राजकमल चौधरी, और ज्याँ जेने की आतंरिक समीपता: सुरेंद्र चौधरी

सुरेंद्र चौधरी और राजकमल चौधरी गया कॉलेज, गया के दिनों से दोस्त थे. राजकमल की मृत्यु के तत्क्षण बाद मुक्ति-प्रसंग की समीक्षा लिखने के अतिरिक्त बहुत दिनों तक सुरेंद्र चौधरी ने उनपर लगभग नहीं लिखा. अपनी दुविधा को अपनी एक अप्रकाशित पुस्तक में वे कुछ ऐसे स्पष्ट करते हैं, ” मैंने राजकमल की कहानियों पर अब तक कुछ नहीं लिखा. मेरे मन में उस दोस्त लेखक के लिए एक संशय सदा बना रहा . क्या मैं इस आदमी के द्वारा उसके लेखन को जान सकता हूँ? क्या वह किसी भी अर्थ में पूर्ण होगा? उसके लेखन और समय से काफी दूर आकर मैं अपनी जिज्ञासा दुहरा भर सकता हूँ! मेरा ख्याल है कि वह अपने कथा-साहित्य के लिए याद किया जाय या न किया जाय  मगर मुक्ति-प्रसंग के लिए याद किया जाएगा.”

जहाँ तक मेरी जानकारी है, सुरेंद्र चौधरी ने राजकमल चौधरी की कृति-केन्द्रित एक ही लेख/समीक्षा लिखी है- मुक्ति-प्रसंग: एक और देह गाथा. इसके अतिरिक्त सुरेंद्र चौधरी के आलोचकीय-वृत्त में राजकमल चौधरी अक्सरहां नजर आते हैं. मुक्ति-प्रसंग की समीक्षा के अतिरिक्त अन्य प्रसंगों से दो उद्धरण यहाँ द्रष्टव्य हैं. #उदय शंकर

भावना से परिचालित होने वाले व्यक्ति का वेग तो समझा जा सकता है मगर उसकी को समझना बड़ा कठिन काम है, क्योंकि यह गति दिशा-निरपेक्ष होती है. समकालीन कवियों के एक अच्छे बड़े समूह की दिशाहीनता इसी वेग का परिणाम है. इस भावनात्मक वेग के काव्यात्मक उपकरणों को पहचानना बहुत मुश्किल काम नहीं है. आत्मोद्रेक की काव्य-शैली इसी भावनात्मक वेग से बनती है. उसकी नाटकीयता में आत्मसाक्षात्कार के घनीभूत क्षण बिरले ही होते हैं. राजकमल की आत्मोद्रेकपूर्ण काव्य-शैली के नकलची शायद ही उन घनीभूत क्षणों को पा सकेंगे जिसमें राजकमल का कवि अपने अनुभवों के सम्मुख अकेला था. फिर आत्मोद्रेक की यह काव्य-शैली वेग में जिस स्वाभाविक ढंग से अपने को तोड़ लेती है, आत्मक्षय करती है उसे दूसरे कहाँ से पाएँगे. वे बंदिशों को तोड़कर भी यह स्वाभाविक आत्म-विभाजन पैदा नहीं कर सकेंगे. राजकमल के लिए आत्मोद्रेक काव्य की शैली नहीं है, अनुभव का बंध (Mode of experience) है.

‘मुक्ति-प्रसंग’ में दो स्तरों पर काव्य-भाषा के अलग-अलग रूप मिलते हैं. उसका तंत्र अलग है. उनका व्यावहारिक रूप एक दूसरे से भिन्न है. यह द्विरूपता राजकमल की कविता में विशेष मानसिक तनाव के भीतर की अनिवार्यता अनिवार्यता है जो कि कविता में नहीं थी. ‘मुक्ति-प्रसंग’ में जहाँ एक ओर उपचार्हीं सीधी साहित्यिक संस्कार वाली बोलचाल की भाषा है, दूसरी ओर वही तंत्र के सिद्धपीठ की भाषा भी है, उसी क्षेत्र के रूपक हैं, काव्य-प्रकरण (allusions) हैं. मैं इस विशेष मनःस्थिति के भीतर के उपचारों की चर्चा एक विशेष कारण से कर रहा हूँ. इसी भीतरी-सन्दर्भ की कृच्छता चाहे जितनी संदेहजनक लगे, मगर आज की मानसिक परिस्थिति में यह असम्भाव्य नहीं है. आत्मीयता राजकमल की काव्य भाषा में, सीधी-सादी तेवर वाली भाषा भी है, मुहावरे समकालीन जीवन के पूरे विस्तार से चुने गए हैं.

