत में यह जोड़ने की जरूरत है कि ‘कंज्यूम लेस एण्ड शेयर बेटर’।’’
मुझे लगता है कि यह एक बेहतर सलाह है जो फ्रेंच लेखक हर्वे कैंफ हमें देते हैं।
अध्यक्ष महोदय, इसमें कोई संदेह नहीं है कि जलवायु परिवर्तन इस शताब्दी की सबसे विध्वंसक पर्यावरणीय समस्या है। बाढ, सूखा, भयंकर तूफान, हरीकेन, ग्लेशियरों का पिघलना, समुद्रों के जलस्तर और अम्लीयता में वृद्धि, और गरम हवाएं- ये सभी उस वैश्विक संकट को और तेज कर रहे हैं, जो हमें चारों तरफ से घेरे हुए है। वर्तमान में इंसानों के जो क्रियाकलाप हैं, उन्होंने इस ग्रह में जीवन के लिए और स्वयं इस ग्रह के अस्तित्व के लिए एक खतरा पैदा कर दिया है। लेकिन इस योगदान में भी हम गैर-बराबरी के शिकार हैं।
मैं याद दिलाना चाहता हूं कि पचास करोड़ लोग, जो इस दुनिया की जनसंख्या का 7 प्रतिशत हैं, मात्र 7 प्रतिशत, वे पचास करोड़ लोग -7 प्रतिशत अमीर लोग- 50 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। जबकि इसके विपरीत 50 प्रतिशत गरीब लोग, मात्र और मात्र 7 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जवाबदेह हैं।
इसलिए संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन से एक ही जवाबदेही और जिम्मेदारी की अपेक्षा करना मुझे आश्चर्य में डाल देता है। यूएसए जल्द ही 30 करोड़ की जनसंख्या के आंकड़े पर पहुंच जाएगा, वहीं चीन की जनसंख्या लगभग यूएसए से पांच गुनी है। यूएसए दो करोड़ बैरल रोज के हिसाब से तेल की खपत करता है, जबकि चीन की खपत 50 से 60 लाख बैरल प्रतिदिन की है। इसलिए आप संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन को एक ही तराजू पर नहीं तौल सकते।
यहां पर बात करने के लिए बहुत सारे मुद्दें हैं, और मैं उम्मीद करता हूं कि राज्यों और सरकारों के प्रतिनिधि हम सब लोग इन मुद्दों और इनसे जुड़ी सच्चाइयों पर बात करने के लिए बैठ सकेंगे।
अध्यक्ष महोदय, आज इस ग्रह का 60 प्रतिशत पारिस्थितिकी तंत्र क्षतिग्रस्त हो चुका है, भूमि के ऊपरी धरातल का 20 प्रतिशत हिस्सा नष्ट हो चुका है। हम जंगलों के खत्म होते जाने, भूमि परिवर्तन, रेगिस्तानों के बढते जाने, शुद्ध पेयजल की उपलब्धता में गिरावट, समुद्री संसाधनों के अत्यधिक उपभोग, जैव विविधता में कमी और प्रदूषण में बढोतरी- इन सबके संवेदनहीन गवाह रहे हैं। हम भूमि की पुनरुत्पादन क्षमता से भी 30 प्रतिशत आगे बढकर उसका उपभोग कर रहे हैं। हमारा ग्रह अपनी वह क्षमता खोता जा रहा है जिसे तकनीकी भाषा में ‘स्वयं के नियमन की क्षमता’ कहा जाता है। रोज हम उतने अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन कर रहे हैं जिन्हें फिर से नवीनीकृत करने की क्षमता हम में नहीं है। पूरी मानवता को एक ही समस्या आक्रांत किये हुए है और वह है मानव जाति के अस्तित्व की समस्या। इतना अपरिहार्य होने के बावजूद ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ के अंतर्गत दूसरी बार प्रतिबद्धता जताने में भी हमें दो साल लग गए। और आज जब हम इस आयोजन में शिरकत कर रहे हैं, तो भी हमारे पास कोई वास्तविक और सार्थक समझौता नहीं है।
