बेरोजगारी में स्त्रियां और नौकरी में क्रांति : अविनाश मिश्र
आभासी पटल (सोशल साइट्स) के बाहर ‘कुंठित मन’ की ‘निर्लज्ज अभिव्यक्तियाँ’ कितनी अमानवीय होती हैं, वह जानी-पहचानी है. अविनाश के पास ‘कूटनीति’ की भाषा नहीं है, जिसका सबसे सजग इस्तेमाल आभासी लोक-वृत्त के दायरे में किया जाता है. जिस दिन उसके पास यह आ जायेगी, वह ख़त्म हो जाएगा. यह आभासी-व्यवहार और कुछ नहीं, बल्कि हाल-चाल, दुआ-सलाम की भाषा को पाने का ही करतब है. यह भाषा आदमी को दलाल, अवसरवादी, व्यवसायी बना सकती है लेकिन रचनाकार नहीं. यह ‘सर्वधर्म-समभाव’ की सबसे उपजाऊ जमीन है. जहाँ भाषा गूगल-ट्रांसलेट हो जाती है.
अविनाश मिश्र इस समय का सबसे रचनात्मक, खतरनाक और ‘आत्मघाती’ स्फुटन है. तमाम आपत्तियों और बदनामियों के बावजूद उसे पसंद किया जाता है. वह रेयर है. तिरछीस्पेल्लिंग पर अविनाश की यह पहली प्रस्तुति है.
नए शेखर की जीवनी
By अविनाश मिश्र
…कई कविताओं की राख से एक जीवन पैदा हुआ। जीवित रहने के लिए कविताएं जलानी पड़ती हैं। जीवन सारी योजनाओं के केंद्र में नजर आता है और कविताएं सारी योजनाओं से बाहर। जीवन को बनाया जाता है और कविताएं खुद बन जाती हैं। खुद बनना संसार में सम्मान का सबब है। लेकिन खुद बनना सारी योजनाओं से बाहर होना है।
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एक अर्से से शेखर के अतीत में किसी ने रुचि नहीं ली। सब उसके भविष्य की योजनाएं जानना चाहते हैं। …और उसका वर्तमान, वह कुछ ऐसा है, जैसे आंखें बहुत वक्त तक अंधेरे में रहने के बाद जल्द ही उजाले की अभ्यस्त नहीं हो पातीं। नाजिम हिकमत की जुबां में :
उसे नहीं मालूम क्या है उसके भविष्य के भीतर
वह तो मैं ही जानता हूं उसका भविष्य
क्योंकि मैंने जिएं हैं वे सभी विश्वास जिन्हें जिएगा वह
मैं उन शहरों में रह चुका हूं जहां रहेगा वह
मैं उन औरतों से कर चुका हूं प्रेम जिनसे करेगा वह
मैं सो चुका हूं उन जेलों में जहां सोएगा वह
मैं झेल चुका हूं उसकी तमाम बीमारियां
उसकी तमाम नींदें सो चुका हूं
देख चुका हूं उसके तमाम स्वप्न
आखिरकार वह खो देगा वह सब कुछ
जो मैंने खोया है जीवन भर
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‘भावनात्मक भूलें भविष्य को स्वर्णिम बनाएंगी’ यह यकीन शेखर के अद्यतन में अतीत हो गया है। भविष्य भावनाओं को रौंद देता है। गहरे आत्मान्वेषण के क्षण भी विदा होते हैं। अनियमितताएं नियमित हो जाती हैं। रातें अपनी कहलाती हैं, लेकिन उनका होना बेवक्त हो जाता है।
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शेखर ने सीखा है कि प्रेम के तनाव अंतत: सुखद होते हैं। प्रेम में ‘नहीं’ से सही और कोई शब्द नहीं। जब कोई पूछे, ‘‘प्रेम करते हो या नहीं?’’ तब ‘नहीं’ से सही और कोई शब्द नहीं।
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हे प्रभु !