 

mukti-prasang

मुक्ति-प्रसंग: एक और देह गाथा

By सुरेंद्र चौधरी

ज्याँ जेने पर सार्त्र ने अपनी पुस्तक के मार्फ़त लोगों को चौंकाया था, यों पुस्तक चौंकाने के लिए नहीं लिखी गयी थी जितनी एक विशिष्ट उद्देश्य से, अस्तित्वादी मनोविश्लेषण को उदाहृत-व्यवस्थित करने के लिए लिखी गयी थी. मुक्ति-प्रसंग में अज्ञेय का एक पत्रांश उद्धृत किया गया है और इसका कोई सम्बन्ध इस पुस्तक से नहीं है-कवि से उसके सम्बन्ध की बाबत मैं यहाँ नहीं कह रहा- इसलिए उसे हम चौंकाने, परिभाषित करने या बहलाने वाला वक्तव्य नहीं मान सकते. क्या अज्ञेय जी का यह कथन कि ‘मृत्यु का स्वीकार, मैं मानता हूँ, आत्मा की या यह न पसंद हो तो कहूँ कि चेतना की एक गहरी आवश्यकता है; और उस स्वीकार में एक तरह की स्वस्थता भी मिलती है,’ ‘मुक्ति-प्रसंग’ की रचना का वैचारिक आधार बन सका है? क्या राजकमल चौधरी की प्रस्तुत रचना के सन्दर्भ में उसकी कोई अनिवार्यता है? क्या हम ‘मुक्ति-प्रसंग’ की वस्तु से उसका कोई आत्मिक सम्बन्ध जोड़ सकते हैं?

‘मुक्ति-प्रसंग’ नाम से जैसा कि कुछ दिनों पूर्व तक प्रपद्यवादी मानते रहे हैं, इसकी सार्थकता प्रमाणित हो पाती है कि किन्तु नामों का भ्रम अक्सर व्यवहार में हुआ करता है. तत्काल हम नाम-माहात्म्य पर न जाएँ. चूँकि मृत्यु पूरी कविता की मनःस्थिति को परिभाषित करती है और उसके मानसिक सन्दर्भ में व्याप्त है, इसलिए मृत्यु की वास्तविकता पर बहस नहीं की जा सकती. किन्तु मृत्यु की प्रत्यक्षता से इनकार नहीं कर सकते. यह कहना भी झटके से संभव नहीं है कि ‘मुक्ति-प्रसंग’ में न तो मृत्यु को स्वीकार करने की क्षमता स्पष्ट हो पाती है और न उसे स्वीकार के साथ अलग कर देने की. हाँ, तत्काल ऐसा जरुर लगता है कि मृत्यु के केन्द्रीय मूड में एक ‘ओनानिस्टिक’ ऐन्द्रजालिक श्रृंखला है जो हमें अतिक्रांत करती है- कभी इस आत्मविगलन से हम खीजते हैं, कभी उसकी गहराईयों में झाँकने को विवश होते हैं. कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि मृत्यु को स्वीकारने की अपेक्षा जीवन को नकारने में कवि अधिक सक्षम है. क्या राजकमल का देवता ‘मुक्ति’ नहीं है, नकारत्मक स्वतंत्रता, ‘पॉइंटलेस फ्रीडम’ है?  क्या राजकमल मृत्यु के वास्तविक सन्दर्भ में भी अपने पाताल लोक की संवेदना से मुक्त नहीं हो सका?