सच्चाई यह है कि आश्चर्यजनक रूप से और एकाएक जो दस्तावेज हमारे सामने पेश हुआ है, हम उसे स्वीकार नहीं करेंगे। यह हम वेनेजुएला, बोलिवर गठबंधन और अल्बा (ए.एल.बी.ए.) देशों की तरफ से कह रहे हैं। हमने पहले भी कहा था कि ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ और कन्वेंशन के वर्किंग ग्रुप से बाहर के किसी भी मसौदे को हम स्वीकार नहीं करेंगे। क्योंकि उनसे जुड़े मसौदे और दस्तावेज ही वैध और जायज हैं, जिन पर हम इतने सालों से इतनी गहराई से बात करते आ रहे हैं।
और अब, जब पिछले कुछ घंटों से न आप सोये हैं और न ही आपने कुछ खाया है, यह ठीक नहीं होगा कि मैं, आपके अनुसार, इन्हीं पुरानी चीजों में से किसी दस्तावेज को आपके सामने पेश करूं। प्रदूषण फैलाने वाली गैसों के उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित है, पर आज मुझे ऐसा लग रहा है कि इस लक्ष्य को पाने और दूरगामी सहयोग के महारे प्रयास असफल हो गए हैं। कम से कम हाल फिलहाल तो ऐसा ही है।
इसका कारण क्या है? मुझे इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि इसका कारण इस ग्रह के सबसे शक्तिशाली देशों का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार और उनमें राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी का होना है। यहां पर किसी को अपमानित महसूस करने या नाराज होने की जरूरत नहीं है। महान जोस गेर्वासियो आर्तिगास के शब्दों में कहूं तो ‘‘जब मैं सच कहता हूं तो न मैं किसी को आघात पहुंचा रहा होता हूं और न ही किसी से डरता हूं’’। पर वास्तव में यहां अपने पदों को गैर जिम्मेदारी के साथ इस्तेमाल किया गया है, लोग अपनी बातों से पीछे हटे हैं, भेदभाव किया गया है, और समाधान के लिए एक अमीरपरस्त रवैया अपनाया गया है। यह रवैया ऐसी समस्या के साथ है जो हम सबकी साझी है, और जिसका समाधान हम सब मिलकर ही निकाल सकते हैं।
एक तरफ दुनिया के सबसे बड़े उपभोक्ता और अमीर देश हैं; दूसरी तरफ हैं भूखे और गरीब लोग, जो बिमारियों और प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होने के लिए अभिशप्त हैं। राजनैतिक दकियानूसीपन और स्वार्थ ने पहले को दूसरे के प्रति असंवेदनशील बना दिया है। जिन दलों के बीच समझौता होना है, वे मौलिक रूप में ही असमान हैं। इसलिए अध्यक्ष महोदय, उत्सर्जन की जिम्मेदारी के आधार पर और आर्थिक, वित्तीय और तकनीकी दक्षता के आधार पर ऐसा नया और एकमात्र समझौता अनिवार्य हो गया है, जो ‘कन्वेंशन’ के सिद्धांतों के प्रति बिना शर्त सम्मान रखता हो।
विकसित देशों को अपने उत्सर्जन में वास्तविक कटौती के संदर्भ में बाध्यकारी, स्पष्ट और ठोस प्रतिबद्धता निर्धारित करनी चाहिए। साथ ही उन्हें गरीब देशों को वित्तीय और तकनीकी सहायता उपलब्ध कराने का उत्तरदायित्व भी अपने ऊपर लेना चाहिए ताकि वे गरीब देश जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी खतरों से बच सकें। ऐसे देशों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए जो सबसे कम विकसित हैं और जो द्वीपों के रूप में बसे हुए हैं।