बिल्लियों को आवारगी दो
और शेखर को वे रास्ते जो वे काट देती हैं।
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जल कभी लौटता नहीं और यही उसके अस्तित्व का वैभव है।
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नदी का सुख जल नहीं यात्रा है।
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शेखर ‘कहीं नहीं’ गया। ‘कहीं नहीं’ जाना सही से जाना है। कई बार ‘कहीं नहीं’ जाना भर पर्याप्त होता है, मूर्खों के प्रति अपनी असीम घृणा अभिव्यक्त करने के लिए।
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शेखर ने प्रेम के बहाने किए और रुका वहां, जहां रुकना चाहता था। अपने पैदल साथियों को छोड़कर वह कभी कार की तरफ नहीं लपका। रेलगाड़ियां उसे ले जाना चाहती थीं न जाने कहां, लेकिन उसने नफरत के रास्ते नहीं चुने। प्रेम के बहाने किए और रुका वहां, जहां रुकना चाहता था। शेखर पागल थोड़ा नहीं है, अर्थात् बहुत है।
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शेखर 18 दिन से एक ही जींस पहन रहा है और तीन साल से एक ही चप्पल। घर में पत्नी उससे खुश है और बाहर मोची। मकान-मालिक उससे संसार की तरह नाखुश है।
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शेखर जब 12वीं में पढ़ता था, तब उस लड़की के साथ भागा था जो आज उसकी पत्नी है। उसकी पत्नी को बड़ी झाड़ू चाहिए थी। उसने कहा, ‘‘शेखर, आस-पास और समाज में गंदगी बहुत है। मुझे एक बड़ी झाड़ू चाहिए।’’ उन दिनों वह अजय देवगन जैसा लगता था और अजय देवगन उसके जैसा— प्रेमी, आशिक, आवारा, पागल, मजनूं, दीवाना… ‘फूल और कांटे’ उसने 11 बार देखी थी। ‘फूल और कांटे’ टाइप फिल्मों के आशिक बहुत बदतमीज होते थे। वे लड़कियों को सरेआम जलील करते थे। लेकिन लड़कियां अंततः इन्हीं बदतमीजों से शादी करती थीं, क्योंकि ये बदतमीज खलनायकों से नहीं डरते थे। ऐसे आशिक बुराई पर बदतमीजी की जीत के उदाहरण थे और ऐसी लड़कियां बुराई पर झाड़ू की जीत की प्रतीक थीं।
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शेखर को श्रम अच्छा लगता है, स्वीकृति नहीं। तनख्वाह अच्छी लगती है, पुरस्कार नहीं। शेखर अपने अधिकारों से ज्यादा अपनी जिम्मेदारियों के बारे में सोचता है। वह रविवार से ज्यादा सोमवार के बारे में सोचता है। वह जानता है कि नौकरियां बदलने से दुनिया नहीं बदलती।
…जब शेखर बेरोजगार था तब एक दोस्त ने उससे कहा कि जब नौकरी करोगे तो सारी क्रांति हवा हो जाएगी। दोस्तों की दुनिया में क्रांति नहीं थी। क्रांति केवल स्त्रियों की दुनिया में थी। स्त्रियां दोस्त नहीं थीं। दोस्त क्रांतिहीन और नौकरीशुदा थे। वे एकांत में कभी-कभी क्रांति करने की कोशिश करते थे, लेकिन इसके लिए उन्हें स्त्रियों की जरूरत पड़ती थी। कहने का आशय यह कि बेरोजगारी और स्त्रियों के बगैर क्रांति संभव नहीं थी। लेकिन बेरोजगारी में स्त्रियां और नौकरी में क्रांति संभव नहीं थी।
शेखर को नौकरी अच्छी लगती है, नौकरशाह नहीं। शेखर पागल थोड़ा नहीं है, अर्थात् बहुत है।
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महत्वाकांक्षा अच्छी चीज है, लेकिन शेखर में नहीं है— उन सारी चीजों की तरह जो अच्छी समझी जाती हैं, लेकिन शेखर में नहीं हैं। वह होश संभालते ही हिसाब में कमजोर हो गया। अब सारा संसार उसे उलझाता रहता है। उसे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं…।
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शेखर अब ज्यादा पी नहीं पाता। ऊब जाता है।
वह इससे व्याकुल नहीं है, व्याकुल है इससे कि यह तथ्य अब गोपनीय नहीं है।