मृत्यु को स्वीकार कर उसे अलग कर देने की बात अज्ञेय जी ने जिस ‘हाइडेगेरियन’ स्तर से कही थी, लगता है राजकमल उसे ‘मिस’ कर गया. आत्मविषाक्त और आत्मविगलित अल्पनाएँ पूरी कविता के रूप पर इस तरह हावी हो गईं हैं कि मालूम पड़ता है जैसे उनके बीच अच्छी पंक्तियाँ, अच्छे टुकड़े अथवा कोई सशक्त मानस-प्रवाह दब कर रह गया. बहुत हद तक डॉ. माचवे के इस मंतव्य से सहमत हुआ जा सकता है कि कविता का निष्कर्ष न तो अज्ञेय जी की धारणाओं से संभव हो पाया और न कवि के अपने नकारात्मक वेग से ही. कुछ अनिश्चयात्मक स्थिति बनी रह जाती है. यह अनिश्चय मुक्ति और वरण दोनों के लिए नकारात्मक सिद्ध हो सकता है. फलतः राजकमल मुक्ति के रूप में अपने लिए जो मांग रखता है वह निरर्थक है, एक लम्बे और भावनात्मक काव्य-कर्म की यह निरर्थकता क्या बहुतों के लिए दुःखद नहीं होती?

अपने लिए व्यक्तिगत विश्वासों की एक दुनिया गढ़ लेना और उसमें रहते हुए वास्तविकता को पूरे आत्मवेग के साथ नकारते चलना जितना आसान है, मृत्यु के सन्दर्भ में उसका दबाव झेलना उतना ही मुश्किल. इतना ही नहीं, ज्यां जेने की तरह ही राजकमल भी जब विश्वासों की एक दुनिया गढ़ने के साथ अपने लिए कुछ ‘रिचुअल्स’ भी गढ़ने लगता है, तब समीक्षक के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह इन क्रियाओं की आत्मिकता को केवल खारिज करने की उतावली न करे. जैन-धर्म-मन्त्रों के साथ गिन्सबर्ग तो आए हैं किंतु जेने नहीं आया, मगर क्या आंतरिक रूप से राजकमल जेने के समीप नहीं है? इसे कुछ लोग दूर की कौड़ी समझ सकते हैं.

राजकमल अपने लिए जिस दुनिया की मांग करता है उसकी कोई व्यवस्थित तस्वीर या नैतिक अनिवार्यता भी उसके दिमाग में है या वह केवल नकारना जानता है? पुस्तक की अंतिम कुछ पंक्तियों का स्वर ‘ऐम्वीवैलेन्ट’ है. वैसे विद्रोह इतना नकारत्मक नहीं होता, और फिर मुक्ति-प्रसंग विद्रोह की कविता कहाँ है? वह तो अनुभव के एक नितांत आतंरिक स्तर पर मृत्यु को स्वीकार कर जाने का दर्शन है! स्पष्ट है कि अज्ञेय का मंतव्य राजकमल की चेतना में प्रवेश करने से रह गया है, शायद उसकी दुनिया में यह मंतव्य है ही नहीं! जब वह कहता है कि ‘ मैं इस शव के गर्भ में हूँ और यह शव मेरे कन्धों पर है’, तब ऐसा लगता है कि अज्ञेय जी के शब्द उसकी चेतना पर ‘फलैट’ पड़ रहे हैं!

नकार के इस अबाध वेग के बावजूद इस प्रसंग में एक आर्द्र करने वाली आन्तरिकता है. यह आन्तरिकता कैसे परिभाषित होती है? क्या राजकमल के विश्वासों में? उसके पास विशवास नहीं है! वरण में? वरण की आत्मक्षमता भी उसमें वैसी उत्कट नहीं है! फिर? इस आन्तरिकता को न तो उसके नकार के दर्शन से परिभाषित किया जा सकता है और न ही उसकी स्वीकारात्मक शाब्दिक भूमिकाओं से ही. यह अनिवार्यता बनती है वस्तुतः जीने की उसकी लालसा से, इसी से वह परिभाषित भी होती है. जिजीविषा और मुमुक्षा तो राजकम के लिए केवल पारिभाषिक शब्द हैं!