अध्यक्ष महोदय, आज जलवायु परिवर्तन एकमात्र समस्या नहीं है जिसका ये मानवता सामना कर रही है। और भी कई अन्याय और उत्पीड़न हमें घेरे हुए हैं। ‘सहस्राब्दी लक्ष्यों’ और सभी तरह की आर्थिक शिखर बैठकों के बावजूद अमीर और गरीब के बीच की खाई बढती जा रही है। जैसा कि सेनेगल के राष्ट्रपति ने सच ही कहा कि इन सभी समझौतों और बैठकों में सिर्फ वादे किये जाते हैं, कभी न पूरे होने वाले वादे; और यह दुनिया विनाश की तरफ बढती रहती है।
इस दुनिया के 500 सबसे अमीर लोगों की आय सबसे गरीब 41 करोड़ 60 लाख लोगों से ज्यादा है। दुनिया की आबादी का 40 प्रतिशत गरीब भाग यानी 2.8 अरब लोग 2 डॉलर प्रतिदिन से कम में अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहे हैं। और यह 40 प्रतिशत हिस्सा दुनिया की आया का पांच प्रतिशत ही कमा रहा है। हर साल 92 लाख बच्चे पांच साल की उम्र में पहुंचने से पहले ही मर जाते हैं और इनमें से 99.9 प्रतिशत मौतें गरीब देशों में होती हैं। नवजात बच्चों की मृत्युदर प्रति एक हजार में 47 है, जबकि अमीर देशों में यह दर प्रति हजार में 5 है। मनुष्यों के जीवन की प्रत्याशा 67 वर्ष है, कुछ अमीर देशों में यह प्रत्याशा 79 वर्ष है, जबकि कुछ गरीब देशों में यह मात्र 40 वर्ष ही है। इन सबके साथ ही साथ 1.1 अरब लोगों को पीने का पानी मयस्सर नहीं है, 2.6 अरब लोगों के पास स्वास्थ्य और स्वच्छता की सुविधाएं नहीं हैं। 80 करोड़ से अधिक लोग निरक्षर हैं और 1 अरब 2 करोड़ लोग भूखे हैं। ये है हमारी दुनिया की तस्वीर।
पर फिर सवाल यही है कि इसका कारण क्या है? आज जरूरत है इस कारण पर बात करने की; यह वक्त अपनी जिम्मेदारियों से भागने या समस्या को नजरंदाज करने का नहीं है। इस भयानक परिदृश्य का कारण निस्संदेह सिर्फ और सिर्फ एक हैः पूंजी का विनाशकारी उपापचयी तंत्र और इसका मूर्त रूप- पूंजीवाद।
यहां मैं मुक्ति के महान मीमांसक लियानार्डो बाॅफ का एक संक्षिप्त उद्धरण देना चाहता हूं। लियानार्डो बाॅफ, एक ब्राजीली, एक अमरीकी, इस विषय पर कहते हैं कि ‘‘इसका कारण क्या है? आह, इसका कारण वह सपना है जिसमें लोग खुशी या प्रसन्नता पाने के लिए अंतहीन उन्नति और भौतिक संसाधनों का संग्रह करना चाहते हैं, विज्ञान और तकनीक के माध्यम से इस पृथ्वी के समस्त संसाधनों का असीम शोषण करना चाहते हैं।’’ और यहीं पर वे चाल्र्स डार्विन और उनके ‘प्राकृतिक वरण’ को उद्धृत करते हैं, ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ को। पर हम जानते हैं कि सबसे शक्तिशाली व्यक्ति सबसे कमजोर की राख पर ही जिंदा रहता है। ज्यां जैक रूसो ने जो कहा था, वह हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि मजबूत और कमजोर के बीच में स्वतंत्रता ही दमित और उत्पीडि़त होती है। इसीलिए ‘साम्राज्य’ हमेशा स्वतंत्रता की बात करते हैं। उनके लिए यह स्वतंत्रता है दमन की, आक्रमण की, दूसरों को मारने की, दूसरों के उन्मूलन और उनके शोषण की। उनके लिए यही स्वतंत्रता है। रूसो बचाव के लिए एक मुहावरे का इस्तेमाल करते हैं- ‘‘मुक्त करता है तो केवल कानून और नियम’’।