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शेखर जब भी एक उल्लेखनीय शास्त्रीयता अर्जित कर संप्रेषण की संरचना में लौटा है, उसने अनुभव किया है कि सामान्यताएं जो कर नहीं पातीं उन्हें अपवाद मान लेती हैं और जो उनके वश में होता है उसे नियम…। वह मानता है कि प्रयोग अगर स्वीकृति पा लेते हैं, तब बहुत जल्द रूढ़ हो जाते हैं। इससे जीवन-संगीत अपने सतही सुर पर लौट आता है। इसलिए वह ऐसे प्रयोगों से बचता है जो समझ में आ जाएं।
शेखर बहुत-सी भाषाएं केवल समझता है, बोल नहीं पाता। शेखर पागल थोड़ा नहीं है, अर्थात् बहुत है।
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मुश्किल में फंसे लोगों को शेखर कभी अपना उदाहरण नहीं देता। दूसरे उसका उदाहरण देते हैं, लेकिन वह खुद नहीं देता। वह बीमारों को दवा देता है, उनसे यह नहीं कहता कि मैं भी कभी बीमार था और कोई नहीं था मेरे सिरहाने। बाद में ये बीमार दूसरे बीमारों को शेखर का उदाहरण देते हैं, लेकिन वह खुद नहीं देता। वह बीमारों को दवा देता है, उदाहरण नहीं।
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सारी घड़ियों में कोई शेखर का पीछा करता है। घर से निकलता है वह तो पड़ोस से भी निकलता है एक आदमी और कुछ दूर तक पीछे आ अदृश्य हो जाता है। एक लड़की साथ पकड़ती है बस और भर सफर साथ रहती है। वह जाना चाहती है उससे आगे, वह जाती है उससे आगे— उसकी शुभकामनाओं के बगैर भी। …आदेश, योजनाएं, कार्रवाइयां, धमकियां और बीमारियां पीछा करती हैं। खबरें पीछा करती हैं। स्वार्थ पीछा करते हैं। कुंठाएं, आशंकाएं, समीक्षाएं, कलाएं और स्मृतियां पीछा करती हैं। जहां भी जाता है कोई न कोई, कुछ न कुछ पीछा करता है— नींद में भी भागता है, जागता है पसीने से तर-ब-तर, एक दु:स्वप्न पीछा करता है।
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शेखर मानता है कि ईश्वर को न मानना एक अवगुण है। उसे उन सारे विचारों से घृणा है जो उससे उसका ईश्वर छीनते हैं। उसका ईश्वर दर्शक-दीर्घा में हंसता हुआ एक त्रासद व्यक्तित्व और एक प्रतिभावान निर्देशक है। इस निर्देशन में शेखर जो कर चुका है, वह एक असफल फिल्म है। जहां ठहरा हुआ है, वह एक प्रदीर्घ मध्यांतर है। जहां जाना चाहता है, वह एक तनावपूर्ण कलाइमेक्स है।
शेखर के हाथों में चीजें कम हैं, पैरों में ज्यादा।
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[ इस कथ्य के शीर्षक के लिए अज्ञेय के दो खंडों में प्रकाशित उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’ और नाजिम हिकमत की कविता-पंक्तियों के अनुवाद के लिए लेखक वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल का कृतज्ञ है। ]
इस सुन्दर,काव्यात्मक आलेख के लिए अविनाश को हार्दिक बधाई !
शानदार
विरल और विचारोत्तेजक।
नदी का सुख जल नहीं यात्रा है।
महत्वाकांक्षा अच्छी चीज है, लेकिन शेखर में नहीं है—
शेखर जब भी एक उल्लेखनीय शास्त्रीयता अर्जित कर संप्रेषण की
संरचना में लौटा है …/वह ऐसे प्रयोगों से बचता है जो समझ में आ जाएं।
उसे उन सारे विचारों से घृणा है जो उससे उसका ईश्वर छीनते हैं।
उसका ईश्वर दर्शक-दीर्घा में हंसता हुआ एक त्रासद व्यक्तित्व और एक
प्रतिभावान निर्देशक है।
जब शेखर बेरोजगार था तब एक दोस्त ने उससे कहा कि जब नौकरी करोगे तो सारी क्रांति हवा हो जाएगी। दोस्त क्रांतिहीन और नौकरीशुदा थे। शेखर को नौकरी अच्छी लगती है, नौकरशाह नहीं।
आखिरकार वह खो देगा वह सब कुछ …जो मैंने खोया है जीवन भर (-नाज़िम हिकमत जी की पूरी कविता ही एक ज़िंदा दस्तावेज़ ही है। )
//अविनाश जी आपकी इस बे-तरतीबियत में भी हमारे समय की ठोस तरतीब है जो कम तो नहीं !/
पंक्तियाँ खींचती है.रुक नही पाते.लगता है और ..थोडा और पढने को मिल जाए..
AVINASH MISHRA, IT’s GREAT CREATIVITY, RARE & UNIQUE.—PANKAJ CHATURVEDI, SAGAR
kya likhte ho avinash mishra…..ek baay to laga ki fir se agyey likhne lage…
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