मृत्यु की भयावहता का गहराता हुआ रंग पूरी कविता पर तो नहीं, मगर उसके कुछ अंशों पर तो इतना है कि केवल उन अंशों से जीवन के प्रति उसकी निर्लसता का वक्तव्य खंडित हो जाता है. ‘एनेस्थेशिया’ के प्रभाव की तरह यह रंग नीला है, मृत्यु का रंग, कूलक्षय करती हुयी नदी का रंग, असीम आकाश का रंग, अपूर्ण, अपनी कामनाओं से विवश स्त्री का रंग! आत्म-स्वीकृतियों में जरुर इमानदारी और सच्चाई है जो कवि को उनके प्रति मुक्त करती हुई मालूम पड़ती है. मसलन,

नदी के किनारे वापस चले आना, तुम्हारी नियति है,

हर बार प्रत्यागमन

वह आदि वर्ण वह नीलापन

तुम कभी नहीं पाओगे अपराजित कभी.

या…

 

सबके लिये सबके हित में

अस्पताल चला गया राजकमल चौधरी

लिखने-पढ़ने, गाँजा-अफ़ीम-सिगरेट पीने

मरने का अपना एकमात्र कमरा अंदर से बन्द करके

दोपहर दिन के पसीने, पेशाब, वीर्यपात

मटमैले अँधेरे में लेटे हुये

धुँआ, क्रोध, दुर्गंधियाँ पीते रहने के सिवा

जिसने कोई बड़ा काम नहीं किया

अपनी देह

अथवा अपनी चेतना में

इस उम्र तक.

यह आत्म-विवृति कभी आंतरिक अनुभव के स्तर पर गहरे अवसादक प्रभाव उत्पन्न करती है. जैसे इन पंक्तियों में:

जटिल हुए, किन्तु

कोई भी प्रतिमा बनाने योग्य नहीं हुए

उसके अनुभव!

अपने आन्तरिक और निकटतम देश में घूमता हुआ यह व्यक्ति कभी-कभी गहरी आत्मलीनता में गहरे मानवीय अर्थों के प्रति अवाचक सचेत हो गया-सा मालूम पड़ने लगता है. यों उसे अपनी व्यर्थता का पूरा-पूरा बोध है और उस व्यवस्था का भी, जिसने उसे इतना व्यर्थ बना दिया है! इस गहरे आत्मबोध से कवि से स्वर में निजता के साथ वास्तविक गहराई आ जाती है.

नहीं करूँगा औरों के अपराध

मेरे वकील और मेरे न्यायाधीश यहाँ नहीं

उस सफ़ेद ठण्ड कमरे में प्रतीक्षारत हैं मेरे लिए

यहाँ नहीं बोलूँगा

सफाई के वकील, अभी मैं चुप हूँ.

और अभी मैं चिंताग्रस्त हूँ.

इस चिंताग्रस्त मानस के कई मानसिक आयाम हो सकते हैं, वस्तुतः हैं. राजकमल खुद भी एक खुली पुस्तक है, इतिहास-पुरुष चाहे वह न भी हो. इस अर्थ में मुक्ति-प्रसंग का कवि पारदर्शी है, इसे उसकी कविताओं से भी जाना जा सकता है. गहरी होती मृत्यु-छायाओं के बीच भी राजकमल पारदर्शी है, रहस्य के रंग भरना उसे नहीं आता.

राजकमल की आन्तरिक्ता को इन थोड़े-से उदाहरणों से मैंने परिभाषित नहीं किया, वस्तुतः वह परिभाषा की चीज भी नहीं है. मगर हिंदी कविता के समकालीन स्वरुप से वह इस अर्थ में भिन्न है कि उसका त्रास, अकेलापन, मृत्यु से साक्षात्कार और इन सब मनःस्थितियों में जूझता हुआ कवि-मानस ‘फ़ेक’ नहीं है. इसी वास्तविकता ने मुक्ति-प्रसंग को दर्शन की रिक्तता की सीमाओं के बावजूद पठनीय बना दिया है.

***

सर्व-प्रथम, आलोचना, १९६७ के किसी अंक में प्रकाशित. फिर, उदयशंकर द्वारा संपादित सुरेंद्र चौधरी के प्रकाशित लेखों के संकलन के तीसरे भाग, ‘साधारण की प्रतिज्ञा: अँधेरे से साक्षात्कार’ में पुनर्प्रकाशित.

 

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