यहां कुछ ऐसे देश हैं जो नहीं चाहते कि कोई भी दस्तावेज सामने आए। जाहिर तौर पर इसलिए कि वे कोई नियम या कानून नहीं चाहते, कोई मानक नहीं चाहते। ताकि इन कानूनों और मानकों के अभाव में वे अपना खेल जारी रख सकें- शोषण की स्वतंत्रता का खेल दूसरों को कुचलने की स्वतंत्रता का खेल। इसलिए हम सभी को यहां और सड़कों पर इस बात के लिए प्रयास करना चाहिए, इस बात के लिए दबाव बनाना चाहिए कि हम किसी न किसी प्रतिबद्धता पर एकमत हो सकें, कोई न कोई ऐसा दस्तावेज सामने आए जो धरती के सबसे शक्तिशाली देशों को भी मजबूर कर सके।
अध्यक्ष महोदय, लियानार्डो बाॅफ पूछते हैं कि… क्या आपमें से कोई उनसे मिला है? मैं नहीं जानता कि बाॅफ यहां आ सकते हैं या नहीं? हाल में मैं पेराग्वे में उनसे मिला था। हम हमेशा उनको पढते रहे हैं… क्या सीमित संसाधनों वाली धरती एक असीमित परियोजना को झेल सकती है? असीमित विकासः पूंजीवाद का ब्रह्मवाक्य है, एक विध्वंसक पैटर्न है और आज हम इसे झेल रहे हैं। आइए, इसका सामना करें। तब बाॅफ हमसे पूछते हैं कि हम कोपेनहेगन से क्या उम्मीद कर सकते हैं? कम से कम एक ईमानदार स्वीकारोक्ति कि हम इस व्यवस्था को जारी नहीं रखेंगे और एक सरल प्रस्ताव कि आओ इस ढर्रे को बदल दें। हमें यह करना होगा लेकिन बिना किसी झंझलाहट, बिना झूठ, बिना दोहरे प्रावधानों के। बिना किसी मनमाने दस्तावेजों के हम इस ढर्रे को बदलें। पूरी ईमानदारी से, सबके सामने और सच के साथ।

Hugo Chavez

Hugo Chavez

अध्यक्ष महोदय, हम वेनेजुएला की तरफ से पूछते हैं कि हम कब तक इस अन्याय और असमानता को जारी रखेंगे? कब तक हम मौजूदा वैश्विक अर्थ तंत्र और सर्वग्रासी बाजार व्यवस्था को बर्दाश्त करते जायेंगे? कब तक हम एचआईवी एड्स जैसी भयानक महामारियों के सामने पूरी मनुष्यता को बिलखने के लिए छोड़ देंगे? कब तक हम भूखे लोगों को खाना नहीं मिलने देंगे या उनके बच्चों को भूखों मरने देंगें? कब तक लाखों बच्चों की मौत उन बिमारियों के चलते बर्दाश्त करते रहेंगे, जिनका इलाज संभव है? आखिर कब तक हम दूसरे लोगों के संसाधनों पर ताकतवरों द्वारा कब्जा करने के लिए जारी सशस्त्र हमलों में लाखों लोगों को कत्ल होते हुए देखते रहेंगे?
इसलिए हमलों और युद्धों को बंद किया जाए। साम्राज्यों से, जो पूरी दुनिया को दबाने और शोषण करने में लगे हुए हैं, हम दुनिया के लोग चीखकर कहते हैं कि इन्हें बंद किया जाए। साम्राज्यवादी सैन्य हमले और सैन्य तख्तापलट अब और नहीं! आइए एक ज्यादा न्यायपूर्ण और समानतामूलक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था बनाएं, आइए गरीबी मिटा दें, आइए तुरंत इस विनाशकारी उत्सर्जन को रोक दें, आइए पर्यावरण के इस क्षरण को समाप्त करें और जलवायु परिवर्तन के भीषण दुष्परिणामों से इस धरती को बचावें। आइए, पूरी दुनिया को ज्यादा आजाद और एकताबद्ध करने के महान उद्देश्य के साथ खुद को जोड़ लें।
अध्यक्ष महोदय, लगभग दो शताब्दियों पहले महान सीमोन बोलिवर ने कहा था कि ‘अगर प्रकृति हमारा विरोध करती है तो हमें उससे लड़ना होगा और उसे अपनी सेवा में लाना होगा’। यह राष्ट्रों के मुक्तिदाता, आने वाली नस्लों की चेतना के अग्रदूत महान साइमन बोलिवर का कहना था। बोलिवेरियन वेनेजुएला से, जहां हमने लगभग 10 साल पहले आज जैसे ही एक दिन अपने इतिहास की भीषणतम जलवायु त्रासदी (वर्गास त्रासदी) का सामना किया था, उस वेनेजुएला से जहां क्रांति ने सबको न्याय देने का प्रयास किया है, हम कहना चाहते हैं कि ऐसा करना सिर्फ समाजवाद के रास्ते से संभव है।
समाजवाद, वह दूसरा भूत जिसकी कार्ल माक्र्स ने चर्चा की थी, जो यहां भी चला आया है, दरअसल यह तो उस पहले भूत का विरोधी है। समाजवाद यही दिशा है, इस ग्रह के विनाश को रोकने का यही रास्ता है। मुझे कोई शक नहीं है कि पूंजीवाद नर्क का रास्ता है, दुनिया की बर्बादी का रास्ता है। यह हम वेनेजुएला की तरफ से कह रहे हैं जो समाजवाद के कारण अमेरिकी साम्राज्य के कोप का सामना कर रहा है।
अल्बा के सदस्य देशों की तरफ से बोलिवेरियन गठबंधन की तरफ से हम आह्वान करते हैं, और मैं भी पूरे आदर के साथ अपनी अंतरात्मा से इस ग्रह के सभी लोगों का आह्वान करता हूं, हम सभी सरकारों और पृथ्वी के सभी लोगों से कहना चाहते हैं, साइमन बोलिवर का सहारा लेते हुए कि यदि पूंजीवाद का विनाशक चरित्र हमारा विरोध करता है, हम इसके विरुद्ध लडेंगे और इसे जीतेंगे; हम मनुष्यता के खत्म हो जाने तक इंतजार में नहीं बैठे रह सकते। इतिहास हमें एकताबद्ध होने के लिए और संघर्ष के लिए पुकार रहा है।
यदि पूंजीवाद विरोध करता है, हम इसके खिलाफ युद्ध के लिए प्रतिबद्ध हैं, और यह युद्ध मानव जाति की मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करेगा। यीशु, मुहम्मद, समानता, प्रेम, न्याय, मानवता- सच्ची और सबसे गहरी मानवता का झंडा उठाए हम लोगों को यह करना है। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो इस ब्रह्मण्ड की सबसे विलक्षण रचना, मनुष्य, का अंत हो जाएगा, मानव जाति विलुप्त हो जाएगी।
यह ग्रह करोड़ों वर्ष पुराना है, यह ग्रह करोड़ों वर्ष हमारे वजूद के बिना ही अस्तित्व में रहा है। स्पष्ट है यह अपने अस्तित्वं के लिए हम पर निर्भर नहीं है। सारतः बिना धरती के हमारा अस्तित्व संभव नहीं है और हम इसी ‘धरती मां’ को नष्ट कर रहे हैं, जैसा इवो मोरेल्स कह रहे थे, जैसा दक्षिण अमेरिका से हमारे देशज भाई कहते हैं।
अंत में, अध्यक्ष महोदय, मेरे खत्म करने से पहले कृपया फिदेल कास्त्रो को सुनिए, जब वे कहते हैं: ‘एक प्रजाति खात्मे के कगार पर हैः मनुष्यता’।
रोजा लग्जमबर्ग को सुनिए जब वे कहती हैं: ‘समाजवाद या बर्बरतावाद’।
उद्धारक यीशु को सुनिए जब वे कहते हैं: ‘गरीब सौभाग्यशाली हैं क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है’।
अध्यक्ष महोदय, देवियों और सज्जनों, हम इस धरती को मनुष्यता का मकबरा बनने से रोक सकते हैं। आइए, इस धरती को स्वर्ग बनाएं। एक स्वर्ग जीवन के लिए, शांति के लिए, पूरी मनुष्यता की शांति और भाईचारे के लिए, मानव प्रजाति के लिए।
अध्यक्ष महोदय, देवियों और सज्जनों, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! दोपहर के भोजन का आनंद उठाइए।

(अनुवाद- संदीप सिंह, भूतपूर्व जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष)

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One thought on “डोंट चेंज द क्लाइमेट, चेंज द सिस्टम: ह्यूगो शावेज

  1. ise subah se khoj raha tha…. warna type kar ke ‘bairang’ par lagaata, dhanya hua jo yahan mil gaya… jitna thank you kahun kam hai…

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